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रविवार, 23 अक्टूबर 2022

धनतेरस का धन से कोई संबंध नहीं, वह केवल स्वास्थ्य संबंधी त्यौहार है

आज कार्तिक कृष्ण पक्ष की तेरस है। लोग इस को धनतेरस भी कहते हैं। ऐतिहासिक रूप से इसका धन अर्थात भौतिक संपत्ति से कोई संबंध नहीं है। वस्तुतः पौराणिक रूप से इसका महत्व सिर्फ इस कारण है कि समुद्र मंथन के दौरान इस दिन धन्वन्तरि उत्पन्न हुए जिन्हें आयुर्वेद (भारतीय चिकित्सा शास्त्र) का जनक माना जाता है। यही कारण है कि भारत सरकार ने इस दिन को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस घोषित किया है।  

आज के दिन का धन अर्थात भौतिक संपत्ति से संबंध पहली बार बाजार ने ही स्थापित किया है। विशेष रूप से सोना चांदी और रत्न व्यापारियों ने। वरना न तो ऐतिहासिक और न ही पौराणिक रूप से इस संबंध के बारे में कहीं कोई सूचना नहीं मिलती है।

हमारी कुछ ज्योतिषीय मान्यताएँ हैं। चैत्रादि जिस मास में सूर्य की संक्रान्ति न पड़े वह अधिक मास होता है। यदि एक ही माह में दो संक्रान्तियाँ हों तो उन्हें पखवाड़े भर के दो माह माना जाता है। उसी तरह एक मान्यता है कि जिस तिथि में सूर्योदय न हो वह तिथि क्षय तिथि है और जिस तिथि में दो सूर्योदय हों वह तिथि बढ़ कर दो हो जाती है। इन्हीं मान्यताओं से एक और मान्यता निकली है कि जिस दिन का सूर्योदय जिस तिथि में हो अगले सूर्योदय के पूर्व तक वही तिथि मानी जाएगी। इस हिसाब से असली धन तेरस आज है। जो आयु बढ़ाने, स्वास्थ्य को उत्तम बनाए रखने के शास्त्र के प्रति समर्पित है। कल बाजारोत्पन्न नकली धन तेरस थी।

हमारे कई संकट हैं। उनमें एक संकट चंद्र सूर्य ग्रहण भी है। जिस दिन यह हो उस दिन पूजा वगैरा नहीं की जा सकती। अब अमावस तिथि पर सूर्य ग्रहण है इस कारण बाजार को दीवाली मनाने का एक दिन कम पड़ गया। उसने कल द्वादशी को धनतेरस मना डाली आज त्रयोदशी को नरक/ रूप चतुर्दशी मनाएगा और कल चतुर्दशी को तो दीवाली होगी ही। दीवाली ठीक है क्यों कि अमावस की रात तो कल ही होगी। अमावस की समाप्ति सूर्य ग्रहण के मध्य मंगलवार को होगी।

एक बात और कि किसी भी बड़े भारतीय त्यौहार का मूलतः किसी धार्मिक अनुष्ठान से कोई संबंध नहीं है। दीपावली भी एक कृषि त्यौहार है। बरसात का मौसम समाप्त हो चुका होता है। हम घरों में हुई बरसाती क्षतियों को मिटा कर उनकी साफ सफाई करके उन्हें फिर से साल भर के लिए रहने योग्य बनाते हैं। इसी समय बरसात की फसलें मूलतः धान की कटाई आरंभ होती है। यह खेतों में उत्पन्न धान्य को घर लाने के लिए कटाई शुरू करने का त्यौहार है। इसी लिए दीवाली के अगले दिन बैल सजाए जाते हैं। वे इस समारोह के साथ फसल कटाई के लिए निकलते हैं। सभी धर्मों को लोकोत्सवों और तमाम सुन्दर मनभावन स्थानों को कब्जाने का अद्भुत गुण होता है। तो संस्थागत धर्मों के विकास के साथ साथ हर त्यौहार के साथ कुछ न कुछ धार्मिक कर्मकांड जोड़ कर उन्हें धार्मिक संज्ञा दे दी गयी है। इससे वे त्यौहार देश के एक खास धर्म के लोगों के लिए रह गया है। यदि इन त्यौहारों को अपने मूल प्राकृतिक रूप में मनाया जाए तो देश की सारी आबादी को चाहे वह किसी भी धर्म की क्यों न हो इन त्यौहारों के साथ जोड़ा जा सकता है। असल में दीवाली हिन्दू त्यौहार नहीं भारतीय त्यौहार है।

मैंने कल घर से बाहर कदम नहीं रखा। बाजार नहीं गया जिससे कुछ भी खरीद सकूँ। बेटा-बेटी बाजार गए थे। कुछ बाथरूम फिटिंग्स खरीद कर लाए हैं। आज का दिन हम लोग घर में कुछ पकवान्न बनाने में बिताएंगे और दुनिया में सब के अच्छे स्वास्थ्य के लिए कामना करेंगे।

सभी मित्रों को भी धन्वन्तरि तेरस मुबारक¡ सभी लोग जीवन में स्वस्थ बने रहें।

रविवार, 7 नवंबर 2021

एक दिए का जलना बहुत भला है

एक दिए का जलना
बहुत भला है

जहाँ अभी हाल के बरसों में
बुझ गए हों अनेक दीपक
महामारी से मरने वालों की संख्या
कम पड़ गई हो
आत्महत्या करने वालों से
उस देश का राजा सदा निन्दनीय रहेगा
इतिहास में
ये दीपमालिकाएं,
चुंधियाती रोशनी वाले लाखों लाख बल्ब
नहीं मिटा पाते अमावस का अंधकार
वह और गहराता जाता है.
तब,
एक दिए का जलना
बहुत भला है.

रविवार, 30 अक्टूबर 2016

दीपावली : मनुष्य के सामुहिक श्रम और मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य का त्यौहार




नाजों में ज्वार और धान की फसलों में बीज पक चुके हैं। बस फसलों को काट कर तैयार कर घर लाने की तैयारी है। फसल घर आने के बाद लोगों के पास वर्ष भर का खाद्य होगा और भोजन की चिन्ता वैसी नहीं रहेगी जैसी कृषि आरंभ होने के पहले हुआ करती थी। जब हमें (मनुष्य) को फल संग्रह, शिकार और पशुपालन पर निर्भर रहना पड़ता था। उस अवस्था में मनुष्य लगभग खानाबदोश होता था। उसे हमेशा ऐसे इलाके की तलाश होती थी जहां पशुओं के लिए चारा बहुतायत में हो और अन्य खाद्य व उपयोगी पदार्थों की प्राकृतिक उपज सहज मिल जाती हो। संभवतः इन्हीं की तलाश में मनुष्य अफ्रीका में पैदा हो कर दुनिया के कोने कोने तक पहुँचा। पर कृषि का आविष्कार ही वह महत्वपूर्ण मंजिल साबित हुई जिस ने उसे एक स्थान पर घर और बस्तियाँ बसा कर रहने लायक परिस्थितियाँ उत्पन्न कीं। वर्षा ऋतु के अवसान पर जब फसलें खेतों में लहलहा रही हों। फसलों की नयनाभिराम हरितिमा सुनहरे रंग में परिवर्तित हो रही हो। तब मन अचानक ही उमग उठे, कोई ढोली अचानक ढोल पर थाप दे और ताल सुन कर नर-नारियों के पैर थिरक उठे यह स्वाभाविक ही है। खेतों में इकट्ठा हुए इस स्वर्ण को घर लाने के पहले उस के स्वागत में गांवों के लोग दीपमालाएँ सजा कर गांवों को जगमगा दें यही दीवाली पर्व है।

दीवाली मनुष्य की भौतिक समृद्धि का त्यौहार है, यह भौतिक समृद्धि किसी अतीन्द्रीय शक्ति की देन नहीं है अपितु वर्षों के श्रम और अनुभव के योग से मनुष्य ने स्वयं प्राप्त की है। खेतों से घर लाई जा रही इस समृद्धि के स्वागत के लिए हम बरसात से खराब हुए घरों  को हम साफ करते हैं, संवारते हैं, सजाते हैं। एक व्यवस्था बनती है जिस में ढंग से रहने और फसलों को संग्रह कर सुरक्षित करने के प्रयास सम्मिलित है। यह मनुष्य के श्रम की विजय का त्यौहार है जो उस के जीवन से अंधकार को दूर करता है। यह समृद्धि जो घर लाई जा रही है वह उस के श्रम से उत्पन्न हुई है। वही लक्ष्मी है, लक्ष्मी का एक नाम श्रमोत्पन्ना है।

