@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: मई 2014

शनिवार, 31 मई 2014

कोड़ा जमाल साई

शिवराम मूलतः ब्रजभाषी थे, हिन्दी पर उन की पकड़ बहुत अच्छी थी। जनता के बीच काम करने की ललक ने उन्हें नाटकों की ओर धकेला और संभवतः हिन्दी के पहले नुक्कड़ नाटककार हुए। एक संपूर्ण नाटककार जो नाटक लिखता ही नहीं था बल्कि उन्हें खेलने के लिए लिखता था। फिर उसे जमीन पर दर्शकों के बीच लाने के लिए अभिनेता जुटाता था। उन के नाटकों में लोकरंग का जिस खूबसूरती से प्रयोग देखने को मिलता है वह अद्वितीय है। लोकरंग उन के लिए वह दरवाजा है जिस से वे गाँव गोठ के दर्शकों के दिलों में घुस जाते हैं। हाड़ौती अंचल उन की कर्मभूमि बना। तब उन्हों ने जरूरी समझा कि वे हाडौती में भी लिखें। कोड़ा जमाल साई संभवतः उन की पहली हाड़ौती रचना है। एक खेल गीत की पंक्ति को पकड़ कर उन्होंने एक पैने और शानदार गीत की रचना की। आप भी उस की धार देखिए ...

कोड़ा जमाल साई ..... 
  • शिवराम

कोड़ा जमाल साई
पाछी देखी मार खाई
आँख्याँ पै पाटी बांध
चालतो ई चाल भाई
घाणी का बैल ज्यूँ
घूम चारूँ मेर भाई

नपजाओ अन्न खूब, गोडा फोड़ो रोज खूब
लोई को पसीनो बणा, माटी मँ रम जाओ खूब
जद भी रहै भूको, तो मूंडा सूँ न बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

बेमारी की काँईं फकर, मरबा को काँईं गम
गाँव मँ सफाखानो, न होवे तो काँईं गम
द्वायाँ बेकार छै, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

तन का न लत्ता देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली थाँकी, टेलीविजनाँ पै देख
कर्तव्याँ मँ सार छै, अधिकाराँ न मांग भाई
कोड़ा जमाल साई ...

आजादी भरपूर छै, जीमरिया सारा लोग
व्यंजन छत्तीस छै, हाजर छै छप्पन भोग
थारै घर न्यूतो कोई नैं, म्हारो काँई खोट भाई
कोड़ा जमाल साई ...

वै महलाँ मँ रहै, या बात मत बोल
वै काँई-काँई करै, या पोलाँ न खोल
छानो रै, छानो रै, याँ का राज मँ बोल छे अमोल भाई
कोड़ा जमाल साई ...


कुछ मित्रों का आग्रह है कि इसे हिन्दी में भी प्रस्तुत किया जाए ...

कोड़ा जमालशाही ... 
  • शिवराम

कोड़ा जमालशाही
पीछे देखा मार खाई
आँखों पे पट्टी बांध
चलता ही चल भाई
घाणी के बैल जैसा
घूम चारों ओर भाई


उपजाओ अन्न खूब, घुटने तोड़ो रोज खूब
लोहू का पसीना कर, माटी मेँ रम जाओ खूब
जब भी रहे भूखा, तो मुंह से न बोल भाई
कोड़ा जमालशाही ....

बीमारी की क्या फिक्र, मरने का क्या गम
गाँव मेँ अस्पताल ना हो तो क्या गम
दवाइयाँ बेकार हैं, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

तन का न कपड़े देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली तेरी, टेलीविजन पै देख
कर्तव्योँ मेँ सार है, अधिकार न मांग भाई
कोड़ा जमालशाही...

आजादी भरपूर है, जीम रहे सारे लोग
व्यंजन छत्तीस हैं, हाजिर है छप्पन भोग
तेरे घर न्योता नहीं, मेरा क्या खोट भाई
कोड़ा जमालशाही ...

वे महलोँ में रहें, ये बात मत बोल
वे क्या क्या करें, ये पोल मत खोल
चुप रह, चुप रह, इनके राज में बोल है अमोल भाई
कोड़ा जमालशाही...
अनुवाद-दिनेशराय द्विवेदी




 

रविवार, 25 मई 2014

भारतीय हॉकी और मुश्किल पहाड़

  • बीजी जोशी
भी भी, कहीं भी और कैसे भी हॉकी पर चर्चा चलते कुछ ही पलों में सहमति बन जाती थी कि हॉकी यानी भारत-पाकिस्तान। लेकिन अब वह बात कहां। हॉलैंड में हॉकी का विश्वकप ३१ मई से खेला जाना है लेकिन पाकिस्तान इस विश्वकप से बाहर है। सर्वाधिक ४ मर्तबा विश्व चैंपियन रही पाकिस्तान को १३ वें विश्वकप में खेलने की पात्रता भी नहीं मिली है। जून २०१३ में मलेशिया में हॉकी वर्ल्ड लीग क्वार्टर फाइनल में भरोसेमंद और अनुभवी शकील अब्बासी द्वारा कोरिया के विरुद्ध पेनल्टी स्ट्रोक गंवाकर ३ के मुकालबे ४ गोल से हारना पाकिस्तान को महंगा पड़ा। एशियाकप चैंपियन बनने की राह में भी कोरिया ने पाकिस्तान को सेमीफाइनल में २-१ से हरा दिया। देखा जाए तो कोरिया ही विश्वकप में एशियाई हॉकी का ध्वजवाहक है। लगातार दो बार (२००२ और २००६) सेमीफाइनल खेलकर विश्वकप में चौथे क्रम पर रही कोरियाई हॉकी समृद्ध बन गई है। आक्रमण में समुद्री गहराई व रक्षण में हिमालयी दृढ़ता की कोरियाई विध्वंसक शैली ने योरपीय दिग्गजों को पछाड़ना शुरू कर दिया है। पेनल्टी कॉर्नर पर जॉन्ग यून जंग की करामाती फ्लिफ कहर बरपाती है।
पोह में आयोजित एशियाकप में जॉन्ग जंग ८ गोल के साथ टॉप स्कोरर रहे हैं। जर्मन गैहार्ड रैख, स्पेनिश ब्रासा, ऑस्ट्रेलियाई माइकल नॉब्स, डच औल्टमन व अब ऑस्ट्रेलियाई टैरी वाल्श के प्रशिक्षण में भारतीय टीम हॉकी की नई व्याकरण में ढल रही है पर त्रुटिरहित रक्षण व आक्रमण में पैनेपन की मुख्य कमजोरियां भारतीय हॉकी को विश्वपटल पर ओझल कर रही हैं। १९९८ से लागू "नो ऑफ साइड रूल" ने भारतीय रक्षण को भोथरा कर दिया है। इस नियम ने मिडफील्ड खेल खत्म कर दिया है। अब दोनों टीमों के २५ गज में ही खेल होता है। गेंद पर गिद्ध समान पैनी नजर रख सफाई से सही क्लियरंस में भारतीय जब तब फिसड्डी साबित हुए हैं। अधिकतर मैचों में भारतीयों के पासेस साथी खिलाड़ियों तक नहीं पहुंचे। खुद पर विश्वास नहीं होने से मानसिक रूप से कमतर खिलाड़ियों से अनजाने में हुई गलतियों ने विपक्षियों को आसान मौके दिए। विरोधियों की मैन टू मैन मार्किंग के साथ संयुक्त झोनल मार्किंग में भी भारतीय पूरी तरह असफल रहे। उक्त खामियों से ८ बार के ओलिंपिक चैंपियन भारत ने लंदन ओलिंपिक में सभी ६ मैच हारने का दुर्लभ निकृष्ट कीर्तिमान रचा है। 

