@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: Justice
Justice लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Justice लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

भारत के संवैधानिक जनतंत्र और कानून के शासन के प्रति वकीलों का दायित्व

यह  लेख  त्रेमासिक  पत्रिका   "एक और अंतरीप"  के अप्रेल-जून 2024 के न्यायपालिका पर केन्द्रित अंक   में प्रकाशित हुआ है- 
-दिनेशराय द्विवेदी

कानून के शासन (Rule of Law) का सिद्धान्त बहुत पुराना है। पुरातन काल में इसके सूत्र देखे जा सकते हैं। यह एक राजनीतिक आदर्श है जिसके अंतर्गत किसी देश, राज्य या समुदाय के सभी नागरिक और संस्थान एक समान कानूनों के प्रति उत्तरदायी हैं, जिसमें विधि निर्माता और नेता भी शामिल हैं। इसे कभी-कभी इस तरह भी कहा जाता है कि "कोई भी कानून से ऊपर नहीं है"। यह कानून के समक्ष सभी नागरिकों की समानता का समर्थन करता है तथा सरकार के एक गैर-मनमाने रूप को सुरक्षित करते हुए अधिक सामान्य रूप से सत्ता के मनमाने उपयोग को रोकता है। कानून के शासन को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि न्यायालय हों, कानूनों के उल्लंघन को रोकें और जनता को न्याय प्रदान करें। न्याय प्रशासन में न्यायालय के समक्ष व्यक्तियों के पक्ष को रखने के लिए कानूनी समझ वाले पेशेवर व्यक्ति ‘वकील’ की आवश्यकता होती है। हम कल्पना कर सकते हैं कि जब से जहाँ जहाँ कानून का शासन अस्तित्व में आया होगा तब से लोगों की पैरवी के लिए वकीलों की उपलब्धता अवश्य रही होगी। एक वकील को कानून की जानकारी के साथ साथ सामाजिक, राजनीतिक और तकनीकी मामलों की भी जानकारी होना जरूरी है, क्योंकि उसके बिना वह किसी भी न्यायार्थी की पैरवी करने में सक्षम नहीं हो सकता। कानून के अतिरिक्त इन सब विषयों का ज्ञान वकील को एक विशिष्ट व्यक्ति में परिवर्तित कर देता है जो समाज में अनेक रूप से अपनी भूमिका अदा करते हुए अपने दायित्वों को निभा सकता है।

वकीलों ने देश और समाज में सदैव उच्चस्तरीय भूमिका अदा की है और अपने सामाजिक दायित्व को निभाया है। यही कारण है कि हमारे देश की आजादी के आंदोलन में, संविधान के निर्माण और भारत में लोकतंत्र की स्थापना में वकील समुदाय का बड़ा योगदान रहा है। आजादी के आंदोलन में हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जिन्होने देश की स्वतंत्रता की लड़ाई का नेतृत्व किया, स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल, बाल गंगाधर तिलक, जी.के.गोखले, लाला लाजपत राय, देशबंधु चितरंजन दास, सैफुद्दीन किचलू, मोतीलाल नेहरू, राधा बिनोद पाल, भूलाभाई देसाई आदि का प्रमुख योगदान रहा है। संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए नियुक्त समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर के साथ समिति के सदस्य अलादी कृष्ण स्वामी अय्यर, एन. गोपलास्वामी अय्यंगार, बी. आर. आमदकर, के. मुंशी, मोहम्मद सादुल्ला, बीएल माइनर, एन. माधव राव, तथा टीटी कृष्णमाचारी आदि व्यापक विशेषज्ञता वाले प्रतिष्ठित वकील थे। इन सबका प्रयास था कि हम एक आदर्श जनतांत्रिक संविधान का निर्माण कर पाएँ, जिसके फलस्वरूप देश में जनतांत्रिक व्यवस्था संभव हो। आजादी के बाद भी देश के राज्य प्रशासन में वकीलों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। न्याय प्रशासन में तो उनके बिना न्याय की परिकल्पना अकल्पनीय है। यही कारण है कि वकील समुदाय को देश के संविधान और जनतंत्र का संरक्षक कहा जा सकता है। लेकिन प्रश्न यह है कि, क्या आज वकील समुदाय अपनी यह भूमिका को ठीक से निभा रहा है? इसके लिए हमें समूची दुनिया की राज्य व्यवस्थाओं, जनतंत्र की स्थापना उसके विकास आदि पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालना आवश्यक प्रतीत होता है।

पिछले दिनों भारत में 18वीं लोकसभा के लिए निर्वाचन सम्पन्न हुए। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने अपना चुनाव अभियान भारत को दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने और राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के बहुसंख्यक धार्मिक राष्ट्रवाद और विकास के मुद्दों के साथ आरम्भ किया। वहीं विपक्ष ने एक गठबंधन संक्षिप्त नाम इंडिया (I.N.D.I.A.) के साथ आरंभ किया, जिसके घटक दलों के बीच सीटों के बंटवारे के मामले में मतभेद थे। इंडिया ने अपने मुद्दे जनता की वास्तविक समस्याओं के इर्द-गिर्द खड़े किए। उन्होंने अपना प्रचार बेरोजगारी, और महंगाई की समस्याओं के साथ साथ अमीरी गरीबी की तेजी से बढ़ती हुई खाई और गरीब, पिछड़े, दलित और आदिवासियों को राहत देने के मुद्दों के साथ साथ संविधान बचाओ जनतंत्र बचाओ के मुद्दे से आरंभ किया। इंडिया गठबंधन ने अपना एक सामान्य घोषणा पत्र जारी किया, इसके सभी घटक दलों ने भी अपने विशिष्ट मुद्दों के साथ इन गठबंधन के मुद्दों को अपने-अपने दलों के घोषणा पत्रों में स्थान दिया। इससे जनता के बीच यह संदेश गया कि ये दल जनता के मुद्दों पर विभाजित नहीं, अपितु एक हैं।

देश का लगभग सारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रेस सत्ताधारी दल भाजपा और उसके गठबंधन एनडीए के साथ नजर आये। उनका प्रचार ही उनमें छाया रहा। विपक्ष के समाचारों को इस मुख्य धारा के मीडिया और प्रेस ने या तो स्थान ही नहीं दिया और स्थान दिया तो ऐसे कि वह सत्ताधारी दल के गठबंधन के प्रचार के पीछे छुपा रहे। सोशल मीडिया पर सत्ताधारी दल ने बाकायदा आईटी सेल के जरिए अपना प्रचार जारी रखा। दूसरी ओर सोशल मीडिया का गैर मुख्य धारा वाला किन्तु सबसे अधिक पढ़ा, सुना, देखा जाने वाला हिस्सा इंडिया के साथ खड़ा हो गया और सही तथ्यों को जनता के बीच पहुँचाने लगा। इंडिया गठबंधन के दलों ने अपने सीमित साधनों से जनता के बीच पहुँचने के भरपूर प्रयास किए। धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि विपक्ष की लड़ाई गठबंधन के साथ जनता खुद लड़ रही है। इन स्थितियों में भाजपा का प्रचार विकास और अपनी सरकार की उपलब्धियों के मुद्दों को पीछे छोड़ पूरी तरह साम्प्रदायिक मुद्दे पर उतर आया। जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया वह भारत के चुनाव इतिहास में सबसे निचले स्तर का था।

चुनाव के नतीजे आने के पहले आए मुख्य धारा के मीडिया के एक्जिट पोल नतीजे भाजपा की 370 से अधिक स्थानों पर और गठबंधन के चार सौ से अधिक स्थानों पर कब्जा करने के दावों की पुष्टि कर रहे थे। तीन दिनों तक सत्ताधारी पार्टी और गठबंधन की भारी जीत का माहौल बना रहा, वहीं इंडिया ब्लाक एक्जिट पोल को बनावटी बताता रहा। लेकिन जैसे ही वास्तविक नतीजे आने शुरु हुए तो परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। भाजपा को अपने बूते बहुमत नहीं मिला, वह 240 सीटों पर सिमट गयी और गठबंधन तीन सौ के आँकड़े तक नहीं पहुँच पाया।

नतीजों से स्पष्ट हुआ कि देश की जनता का बहुमत भाजपा और उसके गठबंधन के समर्थन में नहीं है। अपितु जनता तक पहुँचने के साधनों की हीनता के बावजूद विपक्षी गठबंधन इंडिया को खूब समर्थन मिला। यह साफ हो गया कि जनता बढ़ती हुई अमीरों की अमीरी और गरीबों की गरीबी के कारण उत्पन्न आर्थिक खाई से चिंतित है। जनता ने इस बात का भी नोटिस लिया कि पिछले दस सालों में जनता के जिन हिस्सों ने अपनी आवाज सत्ता तक पहुँचाने के लिए आंदोलन का सहारा लिया उनका कानून और सुरक्षा बलों की ताकत से दमन किया गया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तेजी से अंकुश कसा गया। जनता ने देश में जनतंत्र और संविधान दोनों को वास्तविक खतरा महसूस किया। इस चुनाव ने भारत में जनतंत्र और संविधान के महत्व को पुनर्स्थापित किया। इससे देश में संविधान और जनतंत्र बचाने का आंदोलन संगठित और तेज हुआ। लगभग पूरे देश में Save Democracy और जनतंत्र बचाओ के नाम पर नागरिकों के स्थानीय फोरम खड़े हुए, जिन्होंने इसके लिए लगातार काम करने के संकल्प लिए। यदि हम पूरे विश्व पर एक नजर दौड़ाएँ तो देखते हैं कि जनतंत्र बचाओ आंदोलन लगभग प्रत्येक जनतांत्रिक देश में मौजूद है। हर देश की जनता के कुछ हिस्से जनतंत्र के विरुद्ध लगातार खतरा महसूस करते हैं।

हम इतिहास में झाँकें तो पाते हैं कि चार-पाँच सदी पहले पूरी दुनिया में राजा-महाराजाओं का राज्य था। दुनिया भर में अर्थ व्यवस्था कृषि के इर्दगिर्द घूमती थी। कृषि उपज को मानवोपयोगी बनाने के लिए जो उद्योग करना पड़ता था वे सभी काम हस्तशिल्पी किया करते थे। एक वर्ग व्यापारियों का था जो जरूरत से अधिक उत्पादन को कम उत्पादन करने वाले क्षेत्रों में पहुँचाया करता था। आबादी बढ़ने के साथ मनुष्य निर्मित वस्तुओं की मांग भी बढ़ती गयी जिससे वस्तुओं का मेन्युफेक्चर आरंभ हुआ। छोटे-छोटे कारखाने खड़े हुए जहाँ एक मालिक के अधीन अनेक लोग काम करते थे। तकनीक के विस्तार, भाप के इंजन के आविष्कार ने उद्योग क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। बड़ी मात्रा में उत्पादन संभव होने लगा। तेजी से कारखाने खड़े होने लगे जिनमें काम करने के लिए मानव श्रम की आवश्यकता थी। यह मानव श्रम उद्योगों के स्वामी पूंजीपतियों को केवल कृषि क्षेत्र से ही मिल सकता था। लेकिन लोग वहाँ अपनी जमीन और जमीन के मालिकों से बंधे थे। इस मानव श्रम को इन बंधनों से मनुष्य की मुक्ति ही उपलब्ध करा सकती थी और इसके लिए जनतंत्र की जरूरत थी। इस तरह जनतंत्र प्रारंभिक रूप से पूंजीपतियों की आवश्यकता थी। इससे किसानों और खेतों में काम करने वाले मेहनतकशों को बंधन मुक्ति मिल रही थी, व्यापारियों के लिए मुक्ताकाश खुल रहा था। यहीं से उस सामंती दुनिया में जनतंत्र की खिड़की खुली और उससे बाहर निकली हवा पूरी दुनिया में फैल गयी।

पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में जनतंत्र का दुनिया में विस्तार हुआ। जनतंत्र लाने में पूंजीपतियों का साथ किसानों और मजदूरों ने दिया था। इसने उन्हें जमीन और बंधुआ श्रम से मुक्ति दी, किन्तु कारखानों में जिस तरह से उनसे कम से कम मजदूरी में अधिक से अधिक काम लिया जाता था। सारी पूंजीवादी दुनिया में काम के घंटे कम करने और जीने लायक मजदूरी पाने के लिए मजदूरों के स्वतः स्फूर्त आंदोलनों ने जोर पकड़ना आरंभ कर दिया। मजदूर संगठित होने लगे। समाजवाद की विचारधारा ने जोर पकड़ना आरंभ किया।

दुनिया भर में जनतंत्र को लाने वाली पूंजीवादी व्यवस्था के अपने अंतर्विरोध थे। पूंजीपतियों के बीच तेजी से उत्पादन बढ़ाने और अधिक से अधिक लाभ कमाने की होड़ बढ़ गयी थी। हर पूंजीवादी देश चाहने लगा कि दुनिया का अधिक से अधिक बाजार उनके कब्जे में रहे जिससे उनकी अर्थ व्यवस्था हमेशा प्रगति करती रहे। उत्पादन को खपाने के लिए नए बाजारों की जरूरत हमेशा बनी रहती थी जो उपनिवेशों में उपलब्ध थे। उपनिवेशों पर उनका कब्जा बना रहे यह प्रतिस्पर्धा पूंजीवादी देशों के बीच बढ़ती रही। पूंजीवाद की एक खामी यह भी है कि यह मजदूरों को कम से कम वेतन देता था और अपनी पूंजी बढ़ाता रहता था। एक वक्त ऐसा आ जाता था कि उत्पादन तो खूब होता था लेकिन उत्पादों को खरीदने के लिए जनता के पास धन की कमी हो जाती थी। बाजार मालों से भरे रहते थे लेकिन खरीददारों का अभाव होता था। इस तरह बाजार में मंदी प्रकट होती और अनेक छोटे उद्योगों को बरबाद करती और बड़े उद्योग पनपते रहते। उद्योगों की बर्बादी से उत्पादन सिकुड़ता और मंदी कम होती। लेकिन वह हर 10-12 सालों में लौट आती। अपने माल को खपाने के लिए नए बाजारों की तलाश आरंभ हो गयी। इसी के साथ पूंजीवाद ने साम्राज्यवादी स्वरूप ग्रहण कर लिया। पूंजीवादी देशों के बीच बाजार कब्जाने की इस होड़ ने दुनिया को प्रथम विश्वयुद्ध में झोंक दिया। जुलाई 1914 से नवंबर 1918 तक दुनिया विश्वयुद्ध की ज्वाला में जलती रही।

