@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: ईश्वर
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मंगलवार, 31 मार्च 2020

भगवान का नाम लेने का डर?


एक अखबार के मालिक हैं। (हालाँकि अखबार की प्रेस लाइन में उनका नाम नहीं जाता, न संपादक के रूप में और न ही किसी और रूप में) विशेष अवसरों पर वे मुखपृष्ठ पर अपने नाम से संपादकीय लिखते हैं। आजकल भी कोविद-19 महामारी एक विशेष अवसर है और वे संपादकीय लिख रहे हैं।

आज उन्होंने अपने संपादकीय में 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के बाद देश के औद्योगिक केन्द्रों पर कारखाने बन्द हो जाने के कारण अपने अपने गाँवों की ओर पैदल ही चल पड़े मजदूरों और उनके परिवारों के बारे जिस तरीके से लिखा है। इसे उन्होंने प्रशासन की असफलता और केन्द्र व राज्यों के बीच सामंजस्य के अभाव को मुख्य कारण बताते हुए लिखा है कि "अचानक ही उद्योग बंद हो गए, अधिकारी बेखबर। क्या इस परिस्थिति को योजना बना कर नियंत्रित नहीं किया जा सकता था। क्या यह अचानक हो गया? नहीं। अधिकारियों ने रुचि नहीं दिखाई और उद्योग एक ही दिन बंद हो गए।"

मुझे समझ नहीं आया कि मालिक क्या कहना चाहते हैं। देश के किन अधिकारियों को दोषी मान रहे हैं। क्या किसी भी अधिकारी को भी 24 मार्च की रात 8 बजे के पहले पता था कि देश लॉकडाउन होने वाला है? घोषणा करने वालों के अलावा पूरी दुनिया को रात आठ बजे पता लगा कि चार घंटे के बाद रात 12 बजे 25 मार्च आरंभ होते ही लॉकडाउन शुरू हो जाएगा।


वह शख्स जो हमेशा अपने काम में रहस्य-रोमांच बनाए रखना चाहता है। उसने अचानक घोषणा की। उसकी घोषणा से देश में क्या होने जा रहा है इसका उसे तनिक भी गुमान नहीं था। वह तो देश का भगवान बना भक्तो के कीर्तन-भजन के नशे मे चूर हो कर घोषणा कर रहा था कि अब 'ब्रह्मांड" को बचाने का बस एक ही तरीका है और वह है "लॉक डाउन"। केवल भगवान ही है जो हमेशा केवल यही सोचता है कि मैं कभी गलत नहीं सोचता, गलत नहीं कर सकता। उसके भक्त भी भक्ति के नशे में चूर यही समझते हैं। जब किसी भक्त का नशा उतरता है तो वह नीत्शे की तरह कहता है "भगवान" मर चुका। जबकि वास्तविकता तो यह है कि कभी कोई भगवान नहीं था। वह हमेशा से केवल एक इल्यूजन (भ्रम) था और है।


खैर, हमारे मालिक साहब भी उस इल्यूजनरी भगवान से डरते हैं, क्या पता कब वे यमराज को भिजवा दें। उन्होंने अपने संपादकीय के निष्कर्ष को हवा में छोड़ दिया कि "जवाबदेह कौन? वे भगवान का नाम लेने से उसी तरह डरे हुए दिखाई दिए, जैसे प्रहलाद की कथा में हिरण्यकश्यप के राज्य में प्रहलाद के अलावा हर कोई विष्णु का नाम लेने से डरता था।


गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019

बच्चा-ईश्वर का मनोरंजक खिलौना


बचपन में परिवार और समाज का वातावरण पूरी तरह भाववादी था। उस वातावरण में एक ईश्वर था जिस ने इस सारे जगत का निर्माण किया था। जैसे यह जगत जगत नहीं था बल्कि कोई खिलौना था जो किसी बच्चे ने अपने मनोरंजन के लिए बनाया हो। वह अपनी इच्छा से उसे तोड़ता-मरोड़ता, बनाता-बिगाड़ता रहता दुरुस्त करता रहता था। कभी जब उसे लगता कि अब यह खिलौना उस का मनोरंजन कतई नहीं कर सकेगा तो वह उसे पूरी तरह नष्ट कर देता था। उस खिलौने और उस के अवयवों की तो पूरी तरह प्रलय हो जाती थी। वह बच्चा (ईश्वर) फिर से एक नया खिलौना बनाता था जो नई सृष्टि होती थी। 

यह पूरा रूपक मेरे बाल मन को बिलकुल रुचिकर नहीं लगता था। मैं एक बच्चा उस स्वयंभू बच्चे के किसी एक खिलौना का बहुत ही उपेक्षित अवयव, एक स्क्रू, एक कील या सजावट का कोई सामान वगैरा में से कुछ होता था। मेरा बालमन कभी यह स्वीकार कर ही नहीं पाता था कि मैं उस खिलौने का अवयव हूँ। मेरा मन करता था कि इस खिलौने को मैं ही तोड़ फैंकूँ। पर कैसे? यह समझना चाहता था। 

