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शनिवार, 12 नवंबर 2011

संयोग, अंधनियम और तूफान : बेहतर जीवन की ओर-14

म तौर पर राज्य को आज मनुष्य समाज के लिए आवश्यक माना जाता है और उस के बारे में यह समझ बनाई हुई है कि वह मनुष्य समाज में सदैव से विद्यमान था। लेकिन हम ने पिछली कुछ कड़ियों में जाना कि यह हमेशा से नहीं था। ऐसे समाज भी हुए जिन में राज्य नहीं था, उन्हों ने उस के बिना भी अपना काम चलाया। ऐसे समाजों को राज्य और राज्यसत्ता का कोई ज्ञान नहीं था। आर्थिक विकास और श्रम विभाजन की एक अवस्था में जब अतिरिक्त उत्पादन होने लगा और उस का विपणन होने लगा तो नगर विकसित हुए। इन नगरों में केवल एक गोत्र, बिरादरी या कबीले के लोग नहीं रह गए थे। वहाँ अनेक लोग ऐसे भी आ गए जो इन से अलग थे। वैसी अवस्था में उत्पन्न वर्गों और उन के बीच के संघर्ष को रोकने के लिए राज्य की अनिवार्य रूप से उत्पत्ति हुई। राज्य की उत्पत्ति से ही वर्तमान इतिहास सभ्यता के युग का आरंभ भी मानता है। इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि सभ्यता समाज के विकास की ऐसी अवस्था है जिस में श्रम विभाजन, उस के परिणाम स्वरूप होने वाला उत्पादों का विनिमय और इन दोनों चीजों को मिलाने वाला माल उत्पादन जब अपने चरम पर पहुँच जाते हैं तो वे पूरे समाज को क्रांतिकारी रुप से बदल डालते हैं। 
भ्यता के पहले समाज की सभी अवस्थाओं में उत्पादन मूलभूत रूप से सामुहिक था और उसे इसीलिए उपभोग के लिए छोटे-बड़े आदिम सामुदायिक कुटुम्बों में सीधे सीधे बाँट लिया जाता था। साझे का यह उत्पादन अत्यल्प होता था लेकिन तब उत्पादक उत्पादन प्रक्रिया के और उत्पाद के खुद मालिक होते थे। वे जानते थे कि उन के उत्पादन का क्या होता है, वे स्वयं उस का उपभोग करते थे और वह उन के स्वयं के हाथों में रहता था। जब तक उत्पादन उत्पादकों के नियंत्रण में रहा ऐसी कोई शक्ति खड़ी नहीं कर सका जैसी शक्तियाँ सभ्यता के युग में नियमित रूप से खड़ी होती रहती हैं। 

ब उत्पादन अपनी आवश्यकता और उपभोग के स्थान पर विनिमय के लिए होने लगा तो पैदावार एक हाथ से निकल कर दूसरे हाथ तक जाने लगी। अब उत्पादक नहीं जानता कि उस की पैदावार का क्या हुआ। जैसे किसान समर्थन मूल्य पर बिके अनाज के बारे में तब तक ही जानता है जब तक कि उसे वह बेच नहीं देता है। बाद में तो उसे अखबार से ही खबर मिलती है कि कितना अनाज रखरखाव के अभाव में सड़ गया है। मुद्रा और व्यापारी बीच में आ कर खड़े हो जाते हैं। व्यापारी भी कम नहीं हैं। एक व्यापारी दूसरे व्यापारी को माल बेचता है। माल एक हाथ से दूसरे हाथ में ही नहीं एक बाजार से दूसरे बाजार में जाने लगता है। इस तरह उत्पादकों का अपने जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के कुल उत्पादन पर भी नियंत्रण नहीं रह जाता है। व्यापारियों के हाथ भी यह नियंत्रण नहीं रहता है। इस तरह उत्पादों पर जब नियंत्रण नहीं रह जाता है तो लगने लगता है कि उपज और उत्पादन दोनों संयोग के अधीन हो गए हैं। 

में प्रकृति में भी संयोग या भाग्य का शासन दिखाई पड़ता है। लेकिन विज्ञान ने सभी क्षेत्रों में बहुत बार यह सिद्ध किया है कि आवश्यकता और नियमितता सभी संयोगों के पीछे है। जो प्रकृति का सच है वही समाज का भी सच है।  सामाजिक क्रियाओं या उन के क्रम  पर मनुष्य का सचेत नियंत्रण रख पाना जितना कठिन होता जाता है उतनी ही ये क्रियाएँ मनु्ष्य के नियंत्रण के बाहर होती जाती हैं और ऐसा लगने लगता है कि ये क्रियाएँ केवल संयोगवश हो रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये संयोग स्वाभाविक आवश्यकता के कारण घटित हो रहे हैं। माल उत्पादन और माल विनिमय में जो संयोग दिखाई देते हैं  वे भी नियमों के अधीन होते हैं अलग अलग उत्पादकों और विनिमय कर्ताओं को ये नियम एक विचित्र अज्ञात शक्ति तक प्रतीत होने लगते हैं जिन का पता लगाने के लिए अत्यधिक श्रम के साथ खोजबीन आवश्यक हो जाती है। 

माल उत्पादन के ये नियम उत्पादन के रूप के विकास की प्रत्येक अवस्था में थोड़े बहुत बदल जाते हैं। सभ्यता के युग में ये नियम हावी रहते हैं। आज भी उपज उत्पादक पर हावी है। आज भी समाज का उत्पादन किसी ऐसी योजना के अंतर्गत नहीं होता जिसे सामुहिक रूप से सोच विचार के बाद तैयार किया गया हो। वह इन अंध-नियमों से परिचालित होता रहता है जो अंध शक्तियों की तरह काम करते रहते हैं और अंत में व्यापारिक संकटों के तूफानों के रूप में प्रकट होते रहते हैं। आरंभ में ये तूफान एक अंतराल के बाद आते थे। लेकिन इन दिनों तो हम देख रहे हैं कि एक तूफान की गर्द अभी वापस धरती तक नहीं पहुँचती है कि दूसरा तूफान आता दिखाई पड़ने लगता है। आज ही हम देख सकते हैं कि यूरोप अभी ग्रीस के संकट से नहीं सका था कि उस के सामने इटली एक संकट के रूप में सामने आ खड़ा हुआ है। यूरोप ही क्यों सारी दुनिया का आर्थिक तंत्र इस तूफान के सामने थरथरा रहा है।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