प्रथम तीन विश्वकप स्पर्धाओं में विजयी मंच पर सुशोभित भारत ने तब मात्र दो मैच हारे थे जबकि पिछले दो विश्वकप में टीम मात्र दो मैच ही जीत पाई है। कौशल व रणनीति की कमियां भारतीयों को जीत से दूर रख रही हैं। आधुनिक हॉकी बेहद तेज तकनीक से भरा खेल बन गया है। गोलरक्षक के लिए एक तिहाई सेकंड ही रिएक्शन टाइम है। गेंद पर अपलक नजर व सही पोजिशनिंग ही गोल बचा पाती है। बुसान एशियंस चैंपियंस ट्रॉफी से खुद को सफल गोली के रूप में ढाल रहे हैं केरल के होनहार श्रीजैश। पूर्व में एंग्लो इंडियन समुदाय से विश्वस्तरीय गोली की तेजी वाले खिलाड़ी निकले हैं। चार्ल्स कॉर्नेलियस व सेड्रिक परैरा ने सातवें दशक में भारतीय हॉकी को शीर्ष पर बनाए रखा। हालांकि जूड मींजेज, एड्रियन डिसूजा व मार्क पैटरसन की भारतीय हॉकी को अव्वल स्थान पर लाने की कोशिशें ज्यादा सार्थक नहीं रहीं।
पृथ्वीपालसिंह, माइकल किंडो, सुरजीतसिंह, परगटसिंह व दिलीप तिर्की के समकक्ष फुलबैक की भारतीय टीम को अभी भी तलाश है। वर्तमान फुलबैक कमजोर रिकवरी व धीमे रिफलेक्सेस से टीम पर बोझा साबित हो रहे हैं। पेनल्टी कॉर्नर के विशेषज्ञ फुलबैक ही रहे, ऐसा किसी संविधान में नहीं है पर भारत में फुलबैक को ही पेनल्टी कॉर्नर विशेषज्ञ के रूप में ढालने की परंपरा रही है। दुर्भाग्य से अभी खेल रहे दोनों पेनल्टी कॉर्नर विशेषज्ञ रूपिंदरपाल सिंह व रघुनाथ सही टैकलिंग व उम्दा क्लियरंस में कमजोर हैं। रक्षण की विधा में पारंगत बन कर ही वे भारतीय टीम की संपदा बन सकेंगे। मिडफील्ड में बीरेंद्र लाकरा, सरदारसिंह, गुरबाजसिंह, धरमवीरसिंह तथा कोथाजीतसिंह ने पूर्ण तन्मयता से खेल दिखाया तो टीम चल निकलेगी। सौभाग्य से नवोदित भारतीय फॉरवर्ड्स सही पथ पर हैं, पर विपक्षियों की सघन नाकेबंदी उन्हें कम ही मौके देती है। निकिन थिमैया व एसबी सुनील मिले मौकों पर गोल जड़ने में सफलता पा रहे हैं। कुर्ग के अनुभवी सुनील का डॉजिंग-पासिंग भरा खेल टीम की धरोहर है। उनके इस हुनर से ही भारतीय टीम को पेनल्टी कॉर्नर की बढ़त मिलती है।
हॉलैंड का शहर हैग न्याय के लिए प्रसिद्ध है, वहां अंतरराष्ट्रीय न्यायालय है। विश्वकप के पूल मैचों में भारत को क्रमशः बेल्जियम, इंग्लैंड, स्पेन, मलेशिया व ऑस्ट्रेलिया से भिड़ना है। २०११ के जोहानसबर्ग चैंपियंस चैलेंज कप में ३-१ से जीत रही भारतीय टीम को ४-३ से हराने का करिश्मा रचने वाली बेल्जियम टीम उफान पर है। रेड लायंस की संज्ञा से विभूषित बेल्जियम ने लंदन कुछ ही दिन और फिर हॉलैंड में विश्वकप हॉकी के मुकाबलों में सभी खिलाड़ी जी-जान लगाते नजर आएंगे। प्रतिस्पर्धा इस बार जबरदस्त कांटेदार है। भारत के लिए जीत भले दूर हो लेकिन साख के लिए तो उसे खेलना ही होगा। ओलिंपिक, योरपीय कप तथा हॉकी वर्ल्डलीग में अच्छा प्रदर्शन किया है। आधुनिक हॉकी के सभी सूत्रों को समेटे बेल्जियम से पहली भिड़ंत में भारत पसीना बहा कर ही अपने सम्मान की रक्षा कर सकेगा। थोड़ी सी भी शिथिलता या चूक भारतीयों के टूर्नामेंट के पहले ही मैच में हारने का रिकॉर्ड बना देगी।
भी तक भारत ५९ बार पहले ही मैच में हारा है, इसमें विश्वकप में ४ बार यह दुर्दशा हुई है। विगत ओलिंपिक व विश्वकप २०१० में सेमीफाइनल में खेली इंग्लिश टीम बेहद मजबूत है। तीन ओलिंपिक, दो विश्वकप, तीन चैंपियंस ट्रॉफी फाइनल में खेली स्पेन की टीम को कम आंकना भी आत्मघाती होगा। मलेशिया को भारत हरा सकता है। जबकि बरसों बीत गए हैं ऑस्ट्रेलिया को हराए। ऐसे में कश्मकश मुकाबलों में भारतीय टीम का टॉप सिक्स में आना उसके लिए बोनस होगा। मेजबान हॉलैंड का हॉकी में दबदबा रहा है। डच टीम तीन मर्तबा विश्वकप जीत चुकी है। वस्तुतः १९९६ से २००६ तक डच टीम दुनिया में सरेफेहरिस्त बनी रही है। घरू मैदान पर उनका चौथी बार चैंपियन बनना यकीनी है क्योंकि अपनी सरजमीं पर उनका खेल आसमान छू जाता है। एम्स्टरडम में अपने से सवाया भारतीय टीम को और यूट्रेख्ट में दिग्गज स्पेन को हराकर डच चैंपियन बने हैं। विगत ११ संस्करण में लगातार सेमीफाइनल खेल रही बैक-टू-बैक ओलिंपिक चैंपियन जर्मनी मजबूत टीम है।
र्मन टीम के ट्रंपकार्ड मार्टिज फुर्स्ट मांसपेशियों में खिंचाव से टीम में नहीं होने से कोरिया व अर्जेंटीना की बन पड़ी है। गोनझालो पिलैत के रूप में अर्जेंटीना को जॉर्ज लांबी के बाद पेनल्टी कॉर्नर विशेषज्ञ मिल गया है। २००२ के विश्वकप में लांबी ने टॉप स्कोरर बन लैटिन अमेरिकी टीम को छठी पोजीशन दिलाई थी। संभवतः पहली बार अर्जेंटीना सेमीफाइनल में दहाड़ सकता है। भारतीय अर्जेंटीना के प्रति कृतज्ञ हैं। ज्ञातव्य है कि ब्रॉम्पटन(कनाडा) अमेरिकी कप (२०१३) में कनाडा के हारने पर ही भारत को विश्वकप का मौका मिला है। हॉकी वर्ल्डकप में छठवीं पोजीशन व एशियाकप में उपविजेता होने से भारत भी पाकिस्तान की तरह विश्वकप से बाहर होने की स्थिति में था। पूल-बी में दक्षिण अफ्रीका व न्यूजीलैंड भी उनके विरुद्ध कमतर खेलने वाली टीमों को अपसेट कर स्पर्धा का रोमांच बनाए रखेंगी। भारत की दृष्टि से विश्वकप भले ही दूर है, क्योंकि पूल विरोधियों के विरुद्ध भारत को पिछली पांच भिड़तों में महज २५ प्रतिशत जीत मिली है। लेकिन इस समय मुख्य प्रशिक्षक टैरी वाल्श के सहायक बने जूड फेलिक्स की कप्तानी में भारत ने सिडनी में ५ वां स्थान पाया था। उसकी पुनरावृत्ति भी भारत के लिए बड़ी बात होगी। 


