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मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

राज्य, उत्पीड़ित वर्ग के दमन का औजार : बेहतर जीवन की ओर -16

स श्रंखला की छठी कड़ी में ही हम ने यह देखा था कि मानव गोत्र समाज वर्गों की उत्पत्ति के उपरान्त वर्गों के बीच ऐसे संघर्ष को रोकने के लिए एक नई चीज सामने आती है। यह नई चीज आती समाज के भीतर से ही है लेकिन वह समाज के ऊपर स्थापित हो जाती है और स्वयं को समाज से अलग चीज प्रदर्शित करती है। यह नई चीज राज्य था। राज्य की उत्पत्ति इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि समाज ऐसे अन्तर्विरोधों में फँस गया है जिन्हें हल नहीं किया जा सकता, जिन का समाधान असंभव है। विरोधी आर्थिक हितों वाले वर्गों व्यर्थ के संघर्ष में पूरे समाज को नष्ट न कर डालें इस लिए इस संघर्ष को व्यवस्था की सीमा में रखे जाने का कार्यभार यह राज्य उठाता है, यही राज्य की ऐतिहासिक भूमिका है। इस तरह हम देखते हैं कि राज्य असाध्य वर्गविरोधों की उपज और अभिव्यक्ति है। राज्य उसी स्थान, समय और सीमा तक उत्पन्न होता है जहाँ, जिस समय, जिस सीमा तक वर्गविरोधों का  समाधान असम्भव हो जाता है। 

हाँ यह भ्रम उत्पन्न किए जाने की पूरी संभावना है कि यह कहना आरंभ कर दिया जाए कि वस्तुतः राज्य वर्गीय समन्वय के लिए एक औजार है। इस संभावना का इतिहास में अनेक राजनीतिकों ने भरपूर उपयोग किया और लगातार किया भी जा रहा है। लेकिन यह केवल भ्रम मात्र ही है कि राज्य वर्गीय समन्वय का औजार है। यदि उसे औजार मान भी लिया जाए तो यह बिलकुल इस्पात की उस आरी की तरह है जिस से हीरे को तराशने का काम लिया जा रहा हो। अव्वल बात तो यह है कि वर्गीय समन्वय बिलकुल असंभव है, यदि यह संभव होता तो राज्य के उत्पन्न होने और कायम रहने की आवश्यकता ही नहीं थी। वस्तुतः राज्य वर्ग प्रभुत्व का औजार है और एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के उत्पी़ड़न का अस्त्र है।  वह ऐसी व्यवस्था का सृजन है जो वर्गीय टकरावों को मंद कर के इस उत्पीड़न को कानूनी रूप प्रदान कर मजबूत बनाती है। कानूनी उत्पीड़न को बनाए रखने के लिए उसे सशस्त्र संगठनों की आवश्यकता होती है। 

गोत्र समाज में आबादी के स्वतः कार्यकारी सशस्त्र संगठन बनते थे। ये संगठन बाहरी लोगों से झगड़ों को सुलझाने के अंतिम उपकरण के रूप में उत्पन्न हो कर कार्य संपादन करते थे और जैसे ही कार्य संपादित हो चुका होता था .ये संगठन आम लोगों में परिवर्तित हो जाते थे। लेकिन जैसे ही वर्ग उत्पन्न हो गए इस तरह के स्वतः कार्यकारी संगठन असंभव हो गए। वैसी स्थिति में एक सार्वजनिक सत्ता की स्थापनी की गई जिस में न केवल सशस्त्र दल ही नहीं, जेलखाने, पुलिस, विभिन्न प्रकार की दमनकारी संस्थाएँ और भौतिक साधन भी सम्मिलित किए गए जिन का गोत्र समाज में कोई स्थान नहीं था। स्थाई फौज और पुलिस राज्य सत्ता के मुख्य उपकरण हो गए। 

लेकिन अपनी पहल पर काम करने वाली आबादी का सशस्त्र संगठन क्या संभव रह गया था? समाज के वर्गों में बँट जाने से जिस सभ्य समाज की स्थापना हुई थी वह शत्रुतापूर्ण बल्कि असाध्य रूप से शत्रुतापूर्ण वर्गों में बँटा हुआ था जिस में अपनी पहल पर काम करने वाली आबादी की हथियार बंदी से वर्गों के बीच सशस्त्र संघर्ष छिड़ जाता। इसी चीज को रोकने के लिए तो समाज के भीतर से राज्य की उत्पत्ति हुई थी। इस कारण राज्य को ऐसा संगठन चाहिए था जो अपनी पहल पर काम करने के स्थान पर उस के इशारे पर काम करे। लेकिन बावजूद इस के कि राज्य के पास फौज, पुलिस, जेलें और अन्यान्य दमनकारी संस्थाएँ थी, वह कभी भी वर्ग समन्वय में कामयाब नहीं हो सका। समय समय पर समाज में क्रांतियाँ हुईं जिन्हों ने समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग के इशारे पर काम करने वाले राज्य के उस ढाँचे को तोड़ डाला। लेकिन जो भी नया वर्ग प्रभुत्व में आया उसी ने फिर से अपनी सेवा करने वाले हथियारबंद लोगों के संगठनों को फिर से कायम करने के प्रयत्न किए और उन्हें कायम किया। केवल यह अकेली बात ही यह साबित करती है कि राज्य वस्तुतः उत्पीड़क वर्ग/वर्गों का उत्पी़ड़ित वर्गों पर प्रभुत्व बनाए रखने का औजार मात्र है। 

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

लालच, विकास की मूल प्रेरणा : बेहतर जीवन की ओर-15

ब तक हम ने देखा कि मनुष्य का जीवन बेहतर तभी हो सकता था जब कि उसे पर्याप्त भोजन, आवास और वस्त्र मिल सकें। प्रकृति में शारीरिक रुप से अत्यन्त कमजोर प्राणी को ये सब आसानी से प्राप्त होने वाली नहीं थीं। अपने प्राणों की रक्षा के लिए किए गए श्रम ने ही उसे वानर से मनुष्य बनाया था। इसी श्रम ने उस के मस्तिष्क को अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक विकसित किया। वह औजारों का निर्माण और उपयोग करने लगा और धीरे धीरे पशुपालन के साथ ही उस ने जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएँ सीधे प्रकृति से प्राप्त करने के स्थान पर उन का उत्पादन करना आरंभ किया और कालान्तर में उत्पादन का विकास भी। उत्पादन के विकास के आरंभिक चरण में ही उस की श्रम शक्ति इस योग्य बन गई थी कि वह जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक से काफी अधिक पैदा करने लगा था। इसी अवस्था में श्रम-विभाजन और व्यक्तियों के बीच उत्पादन के विनिमय का आरंभ हुआ। लेकिन कुछ समय बाद ही उस ने मनुष्य को दास बना कर यह आविष्कार भी कर लिया कि मनुष्य स्वयं भी माल हो सकता है और उस का विनिमय भी किया जा सकता है। विनिमय के प्रारंभिक चरण में ही मनुष्यों का भी विनिमय आरंभ हो गया। यह मनुष्य समाज का शोषित और शोषक वर्गों में पहला बड़ा विभाजन था। दास-प्रथा के रूप में शोषण का यह रूप मध्ययुग में भूदास-प्रथा  और आज उजरती श्रम की प्रथाओं में परिवर्तित हो चुका है। 

भ्यता का युग माल उत्पादन की जिस स्थिति में आरंभ हुआ था उस में धातु की मुद्रा का प्रयोग होने लगा था और मुद्रा, पूंजी, सूद और सूदखोरी का चलन हो गया। उत्पादकों के बीच बिचौलिए व्यापारी आ खड़े हुए। भूमि पर निजि स्वामित्व स्थापित हो गया और रहन की प्रथा का प्रचलन आरंभ हो गया। दास श्रम उत्पादन का मुख्य रूप हो गया। इसी के साथ परिवार का रूप भी बदला वह एकनिष्ठ परिवार में परिवर्तित हो गया जिस में स्त्री पर पुरुष का प्रभुत्व स्थापित हुआ और प्रत्येक परिवार समाज की एक आर्थिक इकाई हो गया। समाज को जोड़ने वाली शक्ति के रूप में राज्य सामने आया जो वस्तुतः केवल शासक वर्ग का राज्य होता है और जो मूल रूप से उत्पीड़ित शोषित वर्गों को दबा कर रखने के का एक औजार मात्र है। सामाजिक श्रम विभाजन के रूप में नगर और गाँवों में स्थाई रूप से विरोध स्थापित हो गया। दूसरी ओर वसीयत की प्रथा आ गई जिस के माध्यम से सम्पत्ति का स्वामी अपनी मृत्यु के बाद भी अपनी संपत्ति का इच्छानुसार निपटारा कर सकता है। य़ह प्रथा पुराने गोत्र समाज के पूरी तरह प्रतिकूल थी जिस में संपत्ति गोत्र के बाहर नहीं जा सकती थी। 