ब्लागीरी को अपने काम और जीवन का सहयोगी बनाएँ

सोमवार से शोभा के बाऊजी, और जीजी हमारे बच्चों के नाना जी और नानीजी साथ हैं तो घर में रौनक है।  बच्चों के बाहर रहने से हम दोनों पति-पत्नी ही घर में रहते हैं। कोई भी आता है तो रौनक हो जाती है। बाऊजी अस्सी के होने जा रहे हैं, कोई सात बरस पहले उन्हें मधुमेह ने पकड़ लिया। वे स्वयं नामी ऐलोपैथिक चिकित्सक हैं और इलाके में बालरोग विशेषज्ञ के रूप में विख्यात भी। वे अपने शरीर में शर्करा की मात्रा नियंत्रित रखते हैं। फिर भी मधुमेह ने शरीर पर असर किया है। अब कमर के निचले हिस्से में सुन्नता का अनुभव करते हैं। उन की तंत्रिकाओँ में संचार की गति कुछ मंद हुई है। कोटा के एक ख्यात चिकित्सक को दिखाने आते हैं। इस बार जीजी को भी साथ ले कर आए। हम ने आग्रह किया तो रुक गए। पिछले दो दिनों से लोग उन से मिलने भी आ रहे हैं। लेकिन इन दो दिनों में ही उन्हें अटपटा लगने लगा है। अपने कस्बे में उन बाऊजी के पास सुबह से मरीज आने लगते हैं। वे परिवार के व्यवसायों पर निगरानी भी रखते हैं। जीजी भी सुबह से ही परिवार के घरेलू और खेती कामों पर  निगरानी रखती हैं और कुछ न कुछ करती रहती हैं। यहाँ काम उन के पास कुछ नहीं, केवल बातचीत करने और कुछ घूम आने के सिवा तो शायद वे कुछ बोरियत महसूस करने लगे हों। अब वे वापस घर जाने या जयपुर अपनी दूसरी बेटी से मिलने जाने की योजना बना रहे हैं। मुझे समय नहीं मिल रहा है, अन्यथा वे मुझे साथ ले ही गए होते। हो सकता है कल-परसों तक उन के साथ जयपुर जाना ही हो। सच है काम से विलगाव बोरियत पैदा करता है। 
रात को मैं और बाऊजी एक ही कमरे में सो रहे थे, कूलर चलता रह गया और कमरा अधिक ठंडा हो गया। मैं सुबह उठा तो आँखों के पास तनाव था जो कुछ देर बाद सिर दर्द में बदल गया। मैं ने शोभा से पेन किलर मांगा तो घर में था नहीं। बाजार जाने का वक्त नहीं था। मैं अदालत के लिए चल दिया। पान की दुकान पर रुका तो वहाँ खड़े लोगों में से एक ने अखबार पढ़ते हुए टिप्पणी की कि अब महंगाई रोकने के लिए मंदी पैदा करने के इंतजाम किए जा रहे हैं। दूसरे ने प्रतिटिप्पणी की -महंगाई कोई रुके है? आदमी तो बहुत हो गए। उतना उत्पादन है नहीं। बड़ी मुश्किल से मिलावट कर कर के तो जरूरत पूरी की जा रही है, वरना लोगों को कुछ मिले ही नहीं। अब सरकारी डेयरी के दूध-घी में मिलावट आ रही है। वैसे ही गाय-भैंसों के इंजेक्शन लगा कर तो दूध पैदा किया जा रहा है। एक तीसरे ने कहा कि सब्जियों और फलों के भी इंजेक्शन लग रहे हैं और वे सामान्य से बहुत बड़ी बड़ी साइज की आ रही हैं। मैं ने भी प्रतिटिप्पणी ठोकी -भाई जनसंख्या से निपटने का अच्छा तरीका है, सप्लाई भी पूरी और फिर मिलावट वैसे भी जनसंख्या वृद्धि में कमी तो लाएगी ही।
दालत पहुँचा, कुछ काम किया। मध्यांतर की चाय के वक्त सिर में दर्द असहनीय हो चला। मुवक्किल कुछ कहना चाह रहे थे और बात मेरे सिर से गुजर रही थी। आखिर मेरे एक कनिष्ठ वकील ने एनालजेसिक गोली दी। उसे लेने के पंद्रह मिनट में वापस काम के लायक हुआ। घऱ लौट कर कल के एक मुकदमे की तैयारी में लगा। अभी कुछ फुरसत पाई है तो सोने का समय हो चला है। कल पढ़ा था खुशदीप जी ने सप्ताह में दो पोस्टें ही लिखना तय किया है। अभी ऐसा ही एक ऐलान और पढ़ने को मिला। मुझे नहीं लगता कि पोस्टें लिखने में कमी करने से समस्याएँ कम हो जाएंगी। बात सिर्फ इतनी है कि हम रोजमर्रा के कामों  में बाधा पहुँचाए बिना और अपने आराम के समय में कटौती किए बिना ब्लागीरी कर सकें। इस के लिए हम यह कर सकते हैं कि हमारी ब्लागीरी को हम हमारे इन कामों की सहयोगी बनाएँ। जैसे तीसरा खंबा पर किया जाने वाला काम मेरे व्यवसाय से जुड़ा है और मुझे खुद को ताजा बनाए रखने में सहयोग करता है। अनवरत पर जो भी लिखता हूँ बिना किसी तनाव के लिखता हूँ। यह नहीं सोचता कि उसे लिख कर मुझे तुलसी, अज्ञेय या प्रेमचंद बनना है।

