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शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

भारत के संवैधानिक जनतंत्र और कानून के शासन के प्रति वकीलों का दायित्व

यह  लेख  त्रेमासिक  पत्रिका   "एक और अंतरीप"  के अप्रेल-जून 2024 के न्यायपालिका पर केन्द्रित अंक   में प्रकाशित हुआ है- 
-दिनेशराय द्विवेदी

कानून के शासन (Rule of Law) का सिद्धान्त बहुत पुराना है। पुरातन काल में इसके सूत्र देखे जा सकते हैं। यह एक राजनीतिक आदर्श है जिसके अंतर्गत किसी देश, राज्य या समुदाय के सभी नागरिक और संस्थान एक समान कानूनों के प्रति उत्तरदायी हैं, जिसमें विधि निर्माता और नेता भी शामिल हैं। इसे कभी-कभी इस तरह भी कहा जाता है कि "कोई भी कानून से ऊपर नहीं है"। यह कानून के समक्ष सभी नागरिकों की समानता का समर्थन करता है तथा सरकार के एक गैर-मनमाने रूप को सुरक्षित करते हुए अधिक सामान्य रूप से सत्ता के मनमाने उपयोग को रोकता है। कानून के शासन को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि न्यायालय हों, कानूनों के उल्लंघन को रोकें और जनता को न्याय प्रदान करें। न्याय प्रशासन में न्यायालय के समक्ष व्यक्तियों के पक्ष को रखने के लिए कानूनी समझ वाले पेशेवर व्यक्ति ‘वकील’ की आवश्यकता होती है। हम कल्पना कर सकते हैं कि जब से जहाँ जहाँ कानून का शासन अस्तित्व में आया होगा तब से लोगों की पैरवी के लिए वकीलों की उपलब्धता अवश्य रही होगी। एक वकील को कानून की जानकारी के साथ साथ सामाजिक, राजनीतिक और तकनीकी मामलों की भी जानकारी होना जरूरी है, क्योंकि उसके बिना वह किसी भी न्यायार्थी की पैरवी करने में सक्षम नहीं हो सकता। कानून के अतिरिक्त इन सब विषयों का ज्ञान वकील को एक विशिष्ट व्यक्ति में परिवर्तित कर देता है जो समाज में अनेक रूप से अपनी भूमिका अदा करते हुए अपने दायित्वों को निभा सकता है।

वकीलों ने देश और समाज में सदैव उच्चस्तरीय भूमिका अदा की है और अपने सामाजिक दायित्व को निभाया है। यही कारण है कि हमारे देश की आजादी के आंदोलन में, संविधान के निर्माण और भारत में लोकतंत्र की स्थापना में वकील समुदाय का बड़ा योगदान रहा है। आजादी के आंदोलन में हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जिन्होने देश की स्वतंत्रता की लड़ाई का नेतृत्व किया, स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल, बाल गंगाधर तिलक, जी.के.गोखले, लाला लाजपत राय, देशबंधु चितरंजन दास, सैफुद्दीन किचलू, मोतीलाल नेहरू, राधा बिनोद पाल, भूलाभाई देसाई आदि का प्रमुख योगदान रहा है। संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए नियुक्त समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर के साथ समिति के सदस्य अलादी कृष्ण स्वामी अय्यर, एन. गोपलास्वामी अय्यंगार, बी. आर. आमदकर, के. मुंशी, मोहम्मद सादुल्ला, बीएल माइनर, एन. माधव राव, तथा टीटी कृष्णमाचारी आदि व्यापक विशेषज्ञता वाले प्रतिष्ठित वकील थे। इन सबका प्रयास था कि हम एक आदर्श जनतांत्रिक संविधान का निर्माण कर पाएँ, जिसके फलस्वरूप देश में जनतांत्रिक व्यवस्था संभव हो। आजादी के बाद भी देश के राज्य प्रशासन में वकीलों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। न्याय प्रशासन में तो उनके बिना न्याय की परिकल्पना अकल्पनीय है। यही कारण है कि वकील समुदाय को देश के संविधान और जनतंत्र का संरक्षक कहा जा सकता है। लेकिन प्रश्न यह है कि, क्या आज वकील समुदाय अपनी यह भूमिका को ठीक से निभा रहा है? इसके लिए हमें समूची दुनिया की राज्य व्यवस्थाओं, जनतंत्र की स्थापना उसके विकास आदि पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालना आवश्यक प्रतीत होता है।

पिछले दिनों भारत में 18वीं लोकसभा के लिए निर्वाचन सम्पन्न हुए। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने अपना चुनाव अभियान भारत को दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने और राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के बहुसंख्यक धार्मिक राष्ट्रवाद और विकास के मुद्दों के साथ आरम्भ किया। वहीं विपक्ष ने एक गठबंधन संक्षिप्त नाम इंडिया (I.N.D.I.A.) के साथ आरंभ किया, जिसके घटक दलों के बीच सीटों के बंटवारे के मामले में मतभेद थे। इंडिया ने अपने मुद्दे जनता की वास्तविक समस्याओं के इर्द-गिर्द खड़े किए। उन्होंने अपना प्रचार बेरोजगारी, और महंगाई की समस्याओं के साथ साथ अमीरी गरीबी की तेजी से बढ़ती हुई खाई और गरीब, पिछड़े, दलित और आदिवासियों को राहत देने के मुद्दों के साथ साथ संविधान बचाओ जनतंत्र बचाओ के मुद्दे से आरंभ किया। इंडिया गठबंधन ने अपना एक सामान्य घोषणा पत्र जारी किया, इसके सभी घटक दलों ने भी अपने विशिष्ट मुद्दों के साथ इन गठबंधन के मुद्दों को अपने-अपने दलों के घोषणा पत्रों में स्थान दिया। इससे जनता के बीच यह संदेश गया कि ये दल जनता के मुद्दों पर विभाजित नहीं, अपितु एक हैं।

देश का लगभग सारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रेस सत्ताधारी दल भाजपा और उसके गठबंधन एनडीए के साथ नजर आये। उनका प्रचार ही उनमें छाया रहा। विपक्ष के समाचारों को इस मुख्य धारा के मीडिया और प्रेस ने या तो स्थान ही नहीं दिया और स्थान दिया तो ऐसे कि वह सत्ताधारी दल के गठबंधन के प्रचार के पीछे छुपा रहे। सोशल मीडिया पर सत्ताधारी दल ने बाकायदा आईटी सेल के जरिए अपना प्रचार जारी रखा। दूसरी ओर सोशल मीडिया का गैर मुख्य धारा वाला किन्तु सबसे अधिक पढ़ा, सुना, देखा जाने वाला हिस्सा इंडिया के साथ खड़ा हो गया और सही तथ्यों को जनता के बीच पहुँचाने लगा। इंडिया गठबंधन के दलों ने अपने सीमित साधनों से जनता के बीच पहुँचने के भरपूर प्रयास किए। धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि विपक्ष की लड़ाई गठबंधन के साथ जनता खुद लड़ रही है। इन स्थितियों में भाजपा का प्रचार विकास और अपनी सरकार की उपलब्धियों के मुद्दों को पीछे छोड़ पूरी तरह साम्प्रदायिक मुद्दे पर उतर आया। जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया वह भारत के चुनाव इतिहास में सबसे निचले स्तर का था।

चुनाव के नतीजे आने के पहले आए मुख्य धारा के मीडिया के एक्जिट पोल नतीजे भाजपा की 370 से अधिक स्थानों पर और गठबंधन के चार सौ से अधिक स्थानों पर कब्जा करने के दावों की पुष्टि कर रहे थे। तीन दिनों तक सत्ताधारी पार्टी और गठबंधन की भारी जीत का माहौल बना रहा, वहीं इंडिया ब्लाक एक्जिट पोल को बनावटी बताता रहा। लेकिन जैसे ही वास्तविक नतीजे आने शुरु हुए तो परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। भाजपा को अपने बूते बहुमत नहीं मिला, वह 240 सीटों पर सिमट गयी और गठबंधन तीन सौ के आँकड़े तक नहीं पहुँच पाया।

नतीजों से स्पष्ट हुआ कि देश की जनता का बहुमत भाजपा और उसके गठबंधन के समर्थन में नहीं है। अपितु जनता तक पहुँचने के साधनों की हीनता के बावजूद विपक्षी गठबंधन इंडिया को खूब समर्थन मिला। यह साफ हो गया कि जनता बढ़ती हुई अमीरों की अमीरी और गरीबों की गरीबी के कारण उत्पन्न आर्थिक खाई से चिंतित है। जनता ने इस बात का भी नोटिस लिया कि पिछले दस सालों में जनता के जिन हिस्सों ने अपनी आवाज सत्ता तक पहुँचाने के लिए आंदोलन का सहारा लिया उनका कानून और सुरक्षा बलों की ताकत से दमन किया गया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तेजी से अंकुश कसा गया। जनता ने देश में जनतंत्र और संविधान दोनों को वास्तविक खतरा महसूस किया। इस चुनाव ने भारत में जनतंत्र और संविधान के महत्व को पुनर्स्थापित किया। इससे देश में संविधान और जनतंत्र बचाने का आंदोलन संगठित और तेज हुआ। लगभग पूरे देश में Save Democracy और जनतंत्र बचाओ के नाम पर नागरिकों के स्थानीय फोरम खड़े हुए, जिन्होंने इसके लिए लगातार काम करने के संकल्प लिए। यदि हम पूरे विश्व पर एक नजर दौड़ाएँ तो देखते हैं कि जनतंत्र बचाओ आंदोलन लगभग प्रत्येक जनतांत्रिक देश में मौजूद है। हर देश की जनता के कुछ हिस्से जनतंत्र के विरुद्ध लगातार खतरा महसूस करते हैं।

