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सोमवार, 15 मार्च 2010

उपभोक्ताओं को अपने अधिकारों के लिए संगठित हो कर खुद आगे आना होगा

ज अट्ठाइसवाँ विश्व उपभोक्ता दिवस था। 1983 में कंजूमर्स इंटरनेशनल नाम की संस्था ने इसे आरंभ किया था। यह संस्था इसी वर्ष अपने जन्म का पचासवाँ वर्ष भी मना रही है। दुनिया में पैदा हुआ मानव समाज का प्रत्येक सदस्य एक उपभोक्ता है। इस संस्था के गठन का मूल मकसद यही था कि दुनिया भर के सभी उपभोक्ता यह जानें कि बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए उनके क्या हक हैं। साथ ही सभी देशों की सरकारें उपभोक्ताओं के अधिकारों का ख्याल रखें। प्रतिवर्ष 15 मार्च को विश्व उपभोक्ता दिवस मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष उपभोक्ता दिवस एक नया नारा देती है। इस वर्ष का नारा है "हमारा धन हमारा अधिकार"। इस नारे के माध्यम से इस वर्ष वित्तीय सेवाओं के संदर्भ में उपभोक्ता अधिकारों पर ध्यान केन्द्रित किया जाएगा।
पभोक्ता आंदोलन के प्रभाव ने भारत सरकार को उपभोक्ता संरक्षण के लिए कानून बनाने के लिए बाध्य किया। इस तरह भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधनियम 1986 अस्तित्व में आया और उपभोक्ताओं के संरक्षण के लिए जिला स्तर पर उपभोक्ता प्रतितोष मंच, राज्य स्तर पर राज्य उपभोक्ता प्रतितोष आयोग और राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय उपभोक्ता प्रतितोष आयोग अस्तित्व में आए। तब से अब तक देशभर के जिला उपभोक्ता मंचों में दर्ज 28 लाख मामलों में से 25 लाख से अधिक मुकदमों का निपटारा किया जा चुका है। राजस्थान दूसरे स्थान पर है जहां 2 लाख 20 हजार से अधिक मामलें निपटाये जा चुके है।
राजस्थान राज्य उपभोक्ता प्रतितोष आयोग ने महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और कर्नाटक को पीछे छोड़ते हुए ने 40 हजार से अधिक मामलों का निस्तारण करके देश में प्रथम स्थान हासिल किया है। देश के विभिन्न राज्य आयोगों द्वारा अब तक करीब चार लाख मामलों का निस्तारण किया गया है और इनमें हर दस में से एक प्रकरण राजस्थान में निपटाया गया है। महाराष्ट्र द्वितीय, मध्यप्रदेश तृतीय और कर्नाटक चतुर्थ स्थान पर है यहां के राज्य आयोगों ने अब तक 30 से 32 हजार मुकदमों का निपटारा किया है। 31 जनवरी तक राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग में दर्ज 62972 मामलों में 55192 का निपटाया किया जा चुका है। इसी तरह देशभर के राज्य आयोगों में प्राप्त सूचनाओं के अनुसार 496378 मामलें दायर किये गये जिनमें से 387974 का निपटारा किया जा चुका है। इस अवधि में उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक और लक्षद्वीप में सबसे कम मामलें दर्ज किए गए।
ये तो वे तथ्य हैं जो आंकड़ों के माध्यम से सामने आए हैं। लेकिन ग्राउंड लेवल पर क्या हाल हैं? यह केवल उपभोक्ता प्रतितोष मंच या आयोगों के कार्यस्थलों पर जा कर ही पता किया जा सकता है। कोटा में पिछले दो वर्षों तक जिला उपभोक्ता प्रतितोष मंच किसी न किसी कारण से कार्य करने में अक्षम रहा है। काम को गति देने के लिए अब झालावाड़ जिले के उपभोक्ता प्रतितोष मंच को इस की सहायता के लिए लगाया गया है जो माह में दो सप्ताह कोटा में रह कर काम करता है। फिर भी उपभोक्ता विवादों में निर्णय की गति संतोषजनक नहीं बन सकी है।
ज मैं उपभोक्ता प्रतितोष मंच गया तो वहाँ सदा की तरह मध्यान्ह अवकाश के पूर्व केवल कार्यालय का ही काम होता है। मैं उपभोक्ता प्रतितोष मंच के अध्यक्ष से मिलना चाहता था। लेकिन वे मध्यान्ह अवकाश तक मंच के कार्यालय में उपलब्ध नहीं थे। कार्यालय के कर्मचारियों को पता नहीं था कि आज विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस है। मंच के एक सदस्य अवश्य वहाँ मिले उन्हों ने बताया कि आज मंच की ओर से कोई विशेष कार्यक्रम आयोजित नहीं किया गया है और न ही मंच की किसी कार्यक्रम में भागीदारी है। वहाँ यह जानकारी मिली कि इस संबंध में जो भी कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं वे रसद विभाग द्वारा आयोजित किए जाते हैं। जिला रसद अधिकारी अपने कार्यालय में कंप्यूटर पर व्यस्त मिले। उन्हों ने बताया कि उन्हें तो बिलकुल फुरसत नहीं है। वे तो विधानसभा से आई प्रश्नावलियों के उत्तर तैयार करने के सब से मुश्किल कर्तव्य में उलझे पड़े हैं।
मैं ने जब उन्हें बताया कि आज विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस पर कुछ तो उपभोक्ता अधिकारों की जानकारी जनता तक पहुँचाने के लिए होना चाहिए था। उन्हों ने कहा कि एक स्कूल में इस विषय पर निबंध प्रतियोगिता आयोजित की गई है और रैली भी निकाली जाएगी। अब तक ये काम हो चुके होंगे। वे हों न हों पर कल अवश्य ही इन दोनों कामों के संपन्न हो जाने की खबरें स्थानीय अखबारों में अवश्य ही होंगी।
कुल मिला कर देश मे उपभोक्ता आंदोलन बहुत कमजोर है। यह तब तक आगे नहीं बढ़ सकता जब तक कि स्वैच्छिक उपभोक्ता संगठन मजबूत हो कर आगे नहीं आते। लोगों को खुद अपने अधिकारों के लिए आगे आना होगा। अपने अधिकारों के लिए लगातार आवाज उठाना होगी। आप टिकट की लाइन में लगे हैं या बिल भरने की बारी, जैसे ही आई कांच व जाली के पीछे बैठे शख्स ने गुटखा चबाते हुए कह दिया थोड़ी देर बाद आना और आप बगैर किसी प्रतिरोध के लाइन में ही खड़े रह गए तो आपके हित में कौन बोलेगा। न व्यक्तिगत स्तर पर प्रतिरोध होता है, न संगठित विरोध। हालांकि ठगे गए उपभोक्ता को न्याय दिलाने के लिए उपभोक्ता प्रतितोष मंचों की व्यवस्था है और अनुभव बताता है, जो भी वहां जाता है न्याय जरूर पाता है, लेकिन वहां तक जाने की जहमत तो उपभोक्ता को उठाना ही पड़ेगी। खाद्य पदार्थो में मिलावट जैसे संगीन मामले भी उपभोक्ता संरक्षण के दायरे में आते हैं। हाल ही में एक ब्रांडेड अचार में मरा चूहा निकलने पर जुर्माने का फैसला हुआ, लेकिन क्या उसके बाद भी उपभोक्ता जागे? क्या उस ब्रांड को लेकर विरोध के स्वर उभरे? यहाँ तक कि यहाँ ब्लाग जगत में भी उपभोक्ता हितों के बारे में आज भी सब से कम ही लिखा गया है।

