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शनिवार, 8 अगस्त 2009

दर्शन और विज्ञान का अन्तर्सम्बन्ध और एक अनाम रचनाकार की रचना 'काशः दुनिया कम्प्यूटर होती'

साँख्य के विरोध और पक्ष में बहुत कुछ कहा गया है। उन सब पर जाया जाए तो यह श्रंखला बहुत लंबी हो जाएगी। इस कारण यहीं विराम लेना ठीक है। 'दर्शन का मानव जीवन में महत्व' एक महत्वपूर्ण विषय है। इस पर जरूर बात होनी चाहिए। मैं ने साँख्य से बात आरंभ करने का प्रयत्न किया है। साँख्य को चुनने का मुख्य कारण एक तो इस का प्राचीनतम दर्शन होना था, दूसरे अपने काल की दृष्टि से यह सब से अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता था।
जब से मनुष्य ने सोचना आरंभ किया एक प्रश्न हमेशा उस के सामने रहा कि 'विश्व और उस का व्यापार कैसे चलता है?' तत्कालीन उपलब्ध तथ्यों के आधार पर दार्शनिकों ने इस का उत्तर देने का प्रयत्न किया। धीरे-धीरे दार्शनिक प्रणालियाँ विकसित होती चली गईं। दुनिया के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में इस का मूल देखा जा सकता है। लेकिन वहाँ वे स्फुट विचार थे। उपनिषदों में इन विचारों को विस्तार प्राप्त हुआ। बाद में विकसित होते होते इन्हें दर्शन प्रणालियों का रूप प्राप्त हुआ। भारत में मुख्यतः साँख्य और वेदान्त प्रणालियाँ विकसित हुईं। जगत की व्युत्पत्ति और उस के व्यापार की तार्किक व्याख्या करने वाली प्रणालियों ने वैज्ञानिकों को इन की सत्यता को परखने का अवसर प्रदान किया। इस तरह हम कह सकते हैं कि दर्शन ने विज्ञान का मार्गदर्शन किया।
लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं होती है। जब विज्ञान ने दर्शनों को परखना आरंभ किया, तो उन की अनेक प्रस्थापनाओं को अपने प्रयोगों और उन के परिणामों से खारिज भी किया। इस तरह दर्शन ने जो निष्कर्ष दिए थे उन्हें विज्ञान के निष्कर्षों ने प्रतिस्थापित करना आरंभ कर दिया। यहाँ दर्शन की एक नई भूमिका आरंभ हो गई। अब उसे विज्ञान के निष्कर्षों के अनुरूप स्वयं को बदलना था, अर्थात जिन अवधारणओं को विज्ञान द्वारा परख कर खारिज या मान्य कर दिया था, दर्शन को स्वयं के विकास के लिए उस के आगे की यात्रा आरंभ करनी थी। इस रह हम देखते हैं कि दर्शन और विज्ञान के बीच एक विचित्र संबंध है। दर्शन विज्ञान का पथप्रदर्शन करता है, लेकिन विज्ञान दर्शन को खुद को दुरूस्त करने का अवसर देता है और दर्शन खुद को संशोधित करते हुए पुनः नयी अवधारणा प्रस्तुत कर विज्ञान का मार्गदर्शन कर सकता है। बहुत