@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: जनसंघर्ष
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बुधवार, 14 अप्रैल 2021

संघर्षरत जनता ही सब नेताओं की जननी है

मारी बिल्डिंग में कुल 11 अपार्टमेंट हैं। पाँच साल पहले हम इसके एक अपार्टमेंट में रहने आए। अभी तक यहाँ कोई सोसायटी नहीं बनी है, हम आपसी सहयोग से काम चला रहे हैं। सोसायटी बनाने के लिए उसका एक विधान बनाना पड़ेगा। वकील होने के नाते दूसरे निवासियों ने यह काम मुझ पर छोड़ दिया है। पर यह काम इतना आसान भी नहीं। मैं कुछ दूसरी सोसायटियों के विधानों का अध्ययन कर चुका हूँ, पर मुझे लगता है कि सबकी विशेषताओं को लेकर एक नया विधान बना दिया जाए तब भी उसमें कुछ न कुछ छूट ही जाएगा। पिछले एक बरस में मुझे प्रायोगिक रूप से यह समझ आया कि कुछ नए नियम उसमें जोड़े जाने जरूरी हैं, अन्यथा सोसायटी का प्रशासन दुष्कर होगा। मुझे अब भी कुछ कमी लग रही है। मुझे कुछ समय और चाहिए। मैं सोसायटी का विधान बना दूंगा। फिर वह आम सभा में प्रस्तुत होगा। वहाँ संशोधनों के साथ या उनके बिना वह पारित हो जाएगा। इस तरह सोसायटी का विधान बन जाएगा, लेकिन फिर भी उसमें हमेशा इस बात की गुंजाइश बनी रहेगी कि आवश्यकता के हिसाब से उसमें कुछ जोड़ा या घटाया जा सके। मैं सोचता हूँ कि यदि मुझे किसी देश का संविधान बनाने को मिल जाए तो पूर्णकालिक तौर पर इसी काम में जुट जाने पर भी दो-चार वर्ष का समय मेरे लिए कम पड़ जाएगा।


हमारे देश की संविधान सभा ने बाबा साहेब को भारत के संविधान का प्रारूप बनाने का काम सौंपा था। उन्होंने उस काम को बेहतरीन तरीके से पूरा किया। संविधान सभा ने संविधान पारित किया। देश के संविधान का प्रारूप बनाने का जो बड़ा काम उन्होंने किया वह अकेला उन्हें सदियों तक स्मरण रखने के लिए पर्याप्त है। 26 जनवरी 1950 को संविधान प्रभावी होने के बाद भी अनेक क़ानूनों का प्रारूप उन्होंने ही तैयार किया। लेकिन इन क़ानूनी कामों को करने के साथ-साथ वे आज़ादी के आन्दोलन के एक प्रमुख सेनानी भी थे। उनके लिए आज़ादी की लड़ाई केवल अँग्रेजों से मुक्ति की लड़ाई नहीं थी अपितु देश की अछूत जातियों को अस्पृश्यता से मुक्त कराने और उन्हें देश के अन्य नागरिकों के समान जीवन प्रदान करने की लड़ाई भी थी। इसके लिए उन्होंने शोध का बड़ा काम किया, जो आज उनके लेखन में देखा जा सकता है। वे जानते थे कि संविधान में सभी नागरिकों को समानता का मूल अधिकार प्रदान कर देने और अस्पृश्यता विरोधी क़ानून बना देने मात्र से अछूत जातियों के लोगों को समानता के स्तर पर नहीं लाया जा सकता। इसके लिए उन्होंने कुछ समय के लिए इन जातियों और आदिवासी जन जातीय समूहों के लोगों को कुछ विशेष अधिकार और सुविधाएँ प्रदान करने के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रखा जिसे संविधान सभा ने मान लिया और यह दस वर्षों के लिए संविधान का अस्थायी भाग बन गया। भारतीय संसद इस अस्थायी प्रावधान को लगातार बढ़ाती रही और वह आज भी संविधान में विद्यमान है। आज नयी नयी जातियाँ भी जो न अछूत हैं और न ही आदिवासी आरक्षण की मांग कर रही हैं। हमारे देश की आजादी के बाद की राजनीति जो कल्याणकारी राज्य के सिद्धान्त से आरम्भ हुई थी, वाम राजनीति को छोड़ दें तो अब सीधे सीधे पूंजीपतियों के यहाँ बंधक रखी जा चुकी है, उसका केवल एक उद्देश्य रह गया है कि किसी तरह वोट प्राप्त कर सत्ता हथिया ली जाए और फिर पूंजीपतियों के हित साधे जाएँ। इस राजनीति ने वोट हासिल करने के अनेक दो-नम्बरी तरीके ईजाद कर लिए हैं।

बाबा साहब का योगदान इस देश को एक जनतांत्रिक संविधान प्रदान करने और अछूत जातियों की मुक्ति के लिए बहुत विशाल है। लेकिन हम प्रायोगिक रूप में देख सकते हैं कि यह संविधान और क़ानून न तो अछूत जातियों को देश की मुख्य धारा में विलीन कर सके और न ही देश के जनतन्त्र को अक्षुण्ण रखा जा सका। आज भी अछूत जातियों और जन जातीय समूहों को मुख्य धारा में आने का संघर्ष करना पड़ रहा है। आरक्षण ने उन्हीं के बीच दरार उत्पन्न कर दी है। जिन्हें आरम्भ में आरक्षण मिला उनकी एक क्रीमी लेयर बन गयी और अब आरक्षण के अधिकांश लाभों को वही निगल जाती है। जनतन्त्र पर पहला हमला इमर्जेंसी के अनुच्छेदों के ज़रीए हुआ और अब संसद में तरह तरह के कानून बना कर उसका गला घोंटा जा रहा है।

किसी भी देश के शोषित तबकों का संघर्ष एक व्यक्ति के व्यक्तित्व को समर्पित नहीं हो सकता। एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में उस संघर्ष में बहुत कुछ जोड़ सकता है लेकिन फिर भी बहुत कुछ उससे छूट जाता है। परिस्थितियाँ लगातार बदलती हैं और नयी परिस्थितियों के लिए नयी नीतियों की तलाश करनी पड़ती है। आज अछूत जातियों, आदिवासी समूहों, देश की सभी जातियों के गरीबों और मेहनतकशों की मुक्ति के लिए तथा जनतन्त्र के संरक्षण और विकास के लिए हमें नए मार्ग तलाशने की जरूरत है। हमें बाबा साहब अम्बेडकर, नेहरू, गांधी, सुभाष, भगतसिंह द्वारा स्थापित राहों से अलग अपनी राह तलाशने की जरूरत है। इस जरूरत को देश की अछूत जातियों, आदिवासी समूहों, सभी जातियों के ग़रीबों, मेहनतकशों और ग़रीब अल्पसंख्यकों के एकजुट आन्दोलन से ही पूरा किया जा सकता है। बाबा साहेब, नेहरू, गांधी, सुभाष, भगतसिंह आदि हमारे नेता आज़ादी और मनुष्य मुक्ति के आन्दोलन की ही उपज थे। अब यह नया आन्दोलन ही हमें नए नेता भी देगा। संघर्षरत जनता से बड़ा कोई नेता नहीं। संघर्षरत जनता ही सब नेताओं की जननी है।