मार्क्स-एंगेल्स ने 1848 में “कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र” के प्रकाशन के साथ एक नारा दिया था, ‘दुनिया के मजदूरों एक हो¡’ मार्क्सवाद ने वैज्ञानिक समाजवाद और साम्यवाद के आदर्श लक्ष्य दिए थे। मजदूर आंदोलन के विकास के साथ ही मार्क्सवाद पर दुनिया भर में बहस तेज हो गयी। लेनिन ने मार्क्सवाद और मार्क्स के बाद पूंजीवाद के साम्राज्यवाद में विकसित होने का अध्ययन कर बताया कि मजदूर क्रान्ति एक देश में भी हो सकती है और साम्राज्यवादी युद्ध के बीच यह पूरी तरह संभव है। लेनिन के नेतृत्व में रूस के मजदूर वर्ग ने किसानों की मदद से यह कर भी दिखाया। पहली मजदूर क्रान्ति रूस में सम्पन्न हुई। इस क्रान्ति से पहला मजदूर-किसान राज्य सोवियत संघ अस्तित्व में आया। उन दिनों भारत में आजादी का आंदोलन प्रारंभिक रूप में था। रूसी क्रान्ति ने तमाम उपनिवेशों में आजादी के आंदोलनों को प्रेरित किया। मजदूर किसान आजादी के आंदोलनों से जुड़ने लगे। भारत के आजादी के आंदोलन पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ। भगतसिंह और उसके साथियों का क्रान्तिकारी आंदोलन पूरी तरह साम्यवादी आदर्शों से प्रभावित था और उनका दल भारत में मजदूर किसानों का राज्य चाहता था।

पहले विश्वयुद्ध ने दुनिया के बाजारों का साम्राज्यवादी देशों के बीच बँटवारा कर लिया था। इसके समापन से दुनिया ने चैन की साँस ली। लेकिन मंदी तो पूंजीवाद का अभिन्न लक्षण है। वह निश्चित अंतराल के बाद लौटती है। पूंजीवाद पूंजीपतियों को और अमीर बनाता चला जाता है, जनता संसाधन हीन हो कर गरीबी के समुद्र में डूबने लगती है। किसी भी देश का यह आंतरिक आर्थिक अंतर्विरोध जनता में लगातार असंतोष उत्पन्न करता है और जन आंदोलन जन्म लेते हैं। ये आंदोलन सत्ताधारी पूंजीपति वर्ग को बैचेन करते हैं और जनतंत्र जो वास्तव में पूंजीपतियों के कब्जे में होता है इसका कोई वास्तविक स्थायी हल नहीं देता। हम हमारे देश के अनुभव से जानते हैं कि लोकतंत्र में पूंजीवाद भ्रष्टाचार के अंडर करंट का जन्मदाता है। इस भ्रष्टाचार के जरीए पूंजीपति जनतंत्रों की तमाम राजकीय मशीनरी को अपने हक में इस्तेमाल करने की ताकत पाता है। वह अपने धन-बल पर राजनेताओं की बड़ी फौज खड़ी करता है जो लगातार उसके लिए काम करते हैं। धन के बल पर वह राज्य की मशीनरी पर कब्जा कर लेता है। मेहनतकश जनता हाथ मलते रहती है। धीरे-धीरे अपने अनुभव से जनता सीखती है और जनतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए जनतांत्रिक देशों की पूंजीपतियों के पक्ष में काम कर रही सरकारों के विरुद्ध बड़े आंदोलन खड़े करने लगती है। सरकार को जनता के पक्ष में काम करने को बाध्य करती है। यह सब पूंजीपतियों को रास नहीं आता। सरकारें इन आंदोलनों के दमन पर उतर आती हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार जनतंत्र का मूल है, लेकिन यही आजादी जनता के आंदोलनों की ताकत भी है। सरकार को इस अधिकार को सीमित करना पड़ता है। लेकिन जनतंत्र में सरकार की सबसे बड़ी मजबूरी है कि उसे चार-पाँच साल के अंतराल से जनता द्वारा चुना जाता है। जनता की नाराजगी इन चुनावों में अभिव्यक्त होती है और सरकारों के बदले जाने के रूप में प्रकट होती है।

जनतंत्र में पूंजीवादी दलों को चुनाव का बार बार सामना करना पड़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि पूंजीवादी दल जनता को आर्थिक मुद्दों पर संगठित होने से दूर रखे। इसके लिए जनता को अन्यान्य मुद्दों पर बाँटे रखने का काम ही उन्हें और पूंजीवाद को सुरक्षित रख सकता है। वे नस्ल, राष्ट्रीयता, धर्म और अन्य आधारों पर अपनी राजनीति खड़ी करते हैं, उसके लिए सिद्धान्त गढ़ते हैं। उनके आधार पर जनता के समूहों को एक दूसरे के प्रति नफरत सिखाते हैं और उन्हें एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करते हैं।

पूंजीवाद की जनता को बाँटे रखने की राजनीति ने यूरोप में एक नयी विचारधारा फासीवाद को जन्म दिया बेनिटो मुसोलिनी को इसके जन्म का श्रेय जाता है और एडॉल्फ हिटलर को इसे पूरी तरह विकसित करने का। फासीवादी विचारधारा उदारवाद, साम्यवाद,और रूढ़िवाद का विरोध करती है अपनी नयी रूढ़ियाँ कायम करती है। फासीवाद का लक्ष्य एक राष्ट्रवादी तानाशाही का निर्माण है जो एक राष्ट्र को एक साम्राज्य में बदलने के लिए एक आधुनिक, स्वनिर्धारित संस्कृति के तहत अर्थव्यवस्था, सामाजिक संरचना और संबंधों को विनियमित करती है। फासीवाद रोमांटिक प्रतीकवाद, जन-लामबंदी, हिंसा के सकारात्मक दृष्टिकोण और सत्तावादी नेतृत्व को बढ़ावा देने, और पड़ोसी देशों को शत्रु घोषित कर उनके प्रति आक्रामक रुख के प्रदर्शन के माध्यम से समर्थन एकत्र करता है। प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामों का लाभ उठाने और सत्ता पर काबिज होने के उद्देश्य के प्रतिफल में यह विचार पहले इटली और बाद में जर्मनी में पनपा और इसने दो पड़ोसी देशों में दो जग प्रसिद्ध तानाशाह दिए। दूसरे विश्वयुद्ध को भड़काने में इन दोनों देशों ने प्रमुख भूमिका अदा की। इसने दुनिया भर को दहला दिया। अंत में समाजवादी सोवियत संघ की मदद से पूंजीवादी देशों ने इन दोनों तानाशाहियों का अंत किया। जिन जिन देशों पर इन दोनों ने कब्जा किया था। उन देशों को सोवियत सेनाओं ने फासीवादी दमन से मुक्त किया, जिससे वहाँ चल रहे मजदूर किसानों के आंदोलनों और कम्युनिस्ट पार्टियों को बल मिला और इन देशों में एक नयी जनतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई, जो व्यवहार में पूंजीवादी थी। लेकिन वह पूंजीपतियों को असीमित लूट की छूट नहीं देती थी। इस व्यवस्था में मजदूर-किसान वर्गों के प्रतिनिधि साम्यवादी थे। यह एक नयी परिस्थिति थी, जिसमें यह सोचा गया कि किसी समाजवादी क्रान्ति के बिना भी वहाँ पूंजी के विकास के साथ साथ समाजवाद का विकास किया जा सकता है। इस व्यवस्था को सोवियत संघ के प्रमुख जोसेफ स्टालिन ने जनवादी जनतंत्र का नाम दिया।

वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में राज्य के तीन प्ररूप समाने आए। जनतंत्र, जनवादी जनतंत्र और फासीवादी राज्य । बड़े जनतंत्रों में साम्राज्यवादी पूंजीवाद प्रमुख अर्थव्यवस्था होती है, जिसमें बड़े पूंजीपति लगातार प्रगति करते रहते हैं। इस जनतंत्र का स्वरूप इतना उदार रहता है कि वह अधिकांश जनता को जीने की सामान्य सुविधाएँ देता रह सकता है। लेकिन उसमें यह क्षमता दूसरे देशों के शोषण की कमाई से उत्पन्न होती है। ऐसे देशों में बड़े जन आन्दोलनों का अभाव रहता है। यह यदा कदा संकटों से जूझते और उन्हें हल करते हुए जीवित रहते हैं। इस तरह के देशों की अर्थव्यवस्था का बड़ा भाग हथियारों के उत्पादन पर टिका रहता है जिसे वे दूसरे देशों को बेचते हैं। दुनिया में युद्धों का बने रहना इन उद्योगों के जीवित रहने का प्रमुख आधार बना रहता है। विकासशील पूंजीवादी देशों में जनतंत्र की स्थिति भिन्न होती है। इनकी अर्थव्यवस्था को हमेशा मदद की जरूरत रहती है, जिसके लिए वे साम्राज्यवादी देशों की ओर देखते हैं, और उनके शोषण का शिकार बने रहते हैं। जनता में असंतोष बना रहता है। जिसके कारण जन आन्दोलन पनपते रहते हैं और पूंजीवाद की प्रगति बाधित होती है। इन देशों में राष्ट्रवाद के नाम पर फासीवाद अपनी जड़ें जमाने कोशिश में रहता है और जनतंत्र को खतरा बना रहता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जिन देशों ने जनवादी जनतंत्र को अपनाया उनमें से आज भी चीन, क्यूबा और वियतनाम जैसे देश इस व्यवस्था को बनाए रखे हैं। इनमें चीन ने अपनी राज्य व्यवस्था को जनवादी जनतांत्रिक तानाशाही का नाम दिया। क्योंकि वह पूंजी-निगमों को असीमित स्वतंत्रता नहीं देता अपितु उन्हें अपनी राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था में दखल देने से रोकता है। इन देशों में पूंजीवाद की प्रगति धीमी और अर्थव्यवस्था अन्य पूंजीवादी दुनिया की अपेक्षा सुस्त रहती है। लेकिन जनता को जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की कमी नहीं रहती। उन्हें भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा का कोई अभाव नहीं होता। जनता शोषण मुक्त जीवन जीती है। हालाँकि पिछले कुछ दशकों में चीन ने अपनी व्यवस्था को कुछ उदार बनाते हुए उत्पादन को जो गति दी है। उससे पूंजीवादी विश्व चौंक गया है और डरा हुआ है कि वह वैश्विक अर्थव्यवस्था का सिरमौर न बन जाए।

फासीवाद का उदय इटली और जर्मनी में हुआ और दूसरे विश्वयुद्ध ने इन दोनों देशों में फासीवाद का अंत कर दिया। फासीवादी शासन में इन दोनों देशों ने जिस तरह अपनी और युद्ध के द्वारा कब्जाए गए पड़ोसी देशों की जनता का दमन किया, लाखों लोगों का नरसंहार किया, वह आज भी दुनिया को आतंक और भय से दहला देता है। फासीवाद को दुनिया ने नकार दिया। लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था हमेशा फासीवाद में अपनी समस्याओं का समाधान देखती है। जिसके कारण फासीवादी प्रवृत्ति को मरने नहीं देती और उसे खाद-पानी और जमीन मुहैया कराती रहती है। इतिहास का अनुभव बताता है कि मेहनतकश वर्गों मजदूरों और किसानों ने ही हमेशा फासीवाद का मुकाबला कर उसे नाकों चने चबवाए हैं, परास्त किया है। यही कारण है कि आर्थिक संकटों के समय पूंजीवादी देशों में फासीवादी प्रवृत्ति सर उठाती रहती है। फासीवाद के इस खतरे ने जनतंत्र को हानि पहुँचाई है और लगातार पहुँचाता रहता है। विगत दो दशकों से इस फासीवादी प्रवृत्ति ने पूरी दुनिया में जनतंत्र को संकट में डाला हुआ है। यही कारण है कि पूंजीवादी देशों की जनता हमेशा जनतंत्र को खतरे में पाती है। लगभग सभी पूंजीवादी जनतांत्रिक देशों में इसी कारण जनतंत्र बचाओ आंदोलन उठ खड़े हुए हैं और धीरे-धीरे आपस में संयोजित हो कर एक वैश्विक आंदोलन के रूप में संगठित होने की ओर आगे बढ़ रहे हैं।

भारत के संविधान ने इसे एक जनतांत्रिक गणतंत्र बनाया है और नागरिकों को समता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध, धर्म की स्वतंत्रता, संस्कृति और शिक्षा संबंधी तथा संवैधानिक उपचारों के मूल अधिकार दिए हैं। इसके साथ ही राज्य के लिए नीति निदेशक सिद्धांत दिए हैं। जो संविधान की प्रस्तावना में प्रस्तावित आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना हेतु राज्य का मार्गदर्शन करते हैं और भारत में परिकल्पित सामाजिक क्रांति के लक्ष्य हैं जो भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। इन कारणों से हमारा संविधान हमारे जनतंत्र को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय दस्तावेज है जो सभी अन्य ग्रन्थों और विधियों से ऊपर है।

हम समझ सकते हैं कि पिछले दस वर्षों का शासन हमारे जनतंत्र को उस दिशा की ओर ले जा रहा था, जिसमें जनता के जनतांत्रिक अधिकार सीमित होते जा रहे थे। शासन तंत्र फासीवादी लक्षणों वाले सर्वसत्तावाद की ओर आगे बढ़ रहा था। जनता की तकलीफें बढ़ रही थीं और उसके जीवन पर संकट बढ़ते जा रहे थे। सत्ताधारी दल के चार सौ पार के नारे ने स्पष्ट कर दिया था कि केवल जनतांत्रिक अधिकार ही नहीं पूरा संविधान ही खतरे में है। जनता के एक बड़े हिस्से ने इस खतरे को पहचाना और सत्ताधारी दल को बहुमत प्राप्त करने से रोक दिया। फिर भी वह अपने सहयोगी दलों की मदद से पुनः सत्तासीन है। 18वीं लोकसभा का पहला सत्र आयोजित करने के पहले ही सरकार और उसके मंत्रियों ने जो निर्णय लिए हैं, उनसे नहीं लगता कि सत्ताधारी दल ने इन चुनाव नतीजों से कोई सबक सीखा है। नयी गठबंधन सरकार अपने किसी पुराने फैसले फिरने को तैयार नहीं है।

