@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: महेन्द्र 'नेह'
महेन्द्र 'नेह' लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
महेन्द्र 'नेह' लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

भाई ने भाई मारा रे


महेन्द्र नेह ने पिछले दिनों कुछ पद लिखे हैं, उन में से एक यहाँ प्रस्तुत है। 
उन के अन्य पद भी आप अनवरत पर पढ़ते रहेंगे।
 
 'पद'

  • महेन्द्र 'नेह' 

    भाई ने भाई मारा रे

 ये कैसी अनीति अधमायत ये कैसा अविचारा रे।

एक ही माँ की गोद पले दोउ नैनन के दो तारा रे।। 



जोते खेत निराई कीनी बिगड़ा भाग संवारा रे।

दोनों का संग बहा पसीना घर में हुआ उजारा रे।। 

                                    

अच्छी फसल हुई बोहरे का सारा कर्ज उतारा रे।

सूरत बदली, सीरत बदली किलक उठा घर सारा रे।। 



कुछ दिन बाद स्वार्थ ने घर में अपना डेरा डाला रे।

खेत बॅंट गये, बँट गये रिश्ते, रुका नहीं बॅंटवारा रे।।
                         

 

कोई नहीं पूछता किसने हरा भरा घर जारा रे।

रक्तिम हुई धरा, अम्बर में घुप्प हुआ अॅंधियारा रे।।

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

'अभिव्यक्ति' सामाजिक यथार्थवादी साहित्य की पत्रिका


पिछले दिसंबर के पन्द्रहवें दिन फरीदाबाद में सड़क पर चलते हुए अचानक बाएँ पैर के घुटने के अंदर की तरफ का बंध चोटिल हुआ कि अभी तक चाल सुधर नहीं सकी है। चिकित्सको का कहना है कि मुझे कम से कम एक-डेढ़ माह का बेड रेस्ट (शैया विश्राम) करना चाहिेए। तभी यह ठीक हो सकेगा। मैं चलता फिरता रहा तो इस के ठीक होने की अवधि आगे बढती जाएगी। अब बेड काम तो मुझ से कभी हुए नहीं तो अब बेड रेस्ट कैसे होता? वैसे भी मेरा पेशा ऐसा है कि मैं दूसरों की जिम्मेदारी ढोता हूँ। उस में कोताही करने का अर्थ है उन्हें न्याय और राहत प्राप्त  करने में देरी। मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपने मुवक्किलों के प्रति जिम्मेदारी को अवश्य पूरा करूँ। लेकिन यह भी कोशिश रहती है कि मुझे काम के दिनों में कम से कम चलना पड़े, घुटने पर जोर कम से कम देना पड़े। अवकाश  के दिन तो मैं घर से निकलना भी पसंद नहीं करता। लेकिन अपने कार्यालय में तो बैठना ही पड़ता है। पर इस में पैर पर कोई जोर नहीं पड़ता। घर से न निकल पाने के कारण पिछले ढ़ाई माह में उन लोगों से जिन से मेरी निरंतर मुलाकात होती रहती थी उन्हें भी मैं नहीं मिल सका हूँ। आज भी एक दुकान के उद्घाटन और कम से कम दो लोगों की सेवा निवृत्ति पर हो रहे कार्यक्रम में जाना था पर पैर को आराम देने के लिए वहाँ जाना निरस्त किया। दिन में चार पाँच लोग कार्यालय में आए, कुछ लोग मिलने भी आए। शाम को अचानक महेन्द्र नेह आ गए। उन का आना अच्छा लगा। वे सामाजिक यथार्थवादी साहित्य की पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के 38वें अंक की पाँच प्रतियाँ साथ ले कर आए थे। 
शिवराम
भिव्यक्ति मेरा सपना है, जिसे मैं ने तब देखा था जब मैं स्नातक की पढ़ाई कर रहा था। मैं चाहता था कि मेरी अपनी पत्रिका हो जिस के माध्यम से मैं लोगों के साथ रूबरू हो सकूँ। लेकिन एक स्नातक विद्यार्थी के लिए इस सपने को साकार कर पाना संभव नहीं था। बाद में शिवराम मिले और बाराँ की संस्था दिनकर साहित्य समिति ने उन के संपादन में पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। तब से मैं इस का प्रकाशक रहा हूँ। पिछले बरस शिवराम ने अनायास ही हमेशा के लिए हमारा साथ छोड़ दिया। तब अभिव्यक्ति का 37वाँ अंक लगभग तैयार था। शेष काम महेन्द्र नेह ने पूरा किया। लेकिन मार्च 2012 का यह 38वाँ अंक पूरी तरह से महेंद्र नेह के संपादन में तैयार हुआ है। महेन्द्र नेह के जाने के बाद मैं ने पत्रिका का अंक देखना आरंभ किया। निश्चित रूप से एक पत्रिका संपादक का माध्यम होती है। अभिव्यक्ति के प्रकाशन का शिवराम, महेन्द्र नेह और इस से जुड़े तमाम लोगो का उद्देश्य एक ही है. लेकिन संपादन का असर उस के रूप पर पड़ना स्वाभाविक था। इस कोण से देखने पर मुझे अभिव्यक्ति का यह 38वाँ अंक एक अलग अनुभूति दे गय़ा। हालाँकि इस अंक का एक बड़ा भाग स्मृति भाग है। लेकिन इस में इस के अतिरिक्त अत्यन्त महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। कोटा के लोगों की भागीदारी इस बार बढ़ी है। 

दा की तरह इस अंक का मुखपृष्ठ भी रविकुमार के रेखाकंन से बोल रहा है। मुख पृष्ठ पर ही वीरेन डंगवाल की एक कविता है- 

बेईमान सजे बजे हैं,
तो क्या हम मान लें कि 
बेईमानी भी एक सजावट है? 
कातिल मजे में है 
तो क्या हम मान लें कि 
क़त्ल एक मजेदार काम है?
मसला मनुष्य का है 
इसलिए हम को हरगिज न मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही बचा है मनुष्य !!
-वीरेन डंगवाल
त्रिका के 38वें अंक का संपादकीय महत्वपूर्ण है, और अन्य रचनाएँ भी। आप को जिज्ञासा होगी कि आखिर इस पत्रिका में क्या है? हमारी कोशिश होगी कि अभिव्यक्ति के 38वें अंक और इस से आगे के अंको की सामग्री  हम शनैः शनैः इसी नामके ब्लाग (अभिव्यक्ति) के माध्यम से आप तक पहुँचाएँ। आशा है हिन्दी ब्लाग जगत इस का स्वागत करेगा।

शनिवार, 2 जुलाई 2011

'हवा' ... महेन्द्र नेह की कविता

पिछले दिनों देश ने सरकार के विरुद्ध उठती आवाजों को सुना है। एक अन्ना हजारे चाहते हैं कि सरकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध कारगर कार्यवाही के लिए उपयुक्त कानूनी व्यवस्था बनाए। वे जनलोकपाल कानून बनवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। देश के युवाओं का उन्हें समर्थन मिला। कानून बनाने को संयुक्त कमेटी गठित हुई। लेकिन सरकार की मंशा रही कि कानून बने तो कमजोर। अब खबरें आ रही हैं कि कानून को इस तरह का बनाने की कोशिश है कि भ्रष्टाचार मिटे न मिटे पर उस के विरुद्ध आवाज उठाने वाले जरूर चुप हो जाएँ। दूसरी ओर बाबा रामदेव लगातार देश को जगाने में लगे रहे। उन्हों ने पूरे तामझाम के साथ अपना अभियान रामलीला मैदान से आरंभ किया जिस का परिणाम देश खुद देख चुका है। इस बीच पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ गई। उन्हों ने दूसरी सभी चीजों की कीमतें बढ़ा दीं। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने इस तरह विरोध प्रदर्शन किया कि कोई कह न दे कि जनता पर इतना कहर बरपा और तुम बोले भी नहीं। देश की जनता परेशान है, वह बदलाव चाहती है लेकिन उसे उचित मार्ग दिखाई नहीं दे रहा। मार्ग है, लेकिन वह श्रमजीवी जनता के संगठन से ही संभव है। वह काम भी लगातार हो रहा है लेकिन उस की गति बहुत मंद है।

नता जब संगठित हो कर उठती है और जालिम पर टूटती है तो वह नजारा कुछ और ही होता है। जनता का यह उठान ही आशा की एक मात्र किरण है। कवि महेन्द्र 'नेह' उसे अपनी कविता में इस तरह प्रकट करते हैं ...

हवा
  • महेन्द्र 'नेह'


घाटियों से उठी
जंगलों से लड़ी
ऊँचे पर्वत से जा कर टकरा गई!
हवा मौसम को फिर से गरमा गई!!

दृष्टि पथ पर जमी, धुन्ध ही धुन्ध थी
सृष्टि की चेतना, कुन्द ही कुन्द थी
सागरों से उठी 
बादलों से लड़ी
नीले अम्बर से जा कर टकरा गई!

हर तरफ दासता के कुँए, खाइयाँ
हर तरफ क्रूरता से घिरी वादियाँ
बस्तियों से उठी
कण्टकों से लड़ी
काली सत्ता से जा कर टकरा गई?







    शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

    महेन्द्र नेह का काव्य संग्रह 'थिरक उठी धरती' अंतर्जाल पर उपलब्ध

    हेन्द्र 'नेह' मूलतः कवि हैं, लेकिन वे कोटा और राजस्थान की साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र भी हैं। वे देश के एक बड़े साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच की कोटा इकाई के अध्यक्ष हैं। इस संगठन के महासचिव शिवराम थे, उन के देहान्त के उपरान्त यह जिम्मेदारी भी महेन्द्र 'नेह' के कंधों पर है।  विकल्प की कोटा इकाई ने स्थानीय साहित्यकारों की रचनाओं की अनेक छोटी पुस्तिकाएँ प्रकाशित की हैं, उन के प्रकाशन का महत् दायित्व उन्हों ने उठाया है। कोटा, राजस्थान और देश के विभिन्न भागों में होने वाले साहित्यिक सासंकृतिक आयोजनों में लगातार उन्हें शिरकत करना पड़ता है। उन के सामाजिक-सास्कृतिक कामों की फेहरिस्त से कोई भी यह अनुमान कर सकता है कि वे इस काम के लिए पूरा-वक़्ती कार्यकर्ता होंगे। लेकिन अपने घर को चलाने के लिए उन्हें काम करना पड़ता है। वे एक पंजीकृत क्षति निर्धारक हैं और बीमा कंपनियों पास संपत्तियों-वाहनों आदि के क्षति के दावों में सर्वेक्षण कर वास्तविक क्षतियों का निर्धारण करते हैं। उन्हें देख कर सहज ही यह कहा जा सकता है कि एक मेधावान सक्रिय व्यक्ति हर क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के साथ ही कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। क्षति निर्धारक के रूप में बीमा कंपनियों में जो प्रतिष्ठा है वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का कारण हो सकती है।
    हेन्द्र 'नेह' बरसों कविताएँ, गीत, गज़लें लिखते रहे। लेकिन उन की पुस्तक नहीं आई, इस के बावजूद वे अन्य साहित्यकारों की पुस्तकों के प्रकाशन के लिए जूझते रहे। जब इस ओर ध्यान गया तो लोग उन की काव्य संग्रहों के प्रकाशन के लिए जिद करने लगे। आखिर उन के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए 'सच के ठाठ निराले होंगे' और 'थिरक उठेगी धरती'। वे बहुत से ब्लाग नियमित रूप से पढ़ते हैं। कल उन से फोन पर बात हो रही थी तो मैं ने कहा -आप इतने ब्लाग पढ़ते हैं, लेकिन प्रतिक्रिया क्यों नहीं करते"? उन्हों ने बताया कि वे नेट पर देवनागरी टाइप नहीं कर सकते। मैं उन की इस कमजोरी को जानता हूँ कि उन्हें यह सब सीखने का समय नहीं है। फिर भी मैं ने उन्हें कहा कि यह तो बहुत आसान है, तो कहने लगे एक दिन वे मेरे यहाँ आते हैं या फिर मैं उन के यहाँ जाऊँ और उन्हें यह सब सिखाऊँ। मैं ने उन के यहाँ जाना स्वीकार कर लिया। 
    पिछले दिनों नेट और ब्लाग पर साहित्य न होने की बात कही गई थी। लेकिन बहुत से साहित्यकारों द्वारा कंप्यूटर का उपयोग न कर पाने या देवनागरी टाइप न कर पाने की अक्षमता भी नेट और ब्लाग पर साहित्य की उपलब्धता में बाधा बनी हुई है। निश्चित रूप से इस के लिए हम जो ब्लागर इस क्षेत्र में आ गए हैं, उन्हें पहल करनी होगी। हमें लोगों को कंप्यूटर और अंतर्जाल का प्रयोग करने और उस पर हिन्दी टाइप करना सिखाने के सायास प्रयास करने होंगे। हमें कंप्यूटर पर टाइपिंग सिखाने वाले केन्द्रों पर इन्स्क्रिप्ट की बोर्ड के बारे में बताना होगा, कि भविष्य में हिन्दी इसी की बोर्ड से टाइप की जाएगी, और उन्हें हिन्दी टाइपिंग सीखने वालों को इनस्क्रिप्ट की बोर्ड पर टाइपिंग सिखाने के लिए प्रेरित करना होगा। इस तरह बहुत काम है जो हम पहले ब्लाग और नेट पर आ चुके लोगों को मैदान में आ कर करना होगा। 
    हुत बातें कर चुका। वास्तव में यह पोस्ट तो इस लिए आरंभ की थी कि आप को यह बता दूँ कि जब महेन्द्र 'नेह' का दूसरा काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का विमोचन हुआ तो उस के पहले ही इस संग्रह का पीडीएफ संस्करण मैं स्क्राइब पर प्रकाशित कर चुका था और वह इंटरनेट पर उपलब्ध है। जो पाठक इस संग्रह को पढ़ना चाहते हैं, यहाँ फुलस्क्रीन पर जूम कर के पढ़ सकते हैं और चाहें तो स्क्राइब पर जा कर डाउनलोड कर के अपने कंप्यूटर पर संग्रह कर के भी पढ़ सकते हैं।
    तो पढ़िए.....
    'थिरक उठेगी धरती'
    Neh-Poems_Thirak Uthegi Dharti

    सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

    हम वस्तु नहीं हैं

    मशेर बहादुर सिंह के शताब्दी वर्ष पर राजस्थान साहित्य अकादमी और विकल्प जन सांस्कृतिक मंच कोटा द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन हुआ। विकल्प का एक सदस्य होने के नाते मुझे इस आयोजन में शिरकत करने के साथ कुछ जिम्मेदारियों को भी निभाना पड़ा। बीच-बीच में अपने काम भी देखता रहा।  यह संगोष्ठी इस आयोजन में शिरकत करने वाले रचनाकारों के लिए शमशेर के साहित्य, उन के काल, अपने समय और दायित्वों को समझने के लिए अत्यन्त लाभदायक रही है। यूँ तो मुझे इस आयोजन की रिपोर्ट यहाँ प्रस्तुत करनी चाहिए। पर थकान ने उसे विलंबित कर दिया है। इस स्थिति में आज महेन्द्र नेह की यह कविता पढ़िए जो इस दौर में जब अफ्रीका महाद्वीप के देशों में चल रही विप्लव की लहर में उस के कारणों को पहचानने में मदद करती है। 
    हम वस्तु नहीं हैं
    • महेन्द्र 'नेह'
    ऊपर से खुशनुमा दिखने वाली
    एक मक्कार साजिश के तहत
    उन्हों ने पकड़ा दी हमारे हाथों में कलम
    औऱ हमें कुर्सियों से बांध कर 
    वह सब कुछ लिखते रहने को कहा 
    जिस का अर्थ जानना 
    हमारे लिए जुर्म है

    उन्हों ने हमें 
    मशीन के अनगिनत चक्कों के साथ
    जोड़ दिया
    और चाहा कि हम 
    चक्कों से माल उतारते रहें
    बिना यह पूछे कि 
    माल आता कहाँ से है

    उन्हों ने हमें फौजी लिबास 
    पहना दिया
    और हमारे हाथों में 
    चमचमाती हुई राइफलें थमा दीं
    बिना यह बताए 
    कि हमारा असली दुश्मन कौन है
    और हमें 
    किस के विरुद्ध लड़ना है

    उन्हों ने हमें सरे आम 
    बाजार की मंडी में ला खड़ा किया
    और ऐसा 
    जैसा रंडियों का भी नहीं होता 
    मोल-भाव करने लगे

    और तभी 
    सामूहिक अपमान के 
    उस सब से जहरीले क्षण में
    वे सभी कपड़े 
    जो शराफत ढंकने के नाम पर
    उन्हों ने हमें दिए थे
    उतारकर
    हमें अपने असली लिबास में 
    आ जाना पड़ा
    और उन की आँखों में
    उंगलियाँ घोंपकर
    बताना पड़ा 
    कि हम वस्तु नहीं हैं।

    गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

    शिवराम ..... दृढ़ संकल्पों और जन-जागरण की मशाल


    प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी शिवराम का अचानक चले जाना
    नहीं बुझेगी दृढ़ संकल्पों और जन-जागरण की वह मशाल 
            