न तमाम प्रथाओं की सहायता से सभ्यता ने वे सभी महान कार्य कर दिखाए जो गोत्र समाज की सामर्थ्य में नहीं थे। लेकिन ये सब काम उस ने मनुष्य की सब से निम्न कोटि की मनोवृत्तियों और आवेगों को उभारते हुए तथा उस की तमाम अन्य क्षमताओं को हानि पहुँचाते हुए किए। सभ्यता के उदय से आज तक लालच ही उस के मूल में रहा है। बस धन अर्जित करना, और अधिक धन अर्जित करना जितना अधिक किया जा सके उतना धन अर्जित करना। लेकिन स्थाई मनुष्य समाज का धन नहीं, एक अकेले व्यक्ति का धन। उस व्यक्ति का धन जिस का जीवन केवल कुछ दिनों, कुछ महिनों या कुछ सालों का है। बस यही सभ्यता का एक मात्र निर्णायक उद्देश्य हो गया। यदि इस के साथ विज्ञान का विकास भी होता रहा और समय समय पर कला के उच्च विकसित युग भी आते रहे तो मात्र इस लिए कि  धन इकट्ठा करने में जो सफलताएँ प्राप्त हुई हैं वे सब विज्ञान और कला की इन उपलब्धियों के बिना प्राप्त करना संभव नहीं था।

शनिवार, 12 नवंबर 2011

संयोग, अंधनियम और तूफान : बेहतर जीवन की ओर-14

म तौर पर राज्य को आज मनुष्य समाज के लिए आवश्यक माना जाता है और उस के बारे में यह समझ बनाई हुई है कि वह मनुष्य समाज में सदैव से विद्यमान था। लेकिन हम ने पिछली कुछ कड़ियों में जाना कि यह हमेशा से नहीं था। ऐसे समाज भी हुए जिन में राज्य नहीं था, उन्हों ने उस के बिना भी अपना काम चलाया। ऐसे समाजों को राज्य और राज्यसत्ता का कोई ज्ञान नहीं था। आर्थिक विकास और श्रम विभाजन की एक अवस्था में जब अतिरिक्त उत्पादन होने लगा और उस का विपणन होने लगा तो नगर विकसित हुए। इन नगरों में केवल एक गोत्र, बिरादरी या कबीले के लोग नहीं रह गए थे। वहाँ अनेक लोग ऐसे भी आ गए जो इन से अलग थे। वैसी अवस्था में उत्पन्न वर्गों और उन के बीच के संघर्ष को रोकने के लिए राज्य की अनिवार्य रूप से उत्पत्ति हुई। राज्य की उत्पत्ति से ही वर्तमान इतिहास सभ्यता के युग का आरंभ भी मानता है। इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि सभ्यता समाज के विकास की ऐसी अवस्था है जिस में श्रम विभाजन, उस के परिणाम स्वरूप होने वाला उत्पादों का विनिमय और इन दोनों चीजों को मिलाने वाला माल उत्पादन जब अपने चरम पर पहुँच जाते हैं तो वे पूरे समाज को क्रांतिकारी रुप से बदल डालते हैं। 
भ्यता के पहले समाज की सभी अवस्थाओं में उत्पादन मूलभूत रूप से सामुहिक था और उसे इसीलिए उपभोग के लिए छोटे-बड़े आदिम सामुदायिक कुटुम्बों में सीधे सीधे बाँट लिया जाता था। साझे का यह उत्पादन अत्यल्प होता था लेकिन तब उत्पादक उत्पादन प्रक्रिया के और उत्पाद के खुद मालिक होते थे। वे जानते थे कि उन के उत्पादन का क्या होता है, वे स्वयं उस का उपभोग करते थे और वह उन के स्वयं के हाथों में रहता था। जब तक उत्पादन उत्पादकों के नियंत्रण में रहा ऐसी कोई शक्ति खड़ी नहीं कर सका जैसी शक्तियाँ सभ्यता के युग में नियमित रूप से खड़ी होती रहती हैं। 

ब उत्पादन अपनी आवश्यकता और उपभोग के स्थान पर विनिमय के लिए होने लगा तो पैदावार एक हाथ से निकल कर दूसरे हाथ तक जाने लगी। अब उत्पादक नहीं जानता कि उस की पैदावार का क्या हुआ। जैसे किसान समर्थन मूल्य पर बिके अनाज के बारे में तब तक ही जानता है जब तक कि उसे वह बेच नहीं देता है। बाद में तो उसे अखबार से ही खबर मिलती है कि कितना अनाज रखरखाव के अभाव में सड़ गया है। मुद्रा और व्यापारी बीच में आ कर खड़े हो जाते हैं। व्यापारी भी कम नहीं हैं। एक व्यापारी दूसरे व्यापारी को माल बेचता है। माल एक हाथ से दूसरे हाथ में ही नहीं एक बाजार से दूसरे बाजार में जाने लगता है। इस तरह उत्पादकों का अपने जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के कुल उत्पादन पर भी नियंत्रण नहीं रह जाता है। व्यापारियों के हाथ भी यह नियंत्रण नहीं रहता है। इस तरह उत्पादों पर जब नियंत्रण नहीं रह जाता है तो लगने लगता है कि उपज और उत्पादन दोनों संयोग के अधीन हो गए हैं। 

में प्रकृति में भी संयोग या भाग्य का शासन दिखाई पड़ता है। लेकिन विज्ञान ने सभी क्षेत्रों में बहुत बार यह सिद्ध किया है कि आवश्यकता और नियमितता सभी संयोगों के पीछे है। जो प्रकृति का सच है वही समाज का भी सच है।  सामाजिक क्रियाओं या उन के क्रम  पर मनुष्य का सचेत नियंत्रण रख पाना जितना कठिन होता जाता है उतनी ही ये क्रियाएँ मनु्ष्य के नियंत्रण के बाहर होती जाती हैं और ऐसा लगने लगता है कि ये क्रियाएँ केवल संयोगवश हो रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये संयोग स्वाभाविक आवश्यकता के कारण घटित हो रहे हैं। माल उत्पादन और माल विनिमय में जो संयोग दिखाई देते हैं  वे भी नियमों के अधीन होते हैं अलग अलग उत्पादकों और विनिमय कर्ताओं को ये नियम एक विचित्र अज्ञात शक्ति तक प्रतीत होने लगते हैं जिन का पता लगाने के लिए अत्यधिक श्रम के साथ खोजबीन आवश्यक हो जाती है। 

माल उत्पादन के ये नियम उत्पादन के रूप के विकास की प्रत्येक अवस्था में थोड़े बहुत बदल जाते हैं। सभ्यता के युग में ये नियम हावी रहते हैं। आज भी उपज उत्पादक पर हावी है। आज भी समाज का उत्पादन किसी ऐसी योजना के अंतर्गत नहीं होता जिसे सामुहिक रूप से सोच विचार के बाद तैयार किया गया हो। वह इन अंध-नियमों से परिचालित होता रहता है जो अंध शक्तियों की तरह काम करते रहते हैं और अंत में व्यापारिक संकटों के तूफानों के रूप में प्रकट होते रहते हैं। आरंभ में ये तूफान एक अंतराल के बाद आते थे। लेकिन इन दिनों तो हम देख रहे हैं कि एक तूफान की गर्द अभी वापस धरती तक नहीं पहुँचती है कि दूसरा तूफान आता दिखाई पड़ने लगता है। आज ही हम देख सकते हैं कि यूरोप अभी ग्रीस के संकट से नहीं सका था कि उस के सामने इटली एक संकट के रूप में सामने आ खड़ा हुआ है। यूरोप ही क्यों सारी दुनिया का आर्थिक तंत्र इस तूफान के सामने थरथरा रहा है।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

राज्य पूर्व के समाज : बेहतर जीवन की ओर-8

स श्रंखला के पिछले आलेख में मैं ने कहा था कि मनुष्य ने अपने जीवन के दो लाख वर्षों का लगभग 95 प्रतिशत काल बिना किसी राज्य व्यवस्था के बिताया ... और कि राज्य कोई ऐसी संस्था नहीं जिस के बिना मनुष्य जीवन संभव नहीं। लेकिन इस के विपरीत धारणाएँ रखने वालों की भी कोई कमी नहीं है। वे कहते हैं- बिना किसी राज्य के जीवन कैसे संभव है? राज्य न होगा तो मनुष्य आपस में लड़-खप कर खुद ही नष्ट हो जाएगा। पर जब राज्य न था तब भी मनुष्य समाप्त नहीं हुआ। हमारी समस्या यह है कि हम ने उन समाजों के बारे में लगभग कुछ नहीं जाना जिन में राज्य नहीं था।

ब भी हम भारतीय इतिहास का अध्ययन करते हैं तो  हमारा श्रीगणेश सैंधव सभ्यता के नगरों से होता है जिन का अस्तित्व बिना किसी राज्य व्यवस्था के संभव नहीं था। लेकिन ये नगर तो यकायक इतिहास के पृष्ठों से गायब हो गए और एक लंबा काल ऐसा निकल गया, जिन के बारे में हमें निश्चितता के साथ कुछ भी नहीं पता। फिर हमारी भेंट इस बीच के काल में रचे हुए वैदिक श्रुति ग्रंथों से होती है जिन में हमें जन की उपस्थिति मिलती है।  उस के बाद हम यकायक बुद्ध और महावीर के काल में आ जाते हैं। इस काल में हमें कुछ राज्य भी मिलते हैं और कुछ गण भी।  ये जन और गण  क्या थे? ये निश्चित रूप से एक निश्चित भूभाग पर निवास करते मानव समाज थे जिन के पास राज्य नहीं था। लेकिन ऐसी व्यवस्था थी जिस में वे मनुष्य जीवन को व्यवस्थित रख सकते थे।

ग्वेदिक काल के जन के बारे में हमें ऋग्वेद से सांकेतिक जानकारी मिलती है। यह समाज की सर्वोच्च इकाई होती थी। ऋग्वेद में जन शब्द का प्रयोग 275 बार हुआ है। समाज कुल, ग्राम, विश् तथा जन में संगठित था। कुल सब से छोटी इकाई होते थे। कुलों से ग्राम निर्मित होते थे। ग्राम स्वशासी और आत्मनिर्भर होते थे। यह संगठन निश्चित रूप से गोत्रीय संगठन थे। इन की व्यवस्था किस प्रकार की रही होगी उस के कुछ स्पष्ट संकेत हमें नहीं मिलते। लेकिन वहाँ राज्य जैसी व्यवस्था का अभाव दिखाई देता है। क्यों कि कोई स्थाई सशस्त्र इकाई वहाँ नहीं है। अर्थव्यवस्था निर्वाह अर्थव्यवस्था थी जिस में अधिशेष के बचे रहने लायक गुंजाइश नहीं थी। अधिशेष के अभाव में राज्य की आवश्यकता ही नहीं थी। बाद के काल के गणों के मुखिया का पद भी आनुवंशिक नहीं था। उसे कोई अधिकार भी प्राप्त नहीं थे। सभी निर्णय समाज के सामने परिषदें किया करती थीं। जिस में हर व्यक्ति को अपना मत रखने का अधिकार होता था। सब की राय को ध्यान में रख कर ही परिषदें निर्णय किया करती थीं। हमें भारत में राज्यों की स्थापना के पूर्व की समाज व्यवस्था के बारे में संकेत तो अवश्य मिलते हैं लेकिन उन से संपूर्ण रूपरेखा स्पष्ट नहीं होती।

विश्व की कुछ ऐसी व्यवस्थाओं का अध्ययन भिन्न-भिन्न लोगों ने किया है जो गोत्रों पर आधारित थीं। उन में अमेरिका की इरोक्वाई समुदाय का नृवंशशास्त्री और सामाजिक सिद्धान्तकार ल्यूइस एच. मोर्गन द्वारा किया गया अध्ययन महत्वपूर्ण है। यह अध्ययन भारतीय स्थितियों को समझने के लिए भी इसलिए महत्वपूर्ण है कि हम भारत के जातीय समाजों में उसी की भांति की गोत्र व्यवस्था पाते हैं। आज भी अनेक मामलों में हमारे भारतीय राज्य को इस गोत्र व्यवस्था से जूझना पड़ रहा है।

शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

राज्य, मनुष्य समाज से अलग और उस से ऊपर : बेहतर जीवन की ओर-7

मने अब तक मानव समाज की जांगल-युग से राज्य के विकास तक की यात्रा का संक्षिप्त अवलोकन किया। हम जानते हैं कि पृथ्वी पर जैविक विकास के एक स्तर पर हम मानवों का उद्भव वानर जाति के किसी पूर्वज से हुआ है। मनुष्य के प्रारंभिक रूप होमोसेपियन्स को प्रकट हुए अधिक से अधिक पाँच लाख वर्ष और आधुनिक मानव का प्राकट्य दो लाख वर्ष पूर्व के आसपास का है। प्रसिद्ध अमरीकन नृवंशशास्त्री और सामाजिक सिद्धान्तकार ल्यूइस एच. मोर्गन ने मानव के सामाजिक विकास के इतिहास को तीन युगों में वर्गीकृत किया है। जांगल युग, बर्बर युग तथा सभ्यता का युग। उन्हों ने पहले दो युगों के मानव समाज के इतिहास की तर्कसंगत और तथ्यात्मक रूपरेखा को स्पष्ट करने का महत्बपूर्ण काम किया। उन्हों ने इन दो युगों को भी तीन-तीन भागों में विभाजित किया है। जांगल युग की पहली निम्न अवस्था जो हजारों वर्षों तक चली होगी और जिस में मनुष्य आंशिक रूप से वृक्षों पर निवास करता था, हिंसक पशुओं का सामना करते हुए जीवित रहने का एक मात्र यही तरीका उस के पास था। इस युग की विशेषता यही है कि मनुष्य बोलना सीख गया था। इस युग के अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है, लेकिन यदि हम एक बार मान लेते हैं कि मनुष्य का उद्भव जैविक विकास के परिणाम स्वरूप हुआ हुआ है तो हमें इस संक्रमण कालीन अवस्था को मानना ही होगा। जांगल युग की दूसरी मध्यम अवस्था में मनुष्य जल-जन्तुओं मछली, केकड़े, घोंघे आदि को भोजन के रूप में प्रयोग करने लगा था। इसी अवस्था में उस ने आग का प्रयोग सीखा। नदियों और समुद्र तटों की यात्रा करते हुए इसी युग में मनुष्य लगभग पृथ्वी के भूभाग पर फैल गया था। पुरापाषाण युग के औजार इसी अवस्था के हैं। इसी युग में पहले अस्त्रों गदा और भालों का आविष्कार हुआ। इसी युग में वह शिकार करने और कभी कभी मांस को भोजन में शामिल करने लगा था। तीसरे और जांगल युग की उन्नत अवस्था धनुष-बाण के आविष्कार से आरंभ हुई, लेकिन वह अब तक मिट्टी के बर्तन भांडे बनाने की कला नहीं सीख सका था। हाँ वह लकड़ी के बर्तन अवश्य बनाने लगा था। पेड़ों के खोखले तनों से नाव बनाना उस ने आरंभ कर दिया था। इसी अवस्था में उस ने जीवन निर्वाह के साधनों पर किसी तरह काबू पा लिया था और गाँवों में बसने लगा था।
र्बर युग की निम्न अवस्था तब आरंभ हुई जब उस ने मिट्टी के बर्तन बनाने की कला सीख ली। मनुष्य लगभग सारी धरती पर इस समय तक पहुँच चुका था। इस काल तक मानव विकास पूरी पृथ्वी में एक जैसा मिलता है। लेकिन खेती सीख लेने के निकट पहुँच जाने पर अलग अलग क्षेत्रों की प्राकृतिक परिस्थितियाँ उसे अलग अलग तरीके से प्रभावित कर रही थीं। आगे का विकास बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता था कि धरती के जिस क्षेत्र में वह निवास कर रहा है वहाँ की धरती, जलवायु, मौसम आदि किस प्रकार के हैं और उसे किस तरह के प्राकृतिक साधन उपलब्ध करा रहे हैं। ये सब चीजें मनुष्य के सामाजिक विकास की गति को भी प्रभावित कर रही थीं। यही एक कारण है कि एक भूभाग पर विकास की गति मंद दिखाई देती है तो दूसरे स्थान पर वह तेज दिखाई देती है।

