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रविवार, 2 अक्टूबर 2011

जन-गण के पक्ष में रचनाकर्म करने के साथ उन तक पहुँचाना भी होगा


किसी ने कहा शिवराम बेहतरीन नाटककार थे हिन्दी नुक्कड़नाटकों के जन्मदाता, कोई कह रहा था वे एक अच्छे जन कवि थे, किसी ने बताया शिवराम एक अच्छे आलोचक थे, कोई कह रहा था वे प्रखर वक्ता थे, किसी ने कहा वे अच्छे संगठनकर्ता थे और हर जनान्दोलन में वे आगे रहते थे, एक लड़की कह रही थी, बच्चों को वे मित्र लगते थे। टेलीकॉम वाले बता रहे थे वे जबर ट्रेडयूनियनिस्ट थे, दूसरे ने बताया वे श्रेष्ठ अभिनेता और नाट्यनिर्देशक थे। भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के जिला सचिव बता रहे थे वे पार्टी के पॉलिट ब्यूरो के सदस्य थे, उन के देहान्त का समाचार मिलते ही एक और पॉलिट ब्यूरो सदस्य उन की अंत्येष्टी में कोटा पहुँचे थे और जब सब लोग कह रहे थे कि कोटा और राजस्थान के जनान्दोलन की बहुत बड़ी क्षति है तो वे कहने लगे कि वे कोटा की नहीं देश भर के श्रमजीवी जन-गण की क्षति हैं। पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व उन से देशव्यापी नेतृत्वकारी भूमिका की अपेक्षा रखता था। इतने सारे तथ्य शिवराम के बारे में सामने आ रहे थे कि हर कोई चकित था। शायद कोई भी संपूर्ण शिवराम से परिचित ही नहीं था। हर कोई उन का वह दिखा रहा था जो उस ने देखा, अनुभव किया था। इन सब तथ्यों को सुनने के बाद लग रहा था कि संपूर्ण शिवराम को पुनर्सृजित कर उन्हें पहचानने में अभी हमें वर्षों लगेंगे। फिर भी बहुत से तथ्य ऐसे छूट ही जाएंगे जो शायद उन के पुनर्सर्जकों के पास नहीं पहुँच सकें। जब वे 'संपूर्ण शिवराम' का संपादन कर के उसे प्रेस में दे चुके होंगे तब, जब उस के प्रूफ देखे जा रहे होंगे तब और जब वह प्रकाशित हो कर उस का विमोचन हो रहा होगा तब भी कुछ लोग ऐसे आ ही जाएंगे जो फिर से कहेंगे, नहीं इस शिवराम को वे नहीं जानते, हम जिस शिवराम को जानते हैं वह तो कुछ और ही था। 

शिवराम को हमारे बीच से गए एक वर्ष हो चुका है। यहाँ कोटा में उन के पहले वार्षिक स्मरण के अवसर पर 1 अक्टूबर 2011 को भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड), राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र और अखिल भारतीय जनवादी युवा मोर्चा ने दोपहर एक बजे श्रद्धांजलि सभा तीन बजे 'अभिव्यक्ति नाट्य और कला मंच' के कलाकारों ने सभास्थल के बाहर सड़क पर उन के सुप्रसिद्ध नाटक "जनता पागल हो गई है" का नुक्कड़-मंचन किया। इस के बाद दूसरे सत्र में एक गोष्ठी का आयोजन किया।  प्रेस-क्लब सभागार में हुई श्रद्धांजलि सभा दिल्ली से आए मुख्य-अतिथि शैलेन्द्र चौहान द्वारा मशाल-प्रज्ज्वलन के साथ आरंभ हुई। इस सभा में हाड़ौती अंचल के विभिन्न श्रमिक कर्मचारी संगठनों एवं सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों के साथ शिवराम की माताजी और पत्नी श्रीमती सोमवती द्वारा उनके के चित्र पर माल्यार्पण कर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। सभा में उन के पुत्र रवि कुमार, शशि कुमार और डॉ. पवन अपनी भूमिकाओं के साथ उपस्थित थे। 

शैलेन्द्र चौहान ने अपने उद्बोधन में कहा कि हमें शिवराम की स्तुति करने के बजाय उनके विचारों, कार्य-पद्धति और श्रमजीवी जन-गण के प्रति समर्पण से प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होने कहा कि पुरानी जड़ परम्परा और नैतिकता के स्थान पर श्रमिकों, किसानों के जीवन के यथार्थ से जुड़ी सच्चाइयों का अध्ययन करते हुए क्रांतिकारी नैतिकता को आत्मसात करना चाहिए। क्रांतिकारी नैतिकता के बिना जन-गण के किसी भी संघर्ष को आगे बढ़ा सकना संभव नहीं है।  सफल प्रथम-सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साम्यवादी विजय शंकर झा ने कहा कि वर्तमान व्यवस्था अपने पतन के कगार पर है, व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन से ही देश की शोषित, पीड़ित जनता के जीवन में खुशहाली संभव है। शिवराम इस परिवर्तन के लिए समर्पित थे। श्रद्धांजलि-सत्र के पश्चात् शिवराम के प्रसिद्ध नाटक जनता पागल हो गई हैकी नुक्कड़ नाटक प्रस्तुति को सैंकड़ों दर्शकों ने देखा और सराहा। नाटक में रोहित पुरूषोत्तम (सरकार), आशीष मोदी (जनता), अजहर (पागल), पवन कुमार (पुलिस अधिकारी) और कपिल सिद्धार्थ (पूंजीपति) की भूमिकाओं को बेहतरीन रीति से अदा किया। लगा जैसे इसे शिवराम ने ही निर्देशित किया हो।  

साँयकालीन सत्र में साथी शिवराम के संकल्पों का भारतविषय पर मुख्य वक्ता साहित्यकार महेन्द्र नेह ने कहा कि वर्तमान दौर में  अमेरिका सहित पूरी पूंजीवादी दुनिया गहरे आर्थिक संकट में फँस गई है। हमारे देश के शासक घोटालों और भ्रष्टाचार में लिप्त होकर जन-विरोधी रास्ते पर चल पड़े हैं। आने वाले दिनों में समूची दुनिया में जन-आन्दोलन बढ़ेंगे तथा भ्रष्ट-सत्ताएं ताश के पत्तों की तरह बिखरेंगी। सत्र के अध्यक्ष आर.पी. तिवारी ने कहा कि मेहनतकश जनता का जीवन निर्वाह शासकों ने मुश्किल बना दिया है, लेकिन बिना क्रान्तिकारी विचार और संगठन के परिवर्तन संभव नहीं। दोनों सत्रों में त्रिलोक सिंह, प्यारेलाल, टी.जी. विजय कुमार, शब्बीर अहमद, विजय सिंह पालीवाल, जाकिर भाई, विवेक चतुर्वेदी, पुरूषोत्तम यकीन’, तारकेश्वर तिवारी और राजेन्द्र कुमार ने अपने विचार व्यक्त किए। संचालन महेन्द्र पाण्डेय ने किया। दोनों सत्रों के दौरान प्रसिद्ध नाट्य अभिनेत्री ऋचा शर्मा ने शिवराम की कविताओं का पाठ किया, शायर शकूर अनवर एवं रवि कुमार ने शायरी एवं कविता पोस्टर प्रदर्शनी के माध्यम से अपनी बातें कही।

