@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: किसे बचाने की आवश्यकता है? बैंकों को? नहीं, मनुष्य को?

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008

किसे बचाने की आवश्यकता है? बैंकों को? नहीं, मनुष्य को?

कल दो समाचार पढ़ने को मिले जिन्हों ने कार्ल मार्क्स की पुस्तक "पूंजी" को पढ़ने और समझने की इच्छा को और तीव्र कर दिया। अब लगता है उसे पढ़ना और समझना जरूरी हो गया है। दोनों समाचार इस तरह हैं ...

म्युनिख (जर्मनी) के एक रोमन कैथोलिक आर्चबिशप रिन्हार्ड मार्क्स ने एक और दास कैपीटल लिख कर बाजार में उतार दी है। निश्चय ही वे इस समय कार्ल मार्क्स और उन की पूंजीवाद के विश्लेषण की पुस्तक "पूँजी" की बढ़ती हुई लोकप्रियता को अपने लिए भुनाना चाहते हैं। हालाँकि उन्हों ने कहा कि यह पुस्तक साम्यवाद के प्रचार और उस की रक्षा के लिए नहीं अपितु रोमन कैथोलिक संप्रदाय की सामाजिक शिक्षाओं को मौजूदा सामाजिक परिस्थितियों में लागू करने के लिए लिखा गया है। इस पुस्तक का प्रथम अध्याय 19वीं शताब्दी के विचारक कार्ल मार्क्स को संबोधित करते हुए एक पत्र की शैली में लिखा गया है। इस पुस्तक को बुधवार को जारी किया गया। इस से यह तो साबित हो ही गया है कि कार्ल मार्क्स इन दिनों तेजी से फैशन में आए हैं और शिखर पर मौजूद हैं।

उधर 1998 का साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त जोस सर्मागो ने जो पुर्तगाल के अब तक के अकेले नोबुल पुरस्कार प्राप्त व्यक्ति हैं, ब्राजीलियन मास्टर फर्नान्डो मियरलेस द्वारा निर्देशित एक फिल्म प्रस्तुत करते हुए कह दिया कि कार्ल मार्क्स उतने सही कभी भी नहीं थे जितना कि आज हैं। उन्हों ने कहा कि सारा धन बाजार में लगा दिया गया है, फिर भी वह इतनी तंगी है। ऐसे में किसे बचाने की आवश्यकता है?  बैंकों को?  नहीं, मनुष्य को?

सरमागो ने कहा कि अभी इस से भी खराब स्थिति आने वाली है। उन से जब पूछा गया कि फिल्म की थीम और अर्थव्यवस्था के संकट में क्या संबंध है तो उन्होंने कहा कि " हम हमेशा थोड़े बहुत अंधे होते हैं, विशेष रुप से इस मामले में कि कौन सी बात जरूरी है"। सरमागो के करीब तीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिन में कविता, गद्य और नाटक सम्मिलित हैं। अभी निमोनिया से उबरने के उपरांत उन्हों ने अपना नवीनतम उपन्यास "एक हाथी की यात्रा" सम्पन्न किया है, जिस में एक एशियाई हाथी की सोलहवीं शताब्दी में यूरोप की कहानी का वर्णन है।

इन दोनों समाचारों को पढ़ने के बाद अपने एक अजीज मित्र से कार्ल मार्क्स की "पूँजी" को अपने कब्जे में करने का इन्तजाम आज कर लिया गया है। हो सकता है, अगले रविवार तक वह मेरे कब्जे में आ जाए। फिर उसे पढ़ने और आप सब के साथ मिल बांटने का अवसर प्राप्त होगा।
  • चित्र - 1998 का साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त जोस सर्मागो

14 टिप्‍पणियां:

Aadarsh Rathore ने कहा…

सही कहा

राज भाटिय़ा ने कहा…

अभी आगे आगे देखे क्या होता है,स्थिति ओर भी खराव आने वाली है,आप ने सही नब्ज पकडी है

स्वप्नदर्शी ने कहा…

I baught the hindi translation of Das capital some 15 years ago, and did read half the way of the first edition. There are three volumes of "poonjee" in hindi.

