@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: जज
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शनिवार, 22 अक्टूबर 2022

जज, या ............... ?

कोलिसिस्टेक्टोमी (पित्ताशय उच्छेदन) का ऑपरेशन 8 अक्तूबर 2022 को हुआ, 10 अक्तूबर को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। पाँच दिन बाद दिखाने को कहा गया। मैं 15 अक्तूबर को खुद कार ड्राइव करके डाक्टर को दिखाने गया तो टाँके हटा दिए गए। अदालत जाने की इजाजत मिल गयी। लेकिन न झुकने का प्रतिबंध था। फिर भी मैं 17 अक्तूबर को अदालत चला गया। चैम्बर में बैठा, कैन्टीन चाय पीने के लिए भी गया। लेकिन किसी अदालत में पैरवी के लिए नहीं गया। शाम को घर लौटा तो थकान से लगा कि अभी मुझे कम से कम एक सप्ताह और अदालत जाने से बचना चाहिए। मैंने तय किया कि अब दीवाली के बाद ही अदालत जाउंगा। अपने घर वाले ऑफिस में बैठ कर ही केस स्टडी करता रहा। लेकिन बुधवार 19 अक्तूबर को ही अदालत जाने की नौबत आ गयी।

हुआ ये कि उस दिन मेरे दो केस लगे हुए थे, मुझे इसबात की पूरी आशंका थी कि मौजूदा जज साहब ये मुकदमे हमें सुने बिना ही खारिज कर देंगे। जब कि यह कानून के मुताबिक गलत था। मैंने उस दिन अदालत जाने का निश्चय किया और अपने सहायक यादव को कहा कि वह 12 बजे तक मेरे मुकदमों की स्थिति बताए। तो यादव ने मुझे बताया कि रीडर से पूछने पर उसने कहा है कि उन केसेज को तो खारिज करने का आदेश कर दिया गया है। जब यादव ने उससे कहा कि हमें बिना सुने ऐसा कैसे हो सकता है। तो उसने कहा कि सब मुकदमों में यही तो हो रहा है। उसने जज साहब से बात करने को कहा। जब यादव ने जज साहब से बात की तो उन्होंने रीडर को निर्देश दिया कि इनके इस तरह के सारे मुकदमे दिसंबर के अंत में एक साथ लगा दो। इस पर रीडर ने हमारे मुकदमों में दिसम्बर अन्त की तारीख दे दी। यादव ने कहा भी कि वे इस बिन्दु पर बहस के लिए अदालत आने को तैयार हैं तो जज साहब ने कहा कि उनका आपरेशन हुआ है यहाँ आना उनके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। उन्हें यहाँ क्यों बुला रहे हैं।

मुकदमों में अगली तारीख मिल जाने पर मेरा अदालत जाना जरूरी नहीं रह गया था। लेकिन मुझे एक बात कचोट रही थी कि मेरे मुकदमे खारिज होने से बच जाएंगे लेकिन बहुत सारे मजदूरों के केस खारिज कर दिए जाएंगे। उन्हें उच्च न्यायालय से निर्णय बदलवाकर लाना होगा। एक मजदूर के लिए श्रम न्यायालय में मुकदमा लड़ना बेहद खर्चीला और श्रम साध्य होने के कारण दूभर होता है। उसके लिए उच्च न्यायालय जाने की सोचना ही प्राणलेवा होता है। मैंने अदालत जाना और जज से उसी दिन बहस करना उचित समझा। मैं सूचना मिल जाने के बावजूद अदालत पहुँच गया। मैंने यादव को फाइल लेकर अदालत में तैयार रहने को कहा था। जैसे ही मैं अदालत में जा कर बैठा, जज की मुझ पर निगाह पड़ी। तत्काल वह हड़बड़ाया हुआ दिखाई दिया।

असल में मामला यह था कि केन्द्र सरकार ने 2016 में पाँच कानून पास करके हजार से भी अधिक कानूनों, संशोधन कानूनों को निरस्त (निरसन) और संशोधित कर दिया था। उसमें एक कानून औद्योगिक विवाद (संशोधन) अधिनियम (2010) भी था। इस संशोधन के माध्यम से एक मजदूर को उसकी सेवा समाप्ति के विरुद्ध समझौता अधिकारी के यहाँ शिकायत प्रस्तुत करने और 45 दिनों की अवधि में श्रम विभाग के समझौता कराने में असफल रहने पर सीधे श्रम न्यायालय को अपना दावा प्रस्तुत करने का अधिकार मिला था। इस अधिकार के 2016 में समाप्त हो जाने पर 2016 से अब तक पिछले 6 सालों में अदालत में इस कानून के तहत पेश किए गए सभी मुकदमे खारिज हो जाने थे। इन मुकदमों की संख्या सैंकड़ों में है। जज का कहना था कि त्रिपुरा और बंगाल उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि संशोधन कानून का निरसन हो जाने से मूल कानून औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 जिस में संशोधन करके प्रावधान जोड़े गए उसमें से वे संशोधन भी खारिज हो गए हैं और इसी कारण से उक्त निरसन अधिनियम प्रभावी होने के बाद अदालत में सीधे पेश किए गए मजदूरों के विवाद पूरी तरह से अवैध अकृत हो गए हैं इस कारण उन्हें निरस्त कर दिया जाए।