2 अक्टूबर को कोटा के प्रेस क्लब सभागार में ही विकल्प’ अखिल भारतीय सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा' द्वारा जन-संस्कृति के युगान्तरकारी सर्जक साथी शिवरामएवं अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों-कलाकारों की भूमिकाविषयों पर परिचर्चाओं का आयोजन किया। कार्यक्रम का आगाज हाडौती अंचल के वरिष्ठ गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा, मदन मदिर, महेन्द्र नेह सहित मंचस्थ लेखकों ने मशाल प्रज्ज्वलित करके किया। कार्यक्रम के प्रारम्भ में ओम नागर और सी.एल. सांखला ने शिवराम के प्रति अपनी सार्थक कविताएँ प्रस्तुत की तथा ऋचा शर्मा ने शिवराम की कुछ प्रतिनिधि कविताओं का पाठ किया।

प्रथम गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार रघुराज सिंह हाड़ा ने बताया कि शिवराम का लेखन ठहराव से बदलाव की ओर ले जाने का लेखन है। उन्हों ने साहित्य के बन्धे-बन्धाए रास्तों को तोड़ कर आम जन के पक्ष में युगान्तरकारी भूमिका निभाई। मुख्य वक्ता मदन मदिर ने अपने ओजस्वी उद्बोधन में कहा कि सत्ता और मीडिया ने जनता के पक्ष की भाषा और शब्दों का अवमूल्यन कर दिया है। शिवराम ने अपने नाटकों और साहित्य में जन भाषा का प्रयोग करके अभिजनवादी संस्कृति को चुनौती दी। वे सच्चे अर्थों में कालजयी रचनाकार थे। कथाकार लता शर्मा ने कहा कि शिवराम ने अपनी कला का विकास उस धूल-मिट्टी  और जमीन पर किया जिसे श्रमिक और किसान अपने पसीने से सींचते हैं। उनका लेखन उनकी दुरूह यात्रा का दस्तावेज है। डॉ. फारूक बख्शी ने फैज अहमद फैज की गज़लों के माध्यम से शिवराम के लेखन की ऊँचाई को व्यक्त किया। डॉ. रामकृष्ण आर्य ने शिवराम को एक निर्भीक एवं मानवतावादी रचनाकार बताया। टी.जी. विजय कुमार ने उन्हे संघर्षशील एवं विवेकवान लेखक की संज्ञा दी। प्रथम सत्र का संचालन महेन्द्र नेह ने किया।

दूसरे सत्र में अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों-कलाकारों की भूमिकाविषय पर आयोजित परिचर्चा का आरंभ संचालक शकूर अनवर ने गालिब की शायरी के माध्यम से अपने समय की यथार्थ अक्कासी और आजादी के पक्ष में शिवराम की भूमिका को खोल कर किया। सत्र की अध्यक्षता करते हुए दिनेशराय द्विवेदी ने कहा कि शिवराम की भूमिका स्पष्ट थी, उन के संपूर्ण कर्म का लक्ष्य जन-गण की हर प्रकार के शोषण की मुक्ति था। उन्हों ने अपने नाट्यकर्म, लेखन, संगठन और शोषित पीड़ित जन के हर संघर्ष में उपस्थिति से सिद्ध किया कि साहित्य युग परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभा सकता है। लेखकों और कलाकारों को जन-गण के पक्ष में रचनाकर्म करना ही नहीं है, प्रेमचंद की तरह उसे जनता तक पहुँचाने की भूमिका भी खुद ही निबाहनी होगी। मुख्य वक्ता श्रीमती डॉ. उषा झा ने अपने लिखित पर्चे में साहित्य की युग परिवर्तनकारी भूमिका को कबीर, निराला, मुक्तिबोध आदि कवियों के उद्धरणों से सिद्ध किया।  अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि बाजारवाद ने हमारे साहित्य एवं जन-संस्कृति को सबसे अधिक हानि पहुँचाई है। नारायण शर्मा ने कहा कि जब प्रकृति क्षण-क्षण बदलती है तो समाज को क्योंकर नही बदला जा सकता ? रंगकर्मी संदीप राय ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि नाटक जनता के पक्ष में सर्वाधिक उपयोगी माध्यम है। प्रो. हितेश व्यास ने कहा कि शिवराम ने विचलित कर देने वाले नाटक लिखे और प्रतिपक्ष की उल्लेखनीय भूमिका निभाई। अरविन्द सोरल ने कहा कि समय की निहाई पर शिवराम के लेखन का उचित मूल्यांकन होगा।

प्रसिद्ध चित्रकार व कवि रवि कुमार द्वारा शिवराम की कविताओं की पोस्टर-प्रदर्शनी को नगर के प्रबुद्ध श्रोताओं, लेखकों, कलाकारों ओर आमजन ने सराहा। विकल्पकी ओर से अखिलेश अंजुम ने सभी उपस्थित जनों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।     
जनता पागल हो गई है' नाटक की एक प्रस्तुति

रविवार, 3 जुलाई 2011

पिता जी का जन्मदिन

मुझे पिताजी के साथ बहुत कम रहने का अवसर मिला। हुआ यूँ कि वे अध्यापक हुए तो बाराँ में उन का पदस्थापन हुआ। मुझे पता नहीं कि जब मैं पैदा हुआ तो उन का पदस्थापन कहाँ था। पर उस साल वे कुल 22 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापक थे। चाचा जी बारां में रह कर पढ़ते थे इसलिए माँ को बाराँ ही रहना पड़ता था। छह वर्ष में बाराँ जाना पहचाना नगर हो चुका था। वे अकेले ही कस्बे में रहते और साप्ताहिक अवकाश के दिन बाराँ आ जाते। जिस रात मेरा जन्म हुआ वे मेरी दादी को लेने गाँव गए हुए थे और माँ और चाचाजी अकेले थे। जब मैं दो ढाई वर्ष का हुआ तो एक मंदिर में पुजारी चाहिए था। मंदिर के मालिकान दादा जी को गाँव से ले आए, दादी और बुआ भी वहीं आ गईं। दादाजी का सारा परिवार वहीं आ गया था। मंदिर का काम पुजारी के अकेले के बस का न था। सारा परिवार उसी में जुटा रहता। पिताजी अक्सर नौकरी पर बाहर रहते। उन से सिर्फ अवकाशों में मुलाकात होती या फिर तब उन के साथ रहने का अवसर मिलता जब दीपावली के बाद वे माँ को और मुझे साथ ले जाते। गर्मी की छुट्टियाँ होते ही हम वापस बाराँ आ जाते। एक वर्ष वे शिक्षक प्रशिक्षण के लिए चले गए। कुछ वर्ष उन का पद स्थापन बाराँ में ही रहा तब उन के साथ रहने का अवसर मिला। 