आज बाबा साहब की जयन्ती के दिन हमें यही संकल्प लेने की जरूरत है कि हम समानता और आज़ादी की इस लड़ाई को तब तक जारी रखेंगे जब तक कि एक देश द्वारा दूसरे देश का और एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का और एक व्यक्ति समूह द्वारा दूसरे व्यक्ति समूह का शोषण इस धरती से समाप्त न हो जाए।

सोमवार, 9 मार्च 2020

समानता के लिए विशाल संघर्ष की ओर



तरह-तरह के दिवस मनाना भी अब एक रवायत हो चली है। हमारे सामने एक दिन का नामकरण करके डाल दिया जाता है और हम उसे मनाने लगते हैं। दिन निकल जाता है। कुछ दिन बाद कोई अन्य दिन, कोई दूसरा नाम लेकर हमारे सामने धकेल दिया जाता है। कल सारी दुनिया स्त्री-दिवस मना रही थी। इसी महिने की आखिरी तारीख 31 मार्च को ट्रांसजेंडर-डे मनाने वाली है। अभी चार महीने पहले 19 नवम्बर को पुरुष दिवस भी मना चुकी है।

इस तरह दुनिया ने इंसान को तीन खाँचों में बाँट लिया है। यह पुरुष, वह स्त्री और शेष ट्रांसजेंडर। यह सही है कि ये तीनों प्रकार प्रकृति की देन हैं। स्त्री-पुरुष प्रकृति में  मनुष्य जाति की जरूरतों के कारण पैदा हुए और तीसरा प्रकार प्रकृति या मनुष्य की खुद की खामियों से जन्मा। पर प्रकृति अपनी गति से आगे बढ़ती है। वह कभी एक सी नहीं बनी रहती। यह संपूर्ण यूनिवर्स, हमारी धरती एक क्षण में जैसे होते हैं, अगले ही क्षण वैसे नहीं रह जाते। यहाँ तक कि जीवन के सबसे छोटे सदस्य वायरस तक भी लगातार बदलते रहते हैं। अभी जिस 'नोवल कोरोना' वायरस ने दुनिया में कोहराम मचाया हुआ है। रिसर्च के दौरान उसकी भी दो किस्में सामने आ गयी हैं। एक 'एल टाइप' और दूसरा 'एस टाइप'। चीन के वुहान नगर में जहाँ सब से पहले इस वायरस ने अपना बम फोड़ा। उसी नगर में 70 प्रतिशत रोगी 'एल टाइप' वायरस से संक्रमित थे जो अधिक जानलेवा सिद्ध हुआ है। दूसरा 'एस टाइप' कम खतरनाक कहा जा रहा है। अब यह कहा जा रहा है कि यह 'उत्प्रेरण' (म्यूटेशन) के कारण हुआ है। यह भी कहा जा रहा है कि वायरसों में अक्सर 'उत्प्रेरण' होते रहते हैं। यह भी कि कमजोर वायरस 'सरवाइवल ऑफ दी फिटेस्ट' के विकासवादी नियम से नष्ट हो जाते हैं और केवल अपनी जान बचा सकने वाले शक्तिशाली ही बचे रहते हैं। यह भी कि जो टीका 'एल' टाइप वायरस से बचाव के लिए तैयार होगा वही उससे कमजोर टाइपों के लिए भी काम करता रहेगा।

यहाँ कोरोना वायरस का उल्लेख केवल जगत और जीव जगत में लगातार हो रहे परिवर्तनों और उसके सतत परिवर्तनशील होने के सबूत के रूप में घुस गया था। बात का आरंभ तो 'स्त्री-दिवस' से हुआ था और साथ ही मैंने 'ट्रांसजेंडर दिवस' और 'पुरुष दिवस' का उल्लेख भी किया था। हम मनुष्यों के भिन्न प्रकारों के आधार पर इस तरह के दिवस बना सकते हैं और उन्हें सैंकड़ों यहाँ तक कि हजारों प्रकारों में बाँट सकते हैं और हर दिन तीन-चार प्रकारों के दिवस मना सकते हैं।

जब भी इस तरह का कोई दिवस सामने आता है तो मैं सोचता हूँ इस पर अपने विचार लिखूँ। जैसे ही आगे सोचने लगता हूँ, धीरे-धीरे एक अवसाद मुझे घेर लेता है। कल भी यही हुआ। मैं ने दिन में तीन-चार बार फेसबुक पोस्ट लिख कर मिटा दी। एक बार तो पोस्ट प्रकाशित करके अगले कुछ सैकण्डों में ही उसे हटा भी दिया। बस एक ही तरफ सोच जाती रही कि हम कब तक इस तरह इंसान को इन खाँचों में बाँट कर देखते रहेंगे। जब गुलाब की बगिया में गुलाब खिलते हैं तो कोई दो गुलाब एक जैसे नहीं होते। ऊपर की टहनी पर खिलने वाला गुलाब ज्यादा सेहतमंद हो सकता है और नीचे कहीं धूप की पहुँच से दूर कोई गुलाब कम सेहतमंद। लेकिन माली उनमें कोई भेद नहीं करता। वह सभी की सुरक्षा करता है, सभी को सहेजता है और आखिर सभी को एक साथ तोड़ कर बाजार में उपयोग के लिए भेज देता है। बाजार में जा कर व्यापारी उसमें भेद करता है। बड़े फूल सजावट और उपहार के लिए निकाल दिए जाते हैं तो शेष को इत्र, गुलाब जल और गुलकंद आदि बनाने के लिए कारखानों में भेज देता है।

ठीक यही बात मैं इंसानों के लिए भी कहना चाहता हूँ कि मनुष्य में जो भेद करने वाले लोग हैं वे असल में इन्सान नहीं रह गए हैं और व्यापारी हो गए हैं। वे उपयोग के हिसाब से मनुष्य और उनके प्रकारों के साथ व्यवहार करने लगते हैं। जिनके “खून में ही व्यापार है”  मनुष्य उनके लिए वस्तु मात्र रह जाता है।  समय के साथ और भी अनेक प्रकारों में हमने मनुष्य को बाँटा है। जैसे कुछ लोग स्वामी थे तो कुछ लोग दास, कुछ लोग जमींदार हो गए तो कुछ लोग जमीन से बांध कर किसान बना दिए गए। फिर कुछ लोग पूंजीपति हो गए और बहुत सारे मजदूर हो गए। हमने उन्हें काम के हिसाब से जातियों में बाँट दिया। कुछ उच्च जातियाँ हो गयी तो कुछ निम्न जातियाँ। इन भेदों के हिसाब भी हमने दिन बना रखे हैं। लेकिन दिवस सिर्फ कमजोरों के लिए बनाए गए। ताकि उन्हें एक दिन दे दिया जाए जिससे वे एक कमतर जिन्दगी से पैदा अवसाद को कुछ वक्त के लिए भुला सकें। दुनिया में एक मजदूर दिवस है लेकिन पूंजीपति दिवस नहीं है। लुटेरों को दिवस मनाने की क्या जरूरत? उनके लिए तो हर दिन ही लूट का दिवस है। इसी तरह कुछ वक्त पहले तक पुरुष दिवस का कोई अस्तित्व नहीं था। लेकिन जब से स्त्री के प्रति भेदभाव को समाप्त करने वाले कानून अस्तित्व में आए और उसने लड़ना आरंभ किया तब से एक स्त्री-दिवस अस्तित्व में आ गया। मेरे अवसाद का कारण भी यही है।

