@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: सारा पाप किसानों का

बुधवार, 12 जनवरी 2011

सारा पाप किसानों का

रित क्रांति किसान ले कर आया। लेकिन उस का श्रेय लिया सरकार ने कि उस के प्रयासों से किसानों ने रासायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग सीखा और अन्न की उपज बढ़ाई, देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हुआ। किसान सरकारों और रासायनिक खाद व कीटनाशक उत्पादित करने और उस का व्यापार कर उन के मुनाफे से अपनी थैलियाँ भरने वाली कंपनियों की वाणी पर विश्वास करता रहा और पथ पर आगे बढ़ता रहा। लेकिन इस वर्ष पड़ी तेज सर्दी के कारण जब फसलें पाला पड़ने से खराब हुईं तो किसान अपनी मेहनत को नष्ट होते देख परेशान हो उठा। खेती अब वैसी नहीं रही कि जिस में बीज घर का होता था और खाद पालतू जानवरों के गोबर से बनती थी। मामूली लागत और कड़ी मेहनत से फसल घर आ जाती थी। अब एक फसल के लिए भी किसान को बहुत अधिक धन लगाना पड़ता है। बीज, खाद, कीटनाशक, सिंचाई आदि सब कुछ के लिए भारी राशि खर्च करनी पड़ती है। अधिकांश किसान इन सब के लिए कर्ज ले कर धन जुटाते हैं। 
ब पाले ने न केवल फसल बर्बाद की अपितु किसान पर इतना कर्जे का बोझा डाल दिया कि जिसे वह चुका ही न सके। मध्यप्रदेश के दमोह जिले में इसी बर्बादी के कारण दो किसान आत्महत्या कर चुके हैं। ऐसे में सरकार का फर्ज तो यह बनता था कि वह किसानों की इस प्राकृतिक आपदा से हुई हानि के का आकलन करे और कर्ज के बोझे से दबे किसानों को कुछ राहत पहुँचाए। किसानों की सरकार से यह अपेक्षा तब और भी बढ़ जाती है जब जिस जिले में यह बर्बादी हुई है, राज्य का कृषि मंत्री उसी जिले का हो। लेकिन कृषि मंत्री ने क्या किया? 
राज्य के कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया अपने गृह जिले पहुँचे और बजाय इस के कि वे किसानों को लगे घावों पर मरहम लगाएँ, उलटे पुराण कथा बाँचना आरंभ कर दी। उन्हों ने कहा कि "यह सब किसानों के पापों का फल है। खेती में रसायनों का इस्तेमाल बढ़ने से मिट्टी की सेहत खराब हुई है और उसकी प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो चुकी है। ऐसा होने से मिट्टी में नमी नहीं रहती और पाला अपना असर दिखा जाता है। वेद पुराणों में कामधेनु व कल्पवृक्ष का जिक्र है, मगर आज हम उनसे दूर हो चले हैं। इसलिए प्राकृतिक प्रकोप बढ़ा है। एक ओर जंगल कट गए हैं तो दूसरी ओर गाय का उपयोग कम हो रहा है। इस तरह संतुलन गड़बड़ा गया है, जिसके चलते यह सब हो रहा है" 
ह सही है कि कुसमरिया जी जैविक कृषि के भारी समर्थक हैं, वे चाहते हैं कि मध्यप्रदेश एक जैविक कृषि के लिए जाना जाए। लेकिन इस का अर्थ यह तो नहीं कि किसी व्यक्ति को जब चोट लगे तो उस पर नमक छिड़का जाए। उन्हों ने यह कहीं नहीं कहा कि उन के इस पाप में सरकारें भी भागीदार रही हैं जिन्हों ने रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया। उन्हों ने यह भी नहीं कहा कि राज्य सरकारों ने ऐसा इसलिए किया क्यों कि इन पदार्थों के उत्पादकों और व्यापारियों ने सरकार बनाने की संभावना रखने वाली राजनैतिक  दलों को चुनाव लड़ने के लिए चंदे दिए थे और व्यक्तिगत रूप से मंत्रियों और अफसरों को मालामाल कर दिया था। वे ऐसा कहने भी क्यों लगे? आखिर कोई अपने आप पर भी उंगली उठाता है? 

