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शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

ओ........! सड़कवासी राम! ...

हरीश भादानी जन कवि थे। 
थार की रेत का रुदन उन के गीतों में सुनाई देता था।
आज राम नवमी के दिन उन का यह गीत स्मरण हो आया ...

ओ! सड़कवासी राम!

  • .हरीश भादानी

ओ! सड़कवासी राम!
न तेरा था कभी
न तेरा है कहीं
रास्तों दर रास्तों पर
पाँव के छापे लगाते ओ अहेरी
खोलकर
मन के किवाड़े सुन
सुन कि सपने की
किसी सम्भावना तक में नहीं
तेरा अयोध्या धाम।
ओ! सड़कवासी राम!


सोच के सिर मोर
ये दसियों दसानन
और लोहे की ये लंकाएँ
कहाँ है कैद तेरी कुम्भजा
खोजता थक
बोलता ही जा भले तू
कौन देखेगा
सुनेगा कौन तुझको
ये चितेरे
आलमारी में रखे दिन
और चिमनी से निकलती शाम।
ओ! सड़कवासी राम!

 
पोर घिस घिस
क्या गिने चौदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प साँसों के गिने जा
गिन कि
कितने काटकर फेंके गए हैं
ऐषणाओं के पहरुए
ये जटायु ही जटायु
और कोई भी नहीं
संकल्प का सौमित्र
अपनी धड़कनों के साथ
देख वामन सी बड़ी यह जिन्दगी
कर ली गई है
इस शहर के जंगलों के नाम।
ओ! सड़कवासी राम!

शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

राज्य, मनुष्य समाज से अलग और उस से ऊपर : बेहतर जीवन की ओर-7

मने अब तक मानव समाज की जांगल-युग से राज्य के विकास तक की यात्रा का संक्षिप्त अवलोकन किया। हम जानते हैं कि पृथ्वी पर जैविक विकास के एक स्तर पर हम मानवों का उद्भव वानर जाति के किसी पूर्वज से हुआ है। मनुष्य के प्रारंभिक रूप होमोसेपियन्स को प्रकट हुए अधिक से अधिक पाँच लाख वर्ष और आधुनिक मानव का प्राकट्य दो लाख वर्ष पूर्व के आसपास का है। प्रसिद्ध अमरीकन नृवंशशास्त्री और सामाजिक सिद्धान्तकार ल्यूइस एच. मोर्गन ने मानव के सामाजिक विकास के इतिहास को तीन युगों में वर्गीकृत किया है। जांगल युग, बर्बर युग तथा सभ्यता का युग। उन्हों ने पहले दो युगों के मानव समाज के इतिहास की तर्कसंगत और तथ्यात्मक रूपरेखा को स्पष्ट करने का महत्बपूर्ण काम किया। उन्हों ने इन दो युगों को भी तीन-तीन भागों में विभाजित किया है। जांगल युग की पहली निम्न अवस्था जो हजारों वर्षों तक चली होगी और जिस में मनुष्य आंशिक रूप से वृक्षों पर निवास करता था, हिंसक पशुओं का सामना करते हुए जीवित रहने का एक मात्र यही तरीका उस के पास था। इस युग की विशेषता यही है कि मनुष्य बोलना सीख गया था। इस युग के अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है, लेकिन यदि हम एक बार मान लेते हैं कि मनुष्य का उद्भव जैविक विकास के परिणाम स्वरूप हुआ हुआ है तो हमें इस संक्रमण कालीन अवस्था को मानना ही होगा। जांगल युग की दूसरी मध्यम अवस्था में मनुष्य जल-जन्तुओं मछली, केकड़े, घोंघे आदि को भोजन के रूप में प्रयोग करने लगा था। इसी अवस्था में उस ने आग का प्रयोग सीखा। नदियों और समुद्र तटों की यात्रा करते हुए इसी युग में मनुष्य लगभग पृथ्वी के भूभाग पर फैल गया था। पुरापाषाण युग के औजार इसी अवस्था के हैं। इसी युग में पहले अस्त्रों गदा और भालों का आविष्कार हुआ। इसी युग में वह शिकार करने और कभी कभी मांस को भोजन में शामिल करने लगा था। तीसरे और जांगल युग की उन्नत अवस्था धनुष-बाण के आविष्कार से आरंभ हुई, लेकिन वह अब तक मिट्टी के बर्तन भांडे बनाने की कला नहीं सीख सका था। हाँ वह लकड़ी के बर्तन अवश्य बनाने लगा था। पेड़ों के खोखले तनों से नाव बनाना उस ने आरंभ कर दिया था। इसी अवस्था में उस ने जीवन निर्वाह के साधनों पर किसी तरह काबू पा लिया था और गाँवों में बसने लगा था।
र्बर युग की निम्न अवस्था तब आरंभ हुई जब उस ने मिट्टी के बर्तन बनाने की कला सीख ली। मनुष्य लगभग सारी धरती पर इस समय तक पहुँच चुका था। इस काल तक मानव विकास पूरी पृथ्वी में एक जैसा मिलता है। लेकिन खेती सीख लेने के निकट पहुँच जाने पर अलग अलग क्षेत्रों की प्राकृतिक परिस्थितियाँ उसे अलग अलग तरीके से प्रभावित कर रही थीं। आगे का विकास बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता था कि धरती के जिस क्षेत्र में वह निवास कर रहा है वहाँ की धरती, जलवायु, मौसम आदि किस प्रकार के हैं और उसे किस तरह के प्राकृतिक साधन उपलब्ध करा रहे हैं। ये सब चीजें मनुष्य के सामाजिक विकास की गति को भी प्रभावित कर रही थीं। यही एक कारण है कि एक भूभाग पर विकास की गति मंद दिखाई देती है तो दूसरे स्थान पर वह तेज दिखाई देती है।

र्बर युग की मध्यम अवस्था पशुपालन से आरंभ हुई। इसी युग में खाने लायक पौधों की सिंचाई के माध्यम से खेती का आरंभ और मकान बनाने के लिए धूप में सुखाई ईंटों का प्रयोग आरंभ हो जाता है। अमरीकी इंडियन यूरोप के लोगों द्वारा विजय प्राप्त कर लेने तक भी इसी अवस्था का जीवन जीते थे। पूर्वी गोलार्ध में यह अवस्था दूध और मांस देने वाले पशुओं के पालन से आरंभ हुई, वे अभी खेती करना नहीं जानते थे। खेती बाद में पशुओं के चारे के लिए आरंभ हुई। बर्बर युग की उन्नत अवस्था लौह खनिज को गलाने और लिखने की कला के आविष्कार से आरंभ हुई। इसी अवस्था में हम पशुओं द्वारा खींचे जाने वाले हलों का उपयोग देखते हैं। इसी युग में धातुओं के औजार, गाड़ियाँ और नगरों का निर्माण देखने को मिलता है। यहीं से सभ्यता का काल आरंभ हो जाता है। जांगल युग में प्रकृति के पदार्थों को हस्तगत करने की प्रधानता थी और इन्हीं कामों के लिए आवश्यक औजार मनुष्य उस युग में विकसित कर सका। बर्बर युग में मनुष्य ने पशुपालन और खेती करने का ज्ञान अर्जित किया तथा अपनी क्रियाशीलता के कारण प्रकृति की उत्पादन शक्ति को बढ़ाने के तरीके सीखे। जांगल और बर्बर युगों का काल बहुत लंबा चलता है जिस के मुकाबले सभ्यता का वर्तमान युग आधुनिक मनुष्य (होमो सेपियन्स सेपियन्स) के उद्भव से आज तक के दो लाख वर्षों का पाँच प्रतिशत से भी कम, केवल कुछ हजार वर्षों का है।
धुनिक मनुष्य के उद्भव से आज तक के दो लाख वर्षों में से सभ्यता के युग के कुछ हजार वर्ष निकाल दें तो हम पाते हैं कि मनुष्य ने अपने जीवन के दो लाख वर्षों का लगभग 95 प्रतिशत काल बिना किसी राज्य व्यवस्था के बिताया। तब भी जब समूह में दास सम्मिलित होने से वर्ग उत्पन्न हो गए थे, दासों के अतिरिक्त स्वतंत्र समुदाय अपनी व्यवस्था को बिना किसी राज्य के रक्त संबंधों पर आधारित संस्थाओं के माध्यम से चलाता रहा था। राज्य कोई ऐसी संस्था नहीं जिस के बिना मनुष्य जीवन संभव नहीं। वह ऐसी शक्ति भी नहीं जो अचानक बाहर से ला कर मनुष्य समाज पर लाद दी गई हो। वह किसी नैतिक विचार या विवेक का मूर्त और वास्तविक रूप भी नहीं है। वह मनुष्य समाज की उपज है जो विकास की एक निश्चित अवस्था में उत्पन्न हुई है। वह इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि मनुष्य समाज ऐसे अंतर्विरोधों में फँस गया है, जिन्हें वह हल नहीं कर पा रहा है, उन के हल का कोई समाधान नहीं खोज पा रहा है। उसे ऐसी शक्ति की आवश्यकता पड़ गई है जो मनुष्य समाज में पैदा हो गए इन अन्तर्विरोधों का हल खोज निकालने तक मनुष्य समाज को व्यर्थ के वर्गसंघर्ष से नष्ट होने से बचा ले चले। वह एक ऐसी शक्ति बन गई है जो ऊपर से मालूम पड़े कि वह मनुष्य समाज से अलग उस के ऊपर खड़ी है। इस शक्ति ने जिसे हम राज्य के नाम से जानते हैं, जो समाज से ही उत्पन्न हुई, उस ने समाजोपरि स्थान ग्रहण कर लिया और उस से अधिकाधिक पृथक तथा दूर होती चली गई।

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

राज्य की उत्पत्ति : बेहतर जीवन की ओर -6

ब तक हमने देखा कि किस तरह शिकार करते हुए पशुओं के बारे में अनुभव ने मनुष्य को पशुपालन की और धकेला और इसी पशुपालन ने मनुष्य समाज में दास वर्ग को उत्पन्न किया। ये दास स्वामी समूह की सहायता करते थे। इन्हीं में से तरह तरह के दस्तकारों का एक नया वर्ग उभरा। जिस ने मनुष्य जीवन को बेहतर बनाने में मदद की। पशुओं के लिए चारा पैदा करते हुए उस ने अपने खाने के लिए अनाज की खेती करना सीख लिया। लोहे से औजार बनाने की कला विकसित हुई जिस ने जंगलों को काट कर खेती लायक बनाना और उन्हें जोतना आसान कर दिया। पशुओं और दासों का विनिमय पहले प्रचलित था, लेकिन खेती से उत्पन्न प्रचुर मात्रा में अनाज व दूसरी फसलों ने विनिमय को अत्यधिक बढ़ा दिया। इसी से एक नया व्यापारी वर्ग उत्पन्न हुआ।