बहुत जल्दी पढ़ने लगा था। घर में किताबें थीं, ज्यादातर धार्मिक। जब बच्चा जल्दी पढ़ना सीख लेता है तो वह दुनिया की हर वह इबारत बाँच लेना चाहता है जो वह बाँच सकता है। मेरा भी वैसा ही हाल हुआ। जेब खर्च की इकन्नी के दो पैसों के कड़के सेव और दो पैसों का कलाकंद लेता जिसे कन्दोई अखबार के टुकड़ों पर रख कर देता। उस जमाने का यह सब से अच्छा नाश्ता करते हुए मैं अखबार के उन टुकड़ों को बांचना कभी नहीं भूलता। वह आदत अभी तक भी है। जब कभी अखबार के टुकड़ों पर कैन्टीन वाला कोई चीज देता है तो अखबार का वह टुकड़ा पढ़े बिना अभी भी नहीं रहा जाता। 

जल्दी ही पहुँच धार्मिक पुस्तकों तक हुई। रामचरित मानस, भागवत, अठारह पुराण, दुर्गा शप्तशती बांच ली गयी। मनोरंजन के लिए बनाए गए खिलौने की थ्योरी सब जगह भरी पड़ी थी। पर कहीं से भी तार्किक नहीं थी और गले नहीं उतर रही थी, न उतरी। इस बीच बाइबिल का न्यू-टेस्टामेंट हत्थे चढ़ गया। वह उस से भी गया बीता निकला, जो पुराणों और उन दो महाकाव्यों में था। 

इन किताबों के अलावा जिस चीज ने सब से अधिक आकर्षित किया वह विज्ञान की पुस्तकें थीं। उन में सब कुछ तार्किक था। उन्हें समझने के लिए सीधे-सादे प्रयोग थे जो कबाड़ का उपयोग कर किए जा सकते थे। मंदिर में रहता था जिस में बहुत सारा पुराना कबाड़ था। बचपन से प्रयोग कर विज्ञान को परखने लगा। हर बार नया सीखता और उस में मजा भी बहुत आने लगा। उन प्रयोगों के बीच बहुत कुछ ऐसा भी था जिस से लोग अनभिज्ञ थे। हम सिद्धान्तों से अनजान लोगों को उन के बहाने बेवकूफ बना कर खुद को जादूगर और चमत्कारी सिद्ध कर सकते थे। पर अंदर की ईमानदारी वह नहीं करने देती थी। 

विज्ञान ने एक दिन मुझे डार्विन पढवाया, आनुवंशिकी बँचवाई। कोशिका विज्ञान पढ़वाया। तब यह सिद्ध हो गया कि यह दुनिया किसी बच्चानुमा ईश्वर का मनोरंजन के लिए बनाया खिलौना नहीं है। बल्कि एक बहुत बड़ा सिस्टम है जो अपने नियमों से चल रहा है। मैं फिर भी संशयवादी बना रहा। जितना बाँचता गया, जितना जानता गया। नए नए सवाल सामने आते गए। उन्हें तलाशता तो और नए सवाल आ खड़े होते। ऐसे सवाल जो उन लोगों के लिए बहुत अनजान थे, उन की समझ से बिलकुल परे जो लोग अभी तक उस बच्चा ईश्वर के मनोरंजक खिलौने में उलझे पड़े थे। उन की दुनिया के सारे झंझट, सारे संशय वहीं खत्म हो चुके थे, जहाँ उन्हों ने खुद को उस खिलौने का एक अवयव, एक स्क्रू, एक कील या सजावट का कोई सामान समझ लिया था। 

- दिनेशराय द्विवेदी

मंगलवार, 30 अक्टूबर 2018

पूजा-पाठ के फेर में क्यों पड़ूं?



दुर्घटना में बाबूलाल के पैर की हड्डी टूट गई और वह तीन महीने से दुकान नहीं आ रहा है। पूरे दिन दुकान छोटे भाई जीतू को ही देखनी पड़ती है। आज सुबह करीब 11:45 बजे मैं उसकी दुकान पर पहुंचा तो वह दुकान शुरू ही कर रहा था। 

जीतू
मैंने उससे पूछा - तुम दुकान आने में काफी लेट हो जाते हो। 

तो वह कहने लगा- भाई साहब सुबह पूजा पाठ करने में दो-तीन घंटे लग जाते हैं। 

मैंने पलट कर पूछा - पूजा में दो-तीन घंटे क्यों लगते हैं, और पूजा करने की जरूरत क्या है? 

वह कहने लगा- भगवान को तो मानना पड़ता है, पूजा भी करनी पड़ती है। 

मैंने उसे कहा - तुम्हारा भगवान न्याय प्रिय है। हर व्यक्ति को कर्म के अनुसार फल देता है, बुरे कर्मो वालों को बुरा फल देता है, अच्छे कर्म वालों को अच्छा फल देता है। तो फिर यह पूजा पाठ करने से मिलने वाले फल पर क्या प्रभाव पड़ेगा? अगर पूजा-पाठ पाठ भजन-कीर्तन उपवास-व्रत से फर्क पड़ता है। तो फिर यह सब रिश्वत या चमचागिरी की तरह नहीं है क्या? और यदि ऐसा है तो फिर तुम्हारा भगवान किसी रिश्वतखोर अफसर या भ्रष्ट नेता की तरह नहीं है क्या?

यह सुनने पर जीतू हंसने लगा। तब वहां उस वक्त एक और ग्राहक नागपाल जी खड़े थे। वह कहने लगे - भाई मैं तो कोई पूजा पाठ नहीं करता। भगवान होगा तो होगा। पूजा पाठ से ना तो वह प्रसन्न होगा, और ना ही पूजा पाठ नहीं करने से अप्रसन्न होगा। फिर मैं इस पूजा-पाठ के फेर में क्यों पड़ूं?

रविवार, 19 जून 2011

शहीद भगत सिंह दोजख में?