मजदूर दिवस केवल मजदूरों के अवसाद को दूर नहीं करता बल्कि उन्हें उस लड़ाई के लिए भी प्रेरित करता है जिस से वे दुनिया के तमाम दूसरे मनुष्यों के समान व्यवहार प्राप्त कर सकें। उसी तरह स्त्री-दिवस भी उस लड़ाई के लिए प्रेरित करता है जिस से स्त्रियाँ दुनिया में पुरुषों के समान व्यवहार प्राप्त कर सकें। हर मनाए जाने वाले 'दिवस' और हर 'उचित और सच्चे संघर्ष' के पीछे मुझे मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता के व्यवहार की का संघर्ष दिखाई देता है। इन संघर्षों को हमने 'मनुष्य-मनुष्य'  के बीच असमान व्यवहार को जन्म देने और उसे बनाए रखने वाले शैतानों द्वारा किए गए 'शैतानी वर्गीकरण' वाले नाम ही दे दिए हैं। इस तरह हमारी समानता के लिए चल रही लड़ाई अनेक रूपों में बँट गयी है। जिसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि हम अपने लक्ष्यों से भटक कर लड़ रहे हैं और ज्यादातर आपस में ही लड़ रहे हैं और अपनी शक्ति को व्यर्थ करने में लगे हैं। आज हमारे देश में हमें तुरन्त बेरोजगारी से मुक्ति, हर एक को समान शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा के लिए लड़ना चाहिए। लेकिन शैतानों ने उस लड़ाई को कानून पास करके हिन्दू-मुसलमान की लड़ाई में बदल दिया है। हम उस लड़ाई के मोहरे बना दिए गए हैं।

आज जरूरत यही है कि इन छोटी-बड़ी लड़ाइयों को उसी तरह आपस में मिला दिया जाए, जैसे आसपास की सब नदियाँ एक बड़ी नदी में मिल जाती हैं और पानी सागर की ओर बढ़ता रहता है। हमें भी अपनी समानता की लड़ाई को इसी तरह आपस में जोड़ कर बड़ी बनाना चाहिए। जिस से मनुष्य और मनुष्य के बीच असमान व्यवहार से मुक्त बेहतर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।

बुधवार, 22 जनवरी 2020

समानता के लिए जनता का संघर्ष फीनिक्स ही है।

आक्सफेम की ताजा रपट कतई आश्चर्यजनक नहीं है। इस ने आंकड़ों के माध्यम से बताया है कि भारत के एक प्रतिशत अमीरों के पास देश के 70 प्रतिशत लोगों से चार गुना अधिक धन-संपदा है। सारी दुनिया की स्थिति इस से बेहतर नहीं है। दुनिया के 1 प्रतिशत लोगों के पास दुनिया के 92 प्रतिशत की संपत्ति से दो गुनी धन संपदा है। भारत सरकार अपने ही बनाए हुए कमाल के आंकड़े लोगों के बीच प्रचारित करती रहती है। वह बताती है कि इतनी जीडीपी बढ़ गयी है। यह कभी नहीं बताती कि देश की कमाई का अधिकांश अमीरों की जेब में जा रहा है। वे विकास के आँकड़े उछालते रहते हैं। पिछले छह साल से चल रही मोदी जी सरकार विकास के नाम पर अपनी पीठ खुद ही ठोकती रही। 

लेकिन जब हम जनता के बीच जा कर देखते हैं तो विशालकाय गरीबी के हमें दर्शन होते हैं। गरीब जनता किस हाल में जी रही है यह बहुत कम अखबारों और मीडिया की खबरों और रिपोर्टों का विषय बनती हैं। 

भारत की 130 करोड़ की आबादी में से 75 प्रतिशत से अधिक लोगों तक भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत चीजे भी उपयुक्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। जबकि सचाई यह है कि जितनी भी संपदा का निर्माण प्रतिवर्ष हो रहा है वह सब इस 75 प्रतिशत जनता की खून पसीने की मेहनत की उपज होती है। 

जनता से जो टैक्स वसूला जा रहा है उस से जनता को राहत प्रदान की जाती है। प्रकृति की मार से हमेशा जूझने वाले किसानों के कर्जे माफ करने पर हमारे सत्ताधारी दल कहते हैं टैक्स पेयर्स का पैसा ऐसे व्यर्थ खर्च नहीं किया जा सकता है। लेकिन जब उन्हें अरबों रुपए के कारपोरेट्स के कर्जे माफ करने होते हैं तब उन्हें टैक्स पेयर्स याद नहीं आते हैं। ताजा आँकड़े बताते हैं कि पिछले पाँच सालों में सरकार ने जितने ऋण माफ़ किए हैं उसका केवल 7.16 प्रतिशत किसानों के हिस्से आया है और 65.15 प्रतिशत कारपोरेट्स के। 27.69 प्रतिशत व्यापारियों और सेवाएँ प्रदान करने वालों के हिस्से आया है। 

इससे साफ है कि ये सरकार केवल और केवल कारपोरेटस् के हितों का ध्यान रखती है। यदि उसे वोट प्राप्त नहीं करने हों तो वह किसानों और मध्यम लोगों को ऐसे ही मरने के लिए छोड़ दे। यही कारण है कि आज चुनावों में कारपोरेट्स का धन कमाल दिखाता है और हर बार पूंजीपतियों के चहेते ही संसद पर कब्जा कर लेते हैं। देश की सारी प्रगति कारपोरेट्स के पेट में समा जाती है। ऐसी प्रगति के लिए हमारी मेहनतकश जनता क्यों खून पसीना बहाए। यह सोच मेहनतकश जनता पर बार बार प्रहार करती है जो उसे धीरे-धीरे काम और मेहनत से दूर ले जाती है। 

हम समझ सकते हैं कि आज की यह आर्थिक प्रगति देश की बहुसंख्यक मेहनतकश जनता के किसी काम की नहीं है यदि आर्थिक विषमता की खाई लगातार बढ़ती जाए। इस आर्थिक समानता की व्यवस्था को कारपोरेट्स हमेशा गर्भ में मार डालने के प्रयत्न में रहते हं। वे ये करते रहे हैं और करते रहेंगे। लेकिन आर्थिक समानता के लिए जनता का संघर्ष कभी खत्म नहीं होता। वह लगातार जारी है और आगे भी बढ़ रहा है। इसी आगे बढ़ते हुए संघर्ष का गला घोंटने के लिए सरकारों को सीएए, एनआरसी और एनपीआर जैसी जनता को बाँटने, उनमें आपसी घृणा का विस्तार करने के प्रयास करने पड़ते हैं। इस वक्त भारत सरकार को इस काम के लिए कार्पोरेट्स दुनिया के सब से बड़े अलंकरण से नवाज सकते हैं। 