लोग किसी एक दर्शन प्रणाली के अनुयायी हो कर विज्ञान की अनदेखी करते हुए दर्शन का राग अलापते रहे और आज तक अलाप रहे हैं। लेकिन यह ठीक नहीं है। जहाँ तक विज्ञान अपनी खोजों से पहुँच गया है, उस के आगे भी उस के पास बहुत से अनुत्तरित प्रश्न मौजूद हैं। दर्शन का दायित्व है कि आज तक के वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर इन अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तरों के लिए अपनी अवधारणाएँ प्रस्तुत करे और विज्ञान की आगे की यात्रा के लिए उस के पथ प्रदर्शक का काम करे। मुझे लगता है कि एक शताब्दी से कुछ अधिक काल से इस काम में दर्शनशास्त्र और दार्शनिक पिछड़े हैं और दर्शनशास्त्र वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। यह आज के दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों और अध्येताओं के लिए एक चुनौती है। मैं पिछले तीस वर्षों से लगातार यह सोच रहा हूँ कि विश्वविद्यालयों के स्नातक उपाधि के पाठ्यक्रम में भौतिकी और दर्शन विषय को एक साथ पढ़ने का अवसर विद्यार्थियों को क्यों नहीं मिलता है।
जब मैं साँख्य पढ़ रहा था तो मुझे बार-बार ईश्वरकृष्ण की पुस्तक साँख्यकारिका पढ़नी पड़ी। मेरे पास इस पुस्तक की जो प्रति थी वह 1960 का संस्करण था। इसे मेरे चाचा जी ने संस्कृत के स्नातकोत्तर के अध्ययन के लिए खरीदा था, तब इस का मूल्य मात्र एक रुपया था। पुस्तक पूरी ही थी। लेकिन पिछला कवर पृष्ठ निकल चुका था और कागज इस नाजुक अवस्था में पहुँच चुका था कि वह जरा भी लापरवाही बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं था। मैं ने पुस्तक की सुरक्षा के लिए उसे पुरानी कॉपी के एक पन्ने में लपेट दिया था। कल उस पन्ने को अलग कर पुस्तक पर एक नए कागज का कवर ठीक से लगा कर उसे अलमारी में सुरक्षित रखा। निकाला गया पन्ना देखा तो वह बेटी पूर्वा की किसी कॉपी का था। उस पर एक रचना लिखी थी। यह किस की रचना थी? यह तो मैं बता सकने में असमर्थ हूँ। लेकिन उस रचना को आप के सामने रखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। यह रचना आज के नौजवानों की महत्वाकांक्षा को बहुत खूबसूरती और रूमानियत के साथ प्रकट करती है जो शायद उस की आदिम आकांक्षा भी रही है। तो यह रचना प्रस्तुत है, आप को पसंद आए तो उस अनाम रचनाकार के लिए दो शब्द जरूर लिखें।
दुःख के लमहे डि-लीट करते
  • अनाम रचनाकार
काश दुनिया एक कम्प्यूटर होती, जिस में डू और अन-डू करते।
सुख के लमहे सेव हो जाते, दुःख के लमहे डि-लीट करते।।