आज जब हमारे संविधान और जनतंत्र पर खतरा आसन्न स्पष्टतः दिखाई दे रहा है वकील समुदाय में अनेक लोग संविधान और जनतंत्र को बचाने की लड़ाई में आगे दिखाई देते हैं। वे अपने सामाजिक दायित्व को ठीक से निभा रहे हैं। लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। वकील समुदाय के एक बड़े हिस्से में अवसरवाद का विचार बहुत गहरे पैठा हुआ है। यह उन्हें तात्कालिक लाभों के लिए संविधान और जनतन्त्र को खतरा बनी शक्तियों के खेमे में ले जा कर खड़ा कर देता है तथा जनतंत्र और संविधान की रक्षा की लड़ाई को कमजोर बनाता है। ऐसे ही अवसरवादी तत्वों के प्रभाव में हमारी बार कौंसिलें और बार एसोसिएशन गैर जनतांत्रिक निर्णय ले बैठती हैं। ऐसे लोगों को यह समझने समझाने की आवश्यकता है कि वकील का व्यवसाय भी तभी जीवित और असीमित बना रह सकता है जबकि जनतंत्र और संविधान बचे रहें। कानून का शासन बचा रहे। इसी संविधान और जनतंत्र ने हमें अपने मुवक्किलों की पैरवी का अधिकार दिया है। हमारा यह अधिकार भी तभी बचा रह सकता है जब संविधान, जनतंत्र और कानून का शासन बचा रहे। जो वकील जनतंत्र और संविधान की इस लड़ाई का हिस्सा बन चुके हैं उनका एक कर्तव्य यह भी बनता है कि वे अपने समुदाय के भीतर जागरूकता अभियान चलाएँ और अधिक से अधिक अपने वकील साथियों को जनतंत्र, संविधान और कानून के शासन को बचाए रखने के इस संघर्ष के पक्ष में खड़ा करें।

(समाप्त)

मंगलवार, 16 जनवरी 2024

शीघ्र न्याय : एक दुःस्वप्न

संसद और विधानसभाएँ कानून बनाती रहती हैं। लेकिन जब उनका पालन नहीं होता तो साधारण चालानों का जिनमें लोग जुर्माना भर कर निजात पा लेते हैं हजारों अवसर ऐसे होते हैं जब मुकदमा अदालत में जाता है। इसका एक उदाहरण आप चैक बाउंस के मामलों को ले लें। चैक बाउंस को अपराधिक बनाने के बाद इसके लिए अतिरिक्त अदालतें स्थापित करनी पड़ीं। कोटा नगर में चार अतिरिक्त अदालतें इन्हीं मामलों के लिए हैं। हर अदालत में हजारों मुकदमे लंबित हैं और जितने मुकदमे वे साल में निर्णीत करते हैं उससे डेढ़ दुगने मुकदमे रोज पेश होते हैं। कुल मिला कर नए कानूनों का सारा बोझा अदालतों पर आता है।

तीन मुख्य अपारिधिक कानून बदल दिए गए हैं। कल राजस्थान पत्रिका में गृहमंत्री अमित शाह का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ उसका पहला प्रश्न यही था कि "देश की न्यायिक प्रक्रिया के साथ सबसे बड़ी शिकायत यह रही है कि समय पर लोगों को न्याय नहीं मिल पाता है। अदालतों में सालों साल तक सुनवाई चलती रहती है और न्याय की उम्मीद में लोगों के जीवन समाप्त हो जाते हैं। इन अपराधिक कानूनों में समय पर न्याय के लिए क्या प्रयास किए गए हैं?
उत्तर में गृहमंत्री का जवाब था कि, "हमने 35 अलग-अलग जगह सेक्शनों में टाइम लाइन जोड़ी है। ... जिनमें समय की मर्यादा को सीमित करने का प्रयास किया है। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जब पूरे देश में ये नए कानून लागू हो जाएंगे, दतो उसके बाद अपराध होने के तीन साल के अंदर पीड़ित को न्याय मिल पाएगा। पहले सालों तक न्याय नहीं मिलता था, अपराधी इससे खौफ भी नहीं खाते थे।"

पहले भी अनेक कानूनों में टाइम लाइन निर्धारित की गयी है। उदाहरण के तौर पर औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 10 (2-ए) में टाइम लाइन है कि किसी भी विवाद को श्रम न्यायालय को रेफरेंस करते समय उचित सरकार निर्देश करेगी कि उसे कितने समय में निर्णीत करना है और यदि वह किसी एक मजदूर से संबंधित हो तो तीन माह में उसे निर्णीत करना होगा। यदि किसी मजदूर को अपने नियोजक से प्राप्त करना हो और उसे धनराशि में संगणित किया जा सकता हो तो वह मजदूर धारा 33 सी (2) में आवेदन दे सकता है। ऐसा आवेदन का निर्णय तीन माह में किया जाएगा।
 
इस कानून में यह टाइम लाइन 1982 से जुड़ी हुई है। चालीस साल से ऊपर हो चुके हैं। लेकिन इन आवेदनों और विवादों में जो पहली तारीख पड़ती है वही तीन माह से अधिक की होती है, और उसके बाद भी तारीखें पड़ती रहती हैं। कोई अदालत इसका बोझा नहीं ढोती। अदालतें जानती हैं कि उन्हें एक-दो मुकदमे निर्णीत करने हैं। उससे अधिक वे कर भी नहीं सकते। क्यों कि उन्हें उस मुकदमे में जवाब लेने हैं, दस्तावेज पेश करने के आवेदनों का निस्तारण करना है, दोनों पक्षों की साक्ष्य लेनी है और फिर दोनों पक्षों की बहस सुन कर फैसला करना है। इस सब में स्वाभाविक रूप से एक मुकदमे में एक दिन का समय लगता है। इस कारण यह टाइम लाइनें तब तक बेमानी हैं, जब तक अदालतों की संख्या दो तीन गुना नहीं बढ़ा दी जाती है। आप पत्रिका की ही एक पुरानी खबर की कटिंग देखिए। क्या केन्द्र सरकार ने इतने जज नियुक्त करने और नयी अदालतें स्थापित करने के लिए भी कुछ किया है?
गृहमंत्री केवल इस बात पर विश्वास प्रकट कर रहे हैं। वे आश्वासन देने लायक भी नहीं हैं कि इन कानूनों से त्वरित न्याय मिलने लगेगा। इसके लिए अदालतें बढ़ानी पड़ेंगी। जो केन्द्र सरकार टैक्सों में राज्यों का हिस्सा तक देने में आनाकानी करती है, वह नयी अदालतें खोलने के लिए सीधे कहेगी यह राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। अब जहाँ जहाँ भाजपाई नेतृत्व की सरकारेंं हैं वे तो डबल इंजन की सरकारें हैं। उन राज्यों में तो तत्काल अदालतें दुगनी कर सकती हैं।

आज न्यायपालिका की हालत यह है कि एक दो रोटी बनाने वालों को हजार लोगों को रोटी बना कर खिलाने का जिम्मा दे दिया जाए। आप कितने ही कानून नियम बना दें कि रोटी पत्तल पर बैठने के बाद पाँच मिनट में मिलेगी।  आप पत्तल लेकर बैठे रहना रोटी तो तभी मिलेगी बेचारे रोटी बनाने वालों को तो एक एक ही बना कर ही परोसनी पड़ेगी। ज्यादातर लोग इंतजार करके पत्तल छोड़ भाग लेंगे। जैसे मुकदमा करने वाला मुकदमे को बीच में छोड़ भागता है। बाकी तो ये सब देख कर अदालत जाने से ही डरते हैं। भारत के जवान होने के पहले ही सड़ रहे पूंजीवाद में शीघ्र न्याय सदा सपना ही बना रहेगा। 
 
कुल मिला कर इन तीन नए कानूनों से शीघ्र न्याय की आशा करना बेमानी है। बल्कि ऐसे प्रावधान किए हैं जिनसे जनता के दमन के बहुत अधिकार पुलिस और सरकारों को दे दिए गए हैं जिनसे दमन और बढ़ेगा।

कुछ माह से बहुत शोर है की रामजी आ रहे हैं। भ्रम हो रहा है कि रामराज भी आ रहा है। पर रामराज में और कुछ होता हो या नहीं पर न्याय के नाम पर तपस्वी (पढ़ लिख कर योग्यता हासिल करने की कोशिश करने वाला) दलित तपस्या के घोर अपराध के लिए दंड के नाम पर शंबूक मारा जाता है।






शनिवार, 22 अक्टूबर 2022

जज, या ............... ?

कोलिसिस्टेक्टोमी (पित्ताशय उच्छेदन) का ऑपरेशन 8 अक्तूबर 2022 को हुआ, 10 अक्तूबर को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। पाँच दिन बाद दिखाने को कहा गया। मैं 15 अक्तूबर को खुद कार ड्राइव करके डाक्टर को दिखाने गया तो टाँके हटा दिए गए। अदालत जाने की इजाजत मिल गयी। लेकिन न झुकने का प्रतिबंध था। फिर भी मैं 17 अक्तूबर को अदालत चला गया। चैम्बर में बैठा, कैन्टीन चाय पीने के लिए भी गया। लेकिन किसी अदालत में पैरवी के लिए नहीं गया। शाम को घर लौटा तो थकान से लगा कि अभी मुझे कम से कम एक सप्ताह और अदालत जाने से बचना चाहिए। मैंने तय किया कि अब दीवाली के बाद ही अदालत जाउंगा। अपने घर वाले ऑफिस में बैठ कर ही केस स्टडी करता रहा। लेकिन बुधवार 19 अक्तूबर को ही अदालत जाने की नौबत आ गयी।

हुआ ये कि उस दिन मेरे दो केस लगे हुए थे, मुझे इसबात की पूरी आशंका थी कि मौजूदा जज साहब ये मुकदमे हमें सुने बिना ही खारिज कर देंगे। जब कि यह कानून के मुताबिक गलत था। मैंने उस दिन अदालत जाने का निश्चय किया और अपने सहायक यादव को कहा कि वह 12 बजे तक मेरे मुकदमों की स्थिति बताए। तो यादव ने मुझे बताया कि रीडर से पूछने पर उसने कहा है कि उन केसेज को तो खारिज करने का आदेश कर दिया गया है। जब यादव ने उससे कहा कि हमें बिना सुने ऐसा कैसे हो सकता है। तो उसने कहा कि सब मुकदमों में यही तो हो रहा है। उसने जज साहब से बात करने को कहा। जब यादव ने जज साहब से बात की तो उन्होंने रीडर को निर्देश दिया कि इनके इस तरह के सारे मुकदमे दिसंबर के अंत में एक साथ लगा दो। इस पर रीडर ने हमारे मुकदमों में दिसम्बर अन्त की तारीख दे दी। यादव ने कहा भी कि वे इस बिन्दु पर बहस के लिए अदालत आने को तैयार हैं तो जज साहब ने कहा कि उनका आपरेशन हुआ है यहाँ आना उनके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। उन्हें यहाँ क्यों बुला रहे हैं।

मुकदमों में अगली तारीख मिल जाने पर मेरा अदालत जाना जरूरी नहीं रह गया था। लेकिन मुझे एक बात कचोट रही थी कि मेरे मुकदमे खारिज होने से बच जाएंगे लेकिन बहुत सारे मजदूरों के केस खारिज कर दिए जाएंगे। उन्हें उच्च न्यायालय से निर्णय बदलवाकर लाना होगा। एक मजदूर के लिए श्रम न्यायालय में मुकदमा लड़ना बेहद खर्चीला और श्रम साध्य होने के कारण दूभर होता है। उसके लिए उच्च न्यायालय जाने की सोचना ही प्राणलेवा होता है। मैंने अदालत जाना और जज से उसी दिन बहस करना उचित समझा। मैं सूचना मिल जाने के बावजूद अदालत पहुँच गया। मैंने यादव को फाइल लेकर अदालत में तैयार रहने को कहा था। जैसे ही मैं अदालत में जा कर बैठा, जज की मुझ पर निगाह पड़ी। तत्काल वह हड़बड़ाया हुआ दिखाई दिया।

असल में मामला यह था कि केन्द्र सरकार ने 2016 में पाँच कानून पास करके हजार से भी अधिक कानूनों, संशोधन कानूनों को निरस्त (निरसन) और संशोधित कर दिया था। उसमें एक कानून औद्योगिक विवाद (संशोधन) अधिनियम (2010) भी था। इस संशोधन के माध्यम से एक मजदूर को उसकी सेवा समाप्ति के विरुद्ध समझौता अधिकारी के यहाँ शिकायत प्रस्तुत करने और 45 दिनों की अवधि में श्रम विभाग के समझौता कराने में असफल रहने पर सीधे श्रम न्यायालय को अपना दावा प्रस्तुत करने का अधिकार मिला था। इस अधिकार के 2016 में समाप्त हो जाने पर 2016 से अब तक पिछले 6 सालों में अदालत में इस कानून के तहत पेश किए गए सभी मुकदमे खारिज हो जाने थे। इन मुकदमों की संख्या सैंकड़ों में है। जज का कहना था कि त्रिपुरा और बंगाल उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि संशोधन कानून का निरसन हो जाने से मूल कानून औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 जिस में संशोधन करके प्रावधान जोड़े गए उसमें से वे संशोधन भी खारिज हो गए हैं और इसी कारण से उक्त निरसन अधिनियम प्रभावी होने के बाद अदालत में सीधे पेश किए गए मजदूरों के विवाद पूरी तरह से अवैध अकृत हो गए हैं इस कारण उन्हें निरस्त कर दिया जाए।