लेकिन जनता का समानता के लिए संघर्ष भी फीनिक्स है, मर मर कर राख से फिर जी उठता है। उस ने भूतकाल में अनेक विजयें हासिल की हैं। वह हमेशा ऐसे ही जी उठता रहेगा जब तक कि उस की अंतिम रूप से विजय नहीं हो जाती है।

रविवार, 2 अक्टूबर 2011

जन-गण के पक्ष में रचनाकर्म करने के साथ उन तक पहुँचाना भी होगा


किसी ने कहा शिवराम बेहतरीन नाटककार थे हिन्दी नुक्कड़नाटकों के जन्मदाता, कोई कह रहा था वे एक अच्छे जन कवि थे, किसी ने बताया शिवराम एक अच्छे आलोचक थे, कोई कह रहा था वे प्रखर वक्ता थे, किसी ने कहा वे अच्छे संगठनकर्ता थे और हर जनान्दोलन में वे आगे रहते थे, एक लड़की कह रही थी, बच्चों को वे मित्र लगते थे। टेलीकॉम वाले बता रहे थे वे जबर ट्रेडयूनियनिस्ट थे, दूसरे ने बताया वे श्रेष्ठ अभिनेता और नाट्यनिर्देशक थे। भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के जिला सचिव बता रहे थे वे पार्टी के पॉलिट ब्यूरो के सदस्य थे, उन के देहान्त का समाचार मिलते ही एक और पॉलिट ब्यूरो सदस्य उन की अंत्येष्टी में कोटा पहुँचे थे और जब सब लोग कह रहे थे कि कोटा और राजस्थान के जनान्दोलन की बहुत बड़ी क्षति है तो वे कहने लगे कि वे कोटा की नहीं देश भर के श्रमजीवी जन-गण की क्षति हैं। पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व उन से देशव्यापी नेतृत्वकारी भूमिका की अपेक्षा रखता था। इतने सारे तथ्य शिवराम के बारे में सामने आ रहे थे कि हर कोई चकित था। शायद कोई भी संपूर्ण शिवराम से परिचित ही नहीं था। हर कोई उन का वह दिखा रहा था जो उस ने देखा, अनुभव किया था। इन सब तथ्यों को सुनने के बाद लग रहा था कि संपूर्ण शिवराम को पुनर्सृजित कर उन्हें पहचानने में अभी हमें वर्षों लगेंगे। फिर भी बहुत से तथ्य ऐसे छूट ही जाएंगे जो शायद उन के पुनर्सर्जकों के पास नहीं पहुँच सकें। जब वे 'संपूर्ण शिवराम' का संपादन कर के उसे प्रेस में दे चुके होंगे तब, जब उस के प्रूफ देखे जा रहे होंगे तब और जब वह प्रकाशित हो कर उस का विमोचन हो रहा होगा तब भी कुछ लोग ऐसे आ ही जाएंगे जो फिर से कहेंगे, नहीं इस शिवराम को वे नहीं जानते, हम जिस शिवराम को जानते हैं वह तो कुछ और ही था। 

शिवराम को हमारे बीच से गए एक वर्ष हो चुका है। यहाँ कोटा में उन के पहले वार्षिक स्मरण के अवसर पर 1 अक्टूबर 2011 को भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड), राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र और अखिल भारतीय जनवादी युवा मोर्चा ने दोपहर एक बजे श्रद्धांजलि सभा तीन बजे 'अभिव्यक्ति नाट्य और कला मंच' के कलाकारों ने सभास्थल के बाहर सड़क पर उन के सुप्रसिद्ध नाटक "जनता पागल हो गई है" का नुक्कड़-मंचन किया। इस के बाद दूसरे सत्र में एक गोष्ठी का आयोजन किया।  प्रेस-क्लब सभागार में हुई श्रद्धांजलि सभा दिल्ली से आए मुख्य-अतिथि शैलेन्द्र चौहान द्वारा मशाल-प्रज्ज्वलन के साथ आरंभ हुई। इस सभा में हाड़ौती अंचल के विभिन्न श्रमिक कर्मचारी संगठनों एवं सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों के साथ शिवराम की माताजी और पत्नी श्रीमती सोमवती द्वारा उनके के चित्र पर माल्यार्पण कर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। सभा में उन के पुत्र रवि कुमार, शशि कुमार और डॉ. पवन अपनी भूमिकाओं के साथ उपस्थित थे। 

शैलेन्द्र चौहान ने अपने उद्बोधन में कहा कि हमें शिवराम की स्तुति करने के बजाय उनके विचारों, कार्य-पद्धति और श्रमजीवी जन-गण के प्रति समर्पण से प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होने कहा कि पुरानी जड़ परम्परा और नैतिकता के स्थान पर श्रमिकों, किसानों के जीवन के यथार्थ से जुड़ी सच्चाइयों का अध्ययन करते हुए क्रांतिकारी नैतिकता को आत्मसात करना चाहिए। क्रांतिकारी नैतिकता के बिना जन-गण के किसी भी संघर्ष को आगे बढ़ा सकना संभव नहीं है।  सफल प्रथम-सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साम्यवादी विजय शंकर झा ने कहा कि वर्तमान व्यवस्था अपने पतन के कगार पर है, व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन से ही देश की शोषित, पीड़ित जनता के जीवन में खुशहाली संभव है। शिवराम इस परिवर्तन के लिए समर्पित थे। श्रद्धांजलि-सत्र के पश्चात् शिवराम के प्रसिद्ध नाटक जनता पागल हो गई हैकी नुक्कड़ नाटक प्रस्तुति को सैंकड़ों दर्शकों ने देखा और सराहा। नाटक में रोहित पुरूषोत्तम (सरकार), आशीष मोदी (जनता), अजहर (पागल), पवन कुमार (पुलिस अधिकारी) और कपिल सिद्धार्थ (पूंजीपति) की भूमिकाओं को बेहतरीन रीति से अदा किया। लगा जैसे इसे शिवराम ने ही निर्देशित किया हो।  

साँयकालीन सत्र में साथी शिवराम के संकल्पों का भारतविषय पर मुख्य वक्ता साहित्यकार महेन्द्र नेह ने कहा कि वर्तमान दौर में  अमेरिका सहित पूरी पूंजीवादी दुनिया गहरे आर्थिक संकट में फँस गई है। हमारे देश के शासक घोटालों और भ्रष्टाचार में लिप्त होकर जन-विरोधी रास्ते पर चल पड़े हैं। आने वाले दिनों में समूची दुनिया में जन-आन्दोलन बढ़ेंगे तथा भ्रष्ट-सत्ताएं ताश के पत्तों की तरह बिखरेंगी। सत्र के अध्यक्ष आर.पी. तिवारी ने कहा कि मेहनतकश जनता का जीवन निर्वाह शासकों ने मुश्किल बना दिया है, लेकिन बिना क्रान्तिकारी विचार और संगठन के परिवर्तन संभव नहीं। दोनों सत्रों में त्रिलोक सिंह, प्यारेलाल, टी.जी. विजय कुमार, शब्बीर अहमद, विजय सिंह पालीवाल, जाकिर भाई, विवेक चतुर्वेदी, पुरूषोत्तम यकीन’, तारकेश्वर तिवारी और राजेन्द्र कुमार ने अपने विचार व्यक्त किए। संचालन महेन्द्र पाण्डेय ने किया। दोनों सत्रों के दौरान प्रसिद्ध नाट्य अभिनेत्री ऋचा शर्मा ने शिवराम की कविताओं का पाठ किया, शायर शकूर अनवर एवं रवि कुमार ने शायरी एवं कविता पोस्टर प्रदर्शनी के माध्यम से अपनी बातें कही।