                                                                              -महेन्द्र नेह 
     सुप्रसिद्ध रंगकर्मी, साहित्यकार और मार्क्सवादी विचारक शिवराम इसी एक अक्टूबर को हृदयगति रूक जाने से अचानक ही हमारे बीच से चले गये।  जीवन के अंतिम क्षण तक वे जितनी अधिक सक्रियता से काम कर रहे थे, उसे देख कर किसी तौर पर भी यह कल्पना नहीं की जा सकती थी, कि वे इस तरह चुपचाप हमारे बीच से चले जायेंगे। देश भर में फैले उनके मित्र, सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनैतिक आंदोलनों में जुटे उनके सहकर्मी, उनके साहित्य के पाठकों के लिए शिवराम के निधन की सूचना अकल्पनीय और अविश्वसनीय थी।  जिसने भी सुना स्तब्ध रह गया।  उनके निधन के बाद समूचे देश में, विशेष तौर पर जन प्रतिबद्ध और सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन के उद्देश्यों में शामिल संस्थाओं द्वारा शोक-सभाओं एवं श्रद्धांजलि सभाओं का सिलसिला जारी है।
    ३ दिसम्बर, १९४९ को राजस्थान के करौली नगर के निकट गढ़ी बांदुवा गॉंव में जन्मे शिवराम ने अपने इकसठ वर्षीय जीवन में साहित्य, संस्कृति, वामपंथी राजनीति, सर्वहारा-वर्ग एवं बौद्धिक समुदाय के बीच जिस सक्रियता, विवेकशीलता और तर्क-संगत आवेग के साथ काम किया है, उसका मूल्यांकन आने वाले समय में हो सकेगा। लेकिन जिन्होनें उनके साथ किसी भी क्षेत्र में कुछ समय तक काम किया है, या उनके लेखन और सामाजिक सक्रियता के साक्षी रहे हैं, वे अच्छी तरह जानते-समझते हैं कि शिवराम बेहद सहज और सामान्य दिखते हुए भी एक असाधारण इन्सान और युग-प्रवर्तक सृजनधर्मी थे।  शिवराम का हमारे बीच से अकस्मात चला जाना मात्र एक प्राकृतिक दुर्घटना नहीं है।  यह उस आवेगमयी उर्जा-केन्द्र का यकायक थम जाना है जो दिन- रात अविराम इस समाज की जड़ता को तोड़ने, नव-जागरण के स्वप्न बॉंटने और एक प्रगतिशील-जनपक्षधर व्यवस्था निर्मित करने के अथक प्रयासों में लगा रहता था ।  
    ९६९ -७० में अजमेर से यांत्रिक इंजीनियरिंग से प्रथम श्रेणी में डिप्लोमा करते समय वे विवेकानन्द के विचारों से प्रभावित हुए और अपना पहला नाटक विवेकानन्द के जीवन पर लिखा। उसके बाद दूर-संचार विभाग ने उन्हॉंने छ: माह की ट्रेनिंग के लिए चेन्नई भेजा। वहॉं उन्हें हिंदी के सुप्रसिद्ध  कथाकार स्वयंप्रकाश मिले, जिनके साथ न केवल उनकी व्यक्तिगत मित्रता, अपितु गहरी वैचारिक दोस्ती भी पल्लवित हुई।  स्वयंप्रकाश से उन्हें मार्क्सवाद के वैज्ञानिक-समाजवादी सिद्धान्त की प्रारम्भिक जानकारी मिली जो उत्तरोत्तर उनके जीवन, चिंतन और कर्म की धुरी बनती चली गई ।
    शिवराम की दूर संचार विभाग में पहली नियुक्ति कोटा के उप-नगर रामगंजमंडी में हुई जो कोटा स्टोन की खानों के कारण श्रमिक-बहुल इलाका है । श्रमिकों के क्रूर शोषण और दुर्दशा देख कर उनके मन में गहरा संताप हुआ।  तभी उन्होंने अपना पहला नाटक  "आगे बढ़ो" लिखॉ।  इस नाटक में एक-दो मध्यवर्गीय मित्रों के अलावा अधिकांश पात्र ही नहीं अभिनेता भी श्रमिक समुदाय के थे।  नाटक के रिहर्सल के दौरान् ही अभिनेता साथियों के साथ उनके गहरे सरोकार जुड़ गये।  नाटक का मंचन भी सैंकड़ों की संख्या में उपस्थित श्रमिकों के बीच हुआ।  सर्वाधिक उल्लेखनीय बात यह है कि नाट्य-प्रदर्शन के साथ ही कथाकार स्वयंप्रकाश एवं रमेश उपाध्याय ने उस आयोजन में कहानी पाठ किया, जिन्हें पूरे मनोयोग से सुना तथा सराहा गया ।
    नाटकों का यह सिलसिला चलता गया और आगे बढ़ता गया।  शहीद भगतसिंह  के जीवन पर नाटक खेला गया और शनै: शनै: इस अभियान ने एक नाट्य- आंदोलन ही नहीं जन-आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर ली।  नाटक के पात्रों की असल जिन्दगी की कशमकश ने इस बात की मांग की कि विचार और संवेदनाओं को यथार्थ की जमीन पर लाया जाए।  परिणामत: एक केन्द्रीय संस्थान के इंजीनियर होते हुए भी श्रमिकों के संगठन-निर्माण का दायित्व अपने कंधों पर लिया और पूरी निष्ठा और जिम्मेदारी के साथ उसे निभाया।  उन्होनें कोटा में तत्कालीन श्रमिक-संगठन ’सीटू’ के अग्रणी व जुझारू नेता परमेन्द्र नाथ ढन्ड़ा से सम्पर्क किया और श्रमिकों की यूनियन को रजिस्टर्ड कराया।  एक छोटे से लोहे के यंत्रों के उत्पादक कारखाने से प्रारंभ हुए संगठन की लहर पूरे पत्थर खान श्रमिकों के बीच फैल गई। संघर्ष छिड़ गये और पत्थर खान मालिकों के सरगना आंदोलनों के केन्द्र-बिन्दु बने शिवराम को हर-सूरत में नष्ट करने तथा रामगंजमंडी से उनकी नौकरी के स्थानांतरण कराने की मुहिम में जुट गये ।
    अंतत: शिवराम का स्थानांतरण कोटा के ही दूसरे उप-नगर बाराँ में कर दिया गया। यहॉं उन्हें बड़ा क्षितिज मिला। वे प्राण-प्रण से श्रमिकों, किसानों-छात्रों-युवकों-साहित्यकारों व संस्कृतिकर्मियों को एकजुट करने की व्यापक मुहिम में जुट गये। हिन्दू कट्टरपंथियों के सबसे मजबूत गढ़ के रूप में स्थापित बाराँ सम्भाग की फिजाँ देखते-देखते ही बदलने लगी। केसरिया की जगह लाल-परचम फहराने लगे।  गॉंवों में कट्टरपंथियों के साथ हथियारबंद टकराहटें हुईं और आन्दोलनकारी युवकों ने बारॉं के रेल्वे स्टेशन को जला कर खाक कर दिया।  लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले नगर के अनेकों बुद्धिजीवी इन आन्दोलनों के साथ जुड़ गये। शिवराम के बारॉं प्रवास के दौरान जो उपलब्धियॉं हुईं वे मामूली नहीं हैं।  बल्कि वे ऐसी बुनियाद हैं, जहॉं से शिवराम के भावी जीवन की उस भूमिका  का ताना-बाना बुना गया, जिसने उन्हें आम बुद्धिजीवी-साहित्यकारों एवं साम्यवादी नेताओं से भिन्न एक प्रखर वक्ता, विचारक एवं सक्रिय राजनैतिक-संस्कृति कर्मी के रूप में स्थापित किया।
     बाराँ में रहकर शिवराम ने साहित्यिक पत्रिका "अभिव्यक्ति" का प्रकाशन प्रारंभ किया, जो आज अपनी समझौताहीन सामाजिक-सांस्कृतिक छवि के कारण केवल वामपंथी बुद्धिजीवियों के बीच ही नहीं हिंदी के आम पाठकों और लोकतंत्र में आस्था रखने वाले ईमानदार समुदाय के बीच भी अपनी प्रखर लोक-सम्बद्धता के कारण विशिष्ट पहचान बनाये हुए है ।  उस दौरान ही उनका प्रसिद्ध नाटक "जनता पागल हो गई है" लिखा गया , जो हिंदी के सर्व-प्रथम नुक्कड़ नाटक के रूप में जाना जाता है।  शिवराम न केवल उसके लेखक बल्कि कुशल निर्देशक व अभिनेता के रूप में भी जाने गये।  लखनउ में "जनता पागल हो गई है" पर पुलिस द्वारा प्रतिबन्ध लगाये जाने पर, देश की लगभग सभी भाषाओं में रंगकर्मियों द्वारा यह नाटक खेला गया।  यह नाटक न केवल हिंदी के प्रथम नुक्कड नाटक के रूप में बल्कि सर्वाधिक खेले जाने वाले नुक्कड़ नाटकों में से भी है। बाराँ प्रवास के दौरान् ही शिवराम ने "आपात्काल" के विरूद्ध सांस्कृतिक मुहिम चलाई, जिसमें हिंदी क्षेत्र के अनेक महत्वपूर्ण साहित्यकार एकत्रित हुए और "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के लिए व्यापक अभियान चलाया गया।  इसी दौरान ’जनवादी लेखक संघ’ के गठन की पूर्व पीठिका बनी तथा इलाहाबाद में जलेस के संविधान निर्माण में उन्होनें उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया । 
    शिवराम उन लेखकों में से नहीं थे जो मानते हैं कि साहित्यकारों को राजनीति से दूर रहना चाहिए और केवल कविता लिख देने या नाटक खेलने से ही उनके कर्तव्य की पूर्ति हो जाती है । "कविता बच जायेगी तो धरती बच जायेगी, मनुष्यता बची रहेगी" जैसे जुमलों से उनका स्पष्ट और गहरा मतभेद था।  उनका मानना था कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, वह एक वर्गीय समाज है, जिसमें प्रभु-वर्ग न केवल पूंजी की ताकत पर बल्कि सभी तरह के पिछड़े और प्रतिक्रियावादी विचारों और अप-संस्कृति के जरिये मेहनतकश जनता का निरंतर आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक शोषण-दमन कर रहा है । व्यापक जन समुदाय की वास्तविक आजादी और खुशहाली के लिए वर्तमान पूंजीवादी-सामन्ती-सम्प्रदायवादी शासक गठजोड़ की प्रभुता को नष्ट करके, देश में जनता की जनवादी क्रान्ति संपूरित करना व "जनता की लोकशाही" स्थापित करना अनिवार्य है।  वे शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के शोषणविहीन समाज की स्थापना के प्रबल समर्थक थे ।
    पने इन्हीं क्रान्तिकारी विचारों को अमल में लाने के लिए उन्होनें कोटा में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के जुझारू आन्दोलन में शामिल होकर पार्टी व जन-मोर्चों पर काम किया। लेकिन दुर्भाग्यवश आपात्काल की समाप्ति के पश्चात् सी.पी.आई.(एम.) के नेतृत्व पर संशोधनवादी गुट हावी हो गया तथा "जनता की जनवादी लोकशाही" स्थापित करने के मुख्य लक्ष्य को ठंडे बस्ते में डाल कर पार्टी में संसदवादी रूझान इतना बढ़ा कि जन आंदोलनों और संघर्ष के स्थान पर पार्टी पूंजीवादी संसदीय दलों की बगलगीर हो कर, खुले आम वर्ग-सहयोग के रास्ते पर बढ़ गई।  सी.पी.आई.(एम.) से पूरे देश में या तो वर्ग-संघर्ष और जनवादी क्रान्ति में विश्वास करने वाले साथियों को बाहर कर दिया गया, या फिर वे इन नीतियों का विरोध करते हुए पार्टी से बाहर आ गये।  इन सभी साथियों ने अपने-अपने प्रदेशों में अलग-अलग ढंग व नामों से कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया तथा अपने विकास क्रम में एक देशव्यापी पार्टी एम.सी.पी.आई. (यूनाइटेड़) का गठन किया।  शिवराम की राजस्थान के अग्रणी साथियों के साथ पार्टी के गठन व निर्माण में केन्द्रीय भूमिका थी तथा इस दिशा में वे प्राण-प्रण से जुटे हुए थे ।    
    शिवराम का यह भी पक्का विश्वास था कि यद्यपि देश में जनता की लोकशाही स्थापित करने के लिए राजनीतिक क्रान्ति अनिवार्य है, लेकिन न तो अकेले राजनीतिक उपकरणों से सत्ता-परिवर्तन आसान है और न ही उसे टिकाउ रखा जा सकता है।  अत: वे जितना जोर क्रान्ति के लिए जनता की जत्थेबंदी और वर्ग-संघर्ष को तेज करने पर देते थे, उतना ही सामाजिक-सांस्कृतिक-वैचारिक लड़ाई को भी व्यापक और घनीभूत करना आवश्यक मानते थे।  उनका मानना था कि जनता के बीच अपनी प्रत्यक्ष प्रभान्विति के कारण इस दिशा में नाटक सबसे प्रभावशाली विधा हॉ।  कालांतर में उन्हें लगा कि चूंकि प्रभु-वर्ग अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए सिनेमा, टी.वी.,मल्टी-मीड़िया, मोबाइल, धार्मिक सभाओँ, अवतारवाद, तंत्र-मंत्रवाद, भाग्यवाद, फूहड़तावाद, सेक्स-व्यभिचारवाद, विचारहीनता, कुलीनवाद, पद-पुरस्कार सम्मोहन आदि सभी संभव रीतियों और विधाओं को काम में ले रहा है, उनका यह विश्वास दृढ़ हुआ कि प्रगतिशील-जनवादी रचनाकर्मियों को भी हर संभव मीडिया और विधाओं के जरिये स्तरीय व लोकप्रिय साहित्य-कला सृजन के द्वारा देश भर में एक व्यापक सांस्कृतिक -सामाजिक अभियान चलाना चाहिए ।
    सी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होनें बिहार व अन्य प्रदेशों के साथियों के साथ मिल कर "विकल्प" अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा" का गठन किया। वे मोर्चा के गठन से ही अ.भा. महामंत्री थे और अपनी अंतिम सांस तक अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए काम कर रहे थे।  "विकल्प’ - अन्य लेखक संगठनों से इस मायने में एक भिन्न संरचना है, क्योंकि अन्य संगठन लेखकों की साहित्यिक भूमिका को ही प्राथमिक मानते हैं, जब कि "विकल्प" रचनाकारों की सामाजिक भूमिका को भी अनिवार्य मानता है ।  यह रेखांकित किये जाने योग्य बात है कि "विकल्प" की बिहार इकाई में मध्य-वर्गीय लेखकों के मुकाबले खेत मजदूरों, किसानों, शिक्षकों आदि की संख्या अधिक है। जो गॉंवों व कस्बों में गीतों, नाटकों, कविताओं , पोस्टरों आदि के द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक जागरण की मुहिम चला रहे हैं।  उनका मानना था कि न तो कोई अकेला साहित्यकार और न ही कोई अकेला संगठन देश की सांस्कृतिक जड़ता को तोड़ सकता है।  अत: वे लेखन व संस्कृति के क्षेत्र में सामूहिक प्रयत्नों के लिए दिन रात प्रयासरत् थे। उन्होनें न केवल राजस्थान में अपितु जहॉं-जहां संभव हुआ, संस्कृतिकर्मियों के सामूहिक अभियान के प्रयास किये और उसमें उन्हें एक हद तक सफलता भी मिली ।
    पने विचारों और व्यवहार में शिवराम कहीं भी व्यक्तिवादी या अराजकतावादी नहीं थे।  उनका मानना था कि मुक्ति के रास्ते न तो अकेले में मिलते हैं और न ही परम्परा के तिरस्कार द्वारा। वे कहते थे कि हमें इतिहास और परम्परा का गहरा अध्ययन करना चाहिए तथा अपने नायकों को खोजना चाहिए।  परम्परा के श्रेष्ठ तत्वों का जन आंदोलनों और जनहित में भरपूर उपयोग करना चाहिए।  लोक संस्कृति औेर लोक ज्ञान का उन्होंने अपनी रचनाओं मे सर्वाधिक कुशलता के साथ उपयोग किया है । 
    "विकल्प" द्वारा राहुल, भारतेन्दु, फैज़, प्रेमचंद, सफदर हाशमी, आदि की जयन्तियों की एक गतिशील परम्परा और नव-जगरण की मुहिम के रूप में चलाना, शिवराम का परम्परा को भविष्य के द्वार खोलने के आवश्यक अवयव के रूप में उल्लेख किया जाना चाहिए। नि:संदेह वे अपनी कलम, उर्जा और अपनी संपूर्ण चेतना का उपयोग ठीक उसी तरह कर रहे थे, जिस तरह समाज में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए प्रतिबद्ध उनके पूर्ववर्ती क्रान्तिकारियों व क्रान्ति-दृष्टाओं ने किया ।
    शिवराम  आज भले ही भौतिक रूप में हमसे बिछुड़ गये हों, लेकिन उनके द्वारा साहित्य, समाज व संस्कृति के क्षेत्र में किये गये काम हमारी स्मृतियों में एक भौतिक शक्ति के रूप में रहेंगे और हमारा व आने वाली पीढ़ियों का मार्ग दर्शन करेंगे।  वे हमारे सपनों, संकल्पों और संघर्षों में एक जलती  हुई तेजोदीप्त मशाल की तरह जीवित रहेंगे, हमेशा-हमेशा। हरिहर ओझा की काव्य-पंक्तियों के द्वारा मैं अपने संघर्षशील व क्रान्तिकारी विचारक साथी को सलाम करना चाहता हूँ :
    " महाक्रांति की ताल/ समय की सरगम/ नूपुर परिवर्तन के /
    और प्रगति की संगत पर /  जो जीवन / नृत्य करेगा / 
    वह /नहीं मरेगा / नहीं मरेगा / नहीं मरेगा !"
                                                
