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शनिवार, 31 मई 2014

कोड़ा जमाल साई

शिवराम मूलतः ब्रजभाषी थे, हिन्दी पर उन की पकड़ बहुत अच्छी थी। जनता के बीच काम करने की ललक ने उन्हें नाटकों की ओर धकेला और संभवतः हिन्दी के पहले नुक्कड़ नाटककार हुए। एक संपूर्ण नाटककार जो नाटक लिखता ही नहीं था बल्कि उन्हें खेलने के लिए लिखता था। फिर उसे जमीन पर दर्शकों के बीच लाने के लिए अभिनेता जुटाता था। उन के नाटकों में लोकरंग का जिस खूबसूरती से प्रयोग देखने को मिलता है वह अद्वितीय है। लोकरंग उन के लिए वह दरवाजा है जिस से वे गाँव गोठ के दर्शकों के दिलों में घुस जाते हैं। हाड़ौती अंचल उन की कर्मभूमि बना। तब उन्हों ने जरूरी समझा कि वे हाडौती में भी लिखें। कोड़ा जमाल साई संभवतः उन की पहली हाड़ौती रचना है। एक खेल गीत की पंक्ति को पकड़ कर उन्होंने एक पैने और शानदार गीत की रचना की। आप भी उस की धार देखिए ...

कोड़ा जमाल साई ..... 
  • शिवराम

कोड़ा जमाल साई
पाछी देखी मार खाई
आँख्याँ पै पाटी बांध
चालतो ई चाल भाई
घाणी का बैल ज्यूँ
घूम चारूँ मेर भाई

नपजाओ अन्न खूब, गोडा फोड़ो रोज खूब
लोई को पसीनो बणा, माटी मँ रम जाओ खूब
जद भी रहै भूको, तो मूंडा सूँ न बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

बेमारी की काँईं फकर, मरबा को काँईं गम
गाँव मँ सफाखानो, न होवे तो काँईं गम
द्वायाँ बेकार छै, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

तन का न लत्ता देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली थाँकी, टेलीविजनाँ पै देख
कर्तव्याँ मँ सार छै, अधिकाराँ न मांग भाई
कोड़ा जमाल साई ...

आजादी भरपूर छै, जीमरिया सारा लोग
व्यंजन छत्तीस छै, हाजर छै छप्पन भोग
थारै घर न्यूतो कोई नैं, म्हारो काँई खोट भाई
कोड़ा जमाल साई ...

वै महलाँ मँ रहै, या बात मत बोल
वै काँई-काँई करै, या पोलाँ न खोल
छानो रै, छानो रै, याँ का राज मँ बोल छे अमोल भाई
कोड़ा जमाल साई ...


कुछ मित्रों का आग्रह है कि इसे हिन्दी में भी प्रस्तुत किया जाए ...

कोड़ा जमालशाही ... 
  • शिवराम

कोड़ा जमालशाही
पीछे देखा मार खाई
आँखों पे पट्टी बांध
चलता ही चल भाई
घाणी के बैल जैसा
घूम चारों ओर भाई


उपजाओ अन्न खूब, घुटने तोड़ो रोज खूब
लोहू का पसीना कर, माटी मेँ रम जाओ खूब
जब भी रहे भूखा, तो मुंह से न बोल भाई
कोड़ा जमालशाही ....

बीमारी की क्या फिक्र, मरने का क्या गम
गाँव मेँ अस्पताल ना हो तो क्या गम
दवाइयाँ बेकार हैं, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

तन का न कपड़े देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली तेरी, टेलीविजन पै देख
कर्तव्योँ मेँ सार है, अधिकार न मांग भाई
कोड़ा जमालशाही...

आजादी भरपूर है, जीम रहे सारे लोग
व्यंजन छत्तीस हैं, हाजिर है छप्पन भोग
तेरे घर न्योता नहीं, मेरा क्या खोट भाई
कोड़ा जमालशाही ...

वे महलोँ में रहें, ये बात मत बोल
वे क्या क्या करें, ये पोल मत खोल
चुप रह, चुप रह, इनके राज में बोल है अमोल भाई
कोड़ा जमालशाही...
अनुवाद-दिनेशराय द्विवेदी




 

सोमवार, 24 जून 2013

बहुत भद्द होती है जी देश की


                                       -शिवराम

कैसा चुगद लगता है वह
जब चरित्र की बातें करता है
देशभक्ति का उपदेश देते वक्त तो
एकदम हास्यास्पद हो जाता है
जब धर्म पर बोलता है
तो हँसने लगते हैं लोग

नेताओं को और कुछ आए न आए
अभिनय अवश्य आना चाहिए

पुराने नेता कितने अनुभवी होते थे
कुछ भी बोलते थे
ऐसा लगता था कि
बिलकुल सच बोल रहे हैं
एकदम सत्यमेव जयते

लेकिन आजकल
अनाड़ी और नौसिखिया लोग चले आ रहे हैं
तुरन्त पकड़े जाते हैं
मामला बोलने-चालने का हो
या लेन-देन का

मेरी इच्छा होती है कि
इन से नाटक कराऊँ
रिहर्सल में कुछ तो सीखेंगे

वैसे, सरकारों को चाहिए कि
गौशालाओं की तर्ज पर हर जिले में
रंगशालाएँ खोलें

प्रशिक्षण शिविर लगाएँ
राजनीति में प्रवेश के लिए
अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए
कम से कम थ्री इयर्स डिप्लोमा
इन ऐक्टिंग एण्ड गिविंग एण्ड टेकिंग


बहुत भद्द होती है जी देश की
संसद की और हमारी-आप की।

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

जन संस्कृति के सर्जक शिवराम के दूसरे स्मृति दिवस के कार्यक्रमों में आप सादर आमन्त्रित हैं ...

मुझे पहली ही मुलाकात में उन्होने प्रभावित किया था, बल्कि कहिए कि मैं भौंचक्का रह गया था। मैं छात्र ही था। एक नया साहित्यिक मंच बनाया था, लेकिन वह गति नहीं पकड़ रहा था। उन्होंने मुझे एक पर्चा पकड़ाया जिस में तीन दिनों का लंबा कार्यक्रम था। कुछ गोष्ठियाँ थीं, नाटक थे और कविसम्मेलन था। देश भर से स्थापित लोग आ रहे थे। पर्चा देने वाला छह माह पहले ही नगर के टेलीफोन एक्सचेंज में आरएसए के पद पर स्थानांतरित हो कर आया था। छह माह पहले नगर में आया हुआ व्यक्ति ऐसा आयोजन कैसे करवा सकता है? यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था। मैं भी कार्यक्रम के साथ हो गया। एक नाटक में अभिनय भी किया। कार्यक्रम सफल हुआ और अंतिम कार्यक्रम के समापन के बाद आधी रात को देश में आपातकाल लग गया। कार्यक्रमों मे तत्कालीन सरकार की बहुत आलोचना हुई थी। अतिथि गिरफ्तार न कर लिए जाएँ इसलिए रातों रात उन्हें नगर से रवाना किया गया। लेकिन कार्यक्रम के आयोजक को कतई फिक्र न थी। खैर!

नाटक प्रस्तुत करने के पहले दर्शकों से संवाद करते शिवराम
गे उन के साथ बहुत जमी। वे पथ प्रदर्शक नेता भी बने और जीवन पर्यन्त एक सच्चे साथी भी बने रहे। उन में बहुत खूबियाँ थीं। वे नाटककार, कवि, आलोचक, संपादक, ओजस्वी वक्ता, अच्छे संगठक, अच्छे नेता भी थे। उन का नाटक "जनता पागल हो गई है" बहुत पहले ही अतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुका था। वे जीवन के आखिरी क्षण तक काम करते रहे। उन की ऊर्जा की प्रेरणा मार्क्सवाद-लेनिनवाद था और श्रमजीवी वर्ग की शक्ति और नेतृत्व में उन का विश्वास उस का स्रोत था।

शिवराम ऐसे ही साथी थे। दो बरस पहले हम से बिछड़़ने के समय वे हमारी पार्टी एमसीपीआई (यू) के पोलिट ब्यूरो के महत्वपूर्ण सदस्य थे, अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक-सामाजिक मोर्चा के महामंत्री थे। पर किसी कारखाने के गेट पर मजदूरों की मीटिंग करने के बाद उस के लिए प्रेसविज्ञप्ति लिखने और उसे अखबार के दफ्तर तक पहुँचाने के काम को करने तक में उन्हें कोई झिझक नहीं थी।

न की दूसरे स्मृति दिवस पर हम 30 सितंबर और 1 अक्टूबर को दो दिवसीय अखिल भारतीय कार्यक्रम कर रहे हैं। आप सब भी उस में सादर आमंत्रित हैं। निमंत्रण पत्र यहाँ है ...