"आओ हॉकी का उत्सव मनाएं" हैग विश्वकप टूर्नामेंट का यह आदर्श वाक्य एशियाई हॉकी के लिए भले ही मुफीद नहीं हो क्योंकि दो पीढ़ियों ने हॉकी में जीत का स्वाद नहीं चखा है पर कई खिलाड़ियों के लिए यह विश्वकप मील का पत्थर साबित होगा। खासकर उनके लिए जो अपने करियर को स्वर्णिम सफलता के साथ विदाई देना की इच्छा रखते हैं।

बुधवार, 21 मई 2014

राजस्थान की भाजपा सरकार के नायाब तोहफे

  • डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

राजस्थान के इतिहास में किसी भी पार्टी की सरकार को कभी उतना बहुमत नहीं मिला, जितना की वर्तमान भाजपा सरकार को मिला है। इसलिये यहॉं की जनता की शुरू से ही राज्य सरकार से यही उम्मीदें रही हैं कि वसुन्धरा राजे के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार सभी वर्गों के हितों में कुछ न कुछ क्रान्तिकारी काम अवश्य उठाएंगी। जिससे राज्य का और राज्य की जनता का चहुँमुखी विकास होगा।

राज्य सरकार लोकसभा चुनाव होने तक तो एक दम शान्त रही, लोगों को लगा ही नहीं कि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन हो चुका है, लेकिन केन्द्र में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलते ही राज्य में भाजपा सरकार के परिवर्तन की छटा बिखरने लगी है। कुछ मामले इस प्रकार हैं :-

1. बड़े लोगों के लिये मॉल्स में खुलेंगी शराब की दुकानें : पिछले कार्यकाल में भाजपा की सरकार ने शराब की हजारों नयी दुकानें खोली थी और देर रात तक शराब की बिक्री विक्री होती थी। जिसके चलते लाखों परिवार बर्बाद हो गये और अनेकों घर टूट गये। इस स्थिति पर कांग्रेस सरकार ने असफल नियन्त्रण करने का प्रयास किया था। मगर भाजपा के दुबार सत्ता में आने के बाद भी राज्य सरकार को इस बात की कोर्इ परवाह नहीं है कि शराब पीने से लाखों परिवार और घर बर्बाद हो रहे हैं। जनता शराब की दुकानों को बन्द कराने के लिये सड़क पर उतर कर आये दिन विरोध करती रहती है, फिर भी शराबबन्दी के बारे में किसी प्रकार का सकारात्मक निर्णय लिया जाना राजस्थान सरकार के लिये चिन्ता का कारण या विषय नहीं है। इसके विपरीत राजस्थान सरकार का मानना है कि साधन सम्पन्न, उच्चवर्गीय और उच्च कुलीन लोगों को शराब की दुकानों पर जाकर और भीड़ में शामिल होकर शराब खरीदने में शर्म, संकोच तथा हीनता का अनुभव होता है, इस स्थिति को बदलना राज्य सरकार की प्राथमिकता सूची में गम्भीर चिन्ता का विषय है। इसलिये राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति की संरक्षक भाजपा की राज्य सरकार ने अपने अधिकारियों को निर्देशित किया है कि राज्य की राजधानी जयपुर में स्थित सभी मॉल्स में खरीददारी करने के लिये जाने वाले सम्पन्न, उच्चवर्गीय और उच्च कुलीन लोगों के लिये मॉल्स में ही शराब खरीदने की व्यवस्था की जावे। जिससेे कि ऐसे लोगों को शराब की दुकानों पर जाकर शराब खरीदने में होने वाले शर्म, संकोच तथा हीनता से मुक्ति मिल सके।

