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बुधवार, 26 मई 2021

रामायण में बुद्ध की उपस्थिति


बुद्ध पूर्णिमा पर मेरी एक फेसबुक पोस्ट पर यह प्रश्न उठा कि पहले बुद्ध आए कि राम। मेरी वह पोस्ट वाल्मिकी रामायण के गीताप्रेस से प्रकाशित संस्करण के एक श्लोक पर आधारित था, जिसमें बुद्ध का उल्लेख आया है। यह सभी जानते हैं कि बुद्ध एक वास्तविक ऐतिहासिक चरित्र हैं। राम का चरित्र भी प्राचीन है, वह वास्तविक है या काल्पनिक यह कोई नहीं जानता। लेकिन जिस तरह इस चरित्र के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं उससे लगता है कि इस चरित्र का सदियों में विकास हुआ है। मैं इस विवाद में नहीं जाना चाहता। केवल यह कहना चाहता हूँ कि वाल्मिकी रामायण बुद्ध के बाद की रचना है। यह ईसा पूर्व की पहली या दूसरी शताब्दी में रची गयी है। महाभारत की भी ऐसी ही स्थिति है। यहाँ मैं रामायण का वह प्रसंग और श्लोक चित्रों सहित प्रस्तुत कर रहा हूँ।

जब भरत राम को वनवास से लौटाने के लिए चित्रकूट गए. उनके साथ दशरथ के एक मंत्री जाबालि भी भरत के साथ थे जिन्हें रामायण में ब्राह्मण शिरोमणि कहा है।(अयोध्याकाण्ड 108वाँ सर्ग) जब राम को सबने वापस अयोध्या लौटने के लिए अपने अपने मत के अनुसार समझाया। तब जाबालि ने भी अपने नास्तिक मत के अनुसार राम को समझाया। उसने कहा कि जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट हो जाता है। पिता जीव के जन्म में निमित्त कारण मात्र होता है। वास्तव में ऋतुमति माता के द्वरा गर्भ में धारण किए हुए वीर्य और रज का परस्पर संयोग होने पर ही जीव का यहाँ जन्म होता है। जो मनुष्य अर्थ का त्याग करके धर्म को अंगीकार करते हैं मैं उनके लिए शोक करता हूँ अन्य के लिए नहीं। क्योंकि वे इस जगत में धर्म के नाम पर केवल दुःख भोग कर मृत्यु के पश्चात नष्ट हो गए हैं। अष्टका आदि जितने श्राद्ध हैं, उन के देवता पितर हैं- श्राद्ध का दान पितरों को मिलता है यही सोच कर लोग श्राद्ध में प्रवृत्त होते हैं किन्तु विचार करके देखिए तो इसमें अन्न का नाश ही होता है। भला मरा हुआ मनुष्य क्या खाएगा? यदि यहाँ दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे के शरीर में जाता हो तो परदेश में जाने वालों के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए उनके रास्ते के लिए भोजन देना उचित नहीं है। देवताओं के लिए यज्ञ और पूजन करो, दान दो, यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करो, तपस्या करो और घर द्वार छोड़ कर संन्यासी बन जाओ इत्यादि बातें बताने वाले ग्रन्थ बुद्धिमान मनुष्यों ने दान की और लोगों की प्रवृत्ति कराने के लिए बनाए हैं। अतः आप अपने मन में निश्चय कीजिए कि इस लोक के सिवा कोई दूसरा लोक नहीं है। जो प्रत्यक्ष राज्य है उसे संभालिए और परोक्ष को छोड़ दीजिए।

राम इस नास्तिक मत पर बहुत कुपित होते हैं और जाबालि को बहुत बुरा भला कहते हैं। राम जाबालि के तर्कों का उत्तर तर्कों से नहीं देते बल्कि परम्परा का हवाला देते हैं और अन्त में कहते हैं कि “आपकी बुद्धि विषम मार्ग में स्थित है। आपने वेद विरुद्ध मार्ग का आश्रय ले रखा है। आप घोर नास्तिक और धर्म के रास्ते से कोसों दूर हैं। ऐसी पाखण्डमयी बुद्धि के द्वनार अनुचित विचार का प्रचार करने वाले आपको मेरे पिताजी ने अपना याजक (मंत्री) बना लिया, उनके इस कार्य की मैं निन्दा करता हूँ। जैसे चोर दण्डनीय होता है, उसी प्रकार बौद्ध (बुद्ध मतावलम्बी) भी दण्डनीय है। तथागत और नास्तिक को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। इस कारण को नास्तिक को चोर की तरह ही (मृत्यु दण्ड से) दण्डित किया जाना चाहिए। (अयोध्याकाण्ड सर्ग 109 श्लोक 34)