रविवार, 2 अक्टूबर 2011

जन-गण के पक्ष में रचनाकर्म करने के साथ उन तक पहुँचाना भी होगा


किसी ने कहा शिवराम बेहतरीन नाटककार थे हिन्दी नुक्कड़नाटकों के जन्मदाता, कोई कह रहा था वे एक अच्छे जन कवि थे, किसी ने बताया शिवराम एक अच्छे आलोचक थे, कोई कह रहा था वे प्रखर वक्ता थे, किसी ने कहा वे अच्छे संगठनकर्ता थे और हर जनान्दोलन में वे आगे रहते थे, एक लड़की कह रही थी, बच्चों को वे मित्र लगते थे। टेलीकॉम वाले बता रहे थे वे जबर ट्रेडयूनियनिस्ट थे, दूसरे ने बताया वे श्रेष्ठ अभिनेता और नाट्यनिर्देशक थे। भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के जिला सचिव बता रहे थे वे पार्टी के पॉलिट ब्यूरो के सदस्य थे, उन के देहान्त का समाचार मिलते ही एक और पॉलिट ब्यूरो सदस्य उन की अंत्येष्टी में कोटा पहुँचे थे और जब सब लोग कह रहे थे कि कोटा और राजस्थान के जनान्दोलन की बहुत बड़ी क्षति है तो वे कहने लगे कि वे कोटा की नहीं देश भर के श्रमजीवी जन-गण की क्षति हैं। पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व उन से देशव्यापी नेतृत्वकारी भूमिका की अपेक्षा रखता था। इतने सारे तथ्य शिवराम के बारे में सामने आ रहे थे कि हर कोई चकित था। शायद कोई भी संपूर्ण शिवराम से परिचित ही नहीं था। हर कोई उन का वह दिखा रहा था जो उस ने देखा, अनुभव किया था। इन सब तथ्यों को सुनने के बाद लग रहा था कि संपूर्ण शिवराम को पुनर्सृजित कर उन्हें पहचानने में अभी हमें वर्षों लगेंगे। फिर भी बहुत से तथ्य ऐसे छूट ही जाएंगे जो शायद उन के पुनर्सर्जकों के पास नहीं पहुँच सकें। जब वे 'संपूर्ण शिवराम' का संपादन कर के उसे प्रेस में दे चुके होंगे तब, जब उस के प्रूफ देखे जा रहे होंगे तब और जब वह प्रकाशित हो कर उस का विमोचन हो रहा होगा तब भी कुछ लोग ऐसे आ ही जाएंगे जो फिर से कहेंगे, नहीं इस शिवराम को वे नहीं जानते, हम जिस शिवराम को जानते हैं वह तो कुछ और ही था। 

शिवराम को हमारे बीच से गए एक वर्ष हो चुका है। यहाँ कोटा में उन के पहले वार्षिक स्मरण के अवसर पर 1 अक्टूबर 2011 को भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड), राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र और अखिल भारतीय जनवादी युवा मोर्चा ने दोपहर एक बजे श्रद्धांजलि सभा तीन बजे 'अभिव्यक्ति नाट्य और कला मंच' के कलाकारों ने सभास्थल के बाहर सड़क पर उन के सुप्रसिद्ध नाटक "जनता पागल हो गई है" का नुक्कड़-मंचन किया। इस के बाद दूसरे सत्र में एक गोष्ठी का आयोजन किया।  प्रेस-क्लब सभागार में हुई श्रद्धांजलि सभा दिल्ली से आए मुख्य-अतिथि शैलेन्द्र चौहान द्वारा मशाल-प्रज्ज्वलन के साथ आरंभ हुई। इस सभा में हाड़ौती अंचल के विभिन्न श्रमिक कर्मचारी संगठनों एवं सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों के साथ शिवराम की माताजी और पत्नी श्रीमती सोमवती द्वारा उनके के चित्र पर माल्यार्पण कर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। सभा में उन के पुत्र रवि कुमार, शशि कुमार और डॉ. पवन अपनी भूमिकाओं के साथ उपस्थित थे। 

शैलेन्द्र चौहान ने अपने उद्बोधन में कहा कि हमें शिवराम की स्तुति करने के बजाय उनके विचारों, कार्य-पद्धति और श्रमजीवी जन-गण के प्रति समर्पण से प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होने कहा कि पुरानी जड़ परम्परा और नैतिकता के स्थान पर श्रमिकों, किसानों के जीवन के यथार्थ से जुड़ी सच्चाइयों का अध्ययन करते हुए क्रांतिकारी नैतिकता को आत्मसात करना चाहिए। क्रांतिकारी नैतिकता के बिना जन-गण के किसी भी संघर्ष को आगे बढ़ा सकना संभव नहीं है।  सफल प्रथम-सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साम्यवादी विजय शंकर झा ने कहा कि वर्तमान व्यवस्था अपने पतन के कगार पर है, व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन से ही देश की शोषित, पीड़ित जनता के जीवन में खुशहाली संभव है। शिवराम इस परिवर्तन के लिए समर्पित थे। श्रद्धांजलि-सत्र के पश्चात् शिवराम के प्रसिद्ध नाटक जनता पागल हो गई हैकी नुक्कड़ नाटक प्रस्तुति को सैंकड़ों दर्शकों ने देखा और सराहा। नाटक में रोहित पुरूषोत्तम (सरकार), आशीष मोदी (जनता), अजहर (पागल), पवन कुमार (पुलिस अधिकारी) और कपिल सिद्धार्थ (पूंजीपति) की भूमिकाओं को बेहतरीन रीति से अदा किया। लगा जैसे इसे शिवराम ने ही निर्देशित किया हो।  

साँयकालीन सत्र में साथी शिवराम के संकल्पों का भारतविषय पर मुख्य वक्ता साहित्यकार महेन्द्र नेह ने कहा कि वर्तमान दौर में  अमेरिका सहित पूरी पूंजीवादी दुनिया गहरे आर्थिक संकट में फँस गई है। हमारे देश के शासक घोटालों और भ्रष्टाचार में लिप्त होकर जन-विरोधी रास्ते पर चल पड़े हैं। आने वाले दिनों में समूची दुनिया में जन-आन्दोलन बढ़ेंगे तथा भ्रष्ट-सत्ताएं ताश के पत्तों की तरह बिखरेंगी। सत्र के अध्यक्ष आर.पी. तिवारी ने कहा कि मेहनतकश जनता का जीवन निर्वाह शासकों ने मुश्किल बना दिया है, लेकिन बिना क्रान्तिकारी विचार और संगठन के परिवर्तन संभव नहीं। दोनों सत्रों में त्रिलोक सिंह, प्यारेलाल, टी.जी. विजय कुमार, शब्बीर अहमद, विजय सिंह पालीवाल, जाकिर भाई, विवेक चतुर्वेदी, पुरूषोत्तम यकीन’, तारकेश्वर तिवारी और राजेन्द्र कुमार ने अपने विचार व्यक्त किए। संचालन महेन्द्र पाण्डेय ने किया। दोनों सत्रों के दौरान प्रसिद्ध नाट्य अभिनेत्री ऋचा शर्मा ने शिवराम की कविताओं का पाठ किया, शायर शकूर अनवर एवं रवि कुमार ने शायरी एवं कविता पोस्टर प्रदर्शनी के माध्यम से अपनी बातें कही।

2 अक्टूबर को कोटा के प्रेस क्लब सभागार में ही विकल्प’ अखिल भारतीय सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा' द्वारा जन-संस्कृति के युगान्तरकारी सर्जक साथी शिवरामएवं अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों-कलाकारों की भूमिकाविषयों पर परिचर्चाओं का आयोजन किया। कार्यक्रम का आगाज हाडौती अंचल के वरिष्ठ गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा, मदन मदिर, महेन्द्र नेह सहित मंचस्थ लेखकों ने मशाल प्रज्ज्वलित करके किया। कार्यक्रम के प्रारम्भ में ओम नागर और सी.एल. सांखला ने शिवराम के प्रति अपनी सार्थक कविताएँ प्रस्तुत की तथा ऋचा शर्मा ने शिवराम की कुछ प्रतिनिधि कविताओं का पाठ किया।