2 अक्टूबर को कोटा के प्रेस क्लब सभागार में ही विकल्प’ अखिल भारतीय सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा' द्वारा जन-संस्कृति के युगान्तरकारी सर्जक साथी शिवरामएवं अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों-कलाकारों की भूमिकाविषयों पर परिचर्चाओं का आयोजन किया। कार्यक्रम का आगाज हाडौती अंचल के वरिष्ठ गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा, मदन मदिर, महेन्द्र नेह सहित मंचस्थ लेखकों ने मशाल प्रज्ज्वलित करके किया। कार्यक्रम के प्रारम्भ में ओम नागर और सी.एल. सांखला ने शिवराम के प्रति अपनी सार्थक कविताएँ प्रस्तुत की तथा ऋचा शर्मा ने शिवराम की कुछ प्रतिनिधि कविताओं का पाठ किया।

प्रथम गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार रघुराज सिंह हाड़ा ने बताया कि शिवराम का लेखन ठहराव से बदलाव की ओर ले जाने का लेखन है। उन्हों ने साहित्य के बन्धे-बन्धाए रास्तों को तोड़ कर आम जन के पक्ष में युगान्तरकारी भूमिका निभाई। मुख्य वक्ता मदन मदिर ने अपने ओजस्वी उद्बोधन में कहा कि सत्ता और मीडिया ने जनता के पक्ष की भाषा और शब्दों का अवमूल्यन कर दिया है। शिवराम ने अपने नाटकों और साहित्य में जन भाषा का प्रयोग करके अभिजनवादी संस्कृति को चुनौती दी। वे सच्चे अर्थों में कालजयी रचनाकार थे। कथाकार लता शर्मा ने कहा कि शिवराम ने अपनी कला का विकास उस धूल-मिट्टी  और जमीन पर किया जिसे श्रमिक और किसान अपने पसीने से सींचते हैं। उनका लेखन उनकी दुरूह यात्रा का दस्तावेज है। डॉ. फारूक बख्शी ने फैज अहमद फैज की गज़लों के माध्यम से शिवराम के लेखन की ऊँचाई को व्यक्त किया। डॉ. रामकृष्ण आर्य ने शिवराम को एक निर्भीक एवं मानवतावादी रचनाकार बताया। टी.जी. विजय कुमार ने उन्हे संघर्षशील एवं विवेकवान लेखक की संज्ञा दी। प्रथम सत्र का संचालन महेन्द्र नेह ने किया।

दूसरे सत्र में अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों-कलाकारों की भूमिकाविषय पर आयोजित परिचर्चा का आरंभ संचालक शकूर अनवर ने गालिब की शायरी के माध्यम से अपने समय की यथार्थ अक्कासी और आजादी के पक्ष में शिवराम की भूमिका को खोल कर किया। सत्र की अध्यक्षता करते हुए दिनेशराय द्विवेदी ने कहा कि शिवराम की भूमिका स्पष्ट थी, उन के संपूर्ण कर्म का लक्ष्य जन-गण की हर प्रकार के शोषण की मुक्ति था। उन्हों ने अपने नाट्यकर्म, लेखन, संगठन और शोषित पीड़ित जन के हर संघर्ष में उपस्थिति से सिद्ध किया कि साहित्य युग परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभा सकता है। लेखकों और कलाकारों को जन-गण के पक्ष में रचनाकर्म करना ही नहीं है, प्रेमचंद की तरह उसे जनता तक पहुँचाने की भूमिका भी खुद ही निबाहनी होगी। मुख्य वक्ता श्रीमती डॉ. उषा झा ने अपने लिखित पर्चे में साहित्य की युग परिवर्तनकारी भूमिका को कबीर, निराला, मुक्तिबोध आदि कवियों के उद्धरणों से सिद्ध किया।  अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि बाजारवाद ने हमारे साहित्य एवं जन-संस्कृति को सबसे अधिक हानि पहुँचाई है। नारायण शर्मा ने कहा कि जब प्रकृति क्षण-क्षण बदलती है तो समाज को क्योंकर नही बदला जा सकता ? रंगकर्मी संदीप राय ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि नाटक जनता के पक्ष में सर्वाधिक उपयोगी माध्यम है। प्रो. हितेश व्यास ने कहा कि शिवराम ने विचलित कर देने वाले नाटक लिखे और प्रतिपक्ष की उल्लेखनीय भूमिका निभाई। अरविन्द सोरल ने कहा कि समय की निहाई पर शिवराम के लेखन का उचित मूल्यांकन होगा।

प्रसिद्ध चित्रकार व कवि रवि कुमार द्वारा शिवराम की कविताओं की पोस्टर-प्रदर्शनी को नगर के प्रबुद्ध श्रोताओं, लेखकों, कलाकारों ओर आमजन ने सराहा। विकल्पकी ओर से अखिलेश अंजुम ने सभी उपस्थित जनों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।     
जनता पागल हो गई है' नाटक की एक प्रस्तुति

मंगलवार, 7 जून 2011

सरकारों और सत्ताओं को सोचना चाहिए कि तब उन का क्या होगा?

जमा अच्छा लगाया गया था। हर काम लाजवाब था। बड़ा मैदान बुक था, योग शिक्षा के लिए। वहीं अनशन होना था। वायु मार्ग से बाबा राजधानी पहुँचे। सत्ता के चार-चार नवरत्नों ने अगवानी की। बहुत मनाया। पर कसर रह गई। पाँच सितारा में फिर मनौवल चली। क्या बात हुई? क्या सहमति बनी किसी को नहीं बताया। बताया तो सिर्फ इतना कि अनशन होगा। अनशन हुआ तो दिन भर इधर से उधर, उधर से इधर फोन घनघनाते रहे। शाम को जय हो गई। सत्ता ने ज्यादातर मांगे मान ली हैं। शामियाना उल्लास से भर गया। तब सत्ता ने बताया कि जय तो कल ही हो गई थी। बाबा ने दोपहर तक अनशन और दो दिन तप करने का वायदा किया था। वायदा नहीं निभाया। लिखित चिट्ठी पढ़ दी गई। बाबा बैक फुट पर आ गए। संफाई पर सफाई देते रहे। कहते रहे -सत्ता ने उन के साथ धोखा किया। बाबा के सिर मुंढाते ही ओले पड़े। बाबा ने जनता का विश्वास खोया। बाबा ने को राजनीति का पहला सबक मिला। सत्ता के विश्वास से जनता का विश्वास बड़ा है। उसे जीतने की जल्दी में अनशन पर डट गए। जनता का  विश्वास तो जा ही चुका था। अब सत्ता का विश्वास भी गया।