ज तक हम इस बात का निर्णय नहीं कर पाए कि जब इंसान पैदा होता है तो वह नास्तिक होता है या आस्तिक?  मेरे विचार से इस दुनिया के तमाम इंसानों का बड़ा हिस्सा आज आस्तिक है। अर्थात किसी न किसी रुप में वह ईश्वर, अल्लाह या गोड में विश्वास करता है। एक ऐसी शक्ति में, जिस ने इस दुनिया को बनाया है और कहीं बैठा इस दुनिया का संचालन करता है। बहुत कम और इने-गिने लोग इस दुनिया में नास्तिक होंगे जो यह विश्वास नहीं करते। फिर भी कुछ आस्तिकों को इस बात का भय लगा रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि लोग नास्तिक होते जाएँ और इस दुनिया में आस्तिक कम रह जाएँ। वे हमेशा कुछ न कुछ ऐसा अवश्य करते हैं जिस से वे ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते रहें। दुनिया में जिन लोगों की रोजी-रोटी ईश्वर के अस्तित्व से ही जुड़ी हुई है, उन लोगों की बात तो समझ में आती है कि वे उस के होने की बात का प्रचार करते रहते हैं। क्यों कि यदि लोग ईश्वर में विश्वास करना बंद कर दें तो दुनिया भर के पंडे, पुजारियों, मुल्लाओं, काज़ियों, पादरियों आदि का तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए। इस के अलावा भी दुनिया भर में लाखों-करोडों संगठन इस बात के लिए ही बने हैं कि वे ईश्वर के होने को लगातार सिद्ध करते रहें। दुनिया भर की किताबों की यदि श्रेणियाँ बनाई जाएँ तो शायद सब से अधिक पुस्तकें इसी श्रेणी की मिलेंगी जो किसी न किसी तरह से ईश्वर के अस्तित्व को बचाने में लगी रहती हैं। बहुत से संगठन तो ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए मरने मारने को तैयार रहते हैं। इतना धन, इतनी श्रमशक्ति ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने में लगातार खर्च की जाती है कि यदि उसे मानव कल्याण में लगा दिया जाए तो शायद यह दुनिया ही स्वर्ग बन जाए। इतना होने पर भी न जाने क्यों इस बात का भय लोगों को बना रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि लोग ईश्वर को मानने से मना कर दें? ये सारे तथ्य किसी भी विचारवान आस्तिक इंसान को यह सोचने को बाध्य कर देते हैं कि वाकई ईश्वर है भी या नहीं?

ज एकाधिक ब्लागों पर इसी तरह की चर्चा की गई। एक स्थान पर यह लिखा था कि इतनी बड़ी दुनिया है तो अवश्य ही उसे बनाने और चलाने वाला कोई होगा। मैं ने उस पर ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ गया। यह तर्क इतनी बार दिया जा चुका है कि पहली नजर में ही सब से लचर लगता है। वस्तुतः यह तर्क है ही नहीं। यह तर्क  सब से पहले तो इस मान्यता पर आधारित है कि कुछ भी, कोई भी चीज किसी के बनाने से ही अस्तित्व में आती है और किसी न किसी के चलाने से चलती है। इस मान्यता का अपने आप में कोई सिर पैर नहीं है। दुनिया में बहुत से चीजें हैं जो न किसी के बनाने से बनती हैं और न किसी के चलाने से चलती हैं। वे अपने आप से अस्तित्व में हैं और अपने आप चलती हैं। किसी स्थान को बिलकुल निर्जन छोड़ दें वह कुछ ही वर्षों में या तो जंगल में तब्दील हो जाता है, या फिर मरुस्थल में। उन्हें कोई नहीं बनाता। इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान अवश्य देता है कि कोई निर्जन स्थल जंगल  या मरुस्थल में क्यों बदल जाता है।  लेकिन फिर भी लोग इसे ईश्वर का कोप या मेहरबानी सिद्ध करने में जुटे रहते हैं। 

दि यह मान भी लिया जाए कि कुछ भी किसी के बनाए बिना अस्तित्व में नहीं आता और किसी के चलाए बिना नहीं चलता। इस आधार पर हम यह मान लें कि जितनी भी जीवित या निर्जीव वस्तुएँ इस दुनिया में अस्तित्व में हैं उन्हें बनाने और चलाने वाला कोई ईश्वर है तो फिर यह प्रश्न हमारे सामने आ कर खड़ा हो जाएगा कि फिर ईश्वर को किसने बनाया। हमें अपने उसी लचर तर्क के आधार पर यह मानने को बाध्य होना पड़ेगा कि उसे फिर किसी उस से बड़े ईश्वर ने बनाया होगा और अंत में हमें यह बात माननी होगी कि कोई चीज ऐसी है जो बिना किसी के बनाए भी अस्तित्व में है और स्वतः चलायमान है। यदि हमें अंत में जा कर यह मानना ही था कि कोई चीज ऐसी है जो बिना किसी के बनाए भी अस्तित्व में है और स्वतः चलायमान है तो फिर इतनी कवायद और कसरत करने तथा कल्पना करने की आवश्यकता क्या है कि इस विश्व को बनाने वाला और चलाने वाला कोई है। हम इस विश्व को ही बिना किसी के बनाए भी अस्तित्व में होना और स्वतः चलायमान होना क्यों नहीं मान लेते? इस तरह इस तर्क का दम अपने ही कर्म से टूट जाता है।

क मित्र ने ईश्वर को अपने लाभ हानि से जोड़ दिया है कि ईश्वर को मानने में फायदा ही फायदा है और न मानने में नुकसान ही नुकसान। वे लिखते हैं ...