प्रथम गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार रघुराज सिंह हाड़ा ने बताया कि शिवराम का लेखन ठहराव से बदलाव की ओर ले जाने का लेखन है। उन्हों ने साहित्य के बन्धे-बन्धाए रास्तों को तोड़ कर आम जन के पक्ष में युगान्तरकारी भूमिका निभाई। मुख्य वक्ता मदन मदिर ने अपने ओजस्वी उद्बोधन में कहा कि सत्ता और मीडिया ने जनता के पक्ष की भाषा और शब्दों का अवमूल्यन कर दिया है। शिवराम ने अपने नाटकों और साहित्य में जन भाषा का प्रयोग करके अभिजनवादी संस्कृति को चुनौती दी। वे सच्चे अर्थों में कालजयी रचनाकार थे। कथाकार लता शर्मा ने कहा कि शिवराम ने अपनी कला का विकास उस धूल-मिट्टी  और जमीन पर किया जिसे श्रमिक और किसान अपने पसीने से सींचते हैं। उनका लेखन उनकी दुरूह यात्रा का दस्तावेज है। डॉ. फारूक बख्शी ने फैज अहमद फैज की गज़लों के माध्यम से शिवराम के लेखन की ऊँचाई को व्यक्त किया। डॉ. रामकृष्ण आर्य ने शिवराम को एक निर्भीक एवं मानवतावादी रचनाकार बताया। टी.जी. विजय कुमार ने उन्हे संघर्षशील एवं विवेकवान लेखक की संज्ञा दी। प्रथम सत्र का संचालन महेन्द्र नेह ने किया।

दूसरे सत्र में अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों-कलाकारों की भूमिकाविषय पर आयोजित परिचर्चा का आरंभ संचालक शकूर अनवर ने गालिब की शायरी के माध्यम से अपने समय की यथार्थ अक्कासी और आजादी के पक्ष में शिवराम की भूमिका को खोल कर किया। सत्र की अध्यक्षता करते हुए दिनेशराय द्विवेदी ने कहा कि शिवराम की भूमिका स्पष्ट थी, उन के संपूर्ण कर्म का लक्ष्य जन-गण की हर प्रकार के शोषण की मुक्ति था। उन्हों ने अपने नाट्यकर्म, लेखन, संगठन और शोषित पीड़ित जन के हर संघर्ष में उपस्थिति से सिद्ध किया कि साहित्य युग परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभा सकता है। लेखकों और कलाकारों को जन-गण के पक्ष में रचनाकर्म करना ही नहीं है, प्रेमचंद की तरह उसे जनता तक पहुँचाने की भूमिका भी खुद ही निबाहनी होगी। मुख्य वक्ता श्रीमती डॉ. उषा झा ने अपने लिखित पर्चे में साहित्य की युग परिवर्तनकारी भूमिका को कबीर, निराला, मुक्तिबोध आदि कवियों के उद्धरणों से सिद्ध किया।  अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि बाजारवाद ने हमारे साहित्य एवं जन-संस्कृति को सबसे अधिक हानि पहुँचाई है। नारायण शर्मा ने कहा कि जब प्रकृति क्षण-क्षण बदलती है तो समाज को क्योंकर नही बदला जा सकता ? रंगकर्मी संदीप राय ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि नाटक जनता के पक्ष में सर्वाधिक उपयोगी माध्यम है। प्रो. हितेश व्यास ने कहा कि शिवराम ने विचलित कर देने वाले नाटक लिखे और प्रतिपक्ष की उल्लेखनीय भूमिका निभाई। अरविन्द सोरल ने कहा कि समय की निहाई पर शिवराम के लेखन का उचित मूल्यांकन होगा।

प्रसिद्ध चित्रकार व कवि रवि कुमार द्वारा शिवराम की कविताओं की पोस्टर-प्रदर्शनी को नगर के प्रबुद्ध श्रोताओं, लेखकों, कलाकारों ओर आमजन ने सराहा। विकल्पकी ओर से अखिलेश अंजुम ने सभी उपस्थित जनों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।     
जनता पागल हो गई है' नाटक की एक प्रस्तुति

शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

साथी शिवराम की स्मृति में ....

ज फिर एक अक्टूबर का दिन है, मेरे लिए और श्रमजीवी वर्ग के बहुत से साथियों के लिए एक काला दिन। पिछले वर्ष इसी दिन ने प्रिय साथी, मार्गदर्शक, नाट्यकार, कवि, आलोचक, सिद्धान्तकार, संगठन कर्ता और नेता शिवराम को असमय छीन लिया। अगले दिन दो अक्टूबर को हमने उन्हें अंतिम विदाई दी। वे एक डिप्लोमा इंजिनियर थे, उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी/अधिकारी के रूप में नौकरी करते हुए उन्होंने अपना सामान्य जीवन जिया, पूरी उम्र में सेवा निवृत्त हुए। तीन पुत्रों और एक पुत्री का विवाह किया और सभी कुशल मंगल से हैं। सामान्य नागरिक इसी तरह जीते हुए उम्र के ढलान पर आराम से जीवन व्यतीत कर सकता है। लेकिन अपनी नौकरी और सामाजिक जीवन के सभी दायित्वों को पूरा करते हुए उन्होंने जो कुछ किया वह मुझे तो अद्वितीय लगता है।  

न्हें यह समाज व्यवस्था अमानवीय लगती थी और उसे बदलना चाहते थे। प्रारंभ में वे विवेकानन्द से प्रभावित थे और समाज सेवा के कामों को हाथ में लेते थे। लेकिन उस काम से कुछ व्यक्तियों के जीवन में कुछ परिवर्तित करने का सुख तो मिलता था लेकिन अमानवीय समाज व्यवस्था को परिवर्तित करने का मार्ग वहाँ नहीं दीख पड़ता था। नौकरी के आरंभिक प्रशिक्षण के दौरान ही अपने एक साम्यवादी विचार रखने वाले सहकर्मी से बहस में उलझे और उसे कहा कि तुम्हारा यह मार्क्सवाद खोखला है। साथी ने जब कहा कि तुमने उसे जाने बिना ही खारिज कर दिया? तो वे उसे जानने के प्रयत्न में जुट गए। जब जाना तो फिर उसी साथी से फिर बहस में उलझ गए। अब वे उसे बता रहे थे कि मार्क्सवाद सही है लेकिन तुम उसे जैसे समझ रहे हो वह गलत है।

शिवराम ने जान लिया था कि समाज कैसे बदलता है? उस की दिशा क्या है? वे उस बदलाव की गति को तीव्र करना चाहते थे। परिवर्तन की शक्तियों को मजबूत बनाने में अपना योगदान करना चाहते थे। वे चाहते थे कि ऐसा परिवर्तन जिस से मनुष्य को मुक्ति प्राप्त हो शीघ्र हो। उन्हों ने देखा कि लोगों में जबर्दस्त सांस्कृतिक भूख है तो लोगों तक अपने विचारों को पहुँचाने के लिए उन्हों ने नाटकों का सहारा लिया। जीवन से तथ्य और कहानियाँ उठायीं नाटक रचे और सामान्य लोगों को साथ ले नाट्य प्रस्तुतियाँ करने लगे। कुछ ही प्रस्तुतियों ने अपना असर दिखाया। शोषण से त्रस्त खनिक उन से आ कर मिले पूछने लगे अन्याय से लड़ने के लिए एकता बनाने में मदद करो। जिस ने मार्ग दिखाया हो वह साथ चलने से मना कैसे कर सकता था? लेकिन यह उस के बस का था नहीं। उस ने अपने ही क्षेत्र में श्रमजीवियों के संगठन का काम करने वालों को तलाशा और उन्हें दिशा दी। खनिको के संघर्षशील संगठन ने आकार लिया। खान मालिक तुरंत ही जान गये कि यह नाटकों का असर है। शिकायत हुई और स्थानान्तरण झेलना पड़ा। 