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2008

खुश खबरी, जेट की छंटनी वापस, लोग चटनी न हुए

अभी अभी खबर मिली है कि जेट एयरवेज की छंटनी प्रबंधकों  ने वापस ले ली है। मेरे लिए इस से अच्छी खबर कोई नहीं हो सकती। मैं ने कोटा के जे.के. सिन्थेटिक्स लि. में 1983 जनवरी में हुई 2400 स्थाई कर्मचारियों की छंटनी और 5000 अन्य लोगों का बेरोजगार होना देखा है। उस छंटनी का अभिशाप कोटा नगर आज तक झेल रहा है। उस के बाद 1997 में जे. के. सिन्थेटिक्स के कोटा और झालावाड़ के सभी कारखानों का बंद होना और आज तक उन का हिसाब कायदे से नहीं देना भी देखा। उन कर्मचारियों और उन के परिवारों में से डेढ़ सैंकड़ा से अधिक को आत्महत्या करते भी देखा है। आज तक वे परिवार नहीं उठ पाए हैं।

जिस समस्या के हल के लिए छंटनी की जा रही थी। छंटनी उसे और तीव्र करती है। मंदी का मूल कारण था मुनाफे का लगातार पूंजीकरण और आम लोगों तक प्रगति का लाभ नहीं पहुँचना। जब आम लोगों तक धन पहुँचेगी ही नहीं तो बाजार में खरीददार आएगा कहाँ से? छंटनी से तो आप आम लोगों तक धन की पहुँच आप और कम कर रहे हैं। सीधा सीधा अर्थ है कि आप बाजार के संकुचन में वृद्धि कर रहे हैं। आग में घी ड़ाल रहे हैं।

इसी को कहते हैं, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। अपनी कब्र खुद अपने हाथों खोद डालना। पूँजीवाद यही करता है और कर रहा है। सदी पहले मंदी का दौर 15-16 वर्ष में आता था। सदी भर में यह 6-8 वर्ष रह गया। अब हालात है कि विश्व एक मंदी से उबर ही रहा होता है कि अगली मंदी की आगाज हो जाता है। सपने अंत तक देखें जाएँ उस के पहले ही टूट रहे हैं।

हम ने मार्क्सवाद और इतिहास के अंत की घोषणाएँ सुनी और उस पर विश्वास भी किया। समाजवाद को दफ्न कर दिया ताकि मनुष्यों को रौंदता पूँजीवाद अमर हो जाए। पर अमृत की तलाश तो सभी को थी। दास-युग, सामंतवाद को भी। वे अमर नहीं हो सके। कोई अमर नहीं है, सिवाय इस दिशा-काल-पदार्थ-ऊर्जा की इस शाश्वत व्यवस्था के। यह पूँजीवाद भी अमर नहीं। सोचना तो पड़ेगा कि मनुष्य समाज आगे किस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला है?