वे कर्मयोगी थे। हर काम खुद कर लेते। भोजन बनाने का इतना शौक था कि कहीं कोई नया पकवान खाने को मिलता तो विधि पूछ कर आते और तब तक बनाने का प्रयत्न करते जब तक उसे श्रेष्ठता तक पकाना न सीख जाते। अक्सर अवकाश पर जब वे घर होते तो उन के कुछ मित्र भोजन पर आमंत्रित रहते, वे पकाते, अम्माँ मदद करतीं। हम परोसने आदि का काम करते। जब मैं बारह वर्ष का हुआ तो उन्हों ने मुझे भोजन बनाना सिखाया। सब से मुश्किल काम एक-दम  गोल चपाती बेलना था। जिसे वे बहुत खूबसूरती से करते थे। आटे का लोया चकले पर रखते और बेलन को ऐसा घुमाते कि एक बार में ही पूरी रोटी बेल देते, वह भी एकदम गोल। अम्माँ और घर की दूसरी महिलाएँ भी उतनी गोल चपाती न बेल पातीं। वे जिस भी विद्यालय में होते वहाँ सब से कनिष्ट होते हुए भी विद्यालय का सारा प्रशासन संभाल लेते। प्रधानाध्यापक प्रसन्न रहता, उसे कुछ करना ही न पड़ता। विद्यार्थी और उन के अभिभावक भी उन से प्रसन्न रहते। वे संस्कृत, गणित, अंग्रेजी, भूगोल के अच्छे शिक्षक होने के साथ वैद्य भी थे। विद्यालय में हमेशा एक प्राथमिक चिकित्सा का किट बना कर रखते और अक्सर उस का उपयोग करते। घर पर बहुत सी दवाएँ हमेशा रखते। परिजनों के साथ वे मित्रों आदि की चिकित्सा भी करते। दवाई की कीमत कभी न लेते। वे अच्छे स्काउट भी थे। अक्सर अपने क्षेत्र में लगने वाले प्रत्येक स्काउट केम्प के मुख्य संचालक होते।
नुशासनहीनता उन्हें बर्दाश्त न थी। इस कारण मुझे उन से अनेक बार पिटना पड़ा। पिटाई करते समय वे बहुत बेरहम हो जाते। फिर भी मुझे कभी उन से शिकायत न हुई। उन की आँखों में जो प्रेम होता था, वह सब कुछ भुला देता था। पिताजी मेरा जन्मदिन हमेशा मनाते, शंकर जी का अभिषेक कराते, ब्राह्मणों को भोजन कराते और उन के मित्रों को भी। मुझे भी कुछ न कुछ उपहार अवश्य ही मिलता था। कुछ बड़ा हुआ तो पिताजी के नौकरी पर बाहर रहने के कारण घर के बहुत से काम मुझे ही करने पड़ते। वे जब भी आते हमेशा दादी और दादाजी की सेवा में लगे रहते। मैं सोचता था कि पिताजी के सेवानिवृत्त हो जाने के उपरांत मैं भी पिताजी और अम्माँ की ऐसे ही सेवा करूंगा। लेकिन मुझे पिताजी के सेवानिवृत्त होने के पहले ही बाराँ छोड़ कर वकालत के लिए कोटा आना पड़ा। पिताजी ने मुझे ऐसा करने से रोका नहीं। बहुत बाद में मुझे यह अहसास हुआ कि वे मेरे इस फैसले से खुश न थे। सेवानिवृत्त होने पर वे बाराँ रहने लगे। तब वे स्वैच्छिक काम करना चाहते थे। लेकिन उन के पूर्व विद्यार्थियों ने उन से आग्रह किया कि वे कम से कम उन की बेटियों को अवश्य पढ़ाएँ। वे फिर पढ़ाने लगे। लड़कियाँ घर पढ़ने आतीं। उन का घर बेटियों से भरा रहने लगा। एक रात मुझे खबर मिली कि वे हमें छोड़ कर चले गए। तब उन की उम्र बासठ वर्ष की ही रही होगी। मुझे हमेशा यह अवसाद रहेगा कि मुझे उन की सेवा का अवसर न मिला। परिस्थितियाँ ऐसी रहीं कि माँ भी अभी तक मेरे साथ नहीं रह सकीं। 

कुछ दिन पूर्व आयोजन में हाडौ़ती/हिन्दी के ख्यात कवि/गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा से मुलाकात हुई। मैं जब भी उन से मिलता हूँ लगता है अपने पिताजी के सामीप्य में हूँ। जिस वर्ष मेरा जन्म हुआ था तब वे और पिताजी एक ही स्कूल में अध्यापक थे। वहाँ दोनों ने मिल कर अध्यापकों द्वारा ट्यूशन पढ़ाने की प्रथा को तोड़ा था और वे दोनों विद्यार्थियों को अपने घर बुला कर निशुल्क पढ़ाने लगे थे। हाड़ा जी साहित्य अकादमी के एक कार्यक्रम में झालावाड़ से पधारे थे। कार्यक्रम के तुरंत बाद उन्हें झालावाड़ जाना था। मैं ने उन्हें अपनी कार में बस स्टेंड तक छोड़ने का प्रस्ताव किया। वे राजी हो गए। इस तरह मुझे कुछ घड़ी अपने पिता के एक साथी के साथ रहने का अवसर मिला। मुझे अहसास हुआ कि जैसे पिताजी भी कहीं समीप ही हैं। 

षाढ़ मास के शुक्लपक्ष की द्वितिया देश, दुनिया में रथयात्रा के रूप में मनाई जाती है। पिताजी का जन्म इसी दिन हुआ था। हम इस दिन को हमेशा पिताजी के जन्मदिन के रूप में मनाते।  इस दिन घर में चावल, अमरस बनते और पूरा परिवार इकट्ठे हो कर भोजन करता। आज भी हम ने घर में चावल, अमरस बना है साथ में अरहर की दाल है।  हम भोजन करते हुए पिताजी को स्मरण कर रहे हैं।

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

'विकल्प' सृजन सम्मान 2011 वरिष्ठ साहित्यकार रघुराज सिंह हाड़ा को

दैनिक भास्कर के कोटा संस्करण में आज यह खबर छपी है -
वरिष्ठ साहित्यकार रघुराजसिंह हाड़ा होंगे सम्मानित 
‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच की ओर से नववर्ष एवं मकर संक्रांति के अवसर पर 14 जनवरी को दोपहर 1:30 बजे श्रीपुरा स्थित शमीम मंजिल पर ‘सृजन सद्भावना समारोह 2011’ का आयोजन होगा। विकल्प के सचिव शकूर अनवर ने बताया कि इस वर्ष विकल्प का सृजन सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार रघुराजसिंह हाड़ा (झालावाड़) को दिया जाएगा। समारोह के मुख्य अतिथि कवि बशीर अहमद मयूख होंगे। अध्यक्षता अंबिकादत्त, प्रो. हितेश व्यास एवं रोशन कोटवी करेंगे। विशिष्ठ अतिथि मेजर डीएन शर्मा ‘फजा’, प्रो. एहतेशाम अख्तर, निर्मल पांडेय, दुर्गाशंकर गहलोत, टी विजय कुमार व रिजवानुद्दीन होंगे। सम्मान समारोह के बाद वृहद काव्य गोष्ठी का आयोजन होगा, जिसमें हाड़ौती अंचल के प्रमुख कवि एवं शायरों का काव्यपाठ होगा। संचालन चांद शेरी एवं हलीम आईना करेंगे। सृजन सम्मान वाचन कृष्णा कुमारी करेंगी तथा सद्भावना वक्तव्य अरुण सेदवाल देंगे।
जी, हाँ! हर मकर संक्रांति पर शकूर 'अनवर' के घर 'शमीम मंजिल' पर एक हंगामा समारोह होता है। शांति के प्रतीक श्वेत कपोतों की उड़ानें, फिर आसमान में इधर-उधर गोते खाती, पेंच लड़ाती पतंगों में शामिल होती शमीम मंजिल की पतंगें, गुड़-तिल्ली की मिठाइयाँ और चावल-दाल की खिचड़ी, हाड़ौती अंचल के किसी कवि-साहित्यकार का सम्मान और काव्यगोष्टी। पिछले वर्ष के इस हंगामा समारोह के चित्र और रिपोर्ट यहाँ मौजूद हैं।
यह चित्र पिछले साल के समारोह का है, जिस में दिखाई दे रहे हैं शकूर 'अनवर', महेन्द्र 'नेह',बशीर अहमद मयूख श्रीमती लता, ऐहतेशाम अख़्तर और चांद शेरी डॉ. कमर जहाँ बेगम का शॉल ओढ़ा कर सम्मान करते हुए। इस में मैं भी हूँ जनाब अब इसे पहेली समझते हुए बताइए कि कहाँ हूँ, पहेली का जवाब इस साल के समारोह की रिपोर्ट में देखियेगा।
ब आप सोच रहे होंगे कि ऊपर वाली खबर में भी दिनेशराय द्विवेदी तो कहीं हैं ही नहीं। तो भाई, इस खबर में सिर्फ कवियों के नाम छपे हैं। बाकी सारे काम तो अपने ही जिम्मे हैं, जैसे पतंग उड़ाना, तिल्ली-गुड़ के लड्डू और खिचड़ी उदरस्थ करना और फोटो उतारना। आ सकें, तो आप भी आएँ, यह एक आनंदपूर्ण दिन होगा।

