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रविवार, 24 जून 2012

किसान और आम जनता की क्रय शक्ति की किसे चिंता है?


किसी भी विकासशील देश का लक्ष्य होना चाहिए कि वह जितनी जल्दी हो सके विकसित हो, उस की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो। लेकिन साथ ही यह प्रश्न भी है कि यह विकास किस के लिए हो? किसी भी देश की जनता के लिए भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य व चिकित्सा तथा शिक्षा प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं। विकास की मंजिलें चढ़ने के साथ साथ यह देखना भी आवश्यक है कि इन सब की स्थितियाँ देश में कैसी हैं? वे भी विकास की ओर जा रही हैं या नहीं? और विकास की ओर जा रही हैं तो फिर उन के विकास की दिशा क्या है?

भोजन की देश में हालत यह है कि हम अनाज प्रचुर मात्रा में उत्पन्न कर रहे हैं।  जब जब भी अनाज की फसल कट कर मंडियों में आती है तो मंडियों को जाने वाले मार्ग जाम हो जाते हैं।  किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए कई कई दिन प्रतीक्षा करनी पड़ती है।  इस के बाद भी जिस भाव पर उन की फसलें बिकतीं हैं वे किसानों के लिए लाभकारी मूल्य नहीं हैं।  अनाज की बिक्री की प्रतीक्षा के बीच ही बरसात आ कर उन की उपज को खराब कर जाती है।  सरकार समर्थन मूल्य घोषित कर अनाज की खरीद करती है। लेकिन अनाज खरीदने वाले अफसर अनाज की खरीद पर रिश्वत मांगते हैं।  मंडी के मूल्य और सरकारी खरीद मूल्य में इतना अंतर है कि मध्यम व्यापारी किसानों की जरूरत का लाभ उठा कर उन से औने-पौने दामों पर अनाज खरीद कर उसे ही अफसरों को रिश्वत दे कर सरकारी खरीद केंद्र पर विक्रय कर देते हैं।  दूसरी और किसान अपने अनाज को बेचने के लिए अपने ट्रेक्टर लाइन में खड़ा कर दिनों इंतजार करता रहता है।  उसे कभी सुनने को मिलता है कि बारदाना नहीं है आने पर तुलाई होगी, तो कभी कोई अन्य बहाना सुनने को मिल जाता है।  एक किसान कई दिन तक ट्रेक्टर ले कर सरकारी खरीद में अनाज को बेचने के लिए खड़ा रहा।  उस ने रिश्वत दे कर भी अपना माल बेचने की जुगाड़ लगाने की कोशिश की लेकिन अनाज बेचने के पहले उस के पास रिश्वत देने को धन कहाँ?  तो वह हिसाब भी न बना।  आसमान पर मंडराते बादलों ने उस की हिम्मत को तोड़ दिया और वह सस्ते में अपना माल व्यापारी को बेच कर गाँव रवाना हुआ।  उसे क्या मिला?  बीज, खाद, सिंचाई, पेस्टीसाइड और मजदूरी का खर्च निकालने के बाद इतना भी नहीं कि जो श्रम उस ने उस फसल की बुआई करने से ले कर उसे बेचने तक किया वह न्यूनतम मजदूरी के स्तर तक पहुँच जाए।

सल बेच कर किसान घर लौटा है। अब अगली फसल की तैयारी है। बुआई के साथ ही खाद चाहिए, पेस्टीसाइड्स चाहिए।  लेकिन जब वह खाद खरीदने पहुँचता है तो पता लगता है उस के मूल्य में प्रति बैग 100 से 150 रुपए तक  की वृद्धि हो चुकी है।  उसे अपनी जमीन परती नहीं रखनी।  उसे फसल बोनी है तो खाद और बीज तो खरीदने होंगे।  वह मूल्य दे कर खरीदना चाहता है लेकिन तभी सरकारी फरमान आ जाता है कि खाद पर्याप्त मात्रा में नहीं है इस कारण किसानों को सीमित मात्रा में मिलेगा।

किसान को खेती के लिए खाद, बीज, बिजली, डीजल और आवश्यकता पड़ने पर मजदूर की जरूरत होती है।   इन सब के मूल्यों में प्रत्येक वर्ष वृद्धि हो रही है, खेती का खर्च हर साल बढ़ता जा रहा है लेकिन उस की उपज? जब वह उसे बेचने के लिए निकलता है तो उस के दाम उसे पूरे नहीं मिलते।   नतीजा साफ है, किसानों की क्रय क्षमता घट रही है। पैसा खाद, बीज पेस्टीसाइडस् बनाने वाली कंपनियों और रिश्वतखोर अफसरों की जेब में जा रहा है।