हम इतिहास में झाँकें तो पाते हैं कि चार-पाँच सदी पहले पूरी दुनिया में राजा-महाराजाओं का राज्य था। दुनिया भर में अर्थ व्यवस्था कृषि के इर्दगिर्द घूमती थी। कृषि उपज को मानवोपयोगी बनाने के लिए जो उद्योग करना पड़ता था वे सभी काम हस्तशिल्पी किया करते थे। एक वर्ग व्यापारियों का था जो जरूरत से अधिक उत्पादन को कम उत्पादन करने वाले क्षेत्रों में पहुँचाया करता था। आबादी बढ़ने के साथ मनुष्य निर्मित वस्तुओं की मांग भी बढ़ती गयी जिससे वस्तुओं का मेन्युफेक्चर आरंभ हुआ। छोटे-छोटे कारखाने खड़े हुए जहाँ एक मालिक के अधीन अनेक लोग काम करते थे। तकनीक के विस्तार, भाप के इंजन के आविष्कार ने उद्योग क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। बड़ी मात्रा में उत्पादन संभव होने लगा। तेजी से कारखाने खड़े होने लगे जिनमें काम करने के लिए मानव श्रम की आवश्यकता थी। यह मानव श्रम उद्योगों के स्वामी पूंजीपतियों को केवल कृषि क्षेत्र से ही मिल सकता था। लेकिन लोग वहाँ अपनी जमीन और जमीन के मालिकों से बंधे थे। इस मानव श्रम को इन बंधनों से मनुष्य की मुक्ति ही उपलब्ध करा सकती थी और इसके लिए जनतंत्र की जरूरत थी। इस तरह जनतंत्र प्रारंभिक रूप से पूंजीपतियों की आवश्यकता थी। इससे किसानों और खेतों में काम करने वाले मेहनतकशों को बंधन मुक्ति मिल रही थी, व्यापारियों के लिए मुक्ताकाश खुल रहा था। यहीं से उस सामंती दुनिया में जनतंत्र की खिड़की खुली और उससे बाहर निकली हवा पूरी दुनिया में फैल गयी।

पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में जनतंत्र का दुनिया में विस्तार हुआ। जनतंत्र लाने में पूंजीपतियों का साथ किसानों और मजदूरों ने दिया था। इसने उन्हें जमीन और बंधुआ श्रम से मुक्ति दी, किन्तु कारखानों में जिस तरह से उनसे कम से कम मजदूरी में अधिक से अधिक काम लिया जाता था। सारी पूंजीवादी दुनिया में काम के घंटे कम करने और जीने लायक मजदूरी पाने के लिए मजदूरों के स्वतः स्फूर्त आंदोलनों ने जोर पकड़ना आरंभ कर दिया। मजदूर संगठित होने लगे। समाजवाद की विचारधारा ने जोर पकड़ना आरंभ किया।

दुनिया भर में जनतंत्र को लाने वाली पूंजीवादी व्यवस्था के अपने अंतर्विरोध थे। पूंजीपतियों के बीच तेजी से उत्पादन बढ़ाने और अधिक से अधिक लाभ कमाने की होड़ बढ़ गयी थी। हर पूंजीवादी देश चाहने लगा कि दुनिया का अधिक से अधिक बाजार उनके कब्जे में रहे जिससे उनकी अर्थ व्यवस्था हमेशा प्रगति करती रहे। उत्पादन को खपाने के लिए नए बाजारों की जरूरत हमेशा बनी रहती थी जो उपनिवेशों में उपलब्ध थे। उपनिवेशों पर उनका कब्जा बना रहे यह प्रतिस्पर्धा पूंजीवादी देशों के बीच बढ़ती रही। पूंजीवाद की एक खामी यह भी है कि यह मजदूरों को कम से कम वेतन देता था और अपनी पूंजी बढ़ाता रहता था। एक वक्त ऐसा आ जाता था कि उत्पादन तो खूब होता था लेकिन उत्पादों को खरीदने के लिए जनता के पास धन की कमी हो जाती थी। बाजार मालों से भरे रहते थे लेकिन खरीददारों का अभाव होता था। इस तरह बाजार में मंदी प्रकट होती और अनेक छोटे उद्योगों को बरबाद करती और बड़े उद्योग पनपते रहते। उद्योगों की बर्बादी से उत्पादन सिकुड़ता और मंदी कम होती। लेकिन वह हर 10-12 सालों में लौट आती। अपने माल को खपाने के लिए नए बाजारों की तलाश आरंभ हो गयी। इसी के साथ पूंजीवाद ने साम्राज्यवादी स्वरूप ग्रहण कर लिया। पूंजीवादी देशों के बीच बाजार कब्जाने की इस होड़ ने दुनिया को प्रथम विश्वयुद्ध में झोंक दिया। जुलाई 1914 से नवंबर 1918 तक दुनिया विश्वयुद्ध की ज्वाला में जलती रही।

मार्क्स-एंगेल्स ने 1848 में “कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र” के प्रकाशन के साथ एक नारा दिया था, ‘दुनिया के मजदूरों एक हो¡’ मार्क्सवाद ने वैज्ञानिक समाजवाद और साम्यवाद के आदर्श लक्ष्य दिए थे। मजदूर आंदोलन के विकास के साथ ही मार्क्सवाद पर दुनिया भर में बहस तेज हो गयी। लेनिन ने मार्क्सवाद और मार्क्स के बाद पूंजीवाद के साम्राज्यवाद में विकसित होने का अध्ययन कर बताया कि मजदूर क्रान्ति एक देश में भी हो सकती है और साम्राज्यवादी युद्ध के बीच यह पूरी तरह संभव है। लेनिन के नेतृत्व में रूस के मजदूर वर्ग ने किसानों की मदद से यह कर भी दिखाया। पहली मजदूर क्रान्ति रूस में सम्पन्न हुई। इस क्रान्ति से पहला मजदूर-किसान राज्य सोवियत संघ अस्तित्व में आया। उन दिनों भारत में आजादी का आंदोलन प्रारंभिक रूप में था। रूसी क्रान्ति ने तमाम उपनिवेशों में आजादी के आंदोलनों को प्रेरित किया। मजदूर किसान आजादी के आंदोलनों से जुड़ने लगे। भारत के आजादी के आंदोलन पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ। भगतसिंह और उसके साथियों का क्रान्तिकारी आंदोलन पूरी तरह साम्यवादी आदर्शों से प्रभावित था और उनका दल भारत में मजदूर किसानों का राज्य चाहता था।

पहले विश्वयुद्ध ने दुनिया के बाजारों का साम्राज्यवादी देशों के बीच बँटवारा कर लिया था। इसके समापन से दुनिया ने चैन की साँस ली। लेकिन मंदी तो पूंजीवाद का अभिन्न लक्षण है। वह निश्चित अंतराल के बाद लौटती है। पूंजीवाद पूंजीपतियों को और अमीर बनाता चला जाता है, जनता संसाधन हीन हो कर गरीबी के समुद्र में डूबने लगती है। किसी भी देश का यह आंतरिक आर्थिक अंतर्विरोध जनता में लगातार असंतोष उत्पन्न करता है और जन आंदोलन जन्म लेते हैं। ये आंदोलन सत्ताधारी पूंजीपति वर्ग को बैचेन करते हैं और जनतंत्र जो वास्तव में पूंजीपतियों के कब्जे में होता है इसका कोई वास्तविक स्थायी हल नहीं देता। हम हमारे देश के अनुभव से जानते हैं कि लोकतंत्र में पूंजीवाद भ्रष्टाचार के अंडर करंट का जन्मदाता है। इस भ्रष्टाचार के जरीए पूंजीपति जनतंत्रों की तमाम राजकीय मशीनरी को अपने हक में इस्तेमाल करने की ताकत पाता है। वह अपने धन-बल पर राजनेताओं की बड़ी फौज खड़ी करता है जो लगातार उसके लिए काम करते हैं। धन के बल पर वह राज्य की मशीनरी पर कब्जा कर लेता है। मेहनतकश जनता हाथ मलते रहती है। धीरे-धीरे अपने अनुभव से जनता सीखती है और जनतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए जनतांत्रिक देशों की पूंजीपतियों के पक्ष में काम कर रही सरकारों के विरुद्ध बड़े आंदोलन खड़े करने लगती है। सरकार को जनता के पक्ष में काम करने को बाध्य करती है। यह सब पूंजीपतियों को रास नहीं आता। सरकारें इन आंदोलनों के दमन पर उतर आती हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार जनतंत्र का मूल है, लेकिन यही आजादी जनता के आंदोलनों की ताकत भी है। सरकार को इस अधिकार को सीमित करना पड़ता है। लेकिन जनतंत्र में सरकार की सबसे बड़ी मजबूरी है कि उसे चार-पाँच साल के अंतराल से जनता द्वारा चुना जाता है। जनता की नाराजगी इन चुनावों में अभिव्यक्त होती है और सरकारों के बदले जाने के रूप में प्रकट होती है।

जनतंत्र में पूंजीवादी दलों को चुनाव का बार बार सामना करना पड़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि पूंजीवादी दल जनता को आर्थिक मुद्दों पर संगठित होने से दूर रखे। इसके लिए जनता को अन्यान्य मुद्दों पर बाँटे रखने का काम ही उन्हें और पूंजीवाद को सुरक्षित रख सकता है। वे नस्ल, राष्ट्रीयता, धर्म और अन्य आधारों पर अपनी राजनीति खड़ी करते हैं, उसके लिए सिद्धान्त गढ़ते हैं। उनके आधार पर जनता के समूहों को एक दूसरे के प्रति नफरत सिखाते हैं और उन्हें एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करते हैं।

पूंजीवाद की जनता को बाँटे रखने की राजनीति ने यूरोप में एक नयी विचारधारा फासीवाद को जन्म दिया बेनिटो मुसोलिनी को इसके जन्म का श्रेय जाता है और एडॉल्फ हिटलर को इसे पूरी तरह विकसित करने का। फासीवादी विचारधारा उदारवाद, साम्यवाद,और रूढ़िवाद का विरोध करती है अपनी नयी रूढ़ियाँ कायम करती है। फासीवाद का लक्ष्य एक राष्ट्रवादी तानाशाही का निर्माण है जो एक राष्ट्र को एक साम्राज्य में बदलने के लिए एक आधुनिक, स्वनिर्धारित संस्कृति के तहत अर्थव्यवस्था, सामाजिक संरचना और संबंधों को विनियमित करती है। फासीवाद रोमांटिक प्रतीकवाद, जन-लामबंदी, हिंसा के सकारात्मक दृष्टिकोण और सत्तावादी नेतृत्व को बढ़ावा देने, और पड़ोसी देशों को शत्रु घोषित कर उनके प्रति आक्रामक रुख के प्रदर्शन के माध्यम से समर्थन एकत्र करता है। प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामों का लाभ उठाने और सत्ता पर काबिज होने के उद्देश्य के प्रतिफल में यह विचार पहले इटली और बाद में जर्मनी में पनपा और इसने दो पड़ोसी देशों में दो जग प्रसिद्ध तानाशाह दिए। दूसरे विश्वयुद्ध को भड़काने में इन दोनों देशों ने प्रमुख भूमिका अदा की। इसने दुनिया भर को दहला दिया। अंत में समाजवादी सोवियत संघ की मदद से पूंजीवादी देशों ने इन दोनों तानाशाहियों का अंत किया। जिन जिन देशों पर इन दोनों ने कब्जा किया था। उन देशों को सोवियत सेनाओं ने फासीवादी दमन से मुक्त किया, जिससे वहाँ चल रहे मजदूर किसानों के आंदोलनों और कम्युनिस्ट पार्टियों को बल मिला और इन देशों में एक नयी जनतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई, जो व्यवहार में पूंजीवादी थी। लेकिन वह पूंजीपतियों को असीमित लूट की छूट नहीं देती थी। इस व्यवस्था में मजदूर-किसान वर्गों के प्रतिनिधि साम्यवादी थे। यह एक नयी परिस्थिति थी, जिसमें यह सोचा गया कि किसी समाजवादी क्रान्ति के बिना भी वहाँ पूंजी के विकास के साथ साथ समाजवाद का विकास किया जा सकता है। इस व्यवस्था को सोवियत संघ के प्रमुख जोसेफ स्टालिन ने जनवादी जनतंत्र का नाम दिया।

वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में राज्य के तीन प्ररूप समाने आए। जनतंत्र, जनवादी जनतंत्र और फासीवादी राज्य । बड़े जनतंत्रों में साम्राज्यवादी पूंजीवाद प्रमुख अर्थव्यवस्था होती है, जिसमें बड़े पूंजीपति लगातार प्रगति करते रहते हैं। इस जनतंत्र का स्वरूप इतना उदार रहता है कि वह अधिकांश जनता को जीने की सामान्य सुविधाएँ देता रह सकता है। लेकिन उसमें यह क्षमता दूसरे देशों के शोषण की कमाई से उत्पन्न होती है। ऐसे देशों में बड़े जन आन्दोलनों का अभाव रहता है। यह यदा कदा संकटों से जूझते और उन्हें हल करते हुए जीवित रहते हैं। इस तरह के देशों की अर्थव्यवस्था का बड़ा भाग हथियारों के उत्पादन पर टिका रहता है जिसे वे दूसरे देशों को बेचते हैं। दुनिया में युद्धों का बने रहना इन उद्योगों के जीवित रहने का प्रमुख आधार बना रहता है। विकासशील पूंजीवादी देशों में जनतंत्र की स्थिति भिन्न होती है। इनकी अर्थव्यवस्था को हमेशा मदद की जरूरत रहती है, जिसके लिए वे साम्राज्यवादी देशों की ओर देखते हैं, और उनके शोषण का शिकार बने रहते हैं। जनता में असंतोष बना रहता है। जिसके कारण जन आन्दोलन पनपते रहते हैं और पूंजीवाद की प्रगति बाधित होती है। इन देशों में राष्ट्रवाद के नाम पर फासीवाद अपनी जड़ें जमाने कोशिश में रहता है और जनतंत्र को खतरा बना रहता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जिन देशों ने जनवादी जनतंत्र को अपनाया उनमें से आज भी चीन, क्यूबा और वियतनाम जैसे देश इस व्यवस्था को बनाए रखे हैं। इनमें चीन ने अपनी राज्य व्यवस्था को जनवादी जनतांत्रिक तानाशाही का नाम दिया। क्योंकि वह पूंजी-निगमों को असीमित स्वतंत्रता नहीं देता अपितु उन्हें अपनी राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था में दखल देने से रोकता है। इन देशों में पूंजीवाद की प्रगति धीमी और अर्थव्यवस्था अन्य पूंजीवादी दुनिया की अपेक्षा सुस्त रहती है। लेकिन जनता को जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की कमी नहीं रहती। उन्हें भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा का कोई अभाव नहीं होता। जनता शोषण मुक्त जीवन जीती है। हालाँकि पिछले कुछ दशकों में चीन ने अपनी व्यवस्था को कुछ उदार बनाते हुए उत्पादन को जो गति दी है। उससे पूंजीवादी विश्व चौंक गया है और डरा हुआ है कि वह वैश्विक अर्थव्यवस्था का सिरमौर न बन जाए।

फासीवाद का उदय इटली और जर्मनी में हुआ और दूसरे विश्वयुद्ध ने इन दोनों देशों में फासीवाद का अंत कर दिया। फासीवादी शासन में इन दोनों देशों ने जिस तरह अपनी और युद्ध के द्वारा कब्जाए गए पड़ोसी देशों की जनता का दमन किया, लाखों लोगों का नरसंहार किया, वह आज भी दुनिया को आतंक और भय से दहला देता है। फासीवाद को दुनिया ने नकार दिया। लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था हमेशा फासीवाद में अपनी समस्याओं का समाधान देखती है। जिसके कारण फासीवादी प्रवृत्ति को मरने नहीं देती और उसे खाद-पानी और जमीन मुहैया कराती रहती है। इतिहास का अनुभव बताता है कि मेहनतकश वर्गों मजदूरों और किसानों ने ही हमेशा फासीवाद का मुकाबला कर उसे नाकों चने चबवाए हैं, परास्त किया है। यही कारण है कि आर्थिक संकटों के समय पूंजीवादी देशों में फासीवादी प्रवृत्ति सर उठाती रहती है। फासीवाद के इस खतरे ने जनतंत्र को हानि पहुँचाई है और लगातार पहुँचाता रहता है। विगत दो दशकों से इस फासीवादी प्रवृत्ति ने पूरी दुनिया में जनतंत्र को संकट में डाला हुआ है। यही कारण है कि पूंजीवादी देशों की जनता हमेशा जनतंत्र को खतरे में पाती है। लगभग सभी पूंजीवादी जनतांत्रिक देशों में इसी कारण जनतंत्र बचाओ आंदोलन उठ खड़े हुए हैं और धीरे-धीरे आपस में संयोजित हो कर एक वैश्विक आंदोलन के रूप में संगठित होने की ओर आगे बढ़ रहे हैं।

भारत के संविधान ने इसे एक जनतांत्रिक गणतंत्र बनाया है और नागरिकों को समता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध, धर्म की स्वतंत्रता, संस्कृति और शिक्षा संबंधी तथा संवैधानिक उपचारों के मूल अधिकार दिए हैं। इसके साथ ही राज्य के लिए नीति निदेशक सिद्धांत दिए हैं। जो संविधान की प्रस्तावना में प्रस्तावित आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना हेतु राज्य का मार्गदर्शन करते हैं और भारत में परिकल्पित सामाजिक क्रांति के लक्ष्य हैं जो भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। इन कारणों से हमारा संविधान हमारे जनतंत्र को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय दस्तावेज है जो सभी अन्य ग्रन्थों और विधियों से ऊपर है।

हम समझ सकते हैं कि पिछले दस वर्षों का शासन हमारे जनतंत्र को उस दिशा की ओर ले जा रहा था, जिसमें जनता के जनतांत्रिक अधिकार सीमित होते जा रहे थे। शासन तंत्र फासीवादी लक्षणों वाले सर्वसत्तावाद की ओर आगे बढ़ रहा था। जनता की तकलीफें बढ़ रही थीं और उसके जीवन पर संकट बढ़ते जा रहे थे। सत्ताधारी दल के चार सौ पार के नारे ने स्पष्ट कर दिया था कि केवल जनतांत्रिक अधिकार ही नहीं पूरा संविधान ही खतरे में है। जनता के एक बड़े हिस्से ने इस खतरे को पहचाना और सत्ताधारी दल को बहुमत प्राप्त करने से रोक दिया। फिर भी वह अपने सहयोगी दलों की मदद से पुनः सत्तासीन है। 18वीं लोकसभा का पहला सत्र आयोजित करने के पहले ही सरकार और उसके मंत्रियों ने जो निर्णय लिए हैं, उनसे नहीं लगता कि सत्ताधारी दल ने इन चुनाव नतीजों से कोई सबक सीखा है। नयी गठबंधन सरकार अपने किसी पुराने फैसले फिरने को तैयार नहीं है।

आज जब हमारे संविधान और जनतंत्र पर खतरा आसन्न स्पष्टतः दिखाई दे रहा है वकील समुदाय में अनेक लोग संविधान और जनतंत्र को बचाने की लड़ाई में आगे दिखाई देते हैं। वे अपने सामाजिक दायित्व को ठीक से निभा रहे हैं। लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। वकील समुदाय के एक बड़े हिस्से में अवसरवाद का विचार बहुत गहरे पैठा हुआ है। यह उन्हें तात्कालिक लाभों के लिए संविधान और जनतन्त्र को खतरा बनी शक्तियों के खेमे में ले जा कर खड़ा कर देता है तथा जनतंत्र और संविधान की रक्षा की लड़ाई को कमजोर बनाता है। ऐसे ही अवसरवादी तत्वों के प्रभाव में हमारी बार कौंसिलें और बार एसोसिएशन गैर जनतांत्रिक निर्णय ले बैठती हैं। ऐसे लोगों को यह समझने समझाने की आवश्यकता है कि वकील का व्यवसाय भी तभी जीवित और असीमित बना रह सकता है जबकि जनतंत्र और संविधान बचे रहें। कानून का शासन बचा रहे। इसी संविधान और जनतंत्र ने हमें अपने मुवक्किलों की पैरवी का अधिकार दिया है। हमारा यह अधिकार भी तभी बचा रह सकता है जब संविधान, जनतंत्र और कानून का शासन बचा रहे। जो वकील जनतंत्र और संविधान की इस लड़ाई का हिस्सा बन चुके हैं उनका एक कर्तव्य यह भी बनता है कि वे अपने समुदाय के भीतर जागरूकता अभियान चलाएँ और अधिक से अधिक अपने वकील साथियों को जनतंत्र, संविधान और कानून के शासन को बचाए रखने के इस संघर्ष के पक्ष में खड़ा करें।

(समाप्त)

