@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: श्रमजीवी
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मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

यह हड़ताल एक नया इतिहास लिखेगी

ज और कल देश के 11 केन्द्रीय मजदूर संगठन हड़ताल कर रहे हैं। उन के साथ आटो, टैक्सी बस वाले और कुछ राज्यों में सरकारी कर्मचारी भी हड़ताल पर जा रहे हैं।  केन्द्रीय संगठनों ने इस दो दिनों की हड़ताल की घोषणा कई सप्ताह पहले कर दी थी।  सरकार चाहती तो इस हड़ताल को टालने के लिए बहुत पहले ही केन्द्रीय संगठनों से वार्ता आरंभ कर सकती थी। लेकिन उस ने ऐसा नहीं किया। वह अंतिम दिनों तक हड़ताल की तैयारियों का जायजा लेती रही। जब उसे लगने लगा कि यह हड़ताल ऐतिहासिक होने जा रही है तो हड़ताल के तीन दिन पहले केन्द्रीय संगठनों से हड़ताल न करने की अपील की और एक दिखावे की वार्ता भी कर डाली।  न तो सरकार की मंशा इस हड़ताल को टालने की थी और न ही वह इस स्थिति में है कि वह मजदूर संगठनों की मांगों पर कोई ठीक ठीक संतोषजनक आश्वासन दे सके।  इस का कारण यह है कि यह हड़ताल वास्तव  में वर्तमान केन्द्र सरकार की श्रमजीवी जनता की विरोधी नीतियों के विरुद्ध है। श्रम संगठन तमाम श्रमजीवी जनता के लिए राहत चाहते हैं। जब कि सरकार केवल पूंजीपतियों के भरोसे विकास के रास्ते पर चल पड़ी है चाहे जनता को कितने ही कष्ट क्यों न हों। वह इस मार्ग से वापस लौट नहीं सकती।  सरकार की प्रतिबद्धताएँ देश की जनता के प्रति होने के स्थान पर दुनिया के पूंजीपतियों और साम्राज्यवादी देशों के साथ किए गए वायदों के साथ है। 
लिए देखते हैं कि इन केन्द्रीय मजदूर संगठनों की इस हड़ताल से जुड़ी मांगें क्या हैं?

  1. महंगाई के लिए जिम्मेदार सरकारी नीतियां बदली जाएं
  2. महंगाई के मद्देनजर मिनिमम वेज (न्यूनतम भत्ता) बढ़ाया जाए
  3. सरकारी संगठनों में अनुकंपा के आधार पर नौकरियां दी जाएं
  4. आउटसोर्सिंग के बजाए रेग्युलर कर्मचारियों की भर्तियां हों
  5. सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी प्राइवेट कंपनियों को न बेची जाए
  6. बैंकों के विलय (मर्जर) की पॉलिसी लागू न की जाए
  7. केंद्रीय कर्मचारियों के लिए भी हर 5 साल में वेतन में संशोधन हो
  8. न्यू पेंशन स्कीम बंद की जाए, पुरानी स्कीम ही लागू हो 
मांगो की इस फेहरिस्त से स्पष्ट है कि केन्द्रीय मजदूर संगठन इस बार जिन मांगों को ले कर मैदान में उतरे हैं  वे आम श्रमजीवी जनता को राहत प्रदान करने के लिए है।  

स बीच प्रचार माध्यमों, मीडिया और समाचार पत्रों के माध्यम से सरकार यह माहौल बनाना चाहती है कि इस हड़ताल से देश को बीस हजार करोड़ रुपयों की हानि होगी।  जनता को कष्ट होगा।  वास्तव में इस हड़ताल से जो हानि होगी वह देश की न हो कर पूंजीपतियों की होने वाली है।  जहाँ तक जनता के कष्ट का प्रश्न है तो कोई दिन ऐसा है जिस दिन यह सरकार जनता को कोई न कोई भारी मानसिक, शारीरिक व आर्थिक संताप नहीं दे रही हो। यह सरकार पिछले दस वर्षों से लगातार एक गीत गा रही है कि वह महंगाई कम करने के लिए कदम उठा रही है। लेकिन हर बार जो भी कदम वह उठाती है उस से महंगाई और बढ़ जाती है। कम होने का तो कोई इशारा तक नहीं है। 
हा जा रहा है कि मजदूरों और कर्मचारियों को देश के लिए काम करना चाहिए।  वे तो हमेशा ही देश के लिए काम करते हैं। पर इस सरकार ने उन के लिए पिछले कुछ सालों में महंगाई बढ़ाने और उन को मिल रहे वेतनों का मूल्य कम करने के सिवा किया ही क्या है? ऐसे में वे भी यह कह सकते हैं कि जिस काम के प्रतिफल का लाभ उन्हें नहीं मिलता वैसा काम वे करें ही क्यों? 
मित्रों! यह हड़ताल देश की समस्त श्रमजीवी जनता के पक्ष की हड़ताल है और यह हड़ताल कैसी भी हो लेकिन इस हड़ताल का ऐतिहासिक महत्व होगा क्यों कि यह शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमजीवी वर्गों का शंखनाद है और इस बार सभी रंगों के झण्डे वाले मजदूर संगठन एक साथ हैं। यह हड़ताल एक नया इतिहास लिखेगी और भविष्य के लिए भारतीय समाज को एक नई दिशा देगी।


मंगलवार, 29 जनवरी 2013

दुनिया के सभी श्रमजीवी एक कौम हैं।

ब किसी ऐसे कारखाने में अचानक उत्पादन बंद हो जाए, जिस में डेढ़ दो हजार मजदूर कर्मचारी काम करते हों और प्रबंधन मौके से गायब हो जाए तो कर्मचारी क्या समझेंगे? निश्चित ही  मजदूर-कर्मचारी ही नहीं जो भी व्यक्ति सुनेगा वही यही सोचेगा कि कारखाने के मालिक अपनी जिम्मेदारी से बच कर भाग गए हैं।   इस दीवाली के त्यौहार के ठीक पहले पिछली पांच नवम्बर को यही कुछ कोटा के सेमटेल कलर लि. और सेमकोर ग्लास लि. कारखानों में हुआ।  गैस और बिजली के कनेक्शन कट गए।  प्रबंधन कारखाने को छोड़ कर गायब हो गया।  मजदूर कारखाने पर ड्यूटी पर आते रहे। कुछ कंटेनर्स में रिजर्व गैस मौजूद थी। कुछ दिन उस से कारखाने के संयंत्रों को जीवित रखा।  फिर खतरा हुआ कि बिना टेक्नीकल सपोर्ट के अचानक प्रोसेस बंद हो गया तो विस्फोट न हो जाए।  फिर भी प्रबंधन न तो मौके पर आया और न ही उस ने कोई तकनीकी सहायता उपलब्ध कराई।  जैसे तैसे मजदूरों ने अपनी समझबूझ और अनुभव से कारखाने के प्रोसेस को बंद किया।  तीन माह हो चले हैं प्रबंधन अब भी मौके से गायब है।

ब कंपनी का चेयरमेन कहता है कि कारखानों के उत्पादों की बाजार में मांग नहीं है इस लिए उन्हें नहीं चलाया जा सकता।  सारी दुनिया इस बात को जानती है कि कारखाने और उद्योग अमर नहीं हैं।   वे आवश्यकता होने पर पैदा होते हैं और मरते भी हैं, उन की भी एक उम्र होती है।  इन कारखानों के साथ भी ऐसा ही हुआ है और यह कोई नई घटना नहीं है।  सभी उद्योगों के प्रबंधकों को अपने कारखानों के बंद होने की यह नियति बहुत पहले पता होती है।  वे जानते हैं कि उन के उत्पाद के स्थान पर एक नया उत्पाद बाजार में आ गया है, जल्दी वह उन के उद्योग के उत्पाद का स्थान ले लेगा और उन का कारखाना अंततः बंद हो जाएगा।  उन्हें चाहिए कि वे कारखाने को बंद करने की प्रक्रिया तभी आरंभ कर दें।   अपने कर्मचारियों और मजदूरों को बताएँ कि उन की योजना क्या है? और वे कब तक कर्मचारियों को रोजगार दे सकेंगे? जिस से कर्मचारी अपने लिए काम तलाशने की कोशिश में जुट जाएँ। जब तक उन्हें इन कारखानों में काम मिलना बंद हो वे अपने रोजगार की व्यवस्था बना लें।  जब वे नए रोजगार के लिए जाने लगें तो उन्हें उन का बकाया वेतन, ग्रेच्युटी और भविष्य निधि आदि की राशि नकद मिल जाए।  

लेकिन कोई कारखानेदार ऐसा नहीं करता।  वह कर्मचारियों और मजदूरों में यह भरोसा बनाए रखने का पुरजोर प्रयत्न करता है कि कारखाना बंद नहीं होगा।  वे कैसे भी उसे चलाएंगे।  हालांकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे प्रकृति से नहीं लड़ सकते और कारखाना अवश्य बंद होगा।  तब प्रबंधक उद्योग में लगी पूंजी से अधिक से अधिक धन निकालने लगते हैं।  उसे खोखला करने पर उतर आते हैं।  कोशिश करते हैं कि वित्तीय संस्थाओं से अधिक से अधिक कर्ज लें।  इस के लिए वे कारखाने की सभी संपत्तियों को गिरवी रख देते हैं।  अंत में उद्योग की संपत्तियों पर भारी कर्ज छूट जाता है इतना कि उस से किसी तरह कर्ज न चुकाया जा सके, और छूट जाते हैं मजदूरों कर्मचारियों के बकाया वेतन, ग्रेच्यूटी और भविष्य निधि की राशियाँ।  उ्द्योगों के ये स्वामी कर्मचारियों को जो वेतन देते हैं उस में से भविष्य निधि, जीवन बीमा आदि के लिए कर्मचारियों के अंशदान की कटौती करते हैं लेकिन उन्हें भविष्य निधि योजना और जीवन बीमा आदि को जमा नहीं कराते।  ये भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अमानत में खयानत/गबन का गंभीर अपराध है।  पर कोई पुलिस उन के इस अपराध का प्रसंज्ञान नहीं लेती। 

द्योगिक कंपनी एक दिन बीमार कंपनी बन जाती है और बीमार औद्योगिक कंपनियों के पुनर्वास बोर्ड को आवेदन करती है कि उसे बचाया जाए। अजीब बात है यहाँ वक्त की मार से मरने वाले उद्योग का खाना खुराक  समय से पहले बंद कर के उसे मारने का पूरा इंतजाम किया जाता है और फिर उसे बीमार और यतीम बना कर समाज के सामने पेश कर दिया जाता है कि अब उसे बचाने की जिम्मेदारी समाज की है।  यही आज का सच है।   आज अधिकांश उद्योग आधुनिक हैं और उन में उत्पादन की प्रक्रिया सामाजिक है। सैंकड़ों हजारों लोग मिल कर उत्पादन करते हैं। उन के बिना उत्पादन संभव नहीं, लेकिन उन में से कोई भी न तो उत्पादन के साधनों का स्वामी है और न ही उत्पादित माल की मिल्कियत उस की है। उत्पादन के साधनों और उत्पादित माल दोनों पर पूंजीपतियों का स्वामित्व है जिन के बिना भी ये चल सकते हैं, जो खुद अपने ही किए से बिलकुल बेकार की चीज सिद्ध हो चुके हैं। 