यह सब वाल्मिकी रामायण के गीताप्रेस संस्करण में है, अनुवाद भी उन्हीं का कराया हुआ है।

यहाँ दोनों अध्यायों के आरम्भिक पृष्ठों के चित्र तथा उस श्लोक का चित्र संलग्न है जिस में बुद्ध का उल्लेख है।








रविवार, 30 अक्टूबर 2016

दीपावली : मनुष्य के सामुहिक श्रम और मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य का त्यौहार




नाजों में ज्वार और धान की फसलों में बीज पक चुके हैं। बस फसलों को काट कर तैयार कर घर लाने की तैयारी है। फसल घर आने के बाद लोगों के पास वर्ष भर का खाद्य होगा और भोजन की चिन्ता वैसी नहीं रहेगी जैसी कृषि आरंभ होने के पहले हुआ करती थी। जब हमें (मनुष्य) को फल संग्रह, शिकार और पशुपालन पर निर्भर रहना पड़ता था। उस अवस्था में मनुष्य लगभग खानाबदोश होता था। उसे हमेशा ऐसे इलाके की तलाश होती थी जहां पशुओं के लिए चारा बहुतायत में हो और अन्य खाद्य व उपयोगी पदार्थों की प्राकृतिक उपज सहज मिल जाती हो। संभवतः इन्हीं की तलाश में मनुष्य अफ्रीका में पैदा हो कर दुनिया के कोने कोने तक पहुँचा। पर कृषि का आविष्कार ही वह महत्वपूर्ण मंजिल साबित हुई जिस ने उसे एक स्थान पर घर और बस्तियाँ बसा कर रहने लायक परिस्थितियाँ उत्पन्न कीं। वर्षा ऋतु के अवसान पर जब फसलें खेतों में लहलहा रही हों। फसलों की नयनाभिराम हरितिमा सुनहरे रंग में परिवर्तित हो रही हो। तब मन अचानक ही उमग उठे, कोई ढोली अचानक ढोल पर थाप दे और ताल सुन कर नर-नारियों के पैर थिरक उठे यह स्वाभाविक ही है। खेतों में इकट्ठा हुए इस स्वर्ण को घर लाने के पहले उस के स्वागत में गांवों के लोग दीपमालाएँ सजा कर गांवों को जगमगा दें यही दीवाली पर्व है।

दीवाली मनुष्य की भौतिक समृद्धि का त्यौहार है, यह भौतिक समृद्धि किसी अतीन्द्रीय शक्ति की देन नहीं है अपितु वर्षों के श्रम और अनुभव के योग से मनुष्य ने स्वयं प्राप्त की है। खेतों से घर लाई जा रही इस समृद्धि के स्वागत के लिए हम बरसात से खराब हुए घरों  को हम साफ करते हैं, संवारते हैं, सजाते हैं। एक व्यवस्था बनती है जिस में ढंग से रहने और फसलों को संग्रह कर सुरक्षित करने के प्रयास सम्मिलित है। यह मनुष्य के श्रम की विजय का त्यौहार है जो उस के जीवन से अंधकार को दूर करता है। यह समृद्धि जो घर लाई जा रही है वह उस के श्रम से उत्पन्न हुई है। वही लक्ष्मी है, लक्ष्मी का एक नाम श्रमोत्पन्ना है।