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

हुकुम! मुझे ईनाम नहीं मिलेगा?

ल जयपुर यात्रा हुई। मुझे और बार कौंसिल सदस्य और पूर्व अध्यक्ष महेश गुप्ता जी दोनों को जाना था। तय हुआ कि जबलपुर जयपुर दयोदय एक्सप्रेस पकड़ेंगे। उस का समय सुबह 8.15 पर कोटा से रवाना होने का है। मैं सात बजे घर से कार लेकर निकला महेश जी के घर उसे पार्क किया और ऊपर उन के यहाँ पहुँचा तो जनाब अभी स्नान किए बिना बैठे अखबार देख रहे थे। मेरे पहुँचते ही तुरंत बेटे को टिकट लाने की कह बाथरूम में घुसे। तैयार होने पर नाश्ता किया गया। मुझे भी टोस्ट के साथ कॉफी मिली। घर से आ कर दो ऑटोरिक्षा बारगेनिंग में छोड़े तीसरे में बैठ स्टेशन पहुँचे। आठ बज रहे थे। ट्रेन को अब तक प्लेटफॉर्म पर पहुँच जाना चाहिए था। लेकिन प्लेटफॉर्म खाली था। हाँ वहाँ सूचना अवश्य थी कि ट्रेन किसी भी समय आ सकती है। पौने नौ बजे ट्रेन पहुँची। हम सीधे एक आधे खाली स्लीपर में जा कर बैठ गए। नौ बजे ट्रेन चली। हमारी बैठक जयपुर में एक बजे थी। ट्रेन ही पौन घंटे लेट चली थी तो हमें भी पहुँचने में इतनी ही देरी हो सकती थी। कुछ ही देर में कंडक्टर आ गया। उसने टिकट को स्लीपर में बदल दिया। दोनों की रात की नींद शेष थी। लेकिन अब हम वैधानिक रूप से बर्थ पर आराम कर सकते थे। पर कुछ देर पढ़ते रहे। मैं ने महेश जी को लेटने के लिए बोला तो कहने लगे -माधोपुर में बड़े खा कर लेटेंगे। घंटे भर में सवाई माधोपुर पहुँच गए। महेश जी तुरंत उतर गए और कुछ देर में मूंग के बड़े ले कर लौटे। कहने लगे एक दम तो नहीं पर कुछ गर्म जरूर मिल गए हैं। बड़े (वड़ा) खा कर हम दोनों लेट गए कब नींद लगी पता नहीं। नींद खुली तो ट्रेन जयपुर के बाईस गोदाम स्टेशन पर खड़ी थी। वहाँ से हाईकोर्ट नजदीक था। मैं ने वहीं उतरने को कहा। लेकिन हम कुछ सोचते उस के पहले ही ट्रेन चल पड़ी। महेश जी ने आराम से कहा -हम जंक्शन पर ही उतरेंगे, वहाँ से वापसी का टिकट लेंगे फिर हाईकोर्ट चलेंगे। ट्रेन जयपुर जंक्शन पहुँची तो बिलकुल समय पर थी। पौन घंटे की देरी को उस ने कवर कर लिया था। 
यपुर में हाईकोर्ट में अपनी बैठक निपटा कर हम ने काका जी हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति पानाचंद जी जैन से मिलना तय किया। उन्हें कोटा में सभी काका जी कहते हैं। हम ने दोपहर का भोजन किया और उन के कार्यालय पहुँचे। काका जी जब कोटा में वकालत में थे तो महेश जी उन के कनिष्ट थे और वकालत के आरंभ में मेरे तो तीन मुकदमों में से दो में वे खिलाफ वकील हुआ करते थे। उन से भिड़ते-भिड़ते ही मैं ने वकालत सीखी थी। बहुत दिनों के बाद हमें देख कर काका जी बहुत प्रसन्न हुए। वहाँ हमें कॉफी पीने को मिली। करीब एक घंटे हम उन से बातें करते रहे। फिर शाम साढ़े पाँच की दयोदय एक्सप्रेस पकड़ कर रात नौ बजे कोटा स्टेशन पर उतर गए। इस मुलाकात में काका जी ने राजस्थान के एक मुख्य न्यायाधीश का संस्मरण सुनाया जिसे आप के साथ बांटता हूँ ---
........... वे हाई कोर्ट में वकालत कर रहे थे। हाईकोर्ट जज नियुक्त करने हेतु उन का नाम  प्रस्तावित किया गया था। नियुक्ति की प्रक्रिया में पुलिस वेरीफिकेशन आवश्यक था। हाईकोर्ट ने राज्य के आई.जी. को इस के लिए पत्र भेजा। आई. जी. पुलिस ने इसे जिले के एस.पी. को और एस.पी ने इसे संबंधित पुलिस थाने को अग्रेषित कर दिया। थानाधिकारी ने एक सिपाही को जाँच करने भेजा। सिपाही सीधा वकील साहब के घऱ पहुँचा और घंटी बजा दी। 
कील साहब अदालत से लौटे ही थे। खुद ही दरवाजा खोला और सामने सिपाही को देख कर चौंके। पूछा -कैसे आए? सिपाही ने बताया कि हाईकोर्ट से आप का पुलिस वेरीफिकेशन आया है, उसी के लिए आया था। वकील साहब बोले उस के लिए तो आप को थाने का रिकार्ड देखना पड़ेगा और पडौस में पूछताछ करनी होगी। सिपाही ने कहा बात तो आप की सही है। वकील साहब ने कहा -भाई जिस से भी पूछताछ करनी हो कर लो। उन्हों ने दरवाजा बंद किया और अंदर आ गए।
तीन-चार मिनट बाद ही फिर घंटी बज उठी। वकील साहब ने फिर दरवाजा खोला तो वही सिपाही बाहर खड़ा था। उस से पूछा -भाई! अब क्या रह गया है। सिपाही बड़ी मासूमियत से बोला -हुकुम! अब तो आप हाईकोर्ट के जज हो जाएँगे। मैं पुलिस वेरीफिकेशन के लिए आया हूँ मुझे ईनाम नहीं मिलेगा? ..........
फिर क्या हुआ यह काका जी ने नहीं बताया। इतना जरूर पता है कि वे वकील साहब हाईकोर्ट के जज ही न बने मुख्य न्यायाधीश हो कर सेवानिवृत्त हुए।