मारी सरकारें, वे राज्यों और केंद्र में बैठी सिर्फ आश्वासनों की जुगाली करती हैं।  वे बीमार कंपनियों को स्वस्थ बनाने के अस्पताल के नाम पर बीआईएफआर और एएआईएफआर जैसी संस्थाओं को स्थापित करती हैं।  वे इस बात की कोई व्यवस्था नहीं करतीं जिस से यह पता लगाया जा सके कि वक्त की मार में कौन से उद्योग अगले 2-4-5 सालों में बंद हो सकते हैं।  यदि वे इस के लिए कोई काम करें तो फिर उन्हें यह भी व्यवस्था करनी होगी कि बंद उद्योगों के मजदूरों को कहाँ खपाया जाए, उन के लिए वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराया जाए।  यह भी व्यवस्था बनानी जाए कि बंद होने वाले उद्योग के कर्मचारियों को उन का वेतन, ग्रेच्यूटी और भविष्य निधि आदि की राशि समय से मिल जाए।  लेकिन देश और देश की जनता की ठेकेदार सरकारें ये व्यवस्था क्यों करने लगीं।  वे मजदूरों, कर्मचारियों, किसानों और श्रमजीवी बिरादरी का प्रतिनिधित्व थोड़े ही करती हैं।  जब उन की पार्टियों को वोट लेने होते हैं तभी वे सिर्फ इस का नाटक करती हैं।  उन्हें तो अपने मालिकों (पूंजीपतियों, जमींदारों और विदेशी पूंजीपतियों की चाकरी बजानी होती है।)  ये चाकरी वे पूरी मुस्तैदी से करती हैं।  वे कहती हैं उन्हों ने बकाया वेतन के लिए, बकाया ग्रेच्युटी के लिए और भविष्य निधि की राशि मजदूरों को मिले उस के लिए कानून बना रखे हैं। उन्हों ने ऐसे कानून भी बना रखे हैं जिस से बड़े कारखाने सरकार की अनुमति के बिना बंद न हों।  (छोटे कारखानों को जब चाहे तब बंद होने की कानून से भी छूट है) लेकिन कारखाने फिर भी बंद होते हैं।  मजदूरों कर्मचारियों के वेतन फिर भी बकाया है, उन की ग्रेच्यूटी बकाया है।  भविष्य निधि में नियोजक के अंशदान की बात तो दूर उन के खुद के वेतन से काटा गया अंशदान भी पूंजीपति आसानी से पचा गए हैं, डकार भी नहीं ले रहे हैं।   कानून श्रमजीवी जनता के लिए फालतू की चीज है। क्यों कि उन्हें लागू करने वाली मशीनरी के लिए सरकार के पास धन नहीं है।  थोड़ी बहुत मशीनरी है उस के पास बहुत काम हैं। वे इस काम को करेंगे तब तक खून पीने वाले ये पंछी न जाने कहाँ गायब हो चुके होंगे।  यह मशीनरी पूरी तरह से पूंजीपतियों की जरखरीद गुलाम हो चुकी है। 

तो रास्ता क्या है?  जब तक श्रमजीवी जनता केवल अपनी छोटी मोटी आर्थिक मांगों के लिए ही एक बद्ध होती रहेगी तब तक उस की कोई परवाह नहीं करेगा।  अब तो वे इस एकता के बल पर लड़ कर वेतन बढ़ाने तक की लड़ाई को अंजाम तक नहीं पहुँचा सकते।  आज राजनीति पर पूंजीपतियों और भूस्वामियों का कब्जा है। राजनीति उन के लिए होती है।  सरकारें उन के लिए बनती हैं। श्रमजीवी जनता के लिए नहीं।  श्रमजीवियों के लिए सिर्फ और सिर्फ आश्वासन होते हैं।  मजदूरों और कर्मचारियों को यह समझाया जाता है कि राजनीति बुरी चीज है और उन के लिए नहीं है,  वह केवल पैसे वालों के लिए है।  दलित और पिछड़े श्रमजीवियों को समझाया जाता है कि यह ब्राह्मण है इस ने तुम्हारा सदियों शोषण किया है, ब्राह्मण परिवार में जन्मे श्रमजीवी को समझाया जाता है कि वे जन्मजात श्रेष्ठ हैं, इस के आगे उन्हें हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसियों में बाँटा जाता है।  इस से भी काम नहीं चलता तो उन्हें मर्द और औरत बना कर कहा जाता है कि  औरतें तो कमजोर हैं और सिर्फ शासित होने के लिए हैं चाहें वे किसी उम्र हों,  चाहे घर में हों या बाहर हों। श्रमजीवियों को इस समझ से छुटकारा पाना होगा।  संगठित होना होगा।  एक कौम के रूप में संगठित होना होगा।  उन्हें समझना होगा कि दुनिया के सभी श्रमजीवी, मजदूर, किसान, कर्मचारी, विद्यार्थी, महिलाएँ एक कौम हैं।  उन्हें श्रमजीवियों की अपनी इस कौम के लिए आज के सत्ताधारी पूंजीपतियों, जमीदारों से सत्ता छीननी होगी।  ऐसी सत्ता स्थापित करनी होगी जो धीरे धीरे श्रमजीवियों के अलावा सभी कौमों को नष्ट कर दे और खुद भी नष्ट हो जाए। 

खैर, फिलहाल तीन माह हो रहे हैं सेमटेल कलर और सेमकोर ग्लास के 1800 श्रमिकों को कारखानों में खाली बैठे डटे हुए।  प्रबंधन गायब है।  वह राजधानी दिल्ली में सरकार और कानून की सुरक्षा में बैठा बैठा एलान कर रहा है कि कारखाना अब चल नहीं सकता।  वह मजदूरों की पाई पाई चुका देगा।  लेकिन कारखानों की जमीन बेच कर।  मजदूरों को पता है कंपनी पर कर्जा है, ऐसा कर्जा जो सीक्योर्ड (डेट) कहलाता है।  कानून कहता है कि पहले सीक्योर्ड क्रेडिटर का चुकारा किया जाएगा।  मालिक ने कारखाना बंद करने के बहुत बाद में सरकार को कारखाना बंद करने और  बीआईएफआर को कंपनी को बीमार घोषित करने के आवेदन पेश कर दिए हैं। सीक्योर्ड क्रेडिटरों को चुकारा करने के बाद कंपनी के पास कुछ नहीं बचना है।  सरकार कहती है कि जमीन औद्योगिक उपयोग की है और लीज पर है उसे अन्य कामों के लिए बेचा नहीं जा सकता।  औद्योगिक उपयोग के लिए बेचने पर जो रकम मिलेगी उसे सीक्योर्ड क्रेडिटर पचा जाएंगे।  मजदूरों कर्मचारियों के लिए न कोई कानून है और न कोई सरकार।  श्रम विभाग के पास केवल आश्वासन पर आश्वासन हैं।  तमाम प्रतिक्रिया वादी दल और संगठन जिन में भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस आदि सम्मिलित हैं खूब उछलकूद मचा रहे हैं कि वे मजदूरों को उन के हक दिला कर रहेंगे।  मजदूरों को चार माह से वेतन नहीं मिला है।  उन के घर किस से चल रहे हैं?  उन के बच्चे स्कूल जा रहे हैं या नहीं? किसे पता?

सोमवार, 23 जुलाई 2012

श्रमजीवी राज्य के नागरिक भी नहीं?

मारुति सुजुकी इंडिया के डीजल कार बनाने वाले मानेसर कारखाने में पिछले दिनों हुई घटनाओं से सभी अवाक् हैं।   ऐसे समय में जब कि दुनिया भर की बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ मंदी से जूझ रही है, भारतीय अर्थव्यवस्था विदेशी निवेश को ताक रही है, कोई सोच भी नहीं सकता था कि इस बड़े और कमाऊ उद्योग में ऐसी घटना भी हो सकती है जिस में बड़ी मात्रा में आगजनी हो, अधिकारी और मजदूर घायल हों किसी की जान चली जाए। कारखाने के अधिकारियों, कर्मचारियों और मजदूरों पर अचानक आतंक का साया छा जाए।  मजदूर पलायन कर जाएँ और कारखाने में अस्थाई रूप से ही सही, उत्पादन बंद हो जाए।
 
मारुति उद्योग में प्रबंधन और मजदूरों के बीच विवाद नया नहीं है।  मार्च 2011 में यह खुल कर आ गया जब ठेकेदार मजदूर अपनी यूनियन को मान्यता देने की मांग को लेकर टूल डाउन हड़ताल पर चले गए।   प्रबंधन ठेकेदार मजदूरों को अपना ही नहीं मानता तो वह इस यूनियन को मान्यता कैसे दे सकता था?  इसी मांग और अन्य विवादों के चलते सितंबर 2011 तक तीन बार कारखाने में हड़ताल हुई। सितंबर की हड़ताल में तो मारूति के सभी मजदूरों और अन्य उद्योगों के मजदूरों ने भी उन का साथ दिया।   कुछ अन्य मामलों पर बातचीत और समझौता भी हुआ, लेकिन यूनियन की मान्यता का विवाद बना रहा।  जिस से मजदूरों में बैचेनी और प्रबंधन के विरुद्ध आक्रोश बढ़ता रहा।  मजदूरों का मानना पूरी तरह न्यायोचित है कि संगठन बनाना और सामुहिक सौदेबाजी उन का कानूनी अधिकार है।   लेकिन इस अधिकार को स्वीकार करने के स्थान पर प्रबंधन ने यूनियन के नेता को तोड़ने की घृणित हरकत की।  आग अंदर-अंदर सुलगती रही और एक हिंसक रूप ले कर सामने आई।  अब एक तरफ इस घटना को ले कर प्रबंधन और सरकार की ओर से यह प्रचार किया जा रहा है कि मजदूर हिंसक और हत्यारे हैं, तो दूसरी ओर मजदूरों के पक्ष पर कोई बात नहीं की आ रही है।  एक वातावरण बनाया जा रहा है कि मजदूरों का वर्गीय चरित्र ही हिंसक और हत्यारा है।  उद्योगों के प्रबंधन और राज्य द्वारा प्रतिदिन की जाने वाली हिंसा को जायज ठहराया जा रहा है।  इस मामले में हुई एक प्रबंधक की मृत्यु को हत्या कहा जा रहा है।

कारखाने में बलवा हुआ, आगजनी हुई और एक व्यक्ति जो आगजनी से बच नहीं सका उस की मृत्यु हो गई। वह प्रबंधन का हिस्सा था, वह कोई मजदूर भी हो सकता था।   इस तथ्य पर जो तमाम सेसरशिप के बाद भी सामने आ गया है किसी का ध्यान नहीं है कि मजदूर को पहले एक सुपरवाइजर ने जातिसूचक गालियाँ दीं, प्रतिक्रिया में मजदूर ने उसे एक थप्पड़ रसीद कर दिया।  इन दो अपराधों में से जातिसूचक गाली देना कानून की नजर में भी अधिक गंभीर अपराध है, लेकिन इस अपराध के अभियुक्त को बचाया गया और थप्पड़ मारने वाले को निलंबित कर दिया गया।  उस के बाद मजदूरों ने सवाल उठाया कि बड़ा अपराध करने वाले को बचाया जा रहा है तो छोटे अपराध के लिए मजदूर को निलंबत क्यों किया जा रहा है?  उन्हों ने उसे बहाल करने की मांग की जिस से उत्पन्न तनाव बाद में बलवे में बदल गया।

क्या प्रबंधन के 500 व्यक्ति कारखाने के अंदर संरक्षित और विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति हैं?  वे शेष 1500 स्थाई और 2500 ठेकेदार मजदूरों के प्रति कोई भी अपराध करें, सब मुआफ हैं, एक मजदूर किसी तरह की शिकायत नहीं कर सकता।  करे तो उस पर न तो प्रबंधन कोई कार्यवाही करे और न ही पुलिस प्रशासन।  मजदूर किसी राजनैतिक उद्देश्य के लिए सचेत लोग नहीं, जो इरादतन काम करते हों।  लगातार दमन किसी न किसी दिन ऐसा क्रोध उत्पन्न कर ही देता है जो भविष्य के प्रति सोच को नेपथ्य में पहुँचा दे।  ऐसा क्रोध जब एक पूरे समूह में फूट पड़े तब इस तरह की घटना अस्वाभाविक नहीं, अपितु राज्य प्रबंधन की असफलता है।  मजदूर मनुष्य हैं, कोई काल्पनिक देवता नहीं, इस तरह निर्मित की गई परिस्थितियों में उन का गुस्सा फूट पड़ा तो इस की जिम्मेदारी मजदूरों पर कदापि नहीं थोपी जा सकती।  इस के लिए सदैव ही प्रबंधन जिम्मेदार होता है, जो ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है।   क्यों किसी इलाके में दंगा हो जाने पर उस इलाके के जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान को अपना कर्तव्य नहीं निभाने का दोषी माना जाता है?