ब तक जितने भी वर्ग थे उन के जन्म के साथ उत्पादन प्रक्रिया का सीधा संबंध था। लेकिन व्यापारी वर्ग का उत्पादन प्रक्रिया से सीधा संबंध नहीं था। इस नए वर्ग ने उत्पादकों में यह विश्वास पैदा कर दिया था कि वह उन के उत्पादन को कहीं भी खपाएगा और उस के बदले उन्हें उपयोगी वस्तुएं ला कर देगा। इस तरह बिना किसी उत्पादन प्रक्रिया में भाग लिए इस वर्ग ने उत्पादकों को अपने लिए उपयोगी सिद्ध कर दिया था। इस वर्ग ने उत्पादकों और उन के उपभोक्ताओं दोनों से ही अपनी सेवाओं के बदले मलाई लूटना आरंभ कर दिया और बेशुमार दौलत पर कब्जा कर लिया। इस वर्ग के प्रादुर्भाव के साथ ही धातु के बने सिक्कों का उपयोग आरंभ हो गया। हर किसी को अपने उत्पाद के बदले ये सिक्के प्राप्त होते जिन से वे दूसरी चीजें प्राप्त कर सकते थे। इस नए साधन के द्वारा माल पैदा न करने वाला माल पैदा करने वालों पर शासन कर सकता था। मालों के माल का पता मिल चुका था। वह एक जादू की छड़ी की तरह था जिसे पलक झपकते ही इच्छानुसार वस्तु में परिवर्तित किया जा सकता था। अब उत्पादन के संसार में उसी का बोलबाला था जिस के पास यह जादू की छड़ी सब से अधिक मात्रा में होती थी। यह सिर्फ व्यापारी के पास हो सकती थी। यह स्पष्ट हो चुका था कि आगे सभी उत्पादकों को इस मुद्रा के आगे नाक रगड़नी पड़ेगी। सब माल इस मूर्तिमान माल के सामने दिखावा रह गए थे।

विभिन्न मालों, दासों और मुद्रा के रूप में सम्पदा के अतिरिक्त अब जमीन भी एक संपदा के रूप में सामने आ गयी थी। कबीलों से परिवारों को खेती करने के लिए जमीनों के जो टुकड़े मिले थे उन पर अब उन का अधिकार इतना पक्का हो गया था कि वे वंशगत संपत्ति बन गए थे। जमीन के इन नए मालिकों ने गोत्र और कबीलों के अधिकार के बंधनों को उतार फेंका था। यहाँ तक कि उन के साथ संबंधों को भी समाप्त कर लिया था। जमीन पर निजि स्वामित्व स्थापित हो गया था। अब जमीन ने भी माल का रूप धारण कर लिया था। उसे मुद्रा के बदले बेचा जा सकता था और रहन रखा जा सकता था। उधर माल हासिल करने के लिए मुद्रा एक आवश्यक चीज बन गई थी। उसे उधार दिया जा सकता था जिस पर ब्याज वसूला जा सकता था। इस तरह सूदखोरी का जन्म हुआ। निजि स्वामित्व के साथ सूदखोरी और रहन वैसी ही चीजें थी जैसे एकनिष्ठ विवाह के साथ अनिवार्य रूप से वेश्यावृत्ति थी। मुद्रा का चलन, सूदखोरी, निजि भूस्वामित्व और रहन के साथ व्यापार के विस्तार से एक छोटे वर्ग के पास बड़ी तेजी से धन संग्रह होने लगा तो दूसरी ओर गरीबी बढ़ने लगी। तबाह और दिवालिया लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ने लगी। इस से समाज में दासों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। एथेंस में समृद्धि के उत्कर्ष के समय स्त्रियों और बच्चों सहित स्वतंत्र लोगों की संख्या मात्र 90,000 थी जब कि दासों की संख्या 3,65,000 थी। कोरिंथ और ईजिना नगरों मे दासों की संख्या स्वतंत्र लोगों के मुकाबले दस गुना थी।

लेकिन अब तक उन आदिकालीन संस्थाओं का हाल क्या हुआ यह भी देख लिया जाए। गोत्र व कबीले उन की इच्छा और सहायता के बिना पैदा हो गई नई चीजों के सामने निस्सहाय हो गये। गोत्रों और कबीलों का अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता था कि उन के सभी सदस्य एक इलाके में रहें और दूसरे न रहें। लेकिन ऐसा तो बहुत समय से नहीं रह गया था। गोत्र और कबीले आपस में घुल मिल गए थे। हर स्थान पर स्वतंत्र नागरिकों के बीच दास, आश्रित और विदेशी लोग रहने लगे थे। पशुपालन से खेती में संक्रमण से यायावरी ने जो स्थावरता हासिल की थी वह अब फिर से समाप्त हो रही थी। लोगों की गतिशीलता और निवास परिवर्तन उसे तोड़ रहा था। व्यापार धंधे बदलने, भूमि के अन्य संक्रमण से यह संचालित हो रहा था। गोत्र और कबीलों के सदस्यों के लिए यह संभव नहीं था कि वे सामुहिक मामलों को निपटाने के लिए एक स्थान पर एकत्र हो सकें। वे अब गौण महत्व के धार्मिक और पारिवारिक अनुष्ठानों के समय ही आपस में एकत्र होते थे, वह भी आधे मन से। गोत्र-समाज की संस्थाएँ जिन जरूरतों को हितों की देखभाल करती थीं उन के अतिरिक्त जीविकोपार्जन की अवस्थाओं में क्रांति तथा उस के अनुरूप सामाजिक ढांचे में हुए परिवर्तन से कुछ नई जरूरतें और नए हित भी पैदा हो गए थे। जिन्हें गोत्र समाज की संस्थाएँ नहीं संभाल सकती थीं। श्रम विभाजन से दस्तकारों के नए समूह पैदा हुए थे। उन के हितों और देहात के मुकाबले नगरों के विशिष्ठ हितों के लिए नए निकायों की आवश्यकता थी।

न नए निकायों का निर्माण गोत्र समाजों के समानान्तर और गोत्र समाज के बाहर उस के विरोध में होने लगा। गोत्र समाज की प्रत्येक संस्था के भीतर अमीरों-गरीबों, सूदखोरों-कर्जदारों के एक साथ होने के कारण भीतरी टक्कर चरम सीमा पर पहुँच गई। रक्त संबंधों पर आधारित ये गोत्र, कबीले बाहरी लोगों की उपस्थिति को अपने अंदर जज्ब करने की क्षमता नहीं रखते थे। इस तरह गोत्र समाज का लोकतंत्र अब एक तरह का घृणित अभिजात तंत्र बन गया था। इन परिस्थितियों में एक ऐसा समाज उत्पन्न हो गया था जिस ने अनिवार्यतः स्वयं को स्वतंत्र नागरिकों और दासों में, शोषक धनिकों और शोषित गरीबों में विभाजित कर दिया था। लेकिन वह इन वर्गो में सामंजस्य लाने में असमर्थ था और स्वयं ही इन में और अधिक दूरियाँ पैदा कर रहा था। इस से एक तो यह हो सकता था कि ये वर्ग एक दूसरे के विरुद्ध खुला संघर्ष चलाते रहें और मारकाट व अराजकता की स्थितियाँ बन जाएँ। दूसरे यह हो सकता था कि एक तीसरी शक्ति का शासन हो जो देखने में संघर्षरत वर्गों से अलग तथा उन से ऊपर दिखाई पड़े और उन्हें खुले संघर्ष न चलाने दे। अधिक से अधिक उन्हें आर्थिक क्षेत्र में तथाकथित रीति से संघर्ष करने की छूट दे दे। श्रम विभाजन और समाज के वर्गों में बँट जाने से गोत्र व्यवस्था की उपयोगिता समाप्त हो चुकी थी। उस का स्थान इस नयी जन्मी तीसरी शक्ति 'राज्य' ने ले लिया था।

सेना और व्यापारियों की उत्पत्ति : बेहतर जीवन की तलाश-5


 शुओं के रूप में उत्पन्न हुई संपत्ति ने मातृवंश को पितृसत्ता में परिवर्तित कर दिया। यह परिवर्तन शांतिपूर्ण रीति से चुपचाप अवश्य हुआ, लेकिन इस का सफर आसान नहीं था। पशुपालन के पूर्व तक गोत्रों के पास संपत्ति थी ही नहीं। पशुओं को पकड़ कर लाने, उन्हें पालतू बनाने और युद्ध बंदियों को दास बना कर रखने का काम पुरुषों ने किया था, इस कारण समूह के पुरुष ही इस पहली संपत्ति के स्वामी थे। पशुपालन और रेवड़ों में पशुओं की संख्या बढ़ने से उन के बदले कुछ भी प्राप्त किया जा सकता था। वे विनिमय का साधन हो गए, वे मुद्रा का काम करने लगे। पशुओं के बदले प्राप्त वस्तुएँ भी पुरुषों की संपत्ति हो गईं। पुरुषों ने घर के बाहर के सब काम संभाले और स्त्री के पास पहले से घर के अंदर के जो काम थे वे ही उन के पास रह गए। आजीविका का काम पुरुषों के पास आ जाने से घर के अंदर के कामों के कारण जो प्रमुख स्थान स्त्रियों को प्राप्त था, अब उसी कारण से स्त्रियों का स्थान गौण हो गया। उन के घरेलू कामों का महत्व जाता रहा। सामाजिक उत्पादन में उस का कोई योगदान नहीं रहा। इसी से हम आज यह सीख ले सकते हैं कि जब तक केवल घर के काम स्त्रियों के पास रहेंगे उन का पुरुषों के साथ बराबरी का हक प्राप्त करना असंभव है, और असंभव ही रहेगा। वे तभी स्वतंत्र हो सकती हैं जब बड़े सामाजिक पैमाने पर वे उत्पादन में भाग लेने लगें। मातृवंश के स्थान पर पितृसत्ता के कायम होने से समूह पर पुरुष की तानाशाही पूरी तरह स्थापित हो गयी। इस तरह संपत्ति के उद्भव ने स्त्री-पुरुष के बीच जो भेद कायम किया वह आज तक चला आ रहा है।
लोहे के आविष्कार ने जंगलों को काट कर खेती योग्य भूमि तैयार करने और भूमि को बड़े पैमाने पर जोतना संभव कर दिया। इस से खेती का विस्तार होने लगा। दस्तकारों को सख्त और तेज औजार मिल गए। धीरे धीरे पत्थर के औजार गायब होने लगे। कबीलों के और कबीलों के महासंघ के मुख्य स्थान नगर हो गए। बुर्जों और दरवाजों से युक्त चहारदिवारी के घेरे में पत्थर और ईंटों के मकान बनने लगे। यह वास्तुकला के विकास और संपदा के कारण उत्पन्न खतरों से प्रतिरक्षा की आवश्यकता के द्योतक थे। संपत्ति बढ़ रही थी और यह अलग अलग व्यक्तियों की थी। बुनाई, धातुकर्म, दस्तकारों का अपना विशिष्ठ रूप होता जा रहा था। खेती से अनाज, दालें, फल, सब्जियाँ ही नहीं तेल और शराब भी मिलने लगे। कुछ लोग इन्हें बनाने की कला में विशिष्ठता हासिल करने लगे। इतने तरह के काम होने लगे थे कि हर कोई सब काम नहीं कर सकता था। इस से श्रम विभाजन हुआ और खेती से दस्तकारी अलग हो गई। इस से उत्पादन क्षमता बढ़ी, उस ने मानव की श्रम शक्ति का मूल्य बढ़ा दिया। इस से दासों का महत्व बढ़ गया। अब वे केवल सहायक नहीं रह गये। उन्हें कई तरह के कामों में झोंका जाने लगा। उत्पादन के खेती और दस्तकारी में बंट जाने से विनिमय के लिए ही माल का उत्पादन होने लगा। इस से कबीलों की सीमाओं के पार यहाँ तक कि समुद्र पार तक व्यापार होने लगा।
ब स्वतंत्र लोगों और दास के भेद के साथ ही अमीर गरीब का भेद भी दिखाई देने लगा। सामुदायिक कुटुम्ब कायम थे लेकिन उन के मुखियाओं के पास अधिक या कम संपदा होने के आधार पर वे टूटने लगे। समुदाय द्वारा मिल कर खेती करने की प्रथा भी समाप्त होने लगी। जमीन परिवारों में बंटने लगी। इस तरह निजि स्वामित्व में संक्रमण आरंभ हुआ। परिवार भी निजि स्वामित्व के बढ़ने के साथ ही एकनिष्ठ होने लगे। परिवार समाज की आर्थिक इकाई बन गए। आबादी के घनी होने से यह आवश्यक हो गया कि वह आंतरिक और बाह्य रूप से पहले से अधिक एकताबद्ध हो। पहले एक दूसरे से रिश्ते से जुड़े कबीलों के महासंघ बने और फिर कुछ समय बाद उन का विलय होने लगा। कबीलों के इलाके मिल कर एक जाति का इलाका बन गए। गोत्र समाज एक सैनिक लोकतंत्र के रुप में विकसित होने लगे। युद्ध करना और युद्ध के लिए संगठन करना जन जीवन का नियमित अंग बनने लगा। पड़ौसी जाति की दौलत देख कर ललचाना, उसे हासिल करना जीवन का प्रमुख उद्देश्य बन गया। उत्पादक श्रम से दौलत हासिल करने के स्थान पर लूटमार कर के हासिल करना अधिक आसान और सम्मानप्रद था। पहले जहाँ आक्रमण का बदला लेने या अपर्याप्त क्षेत्र को बढ़ाने के लिए ही युद्ध होते थे अब संपदा हासिल करने के लिए भी होने लगे। युद्धों ने सेना नायकों, उपनायकों की शक्ति को बढ़ा दिया। एक ही परिवार से उत्तराधिकारी चुने जाने की प्रथा वंशगत उत्तराधिकार में बदल गई। इस तरह वंशगत बादशाहत और अभिजात वर्ग की नींव पड़ गई। गोत्र व्यवस्था की जड़ें जनता के बीच से उखाड़ दी गईं। अपने मामलों की खुद व्यवस्था करने वाले कबीलों के संगठन अब पड़ौसियों को लूटने और सताने के संगठन बन गए। उसी के अनुसार गोत्र संगठनों के निकाय जनता की इच्छा को कार्यान्वित करने के स्थान पर जनता पर शासन करने और अत्याचार करने वाले स्वतंत्र निकाय बन गए।
न नयी परिस्थितियों ने श्रम विभाजन को और मजबूत किया। शहर और देहात का अंतर और अधिक बढ़ गया। एक और श्रम विभाजन हुआ। इस से एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो गया जो उत्पादन में बिलकुल भाग नहीं लेता था। वह केवल विनिमय करता था। यह व्यापारी वर्ग था। यह ऐसा वर्ग सामने आया था जो उत्पादन में बिलकुल भी भाग न लेते हुए भी उस के प्रबंध पर पूरा अधिकार जमा लेता था और उत्पादकों को अपने अधीन कर लेता था। वह उत्पादकों के बीच ऐसा बिचौलिया बन गया था जिस के बिना उन का काम नहीं चलता था और वह दोनों का शोषण करता था। इस अवस्था में इस नवोदित व्यापारी वर्ग को कल्पना भी नहीं थी कि भविष्य में उस के भाग्य में कितनी ही बड़ी बड़ी बातें लिखी हैं। 