जैसे जैसे मनुष्य की सामुहिक चेतना ने धार्मिक रूप ग्रहण किया। वैसे वैसे समृद्धि के इस त्यौहार के साथ घटनाएँ और मिथक जुड़ते चले गए। ऐतिहासिक रूप से देखें तो दीवाली सब से पहले भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में जैन मनाने लगे। जैन पद्धति पूरी तरह नास्तिक पद्धति थी, उस का किसी आस्था या अतीन्द्रीय शक्ति से कोई संबंध न था। महावीर जिन्हों ने अपने कर्म से भगवान का दर्जा प्राप्त किया था उन की विदाई एक दुखद घटना के रूप में भी स्मृति में रखी जा सकती थी। लेकिन वे एक जीवन शैली निर्धारित कर गए थे। इस घटना को समृद्धि के त्यौहार के दिनों में एक दुखद घटना के रूम में मनाना मनुष्यों को न भाया जैन उसे प्रकाश पर्व के रूप में मनाने लगे। उस के कई वर्षों बाद जब सम्राट अशोक ने बोद्ध धर्म अंगीकार किया तो यह वही दिन था जब महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया। बौद्ध धर्म अंगीकार करना अशोक का एक अंधकार से प्रकाश की और पदार्पण करना था। 56 ईस्वी पूर्व में हिन्दू राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ  और वह दिन दीपमालिका के रूप में मनाया जाने लगा। ऐसा प्रतीत होता है कि दीपमालिका का आरंभ तभी से हुआ है।

ह काल ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का काल था। रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्य इसी काल में लिपिबद्ध हुए। उस के बाद पुराणों की रचना हुई जो लगभग 600 ईस्वी तक चलती रही। तब राम के अयोध्या लौटने, बलि पर वामन की विजय, लक्ष्मी का विष्णु के साथ वरण, पाण्डवों का माता कुन्ती और पत्नी द्रौपदी के साथ वनवास और गुप्तवास से हस्तिनापुर वापस लौटने, नरकासुर पर विजय, देवताओं की रक्षा के लिए दुर्गा का विकराल काली रूप धारण करने आदि के मिथक इस त्यौहार के साथ जुड़ते चले गए। 

म यदि दीपावली पर होने वाली लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती, काली व अन्य देवताओं की पूजा के विवरण में जाएँ तो हमें स्वयं ज्ञात हो जाएगा कि यह फसलों को घर लाने वाला समृद्धि का त्यौहार ही है। बाद में सिखों के तीसरे गुरू अमरदास जी द्वारा सिख पंथ को संस्थागत रूप देने, छठवें गुरू हरगोविंद जी की अन्य राजाओं के साथ मुक्ति और अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के शिलान्यास के दिन  भी इसी त्यौहार के साथ जुड़ गए। 

नुष्य के खेती का आविष्कार कर लेने से उत्पन्न भौतिक समृद्धि को घर लाने का यह त्यौहार धीरे धीरे अनेक कथाओं कहानियों को स्वयं के साथ जोड़ता चला गया और एक प्रकार से यह भारतीय उपमहाद्वीप की विविधता को एक पर्व में समेट लेने के अद्भुत त्यौहार के रूप में हमारे बीच विद्यमान है। इस त्यौहार पर किसी एक धर्मावलंबियो का अधिकार नहीं है। यह भारत में जन्मे लगभग सभी धर्मों के अनुयायियों का त्यौहार है। हर त्यौहार एक बड़ी आर्थिक गतिविधि भी होता है, इस तरह मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि अन्य भारतीय धर्मावलंबी भी इस त्यौहार से इस कदर जुड़ चुके हैं कि उन के योगदान के बिना इस त्यौहार को पूरा कर पाना संभव ही लगता है। यह त्यौहार जितना धार्मिक विश्वासियों का है उतना ही अपितु उस से अधिक उन अविश्वासियों का है जिन्हें हम नास्तिक के रूप में पहचानते हैं। मनुष्य की भौतिक समृद्धि में नास्तिकों का भी उतना ही योगदान है जितना कि आस्तिकों का। वे किसी देवता या ईश्वर को नहीं मानते, वे किसी तरह की अतीन्द्रीय शक्तियों की पूजा करने में विश्वास नहीं रखते लेकिन वे मनुष्य के श्रम का आदर करते हैं, उस की शक्ति को पहचानते हैं। समृद्धि के इस त्यौहार से वे कैसे अलग और अछूते रह सकते हैं। भारतीय महाद्वीप की अनेकता में एकता के इस रूप में वे भी शामिल हैं। वे मनुष्य के सामुहिक श्रम और मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य के त्यौहार के रूप में उसे मना सकते हैं, बल्कि उन्हें मनाना चाहिए।

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

एक दिवाली ऐसी भी ...

दफ्तर सफाई अभियान
स बार श्राद्धपक्ष समाप्त हुआ और नवरात्र आरंभ होने के बीच एक दिन शेष था। यह दिन वार्षिक संफाई की चिन्ता में बीता। उत्तमार्ध शोभा पूछ रही थी, इस बार यह सब कैसे सब होगा? मेरा सुझाव था कि उन्हें एक महिला सहयोगी चाहिए। काम वाली बाई ने उस की विवाहिता भान्जी सुनीता के बारे में सुझाव दिया जो अपने मिस्त्री पति के साथ भवन निर्माण कार्यों पर कुली का काम करने जाती थी। मैं ने अपने मुंशी जी से दफ्तर की सफाई के लिए हिदायत दी की वे भी एक व्यक्ति को जुटाएँ और एक दिन में ही दफ्तर की सफाई का काम पूरा हो ले। हमारी खुशकिस्मती रही कि सुनीता काम पर आई उसी दिन मुंशी जी भी एक सहयोगी को साथ ले कर आ गए। हम दफ्तर की सफाई में लगे और सुनीता घर में शोभा की मदद में। सुनीता ने दफ्तर की धुलाई में भी मदद की और काम एक दिन में निपट गया। सुनीता ने 5-6 दिन काम किया। उस से सफाई का काम पूरा हुआ।  शोभा धीरे धीरे घर जमाने सजाने के काम में लगी। साथ के साथ दीवाली के लिए मीठी नमकीन पापडियाँ और मैदा के नमकीन खुरमे बनाए। सफाई का काम पूरा हो जाने से वह पूरे उत्साह में थी। 

अक्टूबर 17 की रात को खबर मिली कि बेटी पूर्वा को बुखार आ गया। सुबह तक उस का बुखार उतर गया और वह स्नान कर के अपने दफ्तर भी चली गई। मैं ने उसे सुझाया था कि वह रविवार को डाक्टर को दिखा कर दवा ले ले। लेकिन दिन में स्वास्थ्य ठीक रहने से वह आलस कर गई। रात को फिर बुखार ने आ पकड़ा। वह अपने हिसाब से दवा लेती रही। दिन में ठीक रहती और रात को फिर बुखार उसे पकड़ लेता। इधर शोभा पूरे उत्साह से तैयारी में लगी थी कि रविवार 19 अक्टूबर को खबर मिली की शोभा के पापा का स्वास्थ्य चिन्ताजनक है। हम ने तुरन्त उन से मिलने जाना तय किया। शोभा ने उस की बहिन ममता को भी बुला लिया। हम तीनों आधी रात अकलेरा पहुँचे। 

