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सोमवार, 9 अक्टूबर 2023

इमोजियाँ

पहले मात्र इशारे थे और थे स्वर
व्यंजन सभी भविष्य के गर्भ में छिपे थे
शनैः शनैः मनुष्य ने उच्चारना सीखा
तब जनमें व्यंजन
 
वह पत्थरों पर पत्थरों से
उकेरता था चित्र
वही उसकी अभिव्यक्ति थी

शनैः शनैः चित्र बदलते गए अक्षर लिपियों में
अक्षर लिपियों और उच्चारण के
संयोग से जनमी भाषाएँ

लिखना बदला टंकण में
और कम्प्यूटर के आविष्कार के बाद
चीजें बहुत बदल गईं दुनिया में
अभिव्यक्ति के नए आयाम खुले

अब शब्दों ही नहीं वाक्यों को भी
प्रकट करती हैं इमोजियाँ
लगता है मनुष्य वापस लौट आया है
चित्र लिपियों के युग में

मैंने अपने आप को देखा
मैं खड़ा था बहुत ऊँचे
मैं नीचे झाँका
तो वहाँ बहुत नीचे
ठीक मेरी सीध में दिखाई दिए
आदिम मनुष्य द्वारा अंकित चित्र
और चित्र लिपियाँ

लौट आया था मैं उसी बिन्दु पर
लेकिन नहीं था ठीक उसी जगह
उससे बहुत ऊँचाई पर था।
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रविवार, 7 नवंबर 2021

एक दिए का जलना बहुत भला है

एक दिए का जलना
बहुत भला है

जहाँ अभी हाल के बरसों में
बुझ गए हों अनेक दीपक
महामारी से मरने वालों की संख्या
कम पड़ गई हो
आत्महत्या करने वालों से
उस देश का राजा सदा निन्दनीय रहेगा
इतिहास में
ये दीपमालिकाएं,
चुंधियाती रोशनी वाले लाखों लाख बल्ब
नहीं मिटा पाते अमावस का अंधकार
वह और गहराता जाता है.
तब,
एक दिए का जलना
बहुत भला है.

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

मैंने नहीं, तुमने बुलाया है

मैंने नहीं, तुमने बुलाया है


मैंने नहीं, तुमने बुलाया है
हाहाकार मचा है नगर भर में
एक के पीछे दूसरी, तीसरी
एम्बुलेंस दौड़ती हैं सड़कों पर
जश्न सारे अस्पतालों ने मनाया है
मैंने नहीं, तुमने बुलाया है
ताले पड़े हैं विद्यालयों पर
नौनिहाल सब घरों में बन्द हैं
पसरा है सन्नाटा बाजारों में
कुनबा मुख-पट्टियों ने बढ़ाया है
मैंने नहीं, तुमने बुलाया है
प्राण-वायु की तलाश में
भटकते वाहनों पर इन्सान हैं
फेफड़ों के वायुकोशों पर
डेरा विषाणुओं ने लगाया है
मैंने नहीं, तुमने बुलाया है
सज रही हैं, चिताओं पर चिताएँ
लकड़ियाँ शमशान सबका अभाव है
अपने लिए तुमने अवसर भुनाने को
अतिथि नहीं, दुष्काल बुलाया है
मैंने नहीं, तुमने बुलाया है

- दिनेशराय द्विवेदी

रविवार, 22 मार्च 2020

महापुरुष


एक तरह के लोग सोचते हैं-
कोई है जिसने दुनिया बनाई
फिर दुनिया चलाई
वही है जो दुनिया चला रहा है
वे उसे ईश्वर कहते हैं।

दूसरी तरह के लोग सोचते हैं-
ऐसा कोई नहीं जो दुनिया बनाए और उसे चलाए
दुनिया तो खुद-ब-खुद है
हमेशा से और हमेशा के लिए
वह चलती भी खुद-ब-खुद है
उसके अपने नियम हैं जिनसे वह चलती है
ये लोग जो सोचते हैं
उसे कहते भी हैं और जीते भी हैं।