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी

चिट्ठाकार समूह पर कल भाई अविनाश गौतम ने पूछा कि 'संस्करण' के लिए उर्दू शब्द क्या होगा तो अपने अनुनाद सिंह जी ने जवाब में जुमला थर्राया कि अपने दिनेशराय जी कहते हैं कि हिन्दी और उर्दू एक ही भाषाएँ हैं और आप संस्करण के लिए उर्दू शब्द पूछ रहे हैं। मेरे खयाल से आप को समानार्थक अरबी या फारसी शब्द चाहिए। और अविनाश जी का आग्रह पुनः आया कि अरबी हो या फारसी या बाजारू आप को पता हो तो बता दीजिए। आग्रह माना गया और शब्द खोज पर शब्द बरामद हुआ वह "अशीयत" या "आशियत" था। इस के साथ ही और भी कुछ खोज में बरामद हुआ।
नॉर्थ केरोलिना स्टेट युनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ ह्युमिनिटीज एण्ड सोशल साइंसेज के विदेशी भाषा एवं साहित्य विभाग मे हिन्दी-उर्दू प्रोग्राम के सहायक प्रोफेसर Afroz Taj अफरोज 'ताज' ने उन की पुस्तक Urdu Through Hindi: Nastaliq With the Help of Devanagari (New Delhi: Rangmahal Press, 1997) में हिन्दी उर्दू सम्बन्धों पर रोशनी डाली है यहाँ मैं उन के विचारों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूँ:

दक्षिण एशिया में एक विशाल भाषाई विविधता देखने को मिलती है।  कोई व्यक्ति कस्बे से कस्बे तक. या शहर से दूसरे शहर तक, या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक यात्रा करे तो वह  लहजे में, परिवर्तन, बोलियों में परिवर्तन, और भाषाओं में परिवर्तन देखेगा। भाषाओं के मध्य उन्हें विलग करने वाली रेखाएं अक्सर अस्पष्ट हैं। वे एक दूसरे में घुसती हुई, घुलती हुई, मिलती हुई धुंधला जाती हैं।  यहाँ तक कि एक ही सड़क, एक ही गली  में बहुत अलग-अलग तरह की भाषाएँ देखने को मिलेंगी। एक  इंजीनियरिंग का छात्र, एक कवि, एक नौकर और एक मालिक सब अलग-अलग लहजे, शब्दों और भाषाओं में बात करते पाए जाएँगे।
फिर वह क्या है?  जिस से हम एक भाषा को परिभाषित कर सकते हैं। वह क्या है जो भाषा को अनूठा बनाता है?



क्या वह उस के लिखने की व्यवस्था अर्थात उस की लिपि है? या वह उस का शब्द भंडार है? या वह उस के व्याकरण की संरचना है? हम एक भाषा को उस के लिखने के तरीके या लिपि से पहचानने का प्रयास करते हुए केवल भ्रमित हो सकते हैं। अक्सर असंबन्धित भाषाऐं एक ही लिपि का प्रयोग करती हैं। किसी भी भाषा का रूपांतरण उस की मूल ध्वनियों और संरचना को प्रभावित किए बिना एक नयी लिपि में किया जा सकता हे। विश्व की अधिकांश भाषाओं ने अपनी लिपि अन्य भाषाओं से प्राप्त की है। उदाहरण के रूप में अंग्रेजी, फ्रांसिसी और स्पेनी भाषाओं ने अपनी लिपियाँ लेटिन से प्राप्त की हैं। लेटिन के अक्षर प्राचीन ग्रीक अक्षरों से विकसित हुए हैं। जापानियों ने अपने शब्दारेख चीनियों से प्राप्त किए हैं। बीसवीं शताब्दी में इंडोनेशियाई और तुर्की भाषओं ने अरबी लिपि को त्याग कर रोमन लिपि को अपना लिया। जिस से उन की भाषा में कोई लाक्षणिक परिवर्तन नहीं आया। अंग्रेजी को मोर्स कोड, ब्रेल, संगणक की द्वि-अँकीय लिपि में लिखा जा सकता है। यहाँ तक कि देवनागरी में भी लिखा जा सकता है, फिर भी वह अंग्रेजी ही रहती है।  