संशोधन कानूनों के निरसन पर जिस कानून में उस संशोधन कानून के द्वारा संशोधन किया गया था उससे वह संशोधन खारिज हो जाने के बिन्दु पर “जेठानन्द बेताब बनाम दिल्ली राज्य {1960 AIR 89, 1960 SCR (1) 755}” में सुप्रीम कोर्ट ने 15.09.1959 को ही निर्णय दे दिया गया था। इस निर्णय में कहा गया था कि किसी संशोधन कानून का काम पहले से मौजूद किसी पुराने कानून में संशोधन करना होता है। इस संशोधन कानून के प्रभावी होने के बाद वह संशोधन पुराने कानून का हिस्सा बन जाता है। यहीं संशोधन कानून का काम पूरा हो जाता है। वह कानूनों की सूची में अवशेष के रूप में बचा रहता है, उसका कोई उपयोग नहीं रह जाता। उस संशोधन कानून का निरसन कर दिए जाने पर उसका कोई प्रभाव उस पुराने कानून पर नहीं पड़ता जिसे संशोधित किया गया था। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने जनरल क्लॉजेज एक्ट की धारा 6-ए का उल्लेख करते हुए कहा कि इसमें ऐसा ही प्रावधान किया गया है। इसी पूर्व निर्णय का उल्लेख करते हुए दिनांक 29.08.2022 को सुप्रीम कोर्ट ने इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन ऑफ इंडिया बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया एवं अन्य के मामले में पारित निर्णय में फिर से इसी बात को दोहराया है।

जज को पहली फुरसत मिलते देख मैं सामने जा कर खड़ा हुआ तो जज साहब बोले -आप क्यों आए? आपको अभी आराम करना चाहिए। हमने तो आपके मुकदमों में तारीख दे दी है।

-सर¡ उससे क्या होगा? आपने दिसम्बर में तारीख दी है। तब तक तो आप इसी बिन्दु पर दूसरे सैंकड़ों मुकदमे खारिज कर चुके होंगे। जो कानून के हिसाब से गलत फैसला होगा। मेरी ड्यूटी है कि मैं अदालत को गलत निर्णय पारित करने से रोकूँ।

-दूसरे मुकदमों से आपका क्या लेना देना? हम खारिज कर देंगे और उच्च न्यायालय ने इसे गलत बताया तो हम वापस रेस्टोर कर देंगे।

-सर¡ रेस्टोर तो तब कर पाएंगे जब आपको ऐसा करने का क्षेत्राधिकार होगा। इस अदालत को अपने निर्णय रिव्यू करने की पावर नहीं है।

-नहीं है तो क्या? हम फिर भी कर देंगे। आप ही तो कहते रहे हैं कि इस अदालत को इन्हेरेंट पावर है।

-सर¡ रिव्यू की पावर कभी भी इन्हेरेंट नहीं हो सकती।

-तो क्या हुआ, हम फिर भी कर देंगे। जज साहब ने कहा तो मैं दंग रह गया कि कैसे जज अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर भी जा कर आदेश पारित करने को तैयार है।

-ठीक है मेरा तो आपसे आग्रह है कि इस बिन्दु पर आप बहस सुन लें। जहाँ तक मेरा मुकदमा आज नहीं होने की बात है तो मैं ऐसे तमाम मुकदमों में मजदूरों से पावर हासिल कर लूंगा और कल आपके सामने दुबारा इसी बहस के लिए हाजिर होउंगा। तब आप इससे बच नहीं सकते। इससे बेहतर है आप इस बहस को आज ही सुन लें।

-ठीक है सुन लेता हूँ। आखिर जज साहब बहस सुनने को तैयार हो गए।

बहस वही थी, जो मैं ऊपर लिख चुका हूँ। मैंने बहस शुरु की। मैंने उन्हें निरसन कानून की धारा-4 पढ़ाई जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा था। “The repeal by this Act of any enactment shall not effect any other enactment in which the enactment has been applied, incorporated or referred to;”

इस धारा के पढ़ते ही जज साहब बीच में ही बोल पड़े। कि इस कानून को पढ़ कर तो कलकत्ता और त्रिपुरा उच्च न्यायालयों ने निर्णय पारित किए हैं। जिसमें बहुत सारे वकीलों ने बहस की है तो वे गलत कैसे हो सकते हैं?

मैंने उन्हें कहा कि उन दो फैसलों को कुछ देर के लिए भूल जाइए और मेरी बहस सुन लीजिए। मैंने उन्हें सुप्रीम कोर्ट के 1959 में पारित “जेठानन्द बेताब के केस और 29.08.2022 को पारित इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन के मुकदमों का हवाला दिया।

जज साहब ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर बिलकुल ध्यान न देते हुए तर्क दिया जेठानन्द बेताब किसी और कानून के मामले में था और इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन का मुकदमा ग्रेच्युटी एक्ट के मामले में है इन दोनों में औद्योगिक विवाद अधिनियम के बारे में कुछ नहीं कहा है।

मैं ने उन्हें कहा कि ग्रेच्युटी संशोधन अधिनियम को निरस्त किया गया है उसी कानून की उसी सूची में औद्योगिक विवाद संशोधन अधिनियम भी शामिल है और यहाँ प्रश्न किसी खास कानून के निरसन का नहीं है बल्कि संशोधन अधिनियम के निरसन का है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि संशोधन अधिनियम निरसित कर दिए जाने पर जिस एक्ट में उसके द्वारा संशोधन किया गया है उस एक्ट के उस संशोधन पर कोई प्रभाव नहीं होता, वह जीवित रहता है।

जज साहब फिर से कहने लगे त्रिपुरा और कलकत्ता उच्च न्यायालय के जज और वहाँ बहस करने वाले वकील कैसे गलती कर सकते हैं?

