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शनिवार, 1 अगस्त 2020

रजनी पाम दत्त और फासीवाद

_______________ Jagadishwar Chaturvedi


रजनी पाम दत्त 

रजनी पाम दत्त का विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में महत्वपूर्ण स्थान है।उन्होंने लंबे समय तक स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में भी अग्रणी नेता के रूप में भूमिका अदा की।वे कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रमुख सिद्धांतकार हैं।

भारत इन दिनों नरेन्द्र मोदी और आरएसएस की राजनीति के मोह में जिस तरह बंधा है उससे मुक्त होने के लिए जरूरी है कि हम रजनी पाम दत्त के फासीवाद विरोधी नजरिए की प्रमुख धारणाओं को जानें। भारत में जिसे अधिनायकवाद,तानाशाही या साम्प्रदायिकता कहते हैं ये सब फासीवाद के ही रूप है।देशज परिस्थितियों के कारण उनके लक्षणों में कुछ भिन्नता जरूर नजर आती है,लेकिन उसकी बुनियादी प्रवृत्तियां फासीवाद से मिलती-जुलती हैं।

रजनी पाम दत्त के अनुसार ´फासीवाद खास परिस्थितियों में आधुनिक पूंजीवादी नीतियों और प्रवृत्तियों में पतन की पराकाष्ठा आने से पैदा होने वाली चीज है और यह उसी पतन की संपूर्ण और सतत अभिव्यक्ति करता है।

आमतौर पर यह धारणा रही है कि फासीवाद में तमाम किस्म की स्वतंत्रताएं स्थगित कर दी जाती हैं, संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकार, मौलिक अधिकार आदि को स्थगित कर दिया जाता है, भारत में हम सबने यह आपातकाल में महसूस किया है।लेकिन यह भी संभव है कि संवैधानिक संस्थाओं, मूल्यों और मान्यताओं को लोकतंत्र के रहते निष्क्रिय बना दिया जाए,जैसा कि इन दिनों भारत में हो रहा है। रजनी पाम दत्त ने फासीवादी संगठनों की भूमिका पर रोशनी डालते हुए लिखा कि अनेक देशों में फासीवाद का जन्म जनता के बीच आंदोलन खड़ा करके और जनता के वोट से सत्ता हासिल करके हुआ है। फासीवादी आंदोलनकारी आम जनता में आतंक पैदा करके ,कानून की परवाह न करने वाली गिरोहबंदियों को बनाकर, संसदीय परंपराओं की अनदेखी करके, राष्ट्रीय और सामाजिक तौर पर भड़काऊ भाषणबाजी करके,विरोधी दलों और मजदूरों के संगठनों का हिंसात्मक दमन और आतंक के राज की स्थापना करके एकाधिकारी राज्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं।

रजनी पाम दत्त ने लिखा है ´खुद फासीवादियों की नजर में फासीवाद एक आध्यात्मिक वास्तविकता है।ये इसे एक विचारधारा और दर्शन के रूप में परिभाषित करते हैं।वे इसे ´कर्तव्य´,´आदेश´,´सत्ता´,´राज्य´,´राष्ट्र´,´इतिहास´ आदि का सिद्धांत बताते हैं।´ रजनी पाम दत्त के अनुसार ´प्रत्येक देश में फासीवाद के सभी खुले और बड़े समर्थक बुर्जुआ वर्ग के ही हैं।´यही हाल भारत का है।दत्त ने लिखा ´फासीवाद अपने शुरूआती दौर में भले ही आम लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए पूंजीवाद विरोधी प्रचार और भाषणबाजी करे लेकिन शुरू से ही इसे जीवित रखने ,बढ़ाने और पालने-पोसने का काम बड़े बुर्जुआ तथा बड़े धनपति,सामंत और उद्योगपति ही करते हैं।