तो केवल मात्र व्याकरण की संरचना ही है, जिस के लिए कहा जा सकता है कि उस से भाषा को चिन्हित किया जा सकता है। लिपि का प्रयोग कोई महत्व नहीं रखता, यह भी कोई महत्व नहीं रखता कि कौन सी शब्दावली प्रयोग की जा रही है? एक व्याकरण ही है जो नियमित और लाक्षणिक नियमों का अनुसरण करता है। ये नियम क्रिया, क्रियारूपों, संज्ञारूपों, बहुवचन गठन, वाक्य रचना आदि हैं, जो एक भाषा में लगातार एक जैसे चलते हैं, और विभिन्न भाषाओं में भिन्न होते हैं। इन नियमों का तुलनात्मक अध्ययन हमें एक भाषा को दूसरी से पृथक करने में मदद करते हैं। इन अर्थों में हिन्दी और उर्दू जिन की व्याकरणीय संरचना एक समान और एक जैसी है, एक ही भाषा कही जाएँगी।  

हिन्दी और उर्दू का विकास कैसे हुआ? और इस के दो नाम क्यों है? इस के लिए हमें भारत की एक हजार वर्ष के पूर्व की भाषाई स्थिति में झांकना चाहिए। भारतीय-आर्य भाषा परिवार ने दक्षिण एशिया में प्राग्एतिहासिक काल में आर्यों के साथ प्रवेश किया और पश्चिम में फारसी काकेशस से पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक फैल गईं। संस्कृत की परवर्ती बोलियाँ जिन में प्रारंभिक हिन्दी की कुछ बोलियाँ, मध्यकालीन पंजाबी, गुजराती, मराठी और बंगाली सम्मिलित हैं, साथ ही उन की चचेरी बोली फारसी भी इन क्षेत्रों में उभरी। पूर्व में भारतीय भाषाओं ने प्राचीन संस्कृत की लिपि देवनागरी को विभिन्न रूपों में अपनाया। जब कि फारसी ने पश्चिम में अपने पड़ौस की अरबी लिपि को अपनाया। हिन्दी अपनी विभिन्न बोलियों खड़ी बोली, ब्रजभाषा, और अवधी समेत मध्य-उत्तरी भारत में सभी स्थानों पर बोली जाती रही।

लगभग सात शताब्दी पूर्व दिल्ली के आसपास के हिन्दी बोलचाल के क्षेत्र में एक भाषाई परिवर्तन आया। ग्रामीण क्षेत्रों में ये भाषाएँ पहले की तरह बोली जाती रहीं। लेकिन दिल्ली और अन्य नगरीय क्षेत्रों में फारसी बोलने वाले सुल्तानों और उन के फौजी प्रशासन के प्रभाव में एक नयी भाषा ने उभरना आरंभ किया, जिसे उर्दू कहा गया।  उर्दू ने हिन्दी की पैतृक बोलियों की मूल तात्विक व्याकरणीय संरचना और शब्दसंग्रह को अपने पास रखते हुए, फारसी की नस्तालिक लिपि और उस के शब्द संग्रह को भी अपना लिया। महान कवि अमीर खुसरो (1253-1325) ने उर्दू के प्रारंभिक विकास के समय फारसी और हिन्दी दोनों बोलियों का प्रयोग करते हुए फारसी लिपि में लिखा। 

विनम्रता पूर्वक कहा जाए तो सुल्तानों की फौज के रंगरूटों में बोली जाने वाली होच-पोच भाषा अठारवीं शताब्दी में सुगठित काव्यात्मक भाषा में परिवर्तित हो चुकी थी।

यह महत्वपूर्ण है कि शताब्दियों तक उर्दू मूल हिन्दी की बोलियों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर विकसित होती रही। अनेक कवियों ने दोनों भाषाओं में सहजता से रचनाकर्म किया। हिन्दी और उर्दू में अन्तर वह केवल शैली का है। एक कवि समृद्धि की आभा बनाने के लिए उर्दू-फारसी के सुंदर, परिष्कृत शब्दों का प्रयोग करता था और दूसरी ओर ग्रामीण लोक-जीवन की सहजता लाने के लिए साधारण ग्रामीण बोलियों का उपयोग करता था। इन दोनों के बीच बहुमत लोगों द्वारा दैनंदिन प्रयोग में जो भाषा प्रयोग में ली जाती रही उसे साधारणतया हिन्दुस्तानी कहा जा सकता है।
क्यों कि एक हिन्दुस्तानी की रोजमर्रा बोले जाने वाली भाषा किसी वर्ग या क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं थी, इसी हिन्दुस्तानी को आधुनिक हिन्दी के आधार के रूप में भारत की ऱाष्ट्रीय भाषा चुना गया है।  आधुनिक हिन्दी अनिवार्यतः फारसी व्युत्पन्न साहित्यिक उर्दू के स्थान पर संस्कृत व्युत्पन्न शब्दों से भरपूर हिन्दुस्तानी है। इसी तरह से उर्दू के रूप में हिन्दुस्तानी को पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाया गया। क्योंकि वह भी आज के पाकिस्तान के किसी क्षेत्र की भाषा नहीं थी।
इस तरह जो हिन्दुस्तानी भाषा किसी की वास्तविक मातृभाषा नहीं थी वह आज दुनियाँ की दूसरी सब से अधिक बोले जाने वाली भाषा हो गई है और सबसे अधिक आबादी वाले भारतीय उप-महाद्वीप में सभी स्थानों पर और पृथ्वी के अप्रत्याशित कोनों में भी समझी जाती है।