मज़े की मनचाही विंडो, जब चाहे हम औपन करते।
मुस्तकबिल के ताने बाने, अपनी चाहत से खुद ही बुनते।।

ख्वाहिशों की होती फाइल, जिस में कट और कॉपी करते।
जब भी होता वायरस पैदा, दुनिया को री-फॉर्मेट करते।।

खुशियों के रंगों से तस्क़ीन, फीके लमहे रंगीन करते।
काश दुनिया एक कम्प्यूटर होती, जिस में डू और अन-डू करते।।









गुरुवार, 25 जून 2009

जीन्स, टॉप, ड्रेस कोड और महिलाओं की सोच

समय का पहिया कैसे घूमता है इस का नमूना हमने पिछले दिनों देखा गया जब  उत्तर प्रदेश में ड्रेस कोड का हंगामा बरपा होता रहा।   कानपुर  जिले  में  चार महिला कॉलेजों ने अपनी छात्राओं को कैंपस में जींस पहनकर आने पर पाबंदी लगा दी।  कॉलेजों ने  यह काम छात्राओं के साथ छेड़खानी रोकने का भला काम करने की कोशिश में किया।  बात यहीं तक न रुकी छात्राओं के जींस , टॉप , स्कर्ट के साथ साथ कानों में बड़े बड़े इयर रिंग्स , गले में हार , फैन्सी अंगूठी और ऊंची एड़ी के सैंडिल पहनने पर भी रोक लगा दी गई। जब कि छात्राओं का कहना था कि कॉलेज प्रशासन का फैसला बेतुका है। वे छेड़खानी रोकना ही चाहते हैं तो पुलिस की मदद क्यों नहीं लेते? कॉलेज छात्रों  के बीच जींस पहनना आम बात है। मिनी स्कर्ट और शॉर्ट टॉप जैसे कपड़ों पर रोक की बात समझ में आती है , पर जींस?
इस के बाद  पहिया आगे चला तो अध्यापिकाएँ भी इस की चपेट में आ गईं। कानपुर के महिला कॉलिजों की अध्यापिकाओं को सख्त निर्देश दिए गए कि वे स्लीवलेस ब्लाउज और भड़कीले सूट पहन कर कॉलिज आयें। मोबाइल लेकर कॉलिज आने की अनुमति है लेकिन उसे स्विच ऑफ रखना होगा।
आप तो जानते ही हैं, लेकिन इन कॉलेजों का प्रशासन यह नहीं जानता था कि इस देश में प्रेस और मीडिया भी है और स्त्री-स्वातंत्र्य का आंदोलन भी; और यह भी कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री भी एक स्त्री हैं।  मंसूबे धरे के धरे रह गए।  मायावती ने तुरंत कहा -कोई ड्रेस कोड नहीं चलेगा।  फिर सरकारी फरमान निकला कि  यूपी के किसी भी कॉलेज में ड्रेस कोड लगाने का समाचार मिला तो मामले की जांच की जाएगी और आरोप सही पाए जाने पर संबंधित कॉलेज के खिलाफ राज्य सरकार यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत कार्रवाई करेगी। इसके तहत मान्यता छिनने का खतरा पैदा हुआ ही, यूजीसी से मिलने वाली ग्रांट और दूसरी सरकारी सहायता भी खतरे में दिखाई दी।  नतीजा यह हुआ कि ड्रेस कोड लागू होने के पहले ही गुजर गया। 
यह तो हुआ ड्रेस कोड का हाल।  महिलाएँ जीन्स और टॉप के बारे में क्या सोचती हैं। उस का असली किस्सा।  एक प्रोजेक्ट में नई अफसर अक्सर जीन्स और टॉप पहनती है। उस से उम्र में कहीं बहुत बड़ी महिलाएँ वर्कर हैं जो उसे रिपोर्ट करती हैं।  अचानक अफसर एक दिन सलवार सूट में दिखाई दी तो  कुछ अच्छी वर्करों ने उसे सलाह दी कि -मैडम! आप इस सूट में उतनी अच्छी नहीं लगतीं।  आप इसे मत पहना कीजिए।  आप को जीन्स और टॉप ही पहनना चाहिए।  उस में आप स्मार्ट लगती हैं। अगर आप ने कुछ दिन सूट पहन लिया तो सारी वर्कर्स आप को ढीली-ढाली समझने लगेंगी और फिर काम का क्या होगा वह तो आप जानती ही हैं।

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

जरूरी सरकारी कर्तव्यों में बाधा के चक्कर

कल जब मैं जिला न्यायालय से सड़क पार कलेक्ट्री परिसर में उपभोक्ता मंच की ओर जा रहा था तो रास्ते में टैगोर हॉल के बाहर पुराने स्कूल के जमाने के मित्र मिल गए, उन के साथ ही मेरा एक भतीजा भी था।  दोनों ही अलग अलग पंचायत समितियों में शिक्षा अधिकारी हैं।  दोस्त से दोस्त की तरह और भतीजे से भतीजे की तरह मिलने के बाद दोस्त से पूछा -यहाँ कैसे? जवाब मिला -मीटिंग थी।

अब? दूसरी मीटिंग है।  वे आपस में जो चर्चा कर रहे थे वे शायद मिड-डे-मील से संबंधित थीं।  मैं ने कहा तुम्हें भी अध्ययन के साथ मील में फंसा दिया।  हाँ अभी मील की मीटिंग से आ रहे हैं।  इस के बाद चुनाव की मीटिंग है, लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ जोरों पर हैं।  मैं ने पूछा -और शिक्षा? तो उन का कहना था कि उस की मीटिंग परीक्षा परिणामों के उपरांत जून जुलाई में होगी।  वह यहाँ नहीं होगी।  प्रशासन को शिक्षा से क्या लेना देना?