मंगलवार, 16 जनवरी 2024

शीघ्र न्याय : एक दुःस्वप्न

संसद और विधानसभाएँ कानून बनाती रहती हैं। लेकिन जब उनका पालन नहीं होता तो साधारण चालानों का जिनमें लोग जुर्माना भर कर निजात पा लेते हैं हजारों अवसर ऐसे होते हैं जब मुकदमा अदालत में जाता है। इसका एक उदाहरण आप चैक बाउंस के मामलों को ले लें। चैक बाउंस को अपराधिक बनाने के बाद इसके लिए अतिरिक्त अदालतें स्थापित करनी पड़ीं। कोटा नगर में चार अतिरिक्त अदालतें इन्हीं मामलों के लिए हैं। हर अदालत में हजारों मुकदमे लंबित हैं और जितने मुकदमे वे साल में निर्णीत करते हैं उससे डेढ़ दुगने मुकदमे रोज पेश होते हैं। कुल मिला कर नए कानूनों का सारा बोझा अदालतों पर आता है।

तीन मुख्य अपारिधिक कानून बदल दिए गए हैं। कल राजस्थान पत्रिका में गृहमंत्री अमित शाह का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ उसका पहला प्रश्न यही था कि "देश की न्यायिक प्रक्रिया के साथ सबसे बड़ी शिकायत यह रही है कि समय पर लोगों को न्याय नहीं मिल पाता है। अदालतों में सालों साल तक सुनवाई चलती रहती है और न्याय की उम्मीद में लोगों के जीवन समाप्त हो जाते हैं। इन अपराधिक कानूनों में समय पर न्याय के लिए क्या प्रयास किए गए हैं?
उत्तर में गृहमंत्री का जवाब था कि, "हमने 35 अलग-अलग जगह सेक्शनों में टाइम लाइन जोड़ी है। ... जिनमें समय की मर्यादा को सीमित करने का प्रयास किया है। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जब पूरे देश में ये नए कानून लागू हो जाएंगे, दतो उसके बाद अपराध होने के तीन साल के अंदर पीड़ित को न्याय मिल पाएगा। पहले सालों तक न्याय नहीं मिलता था, अपराधी इससे खौफ भी नहीं खाते थे।"

पहले भी अनेक कानूनों में टाइम लाइन निर्धारित की गयी है। उदाहरण के तौर पर औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 10 (2-ए) में टाइम लाइन है कि किसी भी विवाद को श्रम न्यायालय को रेफरेंस करते समय उचित सरकार निर्देश करेगी कि उसे कितने समय में निर्णीत करना है और यदि वह किसी एक मजदूर से संबंधित हो तो तीन माह में उसे निर्णीत करना होगा। यदि किसी मजदूर को अपने नियोजक से प्राप्त करना हो और उसे धनराशि में संगणित किया जा सकता हो तो वह मजदूर धारा 33 सी (2) में आवेदन दे सकता है। ऐसा आवेदन का निर्णय तीन माह में किया जाएगा।
 
इस कानून में यह टाइम लाइन 1982 से जुड़ी हुई है। चालीस साल से ऊपर हो चुके हैं। लेकिन इन आवेदनों और विवादों में जो पहली तारीख पड़ती है वही तीन माह से अधिक की होती है, और उसके बाद भी तारीखें पड़ती रहती हैं। कोई अदालत इसका बोझा नहीं ढोती। अदालतें जानती हैं कि उन्हें एक-दो मुकदमे निर्णीत करने हैं। उससे अधिक वे कर भी नहीं सकते। क्यों कि उन्हें उस मुकदमे में जवाब लेने हैं, दस्तावेज पेश करने के आवेदनों का निस्तारण करना है, दोनों पक्षों की साक्ष्य लेनी है और फिर दोनों पक्षों की बहस सुन कर फैसला करना है। इस सब में स्वाभाविक रूप से एक मुकदमे में एक दिन का समय लगता है। इस कारण यह टाइम लाइनें तब तक बेमानी हैं, जब तक अदालतों की संख्या दो तीन गुना नहीं बढ़ा दी जाती है। आप पत्रिका की ही एक पुरानी खबर की कटिंग देखिए। क्या केन्द्र सरकार ने इतने जज नियुक्त करने और नयी अदालतें स्थापित करने के लिए भी कुछ किया है?
गृहमंत्री केवल इस बात पर विश्वास प्रकट कर रहे हैं। वे आश्वासन देने लायक भी नहीं हैं कि इन कानूनों से त्वरित न्याय मिलने लगेगा। इसके लिए अदालतें बढ़ानी पड़ेंगी। जो केन्द्र सरकार टैक्सों में राज्यों का हिस्सा तक देने में आनाकानी करती है, वह नयी अदालतें खोलने के लिए सीधे कहेगी यह राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। अब जहाँ जहाँ भाजपाई नेतृत्व की सरकारेंं हैं वे तो डबल इंजन की सरकारें हैं। उन राज्यों में तो तत्काल अदालतें दुगनी कर सकती हैं।

आज न्यायपालिका की हालत यह है कि एक दो रोटी बनाने वालों को हजार लोगों को रोटी बना कर खिलाने का जिम्मा दे दिया जाए। आप कितने ही कानून नियम बना दें कि रोटी पत्तल पर बैठने के बाद पाँच मिनट में मिलेगी।  आप पत्तल लेकर बैठे रहना रोटी तो तभी मिलेगी बेचारे रोटी बनाने वालों को तो एक एक ही बना कर ही परोसनी पड़ेगी। ज्यादातर लोग इंतजार करके पत्तल छोड़ भाग लेंगे। जैसे मुकदमा करने वाला मुकदमे को बीच में छोड़ भागता है। बाकी तो ये सब देख कर अदालत जाने से ही डरते हैं। भारत के जवान होने के पहले ही सड़ रहे पूंजीवाद में शीघ्र न्याय सदा सपना ही बना रहेगा। 
 
कुल मिला कर इन तीन नए कानूनों से शीघ्र न्याय की आशा करना बेमानी है। बल्कि ऐसे प्रावधान किए हैं जिनसे जनता के दमन के बहुत अधिकार पुलिस और सरकारों को दे दिए गए हैं जिनसे दमन और बढ़ेगा।

कुछ माह से बहुत शोर है की रामजी आ रहे हैं। भ्रम हो रहा है कि रामराज भी आ रहा है। पर रामराज में और कुछ होता हो या नहीं पर न्याय के नाम पर तपस्वी (पढ़ लिख कर योग्यता हासिल करने की कोशिश करने वाला) दलित तपस्या के घोर अपराध के लिए दंड के नाम पर शंबूक मारा जाता है।






शुक्रवार, 19 जून 2015

न्याय और कार्यपालिका के बीच शीत गृह-युद्ध

देश में शीत गृहयुद्ध जारी है। हमारी न्याय व्यवस्था जर्जर होने की सीमा तक पहुँच गयी है। कहीं कहीं फटी हुई भी है। फटने से हुए छिद्रों को छुपाने के लिए लगाए गए पैबंद खूब दिखाई देने लगे हैं। जहाँ सौ जोड़ा कपड़ों की हर साल जरूरत है, वहाँ दस जोड़ा कपड़े दिए जाते हैं। जंजीरों में बंधे गुलामों के वो चित्र याद आते हैं जिन में गुलामों से जब तक वे बहोश न खो दें काम कराया जाता था और खाने को इतना ही दिया जाता था कि वे मर न जाएँ। वैसी ही हालत हमारी न्याय पालिका की है। न्याय पालिका हमारे संघ राज्य का महत्वपूर्ण अंग है। लेकिन वह कभी कभी जनपक्षीय हो जाता है। यही कारण है कि उसे विधायिका और कार्यपालिका कभी मजबूत नहीं होने देती। यह डर हमेशा सताता रहता है कि कहीं वह पूंजीवादी निजाम को पलटने का एक साधन न बन जाए।

यही है हमारी स्वतंत्र न्याय पालिका। हर साल उच्चतम न्यायालयों और उच्च न्यायालयों के जजों के साथ प्रधानमंत्री एक समारोह करते हैं। पिछले 15 वर्षों के इन समारोहों की रपटें उठा ली जाएँ तो पता लगेगा कि हर बार मुख्य न्यायाधीश अदालतों की अतिशय कमी की ओर ध्यान दिलाते हैं। पर इन अदालतों की स्थापना तो सरकार से मिलने वाले वित्त पोषण पर निर्भर करती है। हर साल प्रधानमंत्री आश्वासन देते हैं। लेकिन सरकारें अण्डज हैं, साल भर बाद नतीजे के नाम पर अण्डा निकलता है।

उधर विधायिकाओं और सरकारों के पास देश की हर समस्या का एक इलाज है, कानून बना दो। वे कानून बनाते हैं। हर कानून अदालतों में मुकदमों का इजाफा करता है। हर कानून के साथ न्याय पालिका में अदालतें भी बढ़ाने का इंतजाम होना चाहिए। लेकिन उस से सरकार को क्या? यदि मुकदमे देर तक चलेंगे तो सरकार की बदनामी थोड़े ही होगी, बदनाम तो न्याय पालिका होगी। यही तो सरकारें चाहती हैं। तभी तो सरकार के लिए न्यायपालिका में हस्तक्षेप के अवसर पैदा होंगे। आप देख ही रहे हैं कि सरकार ने कॉलेजियम की पद्धति को बदल कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बना दिया है। अब नए जजों को पुराने जज नहीं बल्कि ये आयोग चुनेगा। इस आयोग के गठन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी है। न्याय पालिका इस परिवर्तन के विरुद्ध लड़ रही है। लेकिन उस के पास फौज और पुलिस जैसे हथियार तो हैं नहीं। उस के पास जो साधारण औजार हैं और वह उन्हीं से लड़ रही है।

कई बरस पहले देशी-विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव पर परक्राम्य विलेख अधिनियम में चैक बाउंस को अपराध बनाए जाने का कानून बनाया गया। कानून बनते ही चैक का इस्तेमाल आम हो गया। अब चैक सब से बड़ी गारंटी होने लगा। कंपनियों से ले कर गली के बनियों ने उधार माल बेचने और बहुराष्ट्रीय वित्तीय उपक्रमों से ले कर टटपूंजिए साहूकारों तक ने चैक का खूब इस्तेमाल किया। पहले तो उधार वसूलने के लिए गुंडों और लठैतों की जरूरत होती थी। अब अदालतें यह काम करने लगीं। बड़ी कंपनियों ने चैक ले कर थोक में अपने उत्पाद बेचे और जब वे चैक अनादरित होने लगे तो सब के खिलाफ मुकदमे होने लगे। एक कंपनी ने तो दक्षिण भारत की एक अदालत में एक ही दिन में 70000 से अधिक मुकदमे पेश किए। अगले दिन खबर मुख्य न्यायाधीश को मिली और तीसरे दिन एक समारोह में उन्होने बयान दिया कि वे इस कानून को रुपया वसूली का औजार न बनने देंगे। एक समय में 500 मुकदमों की सुनवाई करने की क्षमता वाली अदालत पर 70000 हजार मुकदमे आ जाएँ तो शायद उन्हें रजिस्टर में दर्ज करने में ही दो-तीन साल तो लग ही जाएंगे।