गुरुवार, 1 मई 2008

नारकीय जीवन का जुआ उतार फेंकने के संकल्प का दिन

अनेक देशों में पहली मई को वसंत के आगमन, पृथ्वी पर जीवन व नयी फसलों के आगमन और मनुष्य जीवन में खुशियों के स्वागत के लिए मनाया जाता रहा। लेकिन 122 वर्ष पूर्व हुए एक बड़े कत्लेआम और उस के फलस्वरूप खून से रंग कर लाल हुई सड़कों ने इस का स्वरूप ही बदल कर रख दिया।

खुशियों के स्वागत के इस दिन, पहली मई 1886 को अमरीका के श्रमजीवी शिकागो, न्यूयॉर्क, पिटस्बर्ग और कुछ अन्य नगरों में लाखों की संख्या में संख्या में एकत्र हुए और उन्हों ने काम के घंटे आठ किए जाने की मांग के लिए प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन को नाइटस् ऑफ लेबर, न्यू अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर, विभिन्न श्रमिक अराजकतावादियों और समाजवादियों का समर्थन प्राप्त था। इन प्रदर्शनों को अमरीका के कारखाना मालिकों के अखबारो ने अमरीका में पेरिस कम्यून जैसी अवस्था कायम करने की कोशिश करार दिया था।

पहली मई के तीन दिन बाद श्रम अराजकतावादियों ने एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया जिस पर पुलिस दमन में सैंकड़ों प्रदर्शनकारी मारे गए, आठ को गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया, जिन में से चार को मृत्युदण्ड दे दिया गया।

इस के बाद 1889 में पेरिस में हुई समाजवादियों और अन्य श्रमिक कार्यकर्ताओं की अन्तर्ऱाष्ट्रीय बैठक में यह तय हुआ कि पहली मई को आठ घंटों के काम की मांग के लिए दुनियाँ भर में प्रदर्शन किए जाएंगे। 1890 में इस दिन को प्रतिवर्ष प्रदर्शन किये जाने का निर्णय कर लिया गया।

आठ घंटों के काम के दिन के लिए प्रारंभ हुए इस संघर्ष का आज 120 सालों के बाद भी कोई अंत नहीं है। एक ओर दुनियाँ भर में बेरोजगारी है, और दूसरी ओर लोग अपने जीवन यापन और जीवन स्तर को बनाए रखने के लिए 20-20 घंटो तक काम करना पड़ रहा है। कुछ एक देशों को छोड़ दें तो सारी दुनियाँ में यही व्यवस्था जारी है। जिस का अर्थ है कि विकास का मूल्य अपने श्रम को बेचकर जीवनयापन कर रहे आम श्रमजीवी ही चुका रहे हैं।

आज की विश्व व्यवस्था ने इन श्रमजीवियों को मजदूर, सुपरवाइजर, अधिकारी, प्रबन्धक और वकील, डाक्टर, सलाहकार आदि श्रेणियों में बांट दिया है। लालच दिखाने के लिए इन में से कुछ को अच्छे वेतन, मानदेय, व शुल्क दिए जाते हैं, किन्तु इन सभी श्रेणियों के श्रमजीवियों के सामान्य सदस्यों को जिनकी संख्या 95 प्रतिशत से भी अधिक है अपने वर्तमान जीवन स्तर को बचाने के प्रयत्नों में कठोर संघर्ष की लपटों के बीच जीवन भर झुलसते रहना पड़ता है। फिर भी वे अपना जीवन स्तर बनाए नहीं रख पाते और नीचे की श्रेणियों में जाने को विवश हैं।

श्रमजीवियों के वेतनों, मजदूरियों, मानदेयों व शुल्कों को उत्पादन से जोड़ कर उनके काम के घण्टों की सीमा को समाप्त कर दिया गया है। अपने जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें बारह से बीस-बीस घण्टों तक प्रतिदिन काम करना पड़ रहा है।

इस अवस्था ने एक ओर नौजवानों के लिए नियोजनों के अवसरों को सीमित कर बेरोजगारी को तेजी से बढ़ाया है, तो दूसरी ओर असीमित काम के घण्टों, माल व सेवा उत्पादनों की जिम्मेदारियों ने नियोजित श्रमजीवियों के जीवन को नारकीय कर दिया है। उनका पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन नष्ट हो रहा है। पर्याप्त शारीरिक-मानसिक विश्राम के अभाव में लोग तनाव में जी रहे हैं। अवसाद (डिप्रेशन) के शिकार हो रहे हैं। उन की पत्नियां/पति उन का साथ छोड़ रहे है, सन्तानें राहच्युत हो रही हैं। अनेक आत्महत्या करने को विवश हैं, तो अधिकांश मानसिक और शारीरिक रोगों के ग्रास बन कर जीवनभर कष्ट भोगते हुए अपनी-अपनी मृत्यु की ओर कदम बढ़ाने को अभिशापित कर दिए गए हैं।