बुधवार, 13 जनवरी 2010

शून्य से नीचे के तापमान पर 39000 बेघर रात बिताने को मजबर लोगों के शहर में कंपनियों ने जानबूझ कर कपड़े नष्ट किए

मरीका का न्यूयॉर्क नगर जहाँ आज का रात्रि का तापमान शून्य से चार डिग्री सैल्सियस कम रहा है और इस शीत में नगर के लगभग 39000 लोग घरों के बिना रात बिताने को मजबूर हैं वहाँ एच एण्ड एम और वालमार्ट कंपनियों ने अपने पूरी तरह से पहने जाने योग्य लेकिन बिकने से रह गए कपड़ों को नष्ट कर दिया।


स समाचार को न्यूयॉर्क टाइम्स को छह जनवरी के अंक में एक स्नातक विद्यार्थी सिंथिया मेग्नस ने उजागर किया। उस ने कचरे के थैलों में इन कपड़ों को बरामद किया जिन्हें जानबूझ कर इस लिए पहनने के अयोग्य बनाया गया था जिस से ये किसी व्यक्ति के काम में नहीं आ सकें। दोनों कंपनियों एच एण्ड एम और वालमार्ट के प्रतिनिधियों ने न्युयॉर्क टाइम्स को बताया कि उन की कंपनियाँ बिना बिके कपड़ों को दान कर देती हैं और यह घटना उन की सामान्य नीति को प्रदर्शित नहीं करती।
लेकिन अमरीका की पार्टी फॉर सोशलिज्म एण्ड लिबरेशन की वेबसाइट पर सिल्वियो रोड्रिक्स ने कहा है कि मौजूदा मुनाफा  कमाने वाली व्यवस्था की यह आम नीति है कि वे पहनने योग्य कपड़ों को नष्ट कर देते हैं, फसलों को जला देते हैं और आवास के योग्य मकानों को गिरने के लिए छोड़ देते हैं। यह सब तब होता है जब कि लोगों के पास पर्याप्त कपड़े नहीं हैं, खाने को खाद्य पदार्थ नहीं हैं और आश्रय के लिए आवास नहीं हैं।
रोड्रिक्स का कहना है कि एक उदात्त अर्थ व्यवस्था में इन चीजों के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन वर्तमान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एक उदात्त व्यवस्था नहीं है। इस व्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन मुनाफे के लिए होता है और वह उत्पादकों को एक दूसरे के सामने ला खड़ा करता है। जिस से अराजकता उत्पन्न होती है और उत्पादन इतना अधिक होता है कि जिसे बेचा नहीं जा सकता। जब किसी उत्पादन में मुनाफा नहीं रह जाता है तो उत्पादन को नष्ट किया जाता है, फैक्ट्रियाँ बंद कर दी जाती हैं, निर्माण रुक जाते हैं, खुदरा दुकानों के शटर गिर जाते हैं और कर्मचारियों से उन की नौकरियाँ छिन जाती हैं।

स तरह के संकट इस व्यवस्था में आम हो चले हैं। समय के साथ पूंजीपति उत्पादन से अपने हाथ खींच लेता है और संकट को गरीब श्रमजीवी जनता के मत्थे डाल देता है। माल को केवल तभी नष्ट नहीं किया जाता जब मंदी चरमोत्कर्ष पर होती है, अपितु छोटे संकटों से उबरने के लिए कम मात्रा में उत्पादन को निरंतर नष्ट किया जाता है। रोड्रिक्स का कहना है कि इस तरह उत्पादन को नष्ट करना मौजूदा व्यवस्था का मानवता के प्रति गंभीर अपराध है। अब वह समय आ गया है जब मौजूदा मनमानी और मुनाफे के लिए उत्पादन की अमानवीय व्यवस्था का अंत होना चाहिए और इस के स्थान पर नियोजित अर्थव्यवस्था स्थापित होनी चाहिए जिस में केवल कुछ लोगों के निजि हित बहुसंख्य जनता के हितों पर राज न कर सकें। 

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए

पिछले आलेख पर बड़े भाई ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी थी .....
"ज्ञानदत्त G.D. Pandey 1 December, 2009 4:31 PM   मन्दी? कहां है मन्दी? रेल यातायात डील करते समय मुझे मन्दी नहीं दीखती। कितना सीमेण्ट, कोयला, स्टील, उर्वरक ... सब चले जा रहा है अनवरत। और बहुत कुछ जा रहा है पूर्वान्चल/बिहार को! मुझे बताया गया कि ग्रोथ रेट सात परसेण्ट के आस-पास है। विपक्ष जोर लगा कर भी मंहगाई को सफल चुनावी मुद्दा नहीं बना पाया। सो मन्दी तो मिथक है। जिसे हम सब एक्स्प्लेनेशन के लिये पाल रहे हैं"


लेकिन उन लाखों लोगों से पूछें जो मंदी के नाम पर छंटनी के फलस्वरूप बेरोजगार कर दिए गए हैं। उन से पूछें जिन से उन के  माथे पर छंटनी की तलवार लटका कर आठ घंटों के स्थान पर चौदह और सोलह घंटे काम लिया जा रहा है या उन से कम वेतनों पर काम करने की नयी सेवा शर्तें तय करा ली गई हैं। उन विद्यार्थियों से पूछें जिन के कैंपस सेलेक्शन के बाद अभी तक नियुक्तियों का पता नहीं है। जहाँ नियुक्तियाँ हो भी रही हैं वहाँ वेतन लगभग आधे कर दिए गए हैं। एक सोफ्टवेयर इंजिनियर को छह से दस हजार प्रतिमाह की नौकरी के प्रस्ताव मिल रहे हैं। उन के लिए मंदी है। नहीं है तो फिर जनता को झाँसा दे कर लूटा जा रहा है।