फूल जहाँ भी जाता है अपनी गंध बिखेरता जाता है। वे नये स्थान पर पहुँचे तो वहाँ भी कुछ ही दिनों में एक नाटक मंडली खड़ी की। उन के नाटकों के अभिनेता श्रमजीवी वर्ग से आते थे। हम यह भी कह सकते हैं कि वे श्रमजीवी वर्ग से लोगों को चुनते थे और उन्हें अभिनेता बना देते थे। यहीं उन से मेरी भेंट हुई। उन्हों ने मुझे तीन दिनों के एक कार्यक्रम की सूचना दी। बहुत बड़ा कार्यक्रम था। देश भर के अनेक उल्लेखनीय साहित्यकार उस में भाग लेने वाले थे। नाटक और कवि सम्मेलन भी होने थे। मैं दंग था कि मेरे गृह नगर में ऐसा कार्यक्रम हम पूरी ताकत लगा कर भी नहीं कर सकते थे उन्हें छह माह पहले नगर में स्थानांतरित हो कर आया एक डिप्लोमा इंजिनियर अपने दम पर कैसे आयोजित कर रहा है? उन्हों ने मुझे नाटकों की रिहर्सल में बुलाया। कौतुहल का मारा मैं पहुँचा तो एक भूमिका मेरे मत्थे भी मढ़ दी गई। कार्यक्रम बहुत सफल रहा। दो दिन जो वैचारिक गोष्ठियाँ हुईं। उन से बहुत कुछ सीखने को मिला और बहुत से नए प्रश्न खड़े हो गए। कार्यक्रम ने व्यवस्था और तत्कालीन सरकारी निजाम पर बहुत सवाल खड़े किए थे। अंतिम दिन रात्रि को ग्यारह बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ। अगली सुबह जब मैं उठा तो पता लगा देश में आपातकाल लागू हो चुका है। विपक्षी दलों के नेताओं की बड़ी संख्या में गिरफ्तारियाँ हुई हैं, बहुत से सांस्कृतिक कर्मी भी गिरफ्तार हुए हैं। मुझे चिंता लगी कि इन कार्यक्रमों में सम्मिलित आमंत्रित लोगों में से कुछ तो अवश्य जेल पहुँच गए होंगे। पता किया तो जाना कि सब सुरक्षित नगर से निकल गए हैं। नगर के कुछ विपक्षी नेता अवश्य गिरफ्तार किए गए थे। लेकिन उस कार्यक्रम से संबंधित सभी लोग सुरक्षित थे। 

पातकाल में भी शिवराम के नाटक नहीं रुके। वे गाँव-गाँव चौपालों पर नाटक, कविसम्मेलन और गोष्ठियाँ करते रहे। श्रमजीवी वर्ग की एकता और संघर्ष की चेतना की मशाल जलती रही और नयी मशालों को चेताती रही। पाँच वर्ष बाद फिर स्थानान्तरण हुआ। अब वे कोटा जिला मुख्यालय पर थे और मजदूरों, किसानों, विद्यार्थियों, नौजवानों और सांस्कृतिक कर्मियों के संपर्क में थे। सभी क्षेत्रों में उन्हों ने संगठन की चेतना की मशाल जलाई और जलाए ऱखी। जहाँ वे गए वहाँ काम किया और सभी के प्रिय रहे। उन्हें हर श्रमजीवी से अगाध प्रेम था, उन में से जो भी उन के संपर्क में आया उन से प्रेम करने लगा। वे प्रेम की प्रतिमूर्ति थे। उन के काम का विस्तार हुआ, इतना कि देश भर के लोग उन से आशाएँ रखने लगे। सार्वजनिक क्षेत्र से सेवानिवृत्त हुए तो बहुत काम करने का संकल्प था। वे तुरंत जुट गए। वे अपने समय के एक-एक क्षण का उपयोग करते थे। लेकिन जीवन ने असमय धोखा दिया। वह रूठ गया। वे चले गए, लेकिन जो भी उन के संपर्क में एक बार भी आया उस के अंदर वे सदैव जीवित रहेंगे। 

शिवराम के बारे में लिखना बहुत कठिन है, मैं लिखता ही रहूँ तो वह लेखन कभी विराम नहीं ले सकेगा। हम एक और दो अक्टूबर के इन दो काले दिनों को उन की स्मृतियों और प्रेरणा से उजला बनाना चाहते हैं। इस के लिए इस वर्ष उन की बरसी पर कोटा में दो दिनों का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। 1 अक्टूबर 2011 को भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड), राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र और अखिल भारतीय जनवादी युवा मोर्चा की ओर से दो सत्रों का कार्यक्रम है। पहले सत्र में 'सर्वहारा वर्ग के निराले साथी शिवराम' विषय से एक श्रद्धांजलि सभा दोपहर एक बजे होगी। तीन बजे उन का सुप्रसिद्ध नाटक "जनता पागल हो गई है" का मंचन 'अभिव्यक्ति नाट्य और कला मंच' के कलाकार प्रस्तुत करेंगे। दूसरे सत्र में 'साथी शिवराम के संकल्पों का भारत' विषय पर संगोष्ठी होगी। 2 अक्टूबर को 'विकल्प' जनसांस्कृतिक मंच, श्रमजीवी विचार मंच और अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच द्वारा दो गोष्ठियाँ आयोजित कर रहे हैं। पहली गोष्ठी का विषय "जन-संस्कृति के युगान्तरकारी सर्जक : साथी शिवराम" तथा दूसरी गोष्ठी का विषय "अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों कलाकारों की भूमिका" है। दोनों दिनों के कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में श्रमजीवी, लेखक और कलाकार भाग लेंगे।

'जनता पागल हो गई है' नाटक की एक चौराहे पर प्रस्तुति

शनिवार, 9 जुलाई 2011

दौड़

ज जिस क्षेत्र में भी जाएँ हमें दौड़ का सामना करना पड़ता है। घर से सड़क पर निकलते ही देख लें। यातायात में हर कोई आगे निकल लेना चाहता है, चाहे उसे नियम तोड़ने ही क्यों न पड़ें। यही बात हर क्षेत्र में है। शिक्षा क्षेत्र में छात्र दौड़ रहे हैं तो कैरियर के लिए हर कोई दौड़ रहा है।  दौडें तनाव पैदा करती हैं और दौड़ में ही जीवन समाप्त हो जाता है। आस पास देखने और जीने का अवसर ही प्राप्त नहीं होता। इसी दौड़ को अभिव्यक्त किया है 'शिवराम' ने अपनी इस कविता में ... 

'कविता'

दौड़

  • शिवराम
दौड़ से बाहर हो कर ही 
सोचा जा सकता है
दौड़ के अलावा भी और कुछ

जब तक दौड़ में हो
दौड़ ही ध्येय
दौड़ ही चिंता
दौड़ ही मृत्यु

होने को प्रेम भी है यहाँ कविता भी
और उन का सौंदर्य भी
मगर बोध कम भोग ज्यादा
दौड़ में दौड़ती रसिकता
सब दौड़ से दौड़ तक
सब कुछ दौड़मयी 
दौड़ मे दौड़ ही होते हैं 
दौड़ के पड़ाव

दौड़ में रहते हुए 
कुछ और नहीं सोचा जा सकता
दौड़ के अलावा
यहाँ तक कि 
दौड़ के बारे में भी






बुधवार, 15 जून 2011

शिवराम की कविता ... जब 'मैं' मरता है

शिवराम केवल सखा न थे। वे मेरे जैसे बहुत से लोगों के पथ प्रदर्शक, दिग्दर्शक भी थे। जब भी कोई ऐसा लमहा आता है, जब मन उद्विग्न होता है, कहीं असमंजस होता है। तब मैं उन की रचनाएँ पढ़ता हूँ। मुझे वहाँ राह दिखाई देती है। असमंजस का अंधेरा छँट जाता है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। मैं ने उन की एक किताब उठाई और कविताएँ पढ़ने लगा। देखिए कैसे उन्हों ने अहम् के मरने को अभिव्यक्त किया है - 



'कविता'
जब 'मैं' मरता है*
  • शिवराम

हमें मारेंगी
हमारी अनियंत्रित महत्वाकांक्षाएँ

पहले वे छीनेंगी
हमसे हमारे सब
फिर हम से 
हमें ही छीन लेंगी

बचेंगे सिर्फ मैं, मैं और मैं
'मैं' चाहे कितना ही अनोखा हो
कुल मिला कर होता है एक गुब्बारा
जैसे-जैसे फूलता जाता है
तनता जाता है
एक अवस्था में पहुँच कर 
फूट जाता है