र्बर युग की मध्यम अवस्था पशुपालन से आरंभ हुई। इसी युग में खाने लायक पौधों की सिंचाई के माध्यम से खेती का आरंभ और मकान बनाने के लिए धूप में सुखाई ईंटों का प्रयोग आरंभ हो जाता है। अमरीकी इंडियन यूरोप के लोगों द्वारा विजय प्राप्त कर लेने तक भी इसी अवस्था का जीवन जीते थे। पूर्वी गोलार्ध में यह अवस्था दूध और मांस देने वाले पशुओं के पालन से आरंभ हुई, वे अभी खेती करना नहीं जानते थे। खेती बाद में पशुओं के चारे के लिए आरंभ हुई। बर्बर युग की उन्नत अवस्था लौह खनिज को गलाने और लिखने की कला के आविष्कार से आरंभ हुई। इसी अवस्था में हम पशुओं द्वारा खींचे जाने वाले हलों का उपयोग देखते हैं। इसी युग में धातुओं के औजार, गाड़ियाँ और नगरों का निर्माण देखने को मिलता है। यहीं से सभ्यता का काल आरंभ हो जाता है। जांगल युग में प्रकृति के पदार्थों को हस्तगत करने की प्रधानता थी और इन्हीं कामों के लिए आवश्यक औजार मनुष्य उस युग में विकसित कर सका। बर्बर युग में मनुष्य ने पशुपालन और खेती करने का ज्ञान अर्जित किया तथा अपनी क्रियाशीलता के कारण प्रकृति की उत्पादन शक्ति को बढ़ाने के तरीके सीखे। जांगल और बर्बर युगों का काल बहुत लंबा चलता है जिस के मुकाबले सभ्यता का वर्तमान युग आधुनिक मनुष्य (होमो सेपियन्स सेपियन्स) के उद्भव से आज तक के दो लाख वर्षों का पाँच प्रतिशत से भी कम, केवल कुछ हजार वर्षों का है।
धुनिक मनुष्य के उद्भव से आज तक के दो लाख वर्षों में से सभ्यता के युग के कुछ हजार वर्ष निकाल दें तो हम पाते हैं कि मनुष्य ने अपने जीवन के दो लाख वर्षों का लगभग 95 प्रतिशत काल बिना किसी राज्य व्यवस्था के बिताया। तब भी जब समूह में दास सम्मिलित होने से वर्ग उत्पन्न हो गए थे, दासों के अतिरिक्त स्वतंत्र समुदाय अपनी व्यवस्था को बिना किसी राज्य के रक्त संबंधों पर आधारित संस्थाओं के माध्यम से चलाता रहा था। राज्य कोई ऐसी संस्था नहीं जिस के बिना मनुष्य जीवन संभव नहीं। वह ऐसी शक्ति भी नहीं जो अचानक बाहर से ला कर मनुष्य समाज पर लाद दी गई हो। वह किसी नैतिक विचार या विवेक का मूर्त और वास्तविक रूप भी नहीं है। वह मनुष्य समाज की उपज है जो विकास की एक निश्चित अवस्था में उत्पन्न हुई है। वह इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि मनुष्य समाज ऐसे अंतर्विरोधों में फँस गया है, जिन्हें वह हल नहीं कर पा रहा है, उन के हल का कोई समाधान नहीं खोज पा रहा है। उसे ऐसी शक्ति की आवश्यकता पड़ गई है जो मनुष्य समाज में पैदा हो गए इन अन्तर्विरोधों का हल खोज निकालने तक मनुष्य समाज को व्यर्थ के वर्गसंघर्ष से नष्ट होने से बचा ले चले। वह एक ऐसी शक्ति बन गई है जो ऊपर से मालूम पड़े कि वह मनुष्य समाज से अलग उस के ऊपर खड़ी है। इस शक्ति ने जिसे हम राज्य के नाम से जानते हैं, जो समाज से ही उत्पन्न हुई, उस ने समाजोपरि स्थान ग्रहण कर लिया और उस से अधिकाधिक पृथक तथा दूर होती चली गई।

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

राज्य की उत्पत्ति : बेहतर जीवन की ओर -6

ब तक हमने देखा कि किस तरह शिकार करते हुए पशुओं के बारे में अनुभव ने मनुष्य को पशुपालन की और धकेला और इसी पशुपालन ने मनुष्य समाज में दास वर्ग को उत्पन्न किया। ये दास स्वामी समूह की सहायता करते थे। इन्हीं में से तरह तरह के दस्तकारों का एक नया वर्ग उभरा। जिस ने मनुष्य जीवन को बेहतर बनाने में मदद की। पशुओं के लिए चारा पैदा करते हुए उस ने अपने खाने के लिए अनाज की खेती करना सीख लिया। लोहे से औजार बनाने की कला विकसित हुई जिस ने जंगलों को काट कर खेती लायक बनाना और उन्हें जोतना आसान कर दिया। पशुओं और दासों का विनिमय पहले प्रचलित था, लेकिन खेती से उत्पन्न प्रचुर मात्रा में अनाज व दूसरी फसलों ने विनिमय को अत्यधिक बढ़ा दिया। इसी से एक नया व्यापारी वर्ग उत्पन्न हुआ।

ब तक जितने भी वर्ग थे उन के जन्म के साथ उत्पादन प्रक्रिया का सीधा संबंध था। लेकिन व्यापारी वर्ग का उत्पादन प्रक्रिया से सीधा संबंध नहीं था। इस नए वर्ग ने उत्पादकों में यह विश्वास पैदा कर दिया था कि वह उन के उत्पादन को कहीं भी खपाएगा और उस के बदले उन्हें उपयोगी वस्तुएं ला कर देगा। इस तरह बिना किसी उत्पादन प्रक्रिया में भाग लिए इस वर्ग ने उत्पादकों को अपने लिए उपयोगी सिद्ध कर दिया था। इस वर्ग ने उत्पादकों और उन के उपभोक्ताओं दोनों से ही अपनी सेवाओं के बदले मलाई लूटना आरंभ कर दिया और बेशुमार दौलत पर कब्जा कर लिया। इस वर्ग के प्रादुर्भाव के साथ ही धातु के बने सिक्कों का उपयोग आरंभ हो गया। हर किसी को अपने उत्पाद के बदले ये सिक्के प्राप्त होते जिन से वे दूसरी चीजें प्राप्त कर सकते थे। इस नए साधन के द्वारा माल पैदा न करने वाला माल पैदा करने वालों पर शासन कर सकता था। मालों के माल का पता मिल चुका था। वह एक जादू की छड़ी की तरह था जिसे पलक झपकते ही इच्छानुसार वस्तु में परिवर्तित किया जा सकता था। अब उत्पादन के संसार में उसी का बोलबाला था जिस के पास यह जादू की छड़ी सब से अधिक मात्रा में होती थी। यह सिर्फ व्यापारी के पास हो सकती थी। यह स्पष्ट हो चुका था कि आगे सभी उत्पादकों को इस मुद्रा के आगे नाक रगड़नी पड़ेगी। सब माल इस मूर्तिमान माल के सामने दिखावा रह गए थे।

विभिन्न मालों, दासों और मुद्रा के रूप में सम्पदा के अतिरिक्त अब जमीन भी एक संपदा के रूप में सामने आ गयी थी। कबीलों से परिवारों को खेती करने के लिए जमीनों के जो टुकड़े मिले थे उन पर अब उन का अधिकार इतना पक्का हो गया था कि वे वंशगत संपत्ति बन गए थे। जमीन के इन नए मालिकों ने गोत्र और कबीलों के अधिकार के बंधनों को उतार फेंका था। यहाँ तक कि उन के साथ संबंधों को भी समाप्त कर लिया था। जमीन पर निजि स्वामित्व स्थापित हो गया था। अब जमीन ने भी माल का रूप धारण कर लिया था। उसे मुद्रा के बदले बेचा जा सकता था और रहन रखा जा सकता था। उधर माल हासिल करने के लिए मुद्रा एक आवश्यक चीज बन गई थी। उसे उधार दिया जा सकता था जिस पर ब्याज वसूला जा सकता था। इस तरह सूदखोरी का जन्म हुआ। निजि स्वामित्व के साथ सूदखोरी और रहन वैसी ही चीजें थी जैसे एकनिष्ठ विवाह के साथ अनिवार्य रूप से वेश्यावृत्ति थी। मुद्रा का चलन, सूदखोरी, निजि भूस्वामित्व और रहन के साथ व्यापार के विस्तार से एक छोटे वर्ग के पास बड़ी तेजी से धन संग्रह होने लगा तो दूसरी ओर गरीबी बढ़ने लगी। तबाह और दिवालिया लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ने लगी। इस से समाज में दासों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। एथेंस में समृद्धि के उत्कर्ष के समय स्त्रियों और बच्चों सहित स्वतंत्र लोगों की संख्या मात्र 90,000 थी जब कि दासों की संख्या 3,65,000 थी। कोरिंथ और ईजिना नगरों मे दासों की संख्या स्वतंत्र लोगों के मुकाबले दस गुना थी।

लेकिन अब तक उन आदिकालीन संस्थाओं का हाल क्या हुआ यह भी देख लिया जाए। गोत्र व कबीले उन की इच्छा और सहायता के बिना पैदा हो गई नई चीजों के सामने निस्सहाय हो गये। गोत्रों और कबीलों का अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता था कि उन के सभी सदस्य एक इलाके में रहें और दूसरे न रहें। लेकिन ऐसा तो बहुत समय से नहीं रह गया था। गोत्र और कबीले आपस में घुल मिल गए थे। हर स्थान पर स्वतंत्र नागरिकों के बीच दास, आश्रित और विदेशी लोग रहने लगे थे। पशुपालन से खेती में संक्रमण से यायावरी ने जो स्थावरता हासिल की थी वह अब फिर से समाप्त हो रही थी। लोगों की गतिशीलता और निवास परिवर्तन उसे तोड़ रहा था। व्यापार धंधे बदलने, भूमि के अन्य संक्रमण से यह संचालित हो रहा था। गोत्र और कबीलों के सदस्यों के लिए यह संभव नहीं था कि वे सामुहिक मामलों को निपटाने के लिए एक स्थान पर एकत्र हो सकें। वे अब गौण महत्व के धार्मिक और पारिवारिक अनुष्ठानों के समय ही आपस में एकत्र होते थे, वह भी आधे मन से। गोत्र-समाज की संस्थाएँ जिन जरूरतों को हितों की देखभाल करती थीं उन के अतिरिक्त जीविकोपार्जन की अवस्थाओं में क्रांति तथा उस के अनुरूप सामाजिक ढांचे में हुए परिवर्तन से कुछ नई जरूरतें और नए हित भी पैदा हो गए थे। जिन्हें गोत्र समाज की संस्थाएँ नहीं संभाल सकती थीं। श्रम विभाजन से दस्तकारों के नए समूह पैदा हुए थे। उन के हितों और देहात के मुकाबले नगरों के विशिष्ठ हितों के लिए नए निकायों की आवश्यकता थी।