ज्ञान जी ने जो उदाहरण दिए हैं वे सब रेलवे से संबद्ध हैं। भारतीय रेलवे आबादी और उस की जरूरतों के मुकाबले बहुत छोटी हो गई है। उस के पास सवारियाँ ढोने को कम गाड़ियाँ हैं। जो हैं उन्हें चलाने के लिए पर्याप्त रेलपथ नहीं हैं। गाड़ियों की सूची इतनी व्यस्त है कि एक जरा सी भी बाधा से कई दिनों तक का मामला खराब हो जाता है। इधर कोटा के आसपास जो थर्मल बिजलीघर हैं उन के बारे में पिछले दिनों खबर थी कि कोयला समय पर नहीं पहुँचा, केवल सात दिनों का स्टॉक रह गया। जो व्यवसाय समाज की आवश्यकता से बहुत न्यून हो जाएगा वहाँ मंदी क्या असर दिखाएगी? लेकिन जिन व्यवसायों में पिछले सालों में मुनाफा बरस रहा था। सारी फालतू पूँजी वहीं समेट दी गई। अतिउत्पादन से वहाँ मंदी आनी ही थी। नतीजा यह हुआ कि बहुत सी इकाइयाँ बैठ गई और उन में लगी पूँजी की कीमत नगण्य हो गई। यही तो मंदी का गणित है।


कुछ क्षेत्रों में तेजी से पूँजी का बहना, उस का संकेन्द्रण और अतिउत्पादन। बाकी सब क्षेत्रों में तो मंदी नहीं दिखाई देगी। वहाँ तो पूँजी का अभाव महंगाई को ही बढ़ाएगा। यही कारण है कि एक ओर मंदी का विशाल दानव दिखाई पड़ता है तो दूसरी ओर महंगाई की दानवी मुहँ बाए खड़ी हो जाती है। आज की अर्थव्यवस्था में जो उत्पादन की अराजकता है। वही तो इन संकटों की जन्मदाता है। एक वर्ष प्याज और टमाटर के भाव आसमान पर होते हैं तो अगले वर्ष उसी की खेती बहुसंख्यक किसान करते हैं और फिर अतिउत्पादन से दोनों सड़ने लगते हैं। लागत न मिलने पर किसान आत्महत्या पर मजबूर हो जाते हैं।
सीमेंट, कोयला, स्टील और उर्वरक ये सब जीवन के लिए आधारभूत वस्तुएं हैं। इन के उत्पादन में मुनाफा कम है और लागत के लिए विशाल पूंजी की आवश्यकता है। इतनी बड़ी पूँजी कौन लगाए? इनमें मंदी का क्या असर हो सकता है? एक बात और, मंदी के बहाने बढ़ाई गई बेरोजगारी, वेतनों में कमी और महंगाई। उपभोक्ताओं की जेब में पहुँचने वाली धनराशि को बड़ी मात्रा में कम करती है और बाजार सिकुड़ता है। यह मंदी के प्रभाव में और तेजी लाती है।


मंदी तो है। मेरा कहना तो यही था कि अर्थव्यवस्था के नियोजन से इस मंदी पर काबू पाया जा सकता है।  किन हम आग लगने पर कुआँ खोदने दौड़ते हैं। पहले से पानी की व्यवस्था नहीं रखते या फिर आग न लगने देने के साधन नहीं करते। क्या हमें वे नहीं करने चाहिए? बड़े भाई ने विपक्षी दलों द्वारा महंगाई के मुद्दे का लाभ न उठा सकने पर निराशा जाहिर की है, पर विपक्षी दल है कहाँ? सब पक्ष में ही खड़े हैं कोई खुल कर खड़ा है तो कोई पर्दे के पीछे। विपक्ष में तो अब बस जनता रह गई है, चूसे जाने के लिए।

सोमवार, 30 नवंबर 2009

मनुष्य अपनी ही बनाई व्यवस्था के सामने इतना विवश हो गया है?

न्यायालयों का बहिष्कार 90 दिन पूरे कर चुका है। इस बीच सारा काम अस्तव्यस्त हो चला है। बिना निपटाई हुई पत्रावलियाँ, कुछ नए काम, कुछ पुराने कामों से संबंधित छोटे-बड़े काम, डायरी आदि।  अपने काम के प्रति आलस्य का एक भाव घर कर चुका है। लेकिन लग रहा है कि जल्दी ही काम आरंभ हो लेगा। इसी भावना के तहत कल दफ्तर को ठीक से संभाला। सरसरी तौर पर देखी गई डाक को ठिकाने लगाया। पत्रावलियों को यथा-स्थान पहुँचाया। अभी भी बहुत सी पत्रावलियाँ देखे जाने की प्रतीक्षा में हैं। कुछ मुवक्किलों को रविवार का समय दिया था। सुबह उठ कर उसी की तैयारी में लगा। लेकिन तभी शोभा ने सूचना दी कि पीछे के पड़ौसी बता कर गए हैं कि ओम जी की माताजी का देहान्त हो गया है। ओम जी मेरे कॉलेज के सहपाठी रहे हैं और आज कल पड़ौसी। इन दिनों विद्यालय में प्राचार्य हैं।  उन के माता पिता दोनों वृद्ध हैं, पिता जी कुछ अधिक क्षीण और बीमार थे। समझा  जाता था कि वे अब मेहमान हैं, लेकिन उन के पहले ही माता जी चल दीं।