स हादसे में जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई है उस की एकल जिम्मेदारी से कारखाने का प्रबंधन और सरकार नहीं बच सकती।  लेकिन बचाव का उद्देश्य मीडिया के माध्यम से प्रचार कर के घटना की जिम्मेदारी मजदूरों पर मत्थे मढ़ कर पूरा किया जा रहा है।  कारखाने के ठेकदार मजदूरों की यूनियन दो वर्ष से मान्यता के लिए लड़ रही है, लेकिन उस से कहा जा रहा है कि उन का प्रतिनिधित्व गुड़गाँव के दूसरे कारखाने की यूनियन ही करेगी।  कारखाने में स्टाफ और मजदूरों की दो अलग अलग यूनियनें हो सकती हैं, तो ठेकेदार मजदूरों की यूनियन स्थाई मजदूरों की यूनियन से अलग क्यों नहीं हो सकती?   लेकिन कारखाना प्रबंधन तो ठेकेदार मजदूरों को उद्योग का कर्मचारी ही नहीं मानता।  लगातार कामगारों के जनतांत्रिक अधिकारों की अवहेलना का परिणाम किसी दिन तो सामने आना था।  इन परिणामों को अस्वाभाविक और अपराधिक नहीं कहा जा सकता।   एक जनतांत्रिक राज्य केवल धन संपत्ति की सुरक्षा करने के लिए नहीं हो सकता।  उस का सब से महत्वपूर्ण  कर्तव्य नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करना भी है।  यदि राज्य अपने इस कर्तव्य को नहीं निभाए तो  श्रमजीवियों का यह मानना गलत नहीं कि राज्य उन्हें अपना नागरिक ही नहीं मानता।   इस मामले में राज्य अपना जनतांत्रिक कर्तव्य निभाने में पूरी तरह से असफल रहा है।  मानेसर दुर्घटना पूरी तरह से उसी का नतीजा है।

हा जा रहा है कि इस घटना के पीछे किसी तरह का षड़यंत्र नहीं है।  यदि ऐसा है तो फिर इस तथ्य को सामने आना ही चाहिए कि मजदूर समुदाय में इतना क्रोध कहाँ से पैदा हुआ था?  उस का कारण क्या था?  यदि मजदूर वर्ग को हत्‍यारा समुदाय करार दिया जाता है तो उस का केवल एक अर्थ लिया जा सकता है कि जाँच व न्याय तंत्र निर्णय पहले ही ले चुका है और अब केवल निर्णय के पक्ष में सबूत जुटाए जा रहे हैं।   इस घटना में किसी षड़यंत्र के देखे जाने पर षड़यंत्र का एक मात्र उद्देश्य यही हो सकता है कि कारखाने को हरियाणा से गुजरात स्थानान्तरित करने का बहाना तैयार किया जा रहा है।  ऐसा होने पर तो उद्योग का प्रबंधन और गुजरात सरकार ही षड़यंत्रकारी सिद्ध होंगे।  फिर यह नतीजा भी निकाला जा सकता है कि षड़यंत्र के आरोप से बचने के लिए प्रबंधन बार बार घोषणा कर रहा है कि उस का इरादा कारखाने को बंद करने या उसे गुजरात स्थानान्तरित करने का नहीं है।  किन्तु जब उद्योग की एक इकाई गुजरात में स्थापित करने का निर्णय उद्योग के प्रबंधक कर चुके हैं तो इस संभावना से इन्कार भी नहीं किया जा सकता कि निकट भविष्य में गुजरात में इकाई स्थापित होने और उस से बाजार की मांग पूरा करना संभव हो जाए तो हिंसा और श्रमिक असंतोष का बहाना बना कर हरियाणा की इकाइयों को एक-एक कर बंद कर दिया जाए। 

रविवार, 1 जनवरी 2012

शक्ति, जिस से लुटेरे थर्रा उठें

अनवरत के सभी पाठकों और मित्रों को नव वर्ष पर शुभकामनाएँ!!!
नया वर्ष आप के जीवन में नयी खुशियाँ लाए!!

भारतीय जनगण को इस वर्ष निश्चित रूप से विगत वर्षों की अपेक्षा अधिक शुभकामनाओं की आवश्यकता है। ऐसी शुभकामनाओं की जो उन्हें आने वाली विकट परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करें। विगत वर्ष हम ने भारतीय जनगण के बीच उठता एक ज्वार देखा। इस ज्वार का उभार अप्रत्याशित तो नहीं था लेकिन वह था अद्भुत। देश की राजधानी की सड़कों पर लहलहाते हुए सैंकड़ों हजारों तिरंगे। हर कोई भारत माता की जय और इन्कलाब जिन्दाबाद के नारे लगाता हुआ। ऐसा लगता था यह उभार सब कुछ बदल डालेगा। एक और नामी गिरामी लोग भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की चारदिवारी के भीतर थे तो दूसरी ओर जनता एक छोटे कद के गांधी टोपीधारी वृद्ध के पीछे चलती दिखाई देती थी। ऐसा लगता था जैसे इस देश से भ्रष्टाचार को समूल उखाड़ फेंका जाएगा। उस वृद्ध में एक दृढ़ता दिखाई देती थी। जीवन में किए गए संघर्षों और उन से प्राप्त सफलताओं की दृढ़ता। और उस दृढ़ता का नमूना हमें दिखाई भी दिया। सरकार उस वृद्ध की दृढ़ता, उस के पीछे उमड़ते जन सैलाब के सामने झुकती दिखाई दी। संसद ने एक संकल्प पारित किया कि वह जल्दी ही भ्रष्ट लोगों को पहचानने, उन्हें अभियोजित कर दंडित करने के लिए मजबूत कानून बनाएगी। 

सैलाब सिमट गया। जनता के प्रारूप पर विचार करते करते उसे एकदम गायब कर दिया गया और फिर एक सरकारी विधेयक संसद के सामने लाया गया जो एकदम सरकारी था। ठीक वैसा ही सरकारी जैसा होता है। सरकारी विधेयक के साथ जो प्रस्तावना और उद्देश्य जुड़े होते हैं कानून बनने के बाद अक्सर उस उद्देश्य के विपरीत परिणाम देने लगता है। मैं ठेकेदार श्रम (उन्मूलन) अधिनियम 1970 की याद दिलाना चाहता हूँ। जिस का उद्देश्य था कि वह उद्योगों में स्थाई प्रकृति के कामों की पहचान के लिए मशीनरी बनाएगा जिन में ठेकेदारी श्रम का उन्मूलन किया जाए। लेकिन हुआ उस का बिलकुल उलट। इस कानून ने ठेकेदारी श्रम को एक कानूनी जामा पहना दिया। यहाँ तक कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में भी अधिक से अधिक स्थाई प्रक्रियाएँ ठेकेदारों के हवाले कर दी गईं। फिर सीधे सीधे वे क्षेत्र भी जद में आ गए जहाँ कभी ठेकेदार श्रमिक थे ही नहीं। यहाँ तक कि बड़े बड़े नगरों के निगमों से लेकर छोटी छोटी नगर पालिकाएँ नगरों की सफाई के लिए ठेकेदारों के हवाले कर दी गईं। अब जिन श्रमिकों को वहाँ नियोजित किया जाता है उन्हें न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता। मिले भी कैसे न्यूनतम वेतन की दर पर तो ठेके दे दिए जाते हैं। फिर टैक्स, अफसरों और नेताओं को खिलाया जाने वाला धन ठेकेदार उसी में से निकालता है। जितने श्रमिक कागजों पर नियोजित किए जाते हैं उस से आधे श्रमिक भी वास्तव में नियोजित नहीं किए जाते। इस से एक लाभ तो यह होता है कि सरकार को बेरोजगारी की दर को कम दिखाने में सुभीता होता है और दूसरे नेताओं तथा अफसरों के घर काला धन आसानी से एकत्र होता रहता है। नगरों में गंदगी के ढेर लगे होते हैं। जिन के बीच जनता जीती रहती है। 

ठीक इसी तर्ज पर एक विधेयक आया और फिर स्थाई संसदीय समिति के वर्कशाप में डिजाइन करने को भेज दिया गया। कुछ महिनों बाद संसद ने वर्कशाप से डिजाइन हो कर आया हुआ विधेयक संसद के निचले सदन ने पारित कर दिया लेकिन उपरी सदन में बहुमत के चक्र में ऐसा पड़ा कि सरकार बचाना मुश्किल हो गया। आधी रात तक सदन चलाने के बाद सदन को स्थगित कर सरकार बचाई गई और ठीकरा विपक्ष के मत्थे थोप दिया गया। अब प्रधानमंत्री का बयान आ रहा है कि सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने को कटिबद्ध है। वह संसद के अगले सत्र में एक मजबूत कानून बनाएगी। संसद में चल रही इस बहस के बीच एक बुरी बात यह हुई कि मजबूत कानून की मांग करने वाले वृद्ध और उस की टीम बीच मैदान में जनता विहीन हो गयी। मैदान खाली पड़ा रहा। फिर वृद्ध की सेहत की आड़ में आंदोलन स्थगित हो गया। आखिर राजधानी की सड़कों पर तिरंगे लहराने वाली जनता अचानक क्यों अपने घरों में वापस चली गई थी। 

नता कभी गलत फैसले नहीं करती। वह जान रही है कि भ्रष्टाचारियों को दंडित कराने के लिए कोई भी मशीनरी कोई भी कानून सफल नहीं हो सकता। अभी तो कानून बनने में पेच हैं, फिर उसे लागू करने में पेच होंगे उस के आगे फिर अदालती पेच-ओ-खम भी देखने होंगे। अर्थात यह सारा खेल बहुत लंबा है। फिर जिन्हों ने इस के पीछे आंदोलन करने का बीड़ा उठाया वे ही जब ये कहने लगें कि कानून भ्रष्टाचार नहीं मिटा सकेगा केवल उसे साठ प्रतिशत तक कम कर सकता है। कम हुए भ्रष्टाचार से जनता को राहत क्या मिलेगी? क्या महंगाई कम हो सकेगी? क्या पेट्रोल के दाम किसी स्तर पर बढ़ने से रुक जाएंगे। क्या बेरोजगारों को काम मिलने लगेगा? क्या बच्चों की पढ़ाई महंगी होना बन्द हो जाएगा? क्या न्यूनतम मजदूरी में कोई अपना पेट भर सकेगा और पेट भरने के बाद यदि बीमार हुआ तो क्या इलाज करवा सकेगा? क्या देश के सब लोगों को तन ढकने को पर्याप्त कपड़ा और रात को सोने के लिए छत मिल सकेगी? क्या उन्हें मरने के पहले अदालतों से न्याय मिल सकेगा? ऐसे ही बहुत से प्रश्न हैं जिन से जनगण रोज जूझता है। उसे आशा थी कि एक भ्रष्टाचार पर काबू पाने की कोई मशीनरी आ जाएगी तो उसे थोड़ी राहत मिलेगी। लेकिन पिछले छह माह में कानून पर बहस के दौरान जितने पेच-ओ-खम उस ने देखे हैं। उसे निराशा हुई है। वह जानने लगी है कि भ्रष्टाचार मिटाने की इस कानूनी किताब से उस के कष्टों में कोई कमी नहीं होने वाली है। यही कारण था कि जनगण फिर से अपने कामों में जुटा दिखाई देने लगा है।
नगण जानने लगा है कि कोई एक सूत्र है जो दिखाई नहीं देता है और इन सब बिन्दुओं को आपस में जोड़े रखता है। जब तक किसी भी आंदोलन के कार्यक्रम से जनता के सारे कष्टों में कमी के सूत्र आपस में जुड़ते न दिखाई देने लगें वह उस के साथ न जुड़ेगी। वह यह भी जानती है कि जब तक श्रमजीवी जनगण की संगठित मजबूत शक्ति ऐसी किसी भी लड़ाई के पीछे नहीं होगी वह लड़ाई उस का भाग्य बदलने की लड़ाई नहीं हो सकती। श्रमजीवी जनगण की मजबूत संगठित एकता का निर्माण स्वयं जनगण को ही करना होगा। हम जो लोग इस एकता की ताकत को समझ चुके हैं वे किसी न किसी स्तर पर इस के निर्माण के लिए भी जुटे हैं। तो देर किस बात की जो भी इस सूत्र पर विश्वास करता है वह आज से ही अपने घर, मुहल्ले, गांव, नगर, कार्य स्थल पर इस एकता के निर्माण में क्यों न जुट जाए? आज नव वर्ष पर जनगण के लिए सब से बड़ी और श्रेष्ठ शुभकामना  यही है कि इस वर्ष में जनगण अधिक से अधिक एकता का निर्माण करे और अधिक बड़ी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आए। ऐसी शक्ति कि जिस से लुटेरे थर्रा उठें।

रविवार, 17 जुलाई 2011

हम कहाँ से आरंभ कर सकते हैं?