न नए निकायों का निर्माण गोत्र समाजों के समानान्तर और गोत्र समाज के बाहर उस के विरोध में होने लगा। गोत्र समाज की प्रत्येक संस्था के भीतर अमीरों-गरीबों, सूदखोरों-कर्जदारों के एक साथ होने के कारण भीतरी टक्कर चरम सीमा पर पहुँच गई। रक्त संबंधों पर आधारित ये गोत्र, कबीले बाहरी लोगों की उपस्थिति को अपने अंदर जज्ब करने की क्षमता नहीं रखते थे। इस तरह गोत्र समाज का लोकतंत्र अब एक तरह का घृणित अभिजात तंत्र बन गया था। इन परिस्थितियों में एक ऐसा समाज उत्पन्न हो गया था जिस ने अनिवार्यतः स्वयं को स्वतंत्र नागरिकों और दासों में, शोषक धनिकों और शोषित गरीबों में विभाजित कर दिया था। लेकिन वह इन वर्गो में सामंजस्य लाने में असमर्थ था और स्वयं ही इन में और अधिक दूरियाँ पैदा कर रहा था। इस से एक तो यह हो सकता था कि ये वर्ग एक दूसरे के विरुद्ध खुला संघर्ष चलाते रहें और मारकाट व अराजकता की स्थितियाँ बन जाएँ। दूसरे यह हो सकता था कि एक तीसरी शक्ति का शासन हो जो देखने में संघर्षरत वर्गों से अलग तथा उन से ऊपर दिखाई पड़े और उन्हें खुले संघर्ष न चलाने दे। अधिक से अधिक उन्हें आर्थिक क्षेत्र में तथाकथित रीति से संघर्ष करने की छूट दे दे। श्रम विभाजन और समाज के वर्गों में बँट जाने से गोत्र व्यवस्था की उपयोगिता समाप्त हो चुकी थी। उस का स्थान इस नयी जन्मी तीसरी शक्ति 'राज्य' ने ले लिया था।

बुधवार, 14 सितंबर 2011

उपभोक्ता के रूप में क्या आप हिन्दी में काम करने की मांग करते हैं?

दो दिन पहले सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनी के शाखा कार्यालय जाना हुआ। बीमा कंपनी हर वर्ष 14 सितम्बर से एक सप्ताह तक हिन्दी सप्ताह मनाती है। इस के लिए कुछ बजट भी शाखा में आता है। इस सप्ताह में कर्मचारियों के बीच निबंध, हिन्दी लेखन, हिन्दी प्रश्नोत्तरी जैसी कुछ प्रतियोगिताएँ आयोजित कराई जाती हैं और अंतिम दिन पुरस्कार वितरण होता है। जिस के उपरान्त जलपान का आयोजन होता है और इस तरह हिन्दी को कुछ समृद्धि प्रदान कर दी जाती है। दो वर्षों से इस सप्ताह के अंतिम दिन जब हिन्दी प्रश्नोत्तरी और पुरस्कार वितरण का आयोजन किया जाता है तो वे मुझे बुलाते हैं। इस बार भी उन्हों ने मुझे आने को कहा। मैं ने उन्हें अपनी सहमति दे दी। इन प्रतियोगिताओं के आयोजन में कुछ नवीनता आए और हिन्दी में काम करने के प्रति लोगों का रुझान पैदा हो इस के लिए मैं ने कुछ सुझाव भी दिए। सुझावों को गंभीरता से सुना तो गया। लेकिन उन्हें क्रियान्वित करने के लिए जो उत्साह होना चाहिए वह वहाँ दिखाई नहीं दिया। मुझे लगा कि इस वर्ष फिर पिछले वर्षों की तरह ही बनी बनाई लकीर पर एक और लकीर खींच कर हिन्दी सप्ताह संपन्न हो लेगा।

कुछ देर और मुझे शाखा प्रबंधक के कक्ष में रुकना पड़ा तो मैं ने उन्हें बताया कि उन के कंप्यूटरों में हिन्दी भाषा का उपयोग करने की सुविधा है लेकिन उसे चालू नहीं किया हुआ है। यहाँ तक कि वे इस सुविधा को चालू कर के पूरे कंप्यूटर को हिन्दी रूप प्रदान कर सकते हैं। मैं ने उन के कंप्यूटर के डेस्कटॉप पर लगे आईकॉन के नाम देवनागरी में बदले। उन्हें बताया कि कैसे फाइल और फोल्डर्स के नाम नागरी में अंकित किए जा सकते हैं। उन्हों ने पूछा कि हिन्दी तो उन के कंप्यूटर पर पहले भी टाइप की जाती रही है, लेकिन जब वे उस पर हिन्दी फोन्ट में फाइल का नाम लिखते थे तो रोमन में अजीबोगरीब शब्द आ जाते थे, लेकिन आप ने यह सब कैसे लिखा? 

मैंने उन्हें बताने लगा कि उन का कंप्यूटर उन सब भाषाओं को समझ सकता है जो कि कंट्रोल पैनल के 'क्षेत्र और भाषा' विकल्प में दर्ज हैं, लेकिन वे उस विकल्प का उपयोग नहीं करते। वे केवल अंग्रेजी विकल्प का ही प्रयोग करते हैं जब कि उन का कंप्यूटर एक साथ अनेक भाषाओं और लिपियों में काम कर सकने की क्षमता रखता है। जब वे केवल अंग्रेजी के विकल्प का उपयोग भी आरंभ कर दिया जाता है तो जो कंप्यूटर केवल अंग्रेजी समझता था वह हिंदी भी समझने लगता है। लेकिन कंप्यूटर केवल यूनिकोड के हिन्दी फोन्ट को ही हिंदी के फोन्ट के रूप में मान्यता देता है, अन्य फोंट को नहीं। उस का कारण यह है कि अन्य फोंट वास्तव में अंग्रेजी कोड पर आधारित हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि उन में किसी खास रोमन अक्षर के स्थान पर देवनागरी के किसी अक्षर, अर्धाक्षर या मात्रा का चित्र विस्थापित कर दिया गया है जिस से देवनागरी के अक्षर को भी कंप्यूटर रोमन का ही कोई अक्षर समझता रहता है।

मेरे इतनी बात करने का लाभ यह हुआ कि शाखा प्रबंधक ने यूनिकोड हिन्दी टाइप करने के औजारों के संबंध में बात करना आरंभ किया। सब कुछ अल्प समय में बताना संभव नहीं था इसलिए मैं ने उन्हें सुझाव दिया कि वे हिन्दी सप्ताह में कंप्यूटर पर हिन्दी में काम करने के तरीकों के बारे में उन की शाखा में क्यों नहीं एक कक्षा आयोजित करते हैं? उन्हों ने आश्वासन दिया कि वे उस के लिए प्रयत्न करेंगे। मैं ने उन्हें यह भी बताया कि वे जो काम अंग्रेजी में करते आए हैं उसे हिन्दी में भी कर सकते हैं। जैसे ग्राहकों से हिन्दी में पत्र व्यवहार करना या भुगतान के चैक आदि हिन्दी में बनाना है। मैं ने उन्हें बताया कि मैं यह सब व्यवहार हिन्दी में ही करता हूँ और अंग्रेजी का उपयोग तभी करता हूँ जब कि वह अपरिहार्य हो जाता है। हिन्दी में चैक आदि बनाने पर राशियाँ लिखना बड़ा आसान है। इस बीच शाखा प्रबंधक ने एक ग्राहक को देने के लिए चैक बनाया तो उसे हिन्दी में लिखा और मुझे बताया। मैं ने उन्हें कहा कि यह चैक अंग्रेजी में लिखे गए चैक से अधिक सुंदर लग रहा है और गड़बड़ की गुंजाइश भी और कम हो गई है। जिस ग्राहक को यह चैक मिलेगा उसे भी हिन्दी में यह काम करने की प्रेरणा मिलेगी। शाखा प्रबंधक ने बताया कि वे प्रयत्न करेंगे कि अधिक से अधिक काम हिन्दी में करें। इस बीच सहायक ने उन्हें बताया कि बीमा पॉलिसी को हिन्दी में छापने की सुविधा भी उपलब्ध है। तो प्रबंधक जी कहने लगे कि जब तक ग्राहक अंग्रेजी में पॉलिसी छापने का खुद आग्रह न करे उसे पॉलिसी हिन्दी में छाप कर दी जानी चाहिए। उन्हों ने कहा कि मुझे अब तक खुद यह बात पता नहीं थी। लेकिन वे अब इस काम को भी हिन्दी में चालू करना चाहेंगे। 

गभग सभी व्यवसायिक संस्थाओं और उपक्रमों में हिन्दी में काम करने की सुविधाएँ उपलब्ध हैं लोग परंपरा के कारण अंग्रेजी में का्म करते रहते हैं। यदि उपभोक्ता खुद हिन्दी में काम करने की मांग करने लगें तो यह काम हिन्दी में हो सकते हैं। मैं तो हर स्थान पर हिन्दी में काम करने की मांग करता हूँ। आप चाहें तो आप भी कर सकते हैं। मुझे लगता है कि उपभोक्ता हिन्दी में काम करने की मांग करने लगें तो हिन्दी को उस का उचित स्थान प्राप्त करने में वे महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। क्या आप भी उपभोक्ता के रूप में हिन्दी में काम करने की मांग करते हैं? यदि नहीं तो क्या अब करेंगे?

