"लघुकथा"
मंगलवार, 2 दिसंबर 2025
जय जनतंत्र, जय संविधान¡
"लघुकथा"
सोमवार, 11 अगस्त 2025
नागरिकता की कसौटी पर लोकतंत्र: बिहार की मतदाता-सूची पर उठते सवाल
बिहार में चुनावी मौसम दस्तक दे चुका है, लेकिन इस बार चर्चा न तो घोषणापत्रों की है, न ही गठबंधनों की। इस बार बहस उस बुनियादी दस्तावेज़ पर है, जो लोकतंत्र की पहली सीढ़ी है—मतदाता-सूची। भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 24 जून 2025 को जारी आदेश ने इस प्रक्रिया को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहां नागरिकता और मताधिकार के बीच एक नई दीवार खड़ी होती दिख रही है।
लोकतंत्र की नींव
पर प्रहार
बिना पर्याप्त तैयारी और प्रशिक्षण के, एक महीने के भीतर नई मतदाता-सूची तैयार करने के निर्देश ने प्रशासनिक अव्यवस्था को जन्म दिया। बीएलओ को फॉर्म
भरवाने, फोटो और हस्ताक्षर लेने की जिम्मेदारी दी गई,
लेकिन समय के दबाव में नियमों की अनदेखी आम हो गई। जनसुनवाइयों और
रिपोर्टों से यह स्पष्ट है कि कई बार केवल आधार कार्ड और फोन नंबर लेकर फर्जी
हस्ताक्षर के साथ फॉर्म अपलोड किए गए। यह प्रक्रिया न केवल अव्यवस्थित थी, बल्कि इसने लोकतंत्र की आत्मा—विश्वसनीयता और समावेशिता—को भी आहत किया
है।
लाखों मतदाता
सूची से बाहर: यह कैसा लोकतंत्र है?
1 अगस्त को जारी मसौदा सूची में 7.24 करोड़
मतदाता शामिल हैं, जबकि पहले की सूची में यह संख्या 7.89
करोड़ थी। यानी लगभग 65 लाख लोग गायब हैं। यह आंकड़ा सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि उन नागरिकों की पहचान है जिन्हें उनके मताधिकार से वंचित किया जा
रहा है। क्या यह लोकतंत्र का अपमान नहीं?
नागरिकता साबित
करने की शर्त: एक खतरनाक मोड़
अब मतदाताओं से अपेक्षा की जा रही है कि वे 11
दस्तावेज़ों में से कम से कम एक प्रस्तुत करें, जिससे उनकी
नागरिकता सिद्ध हो सके। सुप्रीम कोर्ट में आयोग द्वारा प्रस्तुत हलफनामे में कहा
गया कि नागरिकता साबित करना अब मतदाता की जिम्मेदारी है। यह एक खतरनाक बदलाव है।
अब तक नागरिकता की जांच केवल संदेह की स्थिति में होती थी, लेकिन
अब यह एक सामान्य शर्त बनती जा रही है। इस तरह कानून की अवधारणा को पूरी तरह उलट
दिया गया है। देश में निवास कर रहे व्यक्ति को यदि कोई (सरकार या कोई भी संस्था)
भी कहता है कि वह नागरिक नहीं है तो इसे साबित करने की जिम्मेदारी उस किसी व्यक्ति,
सरकार या संस्था की है। लेकिन इसे उलटा जा रहा है, यह जिम्मेदारी अब नागरिक पर
डाली जा रही है, यह सरासर गलत है। यह पूरी तरह फासीवादी अवधारणा है और पूरी तरह असंवैधानिक
ही नहीं है, बल्कि उन करोड़ों नागरिकों के लिए अपमानजनक है
जिनके पास ये दस्तावेज़ नहीं हैं।
मनमानी का खतरा
और लोकतंत्र की गिरती साख
निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) को यह अधिकार
दिया गया है कि वे तय करें कि कोई व्यक्ति नागरिक है या नहीं। यह अधिकार, यदि बिना पारदर्शी दिशा-निर्देशों के लागू होता है, तो
मनमानी और भेदभाव की आशंका को जन्म देता है। विशेष रूप से गरीब, वंचित और हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए यह प्रक्रिया एक नए प्रकार के
उत्पीड़न का माध्यम बन चुका है।
यह सिर्फ बिहार
नहीं, पूरे देश की चिंता है
यह विशेष गहन पुनरीक्षण केवल बिहार तक सीमित
नहीं है। यह पूरे देश में लागू होना है। ऐसे में यह सवाल उठाना जरूरी है—क्या हम
एक समावेशी लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, या एक ऐसे तंत्र की
ओर, जहां नागरिकता साबित करना ही नागरिक होने की शर्त बन जाए?