रविवार, 17 जनवरी 2010

जब इतिहास जीवित हो उठा

1976 या 77 का साल था। मैं बी. एससी. करने के बाद एलएल.बी कर रहा था। उन्हीं दिनों राजस्थान प्रशासनिक सेवा के लिए पहली और आखिरी बार प्रतियोगी परीक्षा में बैठा। मैं ने अपने विज्ञान के विषयों के स्थान पर बिलकुल नए विषय इस परीक्षा के लिए चुने थे। उन में से एक भारत की प्राचीन संस्कृति और उस का इतिहास भी था। इस विषय का चयन मैं ने इसलिए किया था कि मैं इस विषय पर अपने पुस्तकें पढ़ चुका था जिन में दामोदर धर्मानंद कौसम्बी और के.एम. पणिक्कर की पुस्तकें प्रमुख थीं और जिन्हों ने मुझे प्रभावित किया था। कौसंबी जी की पुस्तक मुझे अधिक तर्कसंगत लगती थी जो साक्ष्यों का सही मूल्यांकन करती थी।
मैं इस विषय का पर्चा देने के लिए परीक्षा हॉल में बैठा था। घंटा बजते ही हमें प्रश्नपत्र बांट दिए गए। मैं उसे पढ़ने लगा। पहला ही प्रश्न था। "वर्तमान हिन्दू धर्म पर आर्यों के धर्म और सिंधु सभ्यता के धर्म में से किस का अधिक प्रभाव है? साक्ष्यों का उल्लेख करते हुए अपना उत्तर दीजिए।" 
मैं उस प्रश्न को पढ़ते ही सोच में पड़ गया। मैं ने इस दृष्टि से पहले कभी नहीं सोचा था। मैं ने अपने अब तक के समूचे अध्ययन पर निगाह दौड़ाई तो उत्तर सूझ गया कि मौजूदा हिन्दू धर्म पर आर्यों के धर्म की अपेक्षा सिंधु सभ्यता के धर्म का अधिक प्रभाव है।यहाँ तक कि सिंधु सभ्यता के धर्म के जितने प्रामाणिक लक्षण इतिहासकारों को मिले हैं वे सभी आज भी हिन्दू धार्मिक रीतियों में मौजूद हैं। जब कि हमारे हिन्दू धर्म ने आर्यों के धर्म के केवल कुछ ही लक्षणों को अपनाया है। मैं सभी साक्ष्यों पर विचार करने लगा। मुझे लगा कि मैं उस युग में पहुँच गया जब आर्यों का सिंधु सभ्यता के निवासियों से संघर्ष हुआ होगा। दोनों के धर्म, संस्कृति और क्रियाकलाप एक फिल्म की तरह मेरे मस्तिष्क में दिखाई देने लगे। जैसे मैं उन्हें अपनी आँखों के सामने प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। उक्त वर्णित दो प्रामाणिक पुस्तकों के अलावा एक पुस्तक मुझे स्मरण आ रही थी जिस ने इस दृष्यीकरण ( visualisation) का काम किया था। वह पुस्तक थी डॉ. रांगेय राघव का ऐतिहासिक उपन्यास "मुर्दों का टीला"

मैं ने आगे के प्रश्नों को पढ़े बिना ही प्रश्न का उत्तर लिखना आरंभ कर दिया। मूल उत्तर पुस्तिका पूरी भर गई, उस के बाद एक पूरक  उत्तर पुस्तिका भर गई और दूसरी पूरक उत्तरपुस्तिका के दो पृष्ठ लिख देने पर उत्तर पूरा हुआ। इस उत्तर में मैं सारे साक्ष्यों की विवेचना के साथ साथ इतिहास के तर्कशास्त्र के सिद्धांतो को भी अच्छी तरह लिख चुका था। मैं आगे के प्रश्नों को पढ़ता उस से पहले ही घंटा बजा। मैं ने घड़ी देखी दो घंटे पूरे हो चुके थे। केवल एक घंटा शेष था, जिस में मुझे चार प्रश्नों के उत्तर लिखने थे। मैं ने शेष प्रश्नों में से चार को छाँटा और उत्तर पुस्तिका में नोट लगाया कि - मैं पहले प्रश्न का उत्तर विस्तार से लिख चुका हूँ और इतिहास व उस के तर्कशास्त्र से संबद्ध जो कुछ भी मैं इस पहले प्रश्न के उत्तर में लिख चुका हूँ उसे अगले प्रश्नों के उत्तर में पुनः नहीं दोहराउंगा। शेष प्रश्नों के उत्तर के लिए केवल पौन घंटा समय शेष है इस लिए मैं उत्तर संक्षेप में ही दूंगा। मैं ने शेष प्रश्न केवल दो-दो पृष्ठों में निपटाए। समय पूरा होने पर उत्तर पुस्तिका दे कर चला आया । मैं सोचता था कि मैं पचास प्रतिशत अंक भी कठिनाई से ला पाउंगा। लेकिन जब अंक तालिका आई तो उस में सौ में से 72 अंक मुझे मिले थे। इन अंको का सारा श्रेय डॉ. रांगेय राघव की पुस्तक " मुर्दों का टीला" को ही था।
डॉ. रांगेय राघव जिन का आज 87 वाँ जन्मदिन है। मात्र 39 वर्ष की उम्र में ही कर्कट रोग के कारण उन्हें काल ने हम से छीन लिया। इस अल्पायु में ही उन्हों ने इतनी संख्या में महत्वपूर्ण पुस्तके लिखीं थीं कि कोई प्रयास कर के ही उन के समूचे साहित्य को एक जीवन में पढ़ सकता है। बहुत लोगों ने उन की पुस्तकों से बहुत कुछ सीखा है। उन की पुस्तकें आगे भी पढ़ी जाएंगी और लोग उन से कुछ न कुछ सीखते रहेंगे।

वे मेरे अनेक गुरुओं में से एक हैं। उन्हें उन के जन्मदिवस पर शत शत प्रणाम !


उन की पुस्तकों की एक सूची मैं यहाँ चस्पा कर रहा हूँ --

रांगेय राघव की कृतियाँ
उपन्यास    
घरौंदा • विषाद मठ • मुरदों का टीला • सीधा साधा रास्ता • हुजूर • चीवर • प्रतिदान • अँधेरे के जुगनू • काका • उबाल • पराया • देवकी का बेटा • यशोधरा जीत गई • लोई का ताना • रत्ना की बात • भारती का सपूत • आँधी की नावें • अँधेरे की भूख • बोलते खंडहर • कब तक पुकारूँ • पक्षी और आकाश • बौने और घायल फूल • लखिमा की आँखें • राई और पर्वत • बंदूक और बीन • राह न रुकी • जब आवेगी काली घटा • धूनी का धुआँ • छोटी सी बात • पथ का पाप • मेरी भव बाधा हरो • धरती मेरा घर • आग की प्यास • कल्पना • प्रोफेसर • दायरे • पतझर • आखीरी आवाज़ •
कहानी संग्रह    
साम्राज्य का वैभव • देवदासी • समुद्र के फेन • अधूरी मूरत • जीवन के दाने • अंगारे न बुझे • ऐयाश मुरदे • इन्सान पैदा हुआ • पाँच गधे • एक छोड़ एक
काव्य    
अजेय • खंडहर • पिघलते पत्थर • मेधावी • राह के दीपक • पांचाली • रूपछाया •
नाटक    
स्वर्णभूमि की यात्रा • रामानुज • विरूढ़क       