मंगलवार, 7 जून 2011

सरकारों और सत्ताओं को सोचना चाहिए कि तब उन का क्या होगा?

जमा अच्छा लगाया गया था। हर काम लाजवाब था। बड़ा मैदान बुक था, योग शिक्षा के लिए। वहीं अनशन होना था। वायु मार्ग से बाबा राजधानी पहुँचे। सत्ता के चार-चार नवरत्नों ने अगवानी की। बहुत मनाया। पर कसर रह गई। पाँच सितारा में फिर मनौवल चली। क्या बात हुई? क्या सहमति बनी किसी को नहीं बताया। बताया तो सिर्फ इतना कि अनशन होगा। अनशन हुआ तो दिन भर इधर से उधर, उधर से इधर फोन घनघनाते रहे। शाम को जय हो गई। सत्ता ने ज्यादातर मांगे मान ली हैं। शामियाना उल्लास से भर गया। तब सत्ता ने बताया कि जय तो कल ही हो गई थी। बाबा ने दोपहर तक अनशन और दो दिन तप करने का वायदा किया था। वायदा नहीं निभाया। लिखित चिट्ठी पढ़ दी गई। बाबा बैक फुट पर आ गए। संफाई पर सफाई देते रहे। कहते रहे -सत्ता ने उन के साथ धोखा किया। बाबा के सिर मुंढाते ही ओले पड़े। बाबा ने जनता का विश्वास खोया। बाबा ने को राजनीति का पहला सबक मिला। सत्ता के विश्वास से जनता का विश्वास बड़ा है। उसे जीतने की जल्दी में अनशन पर डट गए। जनता का  विश्वास तो जा ही चुका था। अब सत्ता का विश्वास भी गया।

नता जब विश्वास करती है तो आँख मूंद कर करती है। लेकिन जब उस का विश्वास टूटता है तो फिर से वापस वह विश्वास करे। यह आसान नहीं है। जनता का विश्वास हटते ही, सत्ता ने अपनी नंगई दिखाई। आधी रात के बाद हमला हुआ। पुलिस बाबा तक पहुँचे उस से पहले ही बाबा जनता के बीच कूद पड़े। पर देर हो चुकी थी। जनता भी घिरी पड़ी थी। कितना ही प्रयास किया। कपड़े बदले, वेष बदले पर पकड़े गए और सत्ता ने उन्हें उसी बदले वेष में राजधानी के बाहर कर दिया। सरकार के इस बेवकूफी और बर्बर तरीके की आलोचना आरंभ हो गई। जो जो सरकार से खार खाए बैठा था। वही उस के खिलाफ बोलने लगा। बाबा समझे उनको समर्थन है। वे राजधानी के अंदर नहीं तो परकोटे के बाहर बैठने चले। पर जिस ने जनता का विश्वास खोया, जिस ने सत्ता का विश्वास खोया। उसे कोई कैसे पनाह दे? सो बाबा वापस अपने घर लौटा दिए गए। अब वे वापस विश्वास जीतने बैठे हैं। लेकिन दुबारा विश्वास जीत पाएंगे या नहीं यह तो भविष्य ही बताएगा। यह सब से बड़ा योग है जिसे बाबा को अभी सीखना शेष है। 

रकार सिर्फ अपने आकाओं की सगी होती है। लेकिन आका तभी तक उसे पालते हैं जब तक वह जनता को भ्रम में रख पाती है। जनता के विश्वास को झटका देते ही सरकार ने बाबा पर हमला बोला। वह भी इस बेवकूफी के साथ कि बाबा के साथ-साथ जनता भी चपेट में आई। सरकार कहती है कि बाबा ने वादा तोड़ा। योगकक्षा के लिए अनुमति ले कर अनशन किया। अनुमति रद्द कर दी। उन्हें हटाना जरूरी था। हम मान सकते हैं कि उन्हें हटाना जरूरी था। लेकिन वहाँ इकट्ठे लोगों का क्या कसूर था? या तो वे योग कक्षा में आए थे, या फिर अनशन पर बैठने, या फिर दिन भर की पगार कमाने। उन पर लाठी की जरूरत क्या थी। उस के पास  दिल्ली और केंद्रीय सत्ता की ताकत थी। पाँच हजार जवानों ने मैदान को घेरा था। अंदर निहत्थे लोग थे, बुजुर्ग, महिलाएँ और बच्चे। क्या जरूरत थी उन्हें जबरन वहाँ से हटाने की? आप के पास माइक भी जरूर रहे होंगे। आप के पास निकट ही सैंकड़ों बसें भी खड़ी थीं। उन्हें भी लगाया जा सकता था। घेरने के बाद यह घोषणा भी की जा सकती थी कि रामलीला मैदान का जमाव अवैध घोषित कर दिया गया है। वहाँ आयोजन की अनुमति रद्द कर दी गई है। सब वहाँ से हट जाएँ। सरकार ने उन्हें वापस उन के घरों तक पहुँचाने की व्यवस्था कर दी है। जो स्टेशन जाना चाहे स्टेशन तक पहुँचाया जाएगा। जो बस स्टेंड जाना चाहे उसे बस स्टेंड पहुँचाया जाएगा। जब तक लोगों के घर जाने का साधन न हो जाए तब तक उन के ठहरने खाने की व्यवस्था कर दी गई है। घिरे हुए लोगों को समय देते कुछ सोचने का। निहत्थे बुजुर्ग, महिलाएँ और बच्चे क्या कर लेते? 

र सरकार ने जनतंत्र का पाठ सीखा ही कहाँ है? तिरेसठ सालों में भी अंग्रेजों की विरासत ही ढोई जा रही है। उन्हीं का मार्ग नजर आता है। सरकार को जनता चार बरस तक कहाँ दिखाई देती है? वह तो सिर्फ चुनाव के साल में नजर आती है। सरकार को सिर्फ बाबा दिखाई दिए। उन को हवाई जहाज में बिठा कर उन के घर पहुँचाया। जनता दिखाई देती तो उसे पहुँचाते। सरकार सोचती है कि जनता में दिमाग नहीं होता। वह कभी सोचती नहीं। लेकिन वह सोचती भी है और जब वक्त आता है तो कर भी गुजरती है। जनता तो उस के पीछे जाएगी जो उस की बात करेगा और जो विश्वसनीय होगा। वह धोखा खाएगी तो फिर नया तलाश लेगी। लेकिन वह सोचेगी भी और करेगी भी। कोई विश्वास के काबिल न मिला तो अपने अंदर से पैदा कर लेगी। जब वह अपने अंदर से अपना नेता पैदा कर लेगी तब? सरकारों और सत्ताओं को सोचना चाहिए कि तब उन का क्या होगा? देर भले ही हो, पर किसी दिन यह जरूर होगा।

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

गैता का नगर राज्य और महाराज की बगीची

गैंता राज का पाईपेपर और
उस पर राजा का चित्र
गैंता ठिकाना 25° 34' 60 उत्तरी अक्षांश तथा 76° 17' 60 पूर्व देशान्तर पर चम्बल नदी के पूर्व में कोई पचास वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में स्थापित था। इसे एक नगर राज्य जैसा कहा जा सकता है। क्यों कि गैंता नगर के अतिरिक्त शायद ही कोई बस्ती या गाँव इस  की सीमा में आता हो। इस की सीमा में बस नगर था, कृषिभूमि और मामूली जंगल था। ठिकाने के लगभग सभी निवासी इसी नगर में निवास करते थे। जनसंख्या भी दो हजार के आसपास रही होगी। नदी किनारे होने से यह बंदरगाह का काम करता था। ठिकाने से लगे हुए अन्य ठिकानों के क्षेत्रों में बाहर से आने वाला सारा माल नदी से ही आता था।  इन ठिकानों से बाहर जाने वाला माल भी नदी के रास्ते ही बाहर जाता था। गैंता ठिकाने से हो कर गुजरने वाले माल में से केवल कुछ मालों पर नाम मात्र का कर था। जिस के कारण नगर व्यापार का केंद्र अवश्य बन गया था। यही व्यापार इस की संपन्नता का आधार भी था। व्यापार का केंद्र होने के कारण नित्य ही व्यापारिक सौदे होते थे। इन सौदों में विवाद उत्पन्न होने पर उन्हें सुलझाने और कानून व्यवस्था बनाए रखने के  लिए एक सक्षक्त पुलिस और न्यायप्रणाली होना आवश्यक था। इसी की स्थापना के लिए ठिकाने की अपनी  पुलिस और न्याय व्यवस्था थी। राजा सत्ता का केंद्र था।  