2. 7538 लिपिकों भर्ती प्रक्रिया रद्द करके लाखों बेरोजगारों के सपने किये चकनाचूर : गत वर्ष राजस्थान लोक सेवा आयोग के माध्यम से लिपिकों के 7538 रिक्त पदों पर भर्ती करने के लिये आवेदन मांगे गये थे, परीक्षा भी हो गयी और परिणाम घोषित किये जाने का लाखों बेरोजगार लम्बे समय से बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे, लेकिन भाजपा की बेतहासा बहुमत प्राप्त राज्य सरकार ने इस भर्ती प्रक्रिया को अन्तिम चरण में रद्द कर दिया है। तर्क दिया गया कि कम्प्यूटर के युग में बाबुओं की क्या जरूरत है?

इस प्रकार का हृदयहीन तथा निष्ठुर निर्णय लिये जाने से पूर्व राज्य सरकार ने तनिक भी गौर नहीं किया कि लिपिक भर्ती परीक्षा में शामिल हुए लाखों बेरोजगारों ने अपने माता-पिता की खूनपसीने की कमार्इ से कोचिंग सेंटर्स पर महिनों तैयारी करके परीक्षा दी, जिसमें हर एक बेराजगार को हजारों रुपये का खर्चा वहन करना पड़ा। परीक्षा के लिये आने-जाने और शैक्षणिक सामग्री में किये गये खर्चे के साथ-साथ बेरोजगारों के अमूल्य समय, श्रम और जीवन का कम से कम एक वर्ष रसातल में चला गया। यही नहीं राज्य सरकार के इस निर्णय से लिपिक भर्ती परीक्षा के परिणामों का इन्तजार कर रहे लाखों अभ्यर्थियों को गहरे सदमें में पहुँचा दिया है। जिससे अनेक प्रकार की सामाजिक, शारीरिक, मानसिक तथा आपराधिक विकृतियों के जन्मने की सदैव आशंका बनी रहती है! 

3. सचिवालय के 275 पदों पर लिपिकों की भर्ती रद्द : 7538 लिपिकों की भर्ती रद्द करने अगले ही दिन राजस्थान सरकार ने सचिवालय में 275 पदों पर होने वाली क्लर्को की भर्ती भी रद्द कर दी। इस भर्ती के लिए भी परीक्षा भी हो चुकी है।

4. विधानसभा में भी 36 पदों पर भर्ती रद्द : राजस्थान विधानसभा में भी पिछली सरकार के समय निकाली गई बाबुओं की भर्ती को भी राज्य सरकार ने रद्द कर दिया है। विधानसभा में 36 पदों पर भर्ती के लिए अक्टूबर, 2013 में जगह निकाली थी। अब यह भर्ती नये सिरे से प्रारम्भ की जाएगी।

5. पिछली सरकार द्वारा मंजूर 61 विभागों में नये सृजित पदों के भरने पर पर भी लगायी रोक : राज्य की पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार में राज्य के 61 विभागों को सृजित किये गये अतिरिक्त पदों पर पदोन्नति की प्रक्रिया पर भाजपा की राज्य सरकार ने रोक लगा दी है। इसके लिए 28 जून 2013 को अधिसूचना जारी हुई थी। सरकार ने वित्त विभाग को इसकी समीक्षा के निर्देश दिए हैं।

6. प्रदेश में 25 फीसदी बढ़ेगा टोल टैक्स : अपैल के प्रथम सप्ताह में समाचार-पत्रों में खबर पढने को मिली थी कि अप्रेल से भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के टोल बूथों पर टोल दरें बढाने का भाजपा ने विरोध कर रही है। इस बारे में भाजपा की ओर से आंदोलन करने की चेतावनी भी दी गयी थी। इससे लोगों के मन में एक नयी आस बंधी थी कि यदि राज्य में भाजपा सरकार आती है तो टोल टैक्स की मार से मुक्ति मिल सकेगी। लेकिन इसके ठीक विपरीत भाजपा की उक्त घोषणा के मात्र डेढ-दो माह बाद ही राजस्थान सरकार ने निर्णय लिया है कि प्रदेश में 25 फीसदी तक तक टोल टैक्स की दरें बढाने के लिये नयी टोल नीति लागू करने पर राज्य सरकार विचार कर रही है। निश्‍चय ही इस सबका भार राज्य की जनता पर पड़ना तय है।

इस प्रकार राजस्थान की भाजपा सरकार की ओर से राजस्थान की जनता द्वारा प्रदान किये गये प्रबल समर्थन के एवज में आघातिक और गहरे सदमें में डालने वाले तोहफे प्रदान करना शुरू कर दिया है।

सरकार के उपरोक्त निर्णयों को लेकर अनेक प्रकार की चर्चाएँ जोरों से चल निकली हैं। सबसे बड़ी चर्चा तो लिपिकों की भर्ती प्रक्रिया को लेकर है। जिसके बारे में दो बातें सामने आ रही हैं :-

प्रथम : पिछली सरकार की ओर से लिपिकों को भर्ती करने में कथित रूप से खुलकर लेनदेन हुआ था, जिसके चलते अफसरों और सम्बन्धित नेताओं ने जमकर कमाया।

द्वितीय : नयी सरकार नहीं चाहती कि पिछली सरकार द्वारा निकाली गयी रिक्तियों के पदों को उसके द्वारा बिना किसी प्रतिफल के भरा जावे। इसलिये सरकार के सूत्र बताते हैं कि सरकार कुछ समय बाद दबाव बढने पर फिर से लिपिकों की भर्ती निकाल सकती है। जिसमें फिर से वही सब होना लाजिमी है, जो कथित रूप से पिछली सरकार द्वारा किया गया था।

इस कारण जानबूझकर और भर्ती प्रक्रिया में शामिल अभ्यर्थियों के प्रति निष्ठुरता तथा हृदयहीनता दिखाते हुए राज्य सरकार ने रिक्तियों और भर्ती प्रक्रिया को रद्द कर दिया है। ऐसे में अब हमें निगाह रखनी होगी कि आगे-आगे होता है क्या?