'जो बदलाव चाहते हैं, उन्हें ही कुछ करना होगा' पर आई टिप्पणियों में सामान्य तथ्य यह सामने आया कि समाज का मौजूदा शासन गंभीर रूप से रोगी है। उसे इतने-इतने रोग हैं कि उन की चिकित्सा के प्रति किसी को विश्वास नहीं है। इस बात पर लगभग लोग एकमत हैं कि रोग असाध्य हैं और उन से रोगी का पीछा तभी छूट सकता है जब कि रोगी का जीवन ही समाप्त हो जाए। यह विषाद सञ्जय झा  की टिप्पणी में बखूबी झलकता है। वे कहते हैं, - जो रोग आपने ऊपर गिनाए हैं वे गरीब की मौत के बाद ही खत्म होंगे क्यों कि अब बीमारी गहरी ही इतनी हो चुकी है।
क निराशा का वातावरण लोगों के बीच बना है। ऐसा कि लोग समझने लगे हैं कि कुछ बदल नहीं सकता। इसी वातावरण में इस तरह की उक्तियाँ निकल कर आने लगती हैं-
सौ में से पिचानवे बेईमान,
फिर भी मेरा भारत महान...
या फिर ये-
बर्बाद गुलिस्ताँ करने को सिर्फ एक ही उल्लू काफी था,
याँ हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम ए गुलिस्ताँ क्या होगा
निराशा और बढ़ती है तो यह उक्ति आ जाती है -
बदलाव के रूप में भी इस देश में सिर्फ नौटंकी ही होगी।

निराशा के वातावरण में कुछ लोग, कुछ आगे की सोचते हैं-
देखना तो यह है कि अपने रोज के झमेलों को पीछे छोड कर कब आगे आते हैं ऐसे लोग।
जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही क्रांति करनी होती है... बाकी तो सुविधा भोगी हैं...
और ये भी -
निश्चय ही, ऐसे नहीं चल सकता है, कुछ न कुछ तो करना ही होगा।

सतत गतिमयता और परिवर्तन तो जगत का नियम है। वह तो होना ही चाहिए। पर यह सब कैसे हो?
शायद उपरोक्त नियम का समय आया ही समझिये।

में यहाँ भिन्न भिन्न विचार देखने को मिलते हैं। सभी विचार मौजूदा परिस्थितियों से उपजे हैं। सभी तथ्य की इस बात पर सहमत हैं कि शासन का मौजूदा स्वरूप स्वीकार्य नहीं है, यह वैसा नहीं जैसा होना चाहिए। उसे बदलना चाहिए। लेकिन जहाँ बदलाव में विश्वास की बात आती है तो तुरंत दो खेमे दिखाई देने लगते हैं। एक तो वे हैं जिन्हें बदलाव के प्रति विश्वास नहीं है। सोचते हैं कि बदलाव के नाम पर सिर्फ नाटक होगा। उन का सोचना गलत भी नहीं है। वे बदलाव को पाँच वर्षीय चुनाव में देखते हैं। चुनाव के पहले वोट खींचने के लिए जिस तरह की नौटंकियाँ राजनैतिक दल और राजनेता करते रहे हैं, उस का उन्हें गहरा अनुभव है। लेकिन क्या पाँच वर्षीय चुनाव ही बदलाव का एक मात्र तरीका है? 
 
हीं कुछ लोग ऐसा नहीं सोचते। वे सोचते हैं कि बदलाव के और तरीके भी हैं। वे कहते हैं, हमें कुछ करना चाहिए,  जो लोग बदलना चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा। इस का अर्थ है कि ऐसे लोग बदलाव में विश्वास करते हैं कि वह हो सकता है। लेकिन वे भी पाँच वर्षीय चुनाव के माध्यम से ऐसा होने में अविश्वास रखते हैं। लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो परिवर्तन को जगत का नियम मानते हुए और उन का यह विश्वास है कि वक्त आ रहा है परिवर्तन हुआ ही समझो। यहाँ एक विश्वास के साथ साथ आशा भी मौजूद है। 

लेकिन, फिर प्रश्न यही सामने आ खड़ा होता है कि ये सब कैसे होगा? निश्चित रूप से राजनेताओं और नौकरशाहों के भरोसे तो यह सब होने से रहा। जब बात शासन परिवर्तित करने की न हो कर सिर्फ भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने मात्र की है तो भी यह बात सामने आ रही है कि ये सिविल सोसायटी क्या है और इस सिविल सोसायटी को इतनी बात करने का क्या हक है? क्या वे चुने हुए लोग हैं? हमें देखो, हम चुने हुए लोग हैं, इस जनतंत्र में वही होगा जो हम चाहेंगे। यह निर्वाचन में सभी तरह के निकृष्ठ से निकृष्टतम जोड़-तोड़ कर के सफल होने की जो तकनीक विकसित कर ली गई है उस का अहंकार बोल रहा है। सिविल सोसायटी कुछ भी हो। उसे किसी का समर्थन प्राप्त हो या न हो। वे इस विशाल देश की आबादी का नाम मात्र का हिस्सा ही क्यों न हों। पर वे जब ये कहते हैं कि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए कारगर तंत्र बनाओ, तो ठीक कहते हैं। सही बात सिविल सोसायटी कहे या फिर एक व्यक्ति कहे। उन चुने जाने वाले व्यक्तियों को स्वीकार्य होनी चाहिए। यदि यह स्वीकार्य नहीं है तो फिर समझना चाहिए कि वे भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के पक्ष में नहीं हैं। 

निर्वाचन के माध्यम से शक्ति प्राप्त करने की तकनीक के स्वामियों का अहंकार इसलिए भी मीनार पर चढ़ कर चीखता है कि वह जानता है कि सिविल सोसायटी की क्या औकात है? उन्हों ने भारत स्वाभिमान के रथ को रोक कर दिखा दिया। अब वे अधिक जोर से चीख सकते हैं। उन्हों ने भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के कानून के मसौदे पर सिविल सोसायटी से अपनी राय को जितना दूर रख सकते थे रखा। उस के बाद राजनैतिक दलों के नेताओं को बुला कर यह दिखा दिया कि वे सब भी भले ही जोर शोर से सिविल सोसायटी के इस आंदोलन का समर्थन करते हों लेकिन उन की रुचि इस नियंत्रण कानून में नहीं मौजूदा सरकार को हटाने और सरकार पर काबिज होने के लिए अपने नंबर बढ़ाने में अधिक है। इस तरह उन्हों ने एक वातावरण निर्मित कर लिया कि लोग सोचने लगें कि सिविल सोसायटी का यह आंदोलन जल्दी ही दम तोड़ देगा। इस सोच में कोई त्रुटि भी दिखाई नहीं देती। 

ज ही जनगणना 2011 के कुछ ताजा आँकड़े सामने आए हैं। 121 में से 83 करोड़ लोग गाँवों में रहते हैं। आज भी दो तिहाई से अधिक आबादी गाँवों में रहती है और कृषि या उस पर आधारित कामों पर निर्भर है। इस ग्रामीण आबादी में से कितने भूमि के स्वामी हैं और कितनों की जीविका सिर्फ दूसरों के लिए काम करने पर निर्भर करती है? यह आँकड़ा अभी सामने नहीं है, लेकिन हम कुछ गाँवों को देख कर समझ सकते हैं कि वहाँ भी अपनी भूमि पर कृषि करने वालों की संख्या कुल ग्रामीण आबादी की एक तिहाई से अधिक नहीं। नगरीय आबादी के मुकाबले ग्रामीण आबादी को कुछ भी सुविधाएँ प्राप्त नहीं हैं। उन का जीवन किस तरह चल रहा है। हम नगरीय समाज के लोग शायद कल्पना भी नहीं कर सकते। इसी तरह नगरों में भी उन लोगों की बहुतायत है जिन के जीवन यापन का साधन दूसरों के लिए काम करना है। दूसरों के लिए काम कर के अपना जीवनयापन करने वालों की आबादी ही देश की बहुसंख्यक जनता है। हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इस देश में दो तरह के जनसमुदाय हैं, एक वे जो जीवन यापन के लिए दूसरों के लिए काम करने पर निर्भर हैं। दूसरे वे जिन के पास अपने साधन हैं और जो दूसरों से काम कराते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इस देश में ये दो देश बसते हैं। 

स वक्त बदलाव की जरूरत यदि महसूस करता है तो वही बहुसंख्यक लोगों का देश करता है जो दूसरों के लिए काम कर के अपना जीवन चलाता है। यह भी हम जानते हैं कि दूसरा जो देश है वही शासन कर रहा है। पहला देश शासित देश है। हम यह भी कह सकते हैं कि बहुसंख्यकों के देश पर अल्पसंख्यकों का देश काबिज है। यह अल्पसंख्यक देश आज भी गोरों की भूमिका अदा कर रहा है। बहुसंख्यक देश आज भी वहीं खड़ा है जहाँ गोरों से मुक्ति प्राप्त करने के पहले, मुंशी प्रेमचंद और भगतसिंह के वक्त में खड़ा था। इस देश के कंधों पर वही सब कार्यभार हैं जो उस वक्त भारतीय जनता के कंधों पर थे। अब हम समझ सकते हैं कि बदलाव की कुञ्जी कहाँ है। यह बहुसंख्यक देश बहुत बँटा हुआ है और पूरी तरह असंगठित भी। उस की चेतना कुंद हो चुकी है। इतनी कि वह गर्मा-गरम भाषणों पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं करती। इस देश को जगाने की हर कोशिश नाकामयाब हो जाती है। 

ह चेतना कहीं बाहर से नहीं टपकती। यह लोगों के अंदर से पैदा होती है। यह आत्मविश्वास जाग्रत होने से उत्पन्न होती है। लेकिन यह आत्मविश्वास पैदा कैसे हो। आप सभी दम तोड़ते हुए पिता का आपस में लड़ने-झगड़ने वाली संतानों को दिए गए उस संदेश की कहानी अवश्य जानते होंगे जिन से पिता ने एक लकड़ियों का गट्ठर की लकड़ियाँ तोड़ने के लिए कहा था और वे नाकामयाब रहे थे, बाद में जब उन्हें अलग अलग लकड़ियाँ दी गईं तो उन्हों ने सारी लकड़ियाँ तोड़ दीं। निश्चित रूप से संगठन और एकता ही वह कुञ्जी है जो बहुसंख्यकों के देश में आत्मविश्वास उत्पन्न कर सकती है। हम अब समझ सकते हैं कि हमें क्या करना चाहिए? हमें इस शासित देश को संगठित करना होगा। उस में आत्मविश्वास पैदा करना होगा। यह सब एक साथ नहीं किया जा सकता। लेकिन टुकड़ों टुकड़ों में किया जा सकता है। हम जहाँ रहते हैं वहाँ के लोगों को संगठित कर सकते हैं, उन्हें इस शासन से छोटे-छोटे संघर्ष करते हुए और सफलताएँ अर्जित करते हुए इन संगठनों में आत्मविश्वास उत्पन्न करने का प्रयत्न कर सकते हैं। बाद में जब काम आगे बढ़े तो इन सभी संगठित इकाइयों को जोड़ सकते हैं। 

ब सब कुछ स्पष्ट है, कि क्या करना है? फिर देर किस बात की? हम जुट जाएँ, अपने घर से, अपनी गली से, अपने मुहल्ले से, अपने गाँव और शहर से आरंभ करें। हम अपने कार्यस्थलों से आरंभ करें। हम कुछ करें तो सही। कुछ करेंगे तो परिणाम भी सामने आएंगे.

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

एक बार फिर दुनिया को बदल डालेंगे

कोई भी नयी उन्नत तकनीक समाज को आगे बढ़ने में योगदान करती है। एक भाप के इंजन के आविष्कार ने दुनिया में से सामन्तवाद की समाप्ति का डंका बजा दिया था। इंग्लेण्ड की औद्योगिक क्रान्ति उसी का परिणाम थी। उसी ने सामन्तवाद के गर्भ में पल रहे पूंजीवाद को जन्म देने में दाई की भूमिका अदा की थी। पूंजीवाद उसी से बल पाकर आज दुनिया का सम्राट बन बैठा है। उस के चाकर लगातार यह घोषणा करते हैं कि अब इतिहास का अन्त हो चुका है। पूंजीवाद अब दुनिया की सचाई है जो कभी समाप्त नहीं हो सकती। इस का अर्थ है कि पूंजीवाद ने जो कष्ट मानवता को प्रदान किए हैं वे भी कभी समाप्त नहीं होंगे। कभी गरीबी नहीं मिटेगी, धरती पर से कभी भूख की समाप्ति नहीं होगी। दुनिया से कभी युद्ध समाप्त नहीं होंगे, वे सदा-सदा के लिए शोणित की नदियाँ बहाते रहेंगे। किसान उसी तरह से अपने खेतों में धूप,ताप, शीत, बरखा और ओले सहन करता रहेगा। मजदूर उसी तरह कारखानों में काम करते रहेंगे। इंसान उच्च से उच्च तकनीक के जानकार होते हुए भी पूंजीपतियों की चाकरी करता रहेगा। बुद्धिजीवी उसी की सेवा में लगे रह कर ईनाम पाते और सम्मानित होते रहेंगे। जो ऐसा नहीं करेगा वह न सम्मान का पात्र होगा और न ही जीवन साधनों का। कभी-कभी लगता है कि दमन का यह चक्र ऐसे ही चलता रहेगा। शायद मनुष्य समाज बना ही इसलिए है कि अधिकतर मनुष्य अपने ही जैसे चंद मनुष्यों के लिए दिन रात चक्की पीसते रहें।