शनिवार, 10 सितंबर 2011

समृद्धि और संयुक्त परिवार की संपत्ति में अधिकारों का दस्तावेज - रोट अनुष्ठान

'रोट', यह शब्द रोटी का पुल्लिंग है। यह विवाद का विषय हो सकता है कि रोटी पहले अस्तित्व में आई अथवा रोट। दोनों आटे से बनाए जाने वाले खाद्य पदार्थ हैं। रोटी जहाँ रोजमर्रा के उपयोग की वस्तु है और कोई भी व्यक्ति एक बार में एक से अधिक रोटियाँ खा सकता है। वहीं एक रोट एक साथ कई व्यक्तियों की भूख मिटा सकता है। रोटी जहाँ उत्तर भारतियों के नित्य भोजन का अहम् हिस्सा है और उस के बिना उन के किसी भोजन की कल्पना नहीं की जा सकती। भोजन में सब कुछ हो पर रोटी न हो तो क्षमता से अधिक खा चुकने पर भी उत्तर भारतीय व्यक्ति स्वयं को भूखा महसूस करता है। लेकिन रोट वे तो जिन परिवारों में बनते हैं वर्ष में एक ही दिन बनते हैं ओर जिन्हें पूरा परिवार पूरे अनुष्ठान और आदर के साथ ग्रहण करता है। यह रोट अनुष्ठान खेती के आविष्कार से संबद्ध इस पखवाड़े का अहम् हिस्सा है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में यह अभी तक हिन्दू व जैन परिवारों में प्रचलित है। इस विषय पर मैं मैं तीन चिट्ठियाँ गणपति का आगमन और रोठ पूजा, सब से प्राचीन परंपरा, रोट पूजा, ऐसे हुई और समृद्धि घर ले आई गई मैं अनवरत पर लिख चुका हूँ। इस अनुष्ठान को जानने की जिज्ञासा रखने वालों को ये तीनों पोस्टें अवश्य पढ़नी चाहिए।
कुल देवता (नाग) के लिए बना लगभग चौदह इंच व्यास और सवा इंच मोटाई का रोट
रोट अनुष्ठान भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से आरंभ हो कर भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तक चलता है। हर परिवार या समूह के लिए इन सोलह दिनों में से एक दिन निर्धारित है। हर परिवार इस दिन अपने कुल देवता या देवी या टोटेम की पूजा करता है और रोट बना कर उन्हें भेंट करता है। हर परिवार की पद्धति में कुछ भिन्नता है। लेकिन मूल तत्व एक जैसे हैं। स्त्रियाँ इस अनुष्ठान का आरंभ करती हैं। वे अनुष्ठान के दिन से एक दिन पहले ही पूरे घर की सफाई कर चुकी होती हैं। रोट बनाने के लिए अनाज (गेहूँ) को साफ कर उन की धुलाई कर सुखा लिया जाता है। फिर वे ही घर पर उस की पिसाई करती हैं। आटा मोटा पीसा जाता है। आज कल घरों पर चक्कियाँ नहीं रह गई हैं। इस कारण से बाजार की चक्की पर इसे पिसा लिया जाता है। चक्की वाला उस के लिए एक दिन निर्धारित कर अपने ग्राहकों को सूचित कर देता है। उस दिन के पहले की रात को चक्की धो कर साफ कर ली जाती है और उस दिन उस पर केवल रोट का ही आटा पीसा जाता है। सुबह सुबह रसोई और बरतनों को साफ कर स्त्रियाँ पूजा करती हैं और रोट के आटे की निश्चित मात्रा ले कर उन के निर्माण का संकल्प करती हैं। मसलन मेरे यहाँ सवा किलो आटा कुलदेवता के लिए, सवा किलो आटा प्रत्येक सुहागिन स्त्री के लिए, सवा किलो उस के पति के लिए और सवा किलो परिवार की बहनों और बेटियों के लिए संकल्पित किया जाता है। 

शोभा रोट बनाते हुए, प्रत्येए लोए से एक रोट बनना है।
 संकल्पित आटे की मात्रा का यह अनुपात मुझे प्राचीन काल में संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में उस के सदस्यों की सहभागिता के अनुरूप मालूम होता है। इस से यह अनुमान किया जा सकता है कि परिवार की संयुक्त संपत्ति में परिवार के प्रत्येक विवाहित पुरुष के का एक भाग, उस की पत्नी का एक भाग और विवाहित और अविवाहित बहनों-बेटियों का कुल मिला कर एक भाग तथा कुल देवता के लिए एक भाग जिस पर परिवार के पुरुषों का संयुक्त अधिकार है। उस का उपभोग करने के भी नियम हैं। कुलदेवता के लिए संकल्पित आटे का एक ही बड़ा मोटा रोट बनाया जाता है। इस का उपभोग परिवार के वे पुरुष ही कर सकते हैं जो किसी एक पूर्वज के पुरुष वंशज हैं। उन के अतिरिक्त कोई भी उन का उपभोग नहीं कर सकता। विवाहित स्त्री-पुरुष का के दो भाग परिवार का कोई भी सदस्य उपभोग कर सकता है। लेकिन बहिन-बेटियों के हिस्से के एक भाग को केवल बहन-बेटियाँ ही उपभोग कर सकती हैं, परिवार का कोई पुरुष या उस की पत्नी नहीं।

रोट बेल दिया गया है, और मिट्टी के तवे (पोवणी/उन्हाळा) पर सेके जाने के लिए तैयार है
नुष्ठान के दिन केवल रोट और खीर ही बनाई जाती है, कुछ परिवारों में कोई खास सब्जी भी बनाई जाती है। खाद्य तैयार हो जाने पर परिवार के पुरुष कुल देवी या कुल देवता या टोटेम की पूजा करते हैं। कुछ परिवारों में यह पूजा भी स्त्रियाँ ही करती हैं। फिर परिवार के सभी सदस्य समृद्धि की कामना के साथ पूज्य का स्मरण कर भोजन ग्रहण करते हैं। गणेश चतुर्थी के दूसरे दिन 2 सितम्बर को मेरे यहाँ यह अनुष्ठान हुआ। पूरा दिन इसी में निकल गया। बच्चे भी उसी में व्यस्त रहे। तीन वर्ष पूर्व मेरी पोस्टों पर यह आग्रह हुआ था कि रोट के चित्र भी अवश्य प्रस्तुत करने चाहिए थे। वे चित्र इस बार मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ।

दायीं और उलटे रखे गए मिट्टी के तवे (पोवणी/उन्हाळा) पर सिकता रोट





एक तरफ से पोवणी पर सिक जाने के बाद अब इसे ओवन में सेका जाएगा
अब एक ओवन में है और दूसरा पोवणी पर सेका जा रहा है
कोयले को दूध में बुझा कर घिस कर बनाई गई स्याही से दीवार पर पूजा के लिए बनाया गया कुल देवता (टोटेम-नाग) का चित्र, सामने रखे रोट और खीर, दो रोटों पर दीपक जल रहे हैं।



पत्नी/पति के भाग का रोट

बहन-बेटियों के भाग का रोट

पत्नी शोभा जिस ने कुल परंपरा को सहेजने और उस की निरंतरता बनाए रखने का दायित्व वैवाहिक जीवन के 36 वें वर्ष में भी निभाया