मंगलवार, 6 मई 2014

धर्मनिरपेक्षता का क्या अर्थ है? ... आनन्द तेलतुंबड़े

आनंद तेलतुंबड़े का यह लेख न सिर्फ दलों से अलग, भारतीय राज्य के फासीवादी चरित्र को पहचानने की जरूरत पर जोर देता है बल्कि यह धर्मनिरपेक्षता की ओट में इस फासीवादी-ब्राह्मणवादी राज्य के कारोबार को चलाते रहने की सियासत को उजागर करता है. अनुवाद: रेयाज उल हक

अपने एक हालिया साक्षात्कार में मोदी द्वारा इस बात पर घुमा फिरा कर दी गई सफाई की वजह से एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता पर बहस छिड़ गई, कि क्यों उसने मुस्लिम टोपी नहीं पहनी थी.  मानो मुसलमानों के प्रति मोदी और उसकी पार्टी के रवैए में अब भी संदेह हो, फिर से पेशेवर धर्मनिरपेक्ष उस मोदी के बारे में बताने के लिए टीवी के पर्दे पर बातें बघारने आए, जिस मोदी को दुनिया पहले से जानती है. यहां तक कि बॉलीवुड भी धर्मनिरपेक्षता के लिए अपनी चिंता जाहिर करने में पीछे नहीं रहा. चुनावों की गर्मा-गर्मी में, सबसे ज्यादा वोट पाने को विजेता घोषित करने वाली हमारी चुनावी पद्धति में, व्यावहारिक रूप से इन सबका मतलब कांग्रेस के पक्ष में जाता है, क्योंकि आखिर में शायद कम्युनिस्टों और ‘भौंचक’ आम आदमी पार्टी (आप) को छोड़ कर सारे दल दो शिविरों में गोलबंद हो जाएंगे. वैसे भी चुनावों के बाद के समीकरण में इन दोनों से कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला. कम्युनिस्टों का उनकी ऐतिहासिक गलतियों की वजह से, जिसे वे सही बताए आए हैं, और आप का इसलिए कि उसने राजनीति के सड़े हुए तौर तरीके के खिलाफ जनता के गुस्से को इस लापरवाही से और इतनी हड़बड़ी में नाकाम कर दिया. अरसे से गैर-भाजपा दलों के अपराधों का बचाव करने के लिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ का एक ढाल के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. लेकिन किसी भी चीज की सीमा होती है. जब कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग की करतूतों और अयोग्यताओं ने हद पार कर दी है और इस तरह आज भाजपा को सत्ता के मुहाने पर ले आई है, तो ऐसा ही सही. यह धर्मनिरपेक्षता का सवाल नहीं है. यह स्थिति, जिसमें घूम-फिर कर दो दल ही बचते हैं, एक बड़ा सवाल पेश करती है कि क्या भारतीय जनता के पास चुनावों में सचमुच कोई विकल्प है!

क्या कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष है?

धर्मनिरपेक्षता के आम विपरीतार्थक शब्द सांप्रदायिकता से अलग, किसी को भी ठीक ठीक यह नहीं पता कि धर्मनिरपेक्षता क्या है. सांप्रदायिकता का मतलब संप्रदायों के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव करना है. औपनिवेशिक दौर से ही संप्रदायों का मतलब हिंदू और मुसलमान लगाए जाने का चलन रहा है, जबकि इन दोनों के अलावा भी इस देश में अनेक अन्य संप्रदाय हैं. चूंकि भाजपा की जड़ें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में हैं, जिसका मकसद भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाना है, तो यह एक सांप्रदायिक दल बन जाता है. हालांकि आरएसएस अपने हिंदुत्व को यह कह कर छुपाने की कोशिश करता है कि यह हिंदू धर्म पर आधारित नहीं है (वे यह कहने की हद तक भी जा सकते हैं कि हिंदू धर्म जैसी कोई चीज ही नहीं है), बस फर्क यही है कि अपनी समझ को उनके हाथों गिरवी रख चुके उनके अंधभक्त जानते हैं कि इसका केंद्रीय तत्व हिंदूवाद ही है. आरएसएस को दूसरे समुदायों को लुभाने के लिए ऐसे एक बहाने की जरूरत तब पड़ी जब बड़ी मुश्किलों से उसे यह समझ में आया कि हिंदू बहुसंख्या के रूप में जो चीज दिखती है वो असल में जातियों की अल्पसंख्या का एक जमावड़ा है. हालांकि इसने मुसलमानों समेत सभी समुदायों में अपने लिए किसी तरह समर्थन जुटा लिया है, तब भी यह अपने सांप्रदायिक पहचान से बच नहीं पाया है. तब सवाल यह है कि इसका राष्ट्रीय विकल्प कांग्रेस क्या धर्मनिरपेक्ष है. इसका मतलब है कि क्या वह सांप्रदायिक नहीं है?

अगर कोई कांग्रेस के इतिहास पर सख्ती से नजर डाले तो वह साफ नकारात्मक जवाब से बच नहीं सकता. यह कांग्रेस ही थी, जिसने भारत में औपनिवेशिक ताकतों को सांप्रदायिक राजनीति के दलदल में जाने को उकसाया और इसमें मदद की जिसका अंजाम विभाजन के रूप में सामने आया. भारत को संप्रदायों के एक जमावड़े के रूप में पेश करने की औपनिवेशिक ताकतों की सचेत रणनीति के बावजूद, सभी भारतीयों की प्रतिनिधि पार्टी के रूप में उनके हाथों में खेलने की जिम्मेदारी से कांग्रेस बच नहीं सकती. यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है कि कांग्रेस ने मुसलमानों की एक पार्टी मुस्लिम लीग के मुकाबले में खुद को हिंदू पार्टी के रूप में पेश किया. बाल गंगाधर तिलक और मुहम्मद अली जिन्ना (जो कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों के नेता थे) के बीच 1916 में हुए लखनऊ समझौते में, जिसने बाकी बातों के अलावा प्रांतीय परिषद चुनावों में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडलों की व्यवस्था कायम की. यह आगे चल कर एक ऐसी मुस्लिम राजनीति को शक्ल देने वाला था, जिसका अंजाम तीन दशकों के बाद विभाजन के रूप में सामने आना था. अगर कोई देखे तो उस त्रासदी के पीछे कांग्रेस की सांप्रदायिक बेवकूफी ही साफ दिखेगी, जिसने दसियों लाख जिंदगियों को अपनी चपेट में लिया और उपमहाद्वीप की सियासत को एक कभी न भरने वाला जख्म दिया.