ज हम जानते हैं कि इंसान ही खुद ही खुद को बदला है, उस ने दुनिया को बदला है और उसी ने समाज को भी बदला है। यह दुनिया वैसी नहीं है जैसी इंसान के अस्तित्व में आने के पहले थी। वही इकलौता प्राणी इस ग्रह में है जो अपना भोजन वैसा ही नहीं ग्रहण करता जैसा उसे वह प्रकृति में मिलता है। वह प्रकृति में मिलने वाली तमाम वस्तुओं को बदलता है और अपने लिए उपयोगी बनाता है। उस ने सूत और ऊन से कपड़े बुन लिया। उस ने फलों और मांस को पकाना सीखा, उस ने अनाज उगा कर अपने भविष्य के लिए संग्रह करना सीखा। यह उस ने बहुत पहले कर लिया था। आज तो वह पका पकाया भोजन भी शीतकों और बंद डिब्बों में लंबे समय तक रखने लगा है। बस निकाला और पेट भर लिया। इंसान की तरक्की रुकी नहीं है वह बदस्तूर जारी है। 

स ने एक समय पहिए और आग का आविष्कार किया। इन आविष्कारों से उस की दुनिया बदली। लेकिन समाज वैसे का वैसा जंगली ही रहा। लेकिन जिस दिन उस ने पशुओं को साधना सीखा उस दिन उस ने अपने समाज को बदलने की नींव डाल दी। उसे शत्रु कबीले के लोगों को अब मारने की आवश्यकता नहीं थी, वह उन की जान बख्श सकता था। उन्हें गुलाम बना कर अपने उपयोग में ले सकता था। कुछ मनुष्यों को कुछ जीवन और मिला। लेकिन उसी ने मनुष्य समाज में भेदभाव की नींव डाल दी। अब मनुष्य मनुष्य न हो कर मालिक और गुलाम होने लगे। पशुओं के साथ, गुलामों के श्रम और स्त्रियों की सूझबूझ ने खेती को जन्म दिया। गुलाम बंधे रह कर खेती का काम नहीं कर सकते थे। मालिकों को उन के बंधन खोलने पड़े और वे किसान हो गए। दास समाज के गर्भ में पल रहा भविष्य का सामंती समाज अस्तित्व में आया। हम देखते हैं कि मनुष्य ने अपने काम को सहज और सरल बनाने के लिए नए आविष्कार किए, नई तकनीकें ईजाद कीं और समाज आगे बढ़ता रहा खुद को बदलता रहा। ये तकनीकें वही, केवल वही ईजाद कर सकता था जो काम करता था। जो काम नहीं करता था उस के लिए तो सब कुछ पहले ही सहज और सरल था। उसे तो कुछ बदलने की जरूरत ही नहीं थी। बल्कि वह तो चाहता था कि जो कुछ जैसा है वैसा ही चलता रहे। इस लिए जिन्हों ने दास हो कर, किसान हो कर, श्रमिक हो कर काम किया उन्हीं ने तकनीक को ईजाद किया, दुनिया को बदला, इंसान को बदला और इंसानी समाज को बदला। इस दुनिया को बदलने का श्रेय केवल श्रमजीवियों को दिया जा सकता है, उन से अलग एक भी इंसान को नहीं। 

र क्या अब भी कुछ बदल रहा है? क्या तकनीक विकसित हो रही है? जी, दुनिया लगातार बदल रही है। तकनीक लगातार विकसित हो रही है। पूंजीवाद के विकास ने लोगों को इधर-उधर सारी दुनिया में फैला दिया। पहले एक परिवार संयुक्त रूप से साथ रहता था। आज उसी परिवार का एक सदस्य दुनिया के इस कोने में है तो दूसरा उस कोने में। एक सोने जा रहा है तो दूसरा सो कर उठ रहा है। लेकिन दुनिया भर में बिखरे लोगों ने जुड़ने के तकनीकें विकसित कर ली हैं और लगातार करते जा रहे हैं। आज की सूचना प्रोद्योगिकी ने इंसानी समाज को आपस में जो़ड़े रखने की  मुहिम चला रखी है। हों, इस प्रोद्योगिकि के मालिक भले ही पूंजीपति हों, लेकिन कमान तो वही श्रमजीवियों के हाथों में है। वे लगातार तकनीक को उन्नत बनाते जा रहे हैं। नित्य नए औजार सामने ला रहे हैं। हर बार एक नए औजार का आना बहुत सकून देता है। तकनीक का विकसित होना शांति और विश्वास प्रदान करता है। कि इतिहास का चक्का रुका नहीं है। दास युग और सामंती युग विदा ले गए तो यह मनुष्यों के शोणित से अपनी प्यास बुझाने वाला पूंजीवाद भी नहीं रहेगा। हम, और केवल हम लोग जो श्रमजीवी हैं, जो तकनीक को लगातार विकसित कर रहे हैं, एक बार फिर दुनिया को बदल डालेंगे। 

बुधवार, 26 जनवरी 2011

जनशिक्षण और जनसंगठन के कामों में तेजी लानी होगी

ज से 61 वर्ष पूर्व दुनिया का सब से बड़ा लिखित संविधान अर्थात हमारे भारत का संविधान लागू हुआ। इसे भारत की संविधान सभा ने निर्मित किया। संविधान सभा का गठन ब्रिटिश सरकार के तीन मंत्रियों के प्रतिनिधि मंडल, केबीनेट मिशन  ने  किया था। इस मिशन का मुख्य कार्य भारत की राजसत्ता को भारतियों के हाथों हस्तांतरण करना था। इस ने ब्रिटिश भारत के प्रांतों के चुने हुए प्रतिनिधियों, रजवाड़ों के प्रतिनिधियों तथा भारत के प्रमुख राजनैतिक दलों से बातचीत की जिस के परिणाम स्वरूप यह संविधान सभा अस्तित्व में आयी। इस संविधान सभा में आरंभ में 389 सदस्य थे, जिन में 292 सदस्य प्रान्तों की विधानसभाओं के द्वारा चुने हुए थे, 93 सदस्य रजवाड़ों के प्रतिनिधि थे, 4 सदस्य कमिश्नर प्रान्तों के थे। बाद में 3 जून 1947 की माउण्टबेटन योजना के अन्तर्गत भारत का विभाजन हो जाने के फलस्वरूप पाकिस्तान के लिए अलग संविधान सभा गठित की गई और कुछ प्रान्तों के प्रतिनिधियों की सदस्यता समाप्त हो जाने के कारण अंततः इस की सदस्य संख्या 299 रह गई।

स संविधान का निर्माण  का आधार इस के प्रतिनिधियों ने इस आधार पर किया कि देश के सभी वे वर्ग जिन की आवाज उठाने वाले लोग मौजूद थे संतुष्ट किया जा सके। हालाँकि संविधान सभा में ऐसे लोग प्रभावी थे जिन की दूरदर्शिता पर यकीन किया जा सकता था, फिर भी सभी तत्कालीन दबाव समूहों को प्रसन्न रखने की दृष्टि ने इस दूरदृष्टि को बहुत कुछ धुंधला किया था। यह एक महत्वपूर्ण कारण था कि हमारा संविधान देश के विकास और भविष्य के लिए कोई स्पष्ट नीति और लक्ष्य रखने में असमर्थ रहा। यदि उस में स्पष्टता रखी जाती तो हो सकता था कि सब की संतुष्टि नहीं होती और एकजुट भारत के निर्माण में बाधा उत्पन्न होती। लेकिन यह संतुष्टि फौरी ही साबित हुई। हर कोई दबाव समूह अपने सपनों का भारत देखना चाहता था। और पहले चुनाव के पहले ही हर दबाव समूह ने अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए काम करना आरंभ कर दिया। कालांतर में इन की गतिविधियों ने ही देश और संविधान को वर्तमान रूप की ओर आगे बढ़ाया। 
म जानते हैं कि जो भारत ब्रिटिश साम्राज्य ने हमें सौंपा वह आधा-अधूरा था। उस के दो टुकड़े कर दिए गये थे। जिन का आधार साम्प्रदायिक था। इसी ने भारत में सम्प्रदायवाद को इतना मजबूत किया कि उस विष-बेल के प्रतिफल आज तक स्वतंत्र भारत में पैदा हुई पीढ़ी भुगत रही है। नवजात आजाद भारत में सामंतवाद गहराई से मौजूद था। सभी सामंत अपने अपने हितों को सुरक्षित रखना चाहते थे। हालांकि सामंतवाद की नींव को खोखली करने वाला और उसे समाप्त करने की जिम्मेदारी वहन करने वाला पूंजीपति वर्ग भी कम मजबूत न था। उस ने आजादी के आंदोलन के दौरान ही प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस में अपनी जड़ें गहरी कर ली थीं। एक तीसरा वर्ग था, जिस की आजादी के आंदोलन में प्रमुख भूमिका थी। यह भारत की विपन्न जनता थी, इस की एकजुटता ही वह शक्ति थी जिस के बल पर आजादी संभव हो सकती थी। यह भारत का विपन्न किसान था जो सामंतों की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, सामंतों की सारी संपन्नता जिस के बल पर कायम थी,  यह कारखानों में काम करने वाला मजदूर था जिस के श्रम ने भारत के पूंजीपति को मुकाबला करने की शक्ति प्रदान की थी। ये दोनों विशाल वर्ग दबाव समूह तो थे ही लेकिन नेतृत्व में इन का हिस्सा बहुत छोटा था। 
किसान और मजदूर जनता की संख्या विशाल थी और जिस तरह का  संविधान निर्मित हुआ था उस की आवश्यक शर्त यह थी कि इस विशाल जनसंख्या से हर पाँचवें वर्ष सहमति प्राप्त कर के ही कोई सरकार इस देश में बनी रह सकती थी। पहले आम चुनाव ने कांग्रेस को विशाल बहुमत प्रदान किया। लेकिन जो लोग चुने जा कर संसद पहुँचे उन में से अधिकांश पहले दो वर्गों, सामंतों और पूंजीपतियों के प्रतिनिधि थे। पूंजीपतियों को पूंजीवाद की बेहतरी चाहिए थी तो सामंतों को अपने अधिकारों की सुरक्षा। लेकिन दोनों के हित टकराते थे। पूंजीपति उदीयमान शक्ति थे लेकिन उन की बेहतरी इस बात में थी कि देश में सामंती संबंध शीघ्रता से समाप्त हों। जमीनें और किसान सामंतों से आजाद हो जाएँ। किसान भी सामंतों से आजादी चाहते थे। लेकिन मजदूर वे ताकत थे जो पूंजीपतियों से बेहतर सेवा शर्तें चाहते थे और किसानों के ही पुत्र थे।  किसान और मजदूरों जल्दी संगठित और शिक्षित होना पूंजीपति वर्ग के लिए बहुत बड़ा खतरा था। क्यों कि ये ही थे जो पूंजीपति वर्ग के अनियंत्रित विकास के विरुद्ध था और अपने लिए बेहतर जिन्दगी की मांग करता था। आजादी के आंदोलन ने इसे असहयोग की ताकत को समझा दिया था। 
ही वह कारण था जिस ने पूंजीपति और सामंती वर्गों को एक दूसरे के सब से बड़े शत्रु होते हुए भी मित्रता के लिए बाध्य कर दिया, दोनों में भाईचारा उत्पन्न किया। अब दोनों की चाहत यही थी कि भारत की संसद में जो प्रतिनिधि पहुँचें वे उन के हित साधक हों लेकिन इतने होशियार, चंट चालाक भी हों कि किसानों, मजदूरों, खुदरा दुकानदारों आदि को एन-केन-प्रकरेण उल्लू बना कर हर पाँच वर्ष बाद चुन कर संसद में पहुँच जाएँ और उन के हितों की रक्षा करते रहें। आजादी के बाद का भारत का इतिहास इसी खेल की कहानी है। राजनैतिक दल इसी खेल का हिस्सा हैं। देश की नौकरशाही राजनैतिक दलों और प्रभुवर्गों के बीच संबंधों को बनाए रखने का काम करती है। यह खेल पर्दे के पीछे काले धन और भ्रष्टाचार के व्यापार के बिना चल नहीं सकता। इस व्यापार के दिन दुगना और रात चौगुना बढ़ने का कारण यही है। यह रुके तो कैसे? यही तो प्रभुवर्गों का प्राणरक्षक है।
क ओर दोनों प्रभुवर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल हैं जो जनता को उल्लू बनाते हैं और हर पाँच वर्ष बाद संसद में पहुँच जाते हैं। दूसरी ओर किसानों और मजदूरों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल भी हैं, लेकिन वे कमजोर हैं और बंटे हुए हैं। प्रभुवर्ग भी यही चाहते हैं कि इस श्रमजीवी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीति कमजोर और बंटी हुई ही रहे। यही कारण है कि इन का प्रतिनिधित्व करने वाले दोनों बड़े दल और उन के सहायक दल जनता को बाँटने वाली राजनीति का अनुसरण करते हैं और जनता में विद्वेष फैलाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। चाहे वह सम्प्रदायवाद हो, जातियों पर बंटी हुई राजनीति, घोर अंध राष्ट्रवाद हो या कोई और तरीका। हमारी जनता की पुरानी मान्यताएँ इन का साथ देती हैं। इस के मुकाबिल श्रमजीवी जनता की राजनीति अत्यन्त कठिन और दुष्कर है। उसे इन सब चीजों से जूझना पड़ता है। जनता को लगातार शिक्षित और संगठित करना पड़ता है। श्रमजीवी जनता की राजनीति इसी काम में बहुत पिछड़ी हुई है। जनता के साथ संपर्क के साधनों और मीडिया पर दोनों प्रभुवर्गों का कब्जा उस के इस काम को और दुष्कर बनाता है। यदि श्रमजीवी जनता को मुक्त होना है तो उन के अगुआ लोगों को जनशिक्षण और जनसंगठन के कामों में तेजी लानी ही होगी। यही एक मार्ग है जिस से देश की श्रमजीवी जनता को जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति प्राप्त हो सकती है और हम भारत को एक स्वस्थ जनता के जनतांत्रिक गणतंत्र बना सकते हैं।