मतदाता-सूची का पुनरीक्षण यदि समावेशिता,
पारदर्शिता और संवेदनशीलता के साथ नहीं किया गया, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को आहत करेगा। नागरिकता कोई दस्तावेज़ नहीं,
बल्कि एक जीवंत अनुभव है—जिसे हर नागरिक अपने अधिकारों के माध्यम से
जीता है। उसे कागज़ों की कसौटी पर तौलना, लोकतंत्र को कमजोर
करना है।
इस प्रक्रिया पर पुनर्विचार करना आवश्यक है, क्योंकि
सवाल सिर्फ मतदाता-सूची का नहीं, लोकतंत्र की आत्मा को जीवित
बचाने का है।
सोमवार, 18 जून 2012
हमें का हानि?
बाबूलाल फिटर बिना नागा रोज सुबह साढ़े नौ बजे राधे की पान की दुकान पर पहुँच जाता है।
तब पान की दुकान खुली ही होती है। वह पान की दुकान के आरंभिक कामों में
राधे की मदद करता है। राधे उसे चाय पिलाता है और मुफ्त में तम्बाकू खाने
देता है। आसपास नल और सेनेटरी फिटिंग का सामान बेचने वालों की दुकानें हैं।
उन दुकानों पर नल और सेनेटरी फिटिंग की मरम्मत कराने वाले पहुँचते हैं।
दुकानदार मरम्मत कराने वालों को बाबूलाल से मिलवा देते हैं, उसे काम मिल
जाता है। कई वर्षों से वह यही काम कर रहा है। उस के रिश्तेदारों ने उस की
पत्नी को बहुत परेशान किया जिसे वह बहुत चाहता था। पत्नी बीमार हो कर एक
बेटी को छोड़ चल बसी। बाबू को मानसिक आघात लगा। उस ने बेटी के खातिर दूसरा
विवाह कर लिया। दूसरी पत्नी भी उसे प्रेम करने वाली मिली जिसे वह अपने सभी
रिश्तेदारों से बचा कर रखता है। उस की बेटी बड़ी हो रही है और तीसरी क्लास
में पढ़ती है। पहली पत्नी को परेशान करने वाले रिश्तेदार उसे राक्षस प्रतीत
होते हैं। वह चाहता है उन्हें अपने किए की सजा मिले। लेकिन वह उन का कुछ
नहीं बिगाड़ सकता। सरकारी मशीनरी उस की सुनती नहीं। उसे सुनाने के साधन उस
के पास नहीं हैं। जब भी वह फालतू होता है तो पुरानी बातें सोचते सोचते इन
रिश्तेदारों के प्रति गुस्से से भर उठता है। तब वह पान की दुकान के सामने
फुटपाथ पर इधर से उधर चहल कदमी करते हुए अपने राक्षस रिश्तेदारों के लिए
हवा में गालियाँ फेंकने लगता है। उसे विश्वास है कि उस के भगवान कभी न कभी
उन राक्षसों को अवश्य दंडित करेंगे, यही वह बोलता रहता है। लोग उस का
तमाशा देखने लगते हैं। कभी कोई उसे उस हालत में छेड़ दे तो उस से वह शत्रु
की तरह भिड़ जाता है। लेकिन कोई उसे प्रेम से पुकारे तो वह गुस्से के मोड
से बाहर आ कर एक सामान्य व्यक्ति की तरह व्यवहार करने लगता है। बाबूलाल
भारत का एक आम नागरिक है, जो केवल अपने भरोसे जीता है।गुरुवार, 31 मई 2012
जनतंत्र का अव्वल नियम
आज कल हर कोई डेमोक्रेसी, मतलब जनतंत्र के हाथ धो कर पीछे पड़ा रहता है। जैसे जनतंत्र न हुआ एवरेस्ट की चुटिया हो गया, जिस पर चढ़ना बहुत ही टेड़ी खीर हो। नए नए मिनिस्टर बने हमारे मोहल्ले के छन्नू नेता ही देख लें। वे जनतंत्र को समझें या न समझें पर पूरा भाषण पेल सकते हैं। कोई उन से पूछ कर देखे कि आप जानते भी हैं डेमोक्रेसी कौन चिड़िया का नाम है? उन में तुरंत लक्ष्मण की आत्मा आ जाती है। सवाल पूछने वाला परशुराम लगने लगता है। हम को क्या समझा है? ‘बहु धनुहीं तोरीं लरिकाई’। हमने बचपन से कोई खोर थोड़े ही पीसी है। तावड़े में बाल धोले थोड़े ही किए हैं। पहली किलास से मानीटर रहे और तीसरी तक पहुँचते पहुँचते बालसभा के मंत्री हो गए। फिर तो मुड़ कर देखा ही नहीं। जनतंत्र की नब्ज नब्ज पहिचानते हैं। पिराईमरी में बच्चों को पानी बतासे और नारंगी की खट्टी मीठी गोलियाँ खिलाते थे। जो काबू नहीं आता था उस की नाक तोड़ देते थे। बस वही फारमूला वही है। पानी बतासे और नारंगी की गोलियाँ बदल गई हैं। कैसे भी हो कमान अपने हाथ रहनी चाहिए। डेमोकिरेसी कोई आज से है क्या हमारे मुलक में? भगवान बुद्ध से भी पहले गणतंत्र होते थे। हमारे देश की तो नस नस में जनतंत्र व्याप्त है। अंग्रेजों ने भारत छोड़ा, अपना संविधान बना, तब से डेमोक्रेसी बहुत आसान हो गई है। बस चुनाव जीतो, फिर जैसे तैसे जीते हुओं को पटाकर रखो। फिर गद्दी अपनी। गद्दी अपने पास हो तो डेमोक्रेसी क्या खा कर चलने से मना करेगी? वायरस पार्टी को देख लो कब से एक नेता के बल पर चल रही है। नेता मर जाए तो नेता चुनने का ज्यादा कुछ चक्कर ही नहीं । नेता के खानदान में जो भी मिले उसे पकड़ कर माला पहना देते हैं। कोई न भी मिले तो नेताजी के घर के अनावर-जनावर तक से काम चला लेते हैं। बड़े ठाठ से राज चल रहा है। कभी राज से बाहर हो भी गए तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। जैसे तैसे वापस लौट ही आते हैं। अब तो फिक्र करना ही बंद कर दिया है। सामने मैदान में कोई दमदार हो तो फिक्र हो।
बहुत तो हैं मैदान में। ततैया पार्टी है, बर्र पार्टी है, कछुआ और खरगोश पार्टियाँ हैं, और क्या चाहिए? मच्छर, मक्खी पार्टियों को जश्न में अपनी टेबल पर बिठा कर खिलाने-पिलाने से जनतंत्र में गद्दी पक्की नहीं होने वाली। बहुत कुछ करना पड़ेगा। फिर बैक्टीरिया पार्टी से कैसे निपटोगे? देखा नहीं? तीन तीन प्रान्तों में भरपूर विकास के साथ पुख्तगी से जनतंत्र चला रहे हैं। कुछ दिन पहले तक लोग भले ही कहते हों, डेमोक्रेसी को हाँकने एक नेता तक नहीं है बैक्टीरिया पार्टी के पास। एक वेटिंग में चल रहा था. वह भी बूढ़ा हो चला है शेष जो हैं उन में किसी के पास लियाकत ही नहीं। अब कोई कह के देखे? आज बैक्टीरिया पार्टी का बच्चा बच्चा छाती ठोक कर कहता है, हमारे पास भी नेता है। अरब सागर के किनारे खड़ा हो कर हूँकार भरता है तो जमना का किनारा दहल जाता है। देखा नहीं कल टी.वी. पर, कैसे हूँकार भर रहा था? हफ्ते भर में पार्टी की बिसात बदल के रख दी। इसे कहते हैं, जनतंत्र का चलना और चलाना। लोग बेफालतू बकते रहते हैं। जनतंत्र कोई संविधान से चलता है। वह चलता है, तिकड़म से। संविधान तो बजाने का झुनझुना है, जब देखो कि झुनझुना किसी के आड़े आ रहा है तो उसे बदलवा डालो। रास्ता खुल जाता है, परंपरा पड़ जाती है। जब अपने आड़े आएगा तो परंपरा अपने काम आएगी। वोट की कीमत पहचानो। जब मौका आए तो पूरा ब्लेकमेल करो, विरोधियों को घर से बेदखल करवाओ। फिर खेलो खेल औरंगाबादी, अहमदाबादी। औरंगजेब से सीखो। बादशाह बनना कोई बच्चों का खेल नहीं। ये जनतंत्र का अव्वल नियम है। जो मुकाबले पर आए उसे कैद कर लो या कलम कर दो। ऐसा तुम न करोगे तो वे तुम्हें कलम कर देंगे, फिर चला लिया जंनतंत्र।

शनिवार, 27 अगस्त 2011
सच के ठाठ निराले होंगे
- महेन्द्र 'नेह'
सोमवार, 22 अगस्त 2011
भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए लंबा और सतत संघर्ष जरूरी
अब
ये सवाल उठाया जा रहा है कि क्या जन-लोकपाल विधेयक के ज्यों का त्यों
पारित हो कर कानून बन जाने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा? यह सवाल सामान्य
लोग भी उठा रहे हैं और राजनैतिक लोग भी। जो लोग वोट की राजनीति को नजदीक
से देखते हैं, उस से प्रभावित हैं और हमारी सरकारों तथा उन के काम करने के
तरीकों से भी नजदीकी से परिचित हैं उन के द्वारा यह प्रश्न उठाया जाना
स्वाभाविक है। लेकिन आज यही प्रश्न कोटा में राजस्थान के गृहमंत्री शान्ति
धारीवाल ने कुछ पत्रकारों द्वारा किए गए सवालों के जवाब में उठाया। मुझे इस
बात का अत्यन्त क्षोभ है कि एक जिम्मेदार मंत्री इस तरह की बात कर सकता
है। जनता ने जिसे चुन कर विधान सभा में जिस कर्तव्य के लिए भेजा है और जिस