गैंता राज का आठ आने का कोर्ट फी स्टाम्प
ह सारी व्यवस्था कैसी रही होगी? इस का निश्चय करने के लिए गढ़ को देखना और वहाँ के निवासियों से बात करने की इच्छा होना स्वाभाविक था। इस के लिए कम से कम एक-दो दिन यहाँ रुकना आवश्यक था। लेकिन हमें तो तुरंत ही लौटना था। इस काम को अगली यात्रा के लिए स्थगित किया। इस से अधिक मेरी रुचि इस बात में थी कि मैं बगीची को अवश्य देखूँ। बगीची नगर के परकोटे के बाहर नगर के पूर्वी द्वार से लगभग तीन सौ मीटर दूर स्थित है। इस बगीची में एक संत निवास करते थे। सब लोग उन्हें महाराज चेतनदास जी के नाम से जानते थे और संक्षेप में उन्हें महाराज कहते थे। महाराज को गैंता राज्य के राजा से भी अधिक सम्मान प्राप्त था। इस का कारण उन का ज्ञान और जनसेवा थी। वे संस्कृत, संगीत, गणित और वैद्यक के विद्वान थे। उन के पास से कोई खाली हाथ न जाता था। बीमार की बीमारी की चिकित्सा होती थी, कुछ दवा से कुछ उन के विश्वास से। निराश को आशा प्राप्त होती थी। कोई गरीब व्यक्ति यदि यह कह देता कि बेटी का ब्याह सर पर है और घर में कानी कौड़ी भी नहीं, अब तो आप का सहारा है। तो महाराज कह देते कि जा चिंता न कर सब हो जाएगा। महाराज इस बात को राजा और नगर के सेठों तक पहुँचाते तो उस की बेटी का ब्याह हो जाता। होनहार बालकों को वे अपनी बगीची में ही शिक्षा प्रदान करते। अपने इन गुणों के कारण महाराज चेतनदास जी को उन के जीवनकाल में ही चमत्कारी मान लिया गया था। ग्रीष्म काल में जब फसलें आ जाने के उपरांत घर अन्न से भरे होते तो महाराज एक पखवाड़े तक रामलीला का आयोजन करते। बगीची में रौनक हो जाती। रामलीला करने वाले बालकों को पूरे पन्द्रह दिन बगीची में ही रहना होता। वहीं दिन में रामलीला का अभ्यास होता वहीं भोजनादि। मेरे पूर्वजों का इस बगीची से गहरा संबंध रहा था।

मेरे दाहजी (दादाजी) पं. रामकल्याण शर्मा स्वयं संस्कृत, गणित तथा ज्योतिष के विद्वान, कर्मकांडी गृहस्थ   ब्राह्मण थे और महाराज  ब्रह्मचारी संन्यासी। लेकिन दोनों एक दूसरे का सम्मान करते। पिताजी का बचपन तो बगीची में ही गुजरा। पिताजी सात वर्ष के हुए तो दाहजी ने उन का प्रवेश इटावा के विद्यालय में करवा दिया। वहाँ दाहजी के दूर के रिश्ते के एक भाई अध्यापक और छात्रावास के अधीक्षक थे। अब पिताजी को पढ़ने के लिए इटावा में ही रहना था। पिताजी को इटावा छोड़ कर वापस गैंता पहुँचे तो महाराज ने दाहजी की खूब खबर ली। इतने छोटे बालक को दूर के विद्यालय में रख दिया, अकेला कैसे रह पाएगा? क्या मैं यहाँ उसे न पढ़ाता था? पर दाहजी ने उन्हें समझाया कि नए जमाने में नई शिक्षा आवश्यक है, गुरुकुल की पढ़ाई से काम न चलेगा। फिर भी पिताजी जब भी गैंता लौटते उन का अधिकांश समय बगीची में गुजरता। वहाँ उन्हें जीवन की शिक्षा मिलती। वहीं पिताजी को चिकित्सा, संगीत और संस्कृति की शिक्षा मिली। गर्मियों की रामलीला में पूरा परिवार ही बगीची मे इकट्ठा हो जाता। रामलीला में दाहजी विश्वामित्र, उन के छोटे भाई जनक, पिताजी राम और चाचा जी भरत के चरित्रों का अभिनय करते। पिताजी बताते थे कि महाराज चिलम पिया करते थे। लेकिन  जैसे ही हम लोग अपना मेकअप कर के राम, लक्ष्मण आदि के रूप में आ जाते तो हमें उच्चासन पर बैठाते, कभी चिलम न पीते, और अपने आराध्य जितना मान देते। महाराज रामलीला में स्वयं परशुराम का अभिनय करते और सदैव दर्शकों के बीच हाथ में कपड़े का बुना कोड़ा लिए उसे फटकारते हुए प्रवेश करते। जैसे ही उन का प्रवेश होने को होता दर्शक अपने बीच दस फुट चौड़ी गैलरी बना देते थे। दर्शकों को भय लगता था कि परशुराम का कोड़ा किसी को लग न जाए। 
गूगल मैप में दिखाई देती गैंता में महाराज की बगीची
बाराँ में एक बार चार वर्ष की छोटी बहिन मेले से एक बाँसुरी खरीद लाई और दिन भर उस में फूँक मार कर पेंपें किया करती। मैं ने भी उस पर कोशिश की पर मैं भी बहिन से अधिक अच्छी कोशिश न कर सका। दो-दिन बाद पिताजी घर लौटे तो अचानक बांसुरी ले कर झूले पर बैठ गए और बजाने लगे। मैं उन का बाँसुरी वादन देख कर चकित था कि वे इतनी सुंदर बाँसुरी भी बजा सकते हैं। पूछने पर उन्हों ने बताया की कभी महाराज के सानिध्य में सीखी थी। मैं ने उस के पहले कभी पिताजी को बाँसुरी बजाते न सुना था और बाद में भी मुझे कभी इस का अवसर न मिला। पिता जी और दादा जी अक्सर ही गैंता में बिताए अपने समय के बारे में बातें किया करते थे। उन की बातों में हर बार महाराज चेतनदास जी उपस्थित रहते। इसी से मेरे मन में महाराज चेतनदास जी के प्रति  बहुत सम्मान औऱ बगीची के प्रति आकर्षण बन गया था। बगीची मैं ने अब तक कल्पना में ही देखी थी।  लेकिन मेरी इस छोटी सी यात्रा में मैं बगीची अवश्य ही जाना चाहता था। ... 

.....अब की बार चलेंगे महाराज की बगीची में

रविवार, 17 अप्रैल 2011

पूर्वजों के गाँव में ...

मेरा जन्म बाराँ (अब राजस्थान का स्वतंत्र जिला मुख्यालय) में हुआ, लेकिन यहाँ जन्म लेने वाला मैं परिवार का पहला सद्स्य था। शेष सभी की यादें गैंता से जुड़ी हुई थीं। पिता जी, दाहजी, छोटे दाहजी, बुआ और दोनों चाचा वहीं जन्मे थे। दाहजी के पिता जी, मेरे परदादा अवश्य गैंता में खेड़ली से आए थे। दो-ढाई वर्ष की उम्र में मुझे शायद एक बार गैंता ले जाया गया था। तब की केवल इतनी स्मृति थी कि वहाँ मकान में कुछ कमरे बनाने के लिए नींवे खोदी जा रही थीं, और सब बड़ों को कान में जनेऊ चढ़ा कर मूत्रत्याग करते देख मुझे ऐसा ही करने की धुन सवार हुई थी और मैं ने घर में कहीं से जनेऊ तलाश कर पहन ली थी और उसे कान पर चढ़ा कर मूत्रत्याग कर के देखा था कि इस से क्या फर्क पड़ता है। उस के बाद कोई पैंतीस वर्ष पहले किसी काम से वहाँ जाना पड़ा था और मैं इटावा से 9 किलोमीटर पैदल गया था। चलते-चलते अंधेरा हो चुका था और कुछ सूझ नहीं रहा था। तब पीछे से एक ट्रेक्टर ने मुझे लिफ्ट दी थी जो इतनी कारगर सिद्ध हुई थी कि केवल सौ मीटर में ही गैंता का प्रवेशद्वार आ गया था। तभी की कुछ स्मृतियाँ मन में थीं। इस बार वैसे ही इटावा से डूंगरली जाते समय बच्चों से पूछा था कि गैंता देखोगे? बच्चों के मौन को स्वीकृति समझ अपने मन की पूरी करने वापसी में इटावा से कार का रुख गैंता की ओर मोड़ लिया था। कार चली जा रही थी। नौ किलोमीटर में बीच में कोई गाँव नहीं पड़ा था, सब सड़क से दूर थे। मैं सोचता जा रहा था कि वहाँ जाते ही कहाँ जाया जाए? 