बाबूजी डॉ. हीरालाल त्रिवेदी
बाबूजी को आक्सीजन लगी थी। फेफड़ों में कफ भरा था जो बाहर निकलना चाहता था। लेकिन कमजोरी के कारम वे निकाल न सकते थे। खांसी के डर से कुछ खा भी न पा रहे थे। अगले दिन द्रव-भोजन के लिए भी पाइप लगा दिया गया। डाक्टर रोज दो बार उन्हें देखने घर आ रहा है। मेल नर्स दिन में हर दो घंटे बाद चक्कर लगा रहा था। रात को भी तुरन्त उपलब्ध था। मैं ने चिकित्सक से बात की तो जानकारी मिली की  85 वर्षी उम्र और  अस्थमेटिक होने के कारण उन के फेफड़ों में कफ के बनना नहीं रुक पा रहा है और सारी तकलीफों की जड़ वही है। चिकित्सक पूरे प्रयास में थे कि किसी भी तरह से उन की तकलीफ को कम किया जा सके और वे सामान्य जीवन में लौट सकें। मैं अगले दिन शाम शोभा को वही छोड़ वापस लौट आया। पूर्वा को सोम की रात को भी बुखार आया। मंगल की शाम वह कोटा आने के लिए ट्रेन में बैठ गई। बुध की सुबह उसे ले कर घर वापस लौटा तो रात के पौने दो बज रहे थे। सुबह 12 बजे तक बेटा वैभव भी कोटा पहुँच गया। उस के आते ही मैं पूर्वा को ले कर डाक्टर के यहाँ पहुँचा और उसे दवाएँ आरंभ कराईं।

यह इस दिवाली की पूर्व पीठिका थी। त्यौहार का उत्साह पूरा नष्ट हो चुका था। बच्चे घर आ पहुँचे थे उन में भी एक बीमार थी और उन की माँ घर पर नहीं थी।  अब और कुछ व्यंजन घऱ पर बनाने का तो कुछ नहीं हो सकता था। मैं बिजली के बल्बों की कुछ इन्डिया मेड लड़ियाँ पहले से ला चुका था। मैं ने और बेटे ने उन्हें अपने घर के बाहर की दीवारों पर सजाया। घर को भी कुछ ठीक ठाक किया।  बच्चों के घऱ आने पर माँ के हाथ का भोजन उन की सब से प्रिय वस्तुएँ होती हैं। लेकिन वे इस बार इस से महरूम थे। हम तीनों ने घर के काम बाँट लिए थे और करने लगे थे। 

दीवाली की रात हमारा घर
वैभव बाजार से कुछ मिठाइयाँ और नमकीन ले आया, अब दीवाली इन्हीं से मनानी थी। दीवाली की शाम आ गई। दीपक तैयार किए गए। शोभा हर त्यौहार और उस से जुड़े धार्मिक कर्मकाण्डों को निभाना मेरी अरुचि के बावजूद नहीं भूलती। बल्कि सतर्क रहती है कि मेरे कारण कोई चीज छूट न जाए। मुझ से इन सब की तार्किकता पर बात करने को कभी तैयार नहीं होती। मैं भी उस के इस जनवादी अधिकार को कभी नहीं छेड़ता और घर में "शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व बनाए रखने का पक्षधऱ हूँ। वह अपने पापा की सेवा में होने पर भी फोन से पूर्वा और वैभव को निर्देश देती जा रही थी कि उन्हें क्या क्या करना है? कैसे दीपक जलाने हैं, कैसे लक्ष्मीपूजा करनी है आदि आदि....  दोनों उन निर्देशों का पालन भी अपने तरीके से कर रहे थे। पहली बार ऐसा हुआ की वैभव पटाखे नहीं लाया। मै ने पूछा भी तो कहने लगा , बेकार की चीज है, धन भी बहाओ, कान खराब करो, गन्दगी फैलाओ और हवा भी खराब करो, क्या मतलब है? हमारी यह दिवाली पूरी तरह आतिशबाजी विहीन रही। पर रात को जो बाहर पटाखे चलने लगे तो त्यौहार के शोर-शराबे की कमी भी जाती रही। रात को भाई अनिल उस की पत्नी और बेटी शिवेशा सहित मिलने आ गया तो घर में कुछ रौनक हो गयी।

पूर्वा और शिवेशा
पूर्वा को रात बुखार कम था। सुबह तक बिलकुल जाता रहा। आज वह ठीक है। सुबह का भोजन पूर्वा और वैभव ने मिल जुल कर बनाया।  लेकिन पिछले 5-6 दिनों के बुखार की कमजोरी से उसे बार बार नीन्द आए जा रही है।  दिन में मेरे दो सहयोगी वकील मिलने आए और दो घंटे उन के साथ बिताए। वैभव का नियोजन मुम्बई में है वह साल में तीन चार बार ही घऱ आ पाता है। वह अपने मित्रों से मिलने निकल गया है। मैं भी कहीं जाना चाहता था पर पूर्वा को अकेला घर पर छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लग रहा है। अब तो शायद वैभव के लौटने पर ही जा सकूंगा या फिर पूर्वा साथ जाने को तैयार हुई तो उस के साथ कहीं जा सकता हूँ।

 दोनों बच्चे रविवार को फिर से अपने अपने नियोजनों के लिए निकल लेंगे। वे हैं तब तक दिवाली शेष है। वैसे भी दिवाली हो चुकी है, बस उस का उपसंहार शेष है। वह भी जैसे तैसे हो लेगा। पूर्वा उठ गई है, पूछ रही है वैभव कहाँ गया है? शायद उसे चाय की याद आ रही होगी। चलो मैं पूछता हूँ, वह बनाएगी या मैं बनाऊँ .....

सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

दीवाली खास क्यों?

पिछले महीने कुछ निजि कारणों से अपनी ब्लागरी में व्यवधान आया। दीवाली का त्यौहार भी उन में से एक कारण था। बेटी और बेटा दोनों बाहर हैं, तो परिवार के चारों जन ऐसे ही त्यौहारों पर मिलते हैं, दीवाली उन में खास है। मैं इस बार विचार करता रहा आखिर दीवाली में ऐसा क्या है कि वह खास हो गई। निश्चित रूप से उस का कारण धनतेरस, रूप चौदस (काली चौदस), लक्ष्मीपूजा, महावीर निर्वाण दिवस, गोवर्धन पूजा या भाई दूज आदि नहीं है। मेरे विचार से इस के खास होने का कारण इस का मौसम है। 
भारत की 70% जनता गाँवों में निवास करती है। कोई पाँच दशक पहले के भारत के गाँवों की सोचें तो मिट्टी की ईंटों की दीवारों पर खपरैल की छत वाले घरों की बस्तियाँ जेहन में नजर आने लगती हैं। बरसात इन घरों की स्थिति क्या बना देती होगी यह अनुमान किया जा सकता है। आश्विन मास की अमावस उत्तर भारत के लिए वर्षा का अंतिम दिवस होता है। इस के साथ ही घरों को सुधारने, अनाज आदि को संभालने का काम आरंभ हो जाता है। घरों की सफाई कर, उन की दीवारें छतें सुधार कर, उन्हें लीपना-पोतना फिर से निवास के अनुकूल बनाना अत्यावश्यक है। अब सब लोग अपने अपने घर को दुरुस्त कर अपने हिसाब से सजाएंगे तो उन में सजावट की प्रतियोगिता स्वतः ही जन्म लेती है। व्यापारी वर्षाकाल अपने अपने परिजनों के साथ अपने घरों में व्यतीत कर पुनः व्यापार के लिए घरों से निकल कर परदेस जाने की तैयारी में होते थे। उन के लंबे समय के लिए घरों से बाहर जाने के पहले भी त्योहार का माहौल स्वतः ही बन ने लगता है। 

स बीच मैं ने यह जानने की कोशिश भी की कि भारतीय इतिहास में दीवाली का प्रचलन वास्तव में कब आरंभ हुआ?  राम का वनवास से लंका विजय कर लौटना। कृष्ण का इंद्रपूजा बंद करवा कर गोवर्धन की पूजा आरंभ कराना जैसे मिथक तो बहुत सारे हैं। लेकिन वास्तविक प्रामाणिक ऐतिहासिक संदर्भ गायब दिखाई पड़ते हैं। पहले पहल जो संदर्भ मिलता है वह जैन तीर्थंकर महावीर के निर्वाण का मिलता है। इस से ऐसा लगता है कि पहले पहले दीवाली का उत्सव जैन धर्मावलंबियों ने मनाना आरंभ किया। उन में अधिकांश व्यापारी थे, वे वर्षा के बाद घरों से बाहर धनोपार्जन के लिए निकलते थे, उन का निकलने के पहले धन की देवी लक्ष्मी का पूजा जाना स्वाभाविक ही था। इस से बाद में लक्ष्मी पूजा का संदर्भ उस से जुड़ा। दोनों महाकाव्यों का संपादन ईसा पूर्व पहली शताब्दी में हुआ और गुप्तकाल में उन का गौरव बढ़ा। संभवतः गुप्त काल से ही दीवाली के इस त्यौहार से राम और कृष्ण के संदर्भ जुड़े तथा बाद में अन्य संदर्भ जुड़ते चले गए। अभी भी यह खोज का विषय ही है कि ऐतिहासिक रूप से दीवाली के त्यौहार का विकास किस तरह हुआ? शायद कुछ इतिहास के विद्यार्थी और शोधार्थी इस पर प्रकाश डाल सकें।