1947 के बाद भी, जब शुरुआती दशकों तक कांग्रेस के सामने कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था, इसने धर्मनिरपेक्ष चेतना को फैलाने के लिए कुछ भी नहीं किया, और इसके बजाए इसने बांटो और राज करो के औपनिवेशिक तौर तरीकों को जारी रखा. जनसंघ और भाजपा जैसे हिंदुत्व दल तब तक बहुत छोटी ताकतें बने रहे, जब तक कि कांग्रेस की चालबाजियों ने उनमें जान नहीं फूंक दी. इतिहास गवाह है कि यह राजीव गांधी द्वारा 1985 में शाह बानो मामले में दी गई दखल से शुरू हुआ. राजीव ने अपनी भारी संसदीय बहुमत का इस्तेमाल मुस्लिम भावनाओं को तुष्ट करने की खातिर, सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले को पलटने में किया. इसने हिंदुत्व ताकतों को सांप्रदायिक आग भड़काने के लिए जरूरी चिन्गारी मुहैया कराई. जैसे तैसे भरपाई करने के लिए, और इस बार हिंदुओं को खुश करने के लिए, महज कुछ ही महीनों के बाद राजीव गांधी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खोलने का आदेश किया और आग को नर्क की आग में बदलने दिया, जो आगे चल कर न सिर्फ बाबरी मस्जिद को तोड़ने वाली थी, बल्कि इसके बाद सैकड़ों लोगों की जिंदगियों को भी लीलने वाली थी और भाजपा को सियासी रंगमंच पर पहुंचाने वाली थी. यहां तक कि मस्जिद को तोड़े जाने की कार्रवाई में कांग्रेस के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की जो मौन भूमिका रही, उसके भी पर्याप्त प्रमाण हैं. असल में ऐसी मिसालों की भरमार है.

धर्मनिरपेक्षता का हौवा

मौजूदा सियासी हालात में असल में कोई ऐसी पार्टी नहीं है जिसे सचमुच धर्मनिरपेक्ष कहा जा सके. हरेक दल चुनावों में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिसाब-किताब से काम लेते हैं. धर्मनिपेक्षता का मुद्दा सिर्फ इस्लाम या मुसलमानों तक ही सीमित नहीं है, इसके दायरे में संप्रदायों के सभी आधार आते हैं और इसमें निश्चित रूप से जातियों को शामिल किया जाना चाहिए, जो कि हमारे राजनेताओं का मुख्य विषय हैं. लेकिन हैरानी की बात है कि जातियां कभी भी धर्मनिरपेक्षता की बहसों में दूर दूर तक जगह नहीं पाती हैं. जैसा कि मैंने अपनी एक किताब हिंदुत्व एंड दलित्स में कहा है, सांप्रदायिकता की जड़ें जातिवाद में देखी जा सकती हैं. हिंदुत्व की ताकतों में मुसलमानों और ईसाइयों के लिए अभी जो नफरत है, वह इसलिए नहीं है कि वे एक पराई और दूसरी आस्था को मानते हैं, बल्कि बुनियादी तौर पर यह इस याद से जुड़ी हुई है कि इन संप्रदायों की व्यापक बहुसंख्या निचली जातियों से आई है. वे अब भी उनसे अस्वच्छ, असभ्य और पिछड़ों के रूप में नफरत करते हैं, जैसा कि वे दलितों से करते हैं. लेकिन ऐसी गहरी और बारीक समझ से दूर, वामपंथी उदारवादी धर्मनिरपेक्षतावादी उन सांप्रदायिक टकरावों पर गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाते हैं, जिनकी पहचान खास तौर से हिंदुओं और मुस्लिमों से जुड़ी होती है, और जातीय हिंसा की रोज रोज होने वाली घटनाओं पर अपवित्र चुप्पी साधे रहते हैं. एक अजीब से तर्क के साथ सांप्रदायिक टकरावों के प्रति चिंता को प्रगतिशील माना जाता है जबकि जातीय उत्पीड़न के लिए चिंताओं को जातिवाद माना जाता है.

धर्मनिरपेक्षता के हौवे ने एक तरफ तो भाजपा को अपना जनाधार मजबूत करने में मदद किया है, और दूसरी तरफ कांग्रेस को अपनी जनविरोधी, दलाल नीतियों को जारी रखने में. पहली संप्रग सरकार को माकपा का बाहर से समर्थन किए जाने का मामला इसे बहुत साफ साफ दिखाता है. यह बहुत साफ था कि सरकार अपने नवउदारवादी एजेंडे को छोड़ने नहीं जा रही है. लेकिन तब भी माकपा का समर्थन हासिल करने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम की एक बेमेल खिचड़ी बनाई गई. भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के मुद्दे पर, जब असहमतियां उभर कर सतह पर आईं, तो माकपा समर्थन को वापस ले सकती थी और इस तरह सरकार और समझौते दोनों को जोखिम में डाल सकती थी. लेकिन इसने बड़े भद्दे तरीके से सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के नाम पर समर्थन जारी रखा और कांग्रेस को वैकल्पिक इंतजाम करने का वक्त दिया. जब इसने वास्तव में समर्थन वापस लिया, तो न तो सरकार का कुछ नुकसान हुआ और न समझौते का. बल्कि सांप्रदायिकता का घिसा-पिटा बहाना लोगों के गले भी नहीं उतरा. अक्सर धर्मनिरपेक्षता जनता की गुजर बसर की चिंताओं पर कहीं भारी पड़ती है!