स समाचार ने दिन भर के काम की क्रमबद्धता में अचानक हलचल पैदा कर दी। मैं ने जानकारी की कि वहाँ अंतिम संस्कार के लिए रवानगी कब होगी, पता लगा कि कम से कम साढ़े दस तो बजेंगे, उन के बड़े भाई के आने की प्रतीक्षा है। मैं जानता हूँ कि माँ की उम्र कुछ भी क्यूँ न हो, और उन का जाना कितना ही तयशुदा क्यों न हो? फिर भी उन का चला जाना पुत्रों के लिए कुछ समय के लिए ही सही बहुत बड़ा आघात होता है। लेकिन मैं इस वक्त वहाँ जा कर कुछ नहीं कर सकूंगा सिवाय इस के कि लोगों से बेकार की बातों में उलझा रहूँ। संवेदना की इतनी बाढ़ आई हुई होगी की मेरा कुछ भी कहना नक्कारखाने में तूती की आवाज होगी। मैं ने अपने कामों को पुनर्क्रम देना आरंभ किया। मुवक्किलों को फोन किया कि वे दिन में न आ कर शाम को आएँ। शाम को एक पुस्तक के लोकार्पण में जाना था उसे निरस्त किया और अपने कार्यालय के काम निपटाता रहा। शोभा और मेरा प्रात- स्नान भी रुक गया था, सोचते थे वहाँ से आ कर करेंगे। शोभा के ठाकुर जी बिना स्नान रहें यह  उस से बर्दाश्त नहीं हुआ।  उस ने साढ़े दस बजते बजते स्नान कर लिया। सवा ग्यारह पर समाचार मिला कि जाने की तैयारी है। मैं उन के घर पहुँचा और साथ हो लिया।
 नेक लोग मिले। कई बहुत दिनों में। अभिवादन हुए। एक व्यवसायिक पड़ौसी कहने लगे  - आज कल आप घऱ के बाहर बहुत कम निकलते हैं, बहुत दिनों में मिले। उन की बात सही थी। मैं ने मुहल्ले के लोगों पर निगाह दौड़ाई तो पता लगा अधिकांश की स्थिति मेरी जैसी ही है। या तो वे घर के बाहर होते हैं या घर में,  परमुहल्ले में नहीं होते, एक दूसरे के साथ। मैं सोचने लगा कि ऐसा क्यों हो रहा है? मैं ने उन्हें कहा कि इस मोहल्ले में हम जो लोग रहते हैं सभी निम्न मध्यवर्गीय लोग हैं। जो लोग सरकारी या सार्वजनिक उपक्रम की सेवा में हैं या थे,  उन के अलावा जितने भी लोग हैं, वे सभी क्या पिछले तीन चार सालों से आर्थिक रूप से अपने आप को अपनी नौकरियों और व्यवसायों में सुरक्षित महसूस नहीं करते? और क्या इसी लिए वे खुद अपने को सुरक्षित बनाए रखने के लिए अधिकतर निष्फल प्रयत्न करते हुए अचानक बहुत व्यस्त नहीं हो गए हैं? मुझे उन का जवाब वही मिला जो अपेक्षित था।


ब तक हम गंतव्य तक पहुँच चुके थे। जानकार लोग काम में लग गए। बाकी डेढ़ घंटे तक फालतू थे, जब तक पंच-लकड़ी देने की स्थिति न आ जाए। वहाँ यही चर्चा आगे बढ़ी। बहुत लोगों से वही जवाब मिला जो पहले मिला था। बात निकली तो पता लगा कि इस स्थिति ने लोगों को निश्चिंत या कम निश्चिंत और  चिंतित व  प्रयत्नशील लोगों के दो खेमें में बांट दिया है। उन के रोज के व्यवहार में परिवर्तन आ चुका है। एक मंदी ने लोगों के जीवन को इतना प्रभावित कर दिया था। कि वे आपस में मिलने से महरूम हो गए थे। महंगाई की चर्चा भी छिड़ी, उस ने भी दोनों तरह के लोगों को अलग-अलग तरह से प्रभावित किया था। उन लोगों की बात भी हुई जो निजि संस्थानों में काम करते हैं। बहुत पैसा और श्रम लगा कर पढ़े लिखे नौजवान, जिन्हें बहुत प्रतिष्ठित वेतनों वाली नौकरियाँ मिल गई हैं, उन की भी बात हुई कि वे किस तरह काम में लगे होते हैं कि घर लौटने पर खाने और आराम करने को भी समय कम पड़ता है।
क ही बात थी कि कब मंदी में सुधार होगा? करोड़ों लोगों को इस ने प्रयत्नों के स्थान पर भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है। घर की महिलाएँ जो इस बात को समझ ही नहीं पा रही हैं अधिक देवोन्मुख होती जा रही हैं। पहले यह मंदी दूसरी बार आने में आठ-दस वर्ष का समय लेती थी। अब तो पहली का असर किसी तरह जाता है कि दूसरी मुहँ बाए खड़ी रहती है। इस ने बहुत से प्रश्न उत्तरों की तलाश के लिए और खड़े कर दिए थे। क्या इस मंदी का कोई इलाज नहीं है? क्या भावी पीढ़ियाँ इसी तरह इस का अभिशाप झेलती रहेंगी? मनुष्य क्या इतना विवश हो गया है अपनी ही बनाई हुई व्यवस्था के सामने?


रविवार, 18 अक्टूबर 2009

शिद्दत से जरूरत है. शुभकामनाओं की ...