इस मई दिवस पर सभी श्रेणियों के श्रमजीवियों से मेरा आग्रह है कि क्या उन्हें अपने इस नारकीय जीवन को ऐसे ही चलते हुए, और अधिक नारकीय होते सहन करते रहना चाहिए? क्या इस का अन्त नहीं होना चाहिए? क्यों कि मेरा मानना है कि उन के जीवन के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, नारकीय जीवन का जुआ वे खुद अपने काँधों पर ढोए हुए हैं। कोई भी उन के इस जुए को उतारने के लिए नहीं आएगा। उन्हें यह जुआ खुद ही उतारना होगा। बस देर है तो इकट्ठा होने और संकल्प कर यह तय करने की कि वे यह जुआ कब उतारने जा रहे हैं।

रविवार, 9 मार्च 2008

“विश्व सुंदरी”

कल आलेख पोस्ट होने के तुरन्त बाद ही एक और कविता महेन्द्र नेह से प्राप्त हुई। मुझे लगा कि वे इसे कल अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आप तक पहुँचाना चाहते थे। तब तक ब्लॉगर पर कुछ अवरोध आ गया। मैं ने उन्हें नहीं बताया। लेकिन आज इस कविता विश्व सुंरीको आप के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ.............

विश्व सुंरी


महेन्द्र 'नेह'

चलते चलते

राह में ठिठक गई

इस एक अदद औरत को क्या चाहिए?

इस के पावों को चाहिए

दो गतिमान पहिए

ले जाएँ इसे जो

धरती के ओर-छोर

इसे चाहिए

एक ऐसा अग्निकुण्ड

जिस में नहा कर

पिघल जाए

इस की पोर-पोर में जमी बर्फ

दुनियाँ के शातिर दिमाग

लगा रहे हैं हिसाब

कितने प्रतिशत आजादी

चाहिए इसे?

गुलामी से कितने प्रतिशत चाहिए निजात?

ये, कहीं बहने ना लग जाए

नदी की रफ्तार

कहीं उतर न आए सड़क पर

लिए दुधारी तलवार..........

इस से पहले कि

बाँच सके यह

किताब के बीच

फड़फड़ाते काले अधर

सजा दिए जाएँ

इस के जूड़े में रंगीन गजरे

गायब कर दी जाए

इस की असल पहचान

स्वयं के ही हाथों

उतरवा लिए जाएँ

बदन पर बचे खुचे परिधान

गहरे नीले अंधेरे के बीच

अलंकृत कर दिया जाए

इस के मस्तक पर

विश्व सुंदरी का खिताब

इस से पहले

कि हो सके यह

सचमुच आजाद.............

* * * * * * *

मंगलवार, 1 जनवरी 2008

जब्भी चाहो मनाऔ नयो साल, मना मती करो ....(2)

पिछले साल से आगे ........................

आप ने अब तक अपने लिए नया साल नहीं चुना हो तो आगे बढ़ा जाए। पंजाब के लोग १३ अप्रेल को बैसाखी के दिन से अपना नया साल शुरू करते हैं और जितनी धूमधाम से इसे मनाते हैं, दुनियाँ भर में शायद ही कोई अन्य नववर्ष मनाया जाता हो। मुझे यह नववर्ष सब से अधिक वैज्ञानिक प्रतीत होता है। इस दिन मेष की संक्रांति होती है, और सूरज मीन राशि से निकल कर मेष राषि में प्रवेश करता है। यानी सूरज एक राशिचक्र को पूरा कर नए राशि चक्र में प्रवेश करता है। इन दिनों फसलें खेतों से घरों पर आ चुकी होती हैं, अधिकांश बिक भी चुकी होती हैं, तो रोकड़ा किसान के पास होता है। पूरे भारत में अर्थचक्र तेजी से घूमने लगता है। लोगों के चेहरों पर चमक होती है। मैं इस दिन चाह कर भी नववर्ष नहीं मना पाता। मेरे यहां कोई भी परिवार-सदस्य, दोस्त या रिश्तेदार इसे नहीं मनाता और उन के बिना काहे का नववर्ष इसलिए मैं भी नहीं मना पाता।

अपने मनपसंद, पर नहीं मनाए जा सकने वाले इस नववर्ष का बखान बहुत हो लिया। अब आगे बढ़ा जाए। इस से अगले ही दिन बंगाली और आसामी अपना नववर्ष मनाते हैं। कैसे इस की विशेष जानकारी मुझे नहीं. देबू दा’ इस बारे में अधिकारिक रूप से बता सकते हैं। मैं इस विषय पर आलेख लिखने के उन के अधिकार पर डाका क्यों डालूँ।