लेकिन मुख्य न्यायाधीश के कहने से क्या होता है? मुकदमे आते रहे और अदालतें बोझिल होती रहीं। कोई प्राथमिक अपराधिक अदालत ऐसी न बची जहाँ इस तरह के मुकदमे हजार पाँच सौ की संख्या में लंबित न हों। हाल वैसा हो गया जैसे सारे वाहन यकायक एक साथ सड़क पर निकल आने पर होता है। अदालतों मे ट्रेफिक जाम होने लगा। ट्रेफिक जाम में नियम कानून और नैतिकता सब दाँव पर होते हैं। कैसे भी सवार बाहर निकलने की कोशिश करता है और ट्रेफिक के सिपाही डंड़ा फटकार कर जाम को हटाने की कोशिश करते हैं।

यही हुआ भी। 1 अगस्त 2014 को उच्चतम न्यायालय के तीन जजों की बैंच ने दशरथ रूपसिंह राठौड़ के मुकदमे में यह फैसला दिया कि चैक बाउंस का मुकदमा सुनने का अधिकार केवल उस अदालत को है जिस के क्षेत्र में चैक जारीकर्ता की बैंक की शाखा स्थित है। अब तक लगभग सारे मुकदमे वहाँ दाखिल किए गए थे जहाँ चैक डिसऑनर हुआ था। पुराने मुकदमों को वापस ले कर इस निर्णय के अनुसार क्षेत्राधिकार वाली अदालत में प्रस्तुत करने के लिए 30 दिन की अवधि निर्धारित की गयी। हजारों मुकदमे वापस दिए गए जिन में से कुछ मुकदमे जो साधारण न्यायार्थियों के थे, वापस पेश ही नहीं हुए जब कि बहुत सारी कंपनियों और न्यायार्थियों ने अपने मुकदमे दूसरे राज्यों की अदालतों में पेश किए ।

इस से सब से बड़ी परेशानी बड़ी कंपनियों को हुई। चैक अब अच्छी गारंटी नहीं रहा। कंपनियों को माल बेचने में परेशानी आने लगी। उन्हों ने फिर सरकारा पर दबाव बनाया और कानून में बदलाव की हवा बनने लगी। कानून बनने में तो देर लगती है। संसद में पारित कराना होता है, फिर राष्ट्रपति का अनुमोदन चाहिए तब कानून लागू होता है। इस से बचाने का एक रास्ता अध्यादेश लागू करना है। सो केन्द्र सरकार ने इतनी तत्परता दिखाई कि 15 जून को परक्राम्य विलेख अधिनियम में संशोधन अध्यादेश लागू कर दिया।

दशरथ रूप सिंह राठौर के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने खास तौर पर इस बात का उल्लेख किया था कि किस तरह इन मुकदमों ने मजिस्ट्रेट न्यायालयों में एक एविलांस (ऊँचे पहाड़ों में हिम स्खलन से उत्पन्न बर्फीला तूफान) उत्पन्न कर दिया है –

“we need to remind ...... “हमें खुद को याद दिलाने की जरूरत है कि इस देश की मजिस्ट्रेसी पर चैक अनादरण के मुकदमों का हिमस्खलन आया हुआ है। विधि आयोग की 213वीं रिपोर्ट के अनुमान के अनुसार अक्टूबर 2008 में इस तरह के मुकदमों की संख्या 38 लाख से अधिक थी। नतीजे के तौर पर चैक अनादरण के मुकदमों से देश के हर मुख्य शहर की मजिस्ट्रेट स्तर की अपराधिक न्याय व्यवस्था का दम घुट रहा था। चार महानगरों और अन्य व्यावसायिक महत्व के केन्द्रों की अदालतें इस तरह के मुकदमों के कारण भारी बोझ से दब गईं। अकेले दिल्ली की अदालतों में 1 जून 2008 को इस तरह के पाँच लाख से अधिक मुकदमे लंबित थे। दूसरे अनेक शहरों की हालत भी इस से अच्छी नहीं है, केवल इसलिए नहीं कि वहाँ बड़ी संख्या में धारा 138 के मामले घटे हैं बल्कि इस लिए कि बहुराष्ट्रीय व दूसरी कंपनियों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों व अभिक्रमों ने इन शहरों को शिकायत दर्ज कराने के लिए उचित समझा जिस का इस से अच्छा कारण कोई नहीं है कि अनादरित चैक की राशि को लौटाने के लिए नोटिस जारी किए गए थे और चैक उन शहरों की शाखाओं में समाशोधन के लिए जमा किए गये थे”। ... banks in those cities.”

इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो गया था कि उच्चतम न्यायालय किस तरह परेशान है और उस से निपटने के लिए क्षेत्राधिकार के आधार पर वह कुछ मुकदमे कम होते देखना चाहता है। कम से कम कार्यपालिका को एक चेतावनी देना चाहता है। लेकिन उच्चतम न्यायालय का यह मंसूबा सरकार कैसे पूरा होने देती। उस ने इस मामले को संसद तक ले जाने और कानून में संशोधन करने तक की राह नहीं देखी। तब तक वे कंपनियाँ कैसे इन्तजार करतीं जिन्हों ने करोड़ों रुपए इस सरकार को बनाने में दाँव पर लगाए थे। अपने आका को इतने दिन परेशान होते देखना किस जिन्न को बर्दाश्त होता है? वे अध्यादेश लाए और एक दम आका की परेशानी का हल पेश कर दिया।

यह सरकार और न्यायपालिका के बीच का शीत गृह-युद्ध है। जहाँ न्याय पालिका के पास निर्णय पारित करने का औजार है वहीं सरकार के पास निर्णयों को कानून और अध्यादेशों के जरिए पलट डालने का शस्त्र मौजूद है। अब साल में दो चार बार इस युद्ध का नजारा देखने को मिलता ही रहेगा। जब तक कि न्यायपालिका को देश की जरूरतों के मुताबिक अदालतें नहीं मिल जातीं। आप जानते हैं, देश की जरूरत क्या है? नहीं जानते हों तो मैं ही बता देता हूँ। देश को मौजूदा अदालतों की संख्या से चार गुनी और अदालतें चाहिए।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

दिनकर जी के परिवार के साथ न्याय कैसे हो?

दो दिनों से व्यस्तता रही। शनिवार को मकान की छत का कंक्रीट डलता रहा, वहाँ दो बार देखने जाना पड़ा। रविवार सुबह एक वैवाहिक समारोह में और दोपहर बाद एक साहित्यिक स्मृति और सम्मान समारोह में बीता। रात नौ बजे ही घर पहुँच सका। घर पहुँच कर खबरें देखीं तो एक खबर यह भी मिली कि पटना में दिनकर जी की  वृद्ध पुत्र-वधु हेमन्त देवी का किराएदार लीज अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी दुकान खाली नहीं कर रहा है और उपमुख्यमंत्री का रिश्तेदार होने के कारण वह उन्हें धमकियाँ दे रहा है। 
ह समाचार भारतवर्ष की कानून और व्यवस्था की दुर्दशा की कहानी कहता है। हेमन्त देवी का कहना है कि वे मुख्यमंत्री तक से मिल चुकी हैं लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिला। मुख्यमंत्री क्या करें? वे एक व्यक्ति, जो कानूनी रूप से किसी संपत्ति के कब्जे में आया था, जिस का कब्जा अब लीज अवधि समाप्त होने के बाद  अवैध हो गया है और जो अतिक्रमी हो गया है, से मकान कैसे खाली करवा सकते हैं? यह मामला तो अदालत का है। महेश मोदी यदि दुकान खाली नहीं करता है और अगर यह मामला किराएदारी अधिनियम की जद में आता है तो उस के अंतर्गत मकान खाली करने का दावा करना पड़ेगा, और अगर लीज से संबंधित कानून के अंतर्गत यह मामला आता है तो कब्जे के लिए दावा करना पड़ेगा। हमारे अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना करने का काम राज्य सरकारों का है। राज्य सरकारें इस काम में बरसों से लापरवाही कर रही हैं। पूरे देश में जरूरत की केवल 20 प्रतिशत अदालतें हैं जिस के कारण एक मुकदमा एक-दो वर्ष के स्थान पर 20-20 वर्ष तक भी निर्णीत नहीं होता। जो कानून और अदालतें सब के लिए हैं, वे ही दिनकर जी के परिजनों के लिए भी हैं। इस कारण उन्हें भी इतना ही समय लगेगा। सरकार या कोई और ऐजेंसी इस मामले में कोई दखलंदाजी करती है या ऐसा करने का अंदेशा हो तो महेश मोदी खुद न्यायालय के समक्ष जा कर यह व्यादेश ला सकता है कि दुकान पर उस का कब्जा सामान्य कानूनी प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से न हटाए।
क मार्ग यह दिखाई देता है कि इस मामले में राज्य सरकार कोई अध्यादेश जारी करे, या फिर कानून बनाए जो संभव नहीं। एक मार्ग यह भी दिखाई देता है कि यदि राज्य में वरिष्ठ नागरिकों को उन के मकान का कब्जा दिलाने मामले में कोई विशिष्ठ कानून हो तो उस के अंतर्गत तीव्रता से अदालती कार्यवाही हो, अथवा अदालत हेमंत देवी को वरिष्ठ नागरिक मान कर त्वरित गति से मामले में फैसला सुनाए और यही त्वरण अपीलीय अदालतों में भी बना रहे। तब यह प्रश्न भी उठेगा कि हेमंत देवी के लिए जो कुछ किया जा रहा है वह देश के सभी नागरिकों के लिए क्यों न किया जाए? वस्तुतः पिछले तीस वर्षों में जो भी केंद्र और राज्य सरकारें शासन में रहीं, उन्हों ने न्याय व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने की जिम्मेदारी नहीं निभाई। उन्हों ने उसे अपना कर्तव्य ही नहीं समझा।
पिछले तीस वर्षों में स्थितियाँ बहुत बदली हैं। इस अतिविलंबित न्याय व्यवस्था ने समाज के ढाँचे को बदला है। अब हर अवैध काम करने वाला व्यक्ति धमकी भरे स्वरों में कहता है तु्म्हें जो करना हो कर लो। वह जानता है कि अदालत में जूतियाँ घिस जाती हैं बीसियों साल तक अंजाम नहीं मिलता। जिस के पास लाठी है वही भैंस हाँक ले जा रहा है, भैंस का मालिक अदालत में जूतियाँ तोड़ रहा है। ये पाँच-पाँच बरसों के शासक, इन की दृष्टि संभवतः इस अवधि से परे नहीं देख पाती। यह निकटदृष्टि राजनीति लगातार लोगों में शासन सत्ता के प्रति नित नए आक्रोश को जन्म देती है और परवान चढ़ाती है। पाँच बरस के राजा नहीं जानते कि  यह आक्रोश विद्रोह का जन्मदाता है ऐसे विद्रोहों का जिन्हें दबाया नहीं जा सकता।