दीपावली की शुभकामनाओं से मेल-बॉक्स भरा पड़ा है, मोबाइल में आने वाले संदेशों का  कक्ष कब का भर चुका है, बहुत से संदेश बाहर खड़े प्रतीक्षा कर रहे हैं। कल हर ब्लाग पर दीपावली की शुभकामनाएँ थीं। ब्लाग ही क्यों? शायद कहीं कोई माध्यम ऐसा न था जो इन शुभकामनाओं से भरा न पड़ा हो। दीवाली हो, होली हो, जन्मदिन हो, त्योहार हो या कोई और अवसर शुभकामनाएँ बरसती हैं, और इस कदर बरसती हैं कि शायद लेने वाले में उन्हें झेलने का माद्दा ही न बचा हो।  कभी लगता है हम कितने औपचारिक हो गए हैं? एक शुभकामना संदेश उछाल कर खुश हो लेते हैं और शायद अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं।

हम अगले साल के लिए शुभकामनाएँ दे-ले रहे हैं। हम पिछले सालों को देख चुके हैं। जरा आने वाले साल का अनुमान भी कर लें। यह वर्ष सूखे का वर्ष है। बाजार ने इसे भांप लिया है। आम जरूरत की तमाम चीजें महंगी हैं।  पहले सब्जी वाला आता था और हम बिना भाव तय किए उस से सब्जियाँ तुलवा लेते थे। भाव कभी पूछा नहीं। ली हुई सब्जियों की कीमत अनुमान से अधिक निकलने पर ही सब्जियों का भाव पूछते थे। अब पहले सब्जियों का भाव पूछते हैं। किराने की दुकान पर हर बार भाव पूछ कर सामान तुलवाना पड़ रहा है। कहीं ऐसा न हो सामान की कीमत बजट से बाहर हो जाए। गृहणियों की मुसीबत हो गई है, कैसे रसोई चलाएँ? कहाँ कतरब्योंत करें?

जिन्दगी जीने का खर्च बढ़ गया, दूसरी ओर बहुतों की नौकरियाँ छिन गई हैं। दीवाली के ठीक एक दिन पहले एक दवा कंपनी के एरिया सेल्स मैनेजर मेरे यहाँ आए और उसी दिन मिला सेवा समाप्त होने का आदेश दिखाया। आदेश में कोई कारण नहीं था बल्कि नियुक्ति पत्र की उस शर्त का उल्लेख था जिस में कहा गया था कि एक माह का नोटिस दे कर या एक माह का वेतन दे कर उन्हें सेवा से पृथक किया जा सकता है। उन की सेवाएँ तुरंत समाप्त कर दी गई थीं और एक माह का वेतन भी नहीं दिया गया था। उन की दीवाली?

जो कर रहे थे, उन की नौकरियाँ जा चुकी हैं, जो कर रहे हैं उन पर दबाव है कि वे आठ घंटे की नियत अवधि से कम से कम दो-चार घंटे और काम करें। अनेक कंपनियों ने नौकरी जाने की संभावना के प्रदर्शन तले  अपने कर्मचारियों की पगारें कम कर दी हैं। जो नौजवान नौकरियों की तलाश में हैं वे कहाँ कहाँ नहीं भटक रहे हैं। उन्हें धोखा देने को अनेक प्लेसमेंट ऐजेंसियाँ खरपतवार की तरह उग आई हैं। उद्योगों में लोगों से सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम दर से भी कम पर काम लिए जा रहे हैं।  कामगारों की कोई पहचान नहीं है, उद्योग के किसी रजिस्टर में उन का नाम नहीं है।  उन की हालत पालतू जानवरों से भी बदतर है। पहले बैल हुआ करते थे जो खेती में हल पर और तेली के कोल्हू में जोते जाते थे। उन के चारे-पानी और आराम का ख्याल मालिक किया करता था। आज इन्सानों से काम लेने वाले उन के मालिक उस जिम्मेदारी से भी बरी हैं। कहने को श्रम कानून बनाए गए हैं और श्रम विभाग भी। लेकिन वे किस के लिए काम करते हैं, यह दुनिया जानती है। उन का काम कानूनों को लागू कराना न हो कर केवल अपने आकाओं की जेबें भरना और सरकार में बैठे राजनीतिज्ञों के अगले चुनाव का खर्च निकालना भर रह गया है।  सरकार बदलने के बाद पूरे विभाग के कर्मचारियों के स्थानांतरण हो गए और छह माह बीतते बीतते सब वापस अपने मुकाम पर आ गए। इस बीच किस की जेब में क्या पहुँचा? यह सब जानते हैं।  जितने विधायक और सांसद जनता ने चुन कर भेजे हैं वे सब उन की चाकरी बजा रहे हैं जिन ने उन के लिए चुनाव का खर्च जुटाया था और अगले चुनाव का जुटा रहे हैं। जब चुनाव नजदीक आएंगे तो वे फिर जनता-राग गाने लगेंगे।

सरकार से जनता स्कूल मांगती है तो पैसा नहीं है, अस्पताल मांगती है तो पैसा नहीं है, वह अदालतें मांगती है तो पैसा नहीं है। सुरक्षा के लिए पुलिस-गश्त मांगती है तो पैसा नहीं है।  चलने को सड़क मांगती है तो पैसा नहीं है।  सरकार का पैसा कहाँ गया? और जो सरकारें पुलिस, अदालत और रक्षा जैसे संप्रभु कार्यों के लिए पैसा नहीं जुटा सकती उसे सरकारें बने रहने का अधिकार रह गया है क्या?  मजदूर न्यूनतम वेतन, हाजरी कार्ड और स्वास्थ्य बीमा मांगते हैं तो वे विद्रोही हैं, नक्सल हैं, माओवादी हैं।  यह खेल आज से नहीं बरसों से चल रहा है।  शांति भंग की धाराओं में बंद करने के बाद उस की जमानत लेने से इंन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट जो सरकार की मशीनरी का अभिन्न अंग है जमानती की हैसियत पर उंगली उठा सकता है। उस का प्रमाणपत्र मांगता है जिसे उसी का एक अधीनस्थ अफसर जारी करेगा।  जब तक चाहो इन्हें जेल में रख लो। अब एक बहाना और नक्सलवादियों/माओवादियों ने नौकरशाहों को दे दिया है। किसी भी जनतांत्रिक, कानूनी  और अपने मूल अधिकार के लिए लड़ने वाले को नक्सल और माओवादी बताओ और जब तक चाहो बंद करो।  झंझट खत्म, और साथ में नक्सलवाद/माओवाद पर सफलता के आंकड़े भी तैयार। सत्ता खुद तो इन नक्सल और माओवादियों से नहीं लड़ पाई। अब जिसे अपने अधिकार पाने हों वही इन से भी लड़े।  नक्सलवाद /माओवाद जनविरोधी सरकारों के लिए बचाव और दमन के हथियार हो गए हैं।  विश्वव्यापी आर्थिक मंदी अभी तलवार हाथ में लिए मैदान में नंगा नाच रही है। उस की चपेट में सब से अधिक आया है तो वह आदमी जो मेहनत कर के अपनी रोजी कमा रहा है। चाहे उस ने सफेद कॉलर की कमीज पहनी हो, सूट पहन टाई बांधी हो या केवल एक पंजा लपेटे परिवार के शाम के भोजन के लिए मजदूरी कर रहा हो।