गैंता ग्राम पश्चिम में बहती चंबल नदी 
मुझे अचानक गणपत काका के बड़े भाई काका लक्ष्मीचंद का स्मरण हुआ, वही तो गैंता में हमारा निकटतम पड़ौसी था। मैं  ने गैंता के प्रवेशद्वार के बाहर पूछा कि क्या कार को काका लक्ष्मीचंद के घर तक ले जाया जा सकता है? जवाब हाँ में मिलने पर मैं आगे बढ़ गया। बाजार में जहाँ से घर की ओर रास्ता जाता है उस से कुछ पहले एक दुकान पर रास्ता पूछा तो वहाँ से एक बुजुर्ग काका लक्ष्मीचंद के घर के लिए कार में बैठ गए। ठीक घर की बगल में कार रुकी तो काका का घर पहचान में आ गया। लेकिन वहाँ मैदान मिट्टी का था जहाँ हमारा घर हुआ करता था। काका घर पर नहीं सोसायटी के गोदाम पर थे, काका की लड़की बाहर आई, पीछे पीछे घूंघट निकाले काकी थी। दोनों ने हमें न पहचाना। मैं ने काका से फोन पर बात करने के लिए मोबाइल का नंबर पूछा तो काका की बेटी ने कहा उन को तो मैं बुला दूंगी, पर पहले यह तो पता लगे कि आप कौन हैं। मैं तब तक अपने पूर्वजों के घर की मिट्टी ही देख रहा था। मैं ने कहा यहाँ किस का मकान था? इतना कहते ही साथ आए बुजुर्ग ने मुझे पहचान लिया -तो आप वकील साहब हैं, नन्द किशोर जी के लड़के? ... जी, हाँ! मैं ने कहा। 



काकी हमें अंदर ले गई। कमरे में बिठाया। बिजली गई हुई थी, पंखा नहीं चल रहा था। पर कमरा ठंड़ा था। फिर बातें होने लगी। घर को किसी ने नहीं संभाला और गिर गया। लकड़ी का सामान आप का हाली अपने घर ले गया। जमीन बँटाई से होती है। बँटाई पर लेने वाला खुद ही बाराँ चला जाता है और छोटे चाचा से बँटाई तय कर पैसा उन्हें ही दे आता है। छोटे चाचा या उन के लड़कों को गाँव आए कई वर्ष हो चुके हैं। बाजार में दो दुकानें हैं, वे भी लावारिस पड़ी हैं। अभी तो उन्हें खरीदने वाले हैं। गिर जाएंगी तो जितने पैसे अभी आ रहे हैं उतने फिर नहीं आएंगे। मैं उदास सा सब सुनता रहा। पिताजी की बाराँ नौकरी लग जाने के बाद दाहजी सारे परिवार सहित बाराँ चले आए थे। गाँव की सारी सम्पत्ति छोटे दाहजी संभालते रहे। दाहजी, पिताजी, चाचाजी वगैरह ने उस संपत्ति के बारे में सोचना बिलकुल छोड़ दिया। आज उस संपत्ति की दुर्दशा सुन कर मुझे अजीब सा लग रहा था। इतने में काका लक्ष्मीचंद आ गए, साथ आए बुजुर्ग उन के ताऊ थे वे कोटा ही रहते थे और किसी काम से गाँव आए थे। वे वापस दुकान की ओर चले गए। हम ने वहाँ चाय पी। चाचा और चाची अपने अपनी आप बीती सुनाने लगे।

फिर मुझे गाँव देखने की इच्छा हुई तो काका हमें बाजार तक लाए। बाजार लगा था। सभी तरह की दुकानें थीं और सड़क पर सब्जीमंडी लगी हुई थी। ताजा सब्जियाँ देख पत्नी का मन मचल गया, उस ने ढेर सी सब्जी खरीद ली। हर कोई हमें देख जानना चाहता था कि हम कौन हैं, गाँव में चार नए चेहरे एक साथ दिखने पर यह तो होना ही था। एक को काका लक्ष्मीचंद ने दाहजी का हवाला दे कर बताया तो वे समझ गए। कुछ ही देर में कानों कान सब को पता लग गया कि हम कौन हैं। बाजार की सभी दुकानें सौ से दो सौ वर्ष पुरानी थीं। उन्हें देख लगता था कि किसी जमाने में इस बाजार में रौनक रहा करती होगी। बाजार में तीन-चार मंदिर भी थे, आगे चौपड़ थी। जहाँ से चारों दिशाओं में रास्ते निकलते थे। एक रास्ता गढ़ की ओर जाता था, जहाँ गैंता के पूर्व महाराजा के वंशज रहते थे। यह बस्ती जो अब गाँव कहलाती है, कभी न केवल नगर था, अपितु कोटा रियासत का एक ठिकाना (जागीर) थी। इस जागीर का मुखिया वंश परम्परा से होता था जो महाराजा कहा जाता था। जागीर को रियासत को निश्चित मात्रा में वार्षिक शुल्क (नजराना) देना होता था। जागीर अपने यहाँ शासन चलाने में स्वतंत्र थी, जिस की अपनी पुलिस और कचहरी थी। जागीर का महाराजा कचहरी के लिए कोर्ट फीस स्टाम्प और पाई पेपर जारी करता था। मेरी घूम कर गाँव देखने की इच्छा थी, लेकिन उस के लिए कम से कम एक रात तो गाँव में रुकना ही पड़ता। अभी इस का अवसर नहीं था। लेकिन मैं बगीची अवश्य जाना चाहता था। हम वापस काका के घर लौट आए, एक बार और शीतल जल पिया। काका को कार में बिठाया और बगीची तक ले चलने को कहा। .......

बुधवार, 21 जुलाई 2010

बहुत हो लिया पूर्व सैनिकों का कल्याण , अब ठेकेदारों के कल्याण का युग है

जरा नवभारत टाइम्स की ये खबर देखें....
स खबर में कहा गया है कि, "वर्तमान भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएएआई) द्वारा अधिकृत टोल प्लाजा पर काम कर रहे 25,000 पूर्व सैनिक  हैं, टोल प्लाजा पर साजो-सामान के साथ ही रणनीतिक सहयोग देने वाले ऐसे ही 10,000 पूर्व सैनिकों को अब इस काम पर से हटा कर बेरोजगार कर दिया जाएगा। अब इस काम को ठेके पर दे दिया जाएगा। एनएचएआई ने बीते 22 जून को इस फैसले के संबंध में एक आदेश पारित किया था। इस आदेश को लागू किए जाने के पहले चरण में देश भर के 50 टोल प्लाजा के लिए सरकारी टेंडर भी जारी कर दिए गए हैं। वर्ष 2004 से इन टोल प्लाजा पर पूर्व सैनिक काम कर रहे हैं। इन्हें नियोजित करने के बाद से टोल संग्रह की दर 15 फीसदी से बढ़कर 80 फीसदी तक हो गई है। देशभर की विभिन्न टोल प्लाजा से सरकार को 1700 करोड़ रुपये का रेवेन्यू मिलता है। इसके चलते पूर्व सैनिकों को एक सम्मानजनक रोजगार मिल रहा है। उन्हें वेतन के अतिरिक्त राजस्व का 10 फीसदी कमिशन भी मिलता है।
ब इस काम को ठेके पर दिया जाएगा।बहुराष्ट्रीय या उसी स्तर की कोई कंपनी यह काम करेगी। तब टोल टैक्स के काम को करने के लिए तमाम  असामाजिक तत्व भरती किए जाएँगे जिन्हें न्यूनतम वेतन भी दिया जाएगा या नहीं इस की कोई गारंटी नहीं है। लेकिन उन्हें पूरी छूट होगी कि वे निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन लोगों से भी टोल लें जिन पर यह नहीं लगता है। जनता को परेशान करें। उन्हें अपनी आय बढ़ाने के भी अवसर होंगे। फिर जो लाभ आज पूर्व सैनिकों को मिल रहा है वह मुनाफे के रूप में कंपनी के पास जाए या फिर कमीशन के माध्यम से नेताओं, अफसरों की जेब में जाए। हो सकता है राजनैतिक पार्टियों को चुनाव लड़ने का चंदा भी इसी मुनाफे से मिले वर्तमान शासक दल को इस लिए कि उन्होंने ठेके की यह व्यवस्था लागू की और दूसरों को इस लिए कि वे सत्ता में आ जाएँ तो इस व्यवस्था को चालू रखें। बेरोजगार पूर्व सैनिकों के परिवार भूखे मरें तो मरें, उस से क्या? आखिर हमारा भारतीय राज्य एक कल्याणकारी है, बहुत हो लिया पूर्व सैनिकों का कल्याण, अब ठेकेदारों के कल्याण का युग है।

हालाँकि एनएचएआई के इस फैसले का पूर्व सैनिक विरोध कर रहे हैं। पिछले दिनों रिटायर्ड कर्नल एच. एस. चौधरी के नेतृत्व में पूर्व सैनिकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी से मुलाकात की थी और इस पर रोक लगाने की मांग की थी। एंटनी ने उन्हें आश्वासन दिया था कि वह सड़क व परिवहन मंत्री कमलनाथ से इस संबंध में चर्चा करेंगे। इन सैनिकों ने कमलनाथ से भी भेंट की और उनसे आग्रह किया कि पूर्व सैनिकों के परिवार के दो लाख सदस्यों को मुसीबत में डालने वाले अपने फैसले की वह फिर से समीक्षा करें।  पर ए.के. एंटनी और कमलनाथ क्या कर पाएंगे? यदि कुछ कर सके तो फिर नेताओँ अफसरों की जेबें कैसे भरेंगी?  अगला चुनाव लड़ने के लिए पार्टियों को चंदा कहाँ से मिलेगा? विपक्ष भी इस मामले में चुप है। आखिर उसे भी तो अगला चुनाव लड़ने के लिए चंदा चाहिए।