संशोधन कानूनों के निरसन पर जिस कानून में उस संशोधन कानून के द्वारा संशोधन किया गया था उससे वह संशोधन खारिज हो जाने के बिन्दु पर “जेठानन्द बेताब बनाम दिल्ली राज्य {1960 AIR 89, 1960 SCR (1) 755}” में सुप्रीम कोर्ट ने 15.09.1959 को ही निर्णय दे दिया गया था। इस निर्णय में कहा गया था कि किसी संशोधन कानून का काम पहले से मौजूद किसी पुराने कानून में संशोधन करना होता है। इस संशोधन कानून के प्रभावी होने के बाद वह संशोधन पुराने कानून का हिस्सा बन जाता है। यहीं संशोधन कानून का काम पूरा हो जाता है। वह कानूनों की सूची में अवशेष के रूप में बचा रहता है, उसका कोई उपयोग नहीं रह जाता। उस संशोधन कानून का निरसन कर दिए जाने पर उसका कोई प्रभाव उस पुराने कानून पर नहीं पड़ता जिसे संशोधित किया गया था। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने जनरल क्लॉजेज एक्ट की धारा 6-ए का उल्लेख करते हुए कहा कि इसमें ऐसा ही प्रावधान किया गया है। इसी पूर्व निर्णय का उल्लेख करते हुए दिनांक 29.08.2022 को सुप्रीम कोर्ट ने इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन ऑफ इंडिया बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया एवं अन्य के मामले में पारित निर्णय में फिर से इसी बात को दोहराया है।

जज को पहली फुरसत मिलते देख मैं सामने जा कर खड़ा हुआ तो जज साहब बोले -आप क्यों आए? आपको अभी आराम करना चाहिए। हमने तो आपके मुकदमों में तारीख दे दी है।

-सर¡ उससे क्या होगा? आपने दिसम्बर में तारीख दी है। तब तक तो आप इसी बिन्दु पर दूसरे सैंकड़ों मुकदमे खारिज कर चुके होंगे। जो कानून के हिसाब से गलत फैसला होगा। मेरी ड्यूटी है कि मैं अदालत को गलत निर्णय पारित करने से रोकूँ।

-दूसरे मुकदमों से आपका क्या लेना देना? हम खारिज कर देंगे और उच्च न्यायालय ने इसे गलत बताया तो हम वापस रेस्टोर कर देंगे।

-सर¡ रेस्टोर तो तब कर पाएंगे जब आपको ऐसा करने का क्षेत्राधिकार होगा। इस अदालत को अपने निर्णय रिव्यू करने की पावर नहीं है।

-नहीं है तो क्या? हम फिर भी कर देंगे। आप ही तो कहते रहे हैं कि इस अदालत को इन्हेरेंट पावर है।

-सर¡ रिव्यू की पावर कभी भी इन्हेरेंट नहीं हो सकती।

-तो क्या हुआ, हम फिर भी कर देंगे। जज साहब ने कहा तो मैं दंग रह गया कि कैसे जज अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर भी जा कर आदेश पारित करने को तैयार है।

-ठीक है मेरा तो आपसे आग्रह है कि इस बिन्दु पर आप बहस सुन लें। जहाँ तक मेरा मुकदमा आज नहीं होने की बात है तो मैं ऐसे तमाम मुकदमों में मजदूरों से पावर हासिल कर लूंगा और कल आपके सामने दुबारा इसी बहस के लिए हाजिर होउंगा। तब आप इससे बच नहीं सकते। इससे बेहतर है आप इस बहस को आज ही सुन लें।

-ठीक है सुन लेता हूँ। आखिर जज साहब बहस सुनने को तैयार हो गए।

बहस वही थी, जो मैं ऊपर लिख चुका हूँ। मैंने बहस शुरु की। मैंने उन्हें निरसन कानून की धारा-4 पढ़ाई जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा था। “The repeal by this Act of any enactment shall not effect any other enactment in which the enactment has been applied, incorporated or referred to;”

इस धारा के पढ़ते ही जज साहब बीच में ही बोल पड़े। कि इस कानून को पढ़ कर तो कलकत्ता और त्रिपुरा उच्च न्यायालयों ने निर्णय पारित किए हैं। जिसमें बहुत सारे वकीलों ने बहस की है तो वे गलत कैसे हो सकते हैं?

मैंने उन्हें कहा कि उन दो फैसलों को कुछ देर के लिए भूल जाइए और मेरी बहस सुन लीजिए। मैंने उन्हें सुप्रीम कोर्ट के 1959 में पारित “जेठानन्द बेताब के केस और 29.08.2022 को पारित इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन के मुकदमों का हवाला दिया।

जज साहब ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर बिलकुल ध्यान न देते हुए तर्क दिया जेठानन्द बेताब किसी और कानून के मामले में था और इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन का मुकदमा ग्रेच्युटी एक्ट के मामले में है इन दोनों में औद्योगिक विवाद अधिनियम के बारे में कुछ नहीं कहा है।

मैं ने उन्हें कहा कि ग्रेच्युटी संशोधन अधिनियम को निरस्त किया गया है उसी कानून की उसी सूची में औद्योगिक विवाद संशोधन अधिनियम भी शामिल है और यहाँ प्रश्न किसी खास कानून के निरसन का नहीं है बल्कि संशोधन अधिनियम के निरसन का है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि संशोधन अधिनियम निरसित कर दिए जाने पर जिस एक्ट में उसके द्वारा संशोधन किया गया है उस एक्ट के उस संशोधन पर कोई प्रभाव नहीं होता, वह जीवित रहता है।

जज साहब फिर से कहने लगे त्रिपुरा और कलकत्ता उच्च न्यायालय के जज और वहाँ बहस करने वाले वकील कैसे गलती कर सकते हैं?

मैं ने उन्हें कहा कि गलती तो कोई भी कर सकता है। “अरब के घोड़े प्रसिद्ध होने का मतलब ये नहीं होता कि वहाँ गधे नहीं होते।“

जज साहब ने मुझे घूर कर देखा। फिर रीडर को आदेश दिया कि मैं इस मामले को देखूंगा अभी कुछ दिन इस तरह के मुकदमों में कोई आदेश पारित न किया जाए।

बहस पूरी हुई। मैं अदालत से घर आ गया। उस दिन बहुत थकान हो गयी। अगले दो दिन मैं अदालत नहीं जा सका। अब दीवाली के बाद अदालत जाना हो सकेगा।

पर कल मैंने फिर सुना है कि जज साहब ने सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय को नकार दिया है और कुछ मुकदमे खारिज कर दिए गए हैं।

सवाल यह है कि जज साहब इस तरह की जिन्दा मक्खी क्यों निगल रहे हैं? बात सिर्फ इतनी सी है कि रोज दो मुकदमे खारिज होने से उनका निर्णय का कोटा आसानी से पूरा हो रहा है। वे आसानी से कह भी रहे हैं कि उच्च न्यायालय का निर्णय आने पर मैं उन्हें फिर से रेस्टोर कर दूंगा। पर सैंकड़ों मजदूरों को उच्च न्यायालय जा कर हजारों रुपए खर्च करने होंगे। बहुत से तो अर्थाभाव में जा भी नहीं सकेंगे। लेकिन जज साहब को अपने कोटे की पड़ी है। उन्हें न्याय करने से और मजदूर वर्ग की दुर्दशा से क्या लेना देना?

रविवार, 8 सितंबर 2019

जज

सबसे बुरा तब लगता है जब जज की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने इजलास में किसी मजदूर से कहता है कि "फैक्ट्रियाँ तुम जैसे मजदूरों के कारण बन्द हुई हैं या हो रही हैं"।

40 साल से अधिक की वकालत में अनगिन मौके आए जब यह बात जज की कुर्सी से मेरे कान में पड़ी। हर बार मेरे कानों से गुजर कर मस्तिष्क तक पहुँचे ये शब्द अंदर एक विस्फोट कर डालते हैं। यह सोच भी तभी तुरन्त प्रतिक्रिया स्वरूप आती है कि इस विस्फोट की गर्मी को शान्त करो, तुम किसी जनतांत्रिक अदालत में नहीं बल्कि पूंजीपतियों, जमींदारों के पोषक राज्य की अदालत में खड़े हो। यह अदालत प्रतिवाद का उत्तर कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट के आरोप, सुनवाई और सजा से दे सकती है। गुस्सा कभी अदालत पर नहीं आता। आता है उस व्यक्ति पर जो सिर से ऊंची पीठ वाली कुर्सी पर बैठता है। जिस ने भले ही प्रेमचंद की "पंच परमेश्वर" कहानी पढ़ी हो, पर उस पंच जैसा बनने की खुद की कोशिश को जरा देर में नाकामयाब बना देता है। 

मैं यहाँ उन व्यक्तियों की बात नहीां करता जो उस उँची कुर्सी पर बैठ कर न्याय का सौदा करते हैं, कैश में या काइंड में। लेकिन उन की बात कर रहा हूँ जो पूरी ईमानदारी से, पूरी शुचिता के साथ उस ऊँची कुर्सी पर बैठ कर न्याय करना चाहते हैं। लेकिन वे अपनी वर्गीय स्थिति का क्या करें? वे ज्यादातर उच्च और उच्च मध्यवर्ग से आते हैं, कुछ निम्नमध्यवर्ग से भी। इन तमाम वर्गों के लोगों की सामान्य कोशिश यही रहती है कि किसी तरह मेहनत कर के, किसी तिकड़म से, और यहाँ तक कि परिवार की जमा पूंजी को बत्ती लगा कर, ऊपर से कर्जा लेकर भी अपने वर्ग से ऊपर के वर्ग में स्थान बना लें। बमुश्किल उन में से कुछ लोगों को कामयाबी मिलती है। वे डाक्टर, इंजीनयर, सरकारी अफसर, जज वगैरा बन पाते हैं। इस कोशिश में ज्यादातर पराजित हो कर निचले वर्ग में पहुँच जाते हैं। बहुत लोग मजदूर भी हो जाते हैं लेकिन वहाँ भी उन की मानसिकता उन्हीं टटपूंजिया वर्गों की जैसी बनी रहती है, जिन से वे आए हैं। हमारे पूंजीवादी सामंती समाज का सुपरस्ट्रक्चर उन्हें अपने पानी से भरे पूल में सतह से ऊपर सिर निकाल कर साँस लेने का अवसर ही नहीं देता। 

इस तरह के वाक्य जब ऊंची कुर्सी से कान में पड़ते हैं तो मैं तुरन्त जवाब देने से बचने की कोशिश करता हूँ। बाद में किसी मौके पर उसका प्रतिवाद भी करता हूँ। पर जब उस कुर्सी पर ईमानदारी से काम करते हुए व्यक्ति से ऐसा वाक्य सुनने को मिलता है, जिन से थोड़ी बहुत आशा मैं और मजदूर करने लगते हैं, तो चुप नहीं रहा जाता, भिड़न्त हो ही जाती है। कुछ दिन पहले फिर एक भिड़न्त हो गयी। मैंने कहा- आप ने तो वर्डिक्ट ही सुना दिया। पूरे वर्ग को दोषी ठहरा दिया। कोई गवाह नहीं, सबूत नहीं, बस हवा की सूली पर टांक दिया। अब जब तक वह मरेगा नहीें तब तक सोचता रहेगा कि यह केवल और केवल मजदूर वर्ग में पैदा होने का अभिशाप / कलंक है जो इस राज्य में कभी नहीां धुल सकता। आप किसी भी मुकदमे में इस बात को कभी साबित नहीं कर सकते कि किसी एक या अधिक मजदूरों के कारण कोई कारखाना बंद हुआ है। कारखाना पूंजीपति और उनकी सरकारों की इच्छा से खुलते हैं और उन्हीं की मर्जी से बन्द होते हैं। वे बस प्रोपेगण्डा करते हैं कि मजदूरों की वजह से कारखाने बंद होते हैं। खैर, भिड़न्त हो गयी। फिर कुर्सी ने उस विवाद से पल्ला झाड़ लिया। 

यह पूंजीवादी सामंती राज्य किसी हालत में मजदूरों, किसानों और मजलूमों के साथ कभी न्याय नहीं कर सकता। उस की कोई अदालत उन के साथ इंसाफ नहीं कर सकती। वे बनी ही इसलिए हैं कि वे इन वर्गों के असंतोष को किसी तरह दबाए रखें, उलझाए रखें। उस की आँच उस के मालिकों तक पहुँचे ही नहीं। इस राज्य में मजदूरोे किसानों का न्याय प्राप्ति की आशा करना ही व्यर्थ है। इस व्यवस्था के जज अखबारों को "मजदूर को न्याय मिला" जैसी खबरों से भरने के लिए मसाला जरूर पैदा करते हैं। लेकिन वे मजदूरों किसानों के साथ न्याय कर के वे वर्ग स्वामियों को नुकसान कैसे पहुँचा सकते हैं? वे तो उनके सब से बहुमूल्य सेवक हैं। वे इस व्यवस्था की "शॉक एब्जोर्बर" मात्र हैं।
- दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 22 जून 2019

प्रधानाध्यापक की गवाही

पोक्सो की विशेष अदालत में (Protection of Children from Sexual Offences Act – POCSO) बच्चों का यौन अपराधों से बचाव अधिनियम में म.प्र. के झाबुआ जिले के एक आदिवासी भील नौजवान के विरुद्ध मुकदमा चल रहा है। उस पर आरोप है कि वह एक आदिवासी भील नाबालिग लड़की को भगा ले गया और उस के साथ यौन संबंध स्थापित किए। चूंकि मुकदमे में लड़की को नाबालिग बताया गया है इस कारण से यह यौन संबंध बलात्कार की श्रेणी में भी आता है। इस बलात्कार को साबित करने के लिए यह भी जरूरी है कि पीड़ित लड़की को नाबालिग साबित किया जाए। इस के लिए पुलिस अन्वेषक ने लड़की का पहली बार स्कूल में भर्ती होते समय भरा गया प्रवेश आवेदन पत्र तथा स्कॉलर रजिस्टर, अगले स्कूल की टी.सी. को भी सबूत के रूप में पेश किया था। इन दस्तावेजों को साबित करने के लिए जरूरी था कि मूल असली रिकार्ड न्यायालय के समक्ष लाया जाए जिसे स्कूल का वर्तमान प्रभारी इन दस्तावेजों को अपने बयान से प्रमाणित करे। 

उस प्राथमिक शाला का प्रधानाध्यापक गवाही देने आया। हालांकि स्कॉलर रजिस्टर की प्रतिलिपि अदालत में पुलिस द्वारा पेश की गयी थी। लेकिन वह असल रिकार्ड ले कर नहीं आया था। वैसी स्थिति में उस के बयान लेने का कोई अर्थ नहीं था। उसे हिदायत दी गयी कि वह अगली पेशी पर स्कॉलर रजिस्टर तथा प्रवेश पत्र साथ लेकर आए। 

अगली पेशी पर प्रधानाध्यापक असल स्कॉलर रजिस्टर साथ ले कर आया। साथ में प्रवेश आवेदन पत्र भी था। लेकिन मुझे प्रवेश आवेदन पत्र नकली और ताजा बनाया हुआ लगा। 2007 में जब प्रवेश आवेदन पत्र भरा गया था तब आधारकार्ड वजूद में नहीं थे। जब कि लाए गए प्रवेश आवेदन पत्र पर आधार कार्ड का विवरण दाखिल करने का कालम छफा हुआ मौजूद था। जो हर हाल में 2009 या उस के बाद का था। इस के अलावा उस का कागज बिलकुल अछूता लगता था, किसी फाइल में नत्थी करने के छेद उस में नहीं बने थे। मैं ने अदालत का ध्यान बंटाया कि यह प्रवेश आवेदन पत्र फर्जी लगता है और ताजा बनाया गया है। अदालत ने मेरी आपत्ति को तब दरकिनार किया और कहा कि एक बार यह दस्तावेज रिकार्ड पर तो आए। फिर देखेंगे। आखिर हेडमास्टर की गवाही शुरू हुई। मैं ने जिरह की। गवाही के अन्त में मैं ने गवाह से प्रवेश आवेदन पत्र के बारे में पूछना आरंभ किया। 

- क्या यह प्रवेश आवेदन पत्र पीड़ित लड़की का ही है? 

