@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: बड़ा आदमी
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शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2008

खुश खबरी, जेट की छंटनी वापस, लोग चटनी न हुए

अभी अभी खबर मिली है कि जेट एयरवेज की छंटनी प्रबंधकों  ने वापस ले ली है। मेरे लिए इस से अच्छी खबर कोई नहीं हो सकती। मैं ने कोटा के जे.के. सिन्थेटिक्स लि. में 1983 जनवरी में हुई 2400 स्थाई कर्मचारियों की छंटनी और 5000 अन्य लोगों का बेरोजगार होना देखा है। उस छंटनी का अभिशाप कोटा नगर आज तक झेल रहा है। उस के बाद 1997 में जे. के. सिन्थेटिक्स के कोटा और झालावाड़ के सभी कारखानों का बंद होना और आज तक उन का हिसाब कायदे से नहीं देना भी देखा। उन कर्मचारियों और उन के परिवारों में से डेढ़ सैंकड़ा से अधिक को आत्महत्या करते भी देखा है। आज तक वे परिवार नहीं उठ पाए हैं।

जिस समस्या के हल के लिए छंटनी की जा रही थी। छंटनी उसे और तीव्र करती है। मंदी का मूल कारण था मुनाफे का लगातार पूंजीकरण और आम लोगों तक प्रगति का लाभ नहीं पहुँचना। जब आम लोगों तक धन पहुँचेगी ही नहीं तो बाजार में खरीददार आएगा कहाँ से? छंटनी से तो आप आम लोगों तक धन की पहुँच आप और कम कर रहे हैं। सीधा सीधा अर्थ है कि आप बाजार के संकुचन में वृद्धि कर रहे हैं। आग में घी ड़ाल रहे हैं।

इसी को कहते हैं, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। अपनी कब्र खुद अपने हाथों खोद डालना। पूँजीवाद यही करता है और कर रहा है। सदी पहले मंदी का दौर 15-16 वर्ष में आता था। सदी भर में यह 6-8 वर्ष रह गया। अब हालात है कि विश्व एक मंदी से उबर ही रहा होता है कि अगली मंदी की आगाज हो जाता है। सपने अंत तक देखें जाएँ उस के पहले ही टूट रहे हैं।

हम ने मार्क्सवाद और इतिहास के अंत की घोषणाएँ सुनी और उस पर विश्वास भी किया। समाजवाद को दफ्न कर दिया ताकि मनुष्यों को रौंदता पूँजीवाद अमर हो जाए। पर अमृत की तलाश तो सभी को थी। दास-युग, सामंतवाद को भी। वे अमर नहीं हो सके। कोई अमर नहीं है, सिवाय इस दिशा-काल-पदार्थ-ऊर्जा की इस शाश्वत व्यवस्था के। यह पूँजीवाद भी अमर नहीं। सोचना तो पड़ेगा कि मनुष्य समाज आगे किस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला है?

शनिवार, 4 अक्टूबर 2008

शिवराम की कविताएँ "बड़ा आदमी"

शिवराम एक सामाजिक रुप से सजग और सक्रिय इंसान हैं। मुझे उन की निकट मित्रता पर गर्व है। वे नाटककार, नाट्यनिर्देशक, साहित्यकार, कवि, सधे हुए आलोचक, संपादक और अच्छे संगठक हैं। सुप्रसिद्ध नुक्कड़ नाटक "जनता पागल हो गई है" के इस लेखक से 1975 में आपातकाल के ठीक पहले मेरे जन्म नगर बाराँ में परिचय हुआ। उन के निर्देशन में नाटक में काम किया। पूरे आपातकाल में वे मुझ से खिंचे रहे और मैं उन की ओर खिंचता रहा। आपातकाल के बाद की गतिविधियों से निकटता बढ़ी और हम मित्र हो गए। उन का स्थानांतरण कोटा हुआ और मैं भी कुछ माह बाद ही कोटा आ गया वकालत करने। तब से यह मित्रता सतत चली आ रही है। दो दिन पहले उन के यहाँ जाना हुआ बहुत दिनों बाद उन के साथ तीन घंटे बैठा। बहुत बातें हुई। आप के साथ बांटने के लिए उन की कुछ कविताएँ ले आया हूँ। शिवराम आज से एक सप्ताह के लिए मुंबई में हैं। पेश हैं उन की कुछ कविताएँ "बड़ा आदमी" शीर्षक से ...
बड़ा आदमी 
(1)
बड़े आदमी का 
सब कुछ बड़ा होता है
बड़ी होती हैं आँखें
बड़े होते हैं दाँत
बड़े होते हैं नाखून
बड़ी होती हैं जीभ
बड़े होते हैं जूते
बड़ी होती हैं महत्वाकांक्षाएँ

बड़े आदमी का 
सब कुछ बड़ा होता है
बस दिल छोटा होता है
और शायद दिमाग भी

(2)

वह बड़ा आदमी है
क्यों कि उस की लम्बाई बड़ी है
वह बड़ा आदमी है 
क्यों कि उस की उम्र बड़ी है
वह बड़ा आदमी है
क्यों कि उस की जाति बड़ी है

वह बड़ा आदमी है 
क्यों कि उस का पद बड़ा है

और सब से बड़ी बात यह कि 
वह मर्द है 
औरत या किन्नर नहीं है

(3)

बड़े आदमी से डरो
वह तुम्हें थप्पड़ मार सकता है
भरी सभा में

बड़े आदमी डरो 
वह तुम्हें धुन सकता है
बीच सड़क पर

बड़े आदमी से डरो 
वह तुम्हारी जीभ निकाल कर 
रख सकता है 
तुम्हारे ही हाथों में

तुम्हारी नाक चबा सकता है
तुम्हारी नौकरी खा सकता है

वह कुछ भी कर सकता है
डरो ! बड़े आदमी से डरो !
डरो ! अपने आस पास से
वहाँ भी हो सकता है 
कोई बड़ा आदमी

(4)
एक बड़े आदमी ने 
अपना 'बड़ा' मिटा दिया 
वह आदमी हो गया

एक आदमी 
'बड़े' होने की कोशिश में जुट गया
वह 'बड़ा हो गया
आदमी नहीं रहा
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