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शनिवार, 21 मार्च 2020

गणगौर एडवाइजरी जारी करे सरकार


'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

यह उस लोक गीत का मुखड़ा है जो होली के अगले दिन से ही राजस्थान भर में गाया जा रहा है। राजस्थान में वसंत के बीतते ही भयंकर ग्रीष्म ऋतु का आगमन हो जाता है। आग बरसाता हुआ सूरज, कलेजे को छलनी कर देने और तन का जल सोख लेने वाली तेज लू के तेज थपेड़े बस आने ही वाले हैं। अनवरत पसीना टपकाने वाले ऐसे निकट भविष्य के पहले राजस्थान में अगले शुक्रवार 27 मार्च को गणगौर का त्यौहार मनाया जाने वाला है।

गणगौर प्रतिमाएँ अनेक घरों पर बिठा दी गयी हैं। रोज उनकी पूजा की जा रही है। गीत गाए जा रहे हैं। यह अभी व्यक्तिगत स्तर पर है। पर अगले शुक्रवार को यही सब सामुहिक रूप ले लेने वाला है। उस से पहले गणगौर पर बनने वाले पकवान गुणे बनना आरंभ हो चुके हैं। कल मुझे भी हुकुम हुआ कि गुड़ लाना है, गुणे बनाने के लिए। गुड़ आया तो दो घण्टे बाद ही टेबल पर गुड़ और गेहूँ के आटे के बने गुणे नजर आने लगे। रात तक वे तले जा कर खुले में रख दिए गए, जिस से उन की बची खुची नमी भी निकल ले। सुबह वे डिब्बे में बंद हो चुके हैं। किसी को भी इनका स्वाद अगले शुक्रवार गणगौर के दिन पूजा के बाद ही चखने को मिलेगा।

गणगौर के दिन अर्थात अगले शुक्रवार 27 मार्च को सुबह से ही मुहल्ले में स्त्रियों की हलचल बढ़ जाएगी। वे सजेंगी-सँवरेंगी, बेसन के आटे से शिव-पार्वती की प्रतिमाओं के लिए गहने गढ़ेंगी, फिर पूजा का थाल सजा कर उस घर को जाएंगी जहाँ मुहल्ले मे गणगौर घाली हुई है। वे पूजा के लिए अकेले ही नहीं जातीं। दो-दो चार-चार के समूह में पूजा के लिए जाती हैं। वहाँ एकत्र हो कर गीत गाती हैं, नाचती हैं। आमोद प्रमोद चलता है। साँयकाल गणगौर की प्रतिमाओँ को सरानेसामुहिक रूप से जलूस बना कर नदी तालाब पर जाती हैं। इस जलूस के आगे बैंड-बाजा होता है। कुछ नहीं तो एक ढोली ढोल बजाता हुआ जरूर चलता है। नदी पर वे प्रतिमाओं को सराने के पहले और बाद में गीत गाती हैं और ढोल की थाप पर नृत्य करती हैं। देर रात तक यह काम चलता रहता है। पहले तो सारी व्यवस्थाएँ पुरुष ही करते थे। अब यह कमान लगभग पूरी तरह स्त्रियों के हाथों में है। पुरुष इन कामों में केवल वान्छित सहयोग करते हैं। राजस्थान में स्त्रियों के लिए इस त्यौहार का बहुत महत्व है। पुरुषों के लिए भी यह त्यौहार अपनी प्रियाओं को प्रसन्न रखने, रूठी प्रियाओं को मनाने और वैवाहिक जीवन में सूख चुके रोमांस को तरलता प्रदान करने का होता है। इस त्यौहार में पुराने वक्त में मनाए जाने वाले मदनोत्सव के अवशेष मौजूद हैं।

त्यौहार तो आ चुका है। लेकिन उसके साथ ही राजस्थान में वायरस कोविद-19’ की भयानक उपस्थिति एक बड़े संकट का कारण हो सकती है। इस वायरस से फैली बीमारी को संयुक्त राष्ट्र संघ महामारीघोषित कर चुका है। ऐसे में इस त्यौहार के समय सतर्कता बहुत आवश्यक हो गयी है। इस त्यौहार में स्त्रियों का समूह में एकत्र होना पर्याप्त समय तक साथ रहना। पुरुषों का सहयोग के लिए नजदीक बने रहना। फिर समारोह है तो अपरिचित भी इसमें सम्मिलित होते हैं। ऐसे में सामुहिक रूप से इसे मनाना वायरस के प्रसार के लिए बहुत मुफीद हो सकता है। आज ही खबर है कि भीलवाड़ा में तीन चिकित्सक और तीन नर्सिंग छात्र इस कोरोना की चपेट में हैं। उन में लक्षण दिखाई देने के पहले वे सैंकड़ों लोगों के संपर्क में आए होंगे और उनमें से अनेक को वायरस स्थानान्तरित हुए हो सकते हैं। इसी कारण से इस नगर को पूरी तरह से लॉक डाउनकी स्थिति में लाने की कवायद चल रही है। आशा है प्रशासन और भीलवाड़ा की जनता इस लॉक डाउन को सहयोग करेंगे और वायरस का विस्तार रुक सकेगा।