मंगलवार, 12 जुलाई 2011

एक बार फिर दुनिया को बदल डालेंगे

कोई भी नयी उन्नत तकनीक समाज को आगे बढ़ने में योगदान करती है। एक भाप के इंजन के आविष्कार ने दुनिया में से सामन्तवाद की समाप्ति का डंका बजा दिया था। इंग्लेण्ड की औद्योगिक क्रान्ति उसी का परिणाम थी। उसी ने सामन्तवाद के गर्भ में पल रहे पूंजीवाद को जन्म देने में दाई की भूमिका अदा की थी। पूंजीवाद उसी से बल पाकर आज दुनिया का सम्राट बन बैठा है। उस के चाकर लगातार यह घोषणा करते हैं कि अब इतिहास का अन्त हो चुका है। पूंजीवाद अब दुनिया की सचाई है जो कभी समाप्त नहीं हो सकती। इस का अर्थ है कि पूंजीवाद ने जो कष्ट मानवता को प्रदान किए हैं वे भी कभी समाप्त नहीं होंगे। कभी गरीबी नहीं मिटेगी, धरती पर से कभी भूख की समाप्ति नहीं होगी। दुनिया से कभी युद्ध समाप्त नहीं होंगे, वे सदा-सदा के लिए शोणित की नदियाँ बहाते रहेंगे। किसान उसी तरह से अपने खेतों में धूप,ताप, शीत, बरखा और ओले सहन करता रहेगा। मजदूर उसी तरह कारखानों में काम करते रहेंगे। इंसान उच्च से उच्च तकनीक के जानकार होते हुए भी पूंजीपतियों की चाकरी करता रहेगा। बुद्धिजीवी उसी की सेवा में लगे रह कर ईनाम पाते और सम्मानित होते रहेंगे। जो ऐसा नहीं करेगा वह न सम्मान का पात्र होगा और न ही जीवन साधनों का। कभी-कभी लगता है कि दमन का यह चक्र ऐसे ही चलता रहेगा। शायद मनुष्य समाज बना ही इसलिए है कि अधिकतर मनुष्य अपने ही जैसे चंद मनुष्यों के लिए दिन रात चक्की पीसते रहें।

ज हम जानते हैं कि इंसान ही खुद ही खुद को बदला है, उस ने दुनिया को बदला है और उसी ने समाज को भी बदला है। यह दुनिया वैसी नहीं है जैसी इंसान के अस्तित्व में आने के पहले थी। वही इकलौता प्राणी इस ग्रह में है जो अपना भोजन वैसा ही नहीं ग्रहण करता जैसा उसे वह प्रकृति में मिलता है। वह प्रकृति में मिलने वाली तमाम वस्तुओं को बदलता है और अपने लिए उपयोगी बनाता है। उस ने सूत और ऊन से कपड़े बुन लिया। उस ने फलों और मांस को पकाना सीखा, उस ने अनाज उगा कर अपने भविष्य के लिए संग्रह करना सीखा। यह उस ने बहुत पहले कर लिया था। आज तो वह पका पकाया भोजन भी शीतकों और बंद डिब्बों में लंबे समय तक रखने लगा है। बस निकाला और पेट भर लिया। इंसान की तरक्की रुकी नहीं है वह बदस्तूर जारी है। 

स ने एक समय पहिए और आग का आविष्कार किया। इन आविष्कारों से उस की दुनिया बदली। लेकिन समाज वैसे का वैसा जंगली ही रहा। लेकिन जिस दिन उस ने पशुओं को साधना सीखा उस दिन उस ने अपने समाज को बदलने की नींव डाल दी। उसे शत्रु कबीले के लोगों को अब मारने की आवश्यकता नहीं थी, वह उन की जान बख्श सकता था। उन्हें गुलाम बना कर अपने उपयोग में ले सकता था। कुछ मनुष्यों को कुछ जीवन और मिला। लेकिन उसी ने मनुष्य समाज में भेदभाव की नींव डाल दी। अब मनुष्य मनुष्य न हो कर मालिक और गुलाम होने लगे। पशुओं के साथ, गुलामों के श्रम और स्त्रियों की सूझबूझ ने खेती को जन्म दिया। गुलाम बंधे रह कर खेती का काम नहीं कर सकते थे। मालिकों को उन के बंधन खोलने पड़े और वे किसान हो गए। दास समाज के गर्भ में पल रहा भविष्य का सामंती समाज अस्तित्व में आया। हम देखते हैं कि मनुष्य ने अपने काम को सहज और सरल बनाने के लिए नए आविष्कार किए, नई तकनीकें ईजाद कीं और समाज आगे बढ़ता रहा खुद को बदलता रहा। ये तकनीकें वही, केवल वही ईजाद कर सकता था जो काम करता था। जो काम नहीं करता था उस के लिए तो सब कुछ पहले ही सहज और सरल था। उसे तो कुछ बदलने की जरूरत ही नहीं थी। बल्कि वह तो चाहता था कि जो कुछ जैसा है वैसा ही चलता रहे। इस लिए जिन्हों ने दास हो कर, किसान हो कर, श्रमिक हो कर काम किया उन्हीं ने तकनीक को ईजाद किया, दुनिया को बदला, इंसान को बदला और इंसानी समाज को बदला। इस दुनिया को बदलने का श्रेय केवल श्रमजीवियों को दिया जा सकता है, उन से अलग एक भी इंसान को नहीं। 

र क्या अब भी कुछ बदल रहा है? क्या तकनीक विकसित हो रही है? जी, दुनिया लगातार बदल रही है। तकनीक लगातार विकसित हो रही है। पूंजीवाद के विकास ने लोगों को इधर-उधर सारी दुनिया में फैला दिया। पहले एक परिवार संयुक्त रूप से साथ रहता था। आज उसी परिवार का एक सदस्य दुनिया के इस कोने में है तो दूसरा उस कोने में। एक सोने जा रहा है तो दूसरा सो कर उठ रहा है। लेकिन दुनिया भर में बिखरे लोगों ने जुड़ने के तकनीकें विकसित कर ली हैं और लगातार करते जा रहे हैं। आज की सूचना प्रोद्योगिकी ने इंसानी समाज को आपस में जो़ड़े रखने की  मुहिम चला रखी है। हों, इस प्रोद्योगिकि के मालिक भले ही पूंजीपति हों, लेकिन कमान तो वही श्रमजीवियों के हाथों में है। वे लगातार तकनीक को उन्नत बनाते जा रहे हैं। नित्य नए औजार सामने ला रहे हैं। हर बार एक नए औजार का आना बहुत सकून देता है। तकनीक का विकसित होना शांति और विश्वास प्रदान करता है। कि इतिहास का चक्का रुका नहीं है। दास युग और सामंती युग विदा ले गए तो यह मनुष्यों के शोणित से अपनी प्यास बुझाने वाला पूंजीवाद भी नहीं रहेगा। हम, और केवल हम लोग जो श्रमजीवी हैं, जो तकनीक को लगातार विकसित कर रहे हैं, एक बार फिर दुनिया को बदल डालेंगे। 

बुधवार, 29 सितंबर 2010

हम कब इंसान और भारतीय बनेंगे?

लाहाबाद उच्च न्यायालय के अयोध्या निर्णयके लिए 30 तारीख मुकर्रर हो चुकी है। कल सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया कि बातचीत से समझौते पर पहुँचने के लिए बहुत देरी हो चुकी है, अदालत को अपना निर्णय दे देना चाहिए। दोनों निर्णयों के बीच की दूरी सिर्फ 48-50 घंटों की रहेगी। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के उपरान्त इतना समय तो दिया जाना जरूरी भी था। जिस से जिस-जिस को जो जो तैयारी करनी हो कर ले। 
ल दोपहर जब मैं अपने नियमित साथियों के साथ मध्यान्ह की कॉफी पीने बैठा तो मेरे ही एक सहायक का मोबाइल मिला कि आप के क वकील मित्र आप को कॉफी के लिए बुला रहे हैं। शहीद भगत सिहं का जन्मदिवस होने से अभिभाषक परिषद में मध्यान्ह पश्चात कार्यक्रम था। अदालती काम लगभग निपट चुका था। मैं नियमित कॉफी निपटाने के बाद दूसरी कॉफी मजलिस में पहुँचा। वहाँ अधिकतर लोग जा चुके थे। पर क वकील साहब अपने एक अन्य मित्र ख के साथ वहीं  विराजमान थे। कुछ देर इधर-उधर की बातें हुई और कॉफी आ गई। तभी वकील साहब के मोबाइल की घंटी बजी। सूचना थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्चन्यायालय को अयोध्या पर निर्णय सुनाने के लिए हरी झंडी दिखा दी है।  वकील साहब तुरंत ही मोबाइल  पर व्यस्त हो गए। कुछ देर बाद उन्हों ने बताया कि निर्णय 30 सितंबर को सुनाया जाएगा। फिर उन्हों ने अपने घर फोन किया कि घर की जरूरत का सभी सामान जो माह के पहले सप्ताह में मंगाया जाता है वह आज ही मंगा लिया जाए, कम से कम 30-40 किलो गेहूँ पिसवा कर आटा कर लिया जाए और पाँच-सात दूध पाउडर के डब्बे जरूर मंगा लिए जाएँ। वजह अयोध्या का निर्णय था, उन के मन में यह आशंका नही बल्कि विश्वास था कि अयोध्या का निर्णय कुछ भी हो पर उस के परिणाम में दंगे जरूर भड़क उठेंगे.... कर्फ्यू लगेगा और कुछ दिन जरूरी चीजें लेने के लिए बाजार उपलब्ध नहीं होगा।
वकील साहब न कांग्रेसी हैं न भाजपाई। उन के संबंध कुछ पुराने बड़े राजघरानों से हैं जिन की अपनी सामंती कुलीनता और संपन्नता के कारण किसी न किसी राजनैतिक दल में पहुँच है। इस पहुँच को वे कोई रंग देते भी नहीं हैं। क्यों कि कब कौन सा दल शासन में रहेगा यह नहीं कहा जा सकता। वे केवल अपनी सामंती कुलीनता को बनाए रखना चाहते हैं और संपन्नता को पूंजीवादी संपन्नता में लगातार बदलने के लिए काम करते हैं। ऐसे लोग हमेशा शासन के निकट बने रहते हैं। उन की सोच थी कि फैसला कुछ भी हो देश का माहौल जरूर बिगड़ेगा और दंगे जरूर होंगे।
वकील साहब घोषित रूप से कांग्रेसी हैं। उन के पास अपनी कोई कुलीनता नहीं है। लेकिन वे किसी भी अवसर को झपट लेने को सदैव तैयार रहते हैं। उन की भी सोच यही थी कि दंगे तो अवश्यंभावी हैं। दंगों में फायदा हिन्दुओं को होगा, वे कम मारे जाएंगे। मुसलमानों को अधिक क्षति होगी, क्यों कि पुलिस और अर्ध सैनिक बल हिन्दुओं की तरफदारी में रहेंगे। इन सब के बावजूद न तो वे दूध के लिए चिंतित थे और न ही घर में आटे के डब्बे के लिए। उन के पिचहत्तर साल के पिता मौजूद हैं। घर और खेती की जमीन के मालिक हैं और वे ही घर चलाते हैं। चिंता होगी भी तो उन्हें होगी। दोनों ने अयोध्या के मामले में सुनवाई करने वाली पीठों के न्यायाधीशों के हिन्दू-मुस्लिम चरित्र को भी खंगाल डाला। पर इस बात पर अटक गए कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में समझौते के लिए बातचीत करने का समर्थन करने के लिए मतभेद प्रकट करने वाले न्यायाधीश हिन्दू थे।
धर न्यायालय परिसर में बातचीत हो रही थी। कुछ हिन्दू वकील कह रहे थे कि यदि फैसला उन के हक में नहीं हुआ तो  वे हिन्दू संगठन फैसले को न मानेंगे और जमीनी लड़ाई पर उतर आएंगे। लेकिन यदि फैसला मुसलमानों के हक में आता है तो उन्हें अनुशासन में रहना चाहिए। कुछ मुस्लिम वकील जवाब में प्रश्न कर रहे थे कि वे तो हमेशा ही अनुशासन में रहते आए हैं। लेकिन यह अनुशासन उन के लिए ही क्यों?
शाम को बेटे का फोन आया तो उस ने मुझे तो कुछ नहीं कहा। पर अपनी माँ को यह अवश्य कहा कि घर में सामान की व्यवस्था अवश्य कर लें और पापा से कहें कि वे अनावश्यक घर के बाहर न जाएँ। माँ ने बेटे की सलाह मान ली है। घर में कुछ दिनों के आवश्यक सामानों की व्यवस्था कर ली है।
मैं सोच रहा हूँ कि हम कब तक अपनी खालों के भीतर हिन्दू और मुसलमानों को ढोते रहेंगे? कब इंसान और भारतीय बनेंगे?