देश की 65-70 प्रतिशत आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है जिस की आय में वृद्धि होने के स्थान पर वह घट रही है।  उस की खरीद क्षमता घट रही है।  वह रोजमर्रा की जरूरतों भोजन, वस्त्र, चिकित्सा और स्वास्थ्य तथा शिक्षा पर उतना खर्च नहीं कर पा रहा है जितना उसे खर्च करना चाहिए। उस से हमारे उन उद्योगों का विकास भी अवरुद्ध हो रहा है जो किसानों की खरीद पर निर्भर है।  उन का बाजार सिकुड़ रहा है।

देश की सरकार आर्थिक संकट के लिए अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को बाजार की सिकुड़न के लिए जिम्मेदार बता कर किनारा करती नजर आती है।   देश के काबिल अर्थ मंत्री को राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया है। लेकिन इस बात की चिंता किसी राजनैतिक दल को नहीं है कि देश की इस 65-70 प्रतिशत आबादी की क्रय क्षमता को किस तरह बनाए ही नहीं रखा जाए, अपितु उसे विकसित कैसे किया जाए।   देश के उद्योंगों का विकास और देश की अर्थ व्यवस्था इसी आबादी की खरीद क्षमता पर निर्भर करती है।   कोई राजनैतिक दल इस समय इस के लिए चिंतित दिखाई नहीं देता।   इस समय राजनैतिक दलों को केवल एक चिंता है कि क्या तिकड़म की जाए कि जनता के वोट मिल जाएँ और किसी तरह सत्ता में अपनी अच्छी हिस्सेदारी तय की जा सके।

रविवार, 16 जनवरी 2011

मुझे ज्ञानदत्त पाण्डे क्यों पसंद हैं?