मान लो यदि कोई खुदा नहीं तो यह इंसान जिसने  अल्लाह के बताए  रास्ते पे चलते हुई ज़िंदगी गुजारी उसका क्या नुकसान हुआ?  यही कि जीवन मैं थोडा सा कष्ट सहा और शराब नहीं पी,  बलात्कार नहीं किया, झूट नहीं बोला, गरीबों कि मदद कि , नमाजें पढी ,रोज़ा रखा इत्यादि और जिसने  इश्वर  को नहीं माना उसने क्या पाया ? यही कि नमाज़ नहीं पढनी पडी, दुनिया मैं जिस चीज़ का मज़ा चाहा लेता रहा,जैसे दिल चाहा जीता रहा. बाकी दोनों को मरना था सो मर गए. सब ख़त्म. 
अब मान लो कि अल्लाह , इश्वेर है और दोनों के मरने पे हिसाब किताब हुआ तो जिसने अल्लाह के होने से इनकार  किया था उसका क्या होगा? नरक मिलेगा और वो भी ऐसी सजा कि जिस से बचना संभव ना होगा और यह सजा दुनिया मैं नमाज़, रोज़ा, और सत्य बोलने से अधिक कष्ट दायक  होगी. अक्लमंद इंसान के लिए अल्लाह के वजूद को मान ने कि बहुत सी दलीलें हैं और अगर कोई फाएदे और नुकसान कि ही बोली समझता है तो अल्लाह  को मानने मैं ही फ़ाएदा नजर आता है. 

यानी मनुष्य सच की खोज छोड़ दे और अपने लाभ और हानि से इस बात को तय करे कि ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं? गोया ईश्वर न हुआ कोई दुनियावी सौदा हो गया। सभी भारतवासियों के दिलों में सम्मान पाने वाले क्रांतिकारी शहीद भगतसिंह ने फाँसी की सजा होने के बाद भी यह घोषणा की कि वे नास्तिक हैं  और यह भी बताया कि वे नास्तिक क्यों हैं? उन का यह आलेख यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। 

ब हम इन मित्र की बात को सही मान लें तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि शहीद भगतसिंह मरने के बाद दोजख (नर्क) में भेजे गए होंगे और वहाँ अवश्य ही उन्हें यातनाएँ दी जा रही होंगीं। क्या आप इस तथ्य को स्वीकार कर पाएंगे? 

रविवार, 24 जनवरी 2010

बीज ही वृक्ष है।

मेरे एक मित्र हैं, अरविंद भारद्वाज, आज कल राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बैंच में वकालत करते हैं। वे कोटा से हैं और कोई पन्द्रह वर्ष पहले तक कोटा में ही वकालत करते थे। कुछ वर्ष पूर्व तक वे अपने पिता जी की स्मृति में एक आयोजन प्रतिवर्ष करते थे। एक बार उन्हों ने ऐसे ही अवसर पर एक आयोजन किया और एक संगोष्ठी रखी। इस संगोष्ठी का विषय कुछ अजीब सा था। शायद "भारतीय दर्शनों में ईश्वर" या कुछ इस से मिलता जुलता। कोटा के एक धार्मिक विद्वान पं. बद्रीनारायण शास्त्री को उस पर अपना पर्चा पढ़ना था और उस के उपरांत वक्तव्य देना था। उस के बाद कुछ विद्वानों को उस पर अपने वक्तव्य देने थे।

मैं संगोष्ठी में सही समय पर पहुँच गया। पंडित बद्रीनारायण शास्त्री ने अपना पर्चा पढ़ा और उस के उपरांत वक्तव्य आरंभ कर किया। जब बात भारतीय दर्शनों की थी तो षडदर्शनों को उल्लेख स्वाभाविक था। दुनिया भर के ही नहीं भारतीय विद्वानों का बहुमत सांख्य दर्शन को अनीश्वरवादी और नास्तिक दर्शन  मानते हैं। स्वयं बादरायण और शंकराचार्य ने सांख्य की आलोचना उसे नास्तिक दर्शन कहते हुए की है। पं. बद्रीनारायण शास्त्री जी को षडदर्शनों में सब से पहले सांख्य का उल्लेख करना पड़ा, क्यों कि वह भारत का सब से प्राचीन दर्शन है। शास्त्री जी कर्मकांडी ब्राह्मण और श्रीमद्भगवद्गीता में परम श्रद्धा रखने वाले। गीताकार ने कपिल को मुनि कहते हुए कृष्ण के मुख से यह कहलवाया कि मुनियों में कपिल मैं हूँ। भागवत पुराण ने कपिल को ईश्वर का अवतार कह दिया। कपिल सांख्य के प्रवर्तक भी हैं और गीता का मुख्य आधार भी सांख्य दर्शन है।  संभवतः इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए उन्हों ने धारणा बनाई कि सांख्य दर्शन एक अनीश्वरवादी दर्शन नहीं हो सकता, स्वयं ब्रह्म का अवतार कपिल ऐसे दर्शन का प्रतिपादन बिलकुल नहीं सकते? इस धारणा के बनने के उपरांत वे संकट में पड़ गए।
खैर, शास्त्री जी का व्याख्यान केवल इस बात पर केंद्रित हो कर रह गया कि सांख्य एक ईश्वरवादी दर्शन है। अब यह तो रेत में से तेल निचोड़ने जैसा काम था।  शास्त्री जी तर्क पर तर्क देते चले गए कि ईश्वर का अस्तित्व है। उन्हों ने भरी सभा में इतने तर्क दिए कि सभा में बैठे लोगों में से अधिकांश में जो कि  लगभग सभी ईश्वर विश्वासी थे, यह संदेह पैदा हो गया कि ईश्वर का कोई अस्तित्व है भी या नहीं? सभा की समाप्ति पर श्रोताओं में यह चर्चा का विषय रहा कि आखिर पं. बद्रीनारायण शास्त्री को यह क्या हुआ जो वे ईश्वर को साबित करने पर तुल पड़े और उन के हर तर्क के बाद लग रहा था कि उन का तर्क खोखला है। ऐसा लगता था जैसे ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं और लोग जबरन उसे साबित करने पर तुले हुए हैं।