नता जब विश्वास करती है तो आँख मूंद कर करती है। लेकिन जब उस का विश्वास टूटता है तो फिर से वापस वह विश्वास करे। यह आसान नहीं है। जनता का विश्वास हटते ही, सत्ता ने अपनी नंगई दिखाई। आधी रात के बाद हमला हुआ। पुलिस बाबा तक पहुँचे उस से पहले ही बाबा जनता के बीच कूद पड़े। पर देर हो चुकी थी। जनता भी घिरी पड़ी थी। कितना ही प्रयास किया। कपड़े बदले, वेष बदले पर पकड़े गए और सत्ता ने उन्हें उसी बदले वेष में राजधानी के बाहर कर दिया। सरकार के इस बेवकूफी और बर्बर तरीके की आलोचना आरंभ हो गई। जो जो सरकार से खार खाए बैठा था। वही उस के खिलाफ बोलने लगा। बाबा समझे उनको समर्थन है। वे राजधानी के अंदर नहीं तो परकोटे के बाहर बैठने चले। पर जिस ने जनता का विश्वास खोया, जिस ने सत्ता का विश्वास खोया। उसे कोई कैसे पनाह दे? सो बाबा वापस अपने घर लौटा दिए गए। अब वे वापस विश्वास जीतने बैठे हैं। लेकिन दुबारा विश्वास जीत पाएंगे या नहीं यह तो भविष्य ही बताएगा। यह सब से बड़ा योग है जिसे बाबा को अभी सीखना शेष है। 

रकार सिर्फ अपने आकाओं की सगी होती है। लेकिन आका तभी तक उसे पालते हैं जब तक वह जनता को भ्रम में रख पाती है। जनता के विश्वास को झटका देते ही सरकार ने बाबा पर हमला बोला। वह भी इस बेवकूफी के साथ कि बाबा के साथ-साथ जनता भी चपेट में आई। सरकार कहती है कि बाबा ने वादा तोड़ा। योगकक्षा के लिए अनुमति ले कर अनशन किया। अनुमति रद्द कर दी। उन्हें हटाना जरूरी था। हम मान सकते हैं कि उन्हें हटाना जरूरी था। लेकिन वहाँ इकट्ठे लोगों का क्या कसूर था? या तो वे योग कक्षा में आए थे, या फिर अनशन पर बैठने, या फिर दिन भर की पगार कमाने। उन पर लाठी की जरूरत क्या थी। उस के पास  दिल्ली और केंद्रीय सत्ता की ताकत थी। पाँच हजार जवानों ने मैदान को घेरा था। अंदर निहत्थे लोग थे, बुजुर्ग, महिलाएँ और बच्चे। क्या जरूरत थी उन्हें जबरन वहाँ से हटाने की? आप के पास माइक भी जरूर रहे होंगे। आप के पास निकट ही सैंकड़ों बसें भी खड़ी थीं। उन्हें भी लगाया जा सकता था। घेरने के बाद यह घोषणा भी की जा सकती थी कि रामलीला मैदान का जमाव अवैध घोषित कर दिया गया है। वहाँ आयोजन की अनुमति रद्द कर दी गई है। सब वहाँ से हट जाएँ। सरकार ने उन्हें वापस उन के घरों तक पहुँचाने की व्यवस्था कर दी है। जो स्टेशन जाना चाहे स्टेशन तक पहुँचाया जाएगा। जो बस स्टेंड जाना चाहे उसे बस स्टेंड पहुँचाया जाएगा। जब तक लोगों के घर जाने का साधन न हो जाए तब तक उन के ठहरने खाने की व्यवस्था कर दी गई है। घिरे हुए लोगों को समय देते कुछ सोचने का। निहत्थे बुजुर्ग, महिलाएँ और बच्चे क्या कर लेते? 

र सरकार ने जनतंत्र का पाठ सीखा ही कहाँ है? तिरेसठ सालों में भी अंग्रेजों की विरासत ही ढोई जा रही है। उन्हीं का मार्ग नजर आता है। सरकार को जनता चार बरस तक कहाँ दिखाई देती है? वह तो सिर्फ चुनाव के साल में नजर आती है। सरकार को सिर्फ बाबा दिखाई दिए। उन को हवाई जहाज में बिठा कर उन के घर पहुँचाया। जनता दिखाई देती तो उसे पहुँचाते। सरकार सोचती है कि जनता में दिमाग नहीं होता। वह कभी सोचती नहीं। लेकिन वह सोचती भी है और जब वक्त आता है तो कर भी गुजरती है। जनता तो उस के पीछे जाएगी जो उस की बात करेगा और जो विश्वसनीय होगा। वह धोखा खाएगी तो फिर नया तलाश लेगी। लेकिन वह सोचेगी भी और करेगी भी। कोई विश्वास के काबिल न मिला तो अपने अंदर से पैदा कर लेगी। जब वह अपने अंदर से अपना नेता पैदा कर लेगी तब? सरकारों और सत्ताओं को सोचना चाहिए कि तब उन का क्या होगा? देर भले ही हो, पर किसी दिन यह जरूर होगा।

रविवार, 5 जून 2011

जन नेता अवतार नहीं लेते

ल और आज जो कुछ देश की राजधानी में हुआ वह सब ने देखा-सुना है। उस पर तबसरा करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। वैसे भी इन घटनाओं पर मैं ने अपनी राय अपनी पिछली पोस्ट छोटा भाई बड़े भाई से बड़ा हथियार जमीन पर रखवा कर कुश्ती लड़ना चाहता है में आप के सामने रखी थी। बाद में खुशदीप भाई ने अपनी राय देशनामा में व्यक्त की थी। वहाँ मैं ने अपनी राय अभिव्यक्त करते हुए अंकित करते हुए लिखा था, बहुतों की निगाह में बाबा भगवान से कम नहीं। आप बेकार ही उन्हें नाराज कर रहे हैं। दो दिन में सच सामने आ जाएगा। आप, हम और डाक्टर अमर कुमार जैसे लोगों फोकट जुगाली कर रहे हैं। उस टिप्पणी के बाद आठ घंटों में ही सारा सच सामने आ गया। 