मैं ने उन्हें कहा कि गलती तो कोई भी कर सकता है। “अरब के घोड़े प्रसिद्ध होने का मतलब ये नहीं होता कि वहाँ गधे नहीं होते।“

जज साहब ने मुझे घूर कर देखा। फिर रीडर को आदेश दिया कि मैं इस मामले को देखूंगा अभी कुछ दिन इस तरह के मुकदमों में कोई आदेश पारित न किया जाए।

बहस पूरी हुई। मैं अदालत से घर आ गया। उस दिन बहुत थकान हो गयी। अगले दो दिन मैं अदालत नहीं जा सका। अब दीवाली के बाद अदालत जाना हो सकेगा।

पर कल मैंने फिर सुना है कि जज साहब ने सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय को नकार दिया है और कुछ मुकदमे खारिज कर दिए गए हैं।

सवाल यह है कि जज साहब इस तरह की जिन्दा मक्खी क्यों निगल रहे हैं? बात सिर्फ इतनी सी है कि रोज दो मुकदमे खारिज होने से उनका निर्णय का कोटा आसानी से पूरा हो रहा है। वे आसानी से कह भी रहे हैं कि उच्च न्यायालय का निर्णय आने पर मैं उन्हें फिर से रेस्टोर कर दूंगा। पर सैंकड़ों मजदूरों को उच्च न्यायालय जा कर हजारों रुपए खर्च करने होंगे। बहुत से तो अर्थाभाव में जा भी नहीं सकेंगे। लेकिन जज साहब को अपने कोटे की पड़ी है। उन्हें न्याय करने से और मजदूर वर्ग की दुर्दशा से क्या लेना देना?

बुधवार, 20 जुलाई 2011

पेट का दर्द

हुत दिनों के बाद अदालत आबाद हुई थी। जज साहब अवकाश से लौट आए थे। जज ने कई दिनों के बाद अदालत में बैठने के कारण पहले दिन तो काम कुछ कम किया। दो-तीन छोटे-छोटे मुकदमों में बहस सुनी। उसी में 'कोटा' पूरा हो गया। लेकिन वकीलों और मुवक्किलों को पता लग गया कि जज साहब आ गए हैं और अदालत में सुनवाई होने लगी है। लोगों को आस लगी कि अब काम हो जाएगा। इस बार उन के मुकदमे में अवश्य सुनवाई हो जाएगी। जज साहब ने दूसरे दिन कुछ अधिक मुकदमों में सुनवाई की। एक बड़े मुकदमे में भी बहस सुन ली लेकिन वह किसी कारण से अधूरी रह गई। शायद जज साहब ने एक पक्ष के वकील को यह कह दिया कि वे किसी कानूनी बिंदु पर किसी ऊँची अदालत का निर्णय दिखा दें तो वे उन का तर्क मान कर फैसला कर देंगे। वकील के पीछे खड़े मुवक्किल को जीत की आशा बंधी तो उस ने वकील को ठोसा दिया कि वह नजीर पेश करने के लिए वक्त ले ले। वकील समझ रहा था कि जज ने कह दिया है कि यदि ऐसा कोई फैसला ऊँची अदालत का पेश नहीं हुआ तो उस के खिलाफ ही निर्णय होगा। पर मुवक्किल की मर्जी की परवाह तो वकील को करनी होती है। कई बार तो जज कह देता है कि वह उन की बात को समझ गया है, वह वकील को बता भी देता है कि उस ने क्या समझा है। पर फिर भी वकील बहस करता रहता है, ऊँची और तगड़ी आवाज में। तब जज समझ जाते हैं कि वकील अब मुवक्किल को बताने के लिए बहस कर रहा है, जिस से वह उस से ली गई फीस का औचित्य सिद्ध कर सके।  

दूसरे दिन शाम को ही मेरा भी एक मुवक्किल दफ्तर में धरना दे कर बैठ गया। उस का कहना था कि इस बार उस की किस्मत अच्छी है जो जज साहब उस की पेशी के दो दिन पहले ही अवकाश से लौट  आए हैं। वरना कई पेशियों से ऐसा होता रहा है कि उस की पेशी वाले दिन जज साहब अवकाश पर चले जाते हैं या फिर वकील लोग किसी न किसी कारण से काम बंद कर देते हैं। उसे कुछ शंका उत्पन्न हुई तो पूछ भी लिया कि कल वकील लोग काम तो बंद नहीं करेंगे? मैं ने उसे उत्तर दिया कि अभी तक तो तय नहीं है। अब रात को ही कुछ हो जाए तो कुछ कहा नहीं जा सकता है। मैं ने भी मुवक्किल के मुकदमे की फाइल निकाल कर देखी। मुकदमा मजबूत था। वह  पेट दर्द के लिए डाक्टर को दिखाना चाहता था। नगर के इस भाग में एक लाइन से तीन-चार अस्पताल थे। पहले अस्पताल बस्ती की आबादी के हिसाब से होते थे। लेकिन दस-पंद्रह सालों से ऐसा फैशन चला है कि जहाँ एक अस्पताल खुलता है और चल जाता है, उस के आसपास के मकान डाक्टर लोग खरीदने लगते हैं और जल्दी ही अस्पतालों और डाक्टरों का बाजार खड़ा हो जाता है। वह किसी जनरल अस्पताल में जाना चाहता था, उस ने एक अस्पताल तलाश भी लिया था। वह अस्पताल के गेट से अंदर जाने वाला ही था कि उसे एक नौजवान ने नमस्ते किया और पूछा किसी से मिलने आए हैं। जवाब उस ने नहीं उस के बेटे ने दिया -पिताजी को जोरों से पेट दर्द हो रहा है। वे किसी अच्छे डाक्टर को दिखाना चाहते हैं। 