पिछले दिनों अनवरत की पोस्टों पर आज ज्ञानदत्त जी पाण्डे की दो टिप्पणियाँ मिलीं। सारा पाप किसानों का पर उन की टिप्पणी थी,"सबसिडी की राजनीति का लाभ किसानों को कम, राजनेताओं को ज्यादा मिला।" बहुत पाठक इस पोस्ट पर आए, उन में से कुछ ने टिप्पणियाँ कीं।  लगभग सभी टिप्पणियों में किसान की दुर्दशा को स्वीकार किया गया और राजनीति को कोसा गया था। ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी भी इस से भिन्न नहीं है। मेरी पूरी पोस्ट में कहीं भी सबसिडी का उल्लेख नहीं था। लेकिन ज्ञानदत्त जी ने अपनी टिप्पणी में इस शब्द का प्रयोग किया और इस ने ही उन की टिप्पणी को विशिष्ठता प्रदान कर दी। यह तो उस पोस्ट की किस्मत थी कि ज्ञानदत्त जी की नजर उस पर बहुत देर से पड़ी। खुदा-न-खास्ता यह टिप्पणी उस पोस्ट पर सब से पहले आ गई होती तो बाद में आने वाली टिप्पणियों में मेरी पोस्ट का उल्लेख गायब हो जाता और 'सबसिडी' पर चर्चा आरंभ हो गई होती। 
वास्तविकता यह है कि हमारा किसान कभी भी शासन और राजनीति की धुरी नहीं रहा। उस के नाम पर राजनीति की जाती रही जिस की बागडोर या तो पूंजीपतियों के हाथ में रही या फिर जमींदारों के हाथों में। एक सामान्य किसान हमेशा ही पीछे रहा। किसानों के नाम पर हुए बड़े बड़े आंदोलनों में किसान को मुद्दा बनाया गया। लेकिन आंदोलन से जो हासिल हुआ उसे लाभ जमींदारों को हुआ और राजनेता आंदोलन की सीढ़ी पर चढ़ कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचे। जो नहीं पहुँच सके उन्हें अनेक सरकारी पद हासिल हो गए। किसान फिर भी छला गया। जब भी किसान को नुकसान हुआ उसे सबसिडी से राहत पहुँचाने की कोशिश की गई। सबसिडी की लड़ाई लड़ने वाले नेता वोटों के हकदार हो गए, कुछ वोट घोषणा करने वाले बटोर ले गए। लेकिन ऐसा इसलिए हुआ कि खुद किसानों का कोई अपना संगठन नहीं है। जो भी किसान संगठन हैं, उन का नेतृत्व जमींदारों या फिर मध्यवर्ग के लोगों के पास रहा, जिस का उन्हों ने लाभ उठाया। इस तरह आज जरूरत इस बात की है कि किसान संगठित हों और किसान संगठनों का काम जनतांत्रिक तरीके से चले। अपने हकों की लड़ाई लड़ते हुए किसान शिक्षित हों, अपने मित्रों-शत्रुओं और  हितैषी बन कर अपना खुद का लाभ उठाने वालों की हकीकत समझने लगें।  फिर नेतृत्व भी उन्हीं किसानों में से निकल कर आए। तब हो सकता है कि किसान छला जाए।
सी तरह अनवरत की ताजा पोस्ट लाचार न्यायपालिका और शक्तिशाली व्यवस्थापिका पर ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी है कि 'लाचार न्यायपालिका? कुछ हजम नहीं हुआ!' उन की बात सही है, न्यायपालिका राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग है, जनतंत्र में उसे राज्य का तीसरा खंबा कहा जाता है। उस की ऐसी स्थिति और उसी को लाचार कहा जाए तो यह बात आसानी से हजम होने लायक नहीं है। लेकिन न्यायपालिका वाकई लाचार हो गई है। यदि न हुई होती तो मुझे अपनी पोस्ट में यह बात कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि बात आसानी से हजम होने वाली होती तो भी मुझे उस पर लिखने की प्रेरणा नहीं होती। अब आप ही बताइए, महाराज अच्छा भोजन बनाते हैं, समय पर बनाते हैं। पर कितने लोगों के लिए वे समय पर अच्छा भोजन बना सकते हैं, उस की भी एक सीमा तो है ही। वे बीस, पचास या सौ लोगों के लिए ऐसी व्यवस्था कर सकते हैं। लेकिन जब उन्हें हजार लोगों के लिए समय पर अच्छा भोजन तैयार करने के लिए कहा जाए तो क्या वे कर पाएंगे? नहीं, न? तब वे समय पर अच्छा भोजन तो क्या खराब भोजन भी नहीं दे सकते। जितने लोग अच्छे भोजन के इंतजार में होंगे उन में से आधों को तो भोजन ही नहीं मिलेगा, शेष में से अस्सी प्रतिशत कच्चा-पक्का पाएंगे। जो लपक-झपक में होशियार होंगे वे वहाँ भी अच्छा माल पा जाएंगे। यही हो रहा है न्यायपालिका के साथ। उस पर क्षमता से पाँच गुना अधिक बोझा है, यह उस की सब से पहली और सब से बड़ी लाचारी है। फिर कानून तो विधायिका बनाती है, न्यायपालिका उस की केवल व्याख्या करती है। यदि पुलिस किसी निरपराध पर इल्जाम लगाए और उसे बंद कर दे तो न्यायपालिका उसे जमानत पर छोड़ सकती है लेकिन मुकदमे की री लंबाई  नापे बिना कोई भी राहत नहीं दे सकती। पहली ही नजर में निरपराध लगने पर भी एक न्यायाधीश बिना जमानत के किसी को नहीं छोड़ सकता। लेकिन सरकार ऐसा कर सकती है, मुख्यमंत्री एक वास्तविक अपराधी के विरुद्ध भी मुकदमा वापस लेने का निर्णय कर सकती है, और करती है। क्या आप अक्सर ही अखबारों में नहीं पढ़ते कि राजनेताओं के विरुद्ध मुकदमे वापस लिए गए। इस पर अदालत कुछ नहीं कर सकती। उसे उन अपराधियों को छोड़ना ही पड़ता है। अब आप ही कहिए कि न्यायपालिका लाचार है या नहीं? 
कुछ भी हो, मुझे बड़े भाई ज्ञानदत्त पाण्डे बहुत पसंद हैं, वे वास्तव में 'मानसिक हलचल' के स्वामी हैं। वे केवल सोचते ही नहीं हैं, अपितु अपने सभी पाठकों को विचारणीय बिंदु प्रदान करते रहते हैं। अब आप ही कहिए कि आप की पोस्ट पर सब जी हुजूरी, पसंद है या नाइस कहते जाएँ, तो आप फूल कर कुप्पा भले ही हो सकते हैं लेकिन विचार और कर्म को आगे बढ़ाने की सड़क नहीं दिखा सकते। ज्ञानदत्त जी ऐसा करते हैं, वे खम ठोक कर अपनी बात कह जाते हैं और लोगों को विचार और कर्म के पथ पर आगे बढ़ने को बाध्य होना पड़ता है। बिना प्रतिवाद के वाद वाद ही बना रह जाता है सम्वाद की स्थिति नहीं बन सकती, एक नई चीज की व्युतपत्ति संभव नहीं है।