             80- प्रतापनगर, दादाबाडी, कोटा    

    रविवार, 15 अगस्त 2010

    चिंदी-चिंदी बीनती, फिर भी नहीं हताश

    तिरेसठ बरस पहले बर्तानियाई संसद का एक कानून इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट, 1947 लागू हुआ, और हम आजाद हो गए। हमारे देश पर अब बर्तानिया का नियंत्रण नहीं रह गया था। लेकिन हम दो देश बन गए थे। एक इंडिया और दूसरा पाकिस्तान। केवल एक गवर्नर जनरल छूट गया था। तकरीबन ढाई बरस में हमने अपना संविधान बना कर लागू किया और उसे भी अलविदा कह दिया। हम अब पूरी तरह आजाद थे। पूरी तरह खुदमुख्तार। हमने देश बनाना शुरू किया और आज तक बना ही रहे हैं। हमने जो कुछ बनाया है हमारे सामने है। महेन्द्र 'नेह' ने इन बारह दोहों में अपने बनाए देश की पड़ताल की है।
    प भी गुनगुनाइये ये दोहे .......

    महेन्द्र 'नेह' के बारह 'दोहे'
     तू बामन का पूत है, मेरी जात चमार
    तेरे मेरे बीच में, जाति बनी दीवार।।
    वो ही झाड़ू हाथ में, वही तगारी माथ।
    युग बदले छूटा नहीं, इन दोनों का साथ।।


    हरिजन केवल नाम है, वो ही छूत अछूत।
    गांधी चरखे का तेरे, उलझ गया है सूत।।

    अब मजहब की देह से, रिसने लगा मवाद।
    इन्सानों के कत्ल का, नाम हुआ जेहाद।।


    फिर मांदो में भेड़िये, फिर से बिल में साँप।
    लोक-तंत्र में जुड़ रही, फिर पंचायत खाँप।।

    घोड़े जैसा दौड़ता, सुबह शाम इंसान।
    नहीं चैन की रोटियाँ, नहीं कहीं सम्मान।।

    फुटपाथों पर चीखता, सिर धुनता है न्याय।
    न्यायालय में देवता, बन बैठा अन्याय।।

    सत्ता पक्ष-विपक्ष हैं, स्विस-खातों में दोय।
    काले-धन की वापसी, आखिर कैसे होय।।

    जिसने छीनी रोटियाँ, जिसने छीने खेत। 
    वोट उसी को दे रहे, कृषक मजूर अचेत।।

    कहने को जनतंत्र है, सच में है धन-तंत्र।
    आजादी बस नाम की, जन-गण है पर-तंत्र।।
    चिंदी-चिंदी बीनती, फिर भी नहीं हताश।
    वह कूड़े के ढेर में, जीवन रही तलाश।।

    चलो चलें फिर से करें, नव-युग का आगाज।
    लहू-पसीने से रचें,  शोषण-हीन समाज।।

    मंगलवार, 27 जुलाई 2010

    ‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’

    ज सुबह 7.07 बजे सावन का महिना आरंभ हो गया। सुबह सुबह इतनी उमस थी कि जैसे ही कूलर की हवा छोड़ी कि पसीने में नहा गए। लगा आज तो बारिश हो कर रहेगी। इंटरनेट पर मौसम का हाल जाना तो पता लगा 11 बजे बाद कभी भी बारिश हो सकती है। तभी बाहर बूंदाबांदी आरंभ हो गई। धीरे-धीरे बढ़ती गई। फिर कुछ देर बंद हुई तो मैं तैयार हो कर अदालत पहुँचा। बरसात एक अदालत से दूसरी में जाने में बाधा बन रही थी। लेकिन बहुत लंबी प्रतीक्षा के बाद आई इस बरसात में भीगने से किसे परहेज था। भीगते हुए ही मैं चला अपने ठिकाने से अदालत को। चमड़े के नए जूतों के भीगने की परवाह किए बिना पानी को किसी तरह लांघते गंतव्य पर पहुँचा। आज अधिकतर काम एक ही अदालत में थे। दोपहर के अवकाश तक लगभग सभी कामों से निवृत्त हो लिया। हर कोई सारी पीड़ाएँ भूल खुश था कि बरसात हुई। गर्मी कुछ तो कम होगी। कूलरों से मुक्ति मिलेगी। चाय-पीने को बैठे तो बरसात तेज हो गई। पुलिस अधीक्षक के दफ्तर के बाहर पानी भर गया। हमने एक तस्वीर ले ली।   
    ज पहली बरसात हुई है। कल गुरु-पूर्णिमा पर परंपरागत रीति से वायु परीक्षण किया गया। नतीजा अखबारों में था कि अगले चार माह बरसात होती रहेगी। बरसात के चार माह बहुत होते हैं। इस पूर्वानुमान के सही निकलने पर हो सकता था कि बहुतों को बहुत हानि हो सकती थी। पर फिर भी हर कोई यह चाह रहा था कि यह सही निकले। कम से कम पानी की कमी तो पूरी हो। प्यासे की जब तक प्यास नहीं बुझती, वह पानी के भयावह परिणामों को नहीं देखता।  शाम को बरसात रुकी, लोग बाहर निकले। यह सुखद था, लेकिन लोग इस सुख को नहीं चाहते थे। उन का मन तो अभी भी सूखा था। इस बार शायद जब तक उस से आजिज न आ जाएँ तब तक उसे भीगना भी नहीं है। मैं ने अभी शाम को फिर मौसम की तस्वीर देखी। बादल अभी आस पास हैं। यदि उत्तर पश्चिम की हवा चल निकली तो रात को या सुबह तक फिर घनी बरसात हो सकती है। चित्र में गुलाबी रंग के बादल सब से घने, सुर्ख उस से कम, पीले उस से कम और नीले उस से भी कम घने हैं। उस से कम वाला सलेटी रंग तो दिखाई नहीं पड़ रहा है। मैं भी चाहता हूँ कि कम से कम यह सप्ताह जो बरसात से आरंभ हुआ है। बरसातमय ही रहे।
    ल महेन्द्र नेह के चूरू में हुए कार्यक्रम की रिपोर्ट में जर्मनी में रह रहे राज भाटिया जी की टिप्पणी थी .....