कुछ तीसरी तरह के लोग हैं
जो सोचते हैं कि कभी कोई ईश्वर रहा होगा
जिसने दुनिया बनाई और चलाई
पर वो कभी का मर चुका है
जीवन ने कीड़े से लेकर वानर तक
और वानर से लेकर पुरुष तक की यात्रा
खुद ही तय की है

वानर के लिए कीड़े का कोई महत्व नहीं
पुरुष के लिए वानर का कोई महत्व नहीं
पुरुष को महापुरुष बनना है
महापुरुष के लिए पुरुषों का कोई महत्व नहीं
वे एक दिन महापुरुष बनेंगे
वे महापुरुष बन रहे हैं
वे महापुरुष बन चुके हैं।

बन चुके महापुरुष सोचते हैं कि मेरे सामने
किसी पुरुष का कोई महत्व नहीं
वे सोचते हैं और अपने इस विचार को जीते भी हैं
लेकिन वे इसे कहते नहीं

वे लोगों को कहते हैं-
ईश्वर कभी नहीं मरता
वह कभी नहीं दिखता
वह कहीँ नहीं आता जाता

मैं उसका पुत्र हूँ
मैं उसका दूत हूँ
मैं उसका अवतार हूँ
तुम मेरे सामने झुको
तुम्हें मेरे सामने झुकना होगा
तुम्हें मेरे सामने झुका दिया जाएगा

ये जो तीसरा व्यक्ति है
खुद-ब-खुद बना हुआ महापुरुष
दुनिया की सबसे खतरनाक चीज है।
कोटा, 22.03.2020
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मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

किस का कसूर

कविता

किस का कसूर 

दिनेशराय द्विवेदी 

जब कोई अस्पताल
मरीज के मर जाने पर भी
चार दिनों तक वेंटिलेटर लगाकर
लाखों रुपए वसूल लेता है
तब किसी डॉक्टर का कोई कसूर नहीं होता।


कसूर होता है अस्पताल का
जिसमें कारपोरेट प्रबंधन होता है
बैंकों से उधार ली गई वित्तीय पूंजी लगी होती है,और
न्यूनतम संभव वेतन पर टेक्नीशियन काम कर रहे होते हैं

वित्तीय पूंजी का स्वभाव यही है
वह अपने लिए इंसानों का खून मांगती है
खून पीती है और दिन-रात बढ़ती है
सारा कसूर इसी वित्तीय पूंजी का है

क्या है यह वित्तीय पूंजी?
जो रुपया हम जैसे छोटे छोटे लोगों ने
अपनी मासिक तनख्वाह से
हाड़तोड़ मेहनत की कमाई से
पेट काटकर बचाया, और
बुरे वक्त के लिए बैंकों में जमा कराया
वहीं वित्तीय पूंजी है

वही रुपया बैंकों ने कंपनियों को
उद्योगों और अस्पतालों को ऋण दिया
और वही ऋणीअब हमारे लिए
बुरा वक्त पैदा कर रहे हैं

इन बैंकों पर सरकारों का नियन्त्रण है
सरकारों पर पूंजीपतियों का
इसलिए किसी डॉक्टर का कसूर नहीं है
अब आप जानते हैं कसूर किसका है?
04.12.2017

बुधवार, 23 नवंबर 2016

ये नौ



महेन्द्र नेह

भाई “महेन्द्र नेह” को ...

उपहार समझ लें


उन के 69वें जन्मदिन पर ...


1.

तुम्हारा पैसा दे दें तुम्हें

तो पूंजीपति को क्या दें?

आखिर बैंक और हम

उसी ने बनाए हैं

2.

वे हैं

जब तक

साजिशों का जाल है।

मौत के ऐलान के बाद

भी जिन्दा बचे हैं

यही तो उन का कमाल है।

3.

भूत कैसे मरे?

मर कर ही तो बनता है।

इसलिए वह उसे

2000 की बोतल में बंद करता है।

4.

बहुत जरूरत है

एक हिटलर एक मुसोलिनी बनाएँ।

न बने, तो

खुद को बनाएँ।

5.