नौजवान ने जल्दी ही उस से पहचान निकाल ली। वह उन की ही जाति का था और उन के गाँव के पड़ौस के गाँव में उसकी रिश्तेदारी थी। उस ने नौजवान का विश्वास किया और उस की सलाह पर उस के साथ  नगर के सब से प्रसिद्ध अस्पताल में पहुँच गया। नौजवान इसी अस्पताल में नौकर था और उस ने आश्वासन दिया था कि वह डाक्टर से कह कर फीस कम करवा देगा। इस अस्पताल में दो-तीन बरसों से धमनियों की बाईपास की जाने लगी थी। देखते ही देखते अस्पताल एक मंजिल से चार मंजिल में तब्दील हो गया था। छह माह से वहाँ एंजियोप्लास्टी भी की जाने लगी थी। उसे एक डाक्टर ने देखा, फिर तीन चार डाक्टर और पहुँच गए। सबने उसे देख कर मीटिंग की और फिर कहा कि उसे तुरंत अस्पताल में भर्ती हो जाना चाहिए,जाँचें करनी पडेंगी, हो सकता है ऑपरेशन भी करना पड़े। उन्हें उस की जान को तुरंत खतरा लग रहा है, जान बच भी गई तो अपंगता हो सकती है। वह तुरंत अस्पताल में भर्ती हो गया। बेटे को पचासेक हजार रुपयों के इन्तजाम के लिए दौड़ा दिया गया। जाँच के लिए उसे मशीन पर ले जाया गया। शाम तक कई कई बार जाँच हुई। फिर उसे एक वार्ड में भेज दिया गया। आपरेशन की तुरंत जरूरत बता दी गई। दो दिनों तक रुपए कम पड़ते रहे, बेटा दौड़ता रहा। कुल मिला कर साठ सत्तर हजार दे चुकने पर उसे बताया गया कि उस का ऑपरेशन तो भर्ती करने के बाद दो घंटों में ही कर दिया गया था। उस की जान बचाने के लिए जरूरी था। फीस में अभी भी पचास हजार बाकी हैं। वे जमा करते ही अस्पताल से उस की छुट्टी कर दी जाएगी। उस के पेट का दर्द फिर भी कम नहीं हुआ था। वह दर्द से कराहता रहता था। डाक्टर और नर्स उसे तसल्ली देते रहते थे। उस ने बेटे से हिंगोली की गोली मंगा कर खाई तो गैस निकल गई, उसे आराम आ गया। उसे लगा कि अस्पताल ने उसे बेवकूफ बनाया है। वह मौका देख बेटे के साथ अस्पताल से निकल भागा। 


दूसरे डाक्टर को दिखाया तो उसे पता लगा कि उस की एंजियोप्लास्टी कर दी गई है, जब कि वह कतई जरूरी नहीं थी। अब तो उसे जीवन भर कम से कम पाँच सात सौ रुपयों की दवाएँ हर माह खानी पडेंगी। उसे लगा कि वह ठगा गया है। उस ने अपने परिचितों को बताया तो लोगों ने अस्पताल पर मुकदमा करने की सलाह दी जिसे उस ने मान लिया। इस तरह वह मेरे पास पहुँचा। मैं ने देखा यह तो जबरन लूट है। बिना रोगी की अनुमति के ऑपरेशन करने का  मामला है। मैं ने मुकदमा किया। साल भर में मुकदमा बहस में आ गया। फिर साल भर से लगातार पेशियाँ बदलती रहीं। मैं भी सोच रहा था कि कल यदि बहस हो जाए तो मुकदमे में फैसला हो जाए। 

गले दिन मैं, मेरा मुवक्किल और डाक्टरों व बीमा कंपनी के वकील अदालत में थे। जज साहब बता रहे थे कि बड़ी लूट है। उन का एमबीबीएस डाक्टर बेटा पीजी करना चाहता था। बमुश्किल उसे साठ लाख डोनेशन पर प्रवेश मिल सका है। रेडियोलोजी में प्रवेश लेने के लिए एक छात्र को तो सवा करोड़ देने पड़े। वैसे भी आजकल एमबीबीएस का कोई भविष्य नहीं है, इसलिए पीजी करना जरूरी हो गया है। ये कालेज नेताओं के हैं, और ये सब पैसा उन की जेब में जाता है। अब डाक्टर इस तरह पीजी कर के आएगा तो मरीजों को लूटेगा नहीं तो और क्या करेगा? मैं समझ नहीं पा रहा था कि जज लूट को अनुचित बता रहा है या फिर उस का औचित्य सिद्ध कर रहा है। 


खिर हमारे केस में सुनवाई का नंबर आ गया। जज ने मुझे आरंभ करने को कहा। तभी डाक्टरों का वकील बोला कि पहले उस की बात सुन ली जाए। मैं आरंभ करते करते रुक गया। डाक्टरों का वकील कहने लगा -वह कल देर रात तक एक समारोह में था। इसलिए आज केस तैयार कर के नहीं आ सका है। आज इन की बहस सुन ली जाए, वह कल या किसी अन्य दिन उस का उत्तर दे देगा। जज साहब को मौका मिल गया। तुरंत घोषणा कर डाली। आज की बहस अगली पेशी तक कैसे याद रहेगी? मैं तो सब की बहस एक साथ सुनूंगा। आखिर दो सप्ताह बाद की पेशी दे दी गई। मैं अपने मुवक्किल के साथ बाहर निकल आया। मेरा मुवक्किल कह रहा था। अच्छा हुआ, आज पेशी बदल गई। अब इस जज के सामने बहस मत करना। यह  दो माह में रिटायर हो लेगा। फिर कोई दूसरा जज आएगा उस के सामने बहस करेंगे। मैं उसे समझा रहा था कि आने वाले जज का बेटा या दामाद भी इसी तरह डाक्टरी पढ़ रहा हआ तो क्या करेंगे? इस से अच्छा है कि बहस कर दी जाए। यदि जज गलत फैसला देगा तो अपील कर देंगे। मुवक्किल ने मेरी बात का जवाब देने के बजाय कहा कि अभी पेशी में दो हफ्ते हैं, तब तक हमारे पास सोचने का समय है कि क्या करना है?