    महेन्द्र नेह जी से एक बार मिलने का दिल है, बहुत कवितायें पढी आप के जरिये, और आज का लेख और जानकारी पढ कर बहुत अच्छा लगा, कभी समय मिले तो यह गजल जरुर अपने किसी लेख में लिखॆ....
    ‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’ जिस गजल की पहली लाईन इतनी सुंदर है वो गजल कैसी होगी!!!
    धन्यवाद आप का ओर महेंद्र जी का.....

    तो भाटिया जी, इंतजार किस बात का? महेन्द्र जी ने आप की फरमाइश पर यह ग़ज़ल मुझे फोन पर ही सुना डाली। वैसे यह ग़ज़ल का पहला नहीं आखिरी शेर था। आप भी इसे पढ़िए ......

    एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ
    • महेन्द्र 'नेह' 

    जान मुश्किल में आ गई होगी
    एक दहशत सी छा गई होगी

    भेड़ियों की जमात जंगल से
    घुस के बस्ती में आ गई होगी

    सुर्ख फूलों को रोंदने की खबर
    कोई तितली सुना गई होगी

    उन की आँखों से टपकती नफरत
    हम को भी कुछ सिखा गई होगी

    एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ
    बाज से तंग आ गई होगी
    राज भाटिया जी! 
    अगली भारत यात्रा में कोटा आने का तय कर लीजिए। महेन्द्र नेह के साथ-साथ शिवराम, पुरुषोत्तम 'यकीन' और भी न जाने कितने नगीनों से आप की भेंट करवाएंगे।

    सोमवार, 26 जुलाई 2010

    जहर सुकरात पी गए होंगे, हमसे यूं आचमन नहीं होता...

    24 जुलाई को राजस्थान साहित्य अकादमी व प्रयास संस्थान के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित ‘लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम में चूरू राजस्थान के श्रोताओं का साक्षात्कार हुआ कोटा के जन कवि महेंद्र नेह से। उन्हों ने इस कार्यक्रम में एक से बढकर एक कविता, गीत और गजलों के जरिए वर्तमान व्यवस्था और समय की विद्रूपताओं पर करारा प्रहार करते हुए श्रोताओं का मन मोह लिया। अपनी पहली कविता ‘कल भिनसारे में उठकर चिड़ियाओं की चहचहाट सुनूंगा’ से उन्हों ने वर्तमान में भौतिकवाद की दौड़ में अंधे मनुष्य की अधूरी स्वप्निल आंकाक्षाओं को स्वर दिए तो ‘क्या सचमुच तुम्हारे पास सुनाने के लिए कोई अच्छी खबर नहीं’ से इलेक्ट्रॉनिक चैनलों और मीडिया की सनसनीधर्मिता पर करारा प्रहार किया। नेह ने ‘चिनगी-चिनगी बीनती फिर भी नहीं हताश, वह कूड़े के ढेर में जीवन रही तलाश’ जैसे अपने दोहों पर भी श्रोताओं की खूब दाद पाई। उन की ‘जान मुश्किल में आ गई होगी’, ‘अंधी श्रद्धा में प्रण नहीं होता’, ‘सच के ठाठ निराले होंगे’ और ‘हम दिले नादान को समझा रहे हैं दोस्तों’ जैसी गजलों को श्रोताओं ने मुक्तकंठ से सराहा। ‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’ और ‘जहर सुकरात पी गए होंगे, हमसे यूं आचमन नहीं होता’ जैसे शेरों पर श्रोता मंत्र मुग्ध हुए और उन के मुहँ से निकलने वाली 'वाह-वाह’ की ध्वनियाँ थमते ही न बनी। नेह जी ने नई भाव-भूमि और जनवादी पृष्ठभूमि पर रचे गए अपने गीतों ‘हम सर्जक हैं समय सत्य के’, ‘सड़क हुई चौड़ी मारे गए बबुआ’, ‘थाम लो साथी मशालें’, ‘महाविपत्ति के रंगमंच में’ से वर्तमान समाज और राजनीति की विसंगतियों पर चोट करते हुए ‘क्षार-क्षार होंगे सिंहासन, बिखरेंगे सत्ता के जाले’ के जरिए क्रांति का आह्वान कर सभागार में मौजूद हर एक को सोचने पर मजबूर कर दिया।
    स मौके पर महेंद्र नेह ने कहा कि सृजन कभी अंधानुकरण नहीं हो सकता। हमें चीजों को एकांगी रूप में नहीं, बल्कि व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए और उनमें अंतर्निहित सच्चाइयों की तह में जाना चाहिए। किसी भी व्यवस्था में सब कुछ अच्छा या सब कुछ बुरा नहीं होता। लेकिन एक साहित्यधर्मी को गलत के खिलाफ हमेशा डटे रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि जिन बातों और चीजों के असर से हम मर मिटने को तैयार हो जाते हैं, वे ही हमारे जीवन की सबसे अनमोल चीजें होती हैं। सत्ता और व्यवस्था के दमन चक्र ने हमेशा स्वाभिमानी साहित्यधर्मियों को ठुकराया है लेकिन सृजनधर्मियों को इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। हमें यह मानते हुए कि परंपरा में सब कुछ अनुकरणीय और श्रेष्ठ नहीं है, तर्कसंगत ज्ञान का अवधारण करना ही होगा। वर्गों में बंटे समाज में हमें फैसला करना ही होगा कि हम वास्तव में किसकी तरफ हैं। समाज में प्रत्येक चीज का निर्माण श्रमजीवी करता है लेकिन दो वक्त की रोटी तक को मोहताज रहता है। महेन्द्र नेह ने इस बात पर जोर दिया कि रचनाकारों के लिए कलात्मकता जरूरी है, लेकिन अपनी स्पष्ट विचारधारा और उसके प्रति आग्रह उससे भी अधिक जरूरी है।
    मारोह के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार भंवर सिंह सामौर ने कहा कि महेंद्र 'नेह' की कविता और जिंदगी एक दूसरे में रमे हुए हैं। उन्होंने कहा कि नेह ने आम आदमी की व्यथा को बखूबी व्यक्त किया हैं और उनके शब्दों में गजब की सामर्थ्य है। विशिष्ट अतिथि शिक्षाविद सोहनसिंह दुलार ने कहा कि नेह ने अपनी रचनाओं में वर्तमान की विद्रूपताओं पर कड़ा प्रहार किया है और उनके रचना संसार में आने वाले समय को लेकर उम्मीदें गहराती हैं। अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि प्रदीप शर्मा ने कहा कि नेह समय के सत्य के कवि हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से व्यवस्था पर सटीक व्यंग्य और करारी चोट की है। समीक्षक सुरेंद्र सोनी, वरिष्ठ पत्रकार माधव शर्मा, दूलदान चारण, बाबूलाल शर्मा, अरविंद चूरूवी आदि ने नेह के रचना-संसार पर प्रतिक्रिया करते हुए उन्हें आम आदमी का प्रतिनिधित्व करने वाला सृजनधर्मी बताया।
    मारोह में साफा बांधकर तथा शॉल व श्रीफल भेंट कर महेंद्र नेह का सम्मान किया गया। आरंभ में प्रयास संस्थान के संरक्षक वयोवृद्ध बैजनाथ पंवार ने स्वागत भाषण दिया। सहायक जनसंपर्क अधिकारी एवं साहित्यकार कुमार अजय ने सम्मानित साहित्यकार का परिचय दिया। प्रयास संस्थान के अध्यक्ष दुलाराम सहारण, रामगोपाल बहड़, शेरसिंह बीदावत, ओम सारस्वत, उम्मेद गोठवाल अतिथियो ंका माल्यार्पण कर स्वागत किया। संचालन साहित्यकार कमल शर्मा ने किया। साहित्यकार दुलाराम सहारण ने आभार जताया। इस मौके पर नगरश्री के श्यामसुंदर शर्मा, हिंदी साहित्य संसद के शिवकुमार मधुप, कादंबिनी क्लब के राजेंद्र शर्मा, शोभाराम बणीरोत, सुरेंद्र पारीक रोहित, रामावतार साथी, शंकर झकनाड़िया सहित बड़ी संख्या में शहर के प्रबुद्ध साहित्यप्रेमी मौजूद थे। 
    ......... रिपोर्ट और चित्र श्री दूला राम सहारण, चूरू (राजस्थान) के सौजन्य से 

    मंगलवार, 23 मार्च 2010

    वे सूरतें इलाही इस देश बसतियाँ हैं -महेन्द्र नेह

    वे सूरतें इलाही किस देश बसतियाँ हैं,
    अब जिनके देखने को आँखें तरसतियाँ हैं*

    *यह मीर तकी 'मीर' का वह मशहूर शैर है जो अक्सर शहीद भगतसिंह और उन के साथियों के होठों पर रहा करता था। इस शैर में अवाम का खास सवाल छुपा है....

    न अमर शहीदों भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव के 79वें बलिदान दिवस पर उन का स्मरण करते हुए उस सवाल के जवाब दे रहे हैं महेन्द्र नेह उसी जमीन पर लिखे गए शैरों की इस ग़ज़ल से.....