9 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

पंजाब मे भी यही सब हो रहा हे, किसान आधुनिक तारीके से फ़सले बोते हे, अब तो जी टी जेसी फ़सले भी इस सरकार की मेहरवानी से भारत मे आ रही हे, जो फ़सले खुद अपनी रक्षा नही कर सकती वो खाने वाले को क्या देगी, भारत का किसान जहां पहले था, आज उस से भी पीछे हो गया हे, पहले इन बेचारे किसानो पर इतना ज्यादा कर्ज नही होता था, सीधी साधी खेती होती थी, ओर गांव के हर आदमी को काम मिलता था, ओर आज किसान ज्यादा के लालच मे थोडी से भी गया, ओर यह सरकार उसे क्या देगी... इस गरीब किसान का तो भगवान ही सहारा हे, काश आज भी लोट आये किसान अपनी उसी दशा मे, तो ज्यादा सुखी रहेगा, विदेशो मे ऎसी खेती सिर्फ़ जानवरो के चारे के लिये होती हे, जो आजकल हमारे किसान कर रहे हे, अब सरकार को किसानो का सहारा बनाना चाहिये

एस एम् मासूम ने कहा…

किसानो को इस पाप के लिए मजबूर किया सरकार कि घिर ज़िमेदाराना नीतिओं ने.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

जैविक कृषि को भारत में वर्षों से अपनाया जाता रहा है. निश्चित रूप से रासायनिक खादें उर्वरा शक्ति को कम कर रही हैं>

विष्णु बैरागी ने कहा…

कुसुमारियाजी बिलकुल ठीक कह रहे हैं। किसानों ने कुसुमारियाजी को कृषि मन्‍त्री बनने में मदद करने का पाप किया है। इस पाप की सजा तो किसानों को भुगतनी ही पडेगी।

कुछ लोग सोच कर बोलते हैं, कुछ बोल कर सोचते हैं। कुसुमारिया तीसरी किस्‍म के हैं जो केवल बोलते हैं, सोचने से उनका कोई वास्‍ता नहीं लगता है।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

दोष तो किसी का ही नहीं है, दोषी यदि कुछ है तो राजनीति। सब के सब वाक् युद्ध में विजय पाना चाहते हैं, किसानों का ख्याल शायद ही किसे रहा हो।

Satyendra PS ने कहा…

भाई साहब, पूंजीवाद में सरकार के अगले कदम के बारे में सोचिए। धीरे-धीरे किसान मजदूर (प्रबंधक से लेकर ईंट गारे ढोने वाले तक) बनते जा रहे हैं। बचे खुचे किसानों को सरकार कहने वाली है कि अगर खेती में निजी क्षेत्र से निवेश नहीं कराया गया तो देश की जनता को ये किसान भूखों मार डालेंगे। खेती का काम भी मल्टीनेशनल कंपनियां ही करने वाली हैं।

समयचक्र ने कहा…

कुसमरिया जी के विचार जानकर दुःख हुआ .... किसानों को इस दशा तक पहुँचाने का श्रेय सरकारों को ही जाता है ... आपकी पोस्ट की चर्चा समयचक्र पर ... आभार

ghughutibasuti ने कहा…

अब तो ऐसी बातें सुन आश्चर्य भी नहीं होता. खाद्य पदार्थों की मंहगाई बढ़ रही है किन्तु किसान फिर भी पैसा नहीं कमा रहा.न जाने कौन मालामाल हो रहा है.
घुघूती बासूती

बेनामी ने कहा…

सबसिडी की राजनीति का लाभ किसानों को कम, राजनेताओं को ज्यादा मिला।