रिपोर्ताज
तूफ़ानों के बीच
आलोचना    
भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका • भारतीय संत परंपरा और समाज • संगम और संघर्ष • प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास • प्रगतिशील साहित्य के मानदंड • समीक्षा और आदर्श • काव्य यथार्थ और प्रगति • काव्य कला और शास्त्र • महाकाव्य विवेचन • तुलसी का कला शिल्प • आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम और शृंगार • आधुनिक हिंदी कविता में विषय और शैली • गोरखनाथ और उनका युग •


शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

प्रकृति के त्यौहार मकर संक्रांति पर एक स्थाई सद्भावना समारोह

कर संक्रांति का धर्म से क्या रिश्ता है? यह तो आप सब को जानते हुए पूरा सप्ताह हो चुका है। टीवी चैनलों ने इसी बात को बताने में घंटों जाया किया है। ऐसा लगता था जैसे वे इस देश को कोई नई जानकारी दे रहे हों। सब को पता था कि मकर संक्रांति पर उन्हें क्या करना था? घरों पर महिलाओं ने बहुत पहले ही तिल-गुड़ के व्यंजन तैयार कर रखे थे। बाजार के लोगों ने पहले ही दुकानों से चंदा कर दुपहर में भंडारों की व्यवस्था कर ली थी। बच्चे पहले ही पतंगें और माँझे ला कर घर में सुरक्षित रख चुके थे। गाँवों में जहाँ अब भी पतंगों का रिवाज नहीं है, खाती से या खुद ही लकड़ी को बसैलों से छील कर गिल्ली-डंडे तैयार रखे थे। यह सब करने में किसी ने जात और धरम का भेद नहीं किया था। ये सब काम सब घरों में चुपचाप हो रहे थे। पतंग-माँझा बनाने और बेचने के व्यवसाय को करने वालों में अधिकांश मुस्लिम थे। संक्रांति का पर्व उन के घरों की समृद्धि का कारण बन रहा हो कोई कारण नहीं कि उन के यहाँ तिल्ली-गुड़ के व्यंजन न बनते हों।


मकर संक्रांति पर उड़ती पतंगें

लेकिन संक्रांति तो सूर्य की, या यूँ कहें कि समूची पृथ्वी की है।  सूर्य जो हमारी आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा करता है उसे केवल आधुनिक दूरबीनों से सजी वेधशालाओं से ही देखा जा सकता है। लेकिन हमारी धरती सूरज के गिर्द जो परिक्रमा करती है उसे  मापने का तरीका है कि आकाश के विस्तार को हमने 12 भागों में बांट कर प्रत्येक भाग को राशि की संज्ञा दे दी। अब पृथ्वी की परिक्रमा के कारण सूरज आकाश के विस्तार में हर माह एक राशि का मार्ग तय करता  और दूसरी राशि में प्रवेश करता दिखाई है। एक राशि से दूसरी राशि में सूर्य के इस आभासी प्रवेश को हम संक्रांति कहते हैं। अब सूरज न तो हिन्दू देखता है और न मुसलमान और न ही ईसाई। वह तो सभी का है। तो संक्रांति भी सभी की हुई, न कि किसी जाति और धर्म विशेष की। हम ही हैं जो इन प्राकृतिक खगोलीय घटनाओं को अपने धर्मों से जोड़ कर देखते हैं। यूँ यह एक ऋतु परिवर्तन का त्योहार है। शीत की समाप्ति की घोषणा। अब दिन-दिन दिनमान बढ़ता जाता है, सूरज की रोशनी पहले से अधिक मिलने लगती है और शीत से कंपकंपाते जीवन को फिर से नया उत्साह प्राप्त होने लगता है। ऐसे में हर कोई जो भी जीवित है उत्साह से क्यों न भर जाए।

शकूर 'अनवर' के मकान की छत पर पतंग उड़ाती लड़कियाँ

मेरे घर तिल्ली-गुड़ के व्यंजन भी बने और अपनी संस्कृति के मुताबिक शोभा (पत्नी) ने परंपराओं को भी निभाया। दुपहर उस ने मंदिर चलने को कहा तो वहाँ भी गया। बहुत भीड़ थी वहाँ। हर कोई पुण्य कमाने में लगा था। मंदिर के पुजारी का पूरा कुनबा लोगों के पुण्य कर्म से उत्पन्न भौतिक समृद्धि को बटोरने में लगा था। राह में अनेक स्थानों पर भंडारे भी थे। दोनों ही स्थानों पर विपन्न और भिखारी टूटे पड़े थे। सड़कों पर बच्चे बांस लिए पतंगें लूटने के लिए आसमान की ओर आँखें टिकाए थे और किसी पतंग के डोर से कटते ही उस के गिरने की दिशा में दौड़ पड़ते थे।

मकर संक्रांति पर सद्भावना समारोह का एक दृश्य

मारे नगर के उर्दू शायर शक़ूर अनवर के घर मकर संक्रांति पर्व पर खास धूमधाम रहती है। वहाँ इस दिन दोपहर बाद एक खास समारोह होता है जिस में नगर के हिन्दी, उर्दू और हाड़ौती के साहित्यकार एकत्र होते हैं। शक़ूर भाई का पूरा परिवार मौजूद होता है। वे इस दिन किसी न किसी साहित्यकार का सम्मान करते हैं। सब से पहले मकान की तीसरी मंजिल की छत पर जा कर शांति के प्रतीक सफेद कबूतर छोड़े जाते हैं। उस के बाद उड़ाई जाती हैं पतंगें जिन पर सद्भाव के संदेश लिखे होते हैं। फिर आरंभ होता है सम्मान समारोह। सम्मान के उपरांत एक काव्यगोष्टी होती है जो शाम ढले तक चलती रहती है जिस में हिन्दी-उर्दू-हाड़ौती के कवि अपनी रचनाएँ सुनाते हैं। इस मौके पर सब को शक़ूर भाई के घर की खास चाय पीने को तो मिलती ही है। साथ ही मिलती है गुड़-तिल्ली से बनी रेवड़ियाँ और गज़क। शक़ूर भाई के यहाँ संक्रांति पर होने वाले इस सद्भावना समारोह को इस बरस नौ साल पूरे हो गए हैं। शकूर भाई की मेजबानी में इस समारोह का आयोजन  "विकल्प जन सांस्कृतिक मंच" की कोटा नगर इकाई करती है। 


महेन्द्र 'नेह' और शकूर 'अनवर'

ल मैं जब शक़ूर भाई के घर पहुँचा तो कबूतर छोड़े जा चुके थे और पतंग उड़ाने का काम जारी था। जल्दी ही मेहमान पतंगों को एक-एक दो-दो तुनकियाँ दे कर नीचे उतर आए और पतंगों की डोर संभाली शकूर भाई की बेटियों ने। वे पतंगें उड़ाती रहीं। फिर आरंभ हुआ सम्मान समारोह। जिस में कोटा स्नातकोत्तर महाविद्यालय (जो इसी साल से कोटा विश्वविद्यालय का अभिन्न हिस्सा बनने जा रहा है) के उर्दू विभाग की प्रमुख  डॉ. कमर जहाँ बेगम को उन के उर्दू आलोचना साहित्य में योगदान के लिए सद्भावना सम्मान से सम्मानित किया गया। इस अवसर पर खुद शकूर अनवर साहब की रचनाओं की पुस्तिका "आंधियों से रहा मुकाबला" का लोकार्पण किया गया। समारोह की अध्यक्षता प्रोफेसर ऐहतेशाम अख़्तर और हितेश व्यास ने की। मुख्य अतिथि वेद ऋचाओं के हिन्दी प्रस्तोता कवि बशीर अहमद मयूख और कथाकार श्रीमती लता शर्मा थीं। बाद में हुई गोष्ठी में  पहले लता जी ने अपनी कहानी 'विश्वास' का पाठ किया और फिर मेजर डी एन शर्मा, अखिलेश अंजुम, अकील शादाब, पुरुषोत्तम यक़ीन, हलीम आईना, डॉ. जगतार सिंह, डॉ. नलिन वर्मा, चांद शेरी, ओम नागर, गोपाल भट्ट, नरेंद्र चक्रवर्ती, ड़ॉ. कंचन सक्सेना, नारायण शर्मा, नईम दानिश, सईद महवी, मुकेश श्री वास्तव, गोविंद शांडिल्य, यमुना नारायण और महेन्द्र नेह आदि ने काव्य पाठ किया। गोष्ठी का सफल संचालन आर.सी. शर्मा 'आरसी' ने किया। विकल्प की ओर से सभी अतिथियों को विकल्प प्रकाशन की पुस्तिकाएँ भेंट की गईं।