शुक्रवार, 4 जून 2010

जनता तय करेगी कि कौन सा मार्ग उसे मंजिल तक पहुँचाएगा

ल बंगाल में स्थानीय निकायों के चुनाव के नतीजे आए। भाकपा (मार्क्स.) के नेतृत्व वाले वाममोर्चे को करारी शिकस्त का मुहँ देखना पड़ा। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस को अच्छी-खासी जीत मिली। आम तौर पर इस तरह के नतीजे देश के दूसरे भागों में आते रहते हैं, वहाँ भी, जहाँ वाम का अच्छा खासा प्रभाव है। केरल में कभी वाम मोर्चा सरकार में होता है, तो कभी कांग्रेस के नेतृत्व वाला मोर्चा। लेकिन वहाँ कभी इतनी हाय-तौबा नहीं देखने को मिलती। जितनी कल देखने को मिली। उसका कारण है कि पिछले 33 वर्ष में बंगाल में वाम-शासन का जो दुर्ग रहा, उस में कोई  सेंध नहीं लगा पाया। इस के बावजूद कि केन्द्र में लगातार विरोधी-दलों की सरकारें विद्यमान रहीं। आज बंगाल में वाम की स्थानीय निकायों में हार पर जो हल्ला हो रहा है उस का कारण यही है कि उस दुर्ग में बमुश्किल एक छेद होता दिखाई दे रहा है। इस छेद के दिखाई देने में बाहरी प्रहारों का कितना योगदान है और कितने अंदरूनी कारण हैं, उन्हें एक सचेत व्यक्ति आसानी से समझ सकता है। मेरी मान्यता तो यह है कि किसी भी निकाय में परिवर्तन के लिए अंतर्वस्तु मुख्य भूमिका अदा करती है, बाह्य कारणों की भूमिका सदैव गौण और तात्कालिक होती है। वाम-मोर्चे को लगे आघात की भी यही कहानी है। तृणमूल काँग्रेस की भूमिका वहाँ तात्कालिक और गौण रही है।

स घटना ने राजनीतिक रूप से सचेत प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित किया। मैं उस से अप्रभावित कैसे रह सकता था? मेरे मन-मस्तिष्क पर उस की जो भी प्रतिक्रिया हुई, मैं ने उसे कुछ शब्दों में प्रकट करने का प्रयास किया,।फलस्वरूप अनवरत पर कल की पोस्ट ने आकार लिया। एक सामयिक और कुछ चौंकाने वाले शीर्षक के कारण ही सही पर बहुत मित्र वहाँ पहुँचे। कइयों ने उस पर प्रतिक्रिया भी दी। मेरे लिए संतोष की बात यह थी कि मित्रों ने मेरी प्रतिक्रिया को सहज रूप में एक ईमानदार प्रतिक्रिया के रूप में स्वीकार किया। उन ने भी जो राजनैतिक सोच में मुझसे अधिक सहमत होते हैं, और उन ने भी जो अक्सर बहुत अधिक असहमत रहते हैं। चाहे इस घटना पर उन की प्रतिक्रिया कुछ भी रही हो। विशेष रूप से स्मार्ट इंडियन जी, सुरेश चिपलूनकर जी, अनुनाद  सिंह जी और अशोक पाण्डेय जी की घटना पर प्रतिक्रियाएँ और प्रतिक्रियाओं पर प्रतिक्रियाएँ उन के अपने-अपने लगभग स्थाई हो चुके सोच के अनुसार ही थीं। मुझे उन पर किंचित भी आश्चर्य नहीं हुआ। आश्चर्य तो तब होता जब उन से ऐसी प्रतिक्रियाएँ नहीं होतीं।  हो सकता है कि इन चारों मित्रों की धारणा यह बन चुकी हो कि उन की अपनी धारणाएँ इतनी सही हैं कि वे कभी बदल नहीं सकतीं। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता। मेरा अपना दर्शन इस तरह सोचने की अनुमति नहीं देता।

मेरी मान्यता है कि कल जिन-जिन मित्रों ने अनवरत की पोस्ट पढ़ी और जिन ने उस पर  प्रतिक्रिया व्यक्त की उन सभी की मनुष्य और समाज के प्रति प्रतिबद्धता में कमी नहीं है। वे सभी चाहते भी हैं कि मनुष्य समाज अपने श्रेष्ठतम रूप को प्राप्त करे। यह दूसरी बात है कि मनुष्य समाज के श्रेष्ठतम रूप के बारे में हमारी अवधारणाएँ अलग-अलग हैं और वहाँ तक पहुँचने के हमारे मार्गों के बारे में भी गंभीर मतभेद हैं। लेकिन मनुष्य समाज का श्रेष्ठतम रूप तो एक ही हो सकता है। मेरी यह भी मान्यता है कि उस श्रेष्ठतम रूप के बारे में हमारे पास अभी तक केवल अवधारणाएँ ही हैं। वह ठीक-ठीक किस तरह का होगा? यह अभी तक पूरी तरह भविष्य के गर्भ में छुपा है। मनुष्य समाज के उस श्रेष्ठतम रूप तक पहुँचने के बारे में मतभेद अघिक गंभीर हैं, इतने कि हम उस के बारे में तुरंत तलवारें खींचने में देरी नहीं करते। हर कोई अपने ही मार्ग को सर्वोत्तम मानता है। बस यहीं हम गलती करते हैं। हम अपने-अपने मार्ग के बारे में यह तो सोच सकते हैं कि वह सही है, आखिर तभी तो हम उस पर चल रहे हैं। लेकिन हम अंतिम सत्य के रूप में उसे स्वीकार नहीं कर सकते कि वही वास्तव में सही मार्ग है। अब प्रश्न यह उठता है कि यह कैसे तय हो कि वास्तव में सही मार्ग कौन सा है? निश्चित ही आने वाला समय इस चीज को तय करेगा। मेरा यह भी मानना है कि एक समष्टि के रूप में जनता सदैव बुद्धिमान होती है। वह शायद अभी यह तय करने में समर्थ नहीं कि उस के लिए कौन सा मार्ग सही है। लेकिन वह सभी मार्गों को परखती अवश्य है। जब उसे लगता है कि कोई मार्ग सही है तो उस पर चल पड़ती है। उस मार्ग पर चलते हुए भी वह लगातार उसे परखती है। जब तक उसे लगता है कि वह सही चल रही है, चलती रहती है। लेकिन जब भी उसे यह अहसास होने लगता है कि कोई उसे गलत रास्ते पर ले आया है, या कि जिस रास्ते पर उस से ले जाने का वायदा किया गया था उस से भिन्न रास्ते पर ले जाया जा रहा है। तो उस अहसास को वह तुरंत प्रकट करती है। लेकिन नए मार्ग पर भी वह तुंरत नहीं चल पड़ती। उस के लिए वह रुक कर तय करती है कि अब उसे किधऱ जाना चाहिए?

बंगाल की जनता ने ऐसा ही कुछ प्रकट किया है। उसे अहसास हुआ है कि वह मंजिल तक पहुँचने के लिए पिछले अनेक वर्षों से जिस मार्ग पर चल रही थी वह एक चौराहे पर आ कर ठहर गया है, और उसे तय करना है कि कौन सा मार्ग उसे अपनी मंजिल तक पहुँचाएगा।
जिन मित्रों ने कल प्रतिक्रिया जनित मेरी रचना को पढ़ा है और उस पर अपने विचार प्रकट करते हुए उस पर अपने हस्ताक्षर किये हैं, मैं उन सभी का आभारी हूँ, उन्हों ने मुझे यह अहसास कराया है कि मैं एक सही मार्ग पर हूँ।

बुधवार, 2 जून 2010

कामरेड! अब तो कर ही लो यक़ीन, कि तुम हार गए हो



कामरेड!
अब तो कर ही लो यक़ीन
कि तुम हार गए हो

अनेक बार चेताया था मैं ने तुम्हें
तब भी, जब मैं तुम्हारे साथ था
कदम से कदम मिला कर चलते हुए
और तब भी जब साथ छूट गया था
तुम्हारा और हमारा

याद करो!
क्या तय किया था तुमने?
छियालीस बरस पहले
जब यात्रा आरंभ की थी तुमने
कि तुम बनोगे हरावल
श्रमजीवियों के
तुम बने भी थे
शहादतें दी थीं बहुतों ने
इसीलिए
सोचा था बहुत मजबूत हो तुम

लेकिन, बहुत कमजोर निकले
आपातकाल की एक चुहिया सी
तानाशाही के सामने टूट गए
जोश भरा था जिस नारे ने किसानों में
'कि जमीन जोतने वालों की होगी'
तुम्हारे लिए रह गई
नारा एक प्रचार का
मैं ने कहा था उसी दिन
तुम हार गए हो
लेकिन तुम न माने थे

त्याग दिया मार्ग तुमने क्रांति का
चल पड़े तुम भी उसी मतपथ पर
चलता है जो जोर पर जो थैली का हो
या हो संगठन का
ज्यों ज्यों थैली मजबूत हुई
संगठन बिखरता चला गया
तुमने राह बदल ली
हो गए शामिल तुम भी
एकमात्र मतपथ के राहियों में
हो गए सेवक सत्ता के
भुला दिए श्रमजीवी और
झुलसाती धूप में जमीन हाँकते किसान
जिनका बनाना था एका
बाँट दिया उन्हें ही
याद रहा परमाणु समझौते का विरोध
और एक थैलीशाह के कार कारखाने
के लिए जमीन

अब मान भी लो
कि तुम हार गए हो
नहीं मानना चाहते
तो, मत मानो
बदल नहीं जाएगा, सच
तुम्हारे नहीं मानने से
देखो!
वह अब सर चढ़ कर बोल रहा है

नहीं मानते,
लगता है तुम हारे ही नहीं
थक भी गए हो
जानते हो!
जो थक जाते हैं
मंजिल उन्हें नहीं मिलती

जो नहीं थके
वे चल रहे हैं
वे थकेंगे भी नहीं
रास्ता होगा गलत भी
तो सही तलाश लेंगे
तुम रुको!
आराम करो
जरा, छांह में
मैं जाता हूँ
उन के साथ
जो नहीं थके
जो चल रहे हैं 
 

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए

पिछले आलेख पर बड़े भाई ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी थी .....
"ज्ञानदत्त G.D. Pandey 1 December, 2009 4:31 PM   मन्दी? कहां है मन्दी? रेल यातायात डील करते समय मुझे मन्दी नहीं दीखती। कितना सीमेण्ट, कोयला, स्टील, उर्वरक ... सब चले जा रहा है अनवरत। और बहुत कुछ जा रहा है पूर्वान्चल/बिहार को! मुझे बताया गया कि ग्रोथ रेट सात परसेण्ट के आस-पास है। विपक्ष जोर लगा कर भी मंहगाई को सफल चुनावी मुद्दा नहीं बना पाया। सो मन्दी तो मिथक है। जिसे हम सब एक्स्प्लेनेशन के लिये पाल रहे हैं"


लेकिन उन लाखों लोगों से पूछें जो मंदी के नाम पर छंटनी के फलस्वरूप बेरोजगार कर दिए गए हैं। उन से पूछें जिन से उन के  माथे पर छंटनी की तलवार लटका कर आठ घंटों के स्थान पर चौदह और सोलह घंटे काम लिया जा रहा है या उन से कम वेतनों पर काम करने की नयी सेवा शर्तें तय करा ली गई हैं। उन विद्यार्थियों से पूछें जिन के कैंपस सेलेक्शन के बाद अभी तक नियुक्तियों का पता नहीं है। जहाँ नियुक्तियाँ हो भी रही हैं वहाँ वेतन लगभग आधे कर दिए गए हैं। एक सोफ्टवेयर इंजिनियर को छह से दस हजार प्रतिमाह की नौकरी के प्रस्ताव मिल रहे हैं। उन के लिए मंदी है। नहीं है तो फिर जनता को झाँसा दे कर लूटा जा रहा है।