    आप पढ़िए.....
    वे सूरतें इलाही इस देश बसतियाँ हैं
    • महेन्द्र नेह


    वे सूरतें इलाही इस देश बसतियाँ हैं
    लाखों दिलों के अरमाँ बनके धड़कतियाँ हैं

    जो रात-रात जगतीं, बेचैनियों में जीतीं
    तारों सी दमकतीं जों, गुल सी महकतियाँ हैं

    घनघोर अँधेरों का आतंक तोड़ने को
    हाथो में ले मशालें, घर से निकलतियाँ हैं

    इंसानियत के हक़ में, आज़ादियों की ख़ातिर
    फाँसी के तख़्त पर भी, खुल के विंहसतियाँ हैं

    जिनके लहू से रौशन, कुर्बानियों की राहें
    इतिहास के रुखों को, वे ही पलटतियाँ हैं

    आओ कि आ भी जाओ, फिर से उठायें परचम
    हमसे करोड़ों आँखें, उम्मीद रखतियाँ हैं



    बुधवार, 2 दिसंबर 2009

    ऐ लड़की * महेन्द्र 'नेह' की एक कविता

    महेन्द्र नेह की एक कविता उन के सद्य प्रकाशित संग्रह थिरक उठेगी धरती से ...

    ऐ लड़की
    • महेन्द्र  'नेह'
    ऐ, लड़की
    ऐ, लड़की
    तू प्यार के धोखे में मत आ


    ऐ, लड़की
    तू जिसे प्यार समझे बैठी है
    वह और कुछ है
    प्यार के सिवा


    ऐ, लड़की तूने
    अपने पाँव नहीं देखे
    तूने अपनी बाँहें नहीं देखीं
    तूने मौसम भी तो नहीं देखा


    ऐ, लड़की
    तू प्यार कैसे करेगी?
    ऐ, लड़की
    तू अपने पाँवों में बिजलियाँ पैदा कर

     ऐ, लड़की
    तू अपनी बाँहों में पंख उगा
    ऐ, लड़की
    तू मौसम को बदलने के बारे में सोच
    ऐ, लड़की
    तू प्यार के धोखे में मत आ।

    रविवार, 29 नवंबर 2009

    वित्तीय पूँजी ने आर्थिक ही नहीं सांस्कृतिक संकट भी उत्पन्न कर दिया है -डा. जीवन सिंह


    विश्वम्भर नाथ चतुर्वेदी ‘शास्त्री’ स्मृति समारोह में महेन्द्र नेह के कविता-संग्रह ‘थिरक उठेगी धरती’ का लोकार्पण
    डा. जीवन सिंह, शिवराम व रमेश प्रजापति का सम्मान


    हिन्दी व संस्कृत के यशस्वी विद्वान विश्वम्भर नाथ चतुर्वेदी ‘शास्त्री’ की स्मृति में विगत 8 वर्षों से लगातार  आयोजित किया जा रहा स्मृति-समारोह विशिष्ट साहित्यिक विमर्श और सम्मान के कारण मथुरा नगर की साहित्यिक गतिविधियों में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर चुका है।  इस बार 23 नवम्बर को आयोजित समारोह  "यह दौर और कविता" विषय पर आयोजित परिचर्चा, जनकवि महेन्द्र 'नेह' के कविता संग्रह ‘थिरक उठेगी धरती’ का लोकार्पण, साहित्यिक अन्ताक्षरी की प्रस्तुति तथा रविकुमार की कविता पोस्टर प्रदर्शनी  के कारण मथुरा  नगर का एक चर्चित समारोह बन गया।  का0 धर्मेन्द्र स्मृति सभागार में आयोजित साहित्यिक समारोह में आमंत्रित साहित्यकारों के साथ-साथ बड़ी संख्या में ब्रज-क्षेत्र के प्रमुख रचनाकारों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।

    मारोह के मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध समीक्षक डा0 जीवन सिंह थे। उन्हों ने चर्चा करते हुए कहा कि वर्तमान दौर मे वित्तीय पूँजी ने भारतीय समाज के समक्ष न केवल अभूतपूर्व वित्तीय संकट खड़ा कर दिया है अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक संकट भी खड़ा कर दिया है।  जिस के कारण समाज की उत्पादक शक्तियों किसानों-मजदूरों व आम आदमी का जीवन यापन कठिन हो गया है। मीडिया नये नये भ्रमों की सृष्टि करके मानवता के इस संकट को बढ़ा रहा है।  उन्हों ने इस अवसर पर जन कवि महेन्द्र नेह के कविता संग्रह  "थिरक उठेगी धरती" का लोकार्पण करते हुए कहा कि महेन्द्र की ये कविताऐं व्यवस्था की जकड़बंदी के विरूद्ध प्रतिरोध जगाती हैं  और जन गण के आशामय भविष्य की ओर संकेत करती हैं। इन कविताओं में लोक जीवन की संवेदनाऐं व प्रकृति की थिरकन रची-बसी है।
    सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और ‘अभिव्यक्ति’ के संपादक शिवराम ने कहा कि शास्त्री जी के जीवन में जो भाव व मूल्यबोध था, वही उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक सक्रियता की बुनियाद था। सभ्यता और संस्कृति का निर्माण शोषण व उत्पीड़न पर जीवित अनुत्पादक शक्तियाँ नहीं कर सकतीं। अभावों और संघर्षों में जीने वाले ही नयी व बेहतर संस्कृति का निर्माण करते हैं।  उन्होंने कहा कि महेन्द्र 'नेह' की कविताऐं हमारे जीवन की वास्तविकताओं को सामने रखती हैं तथा सामाजिक परिवर्तन की ओर प्रेरित करती हैं।
    दिल्ली से आए वरिष्ठ साहित्यकार ‘अलाव’ के संपादक राम कुमार ‘कृषक’ ने परिचर्चा में भाग लेते हुए कहा कि हिंदी की समकालीन कविता में आधुनिकता के नाम पर जीवन की वास्तविकताओं से पलायन व जन पक्षधरता नष्ट होने की आशंकाऐं बढ़ रहीं हैं। उन्होंने कहा कि महेन्द्र नेह की कविताओं का वैचारिक परिप्रेक्ष्य सिर्फ मनोलोक से जन्म नहीं लेता बल्कि अपने समय के यथार्थ और आम आदमी की कठिनाइयों से उपजता है। नेह की कविता जनता से सीधे जुड़ाव और जन परम्परा के विस्तार की कविता है।
    दिल्ली के युवा कवि रमेश प्रजापति ने ‘थिरक उठेगी धरती’ में शामिल कविताओं को वर्तमान दौर में प्रकृति समाज और संस्कृति की धड़कनों को व्यक्त करने वाली क्रान्तिधर्मी कविताऐं बताया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए शिवदत्त चतुर्वेदी ने कहा कि शास्त्री जी की स्मृति में आयोजित यह समारोह नगर की मूल्यवान परम्परा और प्रगतिशील जनवादी संस्कृति का सांझा अभियान बन गया है।

    वि महेन्द्र 'नेह' ने अपने नये काव्य-संग्रह ‘थिरक उठेगी धरती’ से प्रतिनिधि रचनाओं का पाठ करते हुए कहा कि मेरी कविताऐं यदि इस धरती और लोक की व्यथा और इसकी गौरवशाली स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति बन पाती हैं तो मैं समझूँगा कि मैं इस माटी व समाज के प्रति अपने ऋण और दायित्व को चुका रहा हूँ। इस अवसर पर  डा. जीवन सिंह, शिवराम व रमेश प्रजापति का सम्मान किया गया।

    मारोह की अध्यक्षता कर रहे साहित्यकार डा0 अनिल गहलौत ने कहा कि वर्तमान अर्थ पिशाची दौर ने मध्यवर्ग को साहित्य और संस्कृति से दूर करके अर्थ के सम्मोहन में बांध दिया है। महेन्द्र 'नेह' की कविताऐं इस दौर में धन की लिप्सा और उसके प्रभुत्व को चुनौती देने वाली प्रेरणादायक कविताऐं हैं।
    मारोह में कानपुर से पधारे परेश चतुर्वेदी एवं आस्था चतुर्वेदी ने महेन्द्र नेह की कविताओं की कलात्मक प्रस्तुति की। उपेन्द्र नाथ चतुर्वेदी, विपिन स्वामी एवं पं. रूप किशोर शर्मा ने साहित्यिक अन्ताक्षरी के युग को जीवित करते हुए श्रेष्ठ कविताओं की सस्वर प्रस्तुति से श्रोताओं को रोमांचित कर दिया। राजस्थान के प्रसिद्ध चित्रकार रवि कुमार द्वारा बनाये गये कविता पोस्टरों ने कार्यक्रम स्थल को जन पक्षधर कविता व चित्रकला का आधुनिक तीर्थ बना दिया। सभी उपस्थित रचनाकारों व दर्शकों ने उनकी कविता पोस्टर प्रदर्शनी की भरपूर सराहना की। आयोजकों की ओर से मधुसूदन चतुर्वेदी व डा.डी.सी. वर्मा ने सभी उपस्थित श्रोताओं का आभार प्रदर्शन किया। समारोह के अंत में ‘वर्तमान साहित्य’ के संपादक जनवादी साहित्यकार डा.के.पी. सिंह व जन कवि हरीश भादानी के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया गया एवं उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई।


     प्रस्तुति- उपेन्द्र नाथ चतुर्वेदी
                                           

    रविवार, 22 नवंबर 2009

    "फिल वक्त" महेन्द्र 'नेह' की एक कविता 'थिरक उठेगी धरती से'

    ज मथुरा में महेन्द्र 'नेह' के नए काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का लोकार्पण है। उन के पिता श्री विश्वंभरनाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री' का स्मृति समारोह भी है। निजि कारणों से इस समारोह में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूँ, इस का बहुत अफसोस भी है। इस अवसर पर इस काव्य संकलन से एक कविता आप के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। शायद इसे ही उस समारोह में मेरी उपस्थिति मान ली जाए। 

    फिल वक्त
    • महेन्द्र 'नेह' 

    फिल वक्त
    खामोश हैं / मेरे साथी


    इस खामोशी में 
    पल रहे हैं बवंडर
    इस खामोशी में 
    छुपी हैं समूची धरती की 
    झिलमिलाती तस्वीरें / जिन पर 
    इन्सानी फसलों को तबाह करते
    खूनखोर जानवरों ने 
    रख दिए हैं अपने / भारी भरकम बूट