जैसे जैसे मनुष्य की सामुहिक चेतना ने धार्मिक रूप ग्रहण किया। वैसे वैसे समृद्धि के इस त्यौहार के साथ घटनाएँ और मिथक जुड़ते चले गए। ऐतिहासिक रूप से देखें तो दीवाली सब से पहले भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में जैन मनाने लगे। जैन पद्धति पूरी तरह नास्तिक पद्धति थी, उस का किसी आस्था या अतीन्द्रीय शक्ति से कोई संबंध न था। महावीर जिन्हों ने अपने कर्म से भगवान का दर्जा प्राप्त किया था उन की विदाई एक दुखद घटना के रूप में भी स्मृति में रखी जा सकती थी। लेकिन वे एक जीवन शैली निर्धारित कर गए थे। इस घटना को समृद्धि के त्यौहार के दिनों में एक दुखद घटना के रूम में मनाना मनुष्यों को न भाया जैन उसे प्रकाश पर्व के रूप में मनाने लगे। उस के कई वर्षों बाद जब सम्राट अशोक ने बोद्ध धर्म अंगीकार किया तो यह वही दिन था जब महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया। बौद्ध धर्म अंगीकार करना अशोक का एक अंधकार से प्रकाश की और पदार्पण करना था। 56 ईस्वी पूर्व में हिन्दू राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ  और वह दिन दीपमालिका के रूप में मनाया जाने लगा। ऐसा प्रतीत होता है कि दीपमालिका का आरंभ तभी से हुआ है।

ह काल ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का काल था। रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्य इसी काल में लिपिबद्ध हुए। उस के बाद पुराणों की रचना हुई जो लगभग 600 ईस्वी तक चलती रही। तब राम के अयोध्या लौटने, बलि पर वामन की विजय, लक्ष्मी का विष्णु के साथ वरण, पाण्डवों का माता कुन्ती और पत्नी द्रौपदी के साथ वनवास और गुप्तवास से हस्तिनापुर वापस लौटने, नरकासुर पर विजय, देवताओं की रक्षा के लिए दुर्गा का विकराल काली रूप धारण करने आदि के मिथक इस त्यौहार के साथ जुड़ते चले गए। 

म यदि दीपावली पर होने वाली लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती, काली व अन्य देवताओं की पूजा के विवरण में जाएँ तो हमें स्वयं ज्ञात हो जाएगा कि यह फसलों को घर लाने वाला समृद्धि का त्यौहार ही है। बाद में सिखों के तीसरे गुरू अमरदास जी द्वारा सिख पंथ को संस्थागत रूप देने, छठवें गुरू हरगोविंद जी की अन्य राजाओं के साथ मुक्ति और अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के शिलान्यास के दिन  भी इसी त्यौहार के साथ जुड़ गए। 

नुष्य के खेती का आविष्कार कर लेने से उत्पन्न भौतिक समृद्धि को घर लाने का यह त्यौहार धीरे धीरे अनेक कथाओं कहानियों को स्वयं के साथ जोड़ता चला गया और एक प्रकार से यह भारतीय उपमहाद्वीप की विविधता को एक पर्व में समेट लेने के अद्भुत त्यौहार के रूप में हमारे बीच विद्यमान है। इस त्यौहार पर किसी एक धर्मावलंबियो का अधिकार नहीं है। यह भारत में जन्मे लगभग सभी धर्मों के अनुयायियों का त्यौहार है। हर त्यौहार एक बड़ी आर्थिक गतिविधि भी होता है, इस तरह मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि अन्य भारतीय धर्मावलंबी भी इस त्यौहार से इस कदर जुड़ चुके हैं कि उन के योगदान के बिना इस त्यौहार को पूरा कर पाना संभव ही लगता है। यह त्यौहार जितना धार्मिक विश्वासियों का है उतना ही अपितु उस से अधिक उन अविश्वासियों का है जिन्हें हम नास्तिक के रूप में पहचानते हैं। मनुष्य की भौतिक समृद्धि में नास्तिकों का भी उतना ही योगदान है जितना कि आस्तिकों का। वे किसी देवता या ईश्वर को नहीं मानते, वे किसी तरह की अतीन्द्रीय शक्तियों की पूजा करने में विश्वास नहीं रखते लेकिन वे मनुष्य के श्रम का आदर करते हैं, उस की शक्ति को पहचानते हैं। समृद्धि के इस त्यौहार से वे कैसे अलग और अछूते रह सकते हैं। भारतीय महाद्वीप की अनेकता में एकता के इस रूप में वे भी शामिल हैं। वे मनुष्य के सामुहिक श्रम और मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य के त्यौहार के रूप में उसे मना सकते हैं, बल्कि उन्हें मनाना चाहिए।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

मैं नास्तिक क्यों हूँ? : भगतसिंह - Why I Am An Atheist? का हिन्दी अनुवाद

मैं नास्तिक क्यों हूँ? : भगतसिंह

Why I Am An Atheist? का हिन्दी अनुवाद


प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा है, उसे रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उन पर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी।  प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा।   यदि काफ़ी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति प्रेरित होता है, तो उसके विश्वास का स्वागत है।