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

अदालतों की लाचारी

वकील जमील अहमद
म कोटा के वकील पिछले दिनों हड़ताल पर थे। लगभग डेढ़ माह के बाद कचहरी में काम आरंभ हुआ। एक बार जब कोई नियमित गतिविधि को लंबा विराम लगता है तो उसे फिर से नियमितता प्राप्त करने में समय लगता है। काम फिर से गति पकड़ने लगा था कि एक वरिष्ठ वकील के देहान्त के कारण आज फिर से काम की गति अवरुद्ध हुई। दोपहर बाद अदालत के कामों से फुरसत पा कर निकला ही था कि कोटा वरिष्ठ अभिभाषकों में सब से अधिक सक्रिय समझे जाने वाले जमील अहमद मुझे मिल गए। दो मिनट के लिए बात हुई। कहने लगे -मुश्किल से अदालती काम गति पकड़ने लगा था कि आज फिर से बाधा आ गई। मैं ने भी उन से सहमति जताई और कहा कि यदि कोई बाधा न हुई तो इस सप्ताह के अंत तक अदालतों का काम अपनी सामान्य गति पा लेगा। उन्हों ने कहा कि वे जिला जज के सामने एक मुकदमे में बहस के लिए उपस्थित हुए थे। लेकिन खुद जज साहब ने बहस सुनने से मना कर दिया और कहा कि आज तो शोकसभा हो गई है बहस तो नहीं सुनेंगे। दूसरे काम निपटाएंगे। मैं ने कहा -अदालतों के पास इतना अधिक काम है कि, जब भी इस तरह का विराम न्यायाधीशों को मिलता है तो वे लंबित पड़े कामों को निपटाने लगते हैं। 
बात निकली थी तो मैं ने उन्हें पूछा कि एक अदालत के पास मुकदमे कितने होने चाहिए? उन्हों ने कहा कि एक दिन की कार्य सूची में एक अदालत के पास दस दीवानी और दस फौजदारी मुकदमे ही होने चाहिए, तभी साफ सुथरा काम संभव है, न्याय किया जा सकता है। 
मुझे अपने सवाल का पूरा उत्तर नहीं मिला था। मैं ने तुरंत अगला सवाल दागा -एक मुकदमे में दो सुनवाइयों के बीच कितना अंतर होना चाहिए?  उन का उत्तर था कि हर मुकदमे में हर माह कम से कम एक सुनवाई तो अवश्य ही होनी चाहिए। मैं ने तुरंत ही हिसाब लगा कर बताया कि माह में बीस दिन अदालतों में काम होता है। इस तरह तो एक अदालत के पास कम से कम चार सौ और अधिक से अधिक पाँच सौ मुकदमे होने चाहिए, तभी ऐसा संभव है। जब कि हालत यह  है कि एक-एक अदालत के पास चार-चार, पाँच-पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं। 
मील अहमद जी का कहना था कि, इसी कारण से तो न्यायालय इतनी जल्दबाजी में होते हैं कि वे पूरी बात को सुनते तक नहीं। इस से न्याय पर प्रभाव पड़ रहा है। अदालतें सिर्फ आँकड़े बनाने में लगी हैं, न्याय ठीक से नहीं हो पा रहा है। होता भी है तो कोई उस से संतुष्ट नहीं है। लोगों को लगता है कि उन के साथ न्याय नहीं हो रहा है। जब कि एक सिद्धांत यह भी है कि न्याय होना ही नहीं चाहिए, होते हुए दिखना और महसूस भी होना चाहिए। 
ब आप ही सोचिए कि जब अदालतों के पास उन की सामान्य क्षमता से पाँच से दस गुना अधिक काम होगा तो वे किस तरह कर सकती हैं? एक बैंक क्लर्क को नौकरी से निकाल दिया गया था। उस का मुकदमा अदालत तक पहुँचने में तीन वर्ष लग गए। आज उस की पेशी थी। बैंक के वकील ने आज पहली बार उपस्थिति दे कर दावे का जवाब प्रस्तुत करने के लिए समय चाहा था। अदालत ने सुनवाई के लिए अगली पेशी जून या जुलाई में देने की पेशकश की थी। बहुत हुज्जत करने के बाद अप्रेल के अंतिम सप्ताह में हम सुनवाई निश्चित करा सके। .यह मुकदमा ऐसा है कि कम से कम पच्चीस सुनवाइयाँ इसे निपटाने में लगेंगी। यदि इसी तरह छह-छह माह में सुनवाई होती रही तो मुकदमा निपटने में कम से कम दस वर्ष तो लग जाएंगे। तब तक बैंक क्लर्क की सेवा निवृत्ति की आयु हो चुकी होगी। लेकिन इस मामले में अदालत करे भी तो क्या? न्यायालय के पास साढ़े चार हजार मुकदमे हैं। वह हर मुकदमे में छह माह बाद सुनवाई करे तो भी उसे प्रत्येक दिन कम से कम चालीस मुकदमे सुनवाई के लिए रखने होंगे। जिन में से अधिक से अधिक बीस की सुनवाई की जा सकती है वह भी तब जब कि किसी पक्ष को यह अहसास नहीं होगा कि उस के साथ न्याय हो रहा है। 
जितने मामले अदालतों में लंबित हैं उस के मुकाबले अदालतों की संख्या बीस प्रतिशत है। यही न्यायपालिका की सब से बड़ी और प्राथमिक लाचारी है। इस लाचारी की उत्पत्ति सरकारों के कारण है कि वे पर्याप्त संख्या में अदालतें स्थापित नहीं कर सकी हैं।

रविवार, 16 जनवरी 2011

मुझे ज्ञानदत्त पाण्डे क्यों पसंद हैं?

पिछले दिनों अनवरत की पोस्टों पर आज ज्ञानदत्त जी पाण्डे की दो टिप्पणियाँ मिलीं। सारा पाप किसानों का पर उन की टिप्पणी थी,"सबसिडी की राजनीति का लाभ किसानों को कम, राजनेताओं को ज्यादा मिला।" बहुत पाठक इस पोस्ट पर आए, उन में से कुछ ने टिप्पणियाँ कीं।  लगभग सभी टिप्पणियों में किसान की दुर्दशा को स्वीकार किया गया और राजनीति को कोसा गया था। ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी भी इस से भिन्न नहीं है। मेरी पूरी पोस्ट में कहीं भी सबसिडी का उल्लेख नहीं था। लेकिन ज्ञानदत्त जी ने अपनी टिप्पणी में इस शब्द का प्रयोग किया और इस ने ही उन की टिप्पणी को विशिष्ठता प्रदान कर दी। यह तो उस पोस्ट की किस्मत थी कि ज्ञानदत्त जी की नजर उस पर बहुत देर से पड़ी। खुदा-न-खास्ता यह टिप्पणी उस पोस्ट पर सब से पहले आ गई होती तो बाद में आने वाली टिप्पणियों में मेरी पोस्ट का उल्लेख गायब हो जाता और 'सबसिडी' पर चर्चा आरंभ हो गई होती। 
वास्तविकता यह है कि हमारा किसान कभी भी शासन और राजनीति की धुरी नहीं रहा। उस के नाम पर राजनीति की जाती रही जिस की बागडोर या तो पूंजीपतियों के हाथ में रही या फिर जमींदारों के हाथों में। एक सामान्य किसान हमेशा ही पीछे रहा। किसानों के नाम पर हुए बड़े बड़े आंदोलनों में किसान को मुद्दा बनाया गया। लेकिन आंदोलन से जो हासिल हुआ उसे लाभ जमींदारों को हुआ और राजनेता आंदोलन की सीढ़ी पर चढ़ कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचे। जो नहीं पहुँच सके उन्हें अनेक सरकारी पद हासिल हो गए। किसान फिर भी छला गया। जब भी किसान को नुकसान हुआ उसे सबसिडी से राहत पहुँचाने की कोशिश की गई। सबसिडी की लड़ाई लड़ने वाले नेता वोटों के हकदार हो गए, कुछ वोट घोषणा करने वाले बटोर ले गए। लेकिन ऐसा इसलिए हुआ कि खुद किसानों का कोई अपना संगठन नहीं है। जो भी किसान संगठन हैं, उन का नेतृत्व जमींदारों या फिर मध्यवर्ग के लोगों के पास रहा, जिस का उन्हों ने लाभ उठाया। इस तरह आज जरूरत इस बात की है कि किसान संगठित हों और किसान संगठनों का काम जनतांत्रिक तरीके से चले। अपने हकों की लड़ाई लड़ते हुए किसान शिक्षित हों, अपने मित्रों-शत्रुओं और  हितैषी बन कर अपना खुद का लाभ उठाने वालों की हकीकत समझने लगें।  फिर नेतृत्व भी उन्हीं किसानों में से निकल कर आए। तब हो सकता है कि किसान छला जाए।
सी तरह अनवरत की ताजा पोस्ट लाचार न्यायपालिका और शक्तिशाली व्यवस्थापिका पर ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी है कि 'लाचार न्यायपालिका? कुछ हजम नहीं हुआ!' उन की बात सही है, न्यायपालिका राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग है, जनतंत्र में उसे राज्य का तीसरा खंबा कहा जाता है। उस की ऐसी स्थिति और उसी को लाचार कहा जाए तो यह बात आसानी से हजम होने लायक नहीं है। लेकिन न्यायपालिका वाकई लाचार हो गई है। यदि न हुई होती तो मुझे अपनी पोस्ट में यह बात कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि बात आसानी से हजम होने वाली होती तो भी मुझे उस पर लिखने की प्रेरणा नहीं होती। अब आप ही बताइए, महाराज अच्छा भोजन बनाते हैं, समय पर बनाते हैं। पर कितने लोगों के लिए वे समय पर अच्छा भोजन बना सकते हैं, उस की भी एक सीमा तो है ही। वे बीस, पचास या सौ लोगों के लिए ऐसी व्यवस्था कर सकते हैं। लेकिन जब उन्हें हजार लोगों के लिए समय पर अच्छा भोजन तैयार करने के लिए कहा जाए तो क्या वे कर पाएंगे? नहीं, न? तब वे समय पर अच्छा भोजन तो क्या खराब भोजन भी नहीं दे सकते। जितने लोग अच्छे भोजन के इंतजार में होंगे उन में से आधों को तो भोजन ही नहीं मिलेगा, शेष में से अस्सी प्रतिशत कच्चा-पक्का पाएंगे। जो लपक-झपक में होशियार होंगे वे वहाँ भी अच्छा माल पा जाएंगे। यही हो रहा है न्यायपालिका के साथ। उस पर क्षमता से पाँच गुना अधिक बोझा है, यह उस की सब से पहली और सब से बड़ी लाचारी है। फिर कानून तो विधायिका बनाती है, न्यायपालिका उस की केवल व्याख्या करती है। यदि पुलिस किसी निरपराध पर इल्जाम लगाए और उसे बंद कर दे तो न्यायपालिका उसे जमानत पर छोड़ सकती है लेकिन मुकदमे की री लंबाई  नापे बिना कोई भी राहत नहीं दे सकती। पहली ही नजर में निरपराध लगने पर भी एक न्यायाधीश बिना जमानत के किसी को नहीं छोड़ सकता। लेकिन सरकार ऐसा कर सकती है, मुख्यमंत्री एक वास्तविक अपराधी के विरुद्ध भी मुकदमा वापस लेने का निर्णय कर सकती है, और करती है। क्या आप अक्सर ही अखबारों में नहीं पढ़ते कि राजनेताओं के विरुद्ध मुकदमे वापस लिए गए। इस पर अदालत कुछ नहीं कर सकती। उसे उन अपराधियों को छोड़ना ही पड़ता है। अब आप ही कहिए कि न्यायपालिका लाचार है या नहीं? 
कुछ भी हो, मुझे बड़े भाई ज्ञानदत्त पाण्डे बहुत पसंद हैं, वे वास्तव में 'मानसिक हलचल' के स्वामी हैं। वे केवल सोचते ही नहीं हैं, अपितु अपने सभी पाठकों को विचारणीय बिंदु प्रदान करते रहते हैं। अब आप ही कहिए कि आप की पोस्ट पर सब जी हुजूरी, पसंद है या नाइस कहते जाएँ, तो आप फूल कर कुप्पा भले ही हो सकते हैं लेकिन विचार और कर्म को आगे बढ़ाने की सड़क नहीं दिखा सकते। ज्ञानदत्त जी ऐसा करते हैं, वे खम ठोक कर अपनी बात कह जाते हैं और लोगों को विचार और कर्म के पथ पर आगे बढ़ने को बाध्य होना पड़ता है। बिना प्रतिवाद के वाद वाद ही बना रह जाता है सम्वाद की स्थिति नहीं बन सकती, एक नई चीज की व्युतपत्ति संभव नहीं है।