गलत सरोकार

सटीक रूप में कहा जाए तो धर्मनिरपेक्षता राज्य का विषय है न कि दलों का. असल में इसकी बुनियाद यह है कि समाज और इसके  अलग अलग अंग अपने अपने धर्मों को मानेंगे और उन पर चलेंगे. लेकिन ऐसे एक समाज का शासन धार्मिक मामलों में पूरी तरह तटस्थ रचना चाहिए, और उसे सभी नागरिकों के साथ समान रूप से व्यवहार करना चाहिए चाहे उनका धर्म कोई भी हो, और राज्य के पदाधिकारी काम के दौरान किसी भी धार्मिक रीति-रिवाज का पालन नहीं करेंगे. भाजपा को हिंदुत्व की विचारधारा का प्रचार करने या किसी भी दल को इसका विरोध किए जाने की ठीक ठीक इजाजत तभी तक दी जा सकती है जब तक वे कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं खड़ी कर देते. बल्कि राज्य की तटस्थता का मतलब ही यही है कि वह इसे यकीनी बनाए. लेकिन इसके उलट सरकारी दफ्तरों में हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरें सजी होना और राज्य के कामकाज में हिंदू रीति-रिवाजों का पालन किया जाना रोजमर्रा का दृश्य है. यह मुद्दा धर्मनिरपेक्षतावादियों की तरफ से चुनौती दिए जाने की मांग करता है, लेकिन किसी ने इसकी तरफ निगाह तक नहीं की है.

जब भी कोई इसे उठाता है, तो वो अपने को अकेला पाता है. 01 मई 2010 को, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की मौजूदगी में गुजरात के राज्यपाल द्वारा एक उच्च न्यायालय की इमारत के लिए भूमि पूजन समारोह किया जा रहा था. यह समारोह पूरी तरह हिंदू रीति-रिवाजों के मुताबिक किया जा रहा था, जिसमें एक पुजारी हवन भी करा रहा था. एक जानेमाने दलित कार्यकर्ता राजेश सोलंकी ने उच्च न्यायालय में इसके खिलाफ एक याचिका दायर की. 17 जनवरी, 2011 को जज जयंत पटेल ने याचिका को पथभ्रष्ट बताते हुए रद्द कर दिया और सोलंकी पर 20 हजार रुपए का हर्जाना थोप दिया. उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की लेकिन संसाधनों की कमी की वजह से वहां भी यह फौरन खारिज कर दिया गया. इस मुकदमे को धर्मनिरपेक्षता की कसौटी बनाया जा सकता था, क्योंकि यह ठीक ठीक राज्य के धार्मिक व्यवहार को चुनौती देता था. लेकिन एक भी धर्मनिरपेक्षतावादी, किसी मीडिया, एक भी राजनीतिक दल ने इसकी तरफ निगाह नहीं उठाई.

अगर मोदी आ गया तो

इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी अब तक आए सभी प्रधानमंत्रियों से कहीं ज्यादा अंधराष्ट्रवादी होगा. अब चूंकि इसके प्रधानमंत्री बनने की संभावना ही ज्यादा दिख रही है तो इस पर बात करने से बचने के बजाए, अब यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि बुरा क्या हो सकता है. यह साफ है कि मोदी कार्यकाल बड़े कॉरपोरेट घरानों के लिए ज्यादा फायदेमंद होगा, जिन्होंने उसको खुल्लमखुल्ला समर्थन दिया है. लेकिन क्या कांग्रेस सरकार क्या उनके लिए कम फायदेमंद रही है? यकीनन मोदी सरकार हमारी शिक्षा व्यवस्था और संस्थानों का भगवाकरण करेगी, जैसा कि पहले की राजग सरकारों के दौरान हुआ था. लेकिन तब भी यह बात अपनी जगह बरकरार है कि उसके बाद के एक दशक के कांग्रेस शासन ने न उस भगवाकरण को खत्म किया है और न कैंपसों/संस्थानों को इससे मुक्त कराया है. यह अंदेशा जताया जा रहा है कि यह जनांदोलनों और नागरिक अधिकार गतिविधियों पर फासीवादी आतंक थोप देगा. तब सवाल उठता है कि, जनांदोलनों पर थोपे गए राजकीय आतंक के मौजूदा हालात को देखते हुए-जैसे कि माओवादियों के खिलाफ युद्ध, उत्तर-पूर्व में अफ्स्पा, मजदूर वर्ग पर हमले, वीआईपी/वीवीआईपी को सुरक्षा देने की लहर-जो पहले से ही चल रहा है उसमें और जोड़ने के लिए अब क्या बचता है? लोग डर रहे हैं कि मोदी संविधान को निलंबित कर देगा, लेकिन तब वे शायद यह नहीं जानते कि जहां तक संविधान के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से भाग 4 की बात है-जिसमें राज्य के नीति निर्देशक तत्व हैं-संविधान मुख्यत: निलंबित ही रहा है.

यह सच है कि इतिहास में ज्यादातर फासिस्ट चुनावों के जरिए ही सत्ता में आए हैं लेकिन वे चुनावों के जरिए हटाए नहीं जा सके. चाहे मोदी हो या उसकी जगह कोई और, अगर वो ऐसे कदम उठाने की कोशिश करेगा तो बेवकूफ ही होगा, क्योंकि ऐसा निरंकुश शासन सबसे पहले तो नामुमकिन है और फिर भारत जैसे देश में उसकी कोई जरूरत भी नहीं है. बल्कि ये सारी बातें भीतर ही भीतर पहले से ही मौजूद है और अगर हम धर्मनिरपेक्षता का अंधा चश्मा पहने रहे तो यह सब ऐसे ही चलता रहेगा.

रविवार, 4 मई 2014

भाजपा का घोषणापत्रः फासीवादी दस्तावेज

  • अनिल यादव

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा ने जो अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी किया है, वह भारत जैसे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए घातक ही नहीं, बल्कि उसके संवैधानिक मूल्यों के भी विपरीत है। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का दंभ भरने वाली भाजपा का घोषणापत्र भारत के संविधान की धज्जियां उड़ाता नजर आता है। भाजपा द्वारा जारी किए गए घोषणा-पत्र को गंभीरता से देखें तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि विकास का झुनझुना बजाने वाले मोदी और उनके सिपहसलारों का उद्देश्य कुछ दूसरा ही है। घोषणा-पत्र के मुख्य पृष्ठ पर ही ’एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ का श्लोगन भाजपा की मानसिकता की तरफ इशारा करता नजर आता है। वस्तुतः जब भी हमारे मस्तिष्क में ’एक’ की प्रस्तुति होती है, त्यों ही हम दो के अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं। एक भारत कहने का अर्थ साफ है कि भाजपा का घोषणा-पत्र बनाने वाली समिति किसी ’दूसरे’ भारत के बारे में जानती है, अर्थात वह भारत को एक नही मानती है। भाजपा का ’एक’ भारत कैसा होगा? कहीं यह हिन्दू राष्ट्र की तरफ इशारा तो नही है? क्या भाजपा पुराने संघी अवधरणा की तरफ इशारा करती नजर नही आ रही है कि भारत के भीतर कई पाकिस्तान हैं।