सोमवार, 13 सितंबर 2010

लालच में कैद सोच !!!

निवार की सुबह जयपुर निकलना था। सुबह छह बजे महेश जी टैक्सी समेत आ गए। बरसात के कारण सड़क खराब थी। आम तौर पर जो मार्ग साढ़े तीन-चार घंटों में तय हो जाता है उस में साढ़े पाँच घंटे लग गए। हमें कई स्थानों पर जाना था। टैक्सी ड्राइवर टैक्सी को बाहर खड़ा रखता। हर बार जब भी हम काम से निपट कर टैक्सी पर लौटे ड्राइवर टैक्सी पर तैयार मिला। जयपुर से वापसी में हमें रात के साढ़े आठ बज गए। हम दोनों टैक्सी की पिछली सीट पर ही रहे थे। ड्राइवर से अधिक बात करने का अवसर नहीं मिला। लेकिन जैसे ही हम जयपुर से कुछ दूर गए होंगे। महेश जी ने लघुशंका के लिए कार रुकवाई और मुझे आगे बैठने को कहा, शायद उन्हें नींद आ रही थी। मैं आगे की सीट पर ड्राइवर के साथ आ गया।
मैं ने ड्राइवर से बातचीत आरंभ की। वह चूरू का रहने वाला था और कोटा में नौकरी कर रहा था। उस की उम्र यही कोई 20-25 वर्ष के बीच रही होगी। मुझे आश्चर्य हुआ कि वह घर से बहुत दूर नौकरी करता है। उसी ने बताया कि उसे चार हजार रुपए मिलते हैं और वह कोटा में टैक्सी मालिक के साथ ही रहता है, उस का भोजन भी वहीं बनता है। बात ही बात में वह बताने लगा कि जब टैक्सी ले कर काम पर निकलता है तो मालिक उसे पैसा नहीं देता। उसे सवारी से ही लेना पड़ता है चाहे टैक्सी के लिए डी़जल डलवाना हो या उस के अपने खर्चे के लिए हो। मालिक तो उसे खाने के पैसे भी नहीं देता और नाइट के पैसे भी नहीं देता। जब कि पैसेन्जर से वह नाइट के अलग पैसे चार्ज करता है। उस का कहना था कि खाने का जुगाड़ भी पैसेंजर के साथ ही करना होता है या फिर अपनी जेब से देना होता है।
मैं ने उस से पूछा कितने घंटे गाड़ी चलानी पड़ती है। बताने लगा, मैं 72 घंटे तक लगातार गाड़ी चला चुका हूँ। रात को दो बजे गाड़ी ले कर लौटा था। फिर चार बजे उठना पड़ा। अब आप के साथ हूँ। सुबह फिर पाँच बजे अगली बुकिंग पर जाना है। मैं ने कहा तुम बीच में विश्राम नहीं करते? उस का उत्तर था कि जब गाड़ी कहीं खड़ी होती है तो नींद निकाल लेता हूँ।  रात को बारह बजे के कुछ देर पहले गाड़ी मिडवे पर एक रेस्टोरेंट पर उस ने खड़ी की। दिन में उसने हमारे साथ ही भोजन किया था। मुझे लगा कि उसे भूख लगने लगी होगी। मैं ने ड्राइवर से पूछा तो कहने लगा वह चाय पिएगा। खाना खाएगा तो शायद नींद आने लगे। मुझे भय लगने लगा, हो सकता है थकान के कारण वह रास्ते में झपकी ले ले। मैं ने महेश जी को जगाया। पूछा कुछ खाना-पीना हो तो खा-पी लो।
हेश जी उतर कर आए तो कहने लगे दाल-रोटी खाएंगे। मैं ने ड्राइवर से फिर पूछा तो कहने लगा - मैं भी खा ही लेता हूँ। रात को दो बज जाएंगे वहाँ खाना मिलेगा नहीं। तीनों के लिए दाल-रोटी आ गई। हम आधे  घंटे में वापस गाड़ी में थे। रोटी खा लेने का असर ये हुआ कि मुझे झपकी लगने लगी। मैं जबरन अपनी नींद को रोकता रहा। ड्राइवर से बात करता रहा। उस ने बताया कि वह तीन-चार माह इस गाड़ी पर काम कर लेता है। फिर दो माह के लिए वापस गाँव चला जाता है। दूसरे ड्राइवर तो एक माह से अधिक काम नहीं कर पाते। मैं ने उसे कहा -तुम बीच में अपने मालिक से आराम का समय देने को नहीं कहते। वह बोला -अभी एक सप्ताह पहले कहा था तो मालिक कहने लगा मैं दूसरे ड्राइवर को बुला लेता हूँ, तुम सुबह हिसाब कर जाना। अब मुझे एक माह ही हुआ है वापस लौटे। बस दो माह और काम करूंगा, फिर गाँव जाऊंगा। हो सकता है इस बार इस मालिक के यहाँ काम पर न लौटूँ। रात ढाई बजे गाड़ी मेरे घर पर थी। मैं सोच रहा था -टैक्सी ऑपरेटर कमाने के चक्कर में न केवल ड्राइवरों का शोषण करते हैं बल्कि ड्राइवरों को आराम का पर्याप्त समय न दे कर वे सवारियों की जान के साथ भी खेलते हैं। सही है पैसा कमाने का जुनून और लालच ने लोगों की सोच को ही बंदी बना लिया है।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

तदर्थवाद देश को एक बड़े कूड़ेदान में तब्दील कर रहा है

र में बच्चों में झगड़ा हुआ, छोटा बड़े की पीठ पर चढ़ गया और कंधे पर काट लिया। बड़े का कंधा घायल हुआ, उसे अस्पताल ले जाना पड़ा। जब घर के मुखिया से पूछा कि ये कैसे हुआ? तो वह कहने लगा -हमारे बच्चे तो ऐसे नहीं हैं। लगता है किसी ने षड़यंत्र किया है। 
रेल पर रेल चढ़ गई तकरीबन 70 लोगों की जानें गईं। कितने ही घायल हो कर अपंग हो गए, एक रेल इंजन और कितने ही डब्बे नष्ट हो गए। कितने ही अपने परिजनों की मृत्यु से बेसहारा हो गए।  लेकिन ममता दी भी यही कह रही हैं, षड़यंत्र औऱ तोड़-फोड़ की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। चार दशक पहले ऐसे ही सुनने को मिलता था कि यह सीआईए का षड़यंत्र है या केजीबी ने ऐसा किया है। हालाँकि इस हादसे के वक्त रेल मंत्री का यह बयान पूरी तरह बचकाना है।

लो मान भी लिया जाए कि यह षड़यंत्र है, तो क्या रेल प्रबंधकों की यह जिम्मेदारी नहीं कि वे ऐसे किसी भी तरह के षड़यंत्र से बचने की व्यवस्था रखें। लेकिन इस हादसे को षड़यंत्र का नाम देना पूरी तरह से अपनी जिम्मेदारी से तौबा करना है। बाद में इसे मानवीय भूल कहा जा सकता है, या फिर तकनीकी त्रुटि। तकनीकी त्रुटि भी अंततः मानवीय भूल ही होती है। क्यों कि वह भी मानवीय भूल या लापरवाही का नतीजा होती है। 
वास्तव में पिछले तीस वर्षों से देश जिस रास्ते पर चल रहा है उस के अंतर्गत हर स्थान पर मनुष्य को विस्थापित कर तकनीक को स्थान दिया गया है। जब कि यह देश जहाँ जनसंख्या दुनिया में सर्वाधिक घनी है और दुनिया की सर्वाधिक जनसंख्या वाला भूखंड होने जा रहा है। जहाँ दुनिया के सर्वाधिक बेरोजगार लोग निवास करते हैं जिन की संख्या लाखों  में  नहीं करोड़ों में है वहाँ तकनीक का विस्तार इस रीति से होना चाहिए था कि लोग बेरोजगार न हों, अपितु नए रोजगारों का सृजन हो। लेकिन हो इस का उलटा रहा है। 
कनीक पर अरबों रुपयों का खर्च हो रहा है और नतीजे के रूप में रोजगार पर लगे लोग बेरोजगार कर दिए जाते हैं। इस अनुसंधान पर करोड़ों रुपयों का खर्च हो रहा है कि कैसे कम से कम लोगों के नियोजन से उद्यम चलाए जा सकते हैं? जो उद्यम बिना मानवीय हाथों के नहीं चल सकते वहाँ और बुरी स्थिति है। सरकारें कंगाल हैं। उस का उदाहरण है, सरकारी विभागों में लाखों पद रिक्त पड़े हैं। रिक्त पदों के कारण जरूरी काम लंबित पड़े रहते हैं। नगरपालिकाओं में सफाई कर्मचारी नहीं हैं, सारा देश गंदगी से अटा पड़ा है, भौतिक और मानसिक दोनों तरह की। सरकार के पास विभागों में कर्मचारी कम हैं। बिजली कंपनियों में कर्मचारियों की कमी है। और रेल में वहाँ तो स्थिति और भी भयानक है। पिछले तीस बरसों में रेलों का लगातार विस्तार हुआ है। लगभग दुगनी से भी अधिक माल और सवारियाँ ढोई जा रही हैं लेकिन वहाँ नियोजित कर्मचारियों की संख्या आधी से भी कम रह गई है। 
सा लगता है कि दो या तीन खेमों वाली राजनैतिक प्रणाली में राजनेता जानता है कि पाँच साल बाद उसे फिर से सड़क पर आने है। वह सिर्फ तदर्थ रुप से काम करता है। यह तदर्थवाद देश को एक बड़े कूड़ेदान में तब्दील कर रहा है। वह देश को सिर्फ पाँच वर्ष के लिए चलाता है। आरंभिक वर्षों में जैसे चले चलाओ। अगले चुनाव के वक्त बताने लायक काम दिखाओ, जब चुनाव नजदीक आ जाएँ तो जनता के धन को वोट कबाड़ू योजनाओं में बरबाद करो। जब सरकार बदल कर नए दल या गठबंधन की आती है तो सब से पहले यही घोषणा करती है कि जाने वाली सरकार खजाना खाली छोड़ गई है।
मता दी के लिए रेल मत्रालय तदर्थ ही है, उन का पूरा ध्यान बंगाल पर है कैसे वहाँ तृणमूल दल का राज स्थापित हो। देश का तृणमूल भले ही सूखा और नष्ट होता रहे, किसी को उस की फिक्र नहीं। पर ऐसे में जब तृणमूल (Grass-root) का जीवन नष्ट होने की कगार पर चला जाए तो अपने जीवन की रक्षा के लिए उसे ही प्रयत्न करने होंगे। तमाम राजनैतिक दलों ने अब तक निराश किया है। अब जनता की एक बड़ी ताकत की आवश्यकता है जो इस देश को बदल सके, इस देश की जनता के जीवन और भविष्य के लिए। हम छोटे छोटे लोगों को ही उस ताकत को बनाना होगा। इस का उपाय यही है कि छोटे से छोटे स्तर पर जहाँ भी जितनी भी संख्या में हम संगठित हो सकते हों हों, अपने जीवन की रक्षा और उस की अक्षुणता के लिए। ये छोटे-छोटे संगठन ही किसी दिन बड़े और विशाल देशव्यापी संगठन का रूप धारण कर लेंगे।