शनिवार, 15 जनवरी 2011

लाचार न्यायपालिका और शक्तिशाली व्यवस्थापिका

दिसम्बर 13 को ही मेरे सहायक वकील नन्दलाल जी ने मुझे ताजा वाकया सुनाया। एक गरीब को पकड़ कर लाया गया था। उस पर आरोप था कि उस के पास से प्रतिबंधित लंबाई का धारदार चाकू बरामद हुआ है जो कि शस्त्र अधिनियम का उल्लंघन है। जैसे ही पुलिस ने मजिस्ट्रेट के पास उस की गिरफ्तारी के कागजात पेश किये गए जमानत पर छोड़े जाने का आदेश दे दिया गया। जब वे अपने मुवक्किल की ओर से बोलने लगे तो मजिस्ट्रेट ने कहा कि वकील साहब जमानत ले तो ली है अब क्या कहना है। तब उन्हों ने कहा, वह तो ठीक है, पर मुलजिम कुछ कहना चाहता है उस की बात तो सुनिए। तब मजिस्ट्रेट से अभियुक्त अपनी व्यथा कहने लगा....
'साSब! मजदूरी करता हूँ, कल बहुत थक गया था, थकान से रात को नींद भी नहीं आती। पगार मिली तो एक थैली दारू पी गया। घर लौट रहा था कि दरोगा जी मिले। मुझ से रुपये मांगने लगे। रुपये उन को दे देता तो घर पर क्या देता? मैं ने मना कर दिया। दरोगा जी ने थाने में बिठा लिया। घर खबर पहुँची तो बीबी थाने पहुँची मैं ने दरोगा जी के बजाये रुपये उसे दे दिए। दरोगा जी ने चाकू का झूठा मुकदमा बना दिया।'
जिस्ट्रेट ने वकील से कहा, आप जानते हैं मैं अभी कुछ नहीं कर सकता। मुकदमे की सुनवाई के समय इस बात को ध्यान में रखेंगे। 
धर उत्तर प्रदेश में बसपा विधायक पर बलात्कार करने का आरोप लगाने वाली दलित लड़की शीलू को विधायक द्वारा की गई चोरी की रिपोर्ट पर तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। वह महीने भर जेल में रही और विधायक मजे में खुला घूमता रहा। मामला मुख्यमंत्री की निगाह में आने और क्राइमब्रांच के अन्वेषण से बलात्कार का आरोप सही और लड़की पर चोरी का आरोप बचाव में की गई कार्यवाही पाए जाने पर मुख्यमंत्री मायावती ने अपने जन्मदिवस पर विधायक व उस के साथियों को गिरफ्तार करने और लड़की को रिहा करने का आदेश दिया। अब विधायक तथा उस के तीन साथी जेल में हैं और लड़की को रिहा कर दिया गया है। 
पीड़ित लड़की दलित थी, यदि वह दलित न हो कर सवर्ण होती तो भी क्या मायावती का निर्णय ऐसा ही होता? राज्य में कानून और व्यवस्था के लिए पुलिस, मजिस्ट्रेट और अदालतें हैं। लेकिन गलती से या जानबूझ कर गिरफ्तार निरपराध व्यक्ति को रिहा करने का आदेश सरकार तो दे सकती है लेकिन अदालत नहीं। क्या हमारी अदालतें इतनी ही मजबूर हैं कि वे प्रारंभिक स्तर पर कोई निर्णय नहीं ले सकतीं? जब ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आती हैं तो सचमुच हमारी न्यायपालिका लाचार दिखाई पड़ने लगती है, और व्यवस्थापिका इतनी शक्तिशाली कि लोग उस की हाँ में हाँ मिलाते रहें। एक बात और कि इस मामले में शीलू भाग्यशाली निकली जो उसे महीने भर में ही राहत मिल गई लेकिन उन हजारों लोगों का क्या जो अपनी गरीबी और बेजुबानियत के कारण जेलों में यातनाएँ सह रहे हैं।

बुधवार, 5 जनवरी 2011

आह! मेरे, दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र !

गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने कहा है कि नक्सलियों के साथ सम्बंध रखने पर मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन को यदि गलत तरीके से सजा दी गई है तो इसे कानूनी तरीके से सुधारा जाएगा। यदि उन्हें गलत तरीके से दोषी ठहराया गया है तो इसे कानूनी तरीके से सुधारा जाएगा।  डॉक्टर कार्यकर्ता बिनायक सेन को कानून की एक अदालत द्वारा दोषी ठहराया गया है और जो लोकतंत्र में विश्वास करते हैं तो उन्हें लोकतंत्र की प्रक्रिया का भी सम्मान करना चाहिए। 
ब चिदम्बरम जी भारत सरकार के गृहमंत्री हैं, वे इस बात को कैसे सोच सकते हैं कि बिनायक सेन को 7 मई को गिरफ्तार किया गया था, अगस्त 2007 में उस मुकदमे में आरोप पत्र दाखिल किया गया और फैसला हुआ 24 दिसंबर 2010 को। यह भी तब जब सर्वोच्च न्यायालय ने अदालत को मुकदमे की शीघ्र सुनवाई करने का आदेश दिया था। वर्ना हो सकता था कि अभी इस फैसले में कुछ साल और लग जाते। चिदम्बरम जी के पास शायद कानून मंत्रालय कभी नहीं रहा। राज्य सरकार का अनुभव तो उन्हें है ही नहीं। उन्हें शायद यह भी पता नहीं कि इस देश को वर्तमान में 60000 अदालतों की जरूरत है, और हैं लगभग 15000 मात्र। हम चौथाई अदालतों से काम चला रहे हैं और  लोग कम से कम चार गुना अधिक समय तक मुकदमे झेल रहे हैं। केन्द्र सरकार हर बार चिंता जताती है। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है जिसे उठाने में उन्हें रुचि लेनी चाहिए। लेकिन उन की सुनता कौन है। कांग्रेसी सरकारें ही इस बात पर कान नहीं देतीं तो अन्य दलों की सरकारों का उस से क्या लेना-देना है।  
बिनायक सेन के मामले में अभी सत्र न्यायालय का निर्णय हुआ है। अब मामला उच्च न्यायालय में जाएगा। वहाँ जो हालात हैं उस में वहाँ से फैसला होने में तीन-चार वर्ष भी लग सकते हैं, उस के उपरांत फिर कहा जा सकता है कि न्यायिक प्रक्रिया यहीं तक नहीं रुकती, आगे सर्वोच्च न्यायालय भी है। जहाँ इस तरह के मामले में सुनवाई में और चार-पाँच वर्ष लग सकते हैं। तब जा कर न्यायिक प्रक्रिया का अंत हो सकेगा। यही  दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र का सच है।  तब तक बिनायक सेन को जेल में रहना होगा। उन की पत्नी और दो बेटियों को उन के बिना रहना होगा, बिनायक सेन को सजा सुनाए जाने के बाद से ही पुलिस लगातार जिन का पीछा करती रही है।  इस के साथ ही देश की वंचित जनता को उन के दिल की सुनने वाले एक चिकित्सक से वंचित होना पड़ेगा। जब तक बिनायक सेन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अंतिम निर्णय नहीं दे देता, तब तक इतने लोगों की सजाएँ साथ-साथ चलेंगी। डॉ. सेन बाइज्जत बरी हो भी जाएँ, तो क्या इन सजाओं का औचित्य क्या रह जाएगा? 
चिदम्बरम जी! आप को शायद छत्तीसगढ़ के जंगलों के नीचे छुपी संपदा को निकालने और भरी हुई थैलियों को और मोटी बनाने की अधिक चिंता है। इस देश के न्यायार्थी को न्यूनतम समय में न्याय प्रदान करने की नहीं। शायद आप तो भूल भी गए होंगे कि इसी देश की संसद ने यह संकल्प पारित किया था कि प्रत्येक दस लाख की जनसंख्या पर 50 अदालतें स्थापित होनी चाहिए, यह लक्ष्य 2008 तक पूरा कर लिया जाए। लेकिन इस संकल्प का क्या हुआ? यह भी आप को पता नहीं होगा। हम दुनिया के सर्वाधिक उदार लोकतंत्र जो हैं। हम मुकदमे का निर्णय इतनी जल्दी कर क्यों अपनी उदारता त्यागें?
लेकिन इतने सारे जो लोग डॉ. बिनायक सेन के साथ-साथ सजा पाएंगे, आप उन की आवाज ही बंद कर देना चाहते हैं। कि वे न तो फैसले पर उंगली उठाएँ और न ही देश की इस अमानवीय न्याय व्यवस्था पर, जो एक बार आरोप सुना कर निरपराध साबित करने की जिम्मेदारी उस अभियुक्त पर ही डाल देती है जो पहले से  ही जेल में  बंद है। इस मामले में आप की उदारता कहाँ गई? शायद ऐसा करते समय भारत दुनिया का सब से अधिक उदार लोकतंत्र तो क्या?  उदार लोकतंत्र भी नहीं रह जाता। आह! मेरे, दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र!