हाँ तक सरकार के चरित्र का प्रश्न है, उस मामले में मुझे कोई मुगालता नहीं है। यह सरकार और देश की लगभग सभी राज्य सरकारें। बहुराष्ट्रीय निगमों, देशी पूंजीपतियों और देश की बची-खुची सामंती ताकतों का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे उन्हीं के हित साधती हैं। जनता से उन का लेना-देना सिर्फ वोट प्राप्त कर के सरकार बनाने और या फिर कानून व्यवस्था तक सीमित है। कानून व्यवस्था भी ऐसी कि उन के इन आकाओं को कोई हानि नहीं पहुँचे। जब भी जनता का गुस्सा उबाल पर होती है और इन तीन आकाओं के हित संकट में होते हैं तो सरकार तानाशाही की ओर कदम उठाने से कभी नहीं हिचकती। उस ने कल और आज जो कुछ किया वह उस के चरित्र के अनुरूप ही था। यह अवश्य कि जो कुछ उसे सफाई के साथ करना चाहिए था वह उस ने बहुत बेतरतीबी के साथ किया। अब जनता यदि गुस्से में आती है और एक संगठित प्रतिरोध निर्मित होता है तो उस का श्रेय किसी विपक्षी नेता या आंदोलनकारी के अपेक्षा सरकार को ही अधिक जाएगा। आखिर उस ने काम ही इतने बेकार तरीके से किया है कि यह सब तो आने वाले दिनों में होना है।  जहाँ तक बाबा और उन के आंदोलन का सवाल है उस पर भाई प्रवीण शाह ने अपनी पोस्ट अनशन पर बाबा, सिस्टम का पलटवार और इस बार तो निराश ही किया योगऋषि ने... (भाग-२) में सटीक  टिप्पणी की है। रही सही कसर मनु श्रीवास्तव ने अपनी पोस्ट राम (देव) लीला !!! में पूरी कर दी है। उस के आगे मुझे कुछ नहीं कहना है। 

मुझे सिर्फ इतना कहना है कि भ्रष्टाचार उक्त तीनों आकाओं की सत्ता के लिए रक्त के समान है यह सत्ता उसी से साँस लेती है। यदि उस का रक्त निचोड़ लिया जाए तो वह एक क्षण के लिए भी जीवित नहीं रह सकती। इसलिए यह समझना कि भ्रष्टाचार लोकपाल कानून लाने से समाप्त हो जाएगा  या फिर सरकार द्वारा कुछ मांगे मान लेने से उस की विदाई निश्चित हो जाएगी बहुत बड़ी नासमझी है। यदि भ्रष्टाचार समाप्त करना है तो उस के लिए समूची व्यवस्था को बदलना होगा। मौजूदा व्यवस्था का स्थान एक नई व्यवस्था ले, तभी यह संभव है। लेकिन जब व्यवस्था बदलती है तो उसे हम क्रांति कहते हैं। इस काम को जनता एक व्यापक और सुसंगठित संगठन के नेतृत्व में ही कर सकती है। इस संगठन का निर्माण भी जनता ही करती है। परिस्थितियाँ ऐसे संगठन को फलने फूलने और आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करती है। वर्तमान में ऐसे व्यापक संगठन का अभाव देश में देखा जा सकता है। हालाँकि बहुत छोटे और स्थानीय स्तर पर ऐसे संगठन देश के सभी भागों में देखे जा सकते हैं। जनता के ऐसे संगठन जिन का संचालन संगठन के सदस्यों द्वारा जनतांत्रिक ढंग से किया जाता है उन का निर्माण आवश्यक है। इस लिए सब से प्राथमिक बात यह है कि हम जहाँ भी रह रहे हैं वहाँ जनता के जनतांत्रिक संगठनों का निर्माण करें, उन्हें पालें पोसें और उन का विस्तार करें। आगे चल कर देश के सैंकड़ों हजारों ऐसे ही जनतांत्रिक संगठन आपस में मिल कर बड़े और व्यापक संगठन का निर्माण कर सकते हैं। ऐसे ही संगठन के नेतृत्व में जनता व्यवस्था परिवर्तन के ऐतिहासिक काम को पूरा करेगी। जहाँ तक नेता का प्रश्न है तो वे अवतार नहीं लेते, उन का निर्माण संघर्ष और जनता की कड़ी अग्निपरीक्षा में तप कर होता है। वे भी जनता के बीच से जनसंघर्षों की आग में तप कर ही जन्म लेंगे। 

गुरुवार, 5 मई 2011

परिकल्पना सम्मान : लोकसंघर्ष के जनसंघर्ष से साहित्य निकेतन की उत्तर आधुनिकता तक

मुख्यमंत्री 'निशंक' की प्रतीक्षा में समारोह पौने दो घंटे देरी से चल रहा है। जैसे ही यह बात मैं ने नजदीक बैठे शाहनवाज को कही, उन्हों ने चिंता से कहा। आगे के कार्यक्रमों का पता नहीं क्या होगा। अभी अभी हिन्दी साहित्य निकेतन की 50 वर्ष की विकास यात्रा का पावर पाइंट देखा था। मेरी आँखों के सामने परिकल्पना  सम्मान की विकास यात्रा गुजरने लगी ... इस सम्मान 2010 की घोषणा 9 जुलाई 2010 को परिकल्पना ब्लाग पर तथा 10 जुलाई 2010 को लोकसंघर्ष ब्लाग पर आई पोस्टों पर हुई थी। तब यह लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान था और श्रेष्ठ सृजनकारों से रूबरू कराने हेतु ब्लाग पोस्टों की एक श्रंखला मात्र थी। लोकसंघर्ष जनसंघर्ष को समर्पित एक वामपंथी पत्रिका और ब्लाग है। इस से लगा था कि इस सम्मान की आधारशिला सामाजिक यथार्थ और संघर्षशील जनता की संस्कृति के इर्द-गिर्द रहेगी। फिर 12 जुलाई 2010 से परिकल्पना और ब्लोगोत्सव-२०१० ब्लागों पर प्रतिदिन एक ब्लागर को पुरस्कार घोषित होने लगा और इन ब्लागों पर एक सम्मान पत्र प्रकाशित किया जाता। यह ब्लागजगत की आभासी दुनिया में ब्लागरों का आभासी सम्मान था। ब्लागर इस सम्मान से रोमांचित और प्रसन्न भी थे। यह सिलसिला करीब दो माह वर्ष के श्रेष्ठ ब्लागर का सम्मान घोषित होने तक चलता रहा।  इस के कुछ दिन बाद ब्लाग विश्लेषण की श्रंखला आरंभ हो गई जो काफी लोकप्रिय हुई। फिर अचानक 9 मार्च 2011 को परिकल्पना पर ही घोषणा हुई कि "हिन्‍दी ब्‍लॉगरों, प्रेमियों, साहित्‍यकारों : 30 अप्रैल 2011 को दिल्‍ली के हिन्‍दी भवन में मिल रहे हैं। इस घोषणा में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि हिन्दी साहित्य निकेतन 50 वर्षों की अपनी विकास-यात्रा और गतिविधियों को आपके समक्ष प्रस्तुत करने के लिए 30 अप्रैल २०११ दिन शनिवार को दिल्ली के हिंदी भवन में एक दिवसीय भव्य आयोजन कर रहा है।"