– हाँ। 

- इसे आप कहाँ से लाए? 

- स्कूल रिकार्ड से लाया हूँ। 

- पर यह तो ताजा बना हुआ प्रतीत होता है, पुराना नहीं लगता। इस पर किसी फाइल में नत्थी करने के निशान तक नहीं हैं। यह कब बनाया गया? 

- अभी चार-पाँच रोज पहले बनाया है। 

- क्या आप पीड़िता के पिता को जानते हैं? 

- नहीं जानता। 

- तो इस आवेदन पत्र पर जो पीड़िता के पिता की अंगूठा छाप है, वह कब लगवाई गई? कैसै लगवाई गयी? 

- वहीँ गाँव में किसी से लगवा ली थी। 

- मतलब यह प्रवेश आवेदन पत्र अभी चार-पाँच दिन पहले तुमने ही बनाया है? 

- हाँ, मैंने ही बनाया है। 

- तो हेडमास्टर साहब, आपने ये फर्जी क्यों बनाया? 

- पिछली पेशी से जाने के बाद मैं ने स्कूल में जा कर सारा रिकार्ड खंगाला। मुझे पीड़िता का प्रवेश आवेदन पत्र नहीं मिला। जब कि रिकार्ड में होना चाहिए था। अदालत ने इस पेशी पर इसे हर हाल में लाने के लिए कहा था, इस कारण मुझे बनाना पड़ा। अदालत के आदेश की पालने कैसे करता? 

- तुम्हें पता भी है, तुमने एक दस्तावेज को नकली बनाया और फिर उसे पेश कर न्याय को प्रभावित करने का प्रयत्न किया है? यदि अदालत चाहे तो इसी वक्त तुम्हें हिरासत में ले सकती है और जेल भेज सकती है। 

- सर¡ मुझे नहीं पता। मैं तो एक गाँव के प्राइमरी स्कूल का प्रधानाध्यापक हूँ। पढ़ाई पर ध्यान देता हूँ। स्कूल में कोई बच्चा फेल नहीं होता। कभी शहर में नहीं रहा। अब कागजों दस्तावेजों का मामला है तो सब ऐसे ही बना लेते हैं, किसी को कुछ होते न देखा। मुझे लोगों ने सलाह दी कि बना लो। किसी को पता थोड़े ही लगेगा। नहीं ले जाओगे और अदालत ने विभाग को कुछ लिख दिया तो नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। इस लिए बना लिया। 

-और अभी तुरन्त जेल जाना पड़ा और इस फर्जी दस्तावेज के कारण नौकरी चली गयी तो क्या करोगे? अभी जमानत का इंतजाम भी तुम परदेस में नहीं कर पाओगे। और तुम्हारे बीवी-बच्चों का क्या होगा? 

प्रधानाध्यापक मेरे सवालों को सुन कर हक्का-बक्का खड़ा था। उस की समझ में कुछ नहीं आया था। आखिर उस ने ऐसा कौन सा गलत काम या अपराध कर दिया था जिस के कारण उसे जेल जाना पड़ सकता है और उस की नौकरी जा सकती है? वह अपना बयान शुरु होते समय बहुत खुश था, अब रुआँसा हो चला था। अदालत के जज साहब भी हक्के-बक्के थे। वे मुझे कहने लगे क्या करें, इस का? इस प्रवेश आवेदन पत्र से संबंधित बयान को गवाही में शामिल किया तो इसे तो जेल भेजना पड़ेगा। 

मुझे भी लगा कि प्रधानाध्यापक ने जो किया था वह उसकी समझ से गलत या अपराध नहीं था, बल्कि उस ने आदिवासी जीवन की सरलता में, नागरिक जीवन के सवालों को धता बताने के लिए एक होशियारी जरूर कर ली थी। उसे उसका परिणाम भी पता नहीं था। 

मैंने जज साहब से कहा कि इस आदमी का आशय न्याय को धोखा देना कतई नहीं था। अब ये जेल चला जाएगा और इसकी नौकरी जाएगी और यही नहीं परिवार भी बरबाद हो जाएगा। बेहतर है कि इस के प्रवेश आवेदन पत्र वाले बयान को इस की गवाही से निकाल दिया जाए। जज ने सरकारी वकील की ओर देखा तो उस की भी इस में सहमति नजर आई। आखिर फर्जी प्रवेश आवेदन पत्र अदालत में ही नष्ट कर दिया गया। प्रधानाध्यापक के उस के बारे में दे गए बयान को उस की गवाही से निकाल दिया गया। उसे डाँट लगाई गयी। आइंदा के लिए उसे कड़ी हिदायत दी गयी कि ऐसा करेगा तो जेल जाएगा। अब तक प्रधानाध्यापक समझ गया था कि उस ने कोई भारी अपराध कर दिया था। मैं इजलास से बाहर निकला तो प्रधानाध्यापक मेरे पीछे आया और मेरा अहसान जताने लगा। मैं ने भी उसे कहा कि वह जो कुछ भी करे बहुत सोच समझ कर किया करे। हमेशा ऐसे लोग नहीं मिलेंगे जो तुम्हारे अपराध को इस तरह अनदेखा कर दें। आखिर वह चला गया। मैं भी खुश था कि लड़की को नाबालिग साबित करने में अभियोजन पक्ष असफल रहा था।

-दिनेशराय द्विवेदी

गुरुवार, 30 मई 2013

बांझ अदालतें

मैं 2004 से एक बुजुर्ग महिला का मुकदमा लड़ रहा हूँ। उन के पति ने अपने पुश्तैनी मकान में रहते हुए एक और मकान बनाया था। उसे एक फर्म को किराए पर दे दिया। फिर फर्म के एक पार्टनर के भतीजे ने उसी नाम से एक फर्म और रजिस्टर करवा ली। मूल फर्म तो शहर से कारोबार समेट कर चल दी और भतीजा उस मकान में पुरानी फर्म का साइन बोर्ड लगा कर नई फर्म का कारोबार करता रहा। महिला ने मकान खाली करने को कहा तो भतीजे ने खाली करने से मना कर दिया। महिला की उम्र 73 वर्ष की थी और बीमार रहती थी तो उस ने अपने बेटे को मुख्तार आम बनाया हुआ था वही मुकदमे को देखता था। मुकदमे में 2010 में निर्णय हुआ और मकान खाली करने का निर्णय हो गया। तब तक महिला की उम्र अस्सी के करीब हो गई। उच्च न्यायालय ने वरिष्ठ नागरिकों के मुकदमे वरीयता से निपटाने का स्थाई निर्देश दे रखा है लेकिन इस के बावजूद प्रक्रिया की तलवार का लाभ उठाने  में कोई भी वकील नहीं चूकता। पेशी पर कोई न कोई बिना किसी आधार के कोई न कोई आवेदन प्रस्तुत होता।  मैं तुरन्त उसी वक्त उस उत्तर देता। तब भी बहस के लिए अगली तिथि दे दी जाती। आदेश होने पर उच्च न्यायालय में उस की रिट कर दी जाती। इसी तरह तीन वर्ष गुजर गए। 

हिला का पुत्र नरेश इतना मेहनती कि वह हर पेशी के पहले मेरे दफ्तर आता मुकदमें की तैयारी करवाता और पेशी के दिन सुबह अदालत खुलते ही अदालत में उपस्थित रहता। आज उसी मुकदमे में पेशी थी और हम सोचते थे कि आज बहस सुन ली जाएगी। 

मुझे कल रात देर तक नींद नहीं आई। सुबह उठा तो निद्रालू था। मैं प्रातः भ्रमण निरस्त कर एक घंटा और सोया। फिर भी तैयार होते होते मुझे देरी हो गई।  मैं नौ बजे अदालत पहुँचा और जाते ही अपने सहायकों और क्लर्क से पूछा कि नरेशआया क्या? लेकिन उन्हों ने मना कर दिया। मुझे आश्चर्य था कि आज उस का फोन भी न आया, जब कि वह इतनी देर में तो चार बार मुझे फोन कर चुका होता। मैं ने तुरंत उसे फोन किया। फोन उस की बेटी ने उठाया। मैं ने पूछा नरेश कहाँ है। बेटी ने पूछा - आप कौन अंकल? मैं ने अपना नाम बताया तो वह तुरन्त पहचान गई और रुआँसी आवाज में बोली कि पापा जी को तो कल रात हार्ट अटैक हुआ और वे नहीं रहे। 

मैं जब अदालत के इजलास में पहुँचा तो आज विपक्षी और उन के वकील पहले से उपस्थित थे। जब कि आज से पहले कभी भी वे अदालत द्वारा तीन चार बार पुकारे जाने पर भी नहीं आते थे। मैं ने अदालत को कहा कि बहस सुन ली जाए। तब विपक्षी ने तुरन्त कहा कि आज बहस कैसे होगी नरेश का तो कल रात देहान्त हो गया है। मैं ने उन्हें कहा कि नरेश इस प्रकरण में पक्षकार नहीं है उस की मृत्यु से यह मुकदमा प्रभावित नहीं होता इस कारण से बहस सुन ली जाए। लेकिन न्यायाधीश ने कहा कि केवल कल कल ही न्यायालय और खुले हैं उस के बाद एक माह के लिए अवकाश हो जाएगा। मैं निर्णय नहीं लिखा सकूंगा। इस लिए जुलाई में ही रख लेते हैं।  मैने विपक्षी उन के वकीलों को उन के द्वारा मेरी पक्षकार के पुत्र की मृत्यु के आधार पर पेशी बदलने पर बहुत लताड़ा लेकिन वे अप्रभावित रहे। न्यायालय को भी कहा कि वह प्रथम दृष्टया बेबुनियाद आवेदनों की सुनवाई के लिए भी समय देता है जिस के नतीजे में मुकदमों का निस्तारण नहीं होता और न्यायार्थी इसी तरह न्यायालयों के चक्कर काटते काटते दुनिया छोड़ जाते हैं। लेकिन न तो इस का प्रतिपक्षी और उन के वकीलों पर इस का कोई असर था और न ही अदालत पर। मुकदमे में दो माह आगे की पेशी दे दी गई।   

ज से 34 बरस पहले जब मैं वकालत के पेशे में आया था तो सोचा था मेरा पेशा उन लोगों को न्याय दिलाने में मदद करने का है जो समाज के अन्याय से त्रस्त हैं। जब भी मैं किसी व्यक्ति को अपनी मदद से न्याय प्राप्त करने में सफल होते देखता तो प्रसन्न हो जाता था। लेकिन इन 34 बरसों में न्याय की यह दुनिया इतनी बदल चुकी है कि अदालतों पर काम का चार गुना बोझा है। कोई न्यायाधीश न्याय करना भी चाहे तो समय पर नहीं कर सकता। जब वह कर पाता है तब तक न्यायार्थी दुनिया छोड़ चुका होता है या फिर उस की कमर टूट चुकी होती है। अब तो एक नए न्यायार्थी के मेरे पास आते ही यह सोचना पड़ता है कि इसे क्या कहा जाए। मैं आकलन करता हूँ तो अधिकांश मामलों में पाता हूँ कि न्याय प्राप्त करने में इसे जितने कष्ट न्यायार्थी को उठाने पड़ेंगे उस से तो अच्छा यह है कि वह इन बांझ अदालतों से न्याय की आस ही न लगाए।                                                     

गुरुवार, 10 मई 2012

न्याय की भ्रूण हत्या

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आमिर खान का टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ पहले ही एपीसोड से हिट हो जाने के बाद आमिर से मिलने की आतुरता प्रदर्शित की। आमिर इसी शो में पहले ही कह चुके थे कि वे राजस्थान सरकार को चिट्ठी लिखेंगे कि कन्या भ्रूण हत्या के अपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए राजस्थान में एक विशेष न्यायालय स्थापित करें, जिस से उन का निर्णय शीघ्र हो सके और गवाहों को अधिक परेशानी न हो। राजस्थान सरकार के एक अधिकारी ने यह भी कहा कि सरकार ने इस तरह के मामलों के लिए विशेष न्यायालय की स्थापना के लिए विचार किया है और जल्दी ही यह अदालत आरंभ की जा सकती है। कल शाम अभिनेता आमिर खान अशोक गहलोत से मिलने जयपुर पहुँचे और बाद में संयुक्त रूप से प्रेस से मिले गहलोत ने कहा कि वे ‘भ्रूण हत्या’ के मामलों के लिए विशेष न्यायालय खोलने की व्यवस्था कर रहे हैं इस के लिए उन्हों ने उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लिखा है।