रविवार, 26 दिसंबर 2010

न्याय व्यवस्था राजसत्ता का अभिन्न अंग है, उस का चरित्र राज्य से भिन्न नहीं हो सकता

भी कुछ महीने पहले ही की तो बात है हम उस देवी के कुछ छिपे अंगों को देख पाए थे। पंद्रह हजार से अधिक भारतियों को एक रात में मौत की नींद सुलाने और इस से कई गुना अधिक को जीवन भर  के लिए अपंग और बीमार बना देने के लिए जिम्मेदार हत्यारा एण्डरसन अभी भी अमरीका में चैन की नींद सो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ  ने इस अपराध को एक मामूली मामले में परिवर्तित कर दिया। बाद में इसी बैंच के न्यायाधीश हत्यारी संस्था द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अधीन स्थापित अस्पताल के सर्वेसर्वा बन गए। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध कोई पुनर्विचार याचिका पेश नहीं की। यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआइएल) के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महेंद्रा समेत सात अधिकारी दोषी सिद्ध हुए और पर दो-दो वर्ष के कारावास और एक-एक लाख रुपए के अर्थदंड की सजा से विभूषित किए गए। इस फ़ैसले के बाद सात जून को ही सभी आरोपियों ने अपने पॉकेट मनी के बराबर का अर्थदंड भरते ही 25-25 हजार रुपए के मुचलके और इतनी ही राशि की जमानत पर रिहा हो गए। इस फैसले से देश में नाराजगी का जो बवंडर उठा तब जा कर सरकारों (केन्द्र और राज्य दोनों) ने सर्वोच्च न्यायालय में उसके अपने निर्णय को बदलने के लिए क्यूरेटिव पिटिशन पेश करने की स्मृति हो आई। जिसे सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया गया। मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय के पाले में है।
ह सर्ग  हमें बताता है कि उद्योगपति, वे देसी हों या विदेशी, राजसत्ता से उन का कैसा नाता है? केवल संविधान में एक स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए व्यवस्था कर देने मात्र से वह स्वतंत्र नहीं हो जाती। न्यायपालिका राज्य का अभिन्न अंग है, और वह राज्य के चरित्र से अलग किसी भी तरह नहीं हो सकता। आजादी के तुरंत बाद स्वतंत्रता की चेतना शिखर पर थी, भारतीय राज्य घोषित रूप से एक लोक कल्याणकारी राज्य बनने जा रहा था, और न्यायपालिका के उच्च पदों पर वे लोग पदासीन थे जो आंदोलनों के बीच से आए थे। तो उस वक्त कानून की विवेचना और निर्णय जनपक्षीय होते थे। लेकिन आजादी के पहले का कमजोर बालक, भारत का पूंजीपति वर्ग जवान होता गया, सत्ता पर अपना असर  बढ़ाता गया। वैसे-वैसे न्यायपालिका के निर्णयों का वजन जनपक्षीय पलड़े से कम होता गया और पूंजीपतियों के हितों के पलड़े की ओर बढ़ता गया। हर कोई जानता है कि 1980 में जब देश का मजदूर आंदोलन तेज था और सत्ता व सरकार पर पूंजीपतियों की पकड़ कमजोर तो, न्यायपालिका के निर्णय कमजोर वर्ग की ओर झुके होते थे। तब सिद्धांत यह था कि कानून की व्याख्या कमजोर वर्ग के हित में की जानी चाहिए। कानून वहीं रहा लेकिन देखते ही देखते इसी स्वतंत्र न्यायपालिका ने उन की व्याख्या बदल कर रख दी। कमजोर वर्ग गायब होता गया और उद्योग के हित प्रधान हो गए। उन्हीं कानूनों के अंतर्गत, यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय की वृहत पीठों में निर्धारित किए गए सिद्धांतों को बदले बिना, अब जो फैसले होते हैं, 1980 तक हुए फैसलों की अपेक्षा बिलकुल उलट होते हैं। 
मौजूदा शासक वर्ग (पूंजीपति) अनेक माध्यमों से न्यायपालिका को प्रभावित करता है। भोपाल त्रासदी के मामले में हुआ निर्णय उस का एक उदाहरण है। हमारी सरकार जो पूरी तरह इस वर्ग से नाभिनालबद्ध है। न्यायपालिका के आकार को छोटा रखती है। अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना नहीं करती। आज देश में जरूरत के केवल 20 प्रतिशत न्यायालय हैं, जिस का परिणाम यह है कि न्यायार्थी को न्याय प्राप्त करने में पाँच गुना से भी अधिक समय लगता है। कुछ लोग अपने प्रयासों और जुगाड़ों से शीघ्र न्याय प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं तो बाकी लोगों के हिस्से का न्याय दूर सरक जाता है। अनेक को तो न्याय अपने जीवन काल में मिलता ही नहीं है। दूसरी ओर उद्योगपति और वित्तीय संस्थान जिन मामलों में उन के हित प्रभावित होने होते हैं, उन के लिए विशेष न्यायालय स्थापित करवाते हैं। सरकार भी उन के लिए विशेष न्यायालय स्थापित कर उन्हें राहत प्रदान करती है। लेकिन जनता? उस की चिंता किसे है? जहाँ शासक वर्ग के विरुद्ध मामले होते हैं उन अदालतों में वर्षों तक फैसले नहीं होते। वहाँ सरकार को भी कोई चिंता नहीं है। 

कुछ माह पहले भोपाल त्रासदी के निर्णय ने देश भर को चौंकाया था और वह आंदोलित हुआ था। वैसा ही निर्णय बिनायक सेन मामले में रायपुर के अपर सत्र न्यायालय ने दे कर फिर से चौंकाया है। अदालत  इंडियन सोशल इंस्टीटच्यूट (आईएसआई) को पाकिस्तानी खुफिया ऐंजेंसी समझ कर बिनायक सेन को देशद्रोही करार देती है। एक ऐसे चिकित्सक को जो ग़रीब जनता को अपनी सेवाएँ मुहैया कराता है, उन में सांगठनिक चेतना के संचार में जुट जाता है, जो राज्य के दमनकारी कानून के विरुद्ध आवाज उठाता है उस के विरुद्ध फर्जी सबूतों के माध्यम से देशद्रोह का मामला बना कर उसे बंदी बना लिया जाता है और फिर अदालत उन्हीं सबूतों के आधार पर सजा दे देती है। इस निर्णय की बहुत आलोचना हो चुकी है। निर्णय उपलब्ध होने पर उसे भी व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन बिनायक सेन जैसे व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनाने की वजहें जानी जा सकती हैं। रायपुर के एक वरिष्ठ वकील की प्रतिक्रिया इसे स्पष्ट करती है, वे कहते हैं- "कृपया इस बारे में कोई प्रतिक्रिया मत मांगिए। यह एक बहुत ही संवेदनशील मामला है, जिससे कई राजनीतिज्ञों व पुलिस अधिकारियों की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। मैं संकट में नहीं पड़ना चाहता। लेकिन जब तमाम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता मीडिया को प्रतिक्रिया देने को उत्सुक हैं, तो फिर आप मेरी प्रतिक्रिया क्यों मांग रहे हैं?"
जो लोग रायपुर फैसले की आलोचना कर रहे हैं, न जाने उन्हें इस बात की कैसे अपेक्षा थी कि बिनायक सेन निर्दोष छूट जाएंगे? मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं था कि उन्हें सजा होगी ही और वह भी आजीवन कारावास। मुझे सत्ता के महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका पर पूरा विश्वास था कि वह अवश्य राज्य के दूसरे हिस्से की इज्जत अवश्य ही बचा लेगी। यह हो भी कैसे सकता है कि एक बहन संकट में हो और दूसरी उस के खिलाफ फैसला दे दे? मेरे पास इस से अधिक कहने को कुछ नहीं है। लेकिन यह स्पष्ट है कि देश की न्याय व्यवस्था राजसत्ता का अभिन्न अंग है उस का चरित्र राज्य के चरित्र से भिन्न नहीं हो सकता। जिन दिनों मैं ने वकालत आरंभ की थी तो आंदोलनकारी मजदूरों को सजा मिलने पर उन के साथ आए लोग अदालत के बाहर नारे लगाते थे,  पूंजीवादी न्याय व्यवस्था - मुर्दाबाद! वह नारा अब अदालतों में कभी लगता दिखाई नहीं देता, लेकिन अब वक्त आ गया है कि इस नारे को देश भर में बुलंद किया जाए।