ने सरकार में महत्वपूर्ण मंत्री पद की शपथ ले कर कर्तव्यों का निर्वहन करने
की शपथ ली है वही यह कहने लगे कि इस कर्तव्य का निर्वहन असंभव है तो उस से
किस तरह की आशा की जा सकती है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि आज देश की
बागडोर ऐसे ही लोगों के हाथों में है। मौजूदा जनतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था
में यह जनता की विवशता है कि उस के पास अन्य किसी को चुन कर भेजे जाने का
विकल्प तक नहीं है। ऐसी अवस्था में जब रामलीला मैदान पर यह प्रश्न पूछे
जाने पर कि आप पार्टी क्यों नहीं बनाते, खुद सरकार में क्यों नहीं आते
अरविंद केजरीवाल पूरी दृढ़ता के साथ कहते हैं कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे तो
उन की बात तार्किक लगती है। बुधवार, 15 जून 2011
'हाँ' या 'ना' ... ? ... ? ... ?
ओ, जनता!!
तुम तो जानती ही हो, ये जनतंत्र है। हम हर पाँच बरस में तुम्हारे पास आते हैं। तुम्हारे लिए पलक पाँवड़े बिछाते हैं। घर-घर जाते हैं, हाथ जोड़ते हैं, पाँव पड़ते हैं। किसी को दो रुपए किलो चावल दिलाते हैं। किसी को बिजली मुफ्त में। फिर भी कसर रह जाती है तो दारू की थैलियाँ बँटवाते हैं। कहीं कहीं तो नोट तक बाँट देते हैं। फिर वोट पड़ता है तो चुनाव आयोग की सारी पाबन्दियों के बाद भी तुम्हारे घर मोटर कार, जीप वगैरा भेज कर वोट के लिए ढो कर लाते हैं। घर से तुम्हें उठाने से ले कर वापस पहुँचाने तक का नाश्ते पानी का सारा जिम्मा उठाते हैं। भला ऐसा किसी और तंत्र में हो सकता था? इसी को जनतंत्र कहते हैं। इस से बड़ा और भला कोई जनतंत्र हो सकता है?
अब देखो ना! ये लोग कितने बेहया हैं? तुमने हमें जिताया, जीतने वाले कम पड़े तो हमने कुछ और लोगों को पटाया। पर राज बनाया। हमने तुमसे वादा किया था कि पूरे पाँच साल टिकेंगे। तुमने रोशनी मांगी थी हम ने परमाणु समझौता कर के एटमी बिजली के कारखाने बनाने के लिए अपनी और देश की नाक कटवा कर भी समझौता किया। आखिर क्यों न करते? हमने रोशनी का वायदा जो किया था। वो बाईँ बाजू वाले बहुत पीछे पड़े। उन्हों ने तमाम घोड़े खोल लिए, दाएँ बाजू वालों से मिल गए, हमारे खिलाफ वोट दिया। लेकिन क्या हुआ? हम ने फिर भी अपने लिए वोट कबाड़ ही लिए। हमें कुछ भी करना पड़ा। पर तुम से किया वायदा निभाया। इस से बढ़िया और कौन हो सकता है? जो हर हाल में वायदा निभाए।
एक वो, केसरिया लंगोटी-अंगोछा पहने कसरतें सिखाता सिखाता तुम्हें सिखाने निकल गया। जैसे पहले के जमाने में जवानी बरकरार रखने की दवाएँ सड़क किनारे मजमा लगा कर बेचा करते थे। ऐसे मजमा लगाया। कुछ लोग उस के दवा ऐजेंट क्या बन गए कि सोचने लगा देश की हालत बदल देगा। आखिर हमारे होते वह ऐसा कैसे कर लेता। हमने क्या निपटाया उसे। दुनिया को मजबूत बनाने की नसीहत देने वाला बहुत कमजोर निकला। पहले तो इधर उधर से खबरें भेज कर उसे डराया, चिट्ठी लिखाई, तुम्हें बताई तो डर गया। जरा सी पुलिस देखी कि डर कर मंच से कूद कर भागा। कैसे भेस बदला? अब क्या बताएँ अपने मुख से बताते शर्म आती है। तुम्हें तो सब पता ही है। तुम ने तो सब लाइव देखा ही है। अब देखो आठ दिन में ही टें बोल गया। अस्पताल से छूटा तो लगता था बरसों से बीमार है। देखा हमने जोगी का जोग निकाल दिया।