ज्ञान जी ने जो उदाहरण दिए हैं वे सब रेलवे से संबद्ध हैं। भारतीय रेलवे आबादी और उस की जरूरतों के मुकाबले बहुत छोटी हो गई है। उस के पास सवारियाँ ढोने को कम गाड़ियाँ हैं। जो हैं उन्हें चलाने के लिए पर्याप्त रेलपथ नहीं हैं। गाड़ियों की सूची इतनी व्यस्त है कि एक जरा सी भी बाधा से कई दिनों तक का मामला खराब हो जाता है। इधर कोटा के आसपास जो थर्मल बिजलीघर हैं उन के बारे में पिछले दिनों खबर थी कि कोयला समय पर नहीं पहुँचा, केवल सात दिनों का स्टॉक रह गया। जो व्यवसाय समाज की आवश्यकता से बहुत न्यून हो जाएगा वहाँ मंदी क्या असर दिखाएगी? लेकिन जिन व्यवसायों में पिछले सालों में मुनाफा बरस रहा था। सारी फालतू पूँजी वहीं समेट दी गई। अतिउत्पादन से वहाँ मंदी आनी ही थी। नतीजा यह हुआ कि बहुत सी इकाइयाँ बैठ गई और उन में लगी पूँजी की कीमत नगण्य हो गई। यही तो मंदी का गणित है।


कुछ क्षेत्रों में तेजी से पूँजी का बहना, उस का संकेन्द्रण और अतिउत्पादन। बाकी सब क्षेत्रों में तो मंदी नहीं दिखाई देगी। वहाँ तो पूँजी का अभाव महंगाई को ही बढ़ाएगा। यही कारण है कि एक ओर मंदी का विशाल दानव दिखाई पड़ता है तो दूसरी ओर महंगाई की दानवी मुहँ बाए खड़ी हो जाती है। आज की अर्थव्यवस्था में जो उत्पादन की अराजकता है। वही तो इन संकटों की जन्मदाता है। एक वर्ष प्याज और टमाटर के भाव आसमान पर होते हैं तो अगले वर्ष उसी की खेती बहुसंख्यक किसान करते हैं और फिर अतिउत्पादन से दोनों सड़ने लगते हैं। लागत न मिलने पर किसान आत्महत्या पर मजबूर हो जाते हैं।
सीमेंट, कोयला, स्टील और उर्वरक ये सब जीवन के लिए आधारभूत वस्तुएं हैं। इन के उत्पादन में मुनाफा कम है और लागत के लिए विशाल पूंजी की आवश्यकता है। इतनी बड़ी पूँजी कौन लगाए? इनमें मंदी का क्या असर हो सकता है? एक बात और, मंदी के बहाने बढ़ाई गई बेरोजगारी, वेतनों में कमी और महंगाई। उपभोक्ताओं की जेब में पहुँचने वाली धनराशि को बड़ी मात्रा में कम करती है और बाजार सिकुड़ता है। यह मंदी के प्रभाव में और तेजी लाती है।


मंदी तो है। मेरा कहना तो यही था कि अर्थव्यवस्था के नियोजन से इस मंदी पर काबू पाया जा सकता है।  किन हम आग लगने पर कुआँ खोदने दौड़ते हैं। पहले से पानी की व्यवस्था नहीं रखते या फिर आग न लगने देने के साधन नहीं करते। क्या हमें वे नहीं करने चाहिए? बड़े भाई ने विपक्षी दलों द्वारा महंगाई के मुद्दे का लाभ न उठा सकने पर निराशा जाहिर की है, पर विपक्षी दल है कहाँ? सब पक्ष में ही खड़े हैं कोई खुल कर खड़ा है तो कोई पर्दे के पीछे। विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए।

रविवार, 18 अक्टूबर 2009

शिद्दत से जरूरत है. शुभकामनाओं की ...

दीपावली की शुभकामनाओं से मेल-बॉक्स भरा पड़ा है, मोबाइल में आने वाले संदेशों का  कक्ष कब का भर चुका है, बहुत से संदेश बाहर खड़े प्रतीक्षा कर रहे हैं। कल हर ब्लाग पर दीपावली की शुभकामनाएँ थीं। ब्लाग ही क्यों? शायद कहीं कोई माध्यम ऐसा न था जो इन शुभकामनाओं से भरा न पड़ा हो। दीवाली हो, होली हो, जन्मदिन हो, त्योहार हो या कोई और अवसर शुभकामनाएँ बरसती हैं, और इस कदर बरसती हैं कि शायद लेने वाले में उन्हें झेलने का माद्दा ही न बचा हो।  कभी लगता है हम कितने औपचारिक हो गए हैं? एक शुभकामना संदेश उछाल कर खुश हो लेते हैं और शायद अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं।

हम अगले साल के लिए शुभकामनाएँ दे-ले रहे हैं। हम पिछले सालों को देख चुके हैं। जरा आने वाले साल का अनुमान भी कर लें। यह वर्ष सूखे का वर्ष है। बाजार ने इसे भांप लिया है। आम जरूरत की तमाम चीजें महंगी हैं।  पहले सब्जी वाला आता था और हम बिना भाव तय किए उस से सब्जियाँ तुलवा लेते थे। भाव कभी पूछा नहीं। ली हुई सब्जियों की कीमत अनुमान से अधिक निकलने पर ही सब्जियों का भाव पूछते थे। अब पहले सब्जियों का भाव पूछते हैं। किराने की दुकान पर हर बार भाव पूछ कर सामान तुलवाना पड़ रहा है। कहीं ऐसा न हो सामान की कीमत बजट से बाहर हो जाए। गृहणियों की मुसीबत हो गई है, कैसे रसोई चलाएँ? कहाँ कतरब्योंत करें?

जिन्दगी जीने का खर्च बढ़ गया, दूसरी ओर बहुतों की नौकरियाँ छिन गई हैं। दीवाली के ठीक एक दिन पहले एक दवा कंपनी के एरिया सेल्स मैनेजर मेरे यहाँ आए और उसी दिन मिला सेवा समाप्त होने का आदेश दिखाया। आदेश में कोई कारण नहीं था बल्कि नियुक्ति पत्र की उस शर्त का उल्लेख था जिस में कहा गया था कि एक माह का नोटिस दे कर या एक माह का वेतन दे कर उन्हें सेवा से पृथक किया जा सकता है। उन की सेवाएँ तुरंत समाप्त कर दी गई थीं और एक माह का वेतन भी नहीं दिया गया था। उन की दीवाली?

जो कर रहे थे, उन की नौकरियाँ जा चुकी हैं, जो कर रहे हैं उन पर दबाव है कि वे आठ घंटे की नियत अवधि से कम से कम दो-चार घंटे और काम करें। अनेक कंपनियों ने नौकरी जाने की संभावना के प्रदर्शन तले  अपने कर्मचारियों की पगारें कम कर दी हैं। जो नौजवान नौकरियों की तलाश में हैं वे कहाँ कहाँ नहीं भटक रहे हैं। उन्हें धोखा देने को अनेक प्लेसमेंट ऐजेंसियाँ खरपतवार की तरह उग आई हैं। उद्योगों में लोगों से सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम दर से भी कम पर काम लिए जा रहे हैं।  कामगारों की कोई पहचान नहीं है, उद्योग के किसी रजिस्टर में उन का नाम नहीं है।  उन की हालत पालतू जानवरों से भी बदतर है। पहले बैल हुआ करते थे जो खेती में हल पर और तेली के कोल्हू में जोते जाते थे। उन के चारे-पानी और आराम का ख्याल मालिक किया करता था। आज इन्सानों से काम लेने वाले उन के मालिक उस जिम्मेदारी से भी बरी हैं। कहने को श्रम कानून बनाए गए हैं और श्रम विभाग भी। लेकिन वे किस के लिए काम करते हैं, यह दुनिया जानती है। उन का काम कानूनों को लागू कराना न हो कर केवल अपने आकाओं की जेबें भरना और सरकार में बैठे राजनीतिज्ञों के अगले चुनाव का खर्च निकालना भर रह गया है।  सरकार बदलने के बाद पूरे विभाग के कर्मचारियों के स्थानांतरण हो गए और छह माह बीतते बीतते सब वापस अपने मुकाम पर आ गए। इस बीच किस की जेब में क्या पहुँचा? यह सब जानते हैं।  जितने विधायक और सांसद जनता ने चुन कर भेजे हैं वे सब उन की चाकरी बजा रहे हैं जिन ने उन के लिए चुनाव का खर्च जुटाया था और अगले चुनाव का जुटा रहे हैं। जब चुनाव नजदीक आएंगे तो वे फिर जनता-राग गाने लगेंगे।

सरकार से जनता स्कूल मांगती है तो पैसा नहीं है, अस्पताल मांगती है तो पैसा नहीं है, वह अदालतें मांगती है तो पैसा नहीं है। सुरक्षा के लिए पुलिस-गश्त मांगती है तो पैसा नहीं है।  चलने को सड़क मांगती है तो पैसा नहीं है।  सरकार का पैसा कहाँ गया? और जो सरकारें पुलिस, अदालत और रक्षा जैसे संप्रभु कार्यों के लिए पैसा नहीं जुटा सकती उसे सरकारें बने रहने का अधिकार रह गया है क्या?  मजदूर न्यूनतम वेतन, हाजरी कार्ड और स्वास्थ्य बीमा मांगते हैं तो वे विद्रोही हैं, नक्सल हैं, माओवादी हैं।  यह खेल आज से नहीं बरसों से चल रहा है।  शांति भंग की धाराओं में बंद करने के बाद उस की जमानत लेने से इंन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट जो सरकार की मशीनरी का अभिन्न अंग है जमानती की हैसियत पर उंगली उठा सकता है। उस का प्रमाणपत्र मांगता है जिसे उसी का एक अधीनस्थ अफसर जारी करेगा।  जब तक चाहो इन्हें जेल में रख लो। अब एक बहाना और नक्सलवादियों/माओवादियों ने नौकरशाहों को दे दिया है। किसी भी जनतांत्रिक, कानूनी  और अपने मूल अधिकार के लिए लड़ने वाले को नक्सल और माओवादी बताओ और जब तक चाहो बंद करो।  झंझट खत्म, और साथ में नक्सलवाद/माओवाद पर सफलता के आंकड़े भी तैयार। सत्ता खुद तो इन नक्सल और माओवादियों से नहीं लड़ पाई। अब जिसे अपने अधिकार पाने हों वही इन से भी लड़े।  नक्सलवाद /माओवाद जनविरोधी सरकारों के लिए बचाव और दमन के हथियार हो गए हैं।  विश्वव्यापी आर्थिक मंदी अभी तलवार हाथ में लिए मैदान में नंगा नाच रही है। उस की चपेट में सब से अधिक आया है तो वह आदमी जो मेहनत कर के अपनी रोजी कमा रहा है। चाहे उस ने सफेद कॉलर की कमीज पहनी हो, सूट पहन टाई बांधी हो या केवल एक पंजा लपेटे परिवार के शाम के भोजन के लिए मजदूरी कर रहा हो।

आने वाला साल मेहनत कर रोजी कमाने वालों और उन पर निर्भर प्रोफेशनलों के लिए सब से अधिक गंभीर होगा।  जीवन और जीवन के स्तर को कैसे बचाया जाए? इस के लिए उन्हें निरंतर जद्दोजहद करनी होगी।  न जाने कितने लोग अपने जीवन और जीवन स्तर को खो बैठेंगे? इसी सोच के साथ इस दीवाली पर तीन दिन से घर हूँ, कहीं जाने का मन न हुआ। यहाँ तक कि ब्लागिरी के इस चबूतरे पर भी गिनी चुनी टिप्पणियों के सिवा कुछ भी अंकित नहीं किया। मुझे लगा कि शुभकामनाएँ, जो इतने इफरात से उछाली-लपकी जा रही हैं, उन्हें सहेज कर रखने की जरूरत है।  हिन्दी ब्लागिरी में मौजूद सभी लोगों को इस की जरूरत है।  आनेवाले वक्त  में संबल बनाए रखने के लिए बहुतों को इन शुभकामनाओं की शिद्दत से जरूरत होगी, उन्हें सहेज कर क्यों न  रखा जाए। 

बुधवार, 10 जून 2009

उद्यम भी श्रम ही है

उद्यमैनेव सिध्यन्ति कार्याणि, न मनोरथै।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य: प्रविशन्ति मुखे मृगा:॥   