उसका तर्क असत्य, भ्रमित या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है। लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का दिशा-सूचक है।

लेकिन निरा विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी।  यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे।  तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा, तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना।

यह तो नकारात्मक पक्ष हुआ। इसके बाद सही कार्य शुरू होगा, जिसमें पुनर्निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है।

जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूँ।

एशियाई दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी पर ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर नहीं मिला।  लेकिन जहाँ तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है, मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूँ।

मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है।  समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है।  इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है।  यही हमारा दर्शन है।

जहाँ तक नकारात्मक पहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं-

(i) यदि, जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की?

कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं।  कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है।   यदि वह किसी नियम में बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं।  फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है।

कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है।  नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था। उसने चंद लोगों की हत्या की थी।  उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए। और उसका इतिहास में क्या स्थान है?  उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं?

सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं।  जालिम, निर्दयी, शैतान-जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं।  एक चंगेज़ खाँ ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार ज़ानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं।

तब फिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो को जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, किस तरह न्यायोचित ठहराते हो?

फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे, जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं?   मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है?

सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी?

इन सब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है?  तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है।

ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा?

ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहाँ तक उचित था कि एक भूखे-खूँख्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी?

इसलिए मैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया?  आनंद लुटने के लिए?  तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’

मुसलमानों और ईसाइयों।  हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं।  मैं पूछता हूँ कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है?

तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते।  तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का फल है।

मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है।  उसे आज ही बुलाओ, उसे पिछला इतिहास दिखाओ।  उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो।

फिर हम देखेंगे कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है- सब ठीक है।

कारावास की काल-कोठरियों से लेकर, झोपड़ियों और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित होकर देख रहे हैं।

और उस मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा; और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक-जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है।

उसको यह सब देखने दो और फिर कहे-‘‘सबकुछ ठीक है।’’  क्यों और किसलिए?  यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो? ठीक है, तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ।

और तुम हिंदुओ, तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं।  ठीक है। तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं।

मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे।  उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है।  लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बातें कहाँ तक टिकती हैं।

न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़नेवाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है।  वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार।

आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है।  भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है।  केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है।  इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है।

लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है?  तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है।  तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो।

मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है?  तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे?  एक भी नहीं?

अपने पुराणों से उदाहरण मत दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है?  गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है।

मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे?

क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था?  या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर-अनुभव से सीखनी थीं?  तुम क्या सोचते हो। किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा?  चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता।

वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं।  उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं।

मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा?  ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी?

और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों-वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सज़ा भुगतनी पड़ती थी?

यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तो। ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं।  ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं।

जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो।  वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा।  धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं।

मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है?  ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है।  उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया?

उसने अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की?

वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना  अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव-समाज को पूँजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें।

आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं।  मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह इसे लागू करे।  जहाँ तक जनसामान्य की भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं, पर वह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं।

चलो, आपका परमात्मा आए और वह हर चीज़ को सही तरीके से कर दें।  अब घुमा-फिराकर तर्क करने का प्रयास न करें, वह बेकार की बातें हैं।  मैं आपको यह बता दूँ कि अंग्रेज़ों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताक़त है और हम में उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं।

वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं।  यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध-एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं।

कहाँ है ईश्वर?  वह क्या कर रहा है?  क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है?  वह नीरो है, चंगेज़ है, तो उसका नाश हो।

क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ?  ठीक है, मैं तुम्हें बतलाता हूँ।  चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसको पढ़ो।

सोहन स्वामी की ‘सहज ज्ञान’ पढ़ो।  तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिल जाएगा।  यह (विश्व-सृष्टि) एक प्राकृतिक घटना है।  विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी।

कब?  इतिहास देखो।  इसी प्रकार की घटना का जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव। डारविन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरांत सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस पर विजय पाने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्या है।

तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लँगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म में किए कार्यों का फल नहीं है तो?  जीवविज्ञान-वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है।

उनके अनुसार इसका सारा दायित्व माता-पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों के प्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते हैं जो बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसे विकलांग बना देते हैं।  स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकते हो-यद्यपि यह निरा बचकाना है।  वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे?

मेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा-जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे।  अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित।

विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे और उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे।

यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं।

राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।

ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की।

अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए।

जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है।  इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है।

वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था।  विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है।  समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरूद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी क्षुद्र विचारों के विरूद्ध लड़ना पड़ा था।

इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियाँ उसे पलट सकती हैं।

मेरी स्थिति आज यही है। यह मेरा अहंकार नहीं है।

मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है।  मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज़-बरोज़ की प्रार्थना-जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ-मेरे लिए सहायक सिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी।

मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ।

देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूँ।  मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा।  जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे।’  मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा।  ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी।

स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।’  पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है?  अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ।

रविवार, 19 जून 2011

शहीद भगत सिंह दोजख में?

ज तक हम इस बात का निर्णय नहीं कर पाए कि जब इंसान पैदा होता है तो वह नास्तिक होता है या आस्तिक?  मेरे विचार से इस दुनिया के तमाम इंसानों का बड़ा हिस्सा आज आस्तिक है। अर्थात किसी न किसी रुप में वह ईश्वर, अल्लाह या गोड में विश्वास करता है। एक ऐसी शक्ति में, जिस ने इस दुनिया को बनाया है और कहीं बैठा इस दुनिया का संचालन करता है। बहुत कम और इने-गिने लोग इस दुनिया में नास्तिक होंगे जो यह विश्वास नहीं करते। फिर भी कुछ आस्तिकों को इस बात का भय लगा रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि लोग नास्तिक होते जाएँ और इस दुनिया में आस्तिक कम रह जाएँ। वे हमेशा कुछ न कुछ ऐसा अवश्य करते हैं जिस से वे ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते रहें। दुनिया में जिन लोगों की रोजी-रोटी ईश्वर के अस्तित्व से ही जुड़ी हुई है, उन लोगों की बात तो समझ में आती है कि वे उस के होने की बात का प्रचार करते रहते हैं। क्यों कि यदि लोग ईश्वर में विश्वास करना बंद कर दें तो दुनिया भर के पंडे, पुजारियों, मुल्लाओं, काज़ियों, पादरियों आदि का तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए। इस के अलावा भी दुनिया भर में लाखों-करोडों संगठन इस बात के लिए ही बने हैं कि वे ईश्वर के होने को लगातार सिद्ध करते रहें। दुनिया भर की किताबों की यदि श्रेणियाँ बनाई जाएँ तो शायद सब से अधिक पुस्तकें इसी श्रेणी की मिलेंगी जो किसी न किसी तरह से ईश्वर के अस्तित्व को बचाने में लगी रहती हैं। बहुत से संगठन तो ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए मरने मारने को तैयार रहते हैं। इतना धन, इतनी श्रमशक्ति ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने में लगातार खर्च की जाती है कि यदि उसे मानव कल्याण में लगा दिया जाए तो शायद यह दुनिया ही स्वर्ग बन जाए। इतना होने पर भी न जाने क्यों इस बात का भय लोगों को बना रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि लोग ईश्वर को मानने से मना कर दें? ये सारे तथ्य किसी भी विचारवान आस्तिक इंसान को यह सोचने को बाध्य कर देते हैं कि वाकई ईश्वर है भी या नहीं?

ज एकाधिक ब्लागों पर इसी तरह की चर्चा की गई। एक स्थान पर यह लिखा था कि इतनी बड़ी दुनिया है तो अवश्य ही उसे बनाने और चलाने वाला कोई होगा। मैं ने उस पर ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ गया। यह तर्क इतनी बार दिया जा चुका है कि पहली नजर में ही सब से लचर लगता है। वस्तुतः यह तर्क है ही नहीं। यह तर्क  सब से पहले तो इस मान्यता पर आधारित है कि कुछ भी, कोई भी चीज किसी के बनाने से ही अस्तित्व में आती है और किसी न किसी के चलाने से चलती है। इस मान्यता का अपने आप में कोई सिर पैर नहीं है। दुनिया में बहुत से चीजें हैं जो न किसी के बनाने से बनती हैं और न किसी के चलाने से चलती हैं। वे अपने आप से अस्तित्व में हैं और अपने आप चलती हैं। किसी स्थान को बिलकुल निर्जन छोड़ दें वह कुछ ही वर्षों में या तो जंगल में तब्दील हो जाता है, या फिर मरुस्थल में। उन्हें कोई नहीं बनाता। इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान अवश्य देता है कि कोई निर्जन स्थल जंगल  या मरुस्थल में क्यों बदल जाता है।  लेकिन फिर भी लोग इसे ईश्वर का कोप या मेहरबानी सिद्ध करने में जुटे रहते हैं। 