हाँ यह भी कहा गया था कि "इस अवसर पर देश और विदेश में रहने वाले लगभग 400 ब्लॉगरों का सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है, जिसमें परिकल्‍पना समूह के तत्‍वावधान में इतिहास में पहली बार आयोजित ब्लॉगोत्‍सव 2010 के अंतर्गत चयनित 51 ब्लॉगरों का ‘सारस्‍वत सम्मान’ भी किया जाएगा। इस अवसर पर लगभग 400 पृष्ठों की पुस्तक ( हिंदी ब्लॉगिंग : अभिव्यक्ति की नई क्रान्ति), हिंदी साहित्य निकेतन की द्विमासिक पत्रिका ‘शोध दिशा’ का विशेष अंक ( इसमें ब्लॉगोत्सव -२०१० में प्रकाशित सभी प्रमुख रचनाओं को शामिल किया गया है) मेरा (रविन्द्र प्रभात का) उपन्यास (ताकि बचा रहे गणतंत्र ), रश्मि प्रभा के संपादन में प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका (वटवृक्ष ) के प्रवेशांक के साथ-साथ और कई महत्वपूर्ण किताबों का लोकार्पण होना है ! इस कार्यक्रम में विमर्श,परिचर्चाएँ एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आकर्षण का केंद्र होंगे। पूरे कार्यक्रम का जीवंत प्रसारण इंटरनेट के माध्यम से पूरे विश्व में किया जाएगा।" कार्यक्रम का समय शनिवार 30 अप्रैल 2011, दोपहर 3 बजे से रात्रि‍ 8.30 बजे तक घोषित किया गया था उस के उपरान्त रात्रि‍ 8 .30 बजे भोजन होना था।

जितनी बड़ी घोषणाएँ की गई थीं उस के हिसाब से समस्त कार्यक्रम के लिए डेढ़ दिनों में चार सत्र वांछित थे। इन कार्यक्रमों को इस से कम समय देना उन के साथ अन्याय होता। लेकिन जैसी हमारी आदत है हम दो सवारी के लिए बनी बाइक पर पत्नी और तीन और कभी कभी चार बच्चों को सवारी करा सकते हैं, लाइन की बस का कंडक्टर सवारियों को बस में उसी तरह ठूँस सकता है जैसे आटा चक्की वाला आटे को लकड़ी के डंडे से ठोक-ठोक कर ठूँसता है, यह महसूस हो गया था कि कार्यक्रम साढ़े पाँच घंटे के समय में जबरन ठूँसा जाएगा। तब किस के साथ न्याय होगा और किस के साथ अन्याय? यह अनुमान करना दुष्कर था। तब यह भी पता नहीं था कि कार्यक्रम के मुख्य, विशिष्ठ अतिथि, अध्यक्ष आदि कौन हो सकते हैं। लेकिन इतना जरूर अनुमान हो चला था कि उस दिन चार सौ नहीं तो कम से कम सौ-डेढ़ सौ ब्लागर देश के विभिन्न हिस्सों से दिल्ली में अवश्य एकत्र होंगे। मैं ने डायरी मैनेज की और एक दिन पहले शुक्रवार 29 अप्रेल को कोई काम नहीं रखा। मुझे पूरे तीन दिन मिल रहे थे। मेरा दिल्ली आने का मन बन चुका था, लेकिन मैं इसे पूरी तरह व्यक्तिगत यात्रा बनाना चाहता था और मैं ने किसी को भी सूचित नहीं किया कि मैं दिल्ली पहुँच रहा हूँ। बाद में लोकसंघर्ष पत्रिका/ब्लाग के रणधीर सिंह की एक पोस्ट हमारीवाणी ई-पत्रिका प्रकाशित हुई जिस में इसी कार्यक्रम की घोषणा की और उसी के साथ एक निमंत्रण पत्र भी प्रकाशित किया गया जो ब्लागरों को ई-मेल से भी प्रेषित किया गया। इस निमंत्रण पत्र में सूचित किया गया था कि कार्यक्रम 30 अप्रेल को 4.00 बजे आरंभ होगा तथा 6.00 बजे समाप्त होगा। चाय के बाद दूसरा सत्र 6.30 पर आरंभ होगा जिस में  हिन्दी साहित्य निकेतन की विकास यात्रा, पुस्तकों का लोकार्पण तथा हिन्दी ब्लागरों का सारस्वत सम्मान किया जाएगा इस कार्यक्रम का उद्घाटन उत्तराखंड के मुख्य मंत्री निशंक व अध्यक्षता अशोक चक्रधर करेंगे, रामदरश मिश्र व अशोक बजाज मुख्य और विशिष्ठ अतिथि होंगे तथा प्रेम जनमेजय और विश्वबंधु गुप्ता का सानिध्य रहेगा।  दूसरे सत्र में "न्यू मीडिया की भूमिका" विषय पर संगोष्ठी होनी थी जिस की अध्यक्षता प्रभाकर श्रोत्रीय को करनी थी, मुख्य अतिथि पुण्य प्रसून वाजपेयी व विशिष्ठ अतिथि उदयप्रकाश घोषित किए गए थे तथा मनीषा कुलश्रेष्ठ, अजीत अंजुम व देवेंद्र देवेश का सानिध्य रहना  था। इस घोषणा के साथ ही सम्मान समारोह की आगे की रूपरेखा में सुमन जी की भूमिका समाप्त प्रायः हो गई थी। एक तरह से यह परिकल्पना सम्मान को उत्तर-आधुनिकता प्रदान करने के लिए सुमन जी का नाइस प्रमाणपत्र था।  इस के साथ ही लोकसंघर्ष का नाम भी समारोह के हर दृश्य से गायब हो चुका था। सम्मान प्रकल्प जनसंघर्ष से आरंभ हो कर उत्तर-आधुनिक युग में प्रवेश कर चुका था।  

दीपिका गोयल
चित्र सौजन्य: पद्म सिंह
मारोह के आरंभ के पूर्व जो अघोषित कार्यक्रम चल रहा था उस का संयोजन रविन्द्र प्रभात के कुशल हाथों में था। लेकिन जैसे ही निशंक जी के द्वार तक पहुँचने की सूचना आयोजकों को प्राप्त हुई कार्यक्रम का संचालन रविन्द्र प्रभात जी के हाथों से हिन्दी साहित्य निकेतन के सचिव की पुत्री दीपिका गोयल के सिद्ध हाथों में चला गया।  मंच के नीचे हॉल में ही उद्घाटन कर्ता व अन्य अतिथियों का स्वागत किया गया और उन्हें मंच के स्थान पर दर्शकों की पहली पंक्ति में बैठने को कहा गया। इस का कारण हिन्दी साहित्य निकेतन की 50 वर्षों की विकास यात्रा पर दीपिका गोयल की पॉवर पाइंट प्रेजेण्टेशन की प्रस्तुति रही जिसे उन की मधुर आवाज में रिकार्ड किया गया था। हॉल की बत्तियाँ बुझा दी गई और प्रेजेण्टेशन आरंभ हुआ। यह चित्रमय और काव्यमय प्रस्तुति अद्भुत थी। निस्सन्देह इस पर कड़ा श्रम किया गया था जिस का काव्य संयोजन स्पष्टतः अशोक चक्रधर का था, हालाँकि इस का श्रेय गीतिका गोयल ने प्राप्त किया।  पावर पाइंट प्रस्तुति ने सभी को प्रभावित किया। इस के बाद जब बत्तियाँ पुनः रोशन हुई तो छह बज कर कुछ मिनट हो रहे थे। पहले कार्यक्रम का समय समाप्त हो कर चाय का समय था लेकिन कार्यक्रम तो अब आरंभ हो रहा था। उद्घाटनकर्ता व अन्य अतिथिगण मंच पर जा कर अपना स्थान ग्रहण कर रहे थे।