´इतना ही नहीं फासीवाद को बढ़ाने और मजदूर वर्ग के आंदोलन से बचाने में भी बुर्जुआ तानाशाही की स्पष्ट भूमिका रही है।फासीवाद सरकारी बलों, सेना के उच्चाधिकारियों,पुलिस के अफसरों,अदालतों और जजों से मदद पाता रहा है क्योंकि वे सभी मजदूर वर्ग के विरोध को कुचलना चाहते हैं जबकि फासीवादी गैरकानूनीपन को मदद करते रहते हैं।

सन् 1928 के कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के कार्यक्रम में फासीवाद की वैज्ञानिक व्याख्या अभिव्यक्त हुई है, लिखा है,´कुछ विशिष्ट ऐतिहासिक स्थितियों में बुर्जुआ,साम्राज्यवादी, प्रतिक्रियावादी आक्रामकता की प्रगति फासीवाद का रूप ले लेती है।ये स्थितियां हैः पूंजीवादी संबंधों में अस्थिरता;काफी बड़ी संख्या में वर्गच्युत सामाजिक तत्वों की मौजूदगी; शहरी पेटीबुर्जुआ समूह और बौद्धिक वर्ग का दरिद्रीकरण; ग्रामीण पेटीबुर्जुआ वर्ग में असंतोष; और सर्वहारा वर्ग द्वारा क्रांति कर देने का दवाब या डर।अपने शासन को जारी रखने और स्थिर करने के लिए बुर्जुआ वर्ग संसदीय प्रणाली को छोड़कर फासीवादी व्यवस्था की तरफ बढ़ते जाने को मजबूर होता है,जो पार्टियों वाली व्यवस्था और जोड़-तोड़ से मुक्त होती है।

फासीवादी शासन प्रत्यक्ष तानाशाही की व्यवस्था है,जिसपर ´राष्ट्रवादी´होने का मुखौटा चढ़ा होता है और खुद को ´पेशेवर´(जो शासक जमात के ही विभिन्न समूह होते हैं)वर्ग का प्रतिनिधि कहता है।पेटीबुर्जुआ वर्ग,बौद्धिकों और समाज के अन्य वर्गों की नाराजगी का लाभ उठाने के लिए यह आडंबर और विद्वेषपूर्ण भाषणबाजी (कभी जाति और नस्ल को निशाना बनाना तो कभी संसद और बड़े उद्योगपतियों की तरफ निशाना साधना)करता है तथा एक ठोस और खाती-पीती सोपानात्मक फासीवादी शासन इकाई, नौकरशाही और पार्टी इकाई के जरिए भ्रष्टाचार करता है।इसके साथ ही फासीवाद मजदूर वर्ग के सबसे पिछड़े हिस्से को तोड़कर ,उनकी नाराजगी को भुनाता है तथा सामाजिक लोकतंत्रवादियों की निष्क्रियता का लाभ भी लेता है।

फासीवाद का मुख्य उद्देश्य मजदूरवर्ग के क्रांतिकारी हरावल दस्ते,अर्थात कम्युनिस्ट हिस्सों और सर्वहारा वर्ग की अगुआ इकाईयों को नष्ट करना है।सामाजिक रूप से भड़काऊ नारों को उछालना,भ्रष्टाचार तथा दमनकारी शासन के साथ ही विदेशी राजनीति में अति-साम्राज्यवादी आक्रमण फासीवाद के खास चरित्र हैं।बुर्जुआ वर्ग के लिए खास संकट के दौरों में फासीवाद पूंजीवाद विरोधी शब्दावली का प्रयोग शुरू करता है।लेकिन जब वह शासन में जम जाता है तो उन सारी बातों को आसानी से भुला देता है और बड़ी पूंजी की आतंकवादी तानाशाही के रूप में सामने आता है।