अतिथि और शकूर भाई के परिवार की महिलाएँ

कूर भाई का घर जहाँ स्थित है वहाँ आसपास घनी मुस्लिम आबादी है। लगभग दूर दूर तक सभी घऱ मुसलमानों के हैं। लेकिन जब मैं ने देखा तो पाया कि आस पास की शायद ही कोई छत हो जहाँ लड़के, लड़कियाँ, महिलाएँ और पुरुष पतंगें उड़ाने में मशगूल न हों। सभी में संक्रान्ति का उत्साह देखते बनता था। मुझे लगा कि शायद सारे शहर की सब से अधिक पतंगें इसी मोहल्ले से उड़ रही थीं। मैं ने पूछा भी तो शकूर भाई के बेटे ने कहा। संक्रांति पर सब से अधिक पतंगें हमारे ही मुहल्ले से उड़ती हैं। दुनिया बेवजह ही प्रकृति के इस त्योहार को एक धरम की अलमारी के एक खाँचे में बंद कर सजा देना चाहती है।
इस अवसर पर मैं ने कुछ चित्र भी लिए, आप की नज्र हैं।



डॉ. जगतार सिंह, पुरुषोत्तम 'यक़ीन', मैं स्वयं और डॉ. कमर जहाँ बेगम



शकूर 'अनवर', महेन्द्र 'नेह',बशीर अहमद मयूख श्रीमती लता, ऐहतेशाम अख़्तर
और चांद शेरी डॉ. कमर जहाँ बेगम का शॉल ओढ़ा कर सम्मान करते हुए




श्रीमती लता शर्मा अपनी कहानी का पाठ करते हुए


शकूर 'अनवर' की पुस्तिका का लोकार्पण

बुधवार, 4 नवंबर 2009

रेलवे प्लेटफॉर्म पर ठण्ड में सात घंटे

बेटा वैभव की एमसीए पूरी हुए चार माह हो चुके हैं उस का कैंपस चयन हुआ था। लेकिन प्लेसमेंट के लिए पहले कॉलेज वाले अक्टूबर का समय दे रहे थे। जब अक्टूबर नजदीक आने लगा तो उन्हों ने जनवरी-फऱवरी का समय दे दिया। उस के लिए बैठा रहना कठिन हो गया। अनेक लोगों ने सलाह दी कि उसे बंगलूरु जाना चाहिए। वहाँ उसे इस से पहले भी नियोजन मिल सकता है। आखिर उस ने रेल में आरक्षण करवा लिया। उस की गाड़ी 2 नवम्बर को 22:50 पर थी। लेकिन जयपुर में इंडियन ऑयल कारपोरेशन के डिपो में लगी आग ने जयपुर-कोटा मार्ग को बाधित कर दिया। हमने जानकारी की तो पता चला कि गाड़ी अजमेर-चित्तौड़गढ़ होते हुए 3 नवम्बर को एक बजे कोटा पहुँचेगी। हमें अनुमान था कि गाड़ी में और देरी हो सकती है। इस कारण नेट पर जानकारी लेनी चाही तो वहाँ केवल यह जानकारी उपलब्ध थी कि गाड़ी को जयपुर-कोटा के बीच दूसरे मार्ग पर डाल दिया गया है। टेलीफोन कोई उठा नहीं रहा था। आखिर मैं और पत्नी शोभा रात्रि सवा बारह घर से निकल लिए और करीब पौन बजे स्टेशन पहुँचे। कार पार्क कर के जैसे ही प्लेटफॉर्म टिकट लेने पहुँचे तो पता लगा गाड़ी तीन बजे आने की संभावना है।

म असमंजस में थे कि दो घंटा यहाँ प्रतीक्षा की जाए या 12 किलोमीटर वापस घर जाया जाए? फिर वहीं प्लेटफॉर्म पर प्रतीक्षा करना उचित समझा। प्लेटफार्म पर बहुत सी सवारियाँ गाड़ी के इंतजार में थीं। हम ने भी एक बैंच खाली देख कर वहाँ अपना अड्डा़ जमाया। यह स्थान प्लेटफार्म के एक कोने में था और चारों ओर से खुला था। वहीं एक महिला भी इसी गाड़ी की प्रतीक्षा में थी। वह झारखंड से आयी थी यहाँ कोचिंग ले रही अपनी बेटी से मिल कर बंगलूरु जा रही थी। उसे छोड़ने के लिए तीन लड़के आए थे जो उस की बेटी के सहपाठी थे। कुछ ही देर में हमारे लिए सर्दी बढ़ गई हवा चलती तो लगता आज जरूर बीमार हो लेंगे। सब लोग सर्दी का कुछ न कुछ इंतजाम किए थे। मैं सफारी में और शोभा साधारण साड़ी ब्लाउज में चले आए थे, वैभव भी केवल टी-शर्ट पहने था। कोटा में दो तरह के इलाके हैं, तालाब के दक्षिण में मौसम गर्म होता है और उत्तर  में कम से कम तीन चार डिग्री ठंडा। हमारे निवास पर ठंड़ी बिलकुल नहीं थी।  यहाँ हवा हलकी सी भी चलती तो कंपकंपी छूटने लगती। अधिक चली तो वैभव को तो उस के बैग में से जरकिन निकलवा कर पहनवा दी, हालांकि वह मना करता रहा था। मुझे सर्दी का इलाज यही नजर आया कि बैंच पर बैठने के बजाय प्लेटफार्म पर चहल कदमी करते रहा जाए।