ये भी कोई बात हुई कि प्रधानमंत्री को भी दायरे में लाओ। हम ले भी आएँ। पर जिसे तुमने ही दायरे से बाहर कर दिया हो, उसे दायरे में कैसे ले आएँ। मान ली बात कि सारी जमात को ट्रेन में टिकट ले कर सफर करना चाहिए। पर कम से कम एक तो बिना टिकट होना ही चाहिए। ये क्या ट्रेन चलाने वाले ड्राइवर को भी टिकट लेना पड़ेगा क्या? हम ने उन से कह दिया है, या तो हमारी बात माननी पड़ेगी नहीं तो हम तुम्हारे-हमारे दोनो के फोटो मंत्रालय को भेज देंगे। मंत्रालय खुद फैसला कर लेगा। मंत्रालय में कोई और थोड़े ही बैठा है? वहाँ भी हम ही तो हैं। वह तो वैसा ही करेगा जैसा हम चाहेंगे। तो जनता देख लो। ये लोग तु्म्हारे नाम पर तुम्हारी पग़ड़ी उछालना चाहते हैं। पर हम ऐसा नहीं होने देंगे। पक्का वादा है तुमसे, हम मरते मर जाएंगे पर ऐसा नहीं होने देंगे। हम डरते हैं तो तुमसे ही डरते हैं, वो भी पाँच बरस में एक बार। अब बार बार डरना पड़े तो जनतंत्र कैसे चला पाएँगे? ये समझते ही नहीं पाँच बरस से पहले ही हमें वापस बुलाने का अधिकार चाहते हैं। पर ऐसा हम कैसे होने दे सकते हैं। हम तो पाँच बरस में एक बार तुम्हें कष्ट देते हैं वही बहुत है। हमारा बस चले तो जीते जी तुम्हें कष्ट दें ही नहीं। एक बार पूछ लिया वही क्या बहुत नहीं है, जीवन भर के लिए? अच्छा तो अब चलते हैं। फिर मिलेंगे। तुम तो तान खूँटी सोओ, आराम करो। ऐसे वैसों की सुनने की जरूरत ही नहीं है। बुधवार, 26 जनवरी 2011
जनशिक्षण और जनसंगठन के कामों में तेजी लानी होगी
किसान और मजदूर जनता की संख्या विशाल थी और जिस तरह का संविधान निर्मित हुआ था उस की आवश्यक शर्त यह थी कि इस विशाल जनसंख्या से हर पाँचवें वर्ष सहमति प्राप्त कर के ही कोई सरकार इस देश में बनी रह सकती थी। पहले आम चुनाव ने कांग्रेस को विशाल बहुमत प्रदान किया। लेकिन जो लोग चुने जा कर संसद पहुँचे उन में से अधिकांश पहले दो वर्गों, सामंतों और पूंजीपतियों के प्रतिनिधि थे। पूंजीपतियों को पूंजीवाद की बेहतरी चाहिए थी तो सामंतों को अपने अधिकारों की सुरक्षा। लेकिन दोनों के हित टकराते थे। पूंजीपति उदीयमान शक्ति थे लेकिन उन की बेहतरी इस बात में थी कि देश में सामंती संबंध शीघ्रता से समाप्त हों। जमीनें और किसान सामंतों से आजाद हो जाएँ। किसान भी सामंतों से आजादी चाहते थे। लेकिन मजदूर वे ताकत थे जो पूंजीपतियों से बेहतर सेवा शर्तें चाहते थे और किसानों के ही पुत्र थे। किसान और मजदूरों जल्दी संगठित और शिक्षित होना पूंजीपति वर्ग के लिए बहुत बड़ा खतरा था। क्यों कि ये ही थे जो पूंजीपति वर्ग के अनियंत्रित विकास के विरुद्ध था और अपने लिए बेहतर जिन्दगी की मांग करता था। आजादी के आंदोलन ने इसे असहयोग की ताकत को समझा दिया था।
यही वह कारण था जिस ने पूंजीपति और सामंती वर्गों को एक दूसरे के सब से बड़े शत्रु होते हुए भी मित्रता के लिए बाध्य कर दिया, दोनों में भाईचारा उत्पन्न किया। अब दोनों की चाहत यही थी कि भारत की संसद में जो प्रतिनिधि पहुँचें वे उन के हित साधक हों लेकिन इतने होशियार, चंट चालाक भी हों कि किसानों, मजदूरों, खुदरा दुकानदारों आदि को एन-केन-प्रकरेण उल्लू बना कर हर पाँच वर्ष बाद चुन कर संसद में पहुँच जाएँ और उन के हितों की रक्षा करते रहें। आजादी के बाद का भारत का इतिहास इसी खेल की कहानी है। राजनैतिक दल इसी खेल का हिस्सा हैं। देश की नौकरशाही राजनैतिक दलों और प्रभुवर्गों के बीच संबंधों को बनाए रखने का काम करती है। यह खेल पर्दे के पीछे काले धन और भ्रष्टाचार के व्यापार के बिना चल नहीं सकता। इस व्यापार के दिन दुगना और रात चौगुना बढ़ने का कारण यही है। यह रुके तो कैसे? यही तो प्रभुवर्गों का प्राणरक्षक है।