भारत में फासीवाद पर बातें करते समय अधिकांश समय समान विचारों के लोगों में अनेकबार विचलन भी नजर आता है,वे फासीवादी संगठनों की इस या उस चीज की प्रशंसा करने लगते हैं। फासीवादी संगठन को हमेशा समग्रता में उनकी राजनीति के आईने में देखना चाहिए।इनके पीछे बड़े कारपोरेट घरानों की सक्रियता,समर्थन और आर्थिक मदद की कभी अवहेलना नहीं करनी चाहिए।मसलन् आरएसएसके पीछे सक्रिय कारपोरेट घरानों की भूमिका की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।कारपोरेट घराने ही हैं जो साम्प्रदायिक संगठनों के गुण्डों,अपराधियों, शैतानों और स्वेच्छाचारियों का सारा खर्चा उठाते हैं। ये वे लोग हैं जो बहुत ही शांत भाव,साफ सोच और बुद्धिमानी से इस फौज का संचालन का काम कर रहे हैं।हमें इनके ऊपरी शोर-शराबे पर नहीं उनकी वास्तविक कार्यप्रणाली पर ध्यान देना चाहिए।फासीवादी राजनीति ऊपरी शोर-शराबे से समझ में नहीं आएगी।

रजनी पाम दत्त ने लिखा है ´फासीवाद वित्तीय पूंजीवाद का ही एक कार्यनीतिक जरिया है।

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

वैज्ञानिक भौतिकवाद -1 प्राक्कथन -राहुल सांकृत्यायन


"वैज्ञानिक भौतिकवाद" राहुल सांकृत्यायन की महत्वपूर्ण पुस्तक है, उस में भौतिकवाद को समझाते हुए राहुल जी ने भाववादी दर्शनों की जो आलोचना की है वह पढ़ने योग्य है, इस में ज्ञान के साथ साथ हमें भाषा के सौंदर्य का भी आनन्द प्राप्त होता है और व्यंग्य की धार भी। यहाँ इस पुस्तक का प्राक्कथन प्रस्तुत है। कोशिश रहेगी कि यहाँ एक एक अध्याय प्रस्तुत करते हुए पूरी पुस्तक ही प्रस्तुत की जाए। -दिनेशराय द्विवेदी

प्राक्कथन

आज हम साइंस के युग में हैं, किन्तु तब भी शिक्षित लोगों में भी बहुत से साइंस-युग के पहिले के मृत विचार ही चल रहे हैं। इसमें एक कारण यह भी है, कि जिज्ञासुओं के पास उसके जानने के लिये हिन्दी में पुस्तकें मौजूद नहीं हैं।  इस कमी को पूरा करने का इरादा, दो वर्ष पहिले जब मैं हजारीबाग जेल में नजरबंद होकर आया, तभी हुआ; और काम भी शुरू कर दिया। सामग्री जमा करते वक्त पता लगा. कि ऐसी पुस्तक लिखना हिन्दी में बेकार है, जब तक कि साइंस, समाजशास्त्र और दर्शन की सामग्री भी पाठकोंके लिये जुटा न दी जाय। जब मैंने हजारीबाग में लिखे सौ पृष्ठों को बेकार समझ देवली (21.07.1941) में वैज्ञानिक भौतिकवाद पर साइंस से लिखाई शुरू की, उस समय तक यही ख्याल था, कि एक ही पुस्तक में सब चीजें आ जायेंगी; किन्तु पता लगा, कि अलग-अलग विषयों पर डेढ़-पौने दो हजार पृष्ठ का एक पोथा लिखनेकी जगह सबको अलग-अलग पुस्तक मान लेना ही अच्छा है। इस प्रकार एक पुस्तक की जगह चार पुस्तकें लिखनी पड़ी
(१) विश्वकी रूपरेखा (साइंस)
(२) मानव-समाज (समाज-शास्त्र)
(३) दर्शन-दिग्दर्शन (दर्शन)
(४) वैज्ञानिक-भौतिकवाद
इसमें वैज्ञानिक-भौतिकवाद सबसे छोटी पुस्तक है, जिसका कारण एक यह भी है, कि इसमें आनेवाले कितने ही विषय दूसरे ग्रंथों में
आ चुके हैं। वस्तुतः बाकी तीनों "वैज्ञानिक-भौतिकवाद" के ही परिवार ग्रंथ है। .
पुस्तक के गहन विषय को सरल और स्पष्ट करनेकी मैंने भरसक कोशिश की है, किन्तु उसमें कितनी सफलता हुई है, इसके प्रमाण पाठक ही हो सकते हैं।
अपने विषय के प्रतिपादन में मुझे दूसरे विरोधी मतों की आलोचना करनी पड़ी है, जिसके लिये मैं मजबूर था; सम्भव है किसी को इससे दुःख हो, जिसके लिये मुझे खेद होगा; मैंने तोवादे-वादे जायते तत्त्वबोधः' की उक्ति को सामने रखकर वैसा किया है।
जिन ग्रंथोसे मैंने सहायता ली, उनकी सूची में अलग दे रहा हूँ; लेकिन इतना ही कर देने से मैं अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं समझता। मैं समझता हूँ, इस पुस्तक के लिखने का सारा श्रेय इन्हीं ग्रंथकारों को मिलना चाहिये, मैंने तो मधुमक्खी की भाँति मधु-संग्रह मात्र किया है, असली धन तो उन्हीं का है।
मुझे एक बार विश्वास होने लगा था, कि तीसरा ग्रंथ (दर्शनदिग्दर्शन) ही यदि समाप्त हो जाय तो गनीमत समझना चाहिये; किन्तु उसके समाप्त करते ही (11.03.1942) मैंने तै कर लिया, कि वर्तमान ग्रंथको लिखना शुरू कर देना होगा, और अपने को "गृहीत इब केशेषु मृत्युना" समझते इसे आज समाप्त कर सका हूँ।