    पाँवो सहित 
    तोड़ दिए जाएँगे बूट
    तब हिंसा नहीं / प्रतिहिंसा होगी मुखर
    जब टूटेगी खामोशी
    मेरे साथियों की


    धरती / अपनी धुरी पर
    तनिक और झुकेगी
    और तेजी से थिरक उठेगी तब 


    फिल वक्त
    खामोश हैं मेरे साथी।

    *************************

    शनिवार, 21 नवंबर 2009

    महेन्द्र 'नेह' के काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का लोकार्पण विश्वंभर नाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री' समारोह में 22 नवम्बर को

    प अष्टछाप के कवियों कुम्भनदास (१४६८ ई.-१५८२ ई.), सूरदास (१४७८ ई.-१५८० ई.), कृष्णदास (१४९५ ई.-१५७५ ई.), परमानन्ददास (१४९१ ई.-१५८३ ई.), गोविन्ददास (१५०५ ई.-१५८५ ई.), छीतस्वामी (१४८१ ई.-१५८५ ई.), नन्ददास (१५३३ ई.-१५८६ ई.) और चतुर्भुजदास से अवश्य ही परिचित होंगे। इन में 'छीतस्वामी' स्वामी के वंश में प्रत्येक पीढ़ी में कम से कम एक वंशज कवि अवश्य ही हुआ है। इन्हीं के वंश में थे विश्वंभरनाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री'। वे स्वातंत्र्य चेतना, जनतांत्रिक मूल्यों, और श्रम सम्मान के उन्नायक; शिक्षा, साहित्य व संस्कृति के साधक; और पेशे से अध्यापक थे। प्रतिवर्ष उन की स्मृति में एक समारोह का आयोजन मथुरा के उन के प्रेमी और प्रशंसक करते हैं। इस वर्ष भी उन का स्मृति समारोह 22 नवम्बर,2009 रविवार को का. धर्मेंद्र सभागार बिजलीघऱ केंट, मथुरा में अपरान्ह 2 बजे से आयोजित किया जा रहा है।

    स समारोह में मुख्य अतिथि साहित्यकार और समालोचक डॉ. जीवन सिंह हैं और अध्यक्षता डॉ. अनिल गहलोत कर रहे हैं। इस समारोह में कोटा से नाटककार-कवि शिवराम, दिल्ली से कवि रामकुमार कृषक, बड़ौदा से कवि डॉ. विष्णु विराट, जयपुर से कवि शैलेंद्र चौहान. रतलाम से कवि अलीक, दिल्ली से कवि रमेश प्रजापति और मथुरा से हनीफ मदार उपस्थित रहेंगे, समारोह का संचालन शिवदत्त चतुर्वेदी करेंगे। समारोह में एक परिचर्चा 'यह दौर और कविता' विषय पर होगी और महेन्द्र 'नेह' के काव्य संकलन 'थिरक उठेगी धरती' का लोकार्पण होगा। समारोह में सम्मिलित होने वालों के लिए रविकुमार (रावतभाटा) के कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी बोनस होगी।

    मैं ने आरंभ में ही कहा था कि छीत स्वामी के वंशजों की हर पीढ़ी में कोई न कोई कवि हुआ है। स्व. विश्वंभरनाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री' की अगली पीढ़ी के कवि आप के चिर-परिचित महेन्द्र 'नेह' हैं जिन के काव्य संग्रह का लोकार्पण इस समारोह में होना है। मेरी इस समारोह में उपस्थित होने की अदम्य इच्छा थी, पिछले पूरे सप्ताह यात्रा पर होने और थकान व सर्दी के असर से पीड़ित होने से मैं स्वयं इस समारोह में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूँ। लेकिन यह मथुरा और आस-पास के लोगों के लिए अनुपम अवसर है इस समारोह में उपस्थित होने और इन सभी साहित्यिक व्यक्तियों का सानिध्य प्राप्त करने का। आप सभी इस समारोह में सादर आमंत्रित हैं।

    शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

    हमारे समय के अग्रणी रचनाकार : गजानन माधव मुक्तिबोध (2)

    महेन्द्र 'नेह' द्वारा मुक्तिबोध के रचना कर्म का संक्षिप्त अवलोकन (2)

     मुक्तिबोध पर यह महेन्द्र 'नेह' का यह आलेख मुझे दिल्ली प्रवास में प्राप्त हुआ था। इसे यहाँ दो कड़ियों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। पहली कड़ी आप कल पढ़ चुके हैं, पढ़िए दूसरी कड़ी .....
    संस्कृति के प्रति मुक्तिबोध का रवैया वहुत व्यापक और संश्लिष्ट होते हुए भी अपने निहितार्थ में 'जन-संस्कृति’ के आलोक को विस्तीर्ण-करने का ही था।  उनका मानना था कि जिस तरह समाज प्रभुवर्ग और श्रमजीवी वर्ग में विभाजित है, कला, साहित्य और संस्कृति का स्वरूप भी आम तौर पर वर्गीय होता है। प्रभुवर्ग अपने हितों और दृष्टिकोंण के आधार पर संस्कृति की व्याख्या तथा संरक्षण देता है, दूसरी और श्रमजीवी वर्ग अपनी चेतना से नई प्रतिरोध की संस्कृति और साहित्य का सृजन करता रहता है। अपनी गतिमान और दृन्दात्मक स्थिति के कारण संस्कृति के श्रेष्ठ मानवीय तत्वों का संचयन भी चलता रहता है, जिसे अपनाने में नई संस्कृति के निर्माताओं को गुरेज नहीं करना चाहिए। मुक्तिबोध परम्परा के नाम पर वासनाजन्य साहित्य को स्वीकृति नहीं देते थे, चाहे उसे कालिदास जैसे महाकवि ने ही क्यों न रचा हो।  धर्म ने नाम पर अकर्मष्यता और साम्प्रदायिक के कथित पुरातन संस्कृति पोषक महाधीशों पर वे अपनी कविता में प्रहार करते हैं -
    ‘‘भारतीय संस्कृति के खंडेरों में
    जीवन्त कीर्ति की विदीर्ण युक्तियों
    के लतियाये भालों पर / स्तम्भों के शीर्श पर /
    मन्दिरों के श्रंगों पर। बैठे ये जनद्वेषी धुघ्घू ये घनघोर /
    चीखते हैं रात दिन!!
    घूमते हैं खंडेरों की गलियों में चारों ओर /
    कुकुर पुराने और दम्भ के नये जोर
    जनता के विद्वेषी / अनुभवी / कामचोर ........’’

    मुक्तिबोध का मेरी रचनादृष्टि पर कैसा और कितना प्रभाव पड़ा है, यह तो मेरे पाठक और समीक्षक ही बेहतर बता पायेंगे। लेकिन मेरा मानना है कि मुक्तिबोध के साहित्य ने मेरी तत्व-दर्शी दृष्टि और भाव-बोध में इजाफा किया है। मेरे वर्ग - बोध को भी मुक्तिबोध के साहित्य ने अधिक पुख्ता तथा जन पक्षधरता को पहले से अधिक सच्चा ओर मजबूत बनाया है। मुक्तिबोध के साहित्य ने केवल मुझे ही नहीं, उन सभी रचनाकारों को गहराई से प्रभावित किया है, जो साहित्य की सामाजिक व परिवर्तनकारी भूमिका को आवश्यक मानते है।

    मुक्तिबोध को आधुनिकतावादी - कलावादियों तथा जनवादी लेखओं आलोचकों दोनों के ही द्वारा पसंद करने के कई कारण रहे हैं। जनवादी लेखकों-आलोचकों द्वारा तो मुक्तिबोध को पसंद किया जाना स्वाभाविक है, क्योंकि उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में नई रचनाशीलता और समझ को जन्म दिया। प्रगतिशील लेखन को अपने पुराने कलेतर से निकालकर एवं व्यापक प्रष्ठभूमि पर अवास्थित किया। कला और समीक्षा के नये मापदण्ड निर्धारित किये। जहाँ तक आधुनिकतावादी-कलावादी लेखकों द्वारा मुक्तिबोध को पसंद किया जाने का प्रश्न है, उसको दो तरह से समझा जा सकता है। पहला तो मुक्तिबोध की प्रतिभा और सुजन कला है, जो अपनी समग्रता में बहुत कुछ ऐसा समेटे हुए है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। दूसरा कारण आधुनिकतावादियों द्वारा मुक्तिबोध के साहित्य को जटिलता और रहस्यवाद की और धकेलना और उसकी भ्रम पूर्ण व्याख्याऐं करना रहा है। लेकिन जिस तरह प्रेम चंद और भगत सिंह के विचारों को विरूपित करने की अधिकांश चेष्ठाऐं अंततः भूलुंठित हुई है, मुक्तिबोध के साहित्य की कोंध भी मन को मानवीय और जन को जन-जन बनाने की बड़ी सामर्थ्य रखती है।

    मुक्तिबोध के अंतर्विरोधों की व्याखा उनके देशकाल और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही की जानी चाहिए। मुक्तिबोध को अपने पारिवारिक दायित्वों और अत्यधिक धनाभाव में ही अपनी ज्ञानात्मक, साहित्यिक व सामाजिक भूमिका के लिए संघर्ष करना पड़ा। उनके सामने बहुत बड़े लक्ष्य थे, लेकिन उन्हें कई स्तरों पर जूझना था। एक ओर प्रगतिशील आन्दोलन अपनी चमक खो रहा था तो दूसरी ओर अज्ञेय के नेतृत्व  में आधुनिकतावाद और कलावाद के अखाड़े में व्यक्तिवादी-सुविधावादी लेखकों की गोलबंदी हो रही थी। मुक्तिबोध को चूँकि साहित्य की पुरानी जमीन तोड़ कर नई जमीन का निर्माण करना था, नये पौधों को रोपना था, नई ज्ञाानात्मक चेतना में पक कर नये संस्कारों का निर्माण करना था, वे प्रत्यक्ष रूप से जनता के मुक्ति संग्रामों में न कूद सके। इसी कारण कबीर की तरह ज्ञानात्मक चेतना से युक्त होते हुए भी वे सधुक्कड़ी जन-भाषा का उस तरह का ताना-बाना न बुन सके। इसके बावजूद युग के अंतर्विरोधों की सर्वाधिक प्रखर व विवेक संगत समझ और जन-क्राान्तिकारी भूमिका न निभा पाने की आंतरिक वेदना का उनके मन-मस्तिष्क पर संघातिक असर पड़ा, जिसने उनके जीवन को ही छीन लिया।
    • महेन्द्र नेह