अब हम सीधे अगस्त के महीने में आ जाते हैं। इस बीच किसी का नववर्ष छूट गया हो तो माफ करना, और टिप्पणी कर, अपनी नाराजगी दूर कर लेना। मैं उसे सहेज लूंगा, अगले साल का नववर्ष आलेख लिखने के काम आ जाऐँगी या बीच में जब भी भूला हुआ नववर्ष पड़ जाएगा, तभी ठेल दूंगा। इसी महीने भाद्रपद शुक्ल तृतिया को जैन धर्मावलम्बी संवत्सरी मनाते हैं, और जैन नववर्ष इसी दिन से आरम्भ होता है।

अब तक आप ने नववर्ष मनाने के लिए अपना दिन तय कर लिया होगा। अगर नहीं किया हो तो अब यह आखिरी अवसर है। कम से कम तब तक, जब तक कि मैं, आप या और कोई भी अन्य कोई दिन नववर्ष मनाने के लिए ढूंढ नहीं लाता है। अब हाजिर है, आप का मन पसंद दिन, यानी कार्तिक की अमावस्या का दिन। जब अमावस्या की काली रात में पूरा भारत जगमगा उठता है। सोने वालों की नीन्द धमाकों से हराम रहती है। रहे भी क्यों नहीं। यार, कोई ये भी सोने का दिन है, यह तो सोने वाली के आने का दिन है। जागो और घर का दरवाजा खुल्ला रक्खो, जाने कब लक्ष्मी जी आ जाऐं, और आप उन की किरपा से वंचित हो जाऐं। भारत के आज कल के वास्तविक राजपुरुष, यानी व्यापारी, उद्योगपति, पूंजीपति और देसी में ‘बनिए’ इसी दिन से अपना नववर्ष शुरु करते हैं। आप भी कर लीजिए। मुझे तो इसी में सुभीता और लाभ-शुभ नजर आता है। त्यौहार तो मनाना ही है। नववर्ष बोनस में मनाया जा सकता है।

और भी कोई दिन आप को पता हो, या कभी लग जाए तो मुझे जरुर बताऐं। अगले साल गारण्टी के साथ आप के नाम के साथ उस का जिक्र करुंगा। लेकिन.....

इस पोस्ट को समाप्त करने के पहले मुझे मेरे शहर के हास्य कवि दिवंगत श्री गुलकन्द जी का स्मरण हो आया है। उन की अंतिम आकांक्षा यह थी कि उन की अंतिम यात्रा में कोई भी ऐसा न हो जिसने भंग नहीं पी रखी हो। जो लोग गलती से सादा पहुँच गए हों. तो मुक्ति धाम (श्मशान) में ही घोंटें, और पिएं। कोई ऐसा न हो जिस ने शंकर जी के प्रसाद का सेवन नहीं किया हो। वे अपनी ये वसीयत कविता के रूप में मृत्यु के कुछ दिन पहले ही लिख कर अपने पुत्रों के हवाले कर गए।

इन्हीं गुलकन्द जी के एक मित्र दूसरे मित्र से मिले। तो दूसरे ने पूछा कि कल आप कवि गोष्टी में नहीं आए। तो जवाब मिला कि गुलकन्द जी ने जन्मदिन मनाया था, उसी पार्टी में था। पूछने वाले की प्रतिक्रिया थी, कि आप झूठ बोल रहे हैं, गुलकन्द जी का जन्मदिन तो पिछले महीने था, और मैं खुद उस पार्टी में शामिल था। पूछताछ पर पता लगा कि गुलकन्द जी साल में तकरीबन आठ-दस बार जन्मदिन मना लिया करते थे। मेरा कहने का मतलब ये है, कि भैया उल्लास का मौका हो, तो कब्भी मना लो। साल में दस बार क्यों नहीं। और नहीं मनाना हो तो मती मनाओ पर ओरन को तो मना मती करो।

अब आया आज का दिन। यानी कि एक जनवरी का दिन। सारी दुनियाँ में ही नहीं भारतवर्ष यानी हिन्दुस्तान में भी सब से अधिक लोग इसी दिन नया साल मनाते हैं। और जिस दिन को बहुमत जनता नववर्ष मनाए, वही हमारा भी नया साल।

तो नया साल आप के लिए नई खुशियाँ लाए, बधाइयाँ, और बधाइयाँ

शनिवार, 29 दिसंबर 2007

दुनियाँ को बचा लो.....