सेंट्रल जेल, हजारीबाग ।
राहुल सांकृत्यायन 24.03.1942

दूसरा संस्करण
इस संस्करणमें मैंने सिर्फ पहिले अध्याय को अन्त में डाल दिया है, इतना समय नहीं निकाल सका कि कठिन अध्याय को और सरल कर सकता। और सरल करने की अवश्यकता है। 

प्रयाग
राहुल सांकृत्यायन 10.12.1943

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

एक पेजी मार्क्सवाद

हुत लोग हैं जो मार्क्सवाद पर उसे बिना जाने बात करते हैं।  उन्हें लगता है कि मार्क्सवाद को समझना कठिन है या वह बहुत विस्तृत है उस में सर कौन खपाए। लेकिन मार्क्सवाद को समझना कठिन नहीं है। यूँ तो किसी भी दर्शन को समझने के लिए बहुत कुछ करना होता है। इसे यूँ समझ लीजिए कि कार्ल मार्क्स ने अपनी मूल प्रारंभिक पुस्तक "राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास" लिखने के लिए पंद्रह वर्षो तक अनुसंधान कार्य किया और अपने आर्थिक सिद्धान्त का आधार तैयार किया। उन्हों ने अपने अन्वेषण के निष्कर्षों को अर्थशास्त्र के एक वृहत् ग्रंथ में सूत्रबद्ध करने की योजना बनाई। इस ग्रन्थ का पहला भाग जून 1859 में प्रकाशित हुआ। उस के प्रकाशन के तुरन्त बाद दूसरा भाग प्रकाशित करने का इरादा मार्क्स का था। लेकिन अगले विस्तृत अध्ययन के कारण उन्हों ने पूंजी लिख डाली। 

"राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास" की जो भूमिका मार्क्स ने लिखी उस में एक पृष्ठ के एक पैरा में अपने सिद्धान्त, जो बाद में मार्क्सवाद की रीढ़ माना गया को स्पष्ट किया है।  जो लोग मार्क्सवाद को समझना चाहते हैं उन्हें इस एक पैरा में सब कुछ मिल सकता है और इच्छा होने पर बाद में वे और आगे अध्ययन कर सकते हैं। आप इस एक पृष्ठ की मार्क्सवाद की रूपरेखा को "एक पेजी मार्क्सवाद" की संज्ञा दे सकते हैं। 


क्या है मार्क्सवाद?