रबर की चिंदियों की तरह
बिखर जाएंगे एक दिन
जो न उगती हैं न विकसती हैं
मिट्टी में मिल जाती हैं 
धीरे-धीरे

बच्चे रोते हैं
जब फूटता है उन का गुब्बारा
जब 'मैं' मरता है, कोई नहीं रोता
हँसते हैं लोग, हँसता है जमाना


*शिवराम के कविता संग्रह 'माटी मुळकेगी एक दिन' से

गुरुवार, 12 मई 2011

शिवराम की कविता 'नन्हें'

ल कामरेड पाण्डे के सब से छोटे बेटे की शादी थी, आज रिसेप्शन। मैं बारात में जाना चाहता था। लेकिन कल महेन्द्र के मुकदमे में बहस करनी थी, मैं न जा सका। आज रिसेप्शन में भी बहुत देरी से, रात दस बजे पहुँचा। सभी साथी थे वहाँ। नहीं थे, तो शिवराम!  लेकिन उन का उल्लेख वहाँ जरूर था। सब कुछ था, लेकिन अधूरा था। शिवराम हमारे व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन के, संकल्पों के और मंजिल तक की यात्रा के अभिन्न हिस्सा थे। वहाँ से लौटा हूँ। उन की एक कविता याद आती है। मैं उन की किताबें टटोलता हूँ। उन के कविता संग्रह 'माटी मुळकेगी एक दिन' में वह कविता मिल जाती है। आप भी पढ़िए,  उसे ...

नन्हें
  • शिवराम

उस ने अंगोछे में बांध ली हैं 
चार रोटियाँ, चटनी, लाल मिर्च की
और हल्के गुलाबी छिलके वाला एक प्याज

काँख में दबा पोटली 
वह चल दिया है काम की तलाश में
सांझ गए लौटेगा
और सारी कमाई 
बूढ़ी दादी की हथेली पर रख देगा
कहेगा - कल भाजी बनाना

इस से पहले सीने से लगाए उसे
गला भर आएगा दादी का
बेटे-बहू की शक्लें उतर आएंगी आँखों में
आँखों से छलके आँसुओं में

वह पोंछेगा दादी के आँसू
मुस्कुराएगा

रात को बहुत गहरी नींद आएगी उसे

कल सुबह जागने के पहले 
नन्हें सपने में देखेगा
नेकर-कमीज पहने
पीठ पर बस्ता लटकाए
वह स्कूल जा रहा है 
वह टाटा कर रहा है और
दादी पास खड़ी निहार रही है

कल सुबह जागने के ठीक पहले 
नन्हें जाएगा स्कूल


सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

यह निबंध सभी ब्लागरों को पढ़ना चाहिए

सूक्ष्मतम मानवीय संवेदनाओं को कलात्मक तरीके से अभिव्यक्त करने की क्षमता कविता में होती है। यही विशेषता कविता की शक्ति है। इन संवेदनाओं को पाठक और श्रोता तक पहुँचाना उस का काम है। शिवराम रंगकर्मी, कवि, आलोचक, संपादक, संस्कृतिकर्मी, भविष्य के समाज के निर्माण की चिंता में जुटे हुए एक राजनेता, एक अच्छे इंसान सभी कुछ थे। वे कविताई की वर्तमान स्थिति से संतुष्ट न थे। उन्हों ने अपनी इस असंतुष्टि को प्रकट करने के लिए उन्हों ने एक लंबा निबंध "कविता के बारे में" उन के देहावसान के कुछ समय पूर्व ही लिखा था, जो बाद में 'अलाव' पत्रिका में प्रकाशित हुआ। रविकुमार इस निबंध की चार कड़ियाँ अपने ब्लाग सृजन और सरोकार पर प्रस्तुत कर चुके हैं, संभवतः और दो कड़ियों में यह पूरा हो सकेगा। मैं ने इस  निबंध को आद्योपान्त पढ़ा। उन की जो चिंताएँ कविता के बारे में हैं, वही सब चिंताएँ इन दिनों ब्लागरी के बारे में अनेक लोग उठा रहे हैं। मेरी राय में शिवाराम के इस निबंध को प्रत्येक ब्लागर को पढ़ना चाहिए। इस निबंध से ब्लागरों को भी वे सू्त्र मिलेंगे जो ब्लागरों को बेहतर लेखन के लिए मार्ग सुझा सकते हैं। 
दाहरण के रूप उस निबंध के पहले चरण को कुछ परिवर्तित रूप में यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। बस अंतर केवल इतना है कि इस में 'कविताई' को 'ब्लागरी' से विस्थापित कर दिया गया है ...

शिवराम
"आजकल ब्लाग खूब लिखे जा रहे हैं। यह आत्माभिव्यक्ति की प्रवृत्ति का विस्तार है और यह अच्छी बात है। लेखनकर्म, जो अत्यन्त सीमित दायरे में आरक्षित था, वह अब नई स्थितियों में व्यापक दायरे में विस्तृत हो गया है। हमारे इस समय का लेखन एक महान लेखक नहीं रच रहा, हजारों लेखक रच रहे हैं। जीवन के विविध विषयों पर हजारों रंगों में, हजारों रूपों में लेखन प्रकट हो रहा है। हजारों फूल खिल रहे हैं और अपनी गंध बिखेर रहे हैं। यह और बात है कि मात्रात्मक विस्तार तो खूब हो रहा है, लेकिन गुणात्मक विकास अभी संतोषजनक नहीं है। ब्लाग खूब लिखे जा रहे हैं, लेकिन अभी पढ़े बहुत कम जा रहे हैं। यूं तो समग्र परिस्थितियां इसके लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन हमारे ब्लागरों के लेखन-कौशल और लेखन की गुणवत्ता में न्यूनता भी इसके लिए जिम्मेदार है। उसकी आकर्षण क्षमता और इसके असर में कमियां भी इसके लिए जिम्मेदार है। यही चिन्ता का विषय है। इस सचाई को नकारने से काम नहीं चलेगा। इसे स्वीकार करने और इस कमजोरी से उबरने का परिश्रम करना होगा। यूं तो और बेहतर की सदा गुंजाइश रहती है तथा सृजनशीलता सदैव ही इस हेतु प्रयत्नरत रहती है, लेकिन फिलहाल हिन्दी ब्लागरी जिस मुकाम पर खड़ी है, इस हेतु विशेष प्रयत्नों की जरूरत है।

ब यदि आप समझते हैं कि मूल आलेख को पढ़ना चाहिए तो "कविता के बारे में" को चटखाएँ और वहाँ पहुँच जाएँ। 





मंगलवार, 4 जनवरी 2011

मैं एक विस्फोट भी हूँ ......

ज उस का जन्मदिन है, और वह जेल में है। क्या था उस का कुसूर? बस यही न कि उस ने उस सरकारी कारखाने में काम करने वाले ठेकेदार मजदूरों के लिए एक अस्पताल विकसित किया था, जो अपने स्थाई कर्मचारियों के लिए बेहतर से बेहतर सुविधाएँ प्रदान करता है, लेकिन वही अस्पताल एक मरती हुई मजदूरिन को अपने यहाँ चिकित्सा सुविधा नहीं दे सकता। कि उस ने गाँव गाँव में चिकित्सा सुविधाएँ पहुँचाने के काम में अपने जीवन के बेहतरीन साल गुजारे। जिस ने सलवा जुडूम के कार्यकर्ताओं द्वारा बंदूकों की नोंक अपने गाँवों से हाँक कर सरकारी केम्पों में ले जाए गए आदिवासियों के स्वास्थ्य की दुर्दशा के विरुद्ध आवाज उठाई। यही आवाज न केवल सलवा जुडूम योजना पर अपितु सरकार की नीयत पर भी प्रश्न चिन्ह बन गई। बस उसे देशद्रोही करार दिया गया और जेल में बंद कर दिया जीवन भर के लिए। 
लेकिन क्या, उसे बंद करने से जंगलों, गाँवों, कस्बों, नगरों और महानगरों से न्याय के लिए उठ रही आवाजें रुक जाएँगी। निश्चय ही वे आवाजें ऐसे नहीं रुक सकतीं। रुकना होगा तो उन्हें जो इन आवाजों को रोकने में लगे हैं। वे नहीं रुकेंगे, तो खत्म हो जाएँगे, जनता की यह आवाज तो उठेगी, कोलाहल बन कर न सुनने वालों को बहरा कर देगी, कि वे सुनने के काबिल नहीं रहेंगे। 
डॉ. बिनायक सेन के 61 वें जन्मदिन पर मुझे अपने दिवंगत साथी शिवराम की यह कविता स्मरण हो आती है - - -