उसके लक्षण ढूंढें

चरक, सुश्रुत, माधव

या हनिमेन की किताब में।

किसी रोग का सूत्र न मिले

लाक्षणिक चिकित्सा करें।

6.

आज कल वह हँसता नहीं

बस बात बात पर रो देता है।

परेशान है

अक्सर आपा खो देता है।

7.

मैं ने नया गेजेट बनाया

इस में गेम है

गेम में सवाल हैं

सवालों के लिए कुछ बटन हैं

हर सवाल पर कोई बटन दबाओ

फिर मैं फैसला करूंगा

मैं जीता कि मैं हारा

कौन उल्लू का पट्ठा

खुद हारना चाहता है?

8.

ताजमहल

एक दुनियावी आश्चर्य

अपने अन्दर समेटे कब्र को

मंदिर

अपने अंदर समेटे एक मूरत

पार्लियामेंट,

न मंदिर न ताजमहल

इस की सीढ़ी चूमो

एप घिसो

इंसान को उल्लू बनाने के

साधन कम नहीं।

9.

असल बात जे है

के हम जिस की भौत इज्जत करैं

उसके पाँव छुएँ हैं

और खसक लेवैं हैं।

और हम

पार्लियामिंट की तो

भौत से भी भौत

इज्जत करैं हैं।


सोमवार, 21 नवंबर 2016

सिकुड़न

कविता



____________ दिनेशराय द्विवेदी





अहा!
वह सिकुड़ने लगा

लोग उसे आश्चर्य से देख रहे हैं
वे भी जो अब तक
उसे सिर पर उठाए हुए थे

कुछ लोग तलाश रहे हैं
कहाँ से पंक्चर हुआ है
वे पकड़ कर
उसे तालाब के पानी में
डूबोना चाहते हैं
देख सकें कि हवा
निकल कहाँ से रही है

वह तालाब में घुस ही नहीं रहा है
सारे लोगों की ताकत कम पड़ गई है
बस सिकुड़ता जा रहा है

उन्हों ने उसे तालाब मे घुसेड़ने
की कोशिश छोड़ दी है

आखिर सिकुड़ते सिकुड़ते एक दिन
हो ही जाएगा पिचका हुआ गुब्बारा
तब बच्चे फुलाएंगे उस की छोटी छोटी चिकोटियाँ
और फिर
मुक्का मार कर फोड़ देंगे

अहा!
वह सिकुड़ने लगा है।

रविवार, 27 दिसंबर 2015

सोए रहो निरन्तर

सोए रहो निरन्तर 




अब ये बात कोई छिपी तो नहीं
न छिप सकती थी और न हम ने छिपाया
हमें किसी ने नहीं, उद्योगपतियों ने बनाया
उन्हों ने पूंजी निवेश किया, जैसा अक्सर वे करते हैं
मुनाफा बटोरने के लिए, अपनी पूंजी को बढ़ाने के लिए
उन्हों ने भरपूर पूंजी लगायी और हम बन गए
कहाँ से कहाँ पहुँच गए। 


अब हम दुनिया घूम रहे हैं
लोगों को लगता है, हम मौज कर रहे हैं
पर हम कहाँ मौज कर रहे हैं?
हम ड्यूटी कर रहे हैं
जो पूंजी लगाई थी उन्होंने वह लौटनी चाहिए उन के पास
इस उद्योग में पूंजी लगाना
कतई नहीं होना चाहिए घाटे का सौदा।


अपनी पूंजी को बहुगुणित करने को
वे ही दौड़ाते है मुझे और मैं दौड़ता हूँ
सुदूर पूरब के उस छोर से सुदूर पश्चिम के उस छोर तक
वे साधन जुटाते हैं, जहाँ जाता हूँ
मेरी जय-जयकार के लिए लोग जुटाते हैं
जब लोग मेंरी जय-जयकार कर रहे होते हैं
तब पूंजी के सवार कर रहे होते हैं सौदेबाजी।