पने जीवन के सामाजिक उत्पादन में मनुष्य ऐसे निश्चित सम्बन्धों में बन्धते हैं जो अपरिहार्य एवं उन की इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। उत्पादन के ये सम्बन्ध उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं। इन उत्पादन सम्बन्धों का पूर्ण समाहार ही समाज का आर्थिक ढाँचा है – व ह असली बुनियाद है, जिस पर कानून और राजनीति का ऊपरी ढाँचा खड़ा हो जाता है और जिस के अनुकूल ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप होते हैं। भौतिक उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्कर्या को निर्धारित करती है। मनुष्यों की चेतना उन के अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि उलटे उन का सामाजिक अस्तित्व उन की चेतना को निर्धारित करता है। अपने विकास की एक खास मंजिल पर पहुँच कर समाज की भौतिक उत्पादन शक्तियाँ तत्कालीन उत्पादन सम्बन्धों से, या – उसी चीज को कानूनी शब्दावली में यों कहा जा सकता है – उन सम्पत्ति सम्बन्धों से टकराती है।, जिन के अंतर्गत वे उस समय तक काम करती होती है। ये सम्बन्ध उत्पादन शक्तियों के विकास के अनुरूप न रह कर उन के लिए बेड़ियाँ बन जाते हैं। तब सामाजिक क्रांति का युग शुरु होता है। आर्थिक बुनियाद के बदलने के साथ समस्त वृहदाकार ऊपरी ढाँचा भी कमोबेश तेजी से बदल जाता है। ऐसे रूपान्तरणों पर विचार करते हुए, एक भेद हमेशा ध्यान में रखना चाहिए. एक ओर तो उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों का भौतिक रूपान्तरण है, जो प्रकृति विज्ञान की अचूकता के साथ निर्धारित किया जा सकता है। दूसरी ओर वे कानूनी, राजनीतिक, धार्मिक, सौंदर्यबोधी, या दार्शिनिक, संक्षेप में विचारधारात्मक रूप हैं, जिन के दायरे में मनुष्य इस टक्कर के प्रति सचेत होते हैं और उस से निपटते हैं। जैसे किसी व्यक्ति के बारे में हमारी राय इस बात पर निर्भर नहीं होती कि वह अपने बारे में क्या सोचता है, उसी तरह हम ऐसे रूपान्तरण के युग के बारे में स्वयं उस युग की चेतना के आधार पर निर्णय नहीं कर सकते। इस के विपरीत भौतिक जीवन के अन्तर्विरोधों के आधार पर ही, समाज की उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों की मौजूदा टक्कर के आधार पर ही इस चेतना की व्याख्या की जानी चाहिए। कोई भी समाज व्यवस्था तब तक खत्म नहीं होती, जब तक उस के अन्दर तमाम उत्पादन शक्तियाँ, जिन के लिए उस में जगह है, विकसित नहीं हो जातीं और नए, उच्चतर उत्पादन सम्बन्धों का आविर्भाव तब तक नहीं होता जब तक कि उन के अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियाँ पुराने समाज के गर्भ में ही पुष्ट नहीं हो चुकतीं। इसलिए मानव जाति अपने लिए हमेशा ऐसे ही कार्यभार निर्धारित करती है, जिन्हें वह सम्पन्न कर सकती है। कारण यह कि मामले को गौर से देखने पर हमेशा हम यही पाएंगे कि स्वयं कार्यभार केवल तभी उपस्थित होता है, जब उसे सम्पन्न करने के लिए जरूरी भौतिक परिस्थितियाँ पहले से तैयार होती हैं, या कम से कम तैयार हो रही होती हैं। मोटे तौर से ऐशियाई, प्राचीन, सामन्ती एवं आधुनिक, पूंजीवादी उत्पादन प्रणालियाँ समाज की आर्थिक संरचना के अनुक्रमिक युग कही जा सकती हैं। पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्ध उत्पादन की सामाजिक प्रक्रिया के अन्तिम विरोधी रूप हैं – व्यक्तिगत विरोध के अर्थ में नहीं, वरन् व्यक्तियों के जीवन की सामाजिक अवस्थाओं से उद्भूत विरोध के अर्थ में विरोधी हैं। साथ ही पूंजीवादी समाज के गर्भ में विकसित होती हुई उत्पादन शक्तियाँ इस विरोध के हल की भौतिक अवस्थाएँ उत्पन्न करती हैं। अतः इस सामाजिक संरचना के साथ मानव समाज के विकास का प्रागैतिहासिक अध्याय समाप्त हो जाता है।