मैं एक विस्फोट भी हूँ

-शिवराम

कुचल दो मुझे
मैं उठा हुआ सिर हूँ
मैं तनी हुई भृकुटि हूँ
मैं उठा हुआ हाथ हूँ
मैं आग हूँ
बीज हूँ
आंधी हूँ
तूफान हूँ

और उन्हों ने 
सचमुच कुचल दिया मुझे

एक जोरदार धमाका हुआ
चिथड़े-चिथड़े हो गए वे

उन्हें नहीं मालूम था
मैं एक विस्फोट भी हूँ।

**********************

मेरे दोस्त !
जन्मदिन मुबारक हो, तुम्हें,

उन्हें पता है, 
तुम्हें अंदर कर के 
उन्हों ने कितनी बड़ी गलती की है

पर अब  करें तो क्या?
तीर तो कमान से निकल चुका
____________________________________________________________________________

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

जन्मदिन पर शिवराम के नाटकों-कविताओं की शानदार प्रस्तुति

ल साल का सब से छोटा दिन गुजर गया। एक काम शिवराम के जिम्मे था, वे इसे ले कर बहुत चिंतित थे, लेकिन पूरा नहीं कर सके थे। पिछले तीन दिनों में लग कर यह काम संपन्न कर लिया गया तो मेरे साथ अन्य साथियों ने भी राहत की साँस ली। लेकिन सर्दी अपना रंग दिखा गई। कल रात भोजन कर के जल्दी सोया था। सुबह पौने पाँच पर आँख खुली तो लगा जैसे पेट में गूजर धरना दिए बैठे हैं, रास्ता जाम है, पेट फूला हुआ है। शौच वगैरह सब सामान्य था लेकिन जो कुछ पेट में था वह सरकने को तैयार नहीं था। आज उपवास कर लिया  गया। शाम तक ठीक महसूस हुआ तो शिवराम के जन्मदिन पर आयोजित अभिव्यक्ति नाट्य मंच के कार्यक्रम में अलबर्ट आइंस्टाइन सीनियर सैकंडरी विद्यालय पहुँचा। देखा विद्यालय का प्रांगण दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था। मुझे अपने लिए स्थान बनाने में कुछ मशक्कत करनी पड़ी।

मशाल
कार्यक्रम का आरंभ शिवराम द्वारा आरंभ की गई परंपरा के अनुसार मशाल जला कर हुआ। विकल्प जन सांस्कृतिक मंच, कोटा के अध्यक्ष महेन्द्र 'नेह' ने शिवराम के जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व पर रोशनी डाली। तुरंत बाद शिवराम का नाटक 'घुसपैठिए' का मंचन आरंभ हो गया।
घुसपैठिए
नपतियों की काली कमाई से पोषित मीडिया अक्सर हमें 'घुसपैठियों' के रूप में उन्हीं आतंकवादियों की तस्वीरें दिखाता है, जो कभी करगिल, कभी कश्मीर, तो कभई समुद्र के रास्ते देश की सीमाएँ तोड़ कर खून-खराबा करते हैं और हत्याओं का घिनौना खेल खेलते हैं। यह नाटक देश, जनता और अमन के उन दुश्मनों को तो उजागर करता ही है, वहीं नट-नटी, दातुनवाला, सब्जीवाला, सूत्रधार और अभिनेता के माध्यम से उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों और साम्राज्यवादी ऐजेंसियों की हमारे सत्ताधारियों के माध्यम से हुई 'घुसपैठ' को ठीक उसी तरह से बेनकाब करता है, जिस तरह कुछ राजा-महाराजाओं के मार्फत 'ईस्ट इंडिया कंपनी' ने घुसपैठ कर के हमारी रोटी, रोजगार, स्वदेशी स्वावलंबन और आजादी का अपहरण किया था। इस नाटक में शिवराम ने दर्शकों के लिए एक चुनौती छोड़ी है -कौन खदेड़ेगा देश और जनता को लूटने वाले इन घुसपैठियों को? कौन? कौन? कौन? कौन? आखिर कौन? 
ह नाटक स्वयं शिवराम के निर्देशन में 'अनाम' ने अनेक बार देश के अनेक स्थानों पर खेला। इस बार भी उन्ही कलाकारों ने इसे यहाँ प्रस्तुत किया।  वृद्ध की भूमिका में अजहर, तथा नेता की भूमिका में डॉ.पवन कुमार स्वर्णकार ने विशेष  रुप से प्रभावित किया। वहीं आशीष  मोदी, राजकुमार चौहान, रोहन शर्मा, तथा संजीव शर्मा ने विभिन्न भूमिकाओं में प्रभावी अभिनय किया। अन्य कलाकारों में मनोज शर्मा, शशिकुमार, रोहित पुरुषोत्तम, आकाश सोनी, आशीश सोनी व रविकुमार का अभिनय सराहनीय था। 
स नाटक के उपरांत ऋचा शर्मा ने शिवराम की कुछ कविताओं का सस्वर प्रभावशाली पाठ किया। और फिर आरंभ हुआ शिवराम का सुप्रसिद्ध नाटक 'जनता पागल हो गई है' इस नाटक को पहली बार आपातकाल के दौरान 1976 में बारां में खेला गया था। जो जो लोग इस नाटक में अभिनय कर चुके हैं वे सभी ख्यात भी हुए। मुझे भी इस की आठ-दस प्रस्तुतियों में एक भूमिका करने का अवसर मिला था, इस की सर्वाधिक सफल प्रस्तुति शिवराम के निर्देशन में रविन्द्र रंगमंच जयपुर पर हुई थी। वह दिन मैं कभी नहीं भूल सकता। उस दिन साथियों से कुछ ऐसा हुआ था कि मुझे बहुत गुस्सा आने वाला था, शिवराम इसे भांप गए थे और उन्हों ने हमारे सभी साथियों को यह बता दिया था कि मैं आज बहुत गुस्सा होने वाला हूँ। जैसे ही मैं ठहरने के स्थान पर पहुंचा सारे वरिष्ठ साथी मुझे मनाने में लग गए। थोड़ी देर बाद जब  शांत हुआ तो मुझे लज्जा हुई, लेकिन उस से क्या? इस बहाने बुजुर्ग सभी को कॉफी और कचौड़ियों की दावत खिला चुके थे।
जनता पागल हो गई है 
नाटक 'जनता पागल हो गई है' को हम ऐसा क्लासिक कह सकते हैं, जिसे भव्य रंगमंच से ले कर सड़क पर आम जनता के बीच नुक्कड़ नाटक की तरह खेला जा सकता है। हिन्दी में नुक्कड़ नाटकों के जन्मदाता शिवराम का यह नाटक वस्तुतः जनता तक अपनी बात को पहुँचाने के माध्यम के रुप में विकसित हुआ था, जो अब तक का सब से लोकप्रिय, भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुदित हो कर देश के कोने-कोने में खेला जा चुका है और विदेशों में भी वहाँ की स्थानीय भाषाओं में इस की प्रस्तुतियाँ हुई हैं। इस नाटक के कुछ दृष्य  कुछ फेरबदल के साथ कुछ हिन्दी फिल्मों का हिस्सा भी बने हैं।
स नाटक का प्रारंभ देश की उस कोटि-कोटि भूखी-प्यासी जनता के आर्तनाद से होता है जो अपने परिश्रम से जहाज से ले कर सुई तक का उत्पादन करती है, लेकिन जिसे धनपतियों, नेताओं, हाकिमों द्वारा रूखी-सूखी रोटियों पर इसलिए जीवित रखा जाता है जिस से उस की कमाई और अपार धन-दौलत को निचोड़ा जा सके। नाटक में जनता कहती है-
"खेत सूखे, पेट भूखे, गाँव हैं बीमार
हम लोगों की मेहनत, कोठे भरता जमींदार
देह सूखी, प्राण सूखे, सूना सब संसार
कोई सुनता नहीं हमारी, क्या बोलें सरकार"
मैदान में हो रहे 'जनता पागल हो गई है' नाटक का एक दृश्य
ब चुनाव के मौसम में नेता वोट के लिए जनता को झूठे आश्वासन दे कर भरमाने का प्रयत्न करते हैं तो तो 'पागल' उसे सचेत करता है-
"वोट दो..... वोट दो.... ठोक दो.... ठोक दो....
इस जालिम सरकार के दिल पर चोट दो
इस ने रेल-हड़ताल में मेरा भाई डाला मार
मेरा बच्चा चबा गई यह जालिम सरकार!!"
'जनता पागल हो गई है' एक व्यस्त चौराहे पर
रकार के कहने से पूंजीपति जनता को कारखाने में काम देता है, लेकिन जब उसे सूखी रोटी भी नसीब नहीं होती तो वह हड़ताल कर देती है। सरकार, पुलिस, और मीसा-एस्मा जैसे काले कानूनों की मदद से जब जनता का निर्दयता पूर्वक दमन करती है तो जनता विद्रोह कर देती है। विद्रोह में कुर्बानियों के बाद जनता की जीत होती है। पूंजीपतियों और सरकार का दंभ जल कर खाक हो जाता है। इस नाटक का यही आशावादी स्वर, जज्बा, और विश्वास युवा नाट्यकर्मियों में जन-ऊष्मा का संचार करता है और देश के किसी भी हिस्से के हों, कोई भी भाषा बोलते हों, इस नाटक के मंचन के लिए कभी रंगमंच पर कभी नुक्कड़ पर और कभी चौपाल पर खेलने के लिए मचल उठते हैं। यह नाटक तानाशाह हुक्मरानों के विरुद्ध भारतीय जनता के विद्रोह का महा-आख्यान है, इसी लिए यह अपार लोकप्रियता हासिल कर सका है। जब तक हवाओं में शोषण, दमन और गुलामी का धुँआ रहेगा, यह सिलसिला जारी रहेगा। 
ज जनता की भूमिका में आशीष मोदी का मंत्रमुग्ध कर देने वाले अभिनय, और रोहित पुरुषोत्तम की सरकार के रुप में चुटीली भूमिका ने बहुत प्रभावित किया। पागल की भूमिका में अजहर अली ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया और सराहना पाई। पुलिस अधिकारी के रूप में संजीव शर्मा और सिपाहियों की भूमिका में रोहन शर्मा और मनोज शर्मा ने सधा हुआ अभिनय किया। शिवराम की अनुपस्थिति में नगर के नाट्य निर्देशक अरविंद शर्मा ने इन नाटकों की तैयारी में सहयोग किया और संगीत संयोजन में सुधीर व रामू शर्मा ने अपना योगदान दिया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि नगर के स्वतंत्रता सेनानी और वयोवृद्ध पत्रकार आनन्द लक्ष्मण खाण्डेकर और विशिष्ठ अतिथि गुरुकुल इंजिनियरिंग  कॉलेज के प्राचार्य डॉक्टर आर.सी. मिश्रा थे। कार्यक्रम के अंत में अल्बर्ट आइंस्टाइन स्कूल के प्राचार्य डॉ.गणेश तारे ने सभी का तथा सहयोगी संस्थाओं का आभार व्यक्त किया और सभी से शिवराम के दिखाए मुक्तिकामी संघर्षों की राह पर अनवरत चलते रहने का आव्हान किया। इस अवसर पर रविकुमार द्वारा निर्मित कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी अत्यन्त आकर्षक थी जिस में शिवराम की कविताओं पर निर्मित पोस्टर विशेष रूप से देखने को मिले।
कार्यक्रम की समाप्ति शिवराम के पूरे परिवार उन की बेटी और दामाद तीनों पुत्र और भाभी जी से एक साथ मुलाकात से भेंट मेरे लिए बड़ी सौगात थी।