ऐसा नहीं है सिर्फ पूंजी का खयाल है मुझे
तुम्हारा भी रखता हूँ
जब जब मैं होता हूँ देश में जाता हूँ गंगाघाट
उतारता हूँ आरतियाँ, यही नहीं
दूर देश के प्रधानों से भी उतरवा देता हूँ
क्या ये कम है तुम्हारे लिए
तुम्हारी संस्कृति का झण्डा
फहराता है गंगा किनारे
सारी दुनिया देखती है उसे।


अब की बार वे ले गए मुझे सूदूर उत्तर तक
मैं ने देखा वहाँ, आप ने भी देखा ही होगा टीवी पर
एक भूरी रूसी बाला बजाती थी तानपूरा
दूसरी गाती थी वैदिकगान, औउम् गं गणपतये नमः
क्या यह कम है तुम्हारे लिए?
तुम्हारी संस्कृति को ओढ़ रही है,
बिछा रही है सारी दुनिया।


वापस लौटते हुए रुका कैकय में कुछ देर
मुझे पता है वहीँ से आए थे मंथरा और शकुनि
देख कर आया हूँ वहाँ के आज के हाल
फिर रुका कुछ देर इरावती के किनारे
गले मिला बिछड़े हुए भाई से, माँ के पैर छू लिए
माँ, भाई और सभी बन्धु हो लिए गद-गद
इतना समय बहुत था, लोहे वाला अपना सौदा पटा ले
लगता है न देखो सपने सा!

तुम तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे।

मैं न कहता था सब सपने पूरे करूंगा
तो दिखा रहा हूँ सपनों पर सपने
सपने कभी पूरे नहीं होते जागते में
अच्छा सपना देखते हुए बीच में टूट जाए निद्रा
तो जबरन सोना पड़ता है फिर से
ये जो जगाने वाले हैं सब शत्रु हैं तुम्हारे
इन्हें दूर करो खुद से, ये तोड़ देते हें तुम्हारे सपने।


देखो उधर, वहाँ माधव कुछ कह रहा है
सपना चलेगा अखंड भारत होने तक
यह सुखद सपना लंबा है,
यह पूरा हो, इस के लिए जरूरी है
एक लंबे समय की गहरी निद्रा
इस के लिए सोए रहो निरन्तर
कसम उठाओ गंगा की कि नहीं जागोगे बीच में
दरवाजे पर कुण्डी घालो और सो जाओ
प्रवेश न कर सके कोई घर के भीतर जगाने वाला।


-दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 5 सितंबर 2015

डरे न कोई जमना तट पर

सहसमुखी विषधर जब कोई
जमना जल पर काबिज हो ले
उधर पड़े ना पाँव किसी का
जमना तट वीराना हो ले

बच्चे खेलें जा कर तट पर
भय न उन को कोई सताए
खेल खेल में उछले गेंद
सीधी जमना जल में जाए

तब बालक कोई जा कूदे
जमना में हलचल मच जाए
लगे झपटने विषधर उस पर
नटखट बालक हाथ न आए

गाँव गाँव के सब नर नारी
डरें सभी अरु काँपें थर थर
भाग भाग कर होएँ इकट्ठा
पड़े साँप भारी बालक पर

बालक चपल साँप से ज्यादा
चढ़ बैठे विषधर के फण पर
नाच नाच कुचले फण सारे
लगे उसे बस एक घड़ी भर

विवश विषधर सरपट भागे
पीछा छोड़े जमना जल का
हो जाएँ निर्भय तटवासी
जल निर्मल हो फिर जमना का

जब भी अहम् कुण्डली मारे
फुफकारे जब कोई विषधर
डरे न कोई जमना तट पर
चपल हैं बालक इस धरा पर
  •  दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 6 जून 2015

गऊ माँ!