वे और मैं दोनों ही जल्दी में थे, सो चल दिए अपने अपने कामों पर।

दोपहर बाद जब काम लगभग सिमट गया सा था, केवल एक अदालत से एक दस्तावेज हासिल करना भर रह गया था और आधे घंटे की फुरसत थी।  हम  हफ्ते भर बाद निकली साफ धूप का आनंद लेने एक तख्ते पर बैठे बतिया रहे थे।  पास वाले वरिष्ठ वकील बाहर गए हुए थे, उन के दो कनिष्ठ साथ थे।  एक कनिष्ठ जिस की पत्नी शिक्षिका हैं, सुनाने लगा....

"भाई साहब! मेरी पत्नी जिस स्कूल में अध्य़ापिका है वहाँ कुल तीन अध्यापिकाएँ हैं और पहली से ले कर पाँचवीं कक्षा तक कुल डेढ़ सौ विद्यार्थी।  तीन में से एक छह माह के लिए प्रसूती अवकाश पर चली गई है।  एक की ड्यूटी चुनाव के लिए जिला चुनाव अधिकारी के यहाँ लगा दी गई है।  अब एक अध्यापिका कैसे स्कूल को संभाले।  बीमार हो जाए तब भी स्कूल तो जैसे तैसे जाना ही होगा।  उसे बंद तो नहीं किया जा सकता।  इस बात को बताने के लिए वह शिक्षा अधिकारी के कार्यालय स्वयं आ भी नहीं सकती।  आए तो स्कूल कौन देखे?चिट्ठी पत्री को कोई महत्व नहीं है।

पास के गांव के स्कूल में चार अध्यापिकाएँ हैं और छात्र केवल नौ।  उस विद्यालय से एक अध्यापिका को अस्थाई तौर पर मेरी पत्नी वाले स्कूल में लगवा देने से काम चल सकता है।  मेरी पत्नी ने उस स्कूल की एक अध्यापिका को इस के लिए मना कर उस से लिखवा भी लिया है।  उस स्कूल के प्रधानाध्यापक ने भी उस पर अनापत्ति लिख दी है।  उस पत्र को  देने के लिए दो हफ्ते पहले शिक्षा अधिकारी के दफ्तर में मुझे जाना पड़ा शिक्षा अधिकारी ने हाँ भी कह दी। कहा एक दो दिन में आदेश आ जाएगा।  चार दिन में आदेश न आने पर मैं फिर उन से मिला।  तो कहने लगे, - मैं जरा कुछ अर्जेंट कामों में उलझ गया था।  आप कुछ देर रुको।  मैं वहाँ पौन घंटा रुका।  लेकिन शिक्षा अधिकारी फिर अपने कामों में भूल गए।  याद दिला ने पर बोले, -अभी आदेश निकलवाता हूँ।   बाबू को बुलवाया तो पता लगा कि वह जरूरी रिपोर्टें ले कर कलेक्ट्री गया हुआ है।  मुझे दो दिन बाद आदेश के बारे में पता करने को कहा गया है।  फिर चार दिन बाद कोई व्यवस्था न होने पर उन से मिला तो कहा,  बाबूजी अवकाश पर हैं आप को आने की जरूरत नहीं है आदेश दूसरे दिन अवश्य ही निकल जाएगा।  तीन दिन गुजरने पर भी जब आदेश नहीं आया तो मैं फिर वहाँ पहुँचा।  इस बार मुझे देखते ही शिक्षा अधिकारी बोले।  अरे! आप का आदेश अभी नहीं पहुँचा। ऐसा कीजिए आप बाबू जी से मिल लीजिए और खुद ही आदेश लेते जाइए।  मैं बाबू के पास पहुँचा तो वह मुझे वहीं बैठा कर फाइल ले कर शिक्षा अधिकारी के यहाँ गया। बीस मिनट में वापस लौटा।  फिर आदेश टाइप किया,  उस पर हस्ताक्षर करवाकर लाया और डिस्पैच रजिस्टर में चढ़ा कर मुझ से पूछा कि आप कौन हैं?  बताने पर उस ने आदेश देने से मना कर दिया कि आप विभागीय कर्मचारी नहीं है। आदेश डाक से भिजवा देंगे, कल आप को मिल जाएगा।