एक ओर दोनों प्रभुवर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल हैं जो जनता को उल्लू बनाते हैं और हर पाँच वर्ष बाद संसद में पहुँच जाते हैं। दूसरी ओर किसानों और मजदूरों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल भी हैं, लेकिन वे कमजोर हैं और बंटे हुए हैं। प्रभुवर्ग भी यही चाहते हैं कि इस श्रमजीवी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीति कमजोर और बंटी हुई ही रहे। यही कारण है कि इन का प्रतिनिधित्व करने वाले दोनों बड़े दल और उन के सहायक दल जनता को बाँटने वाली राजनीति का अनुसरण करते हैं और जनता में विद्वेष फैलाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। चाहे वह सम्प्रदायवाद हो, जातियों पर बंटी हुई राजनीति, घोर अंध राष्ट्रवाद हो या कोई और तरीका। हमारी जनता की पुरानी मान्यताएँ इन का साथ देती हैं। इस के मुकाबिल श्रमजीवी जनता की राजनीति अत्यन्त कठिन और दुष्कर है। उसे इन सब चीजों से जूझना पड़ता है। जनता को लगातार शिक्षित और संगठित करना पड़ता है। श्रमजीवी जनता की राजनीति इसी काम में बहुत पिछड़ी हुई है। जनता के साथ संपर्क के साधनों और मीडिया पर दोनों प्रभुवर्गों का कब्जा उस के इस काम को और दुष्कर बनाता है। यदि श्रमजीवी जनता को मुक्त होना है तो उन के अगुआ लोगों को जनशिक्षण और जनसंगठन के कामों में तेजी लानी ही होगी। यही एक मार्ग है जिस से देश की श्रमजीवी जनता को जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति प्राप्त हो सकती है और हम भारत को एक स्वस्थ जनता के जनतांत्रिक गणतंत्र बना सकते हैं। बुधवार, 5 जनवरी 2011
आह! मेरे, दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र !
अब चिदम्बरम जी भारत सरकार के गृहमंत्री हैं, वे इस बात को कैसे सोच सकते हैं कि बिनायक सेन को 7 मई को गिरफ्तार किया गया था, अगस्त 2007 में उस मुकदमे में आरोप पत्र दाखिल किया गया और फैसला हुआ 24 दिसंबर 2010 को। यह भी तब जब सर्वोच्च न्यायालय ने अदालत को मुकदमे की शीघ्र सुनवाई करने का आदेश दिया था। वर्ना हो सकता था कि अभी इस फैसले में कुछ साल और लग जाते। चिदम्बरम जी के पास शायद कानून मंत्रालय कभी नहीं रहा। राज्य सरकार का अनुभव तो उन्हें है ही नहीं। उन्हें शायद यह भी पता नहीं कि इस देश को वर्तमान में 60000 अदालतों की जरूरत है, और हैं लगभग 15000 मात्र। हम चौथाई अदालतों से काम चला रहे हैं और लोग कम से कम चार गुना अधिक समय तक मुकदमे झेल रहे हैं। केन्द्र सरकार हर बार चिंता जताती है। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है जिसे उठाने में उन्हें रुचि लेनी चाहिए। लेकिन उन की सुनता कौन है। कांग्रेसी सरकारें ही इस बात पर कान नहीं देतीं तो अन्य दलों की सरकारों का उस से क्या लेना-देना है।
बिनायक सेन के मामले में अभी सत्र न्यायालय का निर्णय हुआ है। अब मामला उच्च न्यायालय में जाएगा। वहाँ जो हालात हैं उस में वहाँ से फैसला होने में तीन-चार वर्ष भी लग सकते हैं, उस के उपरांत फिर कहा जा सकता है कि न्यायिक प्रक्रिया यहीं तक नहीं रुकती, आगे सर्वोच्च न्यायालय भी है। जहाँ इस तरह के मामले में सुनवाई में और चार-पाँच वर्ष लग सकते हैं। तब जा कर न्यायिक प्रक्रिया का अंत हो सकेगा। यही दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र का सच है। तब तक बिनायक सेन को जेल में रहना होगा। उन की पत्नी और दो बेटियों को उन के बिना रहना होगा, बिनायक सेन को सजा सुनाए जाने के बाद से ही पुलिस लगातार जिन का पीछा करती रही है। इस के साथ ही देश की वंचित जनता को उन के दिल की सुनने वाले एक चिकित्सक से वंचित होना पड़ेगा। जब तक बिनायक सेन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अंतिम निर्णय नहीं दे देता, तब तक इतने लोगों की सजाएँ साथ-साथ चलेंगी। डॉ. सेन बाइज्जत बरी हो भी जाएँ, तो क्या इन सजाओं का औचित्य क्या रह जाएगा?