 गऊ माँ


बहुत आसान है
गाय को माँ कहना
अगर आप गाय पालते नहीं हैं


आप गाय पालें
उस का दूध न निकालें
सारा का सारा उस के बछड़ों के लिए छोड़ दें


बछड़ों को बधिया न करें
न उन के कांधे पर हल लादें,न तेली की घाणी,
न रहँट, ना गन्ने का कोल्हू और न बैलगाड़ी खिंचवाएँ 


बछडों और बछिया को भाई बहन कहें
सांडों को बाप, दादा और चाचा, ताऊ मानें
पूरे परिवार को पालें और गाय को माता कहें


इस गौ परिवार में हो जाए कभी गमी
तो खूब स्यापा करें, ले जाएँ कांधों पर उठा कर श्मशान
वैदिक मंत्रों के साथ संस्कार करें


तीया करें, अस्थियों को ले जाएँ हरिद्वार
पंडित से करवाएँ पिण्डदान और फिर
लौट कर तेरहीं करें, ब्राह्मण भोज के साथ 


कौन है फिर
जो आप पर उंगली उठाए
आपत्ति करे कि गाय जानवर है, माँ नहीं

  • दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 31 मई 2014

कोड़ा जमाल साई

शिवराम मूलतः ब्रजभाषी थे, हिन्दी पर उन की पकड़ बहुत अच्छी थी। जनता के बीच काम करने की ललक ने उन्हें नाटकों की ओर धकेला और संभवतः हिन्दी के पहले नुक्कड़ नाटककार हुए। एक संपूर्ण नाटककार जो नाटक लिखता ही नहीं था बल्कि उन्हें खेलने के लिए लिखता था। फिर उसे जमीन पर दर्शकों के बीच लाने के लिए अभिनेता जुटाता था। उन के नाटकों में लोकरंग का जिस खूबसूरती से प्रयोग देखने को मिलता है वह अद्वितीय है। लोकरंग उन के लिए वह दरवाजा है जिस से वे गाँव गोठ के दर्शकों के दिलों में घुस जाते हैं। हाड़ौती अंचल उन की कर्मभूमि बना। तब उन्हों ने जरूरी समझा कि वे हाडौती में भी लिखें। कोड़ा जमाल साई संभवतः उन की पहली हाड़ौती रचना है। एक खेल गीत की पंक्ति को पकड़ कर उन्होंने एक पैने और शानदार गीत की रचना की। आप भी उस की धार देखिए ...

कोड़ा जमाल साई ..... 
  • शिवराम

कोड़ा जमाल साई
पाछी देखी मार खाई
आँख्याँ पै पाटी बांध
चालतो ई चाल भाई
घाणी का बैल ज्यूँ
घूम चारूँ मेर भाई

नपजाओ अन्न खूब, गोडा फोड़ो रोज खूब
लोई को पसीनो बणा, माटी मँ रम जाओ खूब
जद भी रहै भूको, तो मूंडा सूँ न बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

बेमारी की काँईं फकर, मरबा को काँईं गम
गाँव मँ सफाखानो, न होवे तो काँईं गम
द्वायाँ बेकार छै, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

तन का न लत्ता देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली थाँकी, टेलीविजनाँ पै देख
कर्तव्याँ मँ सार छै, अधिकाराँ न मांग भाई
कोड़ा जमाल साई ...

आजादी भरपूर छै, जीमरिया सारा लोग
व्यंजन छत्तीस छै, हाजर छै छप्पन भोग
थारै घर न्यूतो कोई नैं, म्हारो काँई खोट भाई
कोड़ा जमाल साई ...

वै महलाँ मँ रहै, या बात मत बोल
वै काँई-काँई करै, या पोलाँ न खोल
छानो रै, छानो रै, याँ का राज मँ बोल छे अमोल भाई
कोड़ा जमाल साई ...


कुछ मित्रों का आग्रह है कि इसे हिन्दी में भी प्रस्तुत किया जाए ...

कोड़ा जमालशाही ... 
  • शिवराम

कोड़ा जमालशाही
पीछे देखा मार खाई
आँखों पे पट्टी बांध
चलता ही चल भाई
घाणी के बैल जैसा
घूम चारों ओर भाई


उपजाओ अन्न खूब, घुटने तोड़ो रोज खूब
लोहू का पसीना कर, माटी मेँ रम जाओ खूब
जब भी रहे भूखा, तो मुंह से न बोल भाई
कोड़ा जमालशाही ....