मैं ने यह संस्मरण अनायास ही नहीं आप के सामने सामने रख दिया है। इन दिनों एक लहर सी आई हुई है। जिस में तर्कों के टीले परोस कर यह समझाने की कोशिश की जाती है कि अभी तक विज्ञान भी यह साबित नहीं कर पाया है कि ईश्वर नहीं है, इस लिए मानलेना चाहिए कि ईश्वर है। कल मुझे एक मेल मिला जिस में एक लिंक था। मैं उस लिंक पर गया तो वहाँ बहुत सी सामग्री थी जो ईश्वर के होने के तर्क उपलब्ध करवा रही थी। इधर हिन्दी ब्लाग जगत में भी कुछ ब्लाग यही प्रयत्न कर रहे हैं और रोज एकाधिक पोस्टें देखने को मिल जाती है जिस में ईश्वर या अल्लाह को साबित करने का प्रयत्न किया जाता है। इस सारी सामग्री का अर्थ एक ही निकलता है कि दुनिया में कोई भी चीज किसी के बनाए नहीं बन सकती। फिर यह जगत बिना किसी के बनाए कैसे बन सकता है, उसे बनाने वाली अवश्य ही कोई शक्ति है। वही शक्ति ईश्वर है। इसलिए सब को मान लेना चाहिए कि ईश्वर है।

मैं अक्सर एक प्रश्न से जूझता हूँ कि जब बिना बनाए कोई चीज हो ही नहीं सकती तो फिर ईश्वर को भी किसी ने बनाया होगा? तब यह उत्तर मिलता है कि ईश्वर या खुदा तो स्वयंभू है, खुद-ब-खुद है। वह अजन्मा है, इस लिए मर भी नहीं सकता। वह अनंत है। लेकिन इस तर्क ने मेरे सामने यह समस्या खड़ी कर दी कि यदि हम को अंतिम सिरे पर पहुँच कर यह मानना ही है कि कोई ईश्वर या खुदा या कोई चीज है जिस का खुद-ब-खुद अस्तित्व है तो फिर हमें उस की कल्पना करने की आवश्यकता क्यों है? हम इंद्रियों से और अब उपकरणों के माध्यम से परीक्षित और अनुभव किए जाने वाले इस अनंत जगत को जो कि उर्जा, पदार्थ, आकाश और समय व्यवस्था है उसे ही स्वयंभू और खुद-ब-खुद क्यों न मान लें? अद्वैत वेदांत भी यही कहता है कि असत् का तो कोई अस्तित्व विद्यमान नहीं और सत के अस्तित्व का कहीं अभाव नहीं। (नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सत् -श्रीमद्भगवद्गीता) विशिष्ठाद्वैत भी यही कहता है कि बीज ही वृक्ष है। अर्थात् जो भी जगत का कारण था वही जगत है। संभवतः इस उक्ति में यह बात भी छुपी है कि बीज ही वृक्ष में परिवर्तित हो चुका है। इसी तरह जगत का कारण, कर्ता ही इस जगत में परिवर्तित हो चुका है। इस जगत का कण-कण उस से व्याप्त है। जगत ही अपनी समष्टि में कारण तथा कर्ता है, और  खंडित होने पर उस का अंश।

शनिवार, 29 नवंबर 2008

आतंकवाद के विरुद्ध प्रहार

कल 'अनवरत' और 'तीसरा खंबा' पर मैं ने अपनी एक अपील 'यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं' प्रस्तुत की थी। अनेक साथियों ने उस अपील को उचित पाते हुए अपने ब्लाग पर और अन्यत्र जहाँ भी आवश्यक समझा उसे चस्पा किया। उन सभी का आभार कि देश-जागरण के इस काम में उन्हों ने सचेत हो कर योगदान किया।

कल के दिन अनेक ब्लागों के आलेखों पर मैं ने टिप्पणियाँ की हैं। अनायास ही इन्हों ने कविता का रूप ले लिया। मैं इन्हें समय की स्वाभाविक रचनाएँ और प्रतिक्रिया मानता हूँ। सभी एक साथ आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कोई भी पाठक इन का उपयोग कर सकता है। यदि चाहे तो वह इन के साथ मेरे नाम का उल्लेख कर करे। अन्यथा वह बिना मेरे नाम का उल्लेख किए भी इन का उपयोग कहीं भी कर सकता है। मेरा मानना है कि यह आतंकवाद के विरुद्ध इन का जिस भी तरह उपयोग हो, होना चाहिए।

ईश्वर का कत्ल
  • दिनेशराय द्विवेदी
कत्ल हो गया है
ईश्वर
उन्हीं लोगों के हाथों
पैदा किया था
जिन्हों ने उसे
मायूस हैं अब
कि नष्ट हो गया है।
उनका सब से बढ़ा
औज़ार





अब तो शर्म करो

  • दिनेशराय द्विवेदी
तलाशने गया था वह
अपनों के कातिलों को 


कातिल पकड़ा गया
तो कोई अपना ही निकला


फिर मारा गया वह 

अपना कर्तव्य करते हुए,

अब तो शर्म करो!