इस घटना को देखते हुए आगामी दिन बहुत ऐहतियात रखने के होंगे। गणगौर पूजा वास्तव में शिव-पार्वती पूजा है। जिन परिवारों की स्त्रियाँ इस त्यौहार को मनाती हैं उन के घरों में शिव-पार्वती प्रतिमाएँ या तस्वीरें अवश्य होती हैं। सभी स्त्रियाँ अपने अपने घरों में रह कर इन प्रतिमाओं/ तस्वीरों की पूजा कर के त्यौहार मना सकती हैं। उन्हें इस के लिए बाहर निकलने की जरूरत नहीं होगी। इस अवसर पर जो मीठे और चरपरे गुणे बनाए जाते हैं उन्हें आपस में बदला भी जाता है। इस बार यह काम न किया जाए तो बेहतर है। क्यों कि इस अदला-बदली में वायरस स्थानान्तरण भी हो सकता है। आज कोरोना वायरस से फैली इस विश्वव्यापी महामारी के समय में गणगौर के त्यौहार को भी निबन्धित रीति से मनाना पड़ेगा। यह निबन्धित रीति क्या हो, यह बताने के लिए राज्य सरकार को तुरन्त एडवाइजरी जारी करनी चाहिए।


सोमवार, 21 नवंबर 2016

ईमान का उत्सव

कविता 

__________  दिनेशराय द्विवेदी


एक शाम उस ने कहा
कि उसे वे रंग पसंद नहीं है
आधी रात से ये रंग कानून से खारिज
अगले दिन अवकाश रहा
तीसरे दिन से सारा देश लाइन में खड़ा है
कि शहंशाह के रंग के चंद
कागज के टुकड़े मिल जाएँ
कुछ चहेतों को मिले
बाकी अभी भी लाइन में खड़े हैं

देश में अमीर भले ही हों
पर देश तो अमीर नहीं है, इसलिए
लाइन में केवल गरीब खड़े हैं
लाइन में खड़े खड़े मरने वालों
का अर्धशतक कभी का बन चुका है
शतक की तैयारी है
सारे अमीर कहाँ हैं?
किसी को पता नहीं

सरकार झूठ बोल रही है कि
चेस्ट भरे पड़े हैं
पासबुक और चैक बेकार हो गए हैं
बैंकों के पास देने को नोट नहीं हैं
बैंक हैं ये कोई इन्सान होता तो
अब तक दिवालिया घोषित हो जाता
चाहत पर नोट उगलने वाली मशीनें खामोश हैं
पता नहीं उन्हें कब्ज हुआ है या आनाह
वैद्य लोग इलाज में मशरूफ हैं

शहंशाह की पसंद के रंग कागज
लोगों के हाथ में पहुँचने के पहले ही
रिश्वत देते पकड़े जा रहे हैं
बस एक रंग वे ही चमक रहे हैं
जिन पर शहंशाह की नजर
अभी पड़ी नहीं है
लेकिन कौन बता सकता है
शहंशाह की नजर कब उन पर पड़ जाए?
शायद शहंशाह भी नहीं

नए रंगों के अभाव में
कारखाने बंद हो गए हैं
लेकिन खेत और बगीचे
तो बंद नहीं हो सकते
उन में उग रही हैं सब्जियाँ
फल और फसलें
उन का कोई खरीददार नहीं है
उन के लिए बीज, खाद
और कीटनाशक खरीदने को
नए रंग के कागज नहीं हैं
फल और सब्जियाँ
पेड़ और पौधों पर सूख रहे हैं
या फिर मंडियों गोदामों में सड़ने लगे हैं
मासूम लोग अचानक
अपराधी नजर आने लगे हैं
नए रंगों के कागज
काला बाजार घूम रहे हैं

शहंशाह के धमकी भरे फरमान
कुछ घरों पर पहुँचे हैं
वहाँ मातम है
पूरी गली, मुहल्ले
गाँव के गाँव
शहर के शहर
सहमे पड़े हैं
पता नहीं कब, किस के घर
आ जाए फरमान

दरबारी नाच रहे हैं
अथक अनवरत
पूरी तरह होश खो देने तक
या फिर होश में आने तक
शंहशाह ईमान का उत्सव
मना रहा है

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

ओ........! सड़कवासी राम! ...