उधर बेनजीर के कत्ल की खबर टीवी पर आई और इधर ब्रॉडबेंड का बेंड बज गया शाम पाँच बजे नेट लौटा। खबर से मन खराब हो गया। कुछ लिखना चाहता था। लेकिन तब तक ब्लॉग जगत में इस पर बहुत कुछ आ चुका था और हत्या से विचलित मानवीय संवेदनाओं का ज्वार तब तक विमर्श तक पहुँच चुका था। जब भी कोई घटना दुनियां के एक बड़े जन समूह के मानस को झकझोर दे तो वह विमर्श के लिए सही समय होता है। सभी के सूत्र घटना से जुड़े होते हैं। यदि विमर्श की दिशा सही हो तो इस समय के विमर्श से सोच को एक नई और सही दिशा प्राप्त हो सकती है। हिन्दी ब्लॉगिंग आज ऐसे विमर्श की सामर्थ्य प्राप्त कर चुका है। वैश्विक आतंकवाद इस समय विश्व के एजेण्डे पर है। हिन्दी ब्लॉगिंग चाहे तो इस विमर्श को प्रारम्भ कर कम से कम भारतीय उप महाद्वीप में इस वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध सोच का एक नया सिलसिला शुरू कर सकती है।

आज वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिका ने अविराम युद्ध की घोषणा की हुई है। पर क्या यह युद्घ आतंकवाद के विरुद्ध है? और क्या यह विश्व से आतंकवाद का समूल नाश करने में सक्षम है? क्या वैश्विक स्तर पर आतंकवाद को जन्म देने में खुद अमरीका की भूमिका प्रमुख नहीं? क्या अमरीका अब उन सभी कृत्यों से विमुख हो गया है जिन के कारण आतंकवाद जन्म ही नहीं लेता, अपितु फलता फूलता भी है? क्या आतंकवाद की समाप्ति के लिए अमरीकी पथ सही है? यदि नहीं तो सही रास्ता क्या है। इन तमाम प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए।

आतंकवाद के विरुद्ध खड़े लोगों की कमी नहीं। आतंकवाद को धराशाई करना भी असंभव नहीं। लेकिन इस के खिलाफ सफलतापूर्वक तभी लड़ा जा सकता है जब पहले इस की जन्मभूमि की तलाश कर के इस का उत्पादन बन्द कर दिया जाए। यह एक लम्बा काम है। इस से भी पहले महत्वपूर्ण है, आतंकवाद के खिलाफ खड़े योद्धाओं की आपसी लड़ाई को समाप्त करना। यहां हो यह रहा है कि योद्धा इस बात को ले कर आपस में भिड़े हुए हैं कि, मेरा सोच ज्यादा सही है। फिर ऐसा वाक् युद्ध छेड़ देते हैं कि आतंकवाद को ही बल मिलता नजर आता है, आतंकवाद के खिलाफ खड़े होने वाले लोगों को वापस आतंकवाद के साथ खड़ा कर देते हैं। कभी तो लगने लगता है कि आतंकवाद के खिलाफ जोर जोर से बोलने वाले लोग उन्हीं के भाईबन्द हैं और उन्हीं की मदद कर रहे हैं।

आज शाम ब्रॉडबैंड शुरू होते ही सब से पहले हर्षवर्धन के 'बतंगड़' की पोस्ट पर टिप्पणी से ही काम शुरू किया। टिप्पणी अपलोड होती तब तक बैंड फिर बज गया। पता नहीं क्या गड़बड़ होती है 'ज्ञान' जी की तरह कोई हमारे बीच बीएसएनएल से भी होता तो अंदर की बात पता लगती रहती। अगर कोई हो भी तो सामने नहीं आया है। कोई हो उसे इस पोस्ट के बाद सामने आ ही जाना चाहिए। वरना फिजूल में ब्लॉंगर्स की आदत गालियां देने की पड़ जाएगी। वैसे एक टिप मिली है कि ये सब टेलीकॉम कम्पनियों के कम्पीटीशन का नतीजा भी हो सकता है। मै बतंगड़ पर की गई अपनी टिप्पणी यहां भी दे रहा हूँ। ताकि विमर्श का कोई रास्ता बने।

बतंगड़ पर की गई टिप्पणी-

हर्ष जी, कल खबर आते ही ब्रॉडबेंड का बैंड बज गया, अभी पाँच बजे नेट लौटा है। खबर से मन खराब हो गया। कुछ लिखना चाहता था। लेकिन अब तक ब्लॉग्स पर बहुत कुछ आ चुका है। आप की पोस्ट पर टिप्पणी से ही बात शुरू कर रहा हूँ। आप की पोस्ट के शीर्षक की अपील, पोस्ट पर कहीं नजर नहीं आई। आप ने जिन मुसलमानों से अपील की है, वे उन से अलग हैं जिन के लिए मिहिर भोज ने टिप्पणी की है। यह फर्क यदि मिहिर भोज समझ लें, तो हमें एक हीरा मिल जाए। वे यह भी समझ लें कि आप ने जिन मुसलमानों से अपील की है उन की संख्या मिहिर के इंगित मुसलमानों की संख्या से सौ गुना से भी अधिक है। मेरा तो मानना है कि एक सच्चा मुसलमान एक सच्चा हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, जैन, और सर्वधर्मावलम्बी हो सकता है। जिस दिन हम यह फर्क चीन्ह लेंगे और सच्चे धर्मावलम्बी व इंसानियत के हामी एक मंच पर आ जाएंगे उस दिन से दुनियां में शान्ति की ताकतें विजयी होना शुरू हो जाएंगी। आतंकी कहीं नहीं टिक पाएंगे।

- दिनेशराय द्विवेदी