सोमवार, 19 जुलाई 2010

नागरिक और मानवाधिकार हनन का प्रतिरोध करने को समूह बनाएँ

विगत आलेख  पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि ..............?   पर अब तक अंतिम  टिप्पणी श्री Bhavesh (भावेश ) की है कि 'रक्षक के रूप में भक्षक और इंसानियत के नाम पर कलंक इस देश की पुलिस से जितना दूर रहे उतना ही ठीक है.'  मुझे भावेश की ये टिप्पणी न जाने क्यों अंदर तक भेद गई। मुझे लगा कि यह रवैया समस्या से दूर भागने का है, जो आजकल आम दिखाई पड़ता है। 
दालत पुलिस को सिर्फ जाँच के लिए मामला भेजती है जिस में पुलिस को केवल मात्र गवाहों के बयानों और दस्तावेज आदि के आधार पर अपनी रिपोर्ट देनी है कि मामला क्या है। इस रिपोर्ट से कोई अपराध होना पाया जाता है या नहीं पाया जाता है इस बात का निर्णय अदालत को करना है। अपराध पाया जाने पर क्या कार्यवाही करनी है यह भी अदालत को तय करना है ऐसे में पुलिस एक व्यक्ति को जिस ने कोई अपराध नहीं किया है। यह कहती है कि तुम बीस हजार रुपए दे दो और आधा प्लाट अपने भाई को दे दो तो हम मामला यहीं रफा-दफा कर देते हैं, अन्यथा तुम्हें मुकदमे में घसीट देंगे। ऐसी हालत में पुलिस जो पूरी तरह से गैर कानूनी काम कर रही है उस का प्रतिरोध होना ही चाहिए। 
ब से पहला प्रतिरोध तो उस के इन अवैधानिक निर्देशों की अवहेलना कर के होना चाहिए। संबंधित पुलिस अफसर के तमाम बड़े अफसरों को इस की खबर की जानी चाहिए और अदालत को भी इस मामले में सूचना दी जानी चाहिए। यह सीधा-सीधा मानवाधिकारों का हनन है। यदि इस का प्रतिरोध नहीं किया जाता है तो सारे नागरिक अधिकार और मानवाधिकार एक दिन पूरी तरह ताक पर रख दिए जाएंगे।  कुछ तो पहले ही रख दिए गए हैं। वास्तव में जब भी किसी देश के नागरिक अपने नागरिक अधिकारों के हनन को सहन करने लगते हैं तो यह आगे बढ़ता है। 
ब भी एक अकेला व्यक्ति ऐसा प्रतिरोध करता है तो यह बहुत संभव है कि पुलिस उसे तंग करे। उस के विरुद्ध फर्जी मुकदमे बनाने के प्रयत्न करे। लेकिन जब यही प्रतिरोध एक समुदाय की और से सामने आता है तो पुलिस की घिघ्घी बंध जाती है। क्यों कि वह जानती है समुदाय में ताकत होती है, जिस से वह लड़ नहीं सकती। समुदाय की जायज मांगों पर देर सबेर कार्यवाही अवश्य हो सकती है। फिर पुलिस एक मुहँ तो बंद कर सकती है लेकिन जब मुहँ पचास हों तो यह उस के लिए भी संभव नहीं है। जब समुदाय बोलने लगता है तो राजनैताओं को भी उस पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है, शायद इस भय से ही सही कि अगले चुनाव में जनता के बीच कैसे जाया जा सकता है। इस तरह की घटनाएँ समुदाय के मुहँ पर आ जाने के बाद अखबारों और मीडिया को भी बोलना आवश्यक प्रतीत होने लगता है।
म में से कोई भी ऐसा नहीं जो किसी न किसी समुदाय का सदस्य न हो। वह काम करने के स्थान का समुदाय हो सकता है। वह मुहल्ले को लोग हो सकते हैं। वे किसी अन्य जनसंगठन के लोग भी हो सकते हैं। निश्चित रूप से हमें इस तरह की घटनाओं की सूचना सब से पहले समुदाय को दे कर उसे सक्रिय करना चाहिए। एक बाद और कि हमें समुदाय को संगठित करने की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि जहाँ हम रहते हैं वहाँ के निवासियों की एक सोसायटी तो कम से कम बना ही लें और उस का पंजीयन सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत करा लें। इस से उस क्षेत्र के बाशिंदों को एक सामाजिक और कानूनी पहचान मिलती है। इस के लिए कुछ भागदौड़ तो करनी पड़ सकती है। लेकिन यह सोसायटी है बड़े काम की चीज और ऐसे ही आड़े वक्त काम आती है। एक बात और कि सोसायटी बनने पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार भी सोसायटी को पूछने लगते हैं। निश्चित रूप से एक-एक वोट के स्थान पर समूहबद्ध वोटों का अधिक महत्व है। लोगों का संगठनीकरण आवश्यक है।

सोमवार, 31 मई 2010

मनुष्य के श्रम से विलगाव के जैविक और सामाजिक परिणाम


ज सुबह अदालत में जब हम चाय के लिए  जा रहे थे तो वरिष्ट वकील महेश गुप्ता जी ने पीछे से आवाज लगाई। मैं मुड़ा तो देखता हूँ कि पंचानन गुरू मौजूद हैं। वे मुझे याद कर रहे थे। वे कोटा की पहली पीढ़ी के वामपंथियों में से एक हैं। अपने जमाने में उन्हों ने इस विचार को पल्लवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका  अदा की। बाद में  अपने गांव के पास के कस्बे अटरू में जा कर वकालत करने लगे, साथ में पुश्तैनी किसानी थी ही। अब जीवन के नवें दशक में हैं। गुरू ने पूछा -कहाँ जा रहे थे? मैं ने कहा चाय पीने।  उन्हो ने पलट कर पूछा-कौन पिला रहा है? मैं ने कहा जो भी सीनियर होगा वही पिलाएगा। उन्हों ने फिर पूछा -हम भी चलते हैं, अब कौन पिलाएगा? उत्तर मैं ने नहीं महेश जी ने दिया - अब तो सब से सीनियर आप ही हैं, लेकिन जब छोटे कमाने लगें तो उन का हक बनता है। तो यूँ मेरा हक है। हम सब केंटीन की ओर चले।
चाय का आदेश देते हुए महेश जी ने कहा एक चाय फीकी आएगी। गुरू बोले -फीकी किस के लिए? मैं तो अब भी घोर मीठी पीता हूँ। महेश जी ने जवाब दिया यह मधुमेह का राजरोग मुझे लगा है। गुरू कहने लगे -मधुमेह तो तो सब रोगों की जननी है। अब कोई रोग आप को छोड़ेगा नहीं। महेश जी ने उत्तर दिया -आप सही कहते हैं। इस का कोई इलाज भी नहीं, एक इलाज है पैदल चलना। मैं ने कहा श्रम ने ही तो मनुष्य को जानवर से मनुष्य बनाया है, वह छूटेगा तो रोग तो पकड़ेगा ही। गुरू जी कहने लगे तुम भी डार्विन में विश्वास करते हो क्या? मैंने कहा करता तो नहीं, पर सबूतों का क्या करें? कमबख्त ने सबूत ही इतने दिए कि मानने के सिवा कोई चारा नहीं है। गुरू जी ने गीता का जिक्र कर दिया। कहने लगे -वहाँ भी कहा तो यही है, कि मनुष्य काजन्म तो 84 लाख योनियों के बाद होता है, सीधा-सीधा विकासवाद की ओर संकेत है। पर उन्हों ने सबूत नहीं दिए सो पंडितों ने अपनी रोटियाँ उस पर सेक लीं।फिर वे किस्सा सुनाने लगे -
Planet of the Apes'मेरे गांव में एक बूढ़ा पटवारी बिस्तर पर था जान नहीं निकलती थी। बेटे कहने लगे बहुत दुख पा रहे हैं जान नहीं निकल रही है। मैं गीता ले कर वहाँ पहुँचा कि तुम्हें गीता सुना दूँ। दो दिन में उसे गीता के दो अध्याय सुनाए। तीसरे दिन तीसरा अध्याय सुनाने गया तो पूछने लगा। गाँव में डिस्टीलरी की बिल्डिंग  का खंडहर खड़ा है, सैंकड़ो एकड़ उस की जमीन है, डिस्टीलरी की इस जमीन का क्या होगा? मैं ने उसे गीता का तीसरा अध्याय नहीं सुनाया। बेटों को कहा कि जब तक डिस्टीलरी की चिंता इन्हें सताती रहेगी ये कष्ट पाते रहेंगे। उस के बाद मैं उसे गीता सुनाने नहीं गया।? 
ब तक चाय समाप्त हो चुकी थी। सब उठ लिए। गुरू जी मेरे लिए काम सौंप गए। जब श्रम ने मनुष्य को जानवर से मनुष्य बनाया तो उस का श्रम से विलगाव क्या असर करेगा? जरा इस पर गौर करना। मैं ने कहा -निश्चित ही वह मनुष्य का विमानवीकरण करता है। यही तो इस युग का सब से बड़ा अंतर्विरोध है। मनुष्य का अंतर्विरोधों का हल करने का लंबा इतिहास है, वह इस अंतर्विरोध को भी अवश्य ही हल कर लेगा। मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'कफन' तो आपने पढ़ी ही होगी। 
स के बाद गुरूजी चल दिए। मैं भी अपने काम में लग गया। मैं घर लौटने के बाद इस प्रश्न  से जूझता रहा कि  क्या मनुष्य इस अंतर्विरोध को हल कर पाएगा? 
प लोग इस बारे में क्या सोचते हैं? आप राय रखेंगे तो इस विषय पर सोच आगे बढ़ेगी। ब्लाग जगत में कुछ साथी गंभीर काम करते हैं, उन से गुजारिश भी है कि उन के ज्ञान में हो तो बताएँ कि, क्या ऐसी कोई शोध भी उपलब्ध हैं,  जो मनुष्य के श्रम से विलगाव के जैविक और सामाजिक परिणामों के बारे में कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत करती हैं?