चिदम्बरम जी! आप को शायद छत्तीसगढ़ के जंगलों के नीचे छुपी संपदा को निकालने और भरी हुई थैलियों को और मोटी बनाने की अधिक चिंता है। इस देश के न्यायार्थी को न्यूनतम समय में न्याय प्रदान करने की नहीं। शायद आप तो भूल भी गए होंगे कि इसी देश की संसद ने यह संकल्प पारित किया था कि प्रत्येक दस लाख की जनसंख्या पर 50 अदालतें स्थापित होनी चाहिए, यह लक्ष्य 2008 तक पूरा कर लिया जाए। लेकिन इस संकल्प का क्या हुआ? यह भी आप को पता नहीं होगा। हम दुनिया के सर्वाधिक उदार लोकतंत्र जो हैं। हम मुकदमे का निर्णय इतनी जल्दी कर क्यों अपनी उदारता त्यागें?रविवार, 13 दिसंबर 2009
एक पूरा छुट्टी का दिन : बहुत दिनों के बाद
- शिवराम
शनिवार, 28 नवंबर 2009
वादा पूरा न होने तक प्रमुख की कुर्सी पर नहीं बैठेगी ममता
यात्रा की बात बीच में अधूरी छोड़ इधर राजस्थान में स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम की बात करते हैं। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत से कुछ स्थान कम मिले थे। लेकिन उस कमी को पूरा कर लिया गया। राजस्थान में कांग्रेस के बाद दूसरी ताकत भाजपा है, लेकिन उस में शीर्ष स्तर से ले कर तृणमूल स्तर तक घमासान छिड़ा है। नतीजा यह हुआ कि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने बढ़त बना ली। अब राजस्थान के आधे स्थानीय निकायों के चुनाव हुए हैं और जो परिणाम आए हैं उन से कांग्रेस को बल्लियों उछलने का मौका लग गया है। कोटा में पिछले 15 वर्षों से भाजपा का नगर निगम पर एक छत्र कब्जा था। भाजपा चाहती तो इस 15 वर्षों के काल में नगर को एक शानदार उल्लेखनीय नगर में परिवर्तित कर सकती थी। लेकिन नगर निगम में बैठे महापौरों और पार्षदों ने अपने और अपने आकाओं के हितों को साधने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया।शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
'गिरता है शह सवार ही मैदाने जंग में'
भारतीय जनता पार्टी के दो पुरोधा अडवाणी और जसवंत (जिन में से एक निकाले जा चुके हैं) जिन्ना को सेकुलर कह चुके हैं, तो कोई तो वजह होगी। नेहरू पर उंगली उठाने से नेहरू की सेहत पर क्या फर्क पड़ेगा? उन पर पहले भी बहुत उंगलियाँ उठती रही हैं, और उठती रहेंगी। यह एक खास राजनीति की जरूरत भी है। फिर यह भी है कि गलतियाँ किस से नहीं हुई? कौन घुड़सवार है जो घोड़े से नहीं गिरा? मशहूर उक्ति है कि 'गिरता है शह सवार ही मैदाने जंग में'। जो मैदाने जंग में ही नहीं हो वही नहीं गिरेगा। बाद में लड़ने वालों पर उंगलियाँ भी वही उठाता है।
गलती तो बहुत बड़ी भारतीय साम्यवादियों से भी हुई थी। वे अपने ही दर्शन को ठीक से नहीं समझ कर मनोवाद के शिकार हुए थे। सोवियत संघ और मित्र देशों का पक्ष ले कर अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम से अपने को अलग कर लेने की गलती के लिए उसी सोवियत संघ के और विश्व साम्यवाद के सब से बड़े नेता स्टॉलिन ने भी उन्हें गलत ठहराया था। उस के बाद भी उन्हों ने कम गलतियाँ नहीं की हैं। कभी वामपंथी उग्रवाद के बचकानेपन के और कभी दक्षिणपंथी अवसरवाद के शिकार होते रहे हैं और आज तक हो रहे हैं।