दि यह मान भी लिया जाए कि कुछ भी किसी के बनाए बिना अस्तित्व में नहीं आता और किसी के चलाए बिना नहीं चलता। इस आधार पर हम यह मान लें कि जितनी भी जीवित या निर्जीव वस्तुएँ इस दुनिया में अस्तित्व में हैं उन्हें बनाने और चलाने वाला कोई ईश्वर है तो फिर यह प्रश्न हमारे सामने आ कर खड़ा हो जाएगा कि फिर ईश्वर को किसने बनाया। हमें अपने उसी लचर तर्क के आधार पर यह मानने को बाध्य होना पड़ेगा कि उसे फिर किसी उस से बड़े ईश्वर ने बनाया होगा और अंत में हमें यह बात माननी होगी कि कोई चीज ऐसी है जो बिना किसी के बनाए भी अस्तित्व में है और स्वतः चलायमान है। यदि हमें अंत में जा कर यह मानना ही था कि कोई चीज ऐसी है जो बिना किसी के बनाए भी अस्तित्व में है और स्वतः चलायमान है तो फिर इतनी कवायद और कसरत करने तथा कल्पना करने की आवश्यकता क्या है कि इस विश्व को बनाने वाला और चलाने वाला कोई है। हम इस विश्व को ही बिना किसी के बनाए भी अस्तित्व में होना और स्वतः चलायमान होना क्यों नहीं मान लेते? इस तरह इस तर्क का दम अपने ही कर्म से टूट जाता है।

क मित्र ने ईश्वर को अपने लाभ हानि से जोड़ दिया है कि ईश्वर को मानने में फायदा ही फायदा है और न मानने में नुकसान ही नुकसान। वे लिखते हैं ...

मान लो यदि कोई खुदा नहीं तो यह इंसान जिसने  अल्लाह के बताए  रास्ते पे चलते हुई ज़िंदगी गुजारी उसका क्या नुकसान हुआ?  यही कि जीवन मैं थोडा सा कष्ट सहा और शराब नहीं पी,  बलात्कार नहीं किया, झूट नहीं बोला, गरीबों कि मदद कि , नमाजें पढी ,रोज़ा रखा इत्यादि और जिसने  इश्वर  को नहीं माना उसने क्या पाया ? यही कि नमाज़ नहीं पढनी पडी, दुनिया मैं जिस चीज़ का मज़ा चाहा लेता रहा,जैसे दिल चाहा जीता रहा. बाकी दोनों को मरना था सो मर गए. सब ख़त्म. 
अब मान लो कि अल्लाह , इश्वेर है और दोनों के मरने पे हिसाब किताब हुआ तो जिसने अल्लाह के होने से इनकार  किया था उसका क्या होगा? नरक मिलेगा और वो भी ऐसी सजा कि जिस से बचना संभव ना होगा और यह सजा दुनिया मैं नमाज़, रोज़ा, और सत्य बोलने से अधिक कष्ट दायक  होगी. अक्लमंद इंसान के लिए अल्लाह के वजूद को मान ने कि बहुत सी दलीलें हैं और अगर कोई फाएदे और नुकसान कि ही बोली समझता है तो अल्लाह  को मानने मैं ही फ़ाएदा नजर आता है. 

यानी मनुष्य सच की खोज छोड़ दे और अपने लाभ और हानि से इस बात को तय करे कि ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं? गोया ईश्वर न हुआ कोई दुनियावी सौदा हो गया। सभी भारतवासियों के दिलों में सम्मान पाने वाले क्रांतिकारी शहीद भगतसिंह ने फाँसी की सजा होने के बाद भी यह घोषणा की कि वे नास्तिक हैं  और यह भी बताया कि वे नास्तिक क्यों हैं? उन का यह आलेख यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। 

ब हम इन मित्र की बात को सही मान लें तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि शहीद भगतसिंह मरने के बाद दोजख (नर्क) में भेजे गए होंगे और वहाँ अवश्य ही उन्हें यातनाएँ दी जा रही होंगीं। क्या आप इस तथ्य को स्वीकार कर पाएंगे?