रविवार, 20 दिसंबर 2009

एक गाली चर्चा : अपनी ही टिप्पणियों के बहाने

पिछले साल के दिसम्बर में भी गालियों पर बहुत कुछ कहा गया था। मैं ने नारी ब्लाग पर एक टिप्पणी छोड़ी थी ......
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
किसी भी मुद्दे पर बात उठाने का सब से फूहड़ तरीका यह है कि बात उठाने का विषय आप चुनें और लोगों को अपना विषय पेलने का अवसर मिल जाए। गाली चर्चा का भी यही हुआ। बात गाली पर से शुरू हुई और गुम भी हो गई। शेष रहा स्त्री-पुरुष असामनता का विषय।

वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
 इस टिप्पणी पर एक प्रतिटिप्पणी सुजाता जी की आई .......
सुजाता said...
वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
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दिनेश जी जब आप मान ही रहे हैं कि स्त्री पुरुष असमानता और गाली चर्चा में प्रमुख सम्बन्ध है फिर आपको यह बात उठाने का फूहड़ तरीका कैसे लग सकता है।
अथवा आप कहना चाहते हैं कि क्योंकि मैने मुद्दे को सही तरीके से उठाया इसलिए कोई cmpershad सरे आम गाली दे जाना जायज़ साबित हो जाता है।
माने आपको मेरी बात पसन्द नहीं आएगी तो क्योंकि आप पुरुष हैं तो आप भी ऐसी ही कोई भद्दी बात कहने के हकदार हो जाएंगे।
मैं नारी ब्लाग की उस पोस्ट पर दुबारा नहीं जा पाया इस कारण से मुझे साल भर तक यह भी पता नहीं लगा कि सुजाता जी ने कोई प्रति टिप्पणी की थी और उस में ऐसा कुछ कहा था। साल भर बाद भी शायद मुझे इस का पता नहीं लगता। लेकिन आज सुबह नारी ब्लाग की पोस्ट "पी.सी. गोदियाल जी अफ़सोस हुआ आप कि ये पोस्ट पढ़ कर ये नहीं कहूँगी क्युकी इस से भी ज्यादा अफ़सोस जनक पहले पढ़ा है।"  पर फिर से कुछ ऐसा ही मामला देखने को मिला। वहाँ छोड़ी गई लिंक से पीछे जाने पर चिट्ठा चर्चा की पोस्ट पर मुझे अपनी ही यह टिप्पणी मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said:  
देर से आने का लाभ,
चिट्ठों पर चर्चा के साथ
चर्चा पर टिप्पणी और,
उस पर चर्चा
वर्षांत में दो दो उपहार।
वहाँ से सिद्धार्थ जी के ब्लाग पर पहुँचा और पोस्ट गाली-गलौज के बहाने दोगलापन पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ने को मिली ...
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोग गालियाँ क्यों देते हैं ? और पुरुष अधिक क्यों? यह बहुत गंभीर और विस्तृत विषय है। सदियों से समाज में चली आ रही गालियों के कारणों पर शोध की आवश्यकता है। समाज में भिन्न भिन्न सामाजिक स्तर हैं। मुझे लगता है कि बात गंभीरता से शुरू ही नहीं हुई। हलके तौर पर शुरू हुई है। लेकिन उसे गंभीरता की ओर जाना चाहिए।
यहाँ से पहुँचा मैं लूज शंटिंग 
पर दीप्ति की लिखी पोस्ट पर वहाँ भी मुझे अपनी यह टिप्पणी देखने को मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोगों को पता ही नहीं होता वे क्या बोल रहे हैं। शायद कभी कोई भाषा क्रांति ही इस से छुटकारा दिला पाए।
फिर दीप्ती की पोस्ट पर लिखी गई चोखेरबाली की  पोस्ट पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ी।
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
बस अब यही शेष रह गया है कि यौनिक गालियाँ मजा लेने की चीज बन जाएं। जो चीज आप को मजा दे रही है वही कहीं किसी दूसरे को चोट तो नहीं पहुँचा रही है।
न सब आलेखों पर जाने से पता लगा कि यौनिक गालियों के बहाने से बहुत सारी बहस इन आलेखों में हुई। मैं सब से पहले आना चाहता हूँ सुजाता जी की प्रति टिप्पणी पर। शायद सुजाता जी ने उस समय मेरी बात को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं लिया। मेरी टिप्पणी का आशय बहुत स्पष्ट था कि किसी भी मुद्दे को इस तरीके से उठाना उचित नहीं कि उठाया गया विषय गौण हो जाए और कोई दूसरा ही विषय वहाँ प्रधान हो जाए। यदि हो भी रहा हो तो पोस्ट लिखने वाले को यह ध्यान दिलाना चाहिए कि आप विषय से भटक रहे हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि विषय को भटकाने वालों को सही जवाब दिया जा कर विषय पर आने को कहना चाहिए और यह संभव न हो तो विषय से इतर भटकाने वाली टिप्पणियों को मोडरेट करना चाहिए। सुजाता जी ने अपनी बात कही, मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन वे समझती हैं कि मेरी टिप्पणी इस लिए थी कि मैं पुरुष हूँ, तो यह बात गलत है, वह टिप्पणी पुरुष की नहीं एक ब्लागर की ही थी।

खैर, इस बात को जाने दीजिए। मेरी आपत्ति तो इस बात पर है कि पिछले साल गालियों पर हुई चर्चा का समापन अभी तक नहीं हो सका है। वह बहस नारी की आज की पोस्ट पर फिर जीवित नजर आई। हो सकता है यह बहस लम्बे समय तक रह रह कर होती रहे। लेकिन यह एक ठोस सत्य है कि समाज में यौनिक गालियाँ मौजूद हैं और उन का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है। इस सत्य को हम झुठला नहीं सकते। यह भी सही है कि सभ्यता और संस्कृति के नाम पर स्त्रियों से  इन से बचे रहने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि स्त्रियाँ इस से अछूती रही हों। मुझे 1980 में किराये का घर इसीलिए बदलना पड़ा था कि जिधर मेरे बेडरूम की खिड़की खुलती थी उधर एक चौक था। उस चौक में जितने घरों के दरवाजे खुलते थे उन की स्त्रियाँ धड़ल्ले से यौनिक गालियों का प्रयोग करती थीं, पुरुषों की तो बात ही क्या उन्हें तो यह पुश्तैनी अधिकार लगता था।
मेरे पिता जी को कभी यौनिक तो क्या कोई दूसरी गाली भी देते नहीं देखा। मेरी खुद की यह आदत नहीं रही कि ऐसी गालियों को बर्दाश्त कर सकूँ। ऐसी ही माँ से सम्बंधित गाली देने पर एक सहपाठी को मैं ने पीट दिया था और मुझे उसी स्कूल में नियुक्त अपने पिता से पिटना पड़ा था। 
म बहुत बहस करते हैं। लेकिन  ये गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।

गुरुवार, 26 मार्च 2009

जनतन्तर-कथा (1) : हरारत होने लगी

हे, पाठक!

यूँ तो जब भी आप-हम मिलते हैं, तो कोई न कोई बात होती है।  कुछ मैं  कहता हूँ, कुछ आप टिपियाते हैं।  पर इन दिनों मौसम का मिजाज कुछ अलग है।  एक तो वह बदलाव के दौर में है, ऊपर से चुनाव आ टपके हैं।  वैसे ही इस मौसम में डाक्टर-वैद्य बहुत व्यस्त होते हैं।  सारे बैक्टीरियाओं और वायरसों के लिए मौसम अनुकूल जो होता है।  होता तो इंन्सान के लिए भी अनुकूल ही है,  पर वह जो खुराफातें फागुन-चैत में करता है, उस के परिणाम बहुत देर से सावन-भादों दिखाई देने लगते हैं और देश के जच्चाखानों में जगह कम पड़ने लगती है।  लेकिन बैक्टीरियाओं, वायरसों और उन के वाहकों की खुराफातों के परिणाम जल्दी ही सामने आने लगते हैं।  दूसरे-दूसरे वाहकों पर क्या गुजरती है? ये तो वे ही जानें।  जाने उन के यहाँ डाक्टर-वैद्य होते या नहीं।  शायद नहीं ही होते हैं।  तभी तो कभी उन की भरमार हो जाती है और कभी बिलकुल गायब नजर आते हैं।  इन भरमार के दिनों में वे इन्सान को भी अपना असर दिखाने लगते हैं।  इस असर की शुरुआत होती है इन्सान के शरीर में हरारत के साथ।

हे, पाठक!
तब ताप महसूस होने लगता है।  बीन्दणी सुबह-सुबहअपना हाथ आगे कर अपने बींद से कहती है- मुझे पता नहीं क्या हुआ है?  जरा मेरा हाथ तो देखो जी।  बींद सहज ही हाथ पकड़ने का अवसर देख, हाथ को पकड़ता है कुछ देर पकड़े रह कर कहता है, ठीक तो है।  वह पूछती है, गरम नहीं लगा? जवाब मिलता है, नहीं तो। वह निराश हो जाती है।  फिर बींद का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर अपने माथे से छुआती है और कहती है, यहाँ देखो।  अब न होते हुए भी बींद को कहना पड़ता है हाँ कुछ गरम तो लगता है।  इस के बाद बींद गले के नीचे छाती के ऊपर अपना हाथ छुआ कर देखता है और घोर आश्चर्य कि बींदणी जरा भी प्रतिरोध नहीं करती और न यह सुनने को मिलता कि, अजी क्या कर रहे हो।


हे, पाठक!
ऐसा ही कुछ शाम को बींद के साथ होने लगता है।  वह दफ्तर से लौटता है और ड्राइंगरूम के सोफे पर या दीवान पर या सीधे बेडरूम के बेड पर धराशाई हो जाता है।  अब पैर जमीन पर हैं और शरीर सोफे या दीवान या  बेड पर लंबायमान।  जूते भी नहीं खोलता।  उस की हालत वैसी दीख पड़ती है जैसी खेत में ओले पड़ने के बाद पकते गेहूँ की फसल की होती है।  बींदणी देखती है, पानी का एक गिलास ले कर आती है और पूछती है, क्या हुआ जी? आते ही पड़ गए,  जूते भी नहीं खोले?  कुछ नहीं कुछ हरारत सी हो रही है। बिचारी बींदणी, वह बींद के माथे पर हाथ रख कर देखती है और कहती है, ठीक तो है, गरम तो नहीं लग रहा है, लगता है आज काम ज्यादा करना पड़ा है? थक गए होंगे? बींद कहता है वह तो रोज का काम है लेकिन आज कुछ बदन टूटा-टूटा लग रहा है।  बींद पानी का गिलास ले लेता है और उसे उदरस्थ कर वापस बींदणी को पकड़ा देता है। वह खाली गिलास ले कर चल देती है।  बींद को पता है वह चाय बनाने रसोई में घुस गई है। वह उठ कर जूते खोलने लगता है।


हे, पाठक!
ये दो सीन हैं, बिलकुल घरेलू आइटम।  लेकिन इन दिनों इन्सानों के साथ साथ शहर को भी हरारत हो रही है।  कल मैं अदालत के लिए निकला तो गर्ल्स कॉलेज के आगे अंटाघर चौराहे की ट्रेफिक बत्ती  हरी थी।  हमने निकलने को एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाया तो वह दगा दे गई पीली हो गई।  उधर चौराहे पर पुलिसमैन बिलकुल चौकस दिखे।  मुझे लगा कि मैं निकल गया और बत्ती लाल हो गई, तो मुझे बीच चौराहे पर ही टोक देगा।  मेरा पैर एक्सीलेटर छोड़ कर अचानक ब्रेक पर चला गया।  बगल में बैठे सहायक ने कहा निकल लो पीछे पुलिस की गाड़ियाँ आ रही हैं।  पैर वापस एक्सीलेटर पर गया और चौराहा पार करते-करते, बत्ती लाल।  मैं ने पिछवाड़ा दर्शन शीशे में देखा तो तेजी से बहुत सारी पुलिस गाड़ियाँ आ रही थीं।  पहले तो लगा कि मेरा पीछा कर रही हैं।  फिर लगा कि मेरी कार को टक्कर मार देंगी।   फिर सड़क पर एक सिपाही दिखा जो मुझे कार बाएँ करने का इशारा कर रहा था।  तभी सहायक बोला, मुख्यमन्तरी आ रहा है, सारे सिपाही एक दम लकदक हैं।  मैंने कार बाएँ कर ली।  पुलिस की जीपें एक-एक कर मुझे ओवरटेक कर गईं।  हर जीप से निकले हाथ ने मुझे कार बाएँ रखने का इशारा किया।  तब तक सर्किट हाउस आ गया और सब उस के मुहँ में घुस गईं।  मुख्यमन्तरी के वाहन का कुछ पता नहीं था।  सहायक ने बताया, यह मुख्यमंतरी को सर्किट हाउस तक लाने का रिहर्सल था।