आने वाला साल मेहनत कर रोजी कमाने वालों और उन पर निर्भर प्रोफेशनलों के लिए सब से अधिक गंभीर होगा।  जीवन और जीवन के स्तर को कैसे बचाया जाए? इस के लिए उन्हें निरंतर जद्दोजहद करनी होगी।  न जाने कितने लोग अपने जीवन और जीवन स्तर को खो बैठेंगे? इसी सोच के साथ इस दीवाली पर तीन दिन से घर हूँ, कहीं जाने का मन न हुआ। यहाँ तक कि ब्लागिरी के इस चबूतरे पर भी गिनी चुनी टिप्पणियों के सिवा कुछ भी अंकित नहीं किया। मुझे लगा कि शुभकामनाएँ, जो इतने इफरात से उछाली-लपकी जा रही हैं, उन्हें सहेज कर रखने की जरूरत है।  हिन्दी ब्लागिरी में मौजूद सभी लोगों को इस की जरूरत है।  आनेवाले वक्त  में संबल बनाए रखने के लिए बहुतों को इन शुभकामनाओं की शिद्दत से जरूरत होगी, उन्हें सहेज कर क्यों न  रखा जाए। 

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008

किसे बचाने की आवश्यकता है? बैंकों को? नहीं, मनुष्य को?

कल दो समाचार पढ़ने को मिले जिन्हों ने कार्ल मार्क्स की पुस्तक "पूंजी" को पढ़ने और समझने की इच्छा को और तीव्र कर दिया। अब लगता है उसे पढ़ना और समझना जरूरी हो गया है। दोनों समाचार इस तरह हैं ...

म्युनिख (जर्मनी) के एक रोमन कैथोलिक आर्चबिशप रिन्हार्ड मार्क्स ने एक और दास कैपीटल लिख कर बाजार में उतार दी है। निश्चय ही वे इस समय कार्ल मार्क्स और उन की पूंजीवाद के विश्लेषण की पुस्तक "पूँजी" की बढ़ती हुई लोकप्रियता को अपने लिए भुनाना चाहते हैं। हालाँकि उन्हों ने कहा कि यह पुस्तक साम्यवाद के प्रचार और उस की रक्षा के लिए नहीं अपितु रोमन कैथोलिक संप्रदाय की सामाजिक शिक्षाओं को मौजूदा सामाजिक परिस्थितियों में लागू करने के लिए लिखा गया है। इस पुस्तक का प्रथम अध्याय 19वीं शताब्दी के विचारक कार्ल मार्क्स को संबोधित करते हुए एक पत्र की शैली में लिखा गया है। इस पुस्तक को बुधवार को जारी किया गया। इस से यह तो साबित हो ही गया है कि कार्ल मार्क्स इन दिनों तेजी से फैशन में आए हैं और शिखर पर मौजूद हैं।

उधर 1998 का साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त जोस सर्मागो ने जो पुर्तगाल के अब तक के अकेले नोबुल पुरस्कार प्राप्त व्यक्ति हैं, ब्राजीलियन मास्टर फर्नान्डो मियरलेस द्वारा निर्देशित एक फिल्म प्रस्तुत करते हुए कह दिया कि कार्ल मार्क्स उतने सही कभी भी नहीं थे जितना कि आज हैं। उन्हों ने कहा कि सारा धन बाजार में लगा दिया गया है, फिर भी वह इतनी तंगी है। ऐसे में किसे बचाने की आवश्यकता है?  बैंकों को?  नहीं, मनुष्य को?

सरमागो ने कहा कि अभी इस से भी खराब स्थिति आने वाली है। उन से जब पूछा गया कि फिल्म की थीम और अर्थव्यवस्था के संकट में क्या संबंध है तो उन्होंने कहा कि " हम हमेशा थोड़े बहुत अंधे होते हैं, विशेष रुप से इस मामले में कि कौन सी बात जरूरी है"। सरमागो के करीब तीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिन में कविता, गद्य और नाटक सम्मिलित हैं। अभी निमोनिया से उबरने के उपरांत उन्हों ने अपना नवीनतम उपन्यास "एक हाथी की यात्रा" सम्पन्न किया है, जिस में एक एशियाई हाथी की सोलहवीं शताब्दी में यूरोप की कहानी का वर्णन है।

इन दोनों समाचारों को पढ़ने के बाद अपने एक अजीज मित्र से कार्ल मार्क्स की "पूँजी" को अपने कब्जे में करने का इन्तजाम आज कर लिया गया है। हो सकता है, अगले रविवार तक वह मेरे कब्जे में आ जाए। फिर उसे पढ़ने और आप सब के साथ मिल बांटने का अवसर प्राप्त होगा।
  • चित्र - 1998 का साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त जोस सर्मागो

बुधवार, 22 अक्टूबर 2008

मार्क्स फिर से फैशन में .....