इस दिन की नाट्य प्रस्तुतियों के चित्र रविकुमार के ब्लाग "सृजन और सरोकार" की पोस्ट नाट्य प्रस्तुतियों के छायाचित्र  पर देखे जा सकते हैं। 

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

शिवराम को एक सृजनात्मक श्रद्धांजलि !!!

नाटककार, रंगकर्मी, कवि, आलोचक, साहित्यकार, ट्रेडयूनियन कार्यकर्ता, शीर्ष राजनैतिक नेता शिवराम के व्यक्तित्व के अनेक आयाम थे। लेकिन उन के सभी कामों का एक ही उद्देश्य था। जनता को सचेतन करना, शिक्षित करना और संगठित होने के लिए प्रेरित करना और संगठित होने में उन की मदद करना। उन की राय में श्रमजीवी जनता की मुक्ति का यही एक मार्ग था। उन के इस बहुआयामी व्यक्तित्व में रंगकर्म सब से पहले आता था। इसी से उन्हों ने अपने उद्देश्य को प्राप्त करने का सफर आरंभ किया था और अंतिम दिनों तक वे इस से जुड़े रहे। पिछली पहली अक्तूबर को उन्हों ने हम से सदा सर्वदा के लिए विदा ली है। तीन माह भी नहीं गुजरे हैं कि 23 दिसंबर 2010 को उन का बासठवाँ जन्मदिन आ रहा है। 
शिवराम अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच (अनाम) कोटा के जन्मदाता थे। इस 23 दिसंबर को अनाम अपने जन्मदाता की अनुपस्थिति में उन्हें एक सृजनात्मक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए पहली बार उन का जन्मदिन मनाएगा। इस दिन साँयकाल 6.30 बजे एलबर्ट आइंस्टाइन सीनयर सैकण्डरी विद्यालय, वसंत विहार, कोटा के रंगमंच पर, जहाँ शिवराम की उपस्थिति और उन के निर्देशन में अनाम ने पहले भी अनेक नाटकों का मंचन किया है, अनाम शिवराम के सब से उल्लेखनीय और शायद सब से अधिक मंचित नाटक 'जनता पागल हो गई है' और 'घुसपैठिए' का मंचन करने जा रहा है। इस अवसर पर शिवराम की एक शिष्या ऋचा शर्मा उन की कविताओं का सस्वर पाठ करेंगी और उन के पुत्र रविकुमार अपने कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी सजाएंगे। इस अवसर पर नगर के वयोवृद्ध पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी मुख्य अतिथि होंगे तथा गुरूकुल इंजिनियरिंग कॉलेज कोटा के प्राचार्य डॉ. आर.सी. मिश्रा विशिष्ट अतिथि होंगे। शिवराम के रंगकर्म और उन के  अन्य कार्यों के सहयोगी विकल्प जन सांस्कृतिक मंच कोटा, श्रमजीवी विचार मंच कोटा तथा एलबर्ट आइंस्टाइन सी.सै. विद्यालय, कोटा इस आयोजन में अनाम का सहयोग कर रहे हैं। 

  स आयोजन का निमंत्रण यहाँ प्रस्तुत है। आप सभी से अनुरोध है कि जो भी इस कार्यक्रम में सम्मिलित हो सकता है वह इस अवसर पर अवश्य उपस्थित हों।

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

कविता के अलावा

म चीजों को, लोगों को, दुनिया को बदलते हुए देखना चाहते हैं, लेकिन उस के लिए करते क्या हैं? कोई कविता लिखता है, कोई कहानी कोई भारी भरकम आलेख और निबन्ध। लेकिन क्या यह पर्याप्त है? पढ़िए शिवराम अपनी इस कविता में क्या कह रहे हैं . . .
 
कविता के अलावा
  • शिवराम
जब जल रहा था रोम
नीरो बजा रहा रहा था वंशी
जब जल रही है पृथ्वी
हम लिख रहे हैं कविता


नीरो को संगीत पर कितना भरोसा था
क्या पता
हमें जरूर यक़ीन है 
हमारी कविता पी जाएगी
सारा ताप
बचा लेगी 
आदमी और आदमियत को
स्त्रियों और बच्चों को
फूलों और तितलियों को 
नदी और झरनों को


बचा लेगी प्रेम
सभ्यता और संस्कृति 
पर्यावरण और अंतःकरण

पृथ्वी को बचा लेगी 
हमारी कविता


इसी उम्मीद में 
हम प्रक्षेपास्त्र की तरह 
दाग रहे हैं कविता
अंधेरे में अंधेरे के विरुद्ध 


क्या हमारे तमाम कर्तव्यों का 
विकल्प है कविता

हमारे समस्त दायित्वों की 
इति श्री 


नहीं, तो बताओ 
और क्या कर रहे हो आजकल 
कविता के अलावा ?