स बार सप्ताह के मध्य में दीपावली का त्योहार पड़ने से दोनों दीपावली के अवकाश, दोनों ओर के दो-दो साप्ताहिक अवकाश के साथ दो-तीन दिनों के अवकाश और ले लेने पर बाहर नौकरी कर रहे लोगों के पास नौ दिनों के अवकाश हो गए और उन्हें अपने घरों पर परिवार के साथ रहने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। मेरे यहाँ भी इन दिनों बेटी-बेटे के साथ रहने से, साथ ही महत्वपूर्ण हो गया। ये नौ दिन सब ने बहुत आनंद से बिताए। जब दीवाली के पहले के पन्द्रह-बीस दिनों का स्मरण करता हूँ तो लगता है वे पूरे साल के सब से व्यस्त दिन थे। घर की सफाई, सजावट, फालतू सामानों को कबाड़ी के हवाले करना और यह काम पूरा होते ही दीवाली के पकवान बनाने की तैयारी। पुरुष तो फिर भी बाहर के कामों में ही लगे रहते हैं लेकिन स्त्रियाँ। उन्हें तो पूरे एक माह से फुरसत ही नहीं थी। लगता था जैसे वे सोयेंगी नहीं। मेरे यहाँ तो घर में अकेली स्त्री मेरी उत्तमार्ध शोभा ही थी। पिछले एक माह से वह सोती नहीं थी। बस काम करते करते थक कर बेहोश हो बिस्तर पर पड़ जाती थी। जब होश आता था तो फिर से काम में जुटी नजर आती थी। ऐसा लगता था उसे घर को घर बनाने का जुनून सवार था। बेटा कल चला गया था, आज सुबह बेटी को रेल में बिठा कर लौटने के पर कुछ घंटे उस ने विश्राम किया, निद्रा ली। लेकिन कुछ घंटे बाद ही फिर से घर को संवारने में जुट गई और शाम को जब मैं अदालत से घर लौटा तो पाया कि घर फिर से हम दो प्राणियों के निवास के लिए तैयार है। लोग कहते हैं कि दीवाली न आए तो घरों की सफाई न हो। मैं सोचता हूँ यदि स्त्रियाँ न होती तो पुरुष दीवाली किस तरह मनाते? शायद उस का स्वरूप बहुत भिन्न होता या फिर दीवाली ही नहीं होती। आप क्या सोचते हैं?

दीपावली पर बहुत मित्रों के शुभकामना संदेश ई-मेल से मिले। उन में से अधिकांश एक साथ अनेक पतों को भेजे गए थे। मैं यदि उन का उसी संदेश के उत्तर के रूप में धन्यवाद करता तो वह भी सभी लोगों को प्राप्त होता। मुझे यह उचित नहीं लगा और ई-मेल की निःशुल्क सुविधा का दुरुपयोग भी। मैं ने एकल संदेशों का उत्तर देने का प्रयत्न किया लेकिन सामुहिक संदेशों का नहीं। यहाँ उन सभी मित्रों को दीपावली के शुभकामना संदेश के लिए आभार व्यक्त करता हूँ।  कामना है कि उन की ही नहीं सभी की दीवाली अच्छी मनी हो और वे सभी वर्ष भर प्रगति करें, उन्हें अनन्त प्रसन्नताएँ प्राप्त हों और अगली दीवाली वे और बेहतर तरीके से अधिक प्रसन्नताओं के साथ मनाएँ!


रविवार, 7 नवंबर 2010

पुराने मोहल्ले में दीवाली की राम-राम

ज बहुत थोड़े समय के लिए पुराने मोहल्ले में जाना हुआ। मैं ने पिछली 19 सितम्बर को अपना पुराना घर खाली कर दिया था और अस्थाई रुप से अपने एक मित्र के नवनिर्मित मकान में आ गया था। नए घर में सामान जमाने अपने कार्यालय को काम के लायक बनाने के साथ रोज-मर्रा के कामों और इस बीच तेजी से घटे घटनाक्रम ने बीच में साँस लेने तक की फुरसत नहीं लेने दी। बीच में सिर्फ एक बार डाक देखने गया था कि कोई महत्वपूर्ण डाक तो नहीं है, और केवल निकटतम पड़ौसी से पाँच मिनट बात कर के लौट आया था। तभी से सोचता रहा था कि वहाँ जाऊँ। लेकिन पूरे मुहल्ले के कम से कम पाँच-सात पड़ौसियों से तो मिलना ही होता। जिस से नहीं मिलता, वही शिकायत करता, इस में समय लगता इसी कारण से नहीं जा सका। पहले से नियत था कि आज दिन में कम से कम तीन-चार घंटों के लिए वहाँ जाया जाय। लेकिन परिस्थितियों ने कार्यक्रम को बदल दिया। 
शोभा ने तो जाने से साफ मना कर दिया कि कल-परसों बच्चे वापस जाएँगे और अभी उन के लिए नाश्ता तैयार करना है। वे शोभा-मठरी (शोभा ने मठरी की नयी किस्म ईजाद की है जिसे मैं शोभा-मठरी कहता हूँ, इस का किस्सा फिर कभी) बनाने में जुट गईं। वैभव अपने मित्रों से मिलने चल दिया। शेष बचा मैं और पूर्वा। उसे आई-ब्रॉ बनवानी थी। हमें हिदायत मिली कि हम पूर्वा को लेकर जाएँ और जब तक उस का काम हो तब तक हम बोहरा जी के यहाँ बैठें। बोहरा जी हमारे पुत्री मित्र हैं, यानी हमारी पुत्री की मित्र के पिता (इस का किस्सा भी फिर कभी)। हमने ऐसा ही किया। हाँ वहाँ जाने के पहले हम ने दशहरा  मैदान रुक कर गूजर के यहाँ दूध के लिए बाल्टी रख दी। ताकि वापसी पर लिया जा सके। वहाँ श्रीमती बोहरा कुछ दिन पहले ही चिकनगुनिया से उठी थीं और अभी छोड़े गए जोड़ों के दर्द से जूझ रही थीं। हमने उन का हाल जाना, दीवाली की मिठाई चखी और दिवाली का राम-राम कर के वहाँ से चले। वे होमियोपैथिक उपचार कराना चाहती थीं। हमने उन के लिए डाक्टर तय किया और वहाँ से चले।
गे दीदी का घर, वहाँ हमने भाई-दूज का टीका निकलवाया, जीजाजी से मिले। वहाँ से निकले तो साँझ  हो चुकी थी। दूध लेने का समय हो चुका था। हम पहले दशहरा मैदान गए, वहाँ से दूध लिया। मन किया कि वापस लौट चलें पुराने मुहल्ले में फिर कभी फुरसत से मिलने चलेंगे। लेकिन पूर्वा को महेन्द्र नेह के घर आंटी और भाभियों से मिलना था, हमेवापस अपने पुराने मुहल्ले को निकल पड़े। पूर्वा को महेन्द्र जी के घर छोड़ा और मैं महेन्द्र जी के चार वर्षीय पौत्र आदू को साथ ले कर मिलने निकल पड़ा। मीणा जी, सोनी जी, धैर्यरत्न, निकटतम पड़ौसी जैन साहब मिले। जयकुमार जी घूमने निकले थे उन से मिलना नहीं हो सका। सब के यहाँ मिठाइयाँ चखनी पड़ीं। सब ने मुझ से बेमुरव्वत होने की शिकायत की कि मैं डेढ़ माह तक मिलने तक नहीं आया। सब को फिर से अपने नए मकान का पता बताया और वहाँ आने का न्यौता दिया। अंत में वापस महेन्द्र जी के घर हो कर लौटा। 
दीवाली की राम-राम के लिए हुई इस संक्षिप्त यात्रा में पता लगा कि इस वर्ष किसी के घर मावा/खोया की मिठाई नहीं बनी। जिस के यहाँ थी उस का कहना था कि वह उन की सब से विश्वसनीय दुकान से लाया गया था। यह सब दीवाली से चार माह पहले से काफी मिलावटी और कृत्रिम मावा/खोया पकड़े जाने के कारण था। मैं सोच रहा था कि लोग मावा/खोया बिलकुल बंद कर दें तो अच्छा, इस से कम से कम दूध की प्राप्यता बढ़ जाएगी। सब ने एक बात पूछी कि मेरे नये मकान का निर्माण आरंभ हुआ या नहीं, और कब तक पूरा हो लेगा? मेरे साथ गया आदू पक्का चतुर्वेदी निकला, जहाँ गया वहीं सब से अच्छी मिठाई पर हाथ मारा। हालाँ कि वापसी में उसे जब बताया कि वह मेरे साथ घूम कर लौटा है तो अब चौबे से दुबे हो गया है। उस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया कि वह वाकई दुबे हो गया है। हालांकि उन के घर के गेट से बाहर हमारे कदम पड़ते ही उस ने घोषणा कर दी कि वह दुबे नहीं बना है और चौबे ही है।

शनिवार, 6 नवंबर 2010

अवसाद के बीच एक दीपावली

सभी पाठकों और ब्लॉगर मित्रों 
को 
दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ !

गभग सब के बाद, बहुत देरी से शुभकामनाएँ व्यक्त करने के लिए क्षमा चाहता हूँ। अनवरत और तीसरा खंबा पर पिछली पोस्टें  3 नवम्बर को गई थीं, उसी में शुभकामना संदेश भी होना चाहिए था। लेकिन तब इरादा यह था कि 4 और 5 नवम्बर को नियमित पोस्टें जाएंगी और तभी शुभकामना संदेश भी उचित रहेगा। लेकिन अपना  सोचा कहाँ होता है? परिस्थितियाँ निश्चित करती हैं कि क्या होना है, और हम कहते हैं "होहिही वही जो राम रचि राखा"। ये राम भी अनेक हैं। एक तो अपने राम हैं जो चाहते हैं कि दोनों ब्लाग पर कम से कम एक पोस्ट तो प्रतिदिन नियमित होना चाहिए, शायद पाठकों के राम भी यही चाहते हों। लेकिन परिस्थितियों के राम इन पर भारी पड़ते हैं।  पर ऐसा भी नहीं कि मेरे राम की उस में कोई भूमिका न हो। परिस्थितियाँ इतनी भी हावी नहीं थीं कि कोई पोस्ट हो ही नहीं सकती थी। मेरे राम ने तीन दिनों में चाहा होता तो यह हो सकता था। कुल मिला कर लब्बोलुआब यह रहा कि परिस्थितियाँ निर्णायक अवश्य होती हैं, लेकिन परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर व्यक्तिगत प्रयास न हो तो इच्छित परिणाम  प्राप्त नहीं किया जा सकता। हम यूँ कह सकते हैं कि किसी इष्ट के लिए पहले परिस्थितियाँ अनुकूल होनी चाहिए और फिर इष्ट को प्राप्त करने का वैयक्तिक प्रयास भी होना चाहिए।  
पिछले दो माह बहुत अजीब निकले हैं। एक तो मकान का बदलना रहा, जिस ने दिनचर्या को मथनी की तरह मथ डाला। दूसरे दो माह पहले एक निकटतम मित्र परिवार में ऐसा हादसा हुआ जिस के होने की संभावना थी हम रोकना चाहते थे, लेकिन चीजें प्रयास के बावजूद भी काबू में नहीं आ सकीं और घटना घट गई। कहानी लंबी है, लेकिन विस्तार के लिए अनुकूल समय नहीं। मित्र के पुत्र और पु्त्रवधु के बीच विवाद था, पुत्रवधु मित्र को लपेटने की कोशिश में थी। मित्र बचना चाहते थे। इस के लिए वे पुलिस के परिवार परामर्श केन्द्र भी गए। लेकिन एक रात पु्त्र के कमरे से आवाजें आई, मित्र वहाँ पहुँचे तो वह मृत्यु से जूझ रहा था। पुत्रवधु ने बताया कि उन के पुत्र ने फाँसी लगा कर आत्महत्या का प्रयास किया है, उस ने फाँसी काट दी इस लिए बच गया।  अनेक प्रश्न थे, कि पुत्र-वधु ने अपने पति को फाँसी लगाने से क्यों न रोका? वह चिल्लाई क्यों नहीं? एक ही दीवार बीच में होने के बावजूद भी वह सहायता के लिए अपने सास ससुर के पास क्यों नहीं गई? फाँसी काट देने के बाद भी अपने अचेत पति को ले कर कमरे के दरवाजे की कुंड़ी खोल अकेले स्यापा क्यों करती रही? प्रश्नों का उत्तर तलाशने का समय नहीं था। मित्र अपने पुत्र को ले कर अस्पताल पहुँचे, दो दिनों में उस की चेतना टूटी। पुत्र बता रहा था कि उसे पहले कुछ खाने में दे कर अचेत किया गया और फिर पत्नी ने ही उसे गला घोंट कर मारने की कोशिश की। जब सब अस्पताल में थे तो अगली सुबह पुत्रवधु का पिता आया और पुत्रवधु को उस के सारे सामान सहित अपने साथ ले गया। घर पर पुत्रवधु अकेली थी तो मकान के ताला और लगा गया।
मेरे और मित्र के कुछ समझ नहीं आ रहा था। हमने अपने स्तर पर अन्वेषण किया तो जाना कि मित्र के पुत्र का बयान सही है। पुलिस को रिपोर्ट दी गई, लेकिन पूरे माह कोई कार्यवाही नहीं हुई। अदालत को शिकायत की गई, अदालत ने शिकायत पर मुकदमा दर्ज कर अन्वेषण आरंभ कर दिया। इस बीच पता लगा कि पुत्र-वधु ने भी उत्पीडन और अमानत में खयानत के लिए धारा 498-ए और 406 भा.दं.सं. का मुकदमा पुलिस में दर्ज करा दिया है। मित्र अपने सारे परिवार के साथ तीन बार अन्वेषण में सहयोग के लिए थाने उपस्थित हो गये। लेकिन पुलिस अन्वेषण अधिकारी टालता रहा। अचानक उस ने पिछले रविवार को उन्हें थाने बुलाया। दोनों पक्षों में समझौते का नाटक किया। दबाव यह था कि दोनों अपनी-अपनी रिपोर्टें वापस ले लें और साथ रहें। लेकिन पति इस के लिए तैयार नहीं था। उस का कहना था कि जिस पत्नी ने उस की जान लेने की कोशिश की उस के साथ वह किस भरोसे से रह सकता है? थाने में किसी सिपाही ने कान में कहा कि अन्वेषण अधिकारी ने पैसा लिया है वह आज गिरफ्तारी करेगा। पुलिस ने पति को गिरफ्तार कर लिया, बावजूद इस के कि स्वयं अन्वेषण अधिकारी यह मान रहा था कि उस पर आरोप मिथ्या हैं। लेकिन 498-ए का आरोप है तो गिरफ्तार तो करना ही पड़ेगा। मेरा उस से कहना था कि सब पिछले पन्द्रह दिनों से थाने आ रहे थे तो यह कार्यवाही एक सप्ताह पहले और दिवाली के एक सप्ताह बाद भी की जा सकती थी। लेकिन अभी ही क्यों की जा रही है? स्पष्ट था कि सिपाही द्वारा दी गई सूचना सही थी।
मित्र हमेशा मेरी मुसीबत में साथ खड़े रहे। मुझे साथ खड़े रहना ही था। मैं ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। लेकिन दीपावली का अवकाश आरंभ होने के पहले मित्र के पुत्र को जमानत पर बाहर नहीं ला सका। उस के अलावा परिवार के छह और सदस्यों का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में था। अन्वेषण अधिकारी ने उन्हें गिरफ्तार नहीं किया था और कह रहा था कि उन के विरुद्ध मामला नहीं बन रहा है। लेकिन फिर किसी सिपाही ने सलाह दी की उन्हें घर छोड़ देना चाहिए। गिरफ्तारी कभी भी हो सकती है। नतीजे में मित्र को घर छोड़ कर बाहर जाना उचित लगा और वे चले गए। घर दीवाली पर सूना हो गया। मेरा मन भी अवसाद से घिर गया। पिछले पूरे सप्ताह जिस भाग-दौड़ से पाला पड़ा उस ने थका भी दिया था। 
धर अवकाश आरंभ होते ही दोनों बच्चे घर आए। मेरा मन अवसाद से इतना भरा था कि कुछ करने का मन ही नहीं कर रहा था। दीवाली की रीत निभाने को श्रीमती शोभा रसोई में पिली पड़ी थीं। बच्चों ने घर को सजाया, और दीपावली मन गई। अभी भी अवसाद दूर नहीं हो पा रहा है, शायद इस से तब निजात मिले जब मित्र का पुत्र जमानत पर छूट जाए और शेष परिवार को अग्रिम जमानत का लाभ मिल जाए।