बुधवार, 12 जनवरी 2011

सारा पाप किसानों का

रित क्रांति किसान ले कर आया। लेकिन उस का श्रेय लिया सरकार ने कि उस के प्रयासों से किसानों ने रासायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग सीखा और अन्न की उपज बढ़ाई, देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हुआ। किसान सरकारों और रासायनिक खाद व कीटनाशक उत्पादित करने और उस का व्यापार कर उन के मुनाफे से अपनी थैलियाँ भरने वाली कंपनियों की वाणी पर विश्वास करता रहा और पथ पर आगे बढ़ता रहा। लेकिन इस वर्ष पड़ी तेज सर्दी के कारण जब फसलें पाला पड़ने से खराब हुईं तो किसान अपनी मेहनत को नष्ट होते देख परेशान हो उठा। खेती अब वैसी नहीं रही कि जिस में बीज घर का होता था और खाद पालतू जानवरों के गोबर से बनती थी। मामूली लागत और कड़ी मेहनत से फसल घर आ जाती थी। अब एक फसल के लिए भी किसान को बहुत अधिक धन लगाना पड़ता है। बीज, खाद, कीटनाशक, सिंचाई आदि सब कुछ के लिए भारी राशि खर्च करनी पड़ती है। अधिकांश किसान इन सब के लिए कर्ज ले कर धन जुटाते हैं। 
ब पाले ने न केवल फसल बर्बाद की अपितु किसान पर इतना कर्जे का बोझा डाल दिया कि जिसे वह चुका ही न सके। मध्यप्रदेश के दमोह जिले में इसी बर्बादी के कारण दो किसान आत्महत्या कर चुके हैं। ऐसे में सरकार का फर्ज तो यह बनता था कि वह किसानों की इस प्राकृतिक आपदा से हुई हानि के का आकलन करे और कर्ज के बोझे से दबे किसानों को कुछ राहत पहुँचाए। किसानों की सरकार से यह अपेक्षा तब और भी बढ़ जाती है जब जिस जिले में यह बर्बादी हुई है, राज्य का कृषि मंत्री उसी जिले का हो। लेकिन कृषि मंत्री ने क्या किया? 
राज्य के कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया अपने गृह जिले पहुँचे और बजाय इस के कि वे किसानों को लगे घावों पर मरहम लगाएँ, उलटे पुराण कथा बाँचना आरंभ कर दी। उन्हों ने कहा कि "यह सब किसानों के पापों का फल है। खेती में रसायनों का इस्तेमाल बढ़ने से मिट्टी की सेहत खराब हुई है और उसकी प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो चुकी है। ऐसा होने से मिट्टी में नमी नहीं रहती और पाला अपना असर दिखा जाता है। वेद पुराणों में कामधेनु व कल्पवृक्ष का जिक्र है, मगर आज हम उनसे दूर हो चले हैं। इसलिए प्राकृतिक प्रकोप बढ़ा है। एक ओर जंगल कट गए हैं तो दूसरी ओर गाय का उपयोग कम हो रहा है। इस तरह संतुलन गड़बड़ा गया है, जिसके चलते यह सब हो रहा है" 
ह सही है कि कुसमरिया जी जैविक कृषि के भारी समर्थक हैं, वे चाहते हैं कि मध्यप्रदेश एक जैविक कृषि के लिए जाना जाए। लेकिन इस का अर्थ यह तो नहीं कि किसी व्यक्ति को जब चोट लगे तो उस पर नमक छिड़का जाए। उन्हों ने यह कहीं नहीं कहा कि उन के इस पाप में सरकारें भी भागीदार रही हैं जिन्हों ने रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया। उन्हों ने यह भी नहीं कहा कि राज्य सरकारों ने ऐसा इसलिए किया क्यों कि इन पदार्थों के उत्पादकों और व्यापारियों ने सरकार बनाने की संभावना रखने वाली राजनैतिक  दलों को चुनाव लड़ने के लिए चंदे दिए थे और व्यक्तिगत रूप से मंत्रियों और अफसरों को मालामाल कर दिया था। वे ऐसा कहने भी क्यों लगे? आखिर कोई अपने आप पर भी उंगली उठाता है?