इस तरह मेरे चार-पांच चक्कर लगाने के बाद भी आदेश नहीं मिला, अब देखते हैं कि कल मिलता है या नहीं।" 

मैं ने उस से पूछा -शिक्षा अधिकारी कौन है? तो उस ने मेरे मित्र का नाम बताया।  मैं भौंचक्का रह गया।

मैं ने  शाम को अपने मित्र से बात की तो कहने लगा।  यार! भैया, बहुत चक्कर हैं, इस नौकरी में।  पहले देखना पड़ता है कि  इस तरह के आदेश से किसी को कोई एतराज तो नहीं है।  वरना यहाँ जिला मुख्यालय पर टिकना मुश्किल हो जाए।  पहले तुमने बताया होता तो उसे यहाँ तक आने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

आज मैं ने उस कनिष्ठ वकील से पूछा कि क्या वह आदेश पहुँच गया? तो उस ने बताया कि आदेश रात को ही चपरासी घर पहुँचा गया था।

मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा है कि यह सामान्य प्रशासन का आदेश देना और इस तरह की व्यवस्थाएँ करना तो उस का खुद का कर्तव्य था।  इस के लिए उस की माहतत शिक्षिका के पति को चार-पाँच चक्कर क्यों लगाने पड़े? और पहली ही बार में वह आदेश जारी क्यों नहीं कर दिया गया।  वे कौन से चक्कर हैं जो जरूरी विभागीय कर्तव्यों में इस तरह बाधा बन जाते हैं।

भारत के भावी कर्णधारों की परवाह कौन कर रहा है?

रविवार, 14 दिसंबर 2008

कभी नहीं भूलेगा, स्कूल में हुई धुनाई का दिन

शास्त्री जी ने अध्यापकों से सजा-पिटाई के किस्से अध्यापक या जल्लाद ?  और अध्यापकों ने दिया धोखा ! उन के ब्लाग सारथी पर लिखे हैं। पढ़ कर मुझे स्कूल में हुई अपनी धुनाई का किस्सा याद आ गया। ये उन दिनों की बात है जब सब से अधिक मारपीट करने वाले अध्यापक को सब से श्रेष्ठ अध्यापक समझा जाता था। ऐसे अध्यापक के जिम्मे छोड़ कर माता पिता अपने हाथों से बच्चों को मारने पीटने की जिम्मेदारी का एक हिस्सा अध्यापकों को हस्तांतरित कर देते थे। यह दूसरी बात है कि कुछ जिम्मेदारी वे हमेशा अपने पास रखते थे।


हर साल मध्य मई से दिवाली तक हम दादा जी के साथ रहते थे और दिवाली से मध्य मई में गर्मी की छुट्टियाँ होने तक हम पिता जी के साथ रहते। पिता जी हर साप्ताहिक अवकाश में दादा जी और दादी को संभालने आते थे। फिर पिता जी को बी.एड़. करने का अवकाश मिला तो वे साल भर बाहर रहे। हमें पूरे साल दादा जी के साथ रहना पड़ा था। उसी साल छोटी बहिन ने जन्म लिया, तब मैं पांचवीं क्लास  में था। पिता जी बी.एड. कर के आए तो हमें जुलाई में ही अपने साथ सांगोद ले गए। वे कस्बे के सब से ऊंची शिक्षा के विद्यालय, सैकण्डरी स्कूल के सब से सख्त अध्यापक थे। हालांकि वे बच्चों की मारपीट के सख्त खिलाफ थे। लेकिन अनुशासन टूटने पर दंड देना भी जरूरी समझते थे। स्कूल का लगभग हर काम उन के जिम्मे था। स्कूल का पूरा स्टाफ उन्हें बैद्जी कहता था, वे आयुर्वेदाचार्य थे और मुफ्त चिकित्सा भी करते थे। बस वे नाम के हेड मास्टर नहीं थे। हेड मास्टर जी को इस से बड़ा आराम था। वे या तो दिन भर  में एक-आध क्लास लेने के लिए अपने ऑफिस से बाहर निकलते थे या फिर किसी फंक्शन में या कोई अफसर या गणमान्य व्यक्ति के स्कूल में आ जाने पर। सब अध्यापकों का मुझे भरपूर स्नेह मिलता।