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

दीवाली बाद एक उदास दिन

बिटिया कुल छह दिन घर रही। आज सुबह छह बजे की ट्रेन पर उसे छोड़ा। उसे काम पर लौटना जरूरी  था। वह एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था में सांख्यिकिज्ञ और जनसंख्या विज्ञानी है, जो स्वास्थ्य के क्षेत्र में एम्स और कुछ राज्य सरकारों का सहयोग करती है। कुछ ही दिनों में संस्था का एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन है जिस में उसे भी अपने काम की दो प्रस्तुतियाँ देनी हैं। उन्हें अंतिम रूप देना है। रुकना संभव न होने से सुबह पाँच बजे ही भाई को टीका लगा उस ने भैया दूज मना ली। 


मंगलवार सुबह पहुंच कर एक दिन आराम किया, दूसरे दिन अपने काम निपटाए और तीसरे दिन ही घर देखा और सजावट के स्थान चुने। बहिन-भाई ने सजावट का प्रारूप भी तय कर लिया। बाजार से तेल रंग मंगा कर मांडणे बनाने बैठी। कोई चार बरस बाद उस ने घर में मांडणे बनाए। हमारे यहाँ हाड़ौती में कच्चे घरों में गेरू मिला कर गोबर से घर के फर्श को लीपा जाता है। फिर खड़िया के घोल से उन पर मांडणे बनाए जाते हैं जो रंगोली की अपेक्षा अधिक स्थाई होते हैं और अगली लिपाई तक चलते हैं, जो घर में कोई और मंगल उत्सव न होने पर अक्सर होली पर होती है। इन मांडणों के बाद कच्चे घर पक्के घरों की अपेक्षा अधिक सुहाने लगते हैं। दीवाली के दिन उन्हों ने फूलों से घर सजाया। लक्ष्मी पूजा की और पटाखे छोड़े। दोनों बच्चे और शोभा इस काम में लगे रहे। मेरी भूमिका इस बीच दर्शक या मामूली सहयोगी की रही। पर यह सब होते देखना कम आनंददायक नहीं था।  लाल और सफेद पेंट से कोटा स्टोन के फर्श पर बनाए गए ये मांडणे कम से कम दो बरस तक इसी तरह चमकते रहेंगे।


 


हर दीवाली पर देसी-घी में घर पर पकाए गुलाब जामुन हमारे यहाँ जरूर बनाए जाते हैं। लेकिन इस बार मावे की संदेहास्पद स्थिति में तय किया गया कि मावे का कोई भी पकवान घर पर न बनेगा। घर पर मैदा, बेसन के नमकीन, और मिठाइयाँ बनाए गए। जिन में उड़द-चने की नमकीन पापड़ियों का स्वाद तो भुलाए नहीं भूला जा सकता। दीवाली हुई और दूसरा दिन बेटी की जाने की तैयारी में ही निकल गया। आज का दिन एक उदास दिन था। पौने बारह खबर मिली कि वह गंतव्य पर पहुँच गई है और सीधे अपने काम पर जा रही है, अब शाम को ही उस से बात हो सकेगी। आज का दिन उदास बीता। शाम होने के बाद ही दीदी के यहाँ टीका निकलवाने जा सका। (क्षमा करें कुछ चित्र अपलोड नहीं हो पाए)




रविवार, 14 दिसंबर 2008

कभी नहीं भूलेगा, स्कूल में हुई धुनाई का दिन

शास्त्री जी ने अध्यापकों से सजा-पिटाई के किस्से अध्यापक या जल्लाद ?  और अध्यापकों ने दिया धोखा ! उन के ब्लाग सारथी पर लिखे हैं। पढ़ कर मुझे स्कूल में हुई अपनी धुनाई का किस्सा याद आ गया। ये उन दिनों की बात है जब सब से अधिक मारपीट करने वाले अध्यापक को सब से श्रेष्ठ अध्यापक समझा जाता था। ऐसे अध्यापक के जिम्मे छोड़ कर माता पिता अपने हाथों से बच्चों को मारने पीटने की जिम्मेदारी का एक हिस्सा अध्यापकों को हस्तांतरित कर देते थे। यह दूसरी बात है कि कुछ जिम्मेदारी वे हमेशा अपने पास रखते थे।


हर साल मध्य मई से दिवाली तक हम दादा जी के साथ रहते थे और दिवाली से मध्य मई में गर्मी की छुट्टियाँ होने तक हम पिता जी के साथ रहते। पिता जी हर साप्ताहिक अवकाश में दादा जी और दादी को संभालने आते थे। फिर पिता जी को बी.एड़. करने का अवकाश मिला तो वे साल भर बाहर रहे। हमें पूरे साल दादा जी के साथ रहना पड़ा था। उसी साल छोटी बहिन ने जन्म लिया, तब मैं पांचवीं क्लास  में था। पिता जी बी.एड. कर के आए तो हमें जुलाई में ही अपने साथ सांगोद ले गए। वे कस्बे के सब से ऊंची शिक्षा के विद्यालय, सैकण्डरी स्कूल के सब से सख्त अध्यापक थे। हालांकि वे बच्चों की मारपीट के सख्त खिलाफ थे। लेकिन अनुशासन टूटने पर दंड देना भी जरूरी समझते थे। स्कूल का लगभग हर काम उन के जिम्मे था। स्कूल का पूरा स्टाफ उन्हें बैद्जी कहता था, वे आयुर्वेदाचार्य थे और मुफ्त चिकित्सा भी करते थे। बस वे नाम के हेड मास्टर नहीं थे। हेड मास्टर जी को इस से बड़ा आराम था। वे या तो दिन भर  में एक-आध क्लास लेने के लिए अपने ऑफिस से बाहर निकलते थे या फिर किसी फंक्शन में या कोई अफसर या गणमान्य व्यक्ति के स्कूल में आ जाने पर। सब अध्यापकों का मुझे भरपूर स्नेह मिलता।

उस दिन ड्राइंग की क्लास छूटी ही थी कि पता नहीं किस मामले पर एक सहपाठी से कुछ कहा सुनी हो गई थी। मुझे हल्की से हल्की गाली भी देनी नहीं आती थी। ऐसा लगता था जैसे मेरी जुबान जल जाएगी। एक बार पिता जी के सामने बोलते समय एक सहपाठी ने चूतिया शब्द का प्रयोग कर दिया था, तो मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे कानों में गर्म सीसा उड़ेल दिया गया हो। उस सहपाठी से मैं ने बोलना छोड़ दिया था, हमेशा के लिए। ड्राइंग क्लास के बाद जब उस सहपाठी से झगड़ा हुआ तो उस ने मुझे माँ की गाली दे दी। मेरे तो तनबदन में आग लग गई। मैं ने उस का हाथ पकड़ा और ऐंठता चला गया। इतना कि वह दोहरा हो कर चिल्लाने लगा। दूसरे सहपाठियों ने उसे छुड़ाया।


वह सहपाठी सीधा बाहर निकला। मैदान में हेडमास्टर जी और पिताजी खड़े आपस में कोई मशविरा कर रहे थे। वह सीधा उन के पास पहुंचा। मैं डरता न था तो पीछे पीछे मैं भी पहुँच गया मेरे पीछे क्लास के कुछ और छात्र भी थे। उस ने सीधे ही हेडमास्टर जी से शिकायत की कि उसे दिनेश ने मारा है। हेडमास्टर जी ने पूछा कौन है दिनेश? उस ने मेरी और इशारा किया ही था कि मुकदमे में दंड का निर्णय सुना दिया गया की मैं दस दंड बैठक लगाऊँ। यूँ दण्ड बैठक लगाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। उस से सेहत भी बनती थी। पर मुझे बुरा लगा कि मुझे सुना ही नहीं गया। मैं ने कहा मेरी बात तो सुनिए। यह स्पष्ट रूप से राजाज्ञा का उल्लंघन था। यह राज्य के मुख्य अनुशासन अधिकारी, यानी पिता जी से कैसे सहन होता। उन्हों ने धुनाई शुरू कर दी। उम्र का केवल आठवाँ बरस पूरा होने को था। रुलाई आ गई। रोते रोते ही कहा -पहले उसने मेरी माँ को गाली दी थी।