हे, पाठक !
अदालत आ चुकी थी।  पार्किंग में कोई जगह खाली न थी।  कार को कलेक्ट्री परिसर में घुसाया और सबसे आखिरी में तहसील के सामने की जगह में पेड़ के नीचे पार्क किया।  सहायक ने बताया, आज भूतपूर्व और वर्तमान दोनों ही मुख्यमंतरी शहर में हैं।  हम काम में लग गए।  दोपहर बाद कुछ समय मिला तो वकीलों को गपियाते देख हम भी शामिल हो गए।  बहुत साल पहले वायरस पार्टी से बैक्टीरिया पार्टी में शामिल हो कर नोटेरी बने और वापस वायरस पार्टी में लौटे वकील साहब को कोई वकील कह रहा था, तुम मिल आए सर्किट हाउस? टिकट नहीं मांगा? मेरी हँसी छूटते-छूटते बची।  मैं बोल पड़ा क्यों बाम्भन को छेड़ रहे हो? क्यों अच्छी खासी चलती दाल-रोटी छुड़वाना चाहते हो?  टिकट मिल भी गया होता तो इन से उठता नहीं और उठा कर ले आते तो अदालत तक आते-आते कहीं रास्ते में पटक देते। जैसे रावण ने जनकपुरी में शिव जी का धनुष छोड़ दिया था।
हे, पाठक!
आज की कथा यहीं तक।  फिर मिलेंगे। बोलो हरे नमः, गोविन्द माधव हरे मुरारी .....

रविवार, 22 मार्च 2009

मैं रेशा हूँ एक उदास, इस चुनाव के मौसम में

चुनाव आ रहे हैं, पैरों तक आ चुके हैं।  कुछ दिनों में घुटनों पर आ जाएंगे।  फिर न जाने कहाँ कहाँ का सफर करते हुआ सिर पर भी आ लेंगे।  सांसद चुने जाएँगे, फिर वे देश की सरकार चुनेंगे।  अखबार, टीवी न्यूज चैनल चुनाव पूर्व अखाड़ों में हो रही उखाड़ पछाड़ की खबरों से भरपूर हो चुके हैं।  इधर ब्लागरी में भी इस का असर देखने को मिलने लगा है।  लेकिन पिछले दस सालों से चुनावों के प्रति एक उदासीन भाव जो मन में जमा है वह उखड़ता नहीं दिखाई पड़ रहा।  हर बार मन की टंकी में बरसाती पानी के साथ आई मिट्टी की तरह कुछ उदासीनता जम जाती है।  जमते जमते हालत यह हो गई है कि गरदन तक मिट्टी ही मिट्टी भरी है।  पानी के लिए बस थोड़ी सा स्थान शेष है।  वह कब भरेगा यह तो समय बताएगा?

हाड़ौती से दो लोक सभा सदस्य चुने जाने हैं।  एक झालावाड़ से और दूसरा कोटा से।  झालावाड़ क्षेत्र में बारां जिला भी शामिल है।  वहाँ से पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के सुपुत्र भाजपा के उम्मीदवार हैं।  इस क्षेत्र के लिए वे अब भी पराए हैं।   उन्हें इसी लिए चुना गया था कि वे भाजपा की दिग्गज नेता और मुख्यमंत्री के पुत्र हैं और शायद क्षेत्र की तरक्की के कुछ काम आएँ।  उन की तरक्की को जनता ने ऐसा परखा कि उन के क्षेत्र के आठ विधानसभा क्षेत्रों में से छह में कुछ माह पहले ही कांग्रेस के उम्मीदवारों को चुन कर भेजा।  यदि मतदान का पैटर्न वही रहा तो भाजपा वहाँ हारी हुई है।  उन के मुकाबले एक महिला उर्मिला जैन को काँग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया है।  ये अन्ता के विधायक प्रमोद भाया की धर्मपत्नी हैं और उन के सामाजिक कामों में उन के साथ कंधे से कंधा लगा कर चलती हैं।  पहली बार राजनीति में उतर रही हैं। भाया जहाँ एक धनाड्य व्यापारी परिवार से आते हैं, उन्हों ने अपनी संपत्तियों में अपने बूते कई गुना इजाफा किया है और लगातार पिछले पन्द्रह वर्षों से सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं।  यही कारण है कि पिछली बार काँग्रेस से टिकट नहीं मिलने पर उन्हों ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और अपना दम दिखाते हुए विधायक बने, बाद में उन्हें काँग्रेस ने स्वीकार कर लिया।  इस बार काँग्रेस से चुनाव लड़ा और जीता।  अपने प्रभाव के कारण बाराँ जिले की चारों विधानसभा सीटें काँग्रेस को दिलवाईं।  इस क्षेत्र पर काँग्रेस अध्यक्षा कुछ कृपालु दीख पड़ती हैं। तभी तो बाराँ जिले के आदिवासी क्षेत्र में जब तब खुद सोनिया और राहुल आते-जाते हैं और कभी कभी अचानक भी। यदि यह सीट भाजपा से छीन ली जाती है तो भाजपा को तो हानि होगी ही।  वसुंधरा का अहं भी कई गुना पराजित हो चुका होगा।
कोटा क्षेत्र में बूंदी जिला भी आता है।  यहाँ से भाजपा ने अपना नया उम्मीदवार श्याम शर्मा को घोषित किया है।   इन शर्मा जी की खसूसियत यह है कि ये उम्मीदवारी मिलने तक भाजपा के सदस्य नहीं थे और राज्य सरकार के निर्माण विभाग में अफसरी कर रहे थे।  अपने विभाग में उन की कोई उपलब्धि हो न हो पर उन्हों ने अपनी इंजिनियरिंग का कमाल बाहर बहुत दिखाया।  किसी तरह भारत विकास परिषद में स्थान बना कर भाजपा की प्रान्तीय सरकार के अनुग्रह  से एक बस्ती के बीच (जिस का एक निवासी मैं भी हूँ) भूमि आवंटित करवा कर उस पर एक औषधालय खोला।  बिना किसी अनुमति के उस औषधालय को एक पाँच मंजिला अस्पताल में परिवर्तित कर दिया।  जब वहाँ औषधालय बन रहा था तो बस्ती के लोग आशंकित थे कि उन की आवासीय शांति अब भंग होने वाली है।  इस लिए इस औषधालय को बनने से रोका जाए।  एक भले काम को रोकने के अभियान को रोकने में मेरी भी भूमिका रही।  लेकिन कुछ समय बाद ही जब वह एक बड़े अस्पताल में तब्दील होने लगा और उस का कचरा और प्रदूषण बस्ती को प्रभावित करने लगा तो उन से बस्ती के लोगों को लड़ना पड़ा।  वह लड़ाई अभी भी जारी है।  जिस का केवल एक ही असर है कि बस्ती के पार्क की भूमि अस्पताल को नजर होने से बच गई।  अस्पताल में चैरिटी और सरकारी अनुदानों का पैसा और मुफ्त सरकारी भूमि लगी है लेकिन अस्पताल पूरी तरह से एक निजि व्यावसायिक अस्पताल की तरह चल रहा है।

लोग बताते हैं कि इस बीच इन उम्मीदवार की काली-गोरी संपत्ति में इजाफा हुआ है।  इसे सच मानने के अलावा चारा भी नहीं क्यों कि बिना संपत्ति के जीतने के लिए चुनाव लड़ना संभव नहीं है।  इन की एक मात्र राजनैतिक योग्यता यह है कि ये बरसों से रा.स्वं.सं के कार्यकर्ता रहे हैं और सामान्य कार्यकर्ताओं की तरह अपनी माली हालत को बचाए रखने के स्थान पर उच्चता के शिखर पर ले गए हैं जिस ने उनके राजनीति प्रवेश प्रशस्त किया है।  उन के नाम की घोषणा के साथ ही भाजपा में विरोध के स्वर उठे कि जो व्यक्ति आज तक भाजपा का सदस्य नहीं है उसे टिकट दे दिया गया।  आखिर लंबी कतार में सब से आगे वह व्यक्ति आ गया जो दूर दूर तक कतार में कभी नजर नहीं आया।

स उदाहरण से यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि भाजपा में दोहरी सदस्यता है, यह दल रा.स्वं.सं  और उस के पारिवारिक संगठनों के कार्यकर्तओं को भी अपना सदस्य ही मानती है।  ऐसा भी विचार आता है कि मूल राजनैतिक दल तो रा.स्वं.सं ही है।  भाजपा तो उस का प्रकटीकरण मात्र है।  यह धारणा जनता में जाती है तो उस के लाभ और हानियाँ दोनो ही हैं।  काँग्रेस अभी तक यह तय नहीं कर सकी है कि इस क्षेत्र से कौन उम्मीदवार होगा।  यह तो सही है कि काँग्रेस किसी प्रभावशाली उम्मीदवार को सामने लाने में समर्थ हो सकी तो श्याम शर्मा की चुनौती कोई मायने नहीं रखती।  देखिए चुनाव में होता क्या है?

हा सवाल अपना, तो अपने राम इतना परिदृश्य देखने के बाद भी उदासीन ही हैं।  राम जानते हैं, कोई जीते फर्क कुछ नहीं पड़ने का।  इसी लिए भक्त तुलसीदास जी कह गए 'कोऊ नृप होऊ हमें का हानी'।  अभी तक तो ऐसा ही चल रहा है।  वे आएँगे तो भी जोड़ तोड़ से और ये आएँगे तो भी जोड़ तोड़ से।  कल कोई कह रहा था कि दोनों की रस्सियाँ दिनों दिन टूट टूट के छोटी हुई जा रही हैं बस इधर उधर से टुकड़े जोड़ जोड़ के काम चला रहे हैं।  आगे गली में रस्सियों के बहुत से छोटे छोटे टुकड़े आपस में मिल कर फुसफुसा रहे थे।  इन पुरानी रस्सियों के साथ जुड़ जुड़ कर मजा नहीं आ रहा, ऐसा न करें कि सारे छोटे टुकड़े मिल कर उन से लंबे हो जाएँ।  बीच में एक बंदा बोल रहा था कि एक बड़ी रस्सी तो होनी चाहिए।  इन बातों से भी हमारी उदासी नहीं टूट रही है।  हम तो रस्सी नहीं रेशा हैं।  यह भी पता नहीं कि उस उधड़ती-टूटती रस्सी से निकले हैं या फिर सीधे कपास-जूट के खेत से आ रहे हैं।  हाँ, इतना जरूर जानते हैं कि रस्सी बनती रेशे से है और बहुत सारे रेशे मिल कर एक साथ घूमने लगें तो नई रस्सी बन जाती है।