बीमारी की क्या फिक्र, मरने का क्या गम
गाँव मेँ अस्पताल ना हो तो क्या गम
दवाइयाँ बेकार हैं, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

तन का न कपड़े देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली तेरी, टेलीविजन पै देख
कर्तव्योँ मेँ सार है, अधिकार न मांग भाई
कोड़ा जमालशाही...

आजादी भरपूर है, जीम रहे सारे लोग
व्यंजन छत्तीस हैं, हाजिर है छप्पन भोग
तेरे घर न्योता नहीं, मेरा क्या खोट भाई
कोड़ा जमालशाही ...

वे महलोँ में रहें, ये बात मत बोल
वे क्या क्या करें, ये पोल मत खोल
चुप रह, चुप रह, इनके राज में बोल है अमोल भाई
कोड़ा जमालशाही...
अनुवाद-दिनेशराय द्विवेदी




 

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

भाई ने भाई मारा रे


महेन्द्र नेह ने पिछले दिनों कुछ पद लिखे हैं, उन में से एक यहाँ प्रस्तुत है। 
उन के अन्य पद भी आप अनवरत पर पढ़ते रहेंगे।
 
 'पद'

  • महेन्द्र 'नेह' 

    भाई ने भाई मारा रे

 ये कैसी अनीति अधमायत ये कैसा अविचारा रे।

एक ही माँ की गोद पले दोउ नैनन के दो तारा रे।। 



जोते खेत निराई कीनी बिगड़ा भाग संवारा रे।

दोनों का संग बहा पसीना घर में हुआ उजारा रे।। 

                                    

अच्छी फसल हुई बोहरे का सारा कर्ज उतारा रे।

सूरत बदली, सीरत बदली किलक उठा घर सारा रे।। 



कुछ दिन बाद स्वार्थ ने घर में अपना डेरा डाला रे।

खेत बॅंट गये, बँट गये रिश्ते, रुका नहीं बॅंटवारा रे।।
                         

 

कोई नहीं पूछता किसने हरा भरा घर जारा रे।

रक्तिम हुई धरा, अम्बर में घुप्प हुआ अॅंधियारा रे।।

बुधवार, 3 जुलाई 2013

धरती पिराती है

'कविता'


धरती के अंतर में
धधक रही ज्वाला के
धकियाने से निकले 

गूमड़ हैं,     पहाड़

मदहोश इंसानो! 

जरा हौले से 
चढ़ा करो इन पर
धरती पिराती है,

जब भी पक जाते हैं, गूमड़

तो फूट  पड़ते हैं।
  • दिनेशराय द्विवेदी

सोमवार, 24 जून 2013

बहुत भद्द होती है जी देश की


                                       -शिवराम

कैसा चुगद लगता है वह
जब चरित्र की बातें करता है
देशभक्ति का उपदेश देते वक्त तो
एकदम हास्यास्पद हो जाता है
जब धर्म पर बोलता है
तो हँसने लगते हैं लोग

नेताओं को और कुछ आए न आए
अभिनय अवश्य आना चाहिए

पुराने नेता कितने अनुभवी होते थे
कुछ भी बोलते थे
ऐसा लगता था कि
बिलकुल सच बोल रहे हैं
एकदम सत्यमेव जयते

लेकिन आजकल
अनाड़ी और नौसिखिया लोग चले आ रहे हैं
तुरन्त पकड़े जाते हैं
मामला बोलने-चालने का हो
या लेन-देन का

मेरी इच्छा होती है कि
इन से नाटक कराऊँ
रिहर्सल में कुछ तो सीखेंगे

वैसे, सरकारों को चाहिए कि
गौशालाओं की तर्ज पर हर जिले में
रंगशालाएँ खोलें

प्रशिक्षण शिविर लगाएँ
राजनीति में प्रवेश के लिए
अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए
कम से कम थ्री इयर्स डिप्लोमा
इन ऐक्टिंग एण्ड गिविंग एण्ड टेकिंग


बहुत भद्द होती है जी देश की
संसद की और हमारी-आप की।