मंगलवार, 10 मई 2011

मुख जोशीला है ग़रीब का

स कवि सम्मेलन में आए अधिकतर कवि लोकभाषा हाडौ़ती के थे। एक गौरवर्ण वर्ण लंबा और भरी हुई देह वाला कवि उन में अलग ही नजर आता था। संचालक ने उसे खड़ा करने के पहले परिचय दिया तो पता लगा वह एक वकील भी है। फिर जब उस ने तरन्नुम के साथ कुछ हिन्दी गीत सुनाए तो मैं उन का मुरीद हो गया। कोई छह सात वर्ष बाद जब मैं खुद वकील हुआ तो पता लगा वे वाकई कामयाब वकील हैं। कई वर्षों तक साथ वकालत की। फिर वे राजस्थान उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हो गए। वहाँ से सेवा निवृत्त होने के बाद सुप्रीमकोर्ट में वकालत शुरू की तो सरकार ने उन्हें विधि आयोग का सदस्य बना दिया। वे राजस्थान उच्च न्यायालय के निवर्तमान न्यायाधीश न्याय़ाधिपति शिव कुमार शर्मा हैं। उच्च न्यायालय के अपने कार्यकाल में उन्हों ने दस हजार से ऊपर निर्णय हिन्दी में लिखाए हैं। साहित्य जगत में लोग इन्हें कुमार शिव के नाम से जानते हैं। आज अभिभाषक परिषद कोटा में एक संगोष्ठी उन के सानिध्य में हुई। जिस में भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के दुरुपयोग और उसे रोके जाने और प्रभावी बनाए जाने के लिए सुझाव आमंत्रित किए गए थे। 

मुझे उन की 1978 में प्रकाशित एक संग्रह से कुछ  ग़ज़लें मिली हैं, उन्हीं में से एक यहाँ प्रस्तुत है-

कुमार शिव की एक 'ग़ज़ल'

सूरज पीला है ग़रीब का
आटा गीला है ग़रीब का

बन्दीघर में फँसी चान्दनी
तम का टीला है ग़रीब का

गोदामों में सड़ते गेहूँ
रिक्त पतीला है ग़रीब का

सुर्ख-सुर्ख चर्चे धनिकों के 
दुखड़ा नीला है ग़रीब का 

स्वर्णिम चेहरे झुके हुए हैं
मुख जोशीला है ग़रीब का  



मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

वाह! सांसद जी ........ वाह ! ...... कमाल किया आप ने ! ...... अब जरा तैयार हो जाइए!

सासंद जी,
प हर बार इलाके में वोट मांगने आए। कुछ ने आप का विश्वास किया,  कुछ को आपने जैसे-तैसे-ऐसे-वैसे पटाया। आप के पिटारे में लाखों वोट इकट्ठे होते रहे और आप संसद में जाते रहे। वहाँ गए तो आप ने संविधान की कसम ली कि आप देश की जनता की भलाई के लिए काम करेंगे। आप वहाँ गए थे, सरकार चुने जाने के लिए नफरी बढ़ाने, कानून बनाने पर अपनी मोहर लगाने, जनता की बात कहने और उस के लिए लड़ने के लिए, जनता को न्याय दिलाने के लिए। पर क्या आप का कर्तव्य यह भी नहीं बनता था क्या कि आप कानून के रखवाले भी बने रहें। आप के सामने कानून की धज्जियाँ उड़ गईं, आप उन धज्जियों को घोल कर पी गए और  बीस बरस तक सांस भी नहीं ली। इस बीच आप न जाने क्या क्या कहते रहे, लेकिन यह बात कैसे इतने दिन पची रही। आप को कभी उलटी नहीं आई?

सांसद जी,
प के लिहाज से शायद यह पुण्य का काम था कि दारू की दुकानें बंद न हों, गरीब लोग परेशान न हों, दारू के अभाव में जहरीली दारू पी कर न मरें। इसीलिए आप की जुबान पर अब तक ताला पड़ा रहा। अब आपने जुबान खोली भी है तो उस जज का नाम नहीं बता रहे हैं, जिसे वह 21 लाख रुपए दिए गए थे। आप ये भी कह रहे हैं कि आप के पास साबित करने को सबूत नहीं हैं। आप ने व्यर्थ ही इतने बरसों तक बात को छुपाए रखने की मशक्कत की, वरना उस अपराध के सब से पहले सबूत तो आप ही थे। आप! लाखों की जनता के चुने हुए प्रतिनिधि, संसद सदस्य। इस सबूत को तो आपने ही नष्ट कर दिया, इस तरह आप ने अपराध किया। फिर इतने बरसों तक आप ने इस बात को छुपा कर एक और अपराध किया। अपराधी तो आप भी हैं ही। पर यह सब करने की जरूरत आप को क्या थी? 

सांसद जी, 
हीं ऐसी बात तो नहीं कि वे सभी दारूवाले आप के मिलने वाले हों, आप को चुनाव जीतने के लिए भारी-भरकम चंदा दिया हो, आप को सांसद बनाने में बड़ी भूमिका अदा की हो। आप को अपने इन हमदर्दों पर दया आ गई हो कि दुकानें बंद हो जाएंगी तो क्या खाएंगे? जिन्दा कैसे रहेंगे? अगला चुनाव कैसे लड़ेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि जज साहब और इन दारूवाले मित्रों के बीच की कड़ी आप ही हों, और इसीलिए यह बात इतने दिन इसी लिए छुपा रखी हो।

सांसद जी,
र आप यह कैसे भूल गए कि आप उसी राज्य के सांसद हैं, जिस राज्य ने इन दुकानों को बंद करने का आदेश दिया था? आप यह कैसे भूल गए कि आप के प्रान्त से  एक जज हुए थे सु्प्रीम कोर्ट में, वी.आर. कृष्णा अय्यर और वे अभी तक जीवित ही नहीं हैं सक्रिय भी हैं। फिर भी आप ने यह बात खोल दी। अब मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि इस बात को खोलने के पीछे आप की मंशा क्या है? या फिर आप की मजबूरी क्या है? लेकिन अब आपने बात खोल ही दी है तो भुगतना तो पड़ेगा ही। थाने में आप के खिलाफ अपराध दर्ज हो गया है। ये सवाल मैं नहीं पूछ रहा हूँ, बल्कि बता रहा हूँ कि ऐसे ही सवाल पुलिस आप से पूछने वाली है। जरा तैयार हो जाइए!