उस दिन ड्राइंग की क्लास छूटी ही थी कि पता नहीं किस मामले पर एक सहपाठी से कुछ कहा सुनी हो गई थी। मुझे हल्की से हल्की गाली भी देनी नहीं आती थी। ऐसा लगता था जैसे मेरी जुबान जल जाएगी। एक बार पिता जी के सामने बोलते समय एक सहपाठी ने चूतिया शब्द का प्रयोग कर दिया था, तो मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे कानों में गर्म सीसा उड़ेल दिया गया हो। उस सहपाठी से मैं ने बोलना छोड़ दिया था, हमेशा के लिए। ड्राइंग क्लास के बाद जब उस सहपाठी से झगड़ा हुआ तो उस ने मुझे माँ की गाली दे दी। मेरे तो तनबदन में आग लग गई। मैं ने उस का हाथ पकड़ा और ऐंठता चला गया। इतना कि वह दोहरा हो कर चिल्लाने लगा। दूसरे सहपाठियों ने उसे छुड़ाया।


वह सहपाठी सीधा बाहर निकला। मैदान में हेडमास्टर जी और पिताजी खड़े आपस में कोई मशविरा कर रहे थे। वह सीधा उन के पास पहुंचा। मैं डरता न था तो पीछे पीछे मैं भी पहुँच गया मेरे पीछे क्लास के कुछ और छात्र भी थे। उस ने सीधे ही हेडमास्टर जी से शिकायत की कि उसे दिनेश ने मारा है। हेडमास्टर जी ने पूछा कौन है दिनेश? उस ने मेरी और इशारा किया ही था कि मुकदमे में दंड का निर्णय सुना दिया गया की मैं दस दंड बैठक लगाऊँ। यूँ दण्ड बैठक लगाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। उस से सेहत भी बनती थी। पर मुझे बुरा लगा कि मुझे सुना ही नहीं गया। मैं ने कहा मेरी बात तो सुनिए। यह स्पष्ट रूप से राजाज्ञा का उल्लंघन था। यह राज्य के मुख्य अनुशासन अधिकारी, यानी पिता जी से कैसे सहन होता। उन्हों ने धुनाई शुरू कर दी। उम्र का केवल आठवाँ बरस पूरा होने को था। रुलाई आ गई। रोते रोते ही कहा -पहले उसने मेरी माँ को गाली दी थी।

  माँ का नाम ज़ुबान पर आते ही धुनाई मशीन रुकी। तब तक मेरी तो सुजाई हो चुकी थी। पिताजी एक दम शिकायतकर्ता सहपाठी की और मुड़े और उस से कहा -क्य़ो? उस के प्राण एकदम सूख गए। वह डर के मारे पीछे हटा। शायद यह उस की स्वीकारोक्ति थी। वह तेजी पीछे हटता चला गया। पीछे बरांडे का खंबा था जिस में सिर की ऊँचाई पर पत्थर के कंगूरे निकले हुए थे। एक कंगूरे के कोने से उस का सिर टकराया और सिर में छेद हो गया। सिर से तेजी से खून निकलने लगा। पिताजी ने आव देखा न ताव, उसे दोनों हाथों में उठाया और अपनी भूगोल की प्रयोगशाला में घुस गए। कोई अंदर नहीं गया। वहाँ उन का प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी था। जब दोनों बाहर निकले। तब शिकायकर्ता के सिर पर अस्पताल वाली पट्टी बंधी थी और पिताजी ने उसे कुछ गोलियाँ खाने को दे दी थीं। अगली क्लास शुरू हो गई थी। मास्टर जी कह रहे थे। आज तो बैद्जी ने बच्चे को बहुत मारा। मेरे क्लास टीचर के अलावा पूरे स्टाफ को पहली बार पता लगा था कि जिस लड़के को वै्दयजी ने मारा वह उन की खुद की संतान था।