  माँ का नाम ज़ुबान पर आते ही धुनाई मशीन रुकी। तब तक मेरी तो सुजाई हो चुकी थी। पिताजी एक दम शिकायतकर्ता सहपाठी की और मुड़े और उस से कहा -क्य़ो? उस के प्राण एकदम सूख गए। वह डर के मारे पीछे हटा। शायद यह उस की स्वीकारोक्ति थी। वह तेजी पीछे हटता चला गया। पीछे बरांडे का खंबा था जिस में सिर की ऊँचाई पर पत्थर के कंगूरे निकले हुए थे। एक कंगूरे के कोने से उस का सिर टकराया और सिर में छेद हो गया। सिर से तेजी से खून निकलने लगा। पिताजी ने आव देखा न ताव, उसे दोनों हाथों में उठाया और अपनी भूगोल की प्रयोगशाला में घुस गए। कोई अंदर नहीं गया। वहाँ उन का प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी था। जब दोनों बाहर निकले। तब शिकायकर्ता के सिर पर अस्पताल वाली पट्टी बंधी थी और पिताजी ने उसे कुछ गोलियाँ खाने को दे दी थीं। अगली क्लास शुरू हो गई थी। मास्टर जी कह रहे थे। आज तो बैद्जी ने बच्चे को बहुत मारा। मेरे क्लास टीचर के अलावा पूरे स्टाफ को पहली बार पता लगा था कि जिस लड़के को वै्दयजी ने मारा वह उन की खुद की संतान था।

शिकायत कर्ता लड़के ने ही नहीं मेरी क्लास के किसी भी लड़के ने मेरे सामने किसी को गाली नहीं दी। वे मेरे सामने भी वैसे ही रहते, जैसे वे मेरे पिताजी के सामने रहते थे। शिकायत करने वाले लड़के से मेरी दोस्ती हो गई और तब तक रही जब तक हम लोग सांगोद कस्बे में रहे।

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008

दिवाली अवकाश के बाद पहला काम का दिन

 पाँच दिनों के अवकाश के बाद आज छठे दिन अदालतें खुलनी थीं तो भी खराब हुई आदत मुकाम पर नहीं आई।  आज उठना नहीं है क्या? पत्नी की आवाज सुन कर। सामने घड़ी पर निगाह गई तो घंटे का कांटा सात से पार जा चुका था, मिनट कौन देखता। सीधे टायलट भागे लघुशंका को, वापस लौट कर रसोई के नल से पानी भर चार-पांच गिलास पिए। तब तक कॉफी बेडरूम में हाजिर थी। जब से कार्तिक का महिना लगा है। श्रीमती शोभा कब उठती हैं और कब स्नान वगैरह कर अपना पूजा-पाठ निपटाती हैं, पता नहीं लगता। इस से पहले हम उठते थे तो कॉफी पहले से बेडरूम की टी-टेबुल पर विराजमान रहती थी। टाइम टेबुल बदला तो हम समझ गए क्या चक्कर चला है। हमने तीसरे दिन कहा। लगता है कार्तिक स्नान चल रहा है? जवाब मुस्कुराहट में मिला। (इस का राज आप तलाशते रहें।)

कॉफी सुड़कते मेल देखी, ब्लागवाणी पर नजर दौड़ाई तो रात के बाद से कोई ज्यादा ब्लाग नहीं  थे। मेल में तीसरा खंबा में कानूनी सलाह के लिए एक सवाल था। सवाल बिलकुल कानूनी नहीं निजी था। जैसे मेरे ज्योतिषी दादाजी के पास अक्सर आया करते थे, और उन के पास कोई ज्योतिषीय उत्तर नहीं हुआ करता था। मैं सोच में था कि इस का क्या जवाब दूँ? फिर दादाजी वाला रास्ता अपनाया, वैसा ही जवाब दिया और तीसरा खंबा में पोस्ट किया। फिर लगे अदालत की तैयारी में। एक दावे का प्रारूप देना था एक सेवार्थी निगम को। टाइप हो कर तैयार था। प्रिंट निकालना चाहा तो अपने इंकजेटप्रिंटर ने इन्कार कर दिया। बोला नया पेन, नयी डायरी, नया बस्ता लाए हो दिवाली के लिए। नयी कैशबुक और लेजर लाए हो। मेरे लिए एक अदद नयी इंक कार्ट्रिज नहीं ला सकते? अब भी मुझे एचपी का अमरीकन बच्चा समझते हो? पांच बरस हो गए हैं इस घर में दीवाली मनाते। मुझे नयी कार्ट्रिज चाहिये, अभी और इसी वक्त चाहिए। मांग वाजिब थी। उसे कहा तो कि मंदी चल रही है पुरानी को रीफिल कर के काम चला लो। पर उस पर कोई असर नहीं हुआ। निगम का दावा धरा रह गया। कार्ट्रिज तो बाजार से ही संभव था जो 11 के पहले नहीं खुलता।

टाइम बरबाद करने के स्थान पर सीधे बाथरूम की शरण ली। ऑफिस का सारा काम तो प्रिंटर निपटा ही चुका था। स्नान-ध्यान करते ही भोजन मिल गया। रवानगी दर्ज कर ऑफिस आए तो पता लगा मुंशी नहीं आया था। उसे फोन किया तो पता लगा वह भी आज सीएल पर है। हम ने खुद ही अपनी फाइलें संभाली। समय लगा। अदालत पहुँच कर घड़ी देखी। तुरंत बड़े भाई टाइमखोटीकार का स्मरण हो आया। लगा वे हमें ही पूछ रहे थे कि बताओ किस के बारह बजे? वहाँ भी दो सहयोगी सीएल पर थे। एक ने बताया कि आज तो अदालतों में काम सस्पेंड कर दिया गया है। मैं ने कारण पूछा तो बताया गया कि एक वकील साहब की दीपावली के अवकाश में उन के भाई की मदद करते समय पूजा कर दी गई। अखबार में खबर तो मैं ने भी पढ़ी थी, लेकिन पुलिस ने पुजारी दल में से कुछ को पकड़ भी लिया था, इस लिए बिरादरी के सम्मान का कोई अवसर नहीं था। फिर भी सम्मान किया गया तो जरूर कोई राज रहा होगा। सम्मान के कारण केवल पेशियाँ नोट करने का ही काम शेष रह गया था।

मुंशी तो था नहीं। मैं खुद ही पेशियाँ नोट करने निकला,सोचा इस बहाने लोगों से दीवाली का राम-राम भी हो लेगा। जेब में पेन नहीं था तो पहले एक पेन भी खरीदना था। अपनी जगह से उठते ही राम-राम  शुरू हो ली। पेन वाले तक पहुंचने में घंटा भर लग गया। पेन खरीदा, एक अदालत से पेशी नोट कर बाहर निकला ही था कि मोबाइल थरथरा उठा। देखा तो सहयोगियों की घंटी थी कॉफी के लिए बुला रहे थे। हम सीधे केंटीन पहुँचे। कॉफी से निपट कर अदालतों का चक्कर लगाया तो पता लगा 80%  जज कैजुअल लीव पर हैं। काम वैसे ही नहीं होना था, एक-एक जज पर पांच-पांच अदालतों की फाइलों पर ऑटोग्राफ बनाने का भार था। बार ने अपने एक वकील के सम्मान का मौका भी न छोड़ा और न्याय प्रशासन की मदद भी कर दी। यह भी आकलन हो गया कि शनिवार को भी ये जज कैजुअल पर ही होंगे और काम नहीं होगा। सोमवार को निश्चित ही दीपावली मिलन का समारोह होना है, तो काम उस दिन भी नहीं होगा।

हमें भी सकून मिला कि अवकाश पर आए बच्चों के साथ चार दिन और बिताने को मिलेंगे।

सोमवार, 27 अक्टूबर 2008

पता नहीं उन की दीवाली कैसी होगी?