    गुरुवार, 19 नवंबर 2009

    हमारे समय के अग्रणी रचनाकार : गजानन माधव मुक्तिबोध (1)


    महेन्द्र 'नेह' द्वारा मुक्तिबोध के रचना कर्म का संक्षिप्त अवलोकन
     मुक्तिबोध पर यह महेन्द्र 'नेह' का यह आलेख मुझे दिल्ली प्रवास में प्राप्त हुआ था। इसे यहाँ दो कड़ियों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। पढ़िए पहली कड़ी.....
    जानन माधव मुक्तिबोध हमारे समय के उन अग्रणी रचनाकारों में हैं, जिन्होंने देशकाल और परिस्थितियों की त्रासद सचाइयों और उसके साधारण जन पर पड़ने वाले प्रभावों की पड़ताल पूरी शिद्दत से की और अपनी कविताओं, कहानियों, लेखों व समीक्षा में युग की सच्चाइयों को उद्धाटित किया। मेरा मानना है कि निराला के अलावा मुक्तिबोध ही ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होने हिन्दी साहित्य को विश्व-साहित्य की कोटि में रखे जाने का मात्र सपना ही नहीं देखा, बल्कि इस बड़ी चुनौती के लिए प्राण-प्रण से चेष्टा भी की। अपने अध्ययन, मनन, चिंतन और संघर्ष के द्वारा उन्होंने इस दिशा में जो काम किया है, वह अभी हिन्दी के आम पाठकों तक नहीं पहुँच पाया।


    मुक्तिबोध उन विरले लेखकों में से थे, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से देश की कथित ‘आजादी’ के मर्म और 1947 के बाद भारत की राज्य-सत्ता पर काबिज नये शासक वर्ग के चरित्र की सच्चाई को समझ कर अपने लेखन के उद्देश्य तय किए थे। जब केवल सत्ता से नाभिनालबध्द लेखकों का समूह ही नहीं, बल्कि प्रगतिशील लेखकों का बड़ा हिस्सा भी नेहरू-युग की भ्रामक प्रगतिशीलता से सम्मोहित था, तब मुक्तिबोध ही थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं में इस सचाई को उद्घाटित किया कि देश का नये शासक-वर्ग का चरित्र मात्र जन-विरोधी ही नहीं है, बल्कि साम्राज्यवादियों जैसा ही क्रूर, निरंकुश और हिंसक भी है। उसके हित साम्राज्यवाद से टकराव के नहीं अपितु वह साम्राज्यवादी शोषण-दमन और उत्पीड़न में सहायक व साँझीदार है। इस संदर्भ में उनकी कहानी ‘क्लाड ईथरली’ को पढ़ना चाहिए, जिसमें वे लिखते हैं - ‘‘तो तुमने मैकामिलन की वह तकरीर भी पढ़ी होगी जो उसने.......... को दी थी। उसने क्या कहा था? यह देश, हमारे सैनिक गुट में तो नहीं है किन्तु संस्कृति और आत्मा से हमारे साथ है। क्या मैकमिलन सफेद झूठ कह रहा था? कतई नहीं। वह एक महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रकाश डाल रहा था। उनकी कविता ‘‘बारह बजे रात के’’ से भी कुछ पंक्तिया उद्धृत करना चाहता हूँ -  
    ‘‘युध्द के लाल-लाल / प्रदीप्त स्फुलिंगों से लगते हैं / बिजली के दीप हमें / लंदन में वाशिंगटन / वाशिंगटन में पेरिस की पूँजी की चिंता में / युध्द की वात्र्ताऐं सोने न देती हैं / किराये की आजादी / चाँटे सी पड़ी है, पर रोने न देती है / जर्मनी संगीत / अमरीकी संगीत / जब मानव और मनुष्य हमें / होने न देता है’’   
    मुक्तिबोध निरूद्देश्य लेखन के बजाय उद्येश्यपूर्ण व लक्ष्य-बद्ध लेखन के समर्थक थे। उनका मानना था कि साहित्य का उद्देश्य मानवीय भावनाओं के परिष्कार, जन को जन-जन करना, शोषण और सत्ता के घमण्ड को चूर करने वाला तथा ‘मानव-मुक्ति’ के लक्ष्यों से संचालित होना चाहिए। मानव-मुक्ति का उनके लिए अर्थ वर्गीय-मुक्ति से था। शोषित-पीड़ित मजदूरों और किसानों की मुक्ति उनके लिए कोई नारेबाजी नहीं थी, बल्कि इसमें वे समूचे मानव समाज की भूख, अंधेरे और अज्ञान से मुक्ति से जोड़ कर देखते थे।
    वे कविता को केवल भावनाओं के उच्छवास का माध्यम नहीं मानते थे बल्कि मानवीय संवेदनाओं के ज्ञान व विवेक संगत होने के पक्षधर थे। ज्ञानात्मक संवेदनाऐं और संवेदनात्मक ज्ञान की अवधारणा मुक्तिबोध द्वारा सौन्दर्यशास्त्र पर उनके गहन अध्ययन की मौलिक अवधारणा है। लेखक की रचना-प्रक्रिया पर भी मुक्तिबोध ने जितना गहन पर्यवेक्षण व चिंतन किया है, उसे परवर्ती समीक्षक आगे नहीं बढ़ा सके।
    मुक्तिबोध पश्चिमी आयातित विचारों को ज्यों का त्यों अपना लेने के विरोधी तथा अपनी संस्कृति की श्रेष्ठ विरासत व स्वदेशी के प्रबल समर्थक थे। उनकी कविताओं में यूकीलिप्टस और कैक्टस के बजाय पीपल, वट और बबूल के बिम्ब दिखाई देते हैं। इस संदर्भ में उनकी कुछ कविताओं, विशेष रूप से ‘‘चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन’’ ‘‘घर की तुलसी’’ को पढ़ा जाना चाहिए। ‘घर की तुलसी’ की कुछ पंक्तियाँ देखिये -
    ‘‘मैं काल-विहंग परीक्षा के निज प्रहरों में
    भी रहा खोज अपने स्वदेश का कोना निज
    उग चलूँ अंधेरे के निःसंग सरोवर में
    पंखुरियाँ खोलता लाल-लाल अग्निम सरसिज
    वह भव्य कल्पना रूपायित
    जब हुई कि मन में अकस्मात
    इनकार भरी वह असंतोष की वन्हि
    कह गई थी जरूर
    घर की तुलसी तुमसे इतनी दूर
    रेगिस्तानों से ज्यों नदियों का पूर’’
     वे भारतीय लेखकों और मीडिया के पश्चिम - प्रेम पर कटाक्ष करते हुए ‘क्लॉड ईथरली’ कहानी में कहते हैं - ‘‘यह भी सही है कि उनकी संस्कृति और आत्मा का संकट हमारी संस्कृहित और आत्मा का संकट है। यही कारण है कि आजकल के लेखक और कवि अमरीकी, ब्रिटिश तथा पश्चिम यूरोपीय साहित्य तथा विचारधाराओं में गोते लगाते हैं और वहाँ से अपनी आत्मा को शिक्षा और संस्कृति प्रदान करते हैं। क्या यह झूठ है ? और हमारे तथाकथित राष्ट्रीय अखबार और प्रकाशन-केन्द्र! वे अपनी विचारधारा और दृष्टिकोण कहाँ से लेते हैं ?’’
    अपनी लम्बी कविता ‘‘जमाने का चेहरे’’ में वे कहते हैं -
    ‘‘साम्राज्यवादियों के पैसों की संस्कृति
    भारतीय आकृति में बँध कर / दिल्ली को वाशिंगटन व लंदन का उपनगर / बनाने पर तुली है!! भारतीय धनतंत्री / जनतंत्री बुद्धिवादी / स्वेच्छा से उसी का कुली है!!’’
    मुक्तिबोध के लेखन की एक और बड़ी मौलिक देन को मैं रेखांकित करना चाहता हूँ, वह है - आत्मालोचना और आत्म - संघर्ष!
    हिन्दी के लेखकों की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि उनमें से अधिकांश बहुत थोड़ा और कम महत्वपूर्ण लिख कर ही आत्म-प्रशंसा और आत्म-मुग्धता के शिकार हो जाते हैं। इसके ठीक विपरीत मुक्तिबोध निरन्तर श्रेष्ठ लेखन की और बढ़ते हुए भी स्वयं की तीखी और मारक आलोचना करते हैं। जैसे जन-गण के प्रति अपने दायित्वों को पूरी तरह न निभाने के लिए स्वयं पर कोड़े बरसा रहें हो! मुक्तिबोध का समूचा साहित्य सत्ता-व्यवस्था के विरूद्ध औचित्यपूर्ण संघर्ष के साथ-साथ निरन्तर आत्म-संघर्ष और आत्म परिष्कार की प्रक्रिया से गुजरता है! एक ओर वे मानते है कि ‘‘तोड़ने ही होंगे गढ़ और दुर्ग सब’’ तो दूसरी और ‘‘नहीं चाहिए मुझे हवेली’’ में वे वर्तमान में पदों और पुरस्कारों की कुक्कुर-दौड़ में लगे सत्ता के चाकर साहित्यकारों के बरक्स लिखते हैं -
    ‘‘नहीं चाहिए मुझे हवेली
    नहीं चाहिए मुझे इमारत
    नहीं चाहिए मुझको मेरी
    अपनी सेवाओं की कीमत
    नहीं चाहिए मुझे दुश्मनी
    करने कहने की बातों की
    नहीं चाहिए वह आईना
    बिगाड़ दे जो सूरत मेरी
    बड़ो बड़ों के इस समाज में
    शिरा शिरा कम्पित होती है
    अहंकार है मुझको भी तो
    मेरे भी गौरव की भेरी
    यदि न बजे इन राजपथों पर
    तो क्या होगा!! मैं न मरूँगा
    कन्धे पर पानी की काँवड़
    का यह भार अपार सहूँगा!!’’

    • महेन्द्र नेह