शिकायत कर्ता लड़के ने ही नहीं मेरी क्लास के किसी भी लड़के ने मेरे सामने किसी को गाली नहीं दी। वे मेरे सामने भी वैसे ही रहते, जैसे वे मेरे पिताजी के सामने रहते थे। शिकायत करने वाले लड़के से मेरी दोस्ती हो गई और तब तक रही जब तक हम लोग सांगोद कस्बे में रहे।

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2008

कोटा के कोचिंग छात्रों पर पुलिस का शिकंजा

श्री वी के बंसल बसंल क्लासेज कोटा 
के संचालक और उन के संस्थान की 
नयी इमारत
कुछ दिनों से यह सिलसिला चल रहा है। कोटा शहर में अपराधों की बाढ़ अचानक नहीं आयी है। यह कुछ राजनीति के चलते पुलिस का अपाराध नियंत्रण ढीला होते जाने का असर है। कोटा में 60-70 विद्यार्थी पूरे देश से आईआईटी, इंजिनियरिंग और मेडीकल कोर्सों में दाखिले के लिए कोचिंग करने आते हैं। कोटा के बंसल क्लासेज, एलन कैरियर, कैरियर पाइंट और रेजोनेन्स आदि कोचिंग संस्थान देश में ही नहीं विदेशों में भी लोकप्रिय हैं। इन के अलावा सैंकड़ों शिक्षक हैं जो पूरे श्रम और काबिलियत से छात्रों को ट्यूशन प्रदान करते हैं। इन संस्थानों में आने वाले विद्यार्थी अधिकतर विज्ञाननगर, तलवंडी, महावीर नगर, इन्द्रविहारऔर कैशवपुरा में किराये के मकानों और छात्रावासों में अपने अस्थाई घोंसले बनाते हैं। बाहर से आए इन विद्यार्थियों के बीच सभी पढ़ने वाले हों यह आवश्यक नहीं। इन में अनेक धनिक परिवारों के विद्रोही भी हैं जो घर के पैसे पर साल दो साल मौज करने यहाँ आते हैं और उन में से अनेक अपराधों में लिप्त हो जाते हैं। इन इलाकों में अपरिचिच चेहरों के बीच अपराधियों को छुपने का भी अच्छा अवसर प्राप्त हो सकता है।

इन अल्पवय विद्यार्थियों के साथ मोबाइल चुरा लेना, पैसे चुरा लेना लड़कियों को छेड़ना आदि छोटे अपराध होते रहते हैं। लेकिन इन इलाकों में कुछ बहुत गंभीर अपराध डकैती और हत्याओं के हुए हैं। पुलिस अपने ही अनियंत्रण से परेशान है। उस ने पिछले दिनों नयी युक्ति निकाली कि ऐसे छात्रों की सूचियाँ कोचिंग संस्थानों से मांगी जो अनियमित हैं या बहुत लंबे समय तक अनुपस्थित रहे हैं। उन की जाँच किये बिना या जाँच कर के उन्हें कोचिंग संस्थानों से नोटिस दिलवाये गए हैं। अनेक छात्र जो बीमारी या दूसरे वाजिब कारणों से कुछ दिनों से अपने संस्थानों से गैरहाजिर रहे थे उन्हें भी नोटिस मिल गए वे भी परेशान हैं। नतीजा यह कि बात टीवी चैनलों तक पहुँच गई और कल उस पर रिपोर्ट पढ़ने को मिली।

आज खबर है कि पुलिस ने 500 छात्रों की सूचि बना ली है। दो पुलिस थानों को उन्हें जाँचने की जिम्मेदारी दे कर विशेष दल बनाया गया है। पहले पुलिस मामूली शिकायतों पर छात्रों को डरा धमका कर, समझा कर, समझौता करवा कर छोड़ दिया करता था। लेकिन अब गलती पर हिदायत देने के बजाय सीधे एफआईआर दर्ज की जाएगी। पूरी तरह भटका हुआ पाए जाने पर छात्र के अभिभावकों को सूचित करेगा और उसे वापस घर भिजवाने की व्यवस्था कर देगा।
इस से बड़े अपराध तो क्या कम होंगे? लेकिन छात्रों पर अंकुश जरूर लग जाएगा।