बुधवार, 10 नवंबर 2010

शिवराम के नाटकों की एक आत्मीय प्रस्तुति

कोटा राजस्थान का रंगकर्मी एकता संघ (रास) पिछले चार वर्षों से अपने ही एक दिवंगत साथी नाट्यकर्मी गिरधर बागला की स्मृति में नाट्य संध्या आयोजित करता रहा है।  इस समारोह में प्रतिवर्ष रंगकमल अलंकरण प्रदान कर के किसी न किसी वरिष्ठ रंगकर्मी को सम्मान और आदर प्रदान किया जाता रहा है। कल साँझ पाँचवीं गिरधर बागला स्मृति नाट्य संध्या कोटा के ऐतिहासिक क्षार बाग में स्थित कला दीर्घा के खुले थियेटर में आयोजित की गई। यह मेरा दुर्भाग्य ही रहा कि इस के पहले की चार संध्याओं में मैं उपस्थित नहीं हो सका था बावजूद इस के कि मेरे अभिन्न मित्र और शिवराम जी मृत्युपर्यंत रास के अध्यक्ष थे। कल भी स्वास्थ्य कुछ नरम था लेकिन शिवराम रचित पहला नाटक 'जमीन' का हाड़ौती भाषा में मंचन और मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'ठाकुर का कुआँ' का उन के द्वारा किए गए नाट्य रूपान्तरण को देख पाने तथा इस बहाने कृतित्व के माध्यम से दिवंगत मित्र से साक्षात्कार के लालच ने मुझे वहाँ जाने को बाध्य किया।
मंच स्तुति
दिवंगत गिरधर बागला से मेरा व्यक्तिगत परिचय नहीं था। लेकिन नाट्य संध्या में उन के पिता जी से भेंट हुई तो पता लगा वह मेरे ननिहाल के गाँव मनोहरथाना, जिला झालावाड़ (राज.) के रिश्ते से मेरा भतीजा था और गिरधर के चचेरे भाई नितिन बागला हिन्दी चिट्ठाजगत के जाने माने ब्लॉगर हैं। मैं वहाँ समय पर पहुँच गया था। लेकिन समारोह आरंभ होने में देरी थी, क्यों कि समारोह के मुख्य अतिथि पूर्व विधायक और भाजपा नेता ओम बिड़ला तथा एक बड़े उद्योग के महाप्रबंधक वी.के.जेटली वहाँ समय पर नहीं पहुँचे थे। वे वहाँ लगभग पौन घंटा की देरी से पहुँचे। हालाँकि इस के लिए उन्हें कतई कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। क्यों कि अक्सर ऐसे आयोजनों में दर्शक ही देरी से एकत्र होते हैं और बिना दर्शकों के आयोजन को आरंभ करने का कोई अर्थ नहीं होता। पर इस आयोजन में थियेटर समय पर भर चुका था और अतिथियों की कमी अखर रही थी। आयोजकों को इस रिक्तता को भरने के लिए अपने संगीतकारों से अतिरिक्त काम लेना पड़ा और दर्शकों को हर्षित का बांसुरी वादन बोनस के रूप में सुनने को मिल गया। 
'ठाकुर' का कुआँ एक दृश्य
हले पृथ्वीराज कपूर मेमोरियल ड्रामेटिक सोसायटी द्वारा वरिष्ठ नाट्य निर्देशक प्रभंजन दीक्षित  द्वारा निर्देशित  'ठाकुर का कुआँ' का मंचन किया। नाटक की अंतर्वस्तु, उस के कुशल रूपांतरण और कलाकारों द्वारा टूट कर किए गए अभिनय ने नाटक को दर्शकों के दिल में सीधा उतार दिया। हालांकि रोशनी का जिस तरह से उपयोग किया गया वह नाटक के संप्रेषण में बाधा उत्पन्न कर रही थी। लेकिन कभी-कभी किसी निर्देशक किसी टूल के प्रति आसक्ति इस अवस्था तक पहुँचा देती है। यह नाटक गाँव की में अछूत जातियों के शोषण की स्थितियों को अपने नंगे स्वरूप में सामने रखते हुए यह स्पष्ट कर रहा था कि जाति व्यवस्था किस तरह सामंती शोषण का सब से मजबूत और अमानवीय औजार है। नाटक ने बार-बार यह याद दिलाया कि दुआजादी के तिरेसठ वर्ष बाद भी हम इस औजार से देश को मुक्त नहीं करा पाए हैं और सामंती शोषण आज भी ग्रामीण जीवन में बरकरार है। 
'ठाकुर का कुआँ' के अभिनेता
दूसरा नाटक के.पी. सक्सेना का 'चोंचू नवाब' था। लेखक और नाटक के नाम से ही स्पष्ट था कि वह एक हास्य प्रस्तुति थी। इसे ग्यारह से तेरह वर्ष के बालक अभिनेताओं ने शरद गुप्ता के निर्देशन में प्रस्तुत किया था। कुशल निर्देशन का परिणाम था कि बालकों ने अपने त्रुटिहीन श्रेष्ठ अभिनय से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया और सभी का स्नेहपूर्ण प्रशंसा प्राप्त की। अंत में शिवराम के नाटक 'जमीन' के ओम नागर 'अश्क' द्वारा किए गए हाड़ौती रूपांतरण को संवेदना शान्ति नारायण संस्थान द्वारा विजय मैथुल के निर्देशन में प्रस्तुत किया।  यह नाटक बहुत मजबूत है, यह केवल समाज में चल रही शोषण की स्थितियों को ही प्रस्तुत नहीं करता, अपितु उन के प्रतिकार के मार्ग को प्रदर्शित  करता है। यह भी बताता है कि एकल प्रतिकार हमेशा दमन लाता है, लेकिन जब प्रतिकार सामूहिक और संगठित हो तो वह शोषकों के लिए चुनौती बन जाता है और उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर सकता है। इस तरह यह शोषितों में संगठन की चेतना का प्रसार का औजार बन जाता है। यही शिवराम के संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की विशेषता भी थी।
शिवराम के पुत्र शशि अलंकरण ग्रहण करते हुए
नाट्य प्रस्तुति के उपरान्त रंगकमल अलंकरण-2010 दिवंगत शिवराम को प्रदान किया गया। इस अवसर पर रास के सभी नाट्यकारों ने घोषणा की कि इस अलंकरण के पहले हकदार शिवराम थे। लेकिन वे स्वयं रास के प्रमुख थे और उन्हें उस पद पर रहते हुए इसे प्रदान करना संभव नहीं था। वस्तुतः यह अलंकरण कोटा के नाट्य कर्मियों की और से उन्हें दिया गया आदर है, उन के प्रति श्रद्धांजलि है। सभी नाट्यकर्मियों की ओर से मुख्य अतिथि बिड़ला ने शिवराम के भाई शायर पुरुषोत्तम  'यक़ीन' और मंझले पुत्र शशि स्वर्णकार को यह अलंकरण सौंपा। ये दोनों भी नाटकों से जुड़े हुए हैं। 
बिड़ला के साथ शशि
मुख्य अतिथि बिड़ला ने अपने समापन भाषण में नाट्यकर्मियों की कला की बहुत प्रशंसा की और कहा कि उन्हें यहाँ से एक नाटक देख कर दूसरे कार्यक्रम में जाना था लेकिन नाटकों ने उन्हें ऐसा बांधा कि वे नहीं जा सके और उन्हें एक कार्यक्रम रद्द् करना पड़ा। अपने संबोधन में वे नाटकों की समाज परिवर्तन की जो भूमिका थी उस के सम्बन्ध में कुछ भी कहने से चूक गये, यह भी कहा जा सकता है कि वे इस विषय पर कहने से एक चतुर राजनीतिज्ञ की तरह कतरा गए, शायद इस लिए कि हो सकता है यह बात समाचार पत्रों में जाए तो  कहीं यथास्थितिवादियों की नाराजगी उन्हें न झेलनी पड़े।