हरीश भादानी जन कवि थे। 
थार की रेत का रुदन उन के गीतों में सुनाई देता था।
आज राम नवमी के दिन उन का यह गीत स्मरण हो आया ...

ओ! सड़कवासी राम!

  • .हरीश भादानी

ओ! सड़कवासी राम!
न तेरा था कभी
न तेरा है कहीं
रास्तों दर रास्तों पर
पाँव के छापे लगाते ओ अहेरी
खोलकर
मन के किवाड़े सुन
सुन कि सपने की
किसी सम्भावना तक में नहीं
तेरा अयोध्या धाम।
ओ! सड़कवासी राम!


सोच के सिर मोर
ये दसियों दसानन
और लोहे की ये लंकाएँ
कहाँ है कैद तेरी कुम्भजा
खोजता थक
बोलता ही जा भले तू
कौन देखेगा
सुनेगा कौन तुझको
ये चितेरे
आलमारी में रखे दिन
और चिमनी से निकलती शाम।
ओ! सड़कवासी राम!

 
पोर घिस घिस
क्या गिने चौदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प साँसों के गिने जा
गिन कि
कितने काटकर फेंके गए हैं
ऐषणाओं के पहरुए
ये जटायु ही जटायु
और कोई भी नहीं
संकल्प का सौमित्र
अपनी धड़कनों के साथ
देख वामन सी बड़ी यह जिन्दगी
कर ली गई है
इस शहर के जंगलों के नाम।
ओ! सड़कवासी राम!

सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

दीवाली खास क्यों?

पिछले महीने कुछ निजि कारणों से अपनी ब्लागरी में व्यवधान आया। दीवाली का त्यौहार भी उन में से एक कारण था। बेटी और बेटा दोनों बाहर हैं, तो परिवार के चारों जन ऐसे ही त्यौहारों पर मिलते हैं, दीवाली उन में खास है। मैं इस बार विचार करता रहा आखिर दीवाली में ऐसा क्या है कि वह खास हो गई। निश्चित रूप से उस का कारण धनतेरस, रूप चौदस (काली चौदस), लक्ष्मीपूजा, महावीर निर्वाण दिवस, गोवर्धन पूजा या भाई दूज आदि नहीं है। मेरे विचार से इस के खास होने का कारण इस का मौसम है। 
भारत की 70% जनता गाँवों में निवास करती है। कोई पाँच दशक पहले के भारत के गाँवों की सोचें तो मिट्टी की ईंटों की दीवारों पर खपरैल की छत वाले घरों की बस्तियाँ जेहन में नजर आने लगती हैं। बरसात इन घरों की स्थिति क्या बना देती होगी यह अनुमान किया जा सकता है। आश्विन मास की अमावस उत्तर भारत के लिए वर्षा का अंतिम दिवस होता है। इस के साथ ही घरों को सुधारने, अनाज आदि को संभालने का काम आरंभ हो जाता है। घरों की सफाई कर, उन की दीवारें छतें सुधार कर, उन्हें लीपना-पोतना फिर से निवास के अनुकूल बनाना अत्यावश्यक है। अब सब लोग अपने अपने घर को दुरुस्त कर अपने हिसाब से सजाएंगे तो उन में सजावट की प्रतियोगिता स्वतः ही जन्म लेती है। व्यापारी वर्षाकाल अपने अपने परिजनों के साथ अपने घरों में व्यतीत कर पुनः व्यापार के लिए घरों से निकल कर परदेस जाने की तैयारी में होते थे। उन के लंबे समय के लिए घरों से बाहर जाने के पहले भी त्योहार का माहौल स्वतः ही बन ने लगता है। 