लेकिन आज जसवंत ने मुर्दे को कब्र से निकाला है तो यह आसानी से फिर से दफ़्न नहीं होने वाला। नेहरू के साथ पटेल पर भी उंगली उठी और पटेल को अपना आदर्श मानने वाले गुजरात में जसवंत की पुस्तक प्रतिबंधित कर दी गई। चाहे वे नेहरू हों, या फिर पटेल, या फिर कथित सेकुलर जिन्ना, इन के राष्ट्र प्रेम पर उंगली उठाना इतना आसान तो नहीं है। गलतियाँ तो ये सब कर सकते थे और उन्हों ने कहीं न कहीं की ही हैं। लेकिन आजादी के इन दीवानों से ये गलतियाँ क्यों हुई? इस समय में क्या इस की तह में जाना जरूरी नहीं हो गया है? मेरी समझ में तो इस बात की खोज और विश्लेषण होना चाहिए कि आखिर वे कौन सी परिस्थितियाँ थीं जिन के कारण इन तीनों से और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख धारा से ये गलतियाँ हुई कि जिन्ना उस मुख्य धारा से अलग हुए। देश बंट गया। यहाँ तक भी जाना प्रासंगिक और महत्वपूर्ण होगा कि उन परिस्थितियों को उत्पन्न होने देने के लिए जिम्मेदार शक्तियाँ कौन सी थीं? उन शक्तियों का क्या हुआ? वे शक्तियाँ आज कहाँ हैं? और क्या कर रही हैं?शनिवार, 15 अगस्त 2009
मिथ्या साबित आजादी और जनता के सपने
आजादी की बासठवीं वर्षगाँठ है। गाँव-गाँव में समारोह हो रहे हैं। शायद वही गाँव ढाणी शेष रह जाएँ, जहाँ कोई स्कूल भी नहीं हो। अपेक्षा की जा सकती है कि जहाँ अन्य कोई सरकारी दफ्तर नहीं होगा वहाँ स्कूल तो होगा ही। नगरों में बड़े बड़े सरकारी आयोजन हो रहे हैं। सरकारी इमारतें रोशनी से जगमगा रही हैं। कल रात नगर के प्राचीन बाजार रामपुरा में था तो वहाँ सरकारी इमारत के साथ दो अन्य इमारतें भी जगमगा रही थीं। पूछने पर पता लगा कि ये दोनों जगमगाती इमारतें मंदिर हैं और जन्माष्टमी के कारण रोशन हैं। जन्माष्टमी को जनता मना रही है। आज नन्दोत्सव की धूम रहेगी। कृष्ण जन्म भारत में जनता का त्योहार है। इसे केवल हिन्दू ही नहीं मना रहे होते हैं। अन्य धर्मावलम्बी और नास्तिक कहे-कहलाए जाने वाले लोग भी इस त्योहार में किसी न किसी रुप में जुटे हैं। जन्माष्टमी को कोई सरकारी समर्थन प्राप्त नहीं है। क्यों है? इन दोनों में इतना फर्क कि हजारों साल पुराने कृष्ण से जनता को इतना नेह है। आजादी की वर्षगाँठ से वह इतना निकट नहीं। वह केवल बासठ बरसों में एक औपचारिकता क्यों हो गया है?
कल दिन में मुझे एक पुराना गीत स्मरण हो आया। 1964 में जब मैं सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। हमारे विद्यालय ने इसी गीत पर एक नृत्य नाटिका प्रस्तुत की थी, जिस में मैं भी शामिल था। गीत के बोल आज भी विस्मृत नहीं हुए हैं। बहुत बाद में पता लगा कि यह गीत शील जी का था। इस गीत में आजादी के तुरंत बाद के जनता के सपने गाए गए थे। आप भी देखिए क्या थे वे सपने? ..........
इस गीत में शील जी के देखे सपने, जो इस देश का निर्माण करने वाली मेहनतकश किसान, मजदूर और आम जनता के सपने हैं, नवनिर्माण का उत्साह, उल्लास और उत्सव है। जनता कैसा भारत बनाना चाहती थी इस का ब्यौरा है। लेकिन विगत बासठ वर्षों में हमने कैसा भारत बनाया है? हम जानते हैं। वह हमारे सामने प्रत्यक्ष है। जनता के सपने टूट कर चकनाचूर हो चुके हैं। चूरा हुए सपने के कण तो अब मिट्टी में भी तलाश करने पर भी नहीं मिलेंगे।




