निस्सन्देह राजस्थान सरकार ने इस मामले में त्वरित गति से अपनी रुचि दिखा कर अच्छा काम किया है। जब एक टीवी शो देश की हिन्दी भाषी जनता को पहली ही प्रस्तुति में भा गया हो तब उस से मिली प्रशंसा को भुनाना राजनीतिक चतुराई का अव्वल नमूना ही होगा। वैसे भी इस विशेष न्यायालय की स्थापना से व्यवस्था के किसी अंग को कोई चोट नहीं पहुँचने वाली है। बस कुछ चिकित्सकों की आसान कमाई रुक जाएगी, हो सकता है कुछ चिकित्सकों और उन के सहायकों को दंडित किया जा सके तथा पुरुष संतान चाहने वाले कुछ लोग कुछ परेशान हों जाएँ। लेकिन इस से किसी बड़े थैलीशाह के मुनाफे या राजनीतिज्ञ के राजनीति पर कोई असर नहीं होने वाला है। गहलोत सरकार को इस कदम से वाहवाही ही मिलनी है। स्वयं को राजस्थान का गांधी कहाने वाले इस राजनेता की न्यायप्रियता का डंका भी पीटा जा सकता है।  

लेकिन क्या गहलोत वास्तव में इतने ही न्याय प्रिय हैं? क्या उन के राजस्थान में जरूरत के माफिक अदालतें हैं? और क्या वे ठीक से काम कर रही हैं? राजस्थान में 2001 में जब गहलोत मुख्यमंत्री थे तब उन की सरकार ने राजस्थान किराया नियंत्रण अधिनियम 2001 पारित कराया था। उन के इस कदम को एक प्रगतिशील कदम कहा गया था। इस के द्वारा पुराने किराया नियंत्रण कानून को समाप्त कर दिया गया था जिस के अंतर्गत कोई भी राहत प्राप्त करने के लिए दीवानी दावा करना पड़ता था। इस अधिनियम के द्वारा किराया अधिकरण और अपील किराया अधिकरणों की स्थापना की व्यवस्था की गयी थी। जब इस अधिनियम को लागू करने और इन अधिकरणों को की स्थापना करने की स्थिति आई तो राजस्थान उच्च न्यायालय ने उस के लिए भवन, साधन और पदों के सृजन की आवश्यकता बताई। जिस पर राजस्थान सरकार ने तुरंत असमर्थता व्यक्त की और राजस्थान सरकार के इस वायदे पर कि वह शीघ्र ही इन अधिकरणों के लिए भवनों, साधनों और पदों की व्यवस्था करेगी, लेकिन अभी तात्कालिक आवश्यकता के अधीन उस का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाए। राजस्थान उच्च न्यायालय ने सरकार की बात मानते हुए कुछ वरिष्ठ खंड के अपर सिविल न्यायाधीश एवं अपर मुख्य न्यायाधीशों के न्यायालयों को जो कि पहले से अपराधिक और दीवानी मुकदमों की सुनवाई भी कर रहे थे किराया अधिकरणों की तथा जिला न्यायाधीशों को अपील किराया अधिकरणों की शक्तियाँ प्रदान कर दीं। इस उहापोह में किराया नियंत्रण कानून-2001 को 1 अप्रेल 2003 को ही लागू किया जा सका। उस के बाद आज नौ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं राजस्थान में किराया नियंत्रण अधिनियम के अंतर्गत स्वतंत्र रूप से एक भी अधिकरण या अपील अधिकरण स्थापित नहीं किया जा सका है।
राजस्थान में परिवार न्यायालय स्थापित हैं, लेकिन कुछ ही जिलों में। वहाँ भी मुकदमों की इतनी भरमार है कि एक वैवाहिक विवाद के निपटारे में चार-पाँच वर्ष लगना स्वाभाविक है वह भी तब जब कि इन न्यायालयों में वकीलों द्वारा पैरवी पर पाबंदी है। न्यायाधीश अपने हिसाब से न्यायालय चलाते हैं। अपने हिसाब से गवाहियाँ दर्ज करते हैं। न्यायार्थी गवाहों की प्रतिपरीक्षा करने में असमर्थ रहता है तो जज खुद दो चार प्रश्न पूछ कर इति श्री कर देते हैं। सचाई सामने खुल कर नहीं आती और इसी तरह के बनावटी सबूतों के आधार पर निर्णय पारित होते हैं। इन मुकदमों के निपटारे में लगने वाली देरी से अनेक दंपतियों की गृहस्थियाँ सदैव के लिए कुरबान हो जाती हैं। अनेक लोग जो शीघ्र तलाक मिलने पर अपनी नई गृहस्थी बसा सकते थे। मुकदमों के निर्णय होने की प्रतीक्षा में बूढ़े हो जाते हैं। इस का एक नतीजा यह भी हो रहा है कि वैवाहिक विवादों से ग्रस्त अनेक पुरुष चोरी छिपे इस तरह के विवाह कर लेते हैं जो अपराध हैं लेकिन जिन्हे साबित नहीं किया जा सकता। इस तरह पारिवारिक न्यायालयों की कमी एक ओर तो वैवाहिक अपराधों के लिए प्रेरणा बन रही है, दूसरी ओर परित्यक्ता स्त्रियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है।  

राजस्थान के प्रत्येक जिले में जिला उपभोक्ता अदालतें स्थापित है, जिन में एक न्यायाधीश के साथ दो सदस्य बैठते हैं। अक्सर इन दो सदस्यों की नियुक्ति राजनैतिक आधार पर की जाती है। न्यायाधीश के पद पर अक्सर किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को पाँच वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है। लेकिन न्यायपालिका के अपने कार्यकाल में थके हुए ये न्यायाधीश उपभोक्ता न्यायालय के अपने कार्यकाल में सुस्त पड़ जाते हैं और इस पद को अपना विशेषाधिकार समझ कर केवल अधिकारों का उपभोग करते हैं। अनेक स्थानों पर न्यायाधीश नियुक्त ही नहीं हैं वहाँ सदस्य और न्यायालय के कर्मचारी बिना कोई काम किए वेतन उठाते रहते हैं। यदि किसी न्यायालय में सदस्यों की नियुक्ति नहीं हो पाती है जो कि राजनैतिक कारणों से विलम्बित होती रहती है तो जज सहित न्यायालय के सभी कर्मचारी सरकारी वेतन पर पिकनिक मनाते रहते हैं और अदालत मुकदमों से लबालब हो जाती है। इन न्यायालयों में सेवा निवृत्त न्यायाधीशों के स्थान पर जिला न्यायालयों के वरिष्ठ वकीलों को भी नियुक्त किया जा सकता है और न्यायालय को सुचारु रूप से चलाया जा सकता है, लेकिन राजनीति उस में अड़चन बनी हुई है।

राजस्थान के हर जिले में कर्मचारी क्षतिपूर्ति आयुक्त, वेतन भुगतान अधिनियम, न्यूनतम वेतन अधिनियम, ग्रेच्युटी अधिनियम आदि के अंतर्गत एक एक न्यायालय स्थापित है जिस में राजस्थान के श्रम विभाग के श्रम कल्याण अधिकारियों या उस से उच्च पद के अधिकारियों को पीठासीन अधिकारी नियुक्त किया जाता है। लेकिन सरकार के पास इतने सक्षम श्रम कल्याण अधिकारी ही नहीं है कि आधे न्यायालयों में भी उन की नियुक्ति की जा सके। जिस के कारण एक एक अधिकारी को दो या तीन न्यायालयों और कार्यालयों का काम देखना पड़ता है। वे एक जिला मुख्यालय से दूसरे जिला मुख्यालय तक सप्ताह में दो-तीन बार सफर करते हैं और अपना यात्रा भत्ता बनाते हैं। न्यायालय और कार्यालय सप्ताह में एक या दो दिन खुलते हैं बाकी दिन उन में ताले लटके नजर आते हैं क्यों कि कई कार्यालयों में लिपिक और चपरासी भी नहीं हैं जो कार्यालयों को नित्य खोल सकें। जो हैं, उन्हें भी अपने अधिकारी की तरह ही इधर से उधर की यात्रा करनी पड़ती है।

राजस्थान के श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों का हाल इस से भी बुरा है। पुराने स्थापित श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों मे जो कर्मचारी नियुक्त किए गए थे वे रिटायर होते गए। नई नियुक्तियों के लिए वित्त विभाग स्वीकृति प्रदान नहीं करता। इस से सब न्यायालयों में स्टाफ की कमी होती गई। अनेक न्यायालयों में आधे भी कर्मचारी नहीं हैं। कंप्यूटरों और ऑनलाइन न्यायालयों के इस युग में राजस्थान के अनेक श्रम न्यायालयों में अभी भी तीस तीस साल पुराने टाइपराइटरों  को बार बार दुरुस्त करवा कर काम चलाया जा रहा है हालाँकि उन के मैकेनिक तक मिलना कठिन हो चला है। कुछ जिला और संभाग मुख्यालयों में नए श्रम न्यायालय और औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थापित किए गए हैं वहाँ तीन-चार सौ मुकदमे निपटाने के लिए एक न्यायाधीश और पूरा स्टाफ नियुक्त है तो पुराने न्यायालयों में पाँच-पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं और स्टाफ जरूरत का आधा भी नहीं है।  श्रमिकों के मुकदमों के निपटारे में बीस से तीस साल तक लग रहे हैं जिस से मुकदमे का निर्णय होने के पहले ही अधिकांश श्रमिकों की मृत्यु हो जाती है। कुछ स्थानों पर एक के स्थान पर तीन तीन न्यायालयों की आवश्यकता है लेकिन उस ओर ध्यान नहीं दिया जाता है और जहाँ जरूरत नहीं है वहाँ राजनैतिक तुष्टिकरण के आधार पर न्यायालय स्थापित कर दिये गए हैं। इन न्यायालयों में जहाँ समझदार जजों की नियुक्ति की आवश्यकता है वहाँ अक्षम और श्रम कानून से अनभिज्ञ न्यायाधीशों की नियुक्ति की जा रही है जिस का परिणाम यह हो रहा है कि हर मामले में निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में रिट की जा रही है जिस से उच्च् न्यायालय का बोझ भी लगातार बढ़ रहा है। इस मामले में मामूली प्रबंधन की आवश्यकता है। लेकिन राजस्थान सरकार के लिए शायद कर्मचारियों के मामले उद्योगपतियों और सरकारी विभागों से अधिक महत्ता नहीं रखते। जनता समझती भी है कि श्रम विभाग और श्रम न्यायालयों को राजस्थान सरकार कचरे का डब्बा समझती है। शायद अशोक गहलोत भूल गए हैं कि राजस्थान के कर्मचारी ही एक बार उन्हें कचरे के डब्बे की यात्रा करवा चुके हैं।


हो सकता है स्वयं को राजस्थान का गांधी कहलाने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की घोषणा के अनुरूप भ्रूण हत्या के अपराधिक मामलों के लिए विशेष अदालत कुछ सप्ताह में काम करना आरंभ कर दे और न्याय प्रिय कहलाए जाएँ लगें। लेकिन जहाँ रोज न्याय की भ्रूण हत्या हो रही हो वहाँ राजस्थान की जनता के लिए यह महज एक और चुटकुला होगा यदि वे राज्य सरकार द्वारा संचालित दूसरे न्यायालयों की दशा सुधारने के लिए कुछ नहीं करते।

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

सच बोले मनमोहन

खिर बुलावा आया, मंत्री जी से भेंट हुई। आखिर आठवें दिन मंत्री जी ने उन को समझने की कोशिश की। वे कितना समझे, कितना न समझे? मंत्री जी ने किसी को न बताया। थोड़ी देर बाद प्रधान मंत्री जी की अनशन तोड़ने की अपील आई। सब से प्रमुख मंत्री की बातचीत के लिए नियुक्ति हुई। आंदोलनकारियों के तीन प्रतिनिधि बातचीत के लिए निकल पड़े। इधर अन्ना का स्वास्थ्य खराब होने लगा डाक्टरों ने अस्पताल जाने की सलाह दी। अन्ना ने उसे ठुकरा दिया। स्वास्थ्य को स्थिर रखने की बात हुई तो अन्ना बोले मैं जनता के बीच रहूंगा। अब यहीँ उन की चिकित्सा की कोशिश हो रही है। उन्होंने ड्रिप लेने से मना कर दिया है। सरकार कहती है कि वह जनलोकपाल बिल को स्थायी समिति को भेज सकती है यदि लोकसभा अध्यक्ष अनुमति प्रदान कर दें। स्थाई समिति को शीघ्र कार्यवाही के लिए भी निर्देश दे सकती है। लेकिन संसदीय परम्पराओं की पालना आवश्यक है।

रकार संसदीय परंपराओं की बहुत परवाह करती है। उसे करना भी चाहिए क्यों कि संसद से ही तो उस पहचान है। संसदीय परंपराओं की उस से अधिक किसे जानकारी हो सकती है? पर लगता है इस जानकारी का पुनर्विलोकन सरकार ने अभी हाल में ही किया है। चार माह पहले तक सरकार को इन परंपराओं को स्मरण नहीं हो रहा था। तब सरकार ने स्वीकार किया था कि वह 15 अगस्त तक लोकपाल बिल को पारित करा लेगी। स्पष्ट है कि सरकार की नीयत आरंभ से ही साफ नहीं थी। उस की निगाह में भ्रष्टाचार कोई अहम् मुद्दा कभी नहीं रहा। उस की निगाह में तो जनता को किसी भी प्रकार का न्याय प्रदान करना अहम् मुद्दा कभी नहीं रहा। सरकार के एजेंडे में सब से प्रमुख मुद्दा आर्थिक सुधार और केवल आर्थिक सुधार ही एक मात्र मुद्दा हैं। जीडीपी सरकार के लिए सब से बड़ा लक्ष्य है। आंदोलन के आठ दिनों में भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की जनता जिस तरह से सड़कों पर निकल कर आ रही है उस से सरकार की नींद उड़ जानी चाहिए थी। पर दुर्भाग्य की बात यह है कि उन्हें अभी भी नींद आ रही है और वह सपने भी देख रही है तो आर्थिक सुधारों और जीडीपी के ही। सोमवार को प्रधान मंत्री ने जब आंदोलन के बारे में कुछ बोला तो उस में भी यही कहा कि “दो दशक पहले शुरू किए गए आर्थिक सुधारों ने भारत के बदलाव में अहम भूमिका निभाई है। इसकी वजह से भारत सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक हो गया है। उन्होंने कहा कि अगर हम रफ्तार की यही गति बनाए रखते हैं तो हम देश को 2025 तक दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा जीडीपी वाला देश बना सकते हैं”। यह जीडीपी देश का आंकड़ा दिखाती है देश की जनता का नहीं। देश की जनता उन से यही पूछ रही है कि यह जीड़ीपी किस के घर गिरवी है? जनता तो गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से त्रस्त है।