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

जज के पिता और भाई की हत्या - राजस्थान में बिगड़ती कानून और व्यवस्था

राजस्थान में कानून और व्यवस्था की गिरती स्थिति का इस से बेजोड़ नमूना और क्या हो सकता है कि एक पदासीन जज के वकील पिता और वकील भाई की दिन दहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी गई। गोली बारी में जज की माँ और उस का एक अन्य वकील भाई और उस की पत्नी गंभीर रूप से घायल हैं। 
ह घटना भरतपुर जिले के कामाँ कस्बे में गुरुवार सुबह आठ बजे घटित हुई। कुछ नकाबपोशों ने घर में घुस कर गोलीबारी की जिस में बहरोड़ में नियुक्त फास्ट ट्रेक जज रामेश्वर प्रसाद रोहिला के वकील पिता खेमचंद्र और वकील भाई गिर्राज की हत्या कर दी गई। जज के एक भाई राजेन्द्र और उस की पत्नी व जज की माँ इस घटना में गंभीर रूप से घायल हो गई हैं। इस घटना का समाचार मिलते ही कस्बे में कोहराम मच गया और भरतपुर जिले में वकीलों में रोष व्याप्त हो गया जिस से समूचे जिले में अदालतों का कामकाज ठप्प हो गया।  हा जा रहा है कि ये हत्याएँ जज के पिता खेमचंद और उस के पड़ौसी के बीच चल रहे भूमि विवाद के कारण हुई प्रतीत होती हैं।
दि यह सच भी है तो भी हम सहज ही समझ सकते हैं कि राज्य में लोगों का न्याय पर से विश्वास उठ गया है और वे अपने विवादों को हल करने के लिए हिंसा और हत्या पर उतर आए हैं। इस से बुरी स्थिति कुछ भी नहीं हो सकती। जब राज्य सरकार इस बात से उदासीन हो कि राज्य की जनता को न्याय मिल रहा है या नहीं, इस तरह की घटनाओं का घट जाना अजूबा नहीं कहा जा सकता। राज्य सरकार आवश्यकता के अनुसार नयी अदालतें स्थापित करने में बहुत पीछे है। राजस्थान में अपनी आवश्यकता की चौथाई अदालतें भी नहीं हैं। जिन न्यायिक और अर्ध न्यायिक कार्यों के लिए अधिकरण स्थापित हैं और जिन का नियंत्रण स्वयं राज्य सरकार के पास है वहाँ तो हालात उस से भी बुरे हैं। श्रम विभाग के अधीन जितने पद न्यायिक कार्यों के लिए स्थापित किए गए हैं उन के आधे भी अधिकारी नहीं हैं। दूसरी और कृषि भूमि से संबंधित मामले निपटाने के लिए जो राजस्व न्यायालय स्थापित हैं उन में प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं। उन पर प्रशासनिक कार्यों का इतना बोझा है कि वे न्यायिक कार्ये लगभग न के बराबर कर पाते हैं। राजस्व अदालतों की तो यह प्रतिष्ठा जनता में है कि वहाँ पैसा खर्च कर के कैसा भी निर्णय हासिल किया जा सकता है।  
दि राज्य सरकार ने शीघ्र ही प्रदेश की न्यायव्यवस्था में सुधार लाने के लिए कड़े और पर्याप्त कदम न उठाए तो प्रदेश की बिगड़ती कानून व्यवस्था और बिगड़ेगी और उसे संभालना दुष्कर हो जाएगा। इस घटना से प्रदेश भर के वकीलों और न्यायिक अधिकारियों में जबर्दस्त रोष है और शुक्रवार को संभवतः पूरे प्रदेश में वकील काम बंद रख कर अपने इस रोष का इजहार करेंगे।

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

हुकुम! मुझे ईनाम नहीं मिलेगा?