दरारें और पैबंद

  • दिनेशराय द्विवेदी
दिखती हैं
जो दरारें
और पैबंद
यह नजर का धोखा है 


जरा हिन्दू-मुसमां
का चश्मा उतार कर
अपनी इंन्सानी आँख से देख


यहाँ न कोई दरार है
और न कोई पैबंद।




आँख न तरेरे
  • दिनेशराय द्विवेदी
शोक!शोक!शोक!

किस बात का शोक?
कि हम मजबूत न थे
कि हम सतर्क न थे
कि हम सैंकड़ों वर्ष के
अपने अनुभव के बाद भी
एक दूसरे को नीचा और
खुद को श्रेष्ठ साबित करने के
नशे में चूर थे। 


कि शत्रु ने सेंध लगाई और
हमारे घरों में घुस कर उन्हें
तहस नहस कर डाला।

अब भी
हम जागें
हो जाएँ भारतीय 


न हिन्दू, न मुसलमां 
न ईसाई


मजबूत बनें
सतर्क रहें 


कि कोई
हमारी ओर
आँख न तरेरे।





बदलना शुरू करें

  • दिनेशराय द्विवेदी
हम खुद से
बदलना शुरू करें
अपना पड़ौस बदलें
और फिर देश को
रहें युद्ध में
आतंकवाद के विरुद्ध
जब तक न कर दें उस का
अंतिम श्राद्ध!




युद्धरत

  • दिनेशराय द्विवेदी

वे जो कोई भी हैं
ये वक्त नहीं
सोचने का उन पर

ये वक्त है
अपनी ओर झाँकने और
युद्धरत होने का

आओ संभालें
अपनी अपनी ढालें
और तलवारें

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2008

कोई काल नहीं जब नहीं था, वह

वह एक 
तब भी था
अब भी है
आगे भी रहेगा।
कोई काल नहीं जब 
नहीं था, वह
कोई काल नहीं होगा
जब वह नहीं होगा।
काल भी नहीं था,

तब भी था वह,
और तब भी जब
स्थान नहीं था। 
उस के बाहर नहीं था
कुछ भी 
न काल और न दिशाएँ
उस के बाहर आज भी नहीं 
कुछ भी।
न काल और न दिशाएँ 
और न ही प्रकाश
न अंधकार।
जो भी है सब कुछ 
है उसी के भीतर।
आप उसे सत् कहते हैं?
जो है वह सत् है जो था वह भी सत् ही था 
जो होगा वह भी सत् ही होगा।
असत् का तो 
अस्तित्व ही नही।
कोई नहीं उस का 
जन्मदाता,
वह अजन्मा है 
और अमर्त्य भी।
वही तेज भी 
और शान्त भी,
कौन मापेगा उसे? 
आप की स्वानुभूति।
वह मूर्त होगा
आप के चित् में।
क्या है वह? 
पुरुष? या 
प्रकृति?या 
प्रधान?

कुछ भी कहें 
वह रहेगा 
वही,
जो था 
जो है 
जो रहेगा।

मंगलवार, 30 सितंबर 2008

नवरात्र को आत्मानुशासन का पर्व बनाएँ

छह माह पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ नववर्ष का पहला पखवाड़ा नीम की कोंपलों और काली मिर्च के सेवन और एक समय अन्नाहार से प्रारंभ हुआ था। समाप्त हुआ श्राद्ध के सोलह दिनों से जिसमें पूर्वजों की स्मृति के माध्यम से विप्र, परिजनों और मित्रों के साथ खूब गरिष्ठ पकवान्नों का सेवन हुआ। नतीजा कि तुल आएँ तो तीन से चार किलोग्राम वजन अवश्य ही बढ़ गया होगा। यह पतलून के पेट पर कसाव से ही पता लगता है। अवश्य ही कोलेस्ट्रोल भी वृद्धि को ही प्राप्त हुआ होगा। लेकिन वर्ष के उत्तरार्ध ने जैसे ही दस्तक दी नवरात्र के साथ और साथ ही जता दिया कि जितना बढ़ाया है वापस घटाना होगा वरना यह उत्तरार्ध चैन नहीं लेने देगा। एक समय अन्नाहार आज से फिर प्रारंभ हो गया है।