निश्चय ही प्रधानमंत्री को एक राजनैतिक व्यक्तित्व होना चाहिए। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री राजनैतिक व्यक्तित्व बाद में हैं पहले वे मनमोहक अर्थशास्त्री हैं। उन का मुहँ जब खुलता है तो केवल अर्थशास्त्रीय आँकड़े उगलता है। वे शायद मिडास हो जाना चाहते हैं। जिस चीज पर हाथ रखें वह सोना हो जाए। वे देश की जनता को उसी तरह विस्मृत कर चुके हैं जिस तरह राजा मिडास भोजन और बेटी को विस्मृत कर चुका था। जब वह भोजन करने बैठा तो भोजन स्पर्श से सोना हो गया। जिसे वह खा नहीं सकता था। दुःख से उसने बेटी को छुआ तो वह भी सोने की मूरत में तब्दील हो गई। प्रधानमंत्री का मुख भी अब कुछ सचाई उगलता दिखाई देता है जब वे देख रहे हैं कि लोग तिरंगा लिए सड़कों पर आ चुके हैं। सोमवार के बयान में उन्हों ने कहा कि “इसके लिए न्यायिक व्यवस्था में सुधार करना होगा। तेजी से मामलों के निपटान और समय से न्याय मिलने की प्रक्रिया से भ्रष्टाचार दूर करने में खासी मदद मिलेगी। इससे संदेश जाएगा कि जो लोग कानून तोड़ेंगे, वे खुले नहीं घूम सकते”।

तो अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को यह सच पता लग चुका है? हो सकता है यह सच उन्हें पहले से पता हो। लेकिन वे विस्मृत कर रहे हों। यह हो सकता है कि उन्हें यह सच अब जा कर पता लगा हो। मेरा अपना ब्लाग तीसरा खंबा की पहली पोस्ट में ही यह बात उठाई गई थी कि देश में न्यायालयों की संख्या कम है और इस का असर देश की पूरी व्यवस्था पर पड़ रहा है। यह बात देश के मुख्य न्यायाधीश ने बार बार सरकार से कही। पर सरकार ने हमेशा की तरह इस बात को एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। शायद वे सोचते थे क्या आवश्यकता है न्याय करने की? क्या आवश्यकता है नियमों को तोड़ने और मनमानी करने वाले लोगों को दंडित करने की? जब जीडीपी बढ़ जाएगी तो सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा। इस जीडीपी के घोड़े पर बैठ कर उन्हें सच नजर ही नहीं आता था। अब जनता जब सड़कों पर निकल आई है औऱ प्रधानमंत्री का जीडीपी का घोड़ा ठिठक कर खड़ा हो गया है तो उन्हें न्याय व्यवस्था का स्मरण हो आया है। काश यह स्मरण सभी राजनीतिकों को हो जाए। न्याय व्यवस्था ऐसी हो कि न्याय जल्दी हो और सच्चा हो। सभी को उस पर विश्वास हो।

रविवार, 26 जून 2011

न्यायदान और विधिक सुधारों के लिए राष्ट्रीय मिशन

राजस्थान में गर्मी के मौसम में अप्रेल के तीसरे सप्ताह से जून के आखिरी सप्ताह तक उच्च न्यायालय व अधीनस्थ न्यायालयों का समय सुबह 7 बजे से 12 बजे तक का हो जाता है और जून के प्रथम से चौथे सप्ताह तक दीवानी न्यायालय में अवकाश हो जाता है। इस से यह सोचना कि कुछ न्यायालयों में ताला पड़ा रहता होगा गलत है। हमारे यहाँ ऐसा कोई न्यायालय है ही नहीं जो केवल दीवानी न्यायालय का काम देखता हो। सभी न्यायालयों को दीवानी और अपराधिक दोनों प्रकार का काम करना होता है। जैसे कनिष्ठ खंड सिविल न्यायाधीश के न्यायालय को प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ भी होती हैं। इस तरह अपराधिक मुकदमों की सुनवाई इन अवकाशों में होती रहती है। इस के अतिरिक्त सभी दीवानी काम करने वाले विशेष न्यायालय जैसे मोटरवाहन दुर्घटना दावा अधिकरण, श्रम न्यायालय, परिवार न्यायालय और सभी राजस्व न्यायालय चलते रहते हैं। वकीलों को नित्य ही अदालत जाना पड़ता है। 

लेकिन मेरे जैसे वकीलों को जिन के पास प्रमुखतः दीवानी मुकदमों का काम होता है, एक विश्राम मिल जाता है। हम चाहें तो इन दिनों बेफिक्र हो कर यात्रा पर जा सकते हैं। क्यों कि अवकाश होने से बाहर जाने वाले वकीलों को न्यायालय सहयोग करता है। अधीनस्थ भारतीय न्यायालयों के लिए इस तरह का सहयोग करना आसान है। उन की दैनिक सूची में 80 से सौ सवा सौ तक मुकदमे प्रतिदिन रहते हैं। वास्तविक काम सिर्फ 20-30 मुकदमों में हो पाता है। शेष मुकदमों में तो उन्हें पेशी ही बदलनी होती है। सुबह सुबह ही पेशकार को पता लग जाता है कि कौन कौन वकील आज नहीं है, वह उन के मुकदमों की पत्रावलियाँ अलग निकाल लेता है और न्यायाधीश की सहमति ले कर उन में अगली पेशी दे देता है।

ब सुबह की अदालतें और दीवानी अदालतों के अवकाश समाप्त होने को हैं। अगले बुध से न्यायालय सुबह 10 से 5 बजे तक के हो जाएंगे और दीवानी अदालतें भी आरंभ हो जाएंगी। मैं ने आज ही अपने कार्यालय को संभाला। अवकाश के दिनों में जिस तरह मैं काम करता रहा उस तरह से बहुत सी पत्रावलियाँ सही स्थान पर नहीं थीं। उन्हें सही किया और कामों की सूची बना ली। आम तौर पर वकीलों को इस काम के लिए बदनाम किया जाता है कि वे मुकदमों में पेशियों पर पेशियाँ ले कर मुकदमों को लंबा करते रहते हैं और यह मुकदमों में देरी का सब से बड़ा कारण है। लेकिन ऐसा नहीं है। मुकदमे तो इसलिए लंबे होते हैं कि अदालतें कम हैं, वे क्षमता से तीन-चार गुना काम प्रतिदिन रखती हैं, जिन में से तीन चौथाई से दो तिहाई में तो उन्हें पेशी ही बदलनी होती है। इस का नतीजा यह है कि वकील की डायरी में भी प्रतिदिन उस की क्षमता से तीन-चार गुना काम होता है। यदि वह अपनी क्षमता के अनुसार ही काम रखे तो उस में से तीन चौथाई में केवल पेशी बदल दी जाए तो उस के पास दिन का चौथाई काम ही रह जाए। 
स मामले में एक उदाहरण मेरे पास है। पिछले दो वर्ष से मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण में किसी मुकदमे में पेशी एक माह से अधिक की नहीं दी जाती थी। अदालत लगभग तीस मुकदमे ही अपने पास रखती थी और चाहती थी कि हर मुकदमे में काम हो। यह अदालत अक्सर दो से तीन वर्ष में मुकदमों का निर्णय कर भी रही थी। लेकिन फास्ट ट्रेक अदालतों के समाप्त होने से मोटरयान अधिनियम की एक सहायक अदालत समाप्त हो गई। उस में लंबित सारे मुकदमे इसी अदालत के पास आ गए। अब वहाँ प्रतिदिन 60-70 मुकदमों की सूची बनने लगी है। वही दो तिहाई मामलों में पेशी ही बदलती है। पेशी भी अब दो-तीन माह से कम की नहीं लगाई जा रही है। भारत की न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए यह आवश्यक है कि यहाँ अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या में तुरंत वृद्धि की जाए। फिलहाल अमरीका की तुलना में भारत में केवल 15 प्रतिशत न्यायालय हैं और ब्रिटेन की तुलना में 25 प्रतिशत। न्याय नहीं के बराबर हो तो एक न्यायपूर्ण समाज की कल्पना करना फिजूल है। जहाँ तक मेरा प्रश्न है मेरा प्रयत्न रहता है कि मेरे कारण किसी मुकदमे में पेशी न बदले। मेरी यह कोशिश जारी रहेगी।

भारत सरकार के मंत्रीमंडल ने इसी माह 'न्यायदान और विधिक सुधारों के लिए राष्ट्रीय मिशन' (“National Mission for Justice Delivery and Legal Reforms) का कार्यक्रम हाथ में लेना तय किया है जिस में पाँच वर्षों में 5510 करोड़ रुपयों का खर्च आएगा। इसमें से 75 प्रतिशत का वहन केन्द्र करेगा और शेष का संबंधित राज्य। पूर्वोत्तर राज्यों के मामलों में केन्द्र 90 प्रतिशत खर्च उठाएगा। इस योजना के अंतर्गत नीतिगत और विधि संबंधी परिवर्तन, प्रक्रिया में परिवर्तन, मानव संसाधन विकास, सूचना तकनीक का उपयोग और अधीनस्थ न्यायालयों के भौतिक मूलढांचे का विकास सम्मिलित होंगे। कहा यह गया है कि वर्तमान में मुकदमों के निस्तारण में औसतन 15 वर्ष का समय लगता है इसे 3 वर्ष तक ले आया जाएगा। यदि ऐसा होता है तो न्याय व्यवस्था में तेजी से सुधार देखने को मिलेंगे। लेकिन बिना अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या में वृद्धि किए यह असंभव है जिस के लिए कुछ भी स्पष्ट रूप से इस कार्यक्रम में नहीं कहा गया है।

बुधवार, 9 जून 2010

भोपाल के इंसाफ ने राज्य के चरित्र को फिर से उघाड़ दिया है

भोपाल गैस कांड से उद्भूत अपराधिक मामले में आठ आरोपियों को मात्र दो वर्ष की कैद और मात्र एक-एक लाख रुपया जुर्माने के दंड ने एक बार फिर उसी तरह भारतीय जनमानस को उद्वेलित कर दिया है जिस तरह भोपाल त्रासदी के बाद के कुछ दिनों में किया  था। इस घटना ने लोगों के मन में एक प्रश्न खडा़ किया है कि इस देश में कोई राज्य है भी? और है तो कैसा है और किन का है?
हले राज्य की बात की जाए, और उस के अपने नागरिकों के प्रति दायित्वों की। इस संदर्भ में भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसरवानी की खुद बयानी को देखें -
वर्ष 1981 के दिसंबर महीने में कार्बाइड प्लांट में कार्यरत मोहम्मद अशरफ़ की फ़ास्जीन गैस की वजह से मौत हो गई. मैं चौंक गया। वहां पहले भी दुर्घटनाएं हुई थीं और वहां के मज़दूर और आसपास के लोग प्रभावित हुए थे। मैने एक पत्रकार के नाते इसे पूरी तरह जान लेना ज़रूरी समझा कि आख़िर ऐसा क्या होता है इस प्लांट में।
नौ महीने की जी-तोड़ कोशिशों के नतीजे में साफ़ साफ़ दिखाई दे गया कि यह कारखाना एक बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह चल रहा है। सुरक्षा के सारे नियमों की धज्जियां उड़ाता हुआ। किसी दिन यह इस पूरे शहर की मौत का सबब बन सकता है. आख़िर को एमआईसी और फ़ास्जीन दोनों ही हवा से भारी गैस हैं.
19 सितंबर, 1982 को अपने छोटे से साप्ताहिक अख़बार ‘रपट’ में लिखा ‘बचाइए हुज़ूर, इस शहर को बचाइए’। एक अक्तूबर को फिर लिखा ‘भोपाल ज्वालामुखी के मुहाने पर’।  आठ अक्तूबर तो चेतावनी दी ‘न समझोगे तो आख़िर मिट ही जाओगे’
जब देखा कोई इस संभावना को गंभीरता से नहीं ले रहा तो तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को पत्र लिखा और सर्वोच्च न्यायालय से भी दख़ल देकर लोगों की जान बचाने का आग्रह किया. अफ़सोस, कुछ न हुआ। हुआ तो बस इतना कि विधानसभा में सरकार ने इस ख़तरे को ही झुठला दिया और कार्बाइड को बेहतरीन सुरक्षा व्यवस्था वाला कारखाना क़रार दिया। फिर हिम्मत जुटाई और 16 जून, 1984 को देश के प्रमुख हिन्दी अख़बार ‘जनसत्ता’ में फिर यही मुद्दा उठाया। फिर अनदेखी हुई। और फिर एक आधी रात को जब सोते हुए दम घुटने लगा तो जाना मेरी मनहूस आशंका बदनसीबी से सच हो गई है।
राजकुमार केसरवानी की यह खुद बयानी साबित करती है, कि राज्य की मशीनरी, जिस में सरकार, सरकार के वे विभाग जो कारखानों पर निगाह रखते हैं और उन्हें नियंत्रित करते हैं, न्यायपालिका और कानूनों को लागू कराने वाले अंग, सभी नागरिकों की बहुमूल्य जानों और स्वास्थ्य के प्रति कितने संवेदनशील हैं/थे। किसी को भी लेश मात्र भी नागरिकों की कोई चिंता न थी। एक पत्रकार राजकुमार केसरवानी चिंता में घुला जा रहे था। उस ने अखबारों में रपटें प्रकाशित की थीं। उन रपटों को सरकार के अधिकारियों ने अवश्य पढ़ा होगा, पढ़ा तो यूनियन कार्बाइड के कर्ताधर्ताओं ने भी होगा। लेकिन शायद इस मामले में भी वही हुआ होगा जो आम तौर पर रोजाना होता है। जब भी किसी कारखाने या उद्योग के संबंध में कोई शिकायत सामने आती है। संबंधित अधिकारी उद्योगों के प्रबंधकों को फोन पर संपर्क करते हैं, उन्हें कार्यवाही करने को सचेत करते हैं और कार्यवाही न करने की अपनी कीमत बताते हैं। यह भी हो सकता है कि बात मंत्री स्तर तक भी पहुँची हो। लेकिन नकली जनतंत्र में जहाँ एक विधायक को टिकट प्राप्त करने से ले कर विधान सभा में पहुँचने तक करोड़ों खर्च करने पड़ते हों वहाँ वे भी ऐसे मौके मिल जाने पर अपनी कीमत वसूलने का अवसर नहीं  चूकते। मंत्रियों की तो बात ही कुछ और है। उन की कीमत शायद कुछ अधिक होती है। देश की व्यवस्था इसी तरह चल रही है, और जनतंत्र के मौजूदा ढाँचे में इसी तरह चलती रहेगी।