ल जयपुर यात्रा हुई। मुझे और बार कौंसिल सदस्य और पूर्व अध्यक्ष महेश गुप्ता जी दोनों को जाना था। तय हुआ कि जबलपुर जयपुर दयोदय एक्सप्रेस पकड़ेंगे। उस का समय सुबह 8.15 पर कोटा से रवाना होने का है। मैं सात बजे घर से कार लेकर निकला महेश जी के घर उसे पार्क किया और ऊपर उन के यहाँ पहुँचा तो जनाब अभी स्नान किए बिना बैठे अखबार देख रहे थे। मेरे पहुँचते ही तुरंत बेटे को टिकट लाने की कह बाथरूम में घुसे। तैयार होने पर नाश्ता किया गया। मुझे भी टोस्ट के साथ कॉफी मिली। घर से आ कर दो ऑटोरिक्षा बारगेनिंग में छोड़े तीसरे में बैठ स्टेशन पहुँचे। आठ बज रहे थे। ट्रेन को अब तक प्लेटफॉर्म पर पहुँच जाना चाहिए था। लेकिन प्लेटफॉर्म खाली था। हाँ वहाँ सूचना अवश्य थी कि ट्रेन किसी भी समय आ सकती है। पौने नौ बजे ट्रेन पहुँची। हम सीधे एक आधे खाली स्लीपर में जा कर बैठ गए। नौ बजे ट्रेन चली। हमारी बैठक जयपुर में एक बजे थी। ट्रेन ही पौन घंटे लेट चली थी तो हमें भी पहुँचने में इतनी ही देरी हो सकती थी। कुछ ही देर में कंडक्टर आ गया। उसने टिकट को स्लीपर में बदल दिया। दोनों की रात की नींद शेष थी। लेकिन अब हम वैधानिक रूप से बर्थ पर आराम कर सकते थे। पर कुछ देर पढ़ते रहे। मैं ने महेश जी को लेटने के लिए बोला तो कहने लगे -माधोपुर में बड़े खा कर लेटेंगे। घंटे भर में सवाई माधोपुर पहुँच गए। महेश जी तुरंत उतर गए और कुछ देर में मूंग के बड़े ले कर लौटे। कहने लगे एक दम तो नहीं पर कुछ गर्म जरूर मिल गए हैं। बड़े (वड़ा) खा कर हम दोनों लेट गए कब नींद लगी पता नहीं। नींद खुली तो ट्रेन जयपुर के बाईस गोदाम स्टेशन पर खड़ी थी। वहाँ से हाईकोर्ट नजदीक था। मैं ने वहीं उतरने को कहा। लेकिन हम कुछ सोचते उस के पहले ही ट्रेन चल पड़ी। महेश जी ने आराम से कहा -हम जंक्शन पर ही उतरेंगे, वहाँ से वापसी का टिकट लेंगे फिर हाईकोर्ट चलेंगे। ट्रेन जयपुर जंक्शन पहुँची तो बिलकुल समय पर थी। पौन घंटे की देरी को उस ने कवर कर लिया था। 
यपुर में हाईकोर्ट में अपनी बैठक निपटा कर हम ने काका जी हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति पानाचंद जी जैन से मिलना तय किया। उन्हें कोटा में सभी काका जी कहते हैं। हम ने दोपहर का भोजन किया और उन के कार्यालय पहुँचे। काका जी जब कोटा में वकालत में थे तो महेश जी उन के कनिष्ट थे और वकालत के आरंभ में मेरे तो तीन मुकदमों में से दो में वे खिलाफ वकील हुआ करते थे। उन से भिड़ते-भिड़ते ही मैं ने वकालत सीखी थी। बहुत दिनों के बाद हमें देख कर काका जी बहुत प्रसन्न हुए। वहाँ हमें कॉफी पीने को मिली। करीब एक घंटे हम उन से बातें करते रहे। फिर शाम साढ़े पाँच की दयोदय एक्सप्रेस पकड़ कर रात नौ बजे कोटा स्टेशन पर उतर गए। इस मुलाकात में काका जी ने राजस्थान के एक मुख्य न्यायाधीश का संस्मरण सुनाया जिसे आप के साथ बांटता हूँ ---
........... वे हाई कोर्ट में वकालत कर रहे थे। हाईकोर्ट जज नियुक्त करने हेतु उन का नाम  प्रस्तावित किया गया था। नियुक्ति की प्रक्रिया में पुलिस वेरीफिकेशन आवश्यक था। हाईकोर्ट ने राज्य के आई.जी. को इस के लिए पत्र भेजा। आई. जी. पुलिस ने इसे जिले के एस.पी. को और एस.पी ने इसे संबंधित पुलिस थाने को अग्रेषित कर दिया। थानाधिकारी ने एक सिपाही को जाँच करने भेजा। सिपाही सीधा वकील साहब के घऱ पहुँचा और घंटी बजा दी। 
कील साहब अदालत से लौटे ही थे। खुद ही दरवाजा खोला और सामने सिपाही को देख कर चौंके। पूछा -कैसे आए? सिपाही ने बताया कि हाईकोर्ट से आप का पुलिस वेरीफिकेशन आया है, उसी के लिए आया था। वकील साहब बोले उस के लिए तो आप को थाने का रिकार्ड देखना पड़ेगा और पडौस में पूछताछ करनी होगी। सिपाही ने कहा बात तो आप की सही है। वकील साहब ने कहा -भाई जिस से भी पूछताछ करनी हो कर लो। उन्हों ने दरवाजा बंद किया और अंदर आ गए।
तीन-चार मिनट बाद ही फिर घंटी बज उठी। वकील साहब ने फिर दरवाजा खोला तो वही सिपाही बाहर खड़ा था। उस से पूछा -भाई! अब क्या रह गया है। सिपाही बड़ी मासूमियत से बोला -हुकुम! अब तो आप हाईकोर्ट के जज हो जाएँगे। मैं पुलिस वेरीफिकेशन के लिए आया हूँ मुझे ईनाम नहीं मिलेगा? ..........
फिर क्या हुआ यह काका जी ने नहीं बताया। इतना जरूर पता है कि वे वकील साहब हाईकोर्ट के जज ही न बने मुख्य न्यायाधीश हो कर सेवानिवृत्त हुए।

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

अकर्मण्यता का शिकार एक बेहद बकवास अदालती दिन

ल का दिन बहुत बकवास और फालतू दिन था, कम से कम मेरे लिए। कुल छह मुकदमे थे। सारे के सारे अन्तिम बहस के लिए निश्चित थे। मैं ने सभी मुकदमों में तैयारी की। इस भरोसे कि मौका मिला तो सभी में अंतिम बहस कर डालूंगा। कम से कम कुछ में तो निर्णय हो सकेगा। लेकिन सब कुछ मेरे अकेले के सोचने से थोड़े ही हो सकता है। एक मुकदमे में मेरे ही सेवार्थी (मुवक्किल) की माँ का देहान्त हो गया था। वह पेशी पर नहीं आ सकता था। सेवार्थी की अनुपस्थिति में मुकदमे में बहस करना कुछ अच्छा नहीं लगता। फिर भी केवल इसलिए कि मुकदमा किनारे लगे, मैं उस में बहस को तैयार था। पता नहीं क्यों उस मुकदमे में जज खुद बहस सुनने को तैयार नहीं। सामने वाला वकील भी एक बजे तक अदालत में नहीं आया। मौका देख कर अदालत ने तारीख बदल दी। इस मुकदमे में मेरे पक्ष की बहस लगभग सुनी जा चुकी है,  वह भी चार बार में पूरी विस्तारित रुप में। अदालत का खुद का मानना था कि अब उस में समय नहीं लगेगा और मैं एक ही दिन में उसे पूरी कर दूँ। निश्चित रूप से मुझे अवसर मिलता तो मैं एक घंटे से भी कम समय में बहस पूरी कर देता। पर क्या कहा जाए? इस मुकदमे  में मेरा सेवार्थी हाईकोर्ट से निर्देश ला चुका है कि दो माह में इस का निर्णय किया जाए। फिर भी किसी न किसी बहाने यह निर्णीत नहीं हो रहा है। निर्देश को लाए छह माह से भी अधिक समय हो चुका है। खैर निर्देश की लाज रखते हुए अदालत ने उस में चार दिन बाद की तिथि बहस हेतु नियत की है।