दोनों नवरात्र मौसम परिवर्तन के साथ आते हैं। उधर दिन रात से बड़े होने लगते हैं और इधर रातें दिन से बड़ी। मौसम में तापमान लघु जीवों के लिए इतना पक्षधर होता है कि उन की संख्या बढ़ने लगती है। मनुष्य को यह मौसम कम रास आता है। पेट के रोग, जीवाणुओं और विषाणुओं से उत्पन्न रोगों की बहुतायत हो जाती है। उस का सब से अच्छा बचाव यह है कि आप आहार की नियमितता बना लें।अन्नाहार एक समय के लिए सीमित कर दें और फलाहार करें। शरीर को विटामिनों की मात्रा प्राकृतिक रूप से मिले। आप किसी धार्मिक कर्मकांड को न मानें तो भी स्वाध्याय अवश्य करें। किसी पुस्तक का ही अध्ययन सिलसिलेवार कर डालें। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में कहा जाता है कि वे अपने पूजा के लंबे समय में पुस्तकों का अध्ययन करते थे। मैं ने इन दिनों धर्म और दर्शन संबन्धी कुछ पुस्तकें हासिल कर ली हैं, अवश्य ही नवरात्र में पढ़ लूंगा। आज के अवकाश में अपनी दुछत्ती की सफाई भी करवा ली है, जहां से बहुत सारी पत्रिकाओं के पुराने अंक बरामद हुए हैं जिन में बहुत सी काम की जानकारी है। मेरा खुद का इतिहास सामने आ गया है।

नवरात्र के पहले दिन ही राजस्थान को एक बहुत बड़े हादसे को झेलना पड़ा है। दो सौ से कुछ कम लोग जोधपुर में चामुंडा मंदिर हादसे में जान गंवा बैठे हैं, इतने ही घायल हैं। यह हादसा किसी आतंकी के कारण नहीं हमारी अपनी अव्यवस्था, अनुशासन हीनता और अंधविश्वास का परिणाम है। भाई ईश्वर है, तो एक ही ना? फिर देवी माँ भी एक ही होंगी। नगर में देवी माँ के अनेक मंदिर होंगे। फिर सब की दौड़ एक ही मंदिर की ओर क्यों? क्यों मन्दिर ही जाया जाए। वहाँ भीड़ लगाई जाए। घर में भी आप घट स्थापना करते ही हैं। हर श्रद्धालु के घर एक चित्र तो कम से कम देवी माँ का अवश्य ही होगा। वहीं उस के दर्शन कर प्रार्थना, अर्चना की जा सकती है। क्यों देवी मंदिर ही देवी माँ और आप के बीच आवश्यक है?  फिर घर में और घर में नहीं तो पड़ौस में कम से कम एक महिला/बालिका तो होगी ही क्यों न उसे ही देवी का रूप मान लेते हैं। उस से भी देवी माँ रुष्ट नहीं होंगी। शायद प्रसन्न ही होंगी। क्यों हम एक मूर्तिकार या चित्रकार की घड़ी मूर्ति या चित्र पर विधाता की घड़ी मूरत से अधिक तरजीह देते हैं?

क्या हमारी यह अनुशासनहीनता, अन्धविश्वास और सामाजिक अव्यवस्था उस आतंकवाद से अधिक खतरनाक नहीं जो अनायास ही सैंकड़ों जानें ले लेते हैं? हम कुछ तो सामाजिक हों। नवरात्र आत्मानुशासन का पर्व है। उसी पर हम उसे खो बैठते हैं। पुलिस और प्रशासन को दोष देने से कुछ नहीं होगा। क्यों नहीं जो नगर 20-25 हजार श्रद्धालु सूर्योदय के पूर्व 400 फुट ऊंचे मंदिर पर चढ़ाई करने को तैयार कर देता है वह 200-250 स्वयंसेवक इस पर्व पर सेवा के लिए तैयार कर पाता है? और भी बहुत से प्रश्न हैं जो कुलबुला रहे हैं। जरूर आप के पास भी होंगे? क्यों न हम किसी सामाजिक संस्था से जुड़ कर उन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करें?

कल ईद की नमाज भी होने वाली है। हजारों हजार लोग देश भर की ईदगाहों पर नमाज अदा करेंगे। वैसे वे सभी रमजान के पूरे महीने एक अनुशासन पर्व से गुजर कर निकलें हैं। इतना तो अनुशासन होगा कि किसी हादसे का समाचार सुनने को न मिले। 


आज के लिए बस इतना ही। सभी पाठकों को नवरात्र के लिए और आने वाली ईद के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।

रविवार, 31 अगस्त 2008

'भगवान' शब्द के शब्दार्थ

हिन्दुस्तानी बन्धु ने आज एक आलेख अपने ब्लॉग पर लिखा है- हमारा हिन्दुस्तान...: भगवान का शाब्दिक अर्थ यह है !! इसे पढ़ कर इन हिन्दुस्तानी बन्धु बुद्धि पर केवल और केवल तरस खाने के अलावा और कुछ नहीं किया जा सकता है? यह पाँचवीं कक्षा के किसी छात्र का भदेस और कक्षा से लम्बे निष्कासन के उपाय के रूप में दिया गया जवाब लगता है।

इन सज्जन ने अपने आलेख में जो बताया है  कि भग स्त्री जननांग को कहते हैं इस लिए स्त्री का स्वामी अर्थात उस का पति भगवान हुआ, जैसे बल का स्वामी बलवान।

  • संस्कृत में 'भगः' शब्द है, जिस के अर्थ हैं -सूर्य के बारह रूपों में से एक, चन्द्रमा, शिव का रूप, अच्छी किस्मत, प्रसन्नता, सम्पन्नता, समृद्धि, मर्यादा, श्रेष्ठता, प्रसिद्धि, कीर्ति, लावण्य, सौन्दर्य, उत्कर्ष, श्रेष्टता, प्रेम, स्नेह, सद्गुण, प्रेममय व्यवहार, आमोद-प्रमोद, नैतिकता, धर्मभावना, प्रयत्न, चेष्ठा, सांसारिक विषयों में विरति, सामर्थ्य, और मोक्ष, और ... ...  योनि भी। 
  • लेकिन,  योनि केवल स्त्री जननांग को ही नहीं, उद्गम स्थल, और जन्मस्थान को भी कहते हैं।
  • यह जगत जिस योनि से उपजा है उसे धारण करने वाले को भगवान कहते हैं। 
  • इन सज्जन के अर्थ को भी ले लें, तो भी योनि का स्वामित्व तो स्त्री का ही है। इस कारण से स्त्री ही भगवान हुई न कि उस का पति।