-कार्ल मार्क्स, राजनीतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास की भूमिका से (1859)

शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

साथी शिवराम की स्मृति में ....

ज फिर एक अक्टूबर का दिन है, मेरे लिए और श्रमजीवी वर्ग के बहुत से साथियों के लिए एक काला दिन। पिछले वर्ष इसी दिन ने प्रिय साथी, मार्गदर्शक, नाट्यकार, कवि, आलोचक, सिद्धान्तकार, संगठन कर्ता और नेता शिवराम को असमय छीन लिया। अगले दिन दो अक्टूबर को हमने उन्हें अंतिम विदाई दी। वे एक डिप्लोमा इंजिनियर थे, उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी/अधिकारी के रूप में नौकरी करते हुए उन्होंने अपना सामान्य जीवन जिया, पूरी उम्र में सेवा निवृत्त हुए। तीन पुत्रों और एक पुत्री का विवाह किया और सभी कुशल मंगल से हैं। सामान्य नागरिक इसी तरह जीते हुए उम्र के ढलान पर आराम से जीवन व्यतीत कर सकता है। लेकिन अपनी नौकरी और सामाजिक जीवन के सभी दायित्वों को पूरा करते हुए उन्होंने जो कुछ किया वह मुझे तो अद्वितीय लगता है।  

न्हें यह समाज व्यवस्था अमानवीय लगती थी और उसे बदलना चाहते थे। प्रारंभ में वे विवेकानन्द से प्रभावित थे और समाज सेवा के कामों को हाथ में लेते थे। लेकिन उस काम से कुछ व्यक्तियों के जीवन में कुछ परिवर्तित करने का सुख तो मिलता था लेकिन अमानवीय समाज व्यवस्था को परिवर्तित करने का मार्ग वहाँ नहीं दीख पड़ता था। नौकरी के आरंभिक प्रशिक्षण के दौरान ही अपने एक साम्यवादी विचार रखने वाले सहकर्मी से बहस में उलझे और उसे कहा कि तुम्हारा यह मार्क्सवाद खोखला है। साथी ने जब कहा कि तुमने उसे जाने बिना ही खारिज कर दिया? तो वे उसे जानने के प्रयत्न में जुट गए। जब जाना तो फिर उसी साथी से फिर बहस में उलझ गए। अब वे उसे बता रहे थे कि मार्क्सवाद सही है लेकिन तुम उसे जैसे समझ रहे हो वह गलत है।