गला मुकदमा भी उसी अदालत में है और दस वर्ष से चल रहा है। पिछले चार बरस से तो वह अन्तिम बहस में चल रहा है। कोई उसे सुनना ही नहीं चाहता है। बात मामूली है लेकिन न जाने क्यो अदालत उसे भारी समझती है। इस मामले में मेरा सेवार्थी हर पेशी पर आता है और अदालत पर सुनवाई के लिए दबाव बनाता है, वह अदालत को अनेक बार यह कह चुका है कि मुकदमे का निर्णय कर दिया जाए। चाहे उस के विरुद्ध ही क्यों न हो। लेकिन आज यह सेवार्थी भी अदालत नहीं आया। यह कुछ राजनैतिक गतिविधियों में संलग्न रहता है। इन दिनों पंचायतों के चुनाव चल रहे हैं। हो सकता है उसी कारण न आया हो। मुझ से भी उस ने कोई संपर्क नहीं किया। अदालत ने उसे भी गैर हाजिर देख मुकदमे को नहीं सुना।  मैं ने उस में जल्दी की तिथि तय करने की बात कही तो अदालत ने कहा हम खुद जल्दी की तिथि देंगे। लेकिन तिथि तय हुई कोई बयालीस दिन की। लगता है अदालत के जज मूडी होते हैं वे वही करते हैं जो उन्हें करना होता है। इन दोनों मुकदमों में भी यही स्थिति है। इन में समय खपाना पड़ेगा। कम से कम आठ दस घंटों का तब जा कर उन में निर्णय हो सकेगा। अदालत में मुकदमों का अम्बार है। अदालतें ऐसे सर खपाऊ मुकदमों को क्यों सुने?  जब वह मुश्किल से मिनटों के श्रम से कुछ मुकदमों में निर्णय पारित कर सकती है। मनुष्य की हमेशा लालसा रहती है कि कम से कम काम करने पर अधिक से अधिक प्रतिफल और श्रेय मिले। अदालतों के जज इस लालसा से अछूते क्यों रहें?

चार अन्य मुकदमे एक ही न्यायार्थी द्वारा दायर किए हुए हैं जिन में जीवन बीमा निगम से राहत की मांग की गई थी। एक ही प्रकृति के मुकदमे होने और निर्णय के लिए आवश्यक बिंदु सभी मुकदमों में एक ही होने के कारण उन्हें समेकित कर दिया गया था। मै समझता था कि यह आसान काम है और जज इसे जरूर करेगा। लेकिन ये जज साहब भी लगता है काम करने के मूड में नहीं थे। शायद उन्हों ने यह खबर अपने स्टाफ को दे दी थी कि जितने मुकदमों में वकील चाहें पेशी दे दी जाए। अब आवेदक के वकील को पता है कि उस के ये चारों मुकदमे निरस्त होने की संभावना अत्य़धिक प्रबल है तो वह आसानी से बहस करने का मन नहीं बना पा रहा है। उस ने अदालत से समय चाहा और अदालत ने उसे दे दिया। जज साहब को यहाँ भी फिक्र नहीं है। उन के यहाँ छोटे-छोटे काम इतने हैं कि वे केवल फूँक मार दें तो उन से अपेक्षित काम से चार गुना दिखाई देने लगे।

दालतों की संख्या कम होने और हर अदालत में मुकदमों के अंबार ने और उच्च न्यायालय द्वारा  निश्चित किए गए क़ोटा सिस्टम ने उन्हें अकर्मण्य बना दिया है। वे अंबार में से आसान काम तलाशते हैं और अपने निर्धारित कोटे से दो-तीन गुना अधिक काम कर के अपनी परफोरमेंस को श्रेष्ठ बनाने में जुटे रहते हैं। इसे कहते हैं हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा आए। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस दौर में काम करने वाले जज नहीं हैं। एक मुकदमे के अंतिम बहस के स्तर पर पहुँचने के बाद एक पक्षकार का देहांत हो गया। सूचना मिलते ही प्रार्थी ने मृतक पक्षकार के विधिक प्रतिनिधियों को रिकार्ड पर लेने का आवेदन प्रस्तुत किया। सामान्य जज उस पर तुरंत आदेश पारित न कर के उस के लिए कोई आगे की तिथि तय कर देता। लेकिन अदालत के जज ने उसी समय आदेश पारित कर विधिक प्रतिनिधियों को नोटिस जारी करने का आदेश दिया और कहा कि तुरंत प्रोसेस प्रस्तुत करें जिस से अगली तिथि तक उन्हें नोटिस मिल जाएँ। अगले दिन ही मृतक के एक और विधिक प्रतिनिधि का पता लगा और उस के लिए आवेदन दिया गया तो जज ने तुरंत पत्रावली अदालत में मंगा कर उसे भी साथ ही नोटिस जारी करने का आदेश दे दिया। इस मुकदमे की पत्रावली भी अदालत की शायद सब से मोटी  पत्रावली है, लेकिन यह जज उसे शीघ्र सुनवाई कर निर्णय करना चाहता है। उस जज का सभी मुकदमों के प्रति यही व्यवहार है। ऐसे ही कुछ जजों ने शायद न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को बचा रखा है।
जों में जो अकर्मण्यता बढ़ रही है उस का मुख्य कारण अदालतों का पर्याप्त संख्या में न होना और लगभग सभी अदालतों के पास उन की वास्तविक क्षमता से चार-पांच गुना काम का सदैव लंबित रहना है जिस से वे अपने लिए आसान काम का चयन कर लेते हैं और मुश्किल मुकदमे निर्णय के लिए तरसते हुए गिनीज और लिम्का बुकों में रिकार्ड दर्ज कराने की ओर बढ़ते रहते हैं।