यपुर की ओर से आने वाली तमाम गाड़ियाँ पाँच से आठ घंटे देरी से चलना बताया जा रहा था। शेष सभी गाडियाँ समय पर थीं। यहाँ तक कि एक गाड़ी तो समय से करीब 35 मिनट पहले ही प्लेटफार्म पर आ गई और समय से पाँच मिनट पहले ही चल भी दी। हर घंटे चार-पांच गाड़ियाँ स्टेशन से छूट रही थीं। मुझे पहली बार इस बात का अहसास हुआ था कि कोटा इतना व्यस्त स्टेशन हो गया है। इस बीच पत्नी के सुझाव पर हम पिता-पुत्र ने एक बार कॉफी पी जो केवल गर्म थी वरना उसे कॉफी कहना कॉफी का अपमान होता। पत्नी कुछ परेशान दिखी पूछा तो पता लगा उसे शौच जाने की जरूरत है। स्टेशन के शौचालय पहुँचे तो वहाँ बड़े खूबसूरत रात्रि में चमकने वाले पट्ट पर अंकित था कि स्नानघर का एक रुपए में, शौचालय का 50 पैसे में और मूत्रालय का निशुल्क प्रयोग किया जा सकता था। मैं सोच में पड़ गया कि इसे 50 पैसे कैसे दूंगा। वह सिक्का तो कोटा के लिए कभी का अजनबी हो चुका है और रुपया ही इकाई हो चला है। शोभा को शौचालय का प्रयोग करना था। चौकीदार इतनी गहरी नींद में था कि उसे अच्छी तरह हिलाने पर भी वह फिर से सो गया। पत्नी निपट कर बाहर निकली तो मैं ने उसे पैसे देने के लिए जगाने लगा तो पास बैठा एक होमगार्ड ने कहा -पाँच रुपए? मैंने उसे कहा -वहाँ तो 50 पैसा लिखा है। उस ने बताया कि वह बोर्ड तो बाबा आदम के जमाने का है। मैं ने सोचा शायद तब का हो जब ज्ञानदत्त जी इस स्टेशन पर पदस्थापित रहे हों। मेरे पास पांच-दस का नोट-सिक्का न था। मैं ने सौ का नोट पकड़ाया तो होमगार्ड को लड़के को जगाना पड़ा। सौ का नोट पकड़ते ही उस की नींद तत्काल उड़ गई। उस ने टेबल की दराज में लगा ताला खोला और मुझे 95 रुपए वापस दिए। उस से पूछा कि उसे इतनी नींद कैसे आ रही है? तो बताने लगा कि वह चौबीस घंटे का नौकर है और उसे 2000 रुपए मात्र हर महिने मिलते हैं और ठेकेदार को कम से कम आठ सौ रुपए रोज की उगाही देनी होती है। इस से कम हो तो तनख्वाह में से काट लेता है। वह चौबीसों घंटे स्टेशन पर रहता है। बस दिन में दो-चार बार इस स्थान से इधर-उधऱ होता है तो स्टेशन का कोई भी कर्मी उस की जिम्मेदारी देख लेता है। वहीं कुर्सी टेबल पर ही वह नींद भी निकाल लेता है।

म वापस बैंच पर आ गए थे। तीन बजने को ही थे कि घोषणा हुई कि ट्रेन अब पाँच बजे आएगी। हवा तेज हो चली थी, ठंड बढ़ गई थी। उसी मात्रा में रेल पर गुस्सा आने लगा था कि क्या रेल वाले गाड़ी की देरी का अनुमान लगा कर नहीं बता सकते कि वह कितनी लेट हो सकती है। कम से कम यात्री तब तक अपने ठिकानों पर तो रह सकते थे। मैं फिर प्लेटफार्म पर लेफ्ट-राइट करने लगा। दीगर गा़ड़ियाँ आती-जाती रहीं। पाँच भी बज गए लेकिन गाड़ी अब भी नदारद थी। पास की महिला कंबल में सिकुड़े बैठी थी। अब देरी उस की भी बर्दाश्त के बाहर जा रही थी। उसे छोड़ने आए लड़कों को उस ने विदा कर दिया था।  उस ने बोला -भाई साहब जरा इन्क्वाइरी से तो पूछ आओ कि ट्रेन कब आएगी? आएगी भी कि नहीं?

मैं और वैभव पुल पार कर पूछताछ पर आए तो वहाँ पहले ही चार-पाँच  पूछताछ करने वाले थे और जवाब देने वाले एक स्त्री और एक पुरुष। स्त्री बुरी तरह झल्लाई हुई और गुस्से में थी और तीन चार पूछताछ वालों को बेवकूफ कह रही थी। जब सब लोगों ने पूछताछ कर ली तो मैं ने अपनी गाड़ी के बारे में पूछा तो उस का जवाब था -वहाँ डिस्प्ले बोर्ड पर देखो। मैं ने उसे कहा कि वहाँ तो तीन बार समय बढ़ चुका है। मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ कि यह अब इतना ही रहेगा या और दो चार-बार आगे बढ़ाया जाएगा? इस सवाल पर महिला और झल्ला गई बोली -जयपुर में पाँच दिन से आग लगी है वह तो बुझाई नहीं जा रही है। हम से गाड़ियों के बारे में पूछते हैं। आएगी तभी आएगी। मैंने उसे इतना ही कहा कि रेलवे को इधर से निकलने वाली गाड़ियों के बारे में सब पता है। वे इतना तो अनुमान कर ही सकते हैं कि कौन सी गाड़ी निकलने में कितना समय लेगी? वही बता दें। उस में घंटा आध घंटा देरी हो जाए तो कोई बात नहीं। वह फिर बोल उठी -हमारे पास जो सूचना आती है वह बता देते हैं। आप उद्घोषणा पर ध्यान रखिए। उस से अधिक कुछ पूछना ठीक न था। उसे कुछ  भी अनुमान न था। मैं ने डिस्प्ले बोर्ड पर निगाह दौड़ाई तो वहाँ हमारी गाड़ी पौने छह बजे आने की संभावना रोशन हो रही थी।

मैं ने वापस आ कर उस महिला को बताया कि वहाँ पौने छह के लिए लिखा है, पर यह केवल संभावना है। साढ़े पाँच बजे अचानक गाड़ी के कोच दर्शाने वाले बोर्डों पर हमारी गाड़ी का नंबर दिखा तो हम आशान्वित हो उठे कि अब गाड़ी पोने छह नहीं तो छह तक तो आ ही लेगी। हमने बैंच त्याग दी और जहाँ हमारा डिब्बा दिखाया जा रहा था वहाँ आ खड़े हुए। छह बजे तक कोच स्थिति दिखाई जाती रही। फिर बोर्ड बुझ गए। कुछ देर बाद गाड़ी आती दिखाई दी तो हम बिलकुल तन कर खड़े हो गए। पास आने पर पता लगा वह कोई अन्य पैसेंजर गाड़ी थी। वह आधे घंटे खड़ी रह कर चल दी। फिर पौने सात बजे फिर कोच स्थिति दिखने लगी। राम-राम करते गाड़ी पौने सात प्लेटफार्म पर लगी। वैभव को बैठाया। गाड़ी ने सात बीस पर स्टेशन छोड़ा तो हम ने वापस घर की तरफ प्रस्थान किया। तब तक सूरज बहुत ऊपर आ चुका था। ठंड से पैर और पीठ अकड़ चुकी थी। प्लेटफार्म पर टहलने के कारण पिंडलियाँ बुरी तरह दर्द कर रही थीं। शोभा से पूछा तो उस का भी यही हाल था। मैं ने उसे बताया कि घर पहुँचते ही अदरक वाली गर्म कॉफी पिएंगे उस के बाद एकोनाइट-200 की एक-एक खुराक खा कर सोएँगे। घर पहुँचने पर यह सब किया, फिर गृहणी तो घर संभालने में लगी। मैं ने दिन के काम की रूप रेखा देखी और पीछे के कमरे में कंबल ओढ़ कर सो गया। मुश्किल से दो घंटे सोया उस में भी चार बार फोन घनघनाहट ने व्यवधान किया लेकिन हमने उस की उपेक्षा की। अभी भी लग रहा है कि हम दोनों को सामान्य होने में एक-दो दिन लगेंगे। रात साढे़ ग्यारह पर वैभव ने फोन पर बताया कि गाड़ी दो घंटे और पीछे हो गई है और नागपुर के पहले किसी छोटे अनजान स्टेशन पर खड़ी है।