हिन्दी के सक्रियतम ब्लागर (चिट्ठा जगत रेंक) श्री ज्ञानदत्त जी पाण्डेय ने उक्त श्लोक अपनी आज की पोस्ट उद्यम और श्रम में उदृत किया है।  इस श्लोक का अर्थ है कि कार्य  मात्र  मनोरथ से नहीं अपितु उद्यम से सिद्ध होते हैं। सोते हुए सिंह के मुख में मृग प्रवेश नहीं करता।  सिंह को अपने लिए आहार जुटाने के लिए किसी पशु को आखेट का उद्यम करना होता है।  क्षुधा होने पर सिंह का शिकार का मनोरथ बनता है। तत्पश्चात उसे पहले शिकार तलाशना होता है। फिर उचित अवसर  देख उस का शिकार करना पड़ता है। बहुधा उसे शिकार का पीछा कर के उसे दबोचना पड़ता है, मारना पड़ता है और फिर उसे खाना पड़ता है।
सिंह की शारीरिक आवश्यकता से मनोरथ उत्पन्न होता है, लेकिन इस मनोरथ की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के श्रम करने की जो श्रंखला पूरी करनी होती है उसे ही उद्यम कहा गया है।   हम पाते हैं कि श्रम उद्यम का अनिवार्य घटक है।  उस की दो श्रेणियाँ हैं।  पहली शारीरिक और दूसरी मानसिक।  सिंह की शारीरिक अवस्था उस में मनोरथ उत्पन्न करती है, अर्थात शिकार का विचार सिंह की भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न होता है। फिर भौतिक परिस्थितियों में किए गए अनुभव के आधार पर मानसिक श्रम और अपने भौतिक बल के आधार पर शारीरिक श्रम करना पड़ता है।
उक्त उद्धरण संस्कृत भाषा के साहित्य से लिया गया है।  वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी शब्दकोष में उद्यम और श्रम से संबंधित शब्दों के अर्थ निम्न प्रकार बताए गए हैं-
उद्यमः  [उद्+यम्+घञ्] = 1.उठाना, उन्नयन 2. सतत् प्रयत्न, चेष्टा, परिश्रम, धैर्य।
उद्यमिन्  [उद्+यम्+णिनि] = परिश्रमी, सतत प्रयत्नशील।
उद्योगः  [उद्+युज्+घञ्] प्रयत्न, = चेष्टा, काम धंधा।
उद्योगिन् [उद्+युज्+घिणुन्] प्रयत्न, = चुस्त, उद्यमी, उद्योगशील।
श्रम् = 1.चेष्ठा करना, उद्योग करना, मेहनत करना, परिश्रम करना,  2.तपश्चर्या करना। 3. श्रांत होना, थकना, परिश्रान्त होना।
श्रमः [श्रम् + घञ्] 1.मेहनत, परिश्रम, चेष्टा, 2.थकावट, थकान, परिश्रांति 3. कष्ट, दुःख, 4. तपस्या, साधना 5. व्यायाम, विशेषतः सैनिक व्यायाम,  6. घोर अध्ययन। 
उक्त सभी शब्दों के अर्थों के अध्ययन से स्पष्ट है कि श्रम उद्यम का अविभाज्य अंग है। उस की उपेक्षा करने से उद्यम संभव नहीं है। मनोरथ की पूर्ति के लिए शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के संयोग को ही उद्यम कहा गया है।
ज्ञान जी ने उक्त आलेख में जिस तरह से श्रम को पूंजी के साथ वर्णित किया है,  उस का प्रभाव यह है कि श्रम तुच्छ है और श्रमिक को अपने हक की मांग नहीं करनी चाहिए, उसे उचित हक दिलाने वाले कानून नहीं होने चाहिए और उसे अपने साथ होने  वाले अन्याय के प्रति संगठित नहीं होना चाहिए। इस  का यह भी प्रभाव है कि आलेख को पढ़ने वाला व्यक्ति श्रम से कतराने लगे।  श्रम को उचित सम्मान नहीं देने और उसे एक निकृष्ठ मूल्य के रूप में स्थापित किए जाने से ही समाज में अकर्मण्यता की उत्पत्ति होती है।   आज यह मूल्य स्थापित हो गया है कि काम को ईमानदारी से करने वाला गधा है, उस पर लादते जाओ और जो काम न करे उस से  बच कर रहो। ज्ञान जी द्वारा प्रस्तुत उदाहरण केवल एक व्यक्ति के श्रम के बारे में है और एक बली और सशक्त पशु से उठाया गया है।  जहाँ केवल प्रकृति जन्य साधनों से जीवन यापन किया जा रहा है।  इस उदाहरण की तुलना में मनु्ष्य समाज अत्यधिक जटिल है।  मनुष्य ही एक मात्र प्राणी है जो प्रकृति से वस्तुओं को प्राप्त कर उन पर श्रम करते हुए उन का रूप परिवर्तित करता है उस के बाद उन्हें उपभोग में लेता है।
आज कल श्रम को एक श्रेष्ठ मूल्य मानने और उसे स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने के विचार को लगातार निम्न कोटि का प्रदर्शित करने का फैशन चल निकला है जो लगातार श्रमशील  लोगों में हीन भावना उत्पन्न करता है।  का प्रयास  इस में उन लालझंडा धारी लोगों का भी योगदान है जिन्हों ने पथभ्रष्ट हो कर श्रम के मूल्य को समाज में स्थापित करने के नाम पर इस मूल्य के साथ बेईमानी की है।  इसी मूल्य के नाम पर उन्हों ने श्रम जगत के साथ घोर विश्वासघात किया है।  लेकिन इस विश्वासघात से श्रम के एक श्रेष्ट मूल्य होने में कोई बाधा नहीं पड़ती।  किसी के कह देने से हीरा कोयला नहीं हो जाता, आग को शीतल कह देने से उस की जलाने की क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ता। 
ज्ञान जी ने कोटा और सवाई माधोपुर के जो उदाहरण दिए हैं वे सही नहीं हैं।  संभवतः उन की जानकारी  इस मामले में वही रही जो उन्हें किसी से सुनने को मिली या जो माध्यमों द्वारा प्रचारित की गई।  इन दोनों  मामलों  के बारे में मेरे व्यक्तिगत अनुभव हैं और जो तथ्य हैं वे खुद उन उद्योगों के मालिकों द्वारा अपनी बैलेंसशीटस् से उद्भूत हैं।  इन मामलों के निपटारे में अदालतों में देरी भी प्रबंधकों द्वारा की गई है। जिस से जितना माल खिसकाया जा सके खिसका लिया जाए। फिर कंपनी बंद, श्रमिक किस से अपनी मजदूरी और लाभ प्राप्त करेंगे।  इन मामलों को अपने ब्लाग के माध्यम से उजागर करने की मेरी इच्छा रही है।  लेकिन समय का अभाव इस में बाधक रहा है। बहुत से दस्तावेज अवश्य मेरे कम्प्यूटर के हार्ड ड्राइव में अंकित हैं जिन्हें प्रस्तुत किया जा सकता है। कभी इस का अवसर हुआ तो अवश्य ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि कभी भी कोई उद्योग किसी यूनियन की हड़ताल के कारण बंद नहीं होता।  लेकिन  उसे प्रत्यक्ष रुप में कारण प्रचारित करने में बहुत धन खर्च किया जाता है। बहुधा वास्तविक कारण कम लाभ के उद्योग से पूंजी निकाल कर अधिक लाभ के उद्योगों में निवेश करना होता है।  सभी उद्योग पुराने होने के कारण जीर्ण हो कर बंद होते हैं, पर अधिकांश पहले कारण से जीर्णावस्था प्राप्त होने के पहले ही उद्योगपतियों द्वारा बंद कर दिए जाते हैं। जब उद्योग को बंद करना होता है तो सब से पहले उद्योगपति विभिन्न  प्रशासनिक खर्चे बता जितनी पूंजी को काला कर अपनी जेब के हवाले कर सकते हैं कर लेते हैं।  जिस से वह उद्योग घाटा दिखाने लगता है।  फिर बैंकों से लिए गए उधार में कटौती चाहते हैं।  पुनर्चालन (रिवाईवल) के नाम पर उधार में छूट प्राप्त कर लेते हैं।  फिर उद्योग को चलाने का नाटक करते हैं।  इस के लिए वे हमेशा किसी ऐसी कंपनी को चुनते हैं जिसे कबाड़ा बेचने का अनुभव हो।  वह धीरे धीरे अपना काम करता है और उद्योग की अधिकांश संपत्ति को ठिकाने लगा देता है।  कंपनी को न चलने योग्य घोषित कर दिया जाता है।  श्रमिकों के बकाया के चुकारे के लिए कुछ शेष छोड़ा ही नहीं जाता।  उद्योगों की भूमि हमेशा उद्योग की कंपनी के पास लीज पर होती है।  सरकार उसे अधिग्रहीत कर लेती है।  उसी समय नेतागण उसे हड़पने के चक्कर में होते हैं।  उद्योग के लिए आरक्षित भूमि सस्ते दामों पर नेता लोग हथिया लेते हैं और उसे बाद में आवासीय और व्यावसायिक भूमि में परिवर्तित कर करोडों का वारा न्यारा कर लेते हैं।  श्रमिकों को कुछ नहीं मिलता।  उन में से अनेक और उन के परिजन आत्महत्या कर लेने को बाध्य होते हैं।  शेष अपनी लड़ाई लड़ने में अक्षम हो कर नए कामों पर चले जाते हैं।  कुल मिला कर काला धन बनाने वाला उद्यमी सरकार, सार्वजनिक बैंकों की पूंजी और श्रमिकों सब को धता बता कर अपनी पूँजी आकार बढा़ता है। यदि यही उद्यम है तो इसे दुनिया से तुरंत मिट जाना चाहिए। 
यह सही है कि हमारा कानून दिखाने का अधिक और प्रायोगिक कम है। इसे वास्तविक परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए।  न्याय व्यवस्था को चाक-चौबंद और तीव्र गति से निर्णय करने वाली होना चाहिए।  लेकिन उस के लिए कितने लोग संघर्ष करते दिखाई देते हैं? श्रम कानून संशोधित किए जाने चाहिए और उन की पालना भी सुनिश्चित की जानी चाहिए।  बीस वर्ष पहले श्रम कानून श्रमिकों के पक्ष में दिखाई देते थे।  उन्हें बदलने के लिए 1987 में एक बिल भी लाया गया था। जिसे स्वयं उद्योगपतियों की पहल पर डिब्बे में बंद कर दिया गया। क्यों कि उस बिल की अपेक्षा श्रम कानूनों को लागू करने वाली मशीनरी को पक्षाघात की अवस्था में पहुँचाना उन्हें अधिक उचित लगता था।  आज श्रम कानूनों की पालना नहीं हो रही है।  न्यायपालिका की सोच उसी तरह बदल दी गई है।  बिना एक भी कानून के बदले समान परिस्थितियों में जजों के निर्णय  श्रमिकों के पक्ष में होने के स्थान पर मालिकों के पक्ष में होने लगे हैं।  जजों की सोच को कंपनियों ने रिटायरमेंट के बाद काम देने का प्रलोभन दे दे कर बदल दिया है।

यह भी सही है कि उद्यम में पूंजी, श्रम और दिमाग सब लगते हैं।  दिमाग का काम भी श्रम ही है  और पूंजी भी संचित श्रम ही है। यदि उद्यमी को श्रम से प्रथक मानें तो भी प्रत्येक उद्यमी के साथ दसियों/ सैंकड़ों श्रमिक भी चाहिए। 
  आधुनिक श्रमजीवी (एक पूर्णकालिक सोफ्टवेयर इंजिनियर)
आमिर कसाब और अफजल गुरू वाला मामला भी न्याय प्रणाली के पक्षाघात का है।  उसे पक्षाघात से निकाला जाना जरूरी है।  यह तो कैसे हो सकेगा कि आप कुछ मामलों में चुन कर शीघ्र न्याय करें और शेष को  बरसों में निपटने के लिए छोड़ दें।  आमिर कसाब और अफजल गुरू को शीघ्र सजा दे कर भारतीय जनता के घावों को ठंडक अवश्य पहुँचाई जा सकती है,  लेकिन जनता के घावों को तो समूची न्याय प्रणाली को द्रुत और भ्रष्टाचारहीन बना कर ही किया जा सकता है।  जिस के लिए देश में सतत आंदोलन की आवश्यकता है।  अभी आमिर कसाब और अफजल गुरू के मामलों की रोशनी में दृढ़ इच्छा शक्ति के राजनैतिक दल या सामाजिक संस्थाएँ यह आंदोलन खड़ा कर सकती थीं।  लेकिन न्याय होने में किस की रुचि है?