हसन सरूर लंदन से दी हिन्दू के लिए लिखते हैं ....... 

पूंजीवाद के वैश्विक संकट के समय कार्ल मार्क्स पश्चिम में फिर से फैशन में लौट आए हैं। उन का मौलिक काम दास कैपीटल फिर से बेस्ट-सेलर्स की सूची में है। उन की अपनी मातृभूमि जर्मनी में इस किताब की  अलमारियां खाली हो रही हैं, क्यों कि असफल बैंकर्स और स्वतंत्र बाजार के अर्थशास्त्रियों की  वैश्विक आर्थिक गलन को समझने की कोशिश नाकाम रही। मार्क्स के जन्मस्थान ट्रायर में दर्शनार्थियों की संख्या अचानक बढ़ गई है और एक फिल्मकार एलेक्जेंडर क्लूग दास कैपिटल के फिल्मीकरण की योजना बना रहे हैं। फ्रांसिसी राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने इसे दिशा-निर्धारक कहा है, जर्मन वित्त मंत्री पीर स्टीनब्रुक सर्वत्र इस की प्रशंसा कर रहे हैं और पोप इस के महान विश्लेषणात्मक गुणों की सराहना।

आर्चविशप कैंटरबरी रोवन विलियम्स मार्क्स के विश्लेषण को स्मरण करते हुए कहते हैं कि मार्क्स ने बहुत पहले दिखा दिया था कि निरंकुश पूँजीवाद एक प्रकार की पौराणिक कथा, घिसी हुई वास्तविकता और निर्जीव शक्तियों का अभिकर्ता हो जाएगा।  

आखिर क्या है? इस मार्क्स की दास कैपीटल में कि इस के लेखक को पूरी एक शताब्दी तक जम कर गालियाँ दी गई, जम कर कोसा गया।  आज फिर उन्हीं गालियाँ देने वालों के अनुयायी फिर से उसी मार्क्स को स्मरण कर रहे हैं। आखिर कुछ तो लिखा होगा उस ने।

बहुत पहले, करीब तीस साल पहले जब कार्ल मार्क्स भारत में बहुत चर्चा का विषय था। मैं ने पूंजी का हिन्दी अनुवाद खरीदा था, बहुत सस्ते में। मगर इस साल दीवाली की सफाई में वह नहीं मिला। मुझे उसे पढ़ने की फुरसत मिलती इस से पहले कोई उसे खुद अपने पढ़ने के लिए या फिर अपना पुस्तकालय सजाने के लिए ले गया।  

सोचता हूँ मार्क्स की पूंजी दास कैपिटल की एक प्रति मैं भी कहीं से प्राप्त कर पढ़ लूँ। जान लूँ , कि क्यों इन तमाम जाने माने लोगों को यह किताब पूँजी के वैश्विक संकट के समय याद आ रही है? वह मुझे मिल गई तो उसे जरूर पढ़ूंगा और आप को बताऊंगा भी, कि क्या लिखा है उस में? 

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2008

खुश खबरी, जेट की छंटनी वापस, लोग चटनी न हुए

अभी अभी खबर मिली है कि जेट एयरवेज की छंटनी प्रबंधकों  ने वापस ले ली है। मेरे लिए इस से अच्छी खबर कोई नहीं हो सकती। मैं ने कोटा के जे.के. सिन्थेटिक्स लि. में 1983 जनवरी में हुई 2400 स्थाई कर्मचारियों की छंटनी और 5000 अन्य लोगों का बेरोजगार होना देखा है। उस छंटनी का अभिशाप कोटा नगर आज तक झेल रहा है। उस के बाद 1997 में जे. के. सिन्थेटिक्स के कोटा और झालावाड़ के सभी कारखानों का बंद होना और आज तक उन का हिसाब कायदे से नहीं देना भी देखा। उन कर्मचारियों और उन के परिवारों में से डेढ़ सैंकड़ा से अधिक को आत्महत्या करते भी देखा है। आज तक वे परिवार नहीं उठ पाए हैं।

जिस समस्या के हल के लिए छंटनी की जा रही थी। छंटनी उसे और तीव्र करती है। मंदी का मूल कारण था मुनाफे का लगातार पूंजीकरण और आम लोगों तक प्रगति का लाभ नहीं पहुँचना। जब आम लोगों तक धन पहुँचेगी ही नहीं तो बाजार में खरीददार आएगा कहाँ से? छंटनी से तो आप आम लोगों तक धन की पहुँच आप और कम कर रहे हैं। सीधा सीधा अर्थ है कि आप बाजार के संकुचन में वृद्धि कर रहे हैं। आग में घी ड़ाल रहे हैं।

इसी को कहते हैं, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। अपनी कब्र खुद अपने हाथों खोद डालना। पूँजीवाद यही करता है और कर रहा है। सदी पहले मंदी का दौर 15-16 वर्ष में आता था। सदी भर में यह 6-8 वर्ष रह गया। अब हालात है कि विश्व एक मंदी से उबर ही रहा होता है कि अगली मंदी की आगाज हो जाता है। सपने अंत तक देखें जाएँ उस के पहले ही टूट रहे हैं।

हम ने मार्क्सवाद और इतिहास के अंत की घोषणाएँ सुनी और उस पर विश्वास भी किया। समाजवाद को दफ्न कर दिया ताकि मनुष्यों को रौंदता पूँजीवाद अमर हो जाए। पर अमृत की तलाश तो सभी को थी। दास-युग, सामंतवाद को भी। वे अमर नहीं हो सके। कोई अमर नहीं है, सिवाय इस दिशा-काल-पदार्थ-ऊर्जा की इस शाश्वत व्यवस्था के। यह पूँजीवाद भी अमर नहीं। सोचना तो पड़ेगा कि मनुष्य समाज आगे किस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला है?