मोदी ने अपने पूर्वोत्तर की एक रैली में कहा था कि जहां भी हिन्दुओं पर अत्याचार होगा, उसके लिए भारत सुरक्षित जगह होगी। वह भारत ही लौटकर आएंगे। अब 2014 के भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र ने इसे बिल्कुल साफ कर दिया है। भाजपा के घोषणा-पत्र में स्पष्ट लिखा है कि अपनी जमीन से उजाड़े गए हिन्दुओं के लिए भारत सदैव प्राकृतिक गृह रहेगा और यहां आश्रय लेने के लिए उनका स्वागत है। इससे साफ है कि भाजपा भारत को हिन्दू राष्ट्र के तौर पर ही देखती है।

एक अप्रैल 2014 को नेपाल में भाजपा के अनुषांगी संगठन विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल नें विराट नगर में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि यदि मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनते हैं तो नेपाल को एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में स्थापित कर दिया जाएगा। एक तरफ भारतीय संविधान जहां किसी भी देश के खिलाफ षडयंत्र न रचने और मैत्रीपूर्ण संबंधों की वकालत करता है, वहीं दूसरी तरफ सत्ता का ख्वाब सजा रही भाजपा और उससे जुड़े हुए नेताओं का विचार बेहद घातक है, जो सिर्फ भारत के लोकतंत्र के लिए ही नहीं बल्कि बल्कि पड़ोसी मुल्को के लोकतंत्र के लिए भी घातक है।

ऐतिहासिक तथ्य है कि शुरू से ही भाजपा और संघ परिवार के लिए नेपाल बहुत ही महत्वपूर्ण राष्ट्र रहा है। सावरकर जैसे हिन्दूवादी दार्शनिक ने तो यहां तक घोषणा की थी कि भारत आजाद होगा तो उसे नेपाल में विलय कर दिया जाएगा। नेपाल नरेश को सावरकर ने विश्व हिन्दू सम्राट की उपाधि भी प्रदान की थी। जब नेपाल के लोग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्षरत थे तो 2006 में गोरखपुर में आयोजित हिन्दू महा सम्मेलन में ’राजनीति का हिन्दुत्व करण और हिन्दुओं का सैन्यकरण’ का नारा बुलंद किया गया था। इसी क्रम में 23 से 25 अप्रैल 2008 में देवीपाटन मंदिर बलरामपुर में विश्व हिंदू महासंघ की कार्यकारिणी की बैठक में साफ कहा गया था कि नेपाल में हिन्दू राष्ट्र की बहाली होकर रहेगी, चाहे हमें हिंसा का सहारा ही क्यों न लेना पड़े। परन्तु, हिन्दुत्ववादियों को इसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई।

भाजपा के 2009 के घोषणा-पत्र को देखा जाए तो इसमें साफ लिखा है कि यदि वो सत्ता में आएं तो नेपाल के प्रति नीति की समीक्षा करेंगे। आखिर यह इशारा क्या था? भाजपा का दुर्भाग्य था और नेपाली लोकतंत्र का सौभाग्य कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार पीएम इन वेटिंग ही रह गए। यदि हम भाजपा के 2014 के घोषणा-पत्र के प्रस्तावना को ध्यान से देखें तो साफ जाहिर हो जाता है कि भाजपा हिन्दुत्व और विदेश नीति को लेकर क्या सोचती है। भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में उल्लेख किया है कि कोई भी राष्ट्र अपने आप को, अपने इतिहास को, अपनी जड़ों को, अपनी शक्तियों और सफलता को ध्यान में रखे बिना अपने विदेश नीति को तय नहीं कर सकता है। वस्तुतः भाजपा अपने घिसे पिटे तर्कों के आधार पर भारत को प्राचीन में एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में देखती है। वह अपनी जड़ों को नेपाल की हिन्दू राजशाही से भी जोड़कर देखना चाहती है।

नेपाल से जुड़े पूर्वाचल में हिन्दुत्व के पैरोकार योगी आदित्यनाथ ने तो भारत के हिन्दू राष्ट्र होने का खाका भी तैयार कर लिया है। योगी आदित्यनाथ के लोग पूर्वांचल में खुले मंचों से मुसलमानों से उनके वोट देने के वैधानिक अधिकार को छीनने की बात करते नजर आते है। आदित्यनाथ के लोग न सिर्फ भारत के आंतरिक संप्रभुता के विरुद्ध हैं, बल्कि नेपाल जैसे संप्रभु राष्ट्र की संप्रभुता के लिए भी घातक हैं। ज्ञातव्य हो कि मालेगांव बम विस्फोट के बाद एटीएस चार्जशीट में गोडसे की बेटी और सावरकर की बहू हिमानी सावरकर नें स्वीकार किया है कि भारत में सैन्य विद्रोह के लिए नेपाल से मदद ली जाएगी और ’बाहर’ से ही भारत की सरकार को चलाया जाएगा। इसके साथ ही साथ नेपाल में भी कई आतंकवादी घटनाओं में योगी आदित्यनाथ का नाम भी आया है।

भारत पर अध्ययन के लिए अपना पूरा जीवन लगा देने वाले पाॅल ब्राश नामक विद्वान ने ’द पाॅलिटिक्स आॅफ इंडिया सिंस इन्डिपेंन्डेन्स’ में लिखा है कि हमें यह समझ लेना चाहिए कि भारतीय समाज और राजनीति बहुत सारे उन पूर्व- फासिस्ट समय के हिंसक लक्षणों को प्रदशित कर रही है, जिन्होंने अनगिनत शहरों में स्थानीय रूप से अपने ’क्रिस्टलनाख्त’ (हिटलर के समय नाजी ठिकाने, जो यहूदियों पर हमला करने के लिए बनाए गए थे) बना लिए हैं। भाजपा ने ऐसे असंवैधानिक मुद्दों को अपने घोषणा-पत्र में शामिल करके सत्ता में आना चाहती है। ताकि जब वह सत्ता में आए तो उसके पास यह तर्क हो कि भारत की जनता ने उसके घोषणा-पत्र को स्वीकार किया है।