स्वयं को हिन्दुस्तानी कहने वाले इन महाशय जी को यह गलत और संकीर्ण अर्थ करने के पहले कम से कम इतना तो सोचना ही चाहिए था, कि वे जो हिन्दुस्तानी नाम रखे हैं  यह उस के अनुरूप भी है अथवा नहीं। भाई,क्यों अपनी चूहलबाजी के लिए इस विश्वजाल पर हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियों की मर्यादा को डुबोने में लगे हैं। कम से कम भगवान का ही खयाल कर लिया होता।

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

ईश्वर ही ईश्वर को जला रहा है

नाक में सुबह से जलन थी। ऱात होते होते टपकने लगी सोना भी उस की वजह से मुश्किल हो रहा था। रात साढ़े बारह सोया था। नीन्द खुलती है, सवा तीन बजे हैं। नाक का टपकना बदस्तूर जारी है। पेट में गुड़गुड़ाहट है। मैं पानी पीता हूँ तो बढ़ जाती है। मैं शौच को जाता हूँ तो पेट खाली हो लेता है। अब तुरंत नीन्द आना मुश्किल है। घर में एक सप्ताह पहले खूब हलचल थी। रक्षाबंधन पर बेटा था, वह चला गया। बेटी आई थी, वह भी कल शाम चली गई। पत्नी की बुआ जी नहीं रहीं, वह भी आज शाम वहाँ के लिए चली गई। अब अकेला हूँ।
रात सोने के पहले खबरें सुनी थीं। उड़ीसा में एक अनाथालय जला दिया गया। एक परिचारिका भी जीवित जल गई। किसी धर्मपरिवर्तन विरोधी की हत्या का बदला था यह। जम्मू और कश्मीर दोनों जल रहे हैं दो माह होने को आए। वही, धर्मस्थल जाने के पहले अस्थाई आवास के लिए दी गई भूमि और उसे वापस लिए जाने का झगड़ा।
राजस्थान में एक जाति है, जिस में हिन्दू भी हैं और मुस्लिम भी। घर में ही दो भाई दो अलग अलग धर्म पालते रहे हैं। पति-पत्नी के अलग धर्म हैं। कोई बैर नहीं, पूरा जीवन सुख-दुख से बिताते हैं। कुछ दशकों से लोग पूरी जाति को हिन्दू या मुस्लिम बनाने में जुटे हैं। जाति में अशान्ति व्याप्त है।
मैं ईश्वर को तलाशता हूँ। वह एक है? या नहीं? वह एक से अधिक होता तो शायद धरती माँ के टुकड़े हो गए होते। उस एक को क्या सूझी है कि कहीं वह किस रूप में आता है और कहीं किस रूप में। वह आता ही नहीं है। लेकिन उस के अनेक प्रतिरूप खड़े कर लिए जाते हैं, अपने-अपने मुताबिक। 
टीवी पर पुरी के शंकराचार्य क्रोध से दहाड़ रहे हैं। मुझे शंकराचार्य याद आते हैं जिन्हों ने देश में चारों मठों की स्थापना की। दुनियाँ को अद्वैत की शिक्षा दी। कहाँ गई वह शिक्षा? और उन के नाम धारी व्यक्ति कौन हैं ये? क्या बता रहे हैं दुनियाँ को? कहाँ हैं, ईसा और मुहम्मद? ईसा के पहले ईसाई धर्म और मुहम्मद के पहले इस्लाम कहाँ थे? शंकराचार्य के पहले अद्वैत कहाँ था? राम और कृष्ण का क्या धर्म था? उस से भी पहले कौन थे वे जो प्रकृति की शक्तियों को पूजते थे? सब में एक को ही देखते थे। और उस से भी पहले कौन थे वे जो जन्मदाता योनि की पूजा करते थे, बाद में लिंग भी पूजने लगे थे। आज भी उसे ही कल्याणकारी मान कर पूजा कर रहे हैं?
है ईश्वर! क्या हो रहा है यह? तुम्हारी कोई सत्ता है भी या नहीं? या उस के बहाने अपनी सत्ता स्थापित करने, उसे बनाए रखने को इंन्सान का हवन हो रहा है। ईश्वर भी है, या नहीं?
स्वामी विवेकानंद  आते हैं।  पूछने पर कहते हैं- मैं ने तो आँख खुलने के बाद ईश्वर के सिवा किसी को नहीं देखा। मैं पूछता हूँ। पर यह जो जल रहे हैं, जलाए जा रहे हैं,। कौन हैं वे? स्वामी जी कहते हैं- सब ईश्वर है।  जो जलाया जा रहा है वह भी और जो जला रहा है वह भी।
हे राम! यह क्या हो रहा है? ईश्वर ही ईश्वर को जला रहा है। वह ऐसा क्यों कर रहा है?
शायद सोचता हो कि दुनियाँ को अब उस के वजूद की जरूरत ही नहीं। क्यों न अब खुद को विसर्जित कर लूँ?