कल से ही घर पर हूँ, दीवाली की तैयारियाँ जोरों पर हैं। बिजली वाला बल्ब लगा गया है, कल रात से ही जलने लगे हैं। शोभा (पत्नी) लगातार व्यस्त है पिछले कई दिनों से। बल्कि यूँ कहूँ कि महिनो से। कभी सफाई, कभी पुताई, कभी धुलाई, बच्चों के लिए कपड़े, त्यौहार के लिए मिठाइयाँ और पकवान निर्माण और इन सब के साथ-साथ घर का रोजमर्रा का काम। कितनी ऊर्जा भरी पड़ी है महिलाओं में, मैं दंग रह जाता हूँ। बच्चे आ गए पहले बेटा आया उस ने कुछ कामों में हाथ बंटाया, बाकी समय अपने मित्रों से मिलने में लगा रहा। सब घर जो आए हैं दीवाली पर। बेटी आई तब से कहीं नहीं गई। एक पुराने काम वाले टॉपर को ठीक करने में लगी है दो दिन से बाकी माँ का हाथ बंटा रही है।  उसे वापसी का रिजर्वेशन दो नवम्बर का चाहिए, चार का उस के पास है। तत्काल में हो सकता है। लेकिन रेल्वे की कोई साइट यह नहीं बता रही है किस ट्रेन में कितनी सीटें खाली हैं। कल ही सुबह रिजर्वेशन विण्डो पर सबसे पहले लाइन में लगने के लिए कितने घंटे पहले जाना होगा हम यही कयास लगाने आज जा कर सुबह आठ बजे विण्डो का नजारा करने गए। कुल मिला कर काम उतना ही कठिन जितना हनुमान के लंका जा कर सीता का पता लगाने का था। वे लंका जला आए थे, हम से तो आज लाइटर से गैस भी न जली, माचिस से जलाना पड़ा। कल रिजर्वेशन करा पाएँगे या नहीं मैं तो क्या भगवान भी न बता पाएंगे।

दोपहर भोजनोपरांत कम्प्यूटर पर बैठा ही था कि फोन घनघना उठा। एक पुराने मुवक्किल का था। कहने लगा एक केस ले कर आ रहा हूँ, घर ही मिलना।  मैं सोच रहा था दीवाली के दिन कैसी विपत्ति आन पड़ी? अदालतें भी शुक्रवार के पहले नहीं खुलेंगी। फिर भी  वह सौ किलोमीटर दूर लाखेरी से कोटा आया हुआ है, तो जरूर कोई विपत्ति ही रही होगी, मैं ने आने को हाँ कह दिया। करीब बीस मिनट बाद वह मेरे घर के कार्यालय में था। करीब साठ की उम्र होगी उस की, साथ में एक तीस-पैंतीस की महिला और एक लड़का करीब पच्चीस साल का साथ था। उस ने बताया कि वह उस की बेटी और भान्जा है। फिर वह कथा बताने लगा।

 अठारह साल पहले बेटी का ब्याह किया था तब वह सोलह की थी। अब कोटा में ही अपने पति के साथ रहती है। उस के छह और आठ वर्ष के दो बेटे हैं। पति पेन्टिंग का काम करता है। बेटी ने बताया कि कई साल से वह सिलाई का काम करती है जिस से करीब तीन-चार हजार हर माह कमा लेती है। पति कभी काम पर जाता है कभी नहीं जाता। जितना कमाता है उस का क्या करता है? पता नहीं। तीन बार मकान बनाए तीनों बार बेच दिए। खुद किराए के मकान में रहते रहे। पिछली बार मकान बनाने पर कर्जा रह गय़ा था जिसे पिता जी से चालीस हजार ले कर चुकाया। लेकिन कुछ दिन बाद ही मकान को बेच कर एक प्लाट खरीद लिया और उस पर निर्माण का काम चालू कर दिया। उसने अपना कमाया एक लाख रुपया मकान बनाने में पति को दे दिया। करीब पचास हजार अपने पिता से ला कर और दे दिया। करीब  तीस हजार अपने सिलाई के ग्राहकों से उधार दिलवा दिया।

तीन माह पहले मकान तैयार होते ही वे उस में जा कर रहने लगे। एक कमरा मेरे पास है, एक ससुर के पास।  अब पति कहता है इस मकान से निकल मकान बेचूंगा। दारू पी कर मारता है। पुलिस में शिकायत भी कर चुकी हूँ। मोहल्ले में बदनाम करता है कि मेरी औरत अच्छी और वफादार नहीं है। झगड़ा शुरू हुआ था, घर खर्च से, घर में सारा खर्च मैं डालती हूँ। बच्चों की फीस मैं देती हूँ। एक दिन बच्चों के रिक्शे वाले को किराया देने को कहा तो झगड़ा हुआ और आदमी से मार खाई। उस के बाद से अक्सर हाथ उठा लेता है। ससुर और देवर पति का साथ देते हैं। मुझे सताने को बच्चों को मारने लगता है। वह कहता है मैं मकान बेचूंगा। मैं कहती हूँ कि मकान में दो लाख से ऊपर तो मेरा लगा है। घर मैं चलाती हूँ। तेरा क्या है? कैसे मकान बेचेगा? एक दिन पीहर गई तो मकान के कागज निकाल कर ले गया और अभी अपनी बहिन से मेरे और खुद के नाम नोटिस भिजवाया है कि मकान बहिन का है हम उस में किराएदार हैं। पांच महीने से किराया नहीं दिया है। मकान खाली कर संभला दो नहीं तो मुकदमा करेगी। अभी पुलिस ने समझौते के लिए बुलाया था, नहीं माना। सहायता केन्द्र से बाहर आते ही धमकी दे दी कि मैं तो चाहता था कि तू मुकदमा करे तो मेरा रास्ता खुले। पुलिस वालों ने 498-ए, 406 और 420 आई पी सी में,  घरेलू हिंसा कानून में और मकान में हिस्से के लिए मुकदमे करने को कहा है। मेरे मुवक्किल, उस के पिता ने कहा कि मार-पीट से बचने को उस ने अपने भान्जे को उस के पास रख छोड़ा है।

खैर तुरंत कुछ हो नहीं सकता था। मैं ने पुलिस द्वारा अब तक की गई कार्यवाही के कागज लाने को कहा और अदालत खुलने पर शुक्रवार को आने को कहा। वे चले गए।

ऐन दिवाली के बीच, जब मैं सब को हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित कर रहा हूँ, परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि की कामना कर रहा हूँ। वहाँ एक घर टूट रहा है। एक महिला ने अपने पैरों पर खड़े हो कर एक घर बनाया, उसे वह बचाना भी चाहती है। अच्छे खासे पेंटर पति को जो रोज कम से कम दो सौ रुपए, माह में पाँच हजार कमा सकता है। मकान बना कर बेचने और मुनाफा कमाने का ऐसा चस्का लगा है कि उस में उस ने अपने काम को  छोड़ दिया, पत्नी और अपने ससुर का कर्जदार हो गया, लेकिन उस कर्ज को चुकाना नहीं चाहता। चाहता है पत्नी घर चलाती रहे, वह मकान बनाए और बेचे। जल्दी ही करोड़ पति हो जाए। सम्पत्ति उस के पास रहे और पत्नी मार खाती रहे, बच्चे बिना कसूर पिटते रहें। पत्नी और बच्चे ऐसे रहें कि जब चाहो तब उन्हें घर से बाहर धकेल दो। 

खुद्दार, खुदमुख्तार पत्नी अब पिटना नहीं करना चाहती, वह अपने पैरों पर खड़ी है। केवल इतना चाहती है उस का घर बसे। लेकिन पति भी तो सहयोग करे। अभी वे सब एक ही घर में हैं। पर इस शीत-युद्ध के बीच पता नहीं कैसे उन की दीवाली होगी? और छह-आठ वर्ष के बच्चे पता नहीं उन की दीवाली कैसी होगी? और कब तक उन का घर बचा रहेगा?

शनिवार, 25 अक्टूबर 2008

लघुत्तम आलेख - मेरे घर दीवाली आ गई है।


पूर्वा (बेटी) अभी-अभी घर पहुँची है, वैभव (बेटा) परसों दोपहर ही पहुँच चुका था, मेरे घर दीवाली आ गई है।






आप सभी को दीपावली पर ढेरों शुभ कामनाएँ!