भोपाल में जिस दिन गैस रिसी उस दिन का हाल जानने के लिए आप हादसे की उस रात भोपाल के पुलिस अधीक्षक रहे स्वराज पुरी की जुबानी जानिए, जिन की उस दिन शहर में अपनी ड्यूटी करने के नतीजे में ज़हरीली गैस से आँखें खराब हो गईं और फेफड़ों की क्षमता 25 प्रतिशत कम हो गई। ......
मुझे याद है कि दो दिसंबर की रात 11 बजे मैं अपने घर पहुँचा और सोने की तैयारी कर रहा था।  करीब 12 बजे बाहर एक गाड़ी आई। सब- इंस्पेक्टर चाहतराम ने बाहर से चिल्लाकर कहा, "सर, यूनियन कार्बाइड की टंकी फूट गई है। शहर में भगदड़ मच गई है"। मैंने टेलीफोन उठाया लेकिन टेलीफोन काम नहीं कर रहा था। इतने में टीआई सुरेन्द्र सिंह भी आ गए और उन्होंने बताया कि शहर में गदर मच रहा है।
मैंने एक जैकेट पहनी और यूनियन कार्बाइड की ओर गाड़ी दौड़ा दी।  मुझे याद आता है, सामने से रजाई-कंबल ओढ़े लोग, खाँसते हुए भाग रहे थे। मैंने महसूस किया कि मैं भी खाँस रहा हूँ। यूनियन कार्बाइड के गेट पर एक काला-सा आदमी था और ऊपर आकाश में गैस जैसा कुछ दिखने लगा था।  उस काले आदमी ने कहा, "सर, सभी लोग टंकी के पास गए हैं"। मैं कारख़ाने के सुरक्षा कार्यालय में गया पर वहाँ कोई नहीं था और तब तक गैस का असर भी बढ़ गया था। मैं कारख़ाने से निकलकर सामने की बस्ती, जेपी नगर गया, बाईं तरफ के भी टोला था. सब ओर भगदड़ मच गई थी। मेरी आँखों में जलन हो रही थी और गला बंद हो गया। हम लोगों ने कलेक्टर को ढूंढ़ना शुरु किया।  कंट्रोल रूम पहुँचा, वहाँ चौहान थे।  कंट्रोल रूम शहर के बीच में था।
भोपाल में वेपर लैंप लग गए थे। मैं कंट्रोल रूम के बाहर भागती भीड़ को रोकने लगा। तभी मेरी निगाह एक युवती पर पड़ी जो रात के कपड़ों में थी।  उसके हाथ में बच्चा था। मैं भीड़ के धक्के में दौड़ा ताकि बच्चे को बचा सकूँ पर भीड़ का रेला ऐसा था कि युवती के हाथ से बच्चा फिसल गया. सुबह छह बजे मैंने उस बच्चे की लाश सड़क पर पड़ी देखी। इस दुर्घटना को मैं कभी नहीं भूल सकता।
सुबह साढ़े छह बजे कमिश्नर रंजीत सिंह का फोन आया कि रेलवे स्टेशन पर हालात ख़राब हैं।  रेलवे स्टेशन के सामने एक गोल चक्कर बना था।  पुलिस ऑफसर एसएस बिल्ला को देख मैं चिल्लाया कि ये लोग क्यों सो रहे हैं, इन्हें उठाओं। यह कहते हुए उन सारे लोगों के हाथों को मैं खींचने लगा।  बिल्ला ने कहा, "सर ये लाशें हैं।  36 हैं।"
सुबह मुख्यमंत्री के यहाँ एक मिटिंग हुई। अफ़वाह उड़ी थी कि एक टंकी और फूट गई है। फिर क्या था, लोग फिर भागने लगे। नीचे पोलिटेक्निक आया तो भीड़ पुराने भोपाल से नए भोपाल की ओर जा रही थी। मैं ट्रैफिक आईलेंड पर चढ़ गया और माइक पर मैंने लोगों से कहा कि वे घर लौट जाएँ और भीड़ को पुराने भोपाल जाने के लिए मैं ख़ुद उनके साथ चलने लगा।  ऐसी अनेकों घटनाएँ है जो उस रात बीतीं जब मन में असहायता का बोझ महसूस किया।  उस रात और अगले कुछ दिन ऐसे-ऐसे मंजर देखे-महसूस किए जो अब याद नहीं करूँ तो अच्छा है।
स. पी. साहब ने अपना कर्तव्य किया और उस की सजा भी पाई। लेकिन हजारों मनुष्यों का प्राण हर लेने वाला कारखाना उन्हीं के क्षेत्र में चल रहा था। यह जानते हुए भी कि वह कभी भी हजारों की मौत कारण बन सकता है। शायद उसे रोक पाना उन के कर्तव्य में शामिल नहीं था। यह राज्य कैसे अपने ही मालिकों के किसी कृत्य  को नियंत्रित करने का अधिकार कैसे प्रदान कर सकता था? पुलिस का अस्तित्व सिर्फ उन की रक्षा करने भर का जो है।
राज्य की सारी मशीनरी की यही हालत है। पिछले दिनों जब एक गरीब महिला ने उस की संपत्ति छीन लेने की शिकायत अदालत को की तो उस ने कहा कि उस के मामले को पुलिस को न भेजा जाए, क्यों कि वह तो इस में लीपापोती कर इसे बंद कर मुझे ही अपराधी घोषित कर देगी, तो जज की प्रतिक्रिया यह थी कि बात सही है पुलिस तो इस में पैसा ले लेगी और केस बंद कर देगी। उसी राज्य की मशीनरी की एक अंग, सरकार की प्रतिष्ठित जाँच ऐजेंसी सीबीआई कैसे एंडरसन नाम के आका को कैसे जेल में बंद और देश में रोके रख सकती थी।
क न्यायपालिका है जिस के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध कर दिया गया है। देश में जरूरत के सिर्फ एक चौताई न्यायालय हैं जिन में से 12-13 प्रतिशत में कोई जज नहीं है। वह कैसे देश की जनता को न्याय प्रदान कर सकता है। वह भी साम्राज्यवादियों द्वारा 1860 में निर्मित दंड संहिता के बल पर। उसे सिर्फ उपनिवेश की जनता को शासित करने के लिए निर्मित किया गया था। उस समय ऐसा कृत्य इस उपनिवेश का कोई निवासी कर ही नहीं सकता था। ऐसे कृत्य केवल ईस्ट इंडिया कंपनी कर सकती थी। जिस ने भारत में ब्रिटिश राज की नींव डाली हो उस के किसी कृत्य को यह संहिता अपराध कैसे घोषित कर सकती थी। हालांकि आजादी के उपरांत इस संहिता में बदलाव हुए हैं।  लेकिन उस की आत्मा साम्राज्यवादी है। जो उन के साथ चले उन के लिए वह सुविधा जनक है।
ह हमारे राज्य का चरित्र है। राज्य का यह चरित्र उन चुनावों के जरिए नहीं बदल सकता जिस में सरपंच का उम्मीदवार एक करोड़ से अधिक खर्च कर रहा हो और उस के इस खर्चे को वसूल करने के लिए देश की सरकार नरेगा जैसी आकर्षक योजना चलाती हो। जनता को सोचना होगा कि इस राज्य के चरित्र को कैसे बदला जा सकता है। इस तरह के हादसे और बढ़ने वाले हैं। ये सदमे उसे इस दिशा में सोचने को हर बार विवश करते रहेंगे।

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

मत चूके चौहान !!!

ज कल अदालतों के निर्णय बहुत चर्चा में हैं। अभी-अभी लिव-इन-रिलेशन के संबंध में आया निर्णय खूब उछाला जा रहा है। टीवी चैनलों की तो पौ-बारह हो गई है। एक-दो कौपीन और दाढ़ी वाले पकड़े कि  हो गया अच्छा खासा तमाशा। ऐसा मौका मिल जाए तो फिर क्या है? जो चूके वो चौहान नहीं। मौका बार-बार थोड़े ही मिलता है। वैसे मौका मिलने की थियरी अब पुरानी हो चुकी है। अब मौके का इंतजार नहीं किया जाता , उसे  झपट लिया जाता है। झपट्टा मारने के खेल में मीडिया का कोई जवाब नहीं है। जैसे अर्जुन को मछली की आँख में तीर मारना होता था तो उसे सिर्फ उस की आँख दिखती थी, बाकी सब कुछ दिखना बंद हो जाता था। बोलिए फिर निशाना गलत कैसे हो। हमारी पत्रकार बिरादरी में कोई अर्जुनों की कमी है?
भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार दे कर कोई अकल वाला काम नहीं कर रही है। वास्तव में यह नाम तो मीडिया कर्मियों के लिए बुक कर दिया जाना चाहिए था। फैसला सुप्रीम कोर्ट का हो या हाईकोर्ट का ,या फिर किसी जिला या निचली अदालत का। उन्हें फैसलों में सिर्फ अपने काम की बात दिखाई देती हैं। बाकी  की पंक्तियाँ  औझल हो जाती हैं। अब ऐसे कर्मवीरों को छो़ड़ भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार  बांट रही है।  खिलाड़ियों को  ये पुरस्कार देने से क्या लाभ? वैसे भी अर्जुन तीरंदाज भले ही हो, खिलाड़ी बिलकुल न था। अवसर होता था तो फाउल खेलता था। शिखंडी को आगे कर के पितामह के हथियार डलवा दिए और निपटा दिया। ऐसा कोई मीडिया कर्मी ही कर सकता था और कोई नहीं।
ब मीडियाकर्मी जानते हैं कि नहीं यह तो मुझे पता नहीं कि अदालतें सिर्फ कानून के मुताबिक फैसले देती हैं। उन्हें कानून बनाने का अधिकार नहीं। अब अदालत बोले कि अविवाहित या विवाह के बंधन से बाहर के बालिग स्त्री-पुरुष या पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री साथ रहें तो यह अपराध नहीं। इस में अदालत ने क्या गलत कहा? उन्हों ने तो अपराधिक कानूनों के मुताबिक इस बात को जाँचा और अपना फैसला लिख दिया। यह तय करना उन का काम नहीं कि कानून क्या हो। हाँ वे यह जरूर कह सकते हैं कि क्या कानून नहीं हो सकता? वो भी संविधान पढ़ कर।  कानून बनाना संसद या विधानसभा का काम ठहरा। कौन सा कृत्य या अकृत्य अपराध होगा? औरकौन सा  नहीं? पर अजीब रवायत है इस देश की कि संसद और विधानसभाओं में बैठ कर कानूनों पर मुहर लगाने वाले अदालत के फैसलों पर टिप्पणी करने से कभी नहीं चूकते। उन में चौहानवंशियों की कमी थोड़े ही है। जब कानून बन रहा होता है तो तो वे संसद और विधानसभा से नदारद होते हैं और होते हैं तो नींद निकाल रहे होते हैं।  अदालत के  फैसले के बहाने संस्कृति का रक्षक बनने का अवसर मिले  चौहान कभी नहीं चूकता।
 पुरुषों की बिरादरी भी कम नहीं, वो ब्लागर हों या लेखक, क्या फर्क पड़ता है? बस पुरुष होने चाहिए। जब सब बोलने में पीछे नहीं हट रहे हों तो ये क्यो चूकें, लिखने और टिपियाने से? शादी पर लानत भेजने से न चूके। ये बताने से न चूके कि यदि जीवन  में सब से बड़ी मूर्खता कोई है तो वो शादी है।  मूर्खता भी बला की खूबसूरत, ऐसी कि जो कर पाए सो भी पछताए और जो न करे वो भी पछताए। जिस जिस ने कर ली वो भुगत रहा है। रोज मर्दाने में जा कर अपनी व्यथा-कथा सुना आता है। अदालत का फैसलाआता है कि बिना ये किए भी साथ रहा जाए तो कोई जुर्म नहीं। तो पीड़ा से कराह उठता है, लगता है किसी ने दुखती रगों को छेड़ दिया है। अंग-अंग दुख ने लगता है। मन ही मन सोचता है हाय! ये फैसला पहले क्यूँ न आया? कम से कम जिन्दगी की सब से बड़ी मूर्खता से तो बच जाता। वह सोचते सोचते बेहोस हो लेता है। फिर जैसे ही तनिक होश आता है, सोचता है यहे बात मुहँ से न निकले। कह दी तो मर्दानगी पर सवाल खड़ा हो जाएगा। उसे भगवान के दर्शनार्थ नकटे हुए लोगों का किस्सा याद आने लगता है। वह कहने, लिखने और ब्लागियाने लगता है -अदालत ने संस्कृति पर बहुत बड़ा हमला कर दिया है। चाहे वह अपराध न हो, पर इस से भगवान तो नहीं दिखता। उस के लिए तो नाक कटाना जरूरी है।