स बीच मैं ने यह जानने की कोशिश भी की कि भारतीय इतिहास में दीवाली का प्रचलन वास्तव में कब आरंभ हुआ?  राम का वनवास से लंका विजय कर लौटना। कृष्ण का इंद्रपूजा बंद करवा कर गोवर्धन की पूजा आरंभ कराना जैसे मिथक तो बहुत सारे हैं। लेकिन वास्तविक प्रामाणिक ऐतिहासिक संदर्भ गायब दिखाई पड़ते हैं। पहले पहल जो संदर्भ मिलता है वह जैन तीर्थंकर महावीर के निर्वाण का मिलता है। इस से ऐसा लगता है कि पहले पहले दीवाली का उत्सव जैन धर्मावलंबियों ने मनाना आरंभ किया। उन में अधिकांश व्यापारी थे, वे वर्षा के बाद घरों से बाहर धनोपार्जन के लिए निकलते थे, उन का निकलने के पहले धन की देवी लक्ष्मी का पूजा जाना स्वाभाविक ही था। इस से बाद में लक्ष्मी पूजा का संदर्भ उस से जुड़ा। दोनों महाकाव्यों का संपादन ईसा पूर्व पहली शताब्दी में हुआ और गुप्तकाल में उन का गौरव बढ़ा। संभवतः गुप्त काल से ही दीवाली के इस त्यौहार से राम और कृष्ण के संदर्भ जुड़े तथा बाद में अन्य संदर्भ जुड़ते चले गए। अभी भी यह खोज का विषय ही है कि ऐतिहासिक रूप से दीवाली के त्यौहार का विकास किस तरह हुआ? शायद कुछ इतिहास के विद्यार्थी और शोधार्थी इस पर प्रकाश डाल सकें।

स बार सप्ताह के मध्य में दीपावली का त्योहार पड़ने से दोनों दीपावली के अवकाश, दोनों ओर के दो-दो साप्ताहिक अवकाश के साथ दो-तीन दिनों के अवकाश और ले लेने पर बाहर नौकरी कर रहे लोगों के पास नौ दिनों के अवकाश हो गए और उन्हें अपने घरों पर परिवार के साथ रहने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। मेरे यहाँ भी इन दिनों बेटी-बेटे के साथ रहने से, साथ ही महत्वपूर्ण हो गया। ये नौ दिन सब ने बहुत आनंद से बिताए। जब दीवाली के पहले के पन्द्रह-बीस दिनों का स्मरण करता हूँ तो लगता है वे पूरे साल के सब से व्यस्त दिन थे। घर की सफाई, सजावट, फालतू सामानों को कबाड़ी के हवाले करना और यह काम पूरा होते ही दीवाली के पकवान बनाने की तैयारी। पुरुष तो फिर भी बाहर के कामों में ही लगे रहते हैं लेकिन स्त्रियाँ। उन्हें तो पूरे एक माह से फुरसत ही नहीं थी। लगता था जैसे वे सोयेंगी नहीं। मेरे यहाँ तो घर में अकेली स्त्री मेरी उत्तमार्ध शोभा ही थी। पिछले एक माह से वह सोती नहीं थी। बस काम करते करते थक कर बेहोश हो बिस्तर पर पड़ जाती थी। जब होश आता था तो फिर से काम में जुटी नजर आती थी। ऐसा लगता था उसे घर को घर बनाने का जुनून सवार था। बेटा कल चला गया था, आज सुबह बेटी को रेल में बिठा कर लौटने के पर कुछ घंटे उस ने विश्राम किया, निद्रा ली। लेकिन कुछ घंटे बाद ही फिर से घर को संवारने में जुट गई और शाम को जब मैं अदालत से घर लौटा तो पाया कि घर फिर से हम दो प्राणियों के निवास के लिए तैयार है। लोग कहते हैं कि दीवाली न आए तो घरों की सफाई न हो। मैं सोचता हूँ यदि स्त्रियाँ न होती तो पुरुष दीवाली किस तरह मनाते? शायद उस का स्वरूप बहुत भिन्न होता या फिर दीवाली ही नहीं होती। आप क्या सोचते हैं?

दीपावली पर बहुत मित्रों के शुभकामना संदेश ई-मेल से मिले। उन में से अधिकांश एक साथ अनेक पतों को भेजे गए थे। मैं यदि उन का उसी संदेश के उत्तर के रूप में धन्यवाद करता तो वह भी सभी लोगों को प्राप्त होता। मुझे यह उचित नहीं लगा और ई-मेल की निःशुल्क सुविधा का दुरुपयोग भी। मैं ने एकल संदेशों का उत्तर देने का प्रयत्न किया लेकिन सामुहिक संदेशों का नहीं। यहाँ उन सभी मित्रों को दीपावली के शुभकामना संदेश के लिए आभार व्यक्त करता हूँ।  कामना है कि उन की ही नहीं सभी की दीवाली अच्छी मनी हो और वे सभी वर्ष भर प्रगति करें, उन्हें अनन्त प्रसन्नताएँ प्राप्त हों और अगली दीवाली वे और बेहतर तरीके से अधिक प्रसन्नताओं के साथ मनाएँ!