But hindi translation is very difficult "kilisht" and before you can read that a lot of terminology of economics in hindi is required, and therefore almost not readable.

Some day in this life or may be in next I plan to read the english version of it.

My suggestion to you is that, if you want to invest that time and effort reading it, consider reading in english, the terminology will come easily in your mind.

अभय तिवारी ने कहा…

सरमागो साहब की बात मार्के की है..

पूँजी पढ़ने की इच्छा कभी मेरी भी थी.. मगर उसकी शुद्ध आर्थिक शास्त्रीयता देखकर सारा उत्साह बैठ गया.. यदि आप ने मार्क्स का कुछ भी साहित्य नहीं पढ़ा है तो शुरुआत कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो से कीजिये.. कहीं न मिले तो नेट से डाउनलोड करके प्रिन्ट कर लीजिये.. शुभकामनाएं!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

जितनी पुरानी बातेँ हैँ वे सारी नई हो कर फिर शीर्ष पर आ रहीँ हैँ --

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

sarkaar banko ko bachane ke liye riliff package deti hai aur admi ko bachane ke liye byan deti hai

Udan Tashtari ने कहा…

बद ए बदतर की तरफ रुख है अभी. अभी तो देखा क्या है!!!

Smart Indian ने कहा…

द्विवेदी जी, बैंक बच गए तो आदमी अपने आप बच जायेंगे. बैंक डूब गए तो न सिर्फ़ अनेकों की संख्या में रोज़गार चले जायेंगे. लोगों की पूंजी डूब जायेगी और हो सकता है कि बहुत सी सरकारें भी डूब जाएँ. याद है सेठ भामाशाह, जिनके बैंक की सहायता से महाराणा प्रताप शक्तिशाली मुगलिया सल्तनत से मुकाबला कर सके थे? भारत में भी समय-समय पर बहुत से (अधिकाँश प्राइवेट) बैंक डूबने से बचाए जाते रहे हैं (अक्सर किसी स्वस्थ सरकारी बैंक की पीठ पर लादकर) ताकि गरीब जनता का पैसा और रोज़गार न डूबे. आत्महत्या आदि की खबरें तो अभी से आनी शुरू हो गयी हैं, अगर एकाध बड़े बैंक डूब गए तो काफी बडी तबाही सामने आयेगी. मार्क्स जी और उनके अनुयायिओं (और उनके हंसिये, बंदूकों, बुद्धिजीवियों और जेलों) के बारे में फ़िर कभी विस्तार से चर्चा करेंगे.

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

परिवर्तन संसार का नियम है ! मुझे ऐसा लगता है की इसे कोई नही बदल सकता ! पर अच्छे की उम्मीद क्यों छोडे ?

Abhishek Ojha ने कहा…

दोनों जरूरी है ! नहीं तो हमारे जैसों का क्या होगा :-)

बेनामी ने कहा…

पढिये, अवश्य पढिये..... पर मार्क्स को पढने के बाद उनकी आलोचनाओं और साम्यवादी असफलताओं और विसंगतियों के इतिहास को भी ज़रूर पढ़ें. तभी आप ब्लेक एंड व्हाइट के स्थान पर पूरा स्पेक्ट्रम देख पायेंगे. सबके लिए आजीविका और रोटी का महान स्वप्न पूरा करने में कोई साम्यवादी देश सफल नहीं हो सका, पर आश्चर्यजनक रूप से इसे एक घोर पूंजीवादी देश अमेरिका ने साकार कर दिखाया. आदर्शवाद और कठोर वास्तविकता दो अलग अलग ध्रुव हैं.

Unknown ने कहा…

मनुष्य को बचाए जाने की आवश्यकता है. बेंक मनुष्यों के लिए बने है, मनुष्य बेंकों के लिए नहीं.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

पढ़िये, बताइयेगा।

विष्णु बैरागी ने कहा…

'हम हमशा थोडे बहुत अन्‍धे होते हैं, विशेष रूप से इस मामले में कि काक्‍न सी बात जरूरी है' . यह तो जीवन-सूत्र जैसा वाक्‍य है ।