शिवराम ने जान लिया था कि समाज कैसे बदलता है? उस की दिशा क्या है? वे उस बदलाव की गति को तीव्र करना चाहते थे। परिवर्तन की शक्तियों को मजबूत बनाने में अपना योगदान करना चाहते थे। वे चाहते थे कि ऐसा परिवर्तन जिस से मनुष्य को मुक्ति प्राप्त हो शीघ्र हो। उन्हों ने देखा कि लोगों में जबर्दस्त सांस्कृतिक भूख है तो लोगों तक अपने विचारों को पहुँचाने के लिए उन्हों ने नाटकों का सहारा लिया। जीवन से तथ्य और कहानियाँ उठायीं नाटक रचे और सामान्य लोगों को साथ ले नाट्य प्रस्तुतियाँ करने लगे। कुछ ही प्रस्तुतियों ने अपना असर दिखाया। शोषण से त्रस्त खनिक उन से आ कर मिले पूछने लगे अन्याय से लड़ने के लिए एकता बनाने में मदद करो। जिस ने मार्ग दिखाया हो वह साथ चलने से मना कैसे कर सकता था? लेकिन यह उस के बस का था नहीं। उस ने अपने ही क्षेत्र में श्रमजीवियों के संगठन का काम करने वालों को तलाशा और उन्हें दिशा दी। खनिको के संघर्षशील संगठन ने आकार लिया। खान मालिक तुरंत ही जान गये कि यह नाटकों का असर है। शिकायत हुई और स्थानान्तरण झेलना पड़ा। 

फूल जहाँ भी जाता है अपनी गंध बिखेरता जाता है। वे नये स्थान पर पहुँचे तो वहाँ भी कुछ ही दिनों में एक नाटक मंडली खड़ी की। उन के नाटकों के अभिनेता श्रमजीवी वर्ग से आते थे। हम यह भी कह सकते हैं कि वे श्रमजीवी वर्ग से लोगों को चुनते थे और उन्हें अभिनेता बना देते थे। यहीं उन से मेरी भेंट हुई। उन्हों ने मुझे तीन दिनों के एक कार्यक्रम की सूचना दी। बहुत बड़ा कार्यक्रम था। देश भर के अनेक उल्लेखनीय साहित्यकार उस में भाग लेने वाले थे। नाटक और कवि सम्मेलन भी होने थे। मैं दंग था कि मेरे गृह नगर में ऐसा कार्यक्रम हम पूरी ताकत लगा कर भी नहीं कर सकते थे उन्हें छह माह पहले नगर में स्थानांतरित हो कर आया एक डिप्लोमा इंजिनियर अपने दम पर कैसे आयोजित कर रहा है? उन्हों ने मुझे नाटकों की रिहर्सल में बुलाया। कौतुहल का मारा मैं पहुँचा तो एक भूमिका मेरे मत्थे भी मढ़ दी गई। कार्यक्रम बहुत सफल रहा। दो दिन जो वैचारिक गोष्ठियाँ हुईं। उन से बहुत कुछ सीखने को मिला और बहुत से नए प्रश्न खड़े हो गए। कार्यक्रम ने व्यवस्था और तत्कालीन सरकारी निजाम पर बहुत सवाल खड़े किए थे। अंतिम दिन रात्रि को ग्यारह बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ। अगली सुबह जब मैं उठा तो पता लगा देश में आपातकाल लागू हो चुका है। विपक्षी दलों के नेताओं की बड़ी संख्या में गिरफ्तारियाँ हुई हैं, बहुत से सांस्कृतिक कर्मी भी गिरफ्तार हुए हैं। मुझे चिंता लगी कि इन कार्यक्रमों में सम्मिलित आमंत्रित लोगों में से कुछ तो अवश्य जेल पहुँच गए होंगे। पता किया तो जाना कि सब सुरक्षित नगर से निकल गए हैं। नगर के कुछ विपक्षी नेता अवश्य गिरफ्तार किए गए थे। लेकिन उस कार्यक्रम से संबंधित सभी लोग सुरक्षित थे। 

पातकाल में भी शिवराम के नाटक नहीं रुके। वे गाँव-गाँव चौपालों पर नाटक, कविसम्मेलन और गोष्ठियाँ करते रहे। श्रमजीवी वर्ग की एकता और संघर्ष की चेतना की मशाल जलती रही और नयी मशालों को चेताती रही। पाँच वर्ष बाद फिर स्थानान्तरण हुआ। अब वे कोटा जिला मुख्यालय पर थे और मजदूरों, किसानों, विद्यार्थियों, नौजवानों और सांस्कृतिक कर्मियों के संपर्क में थे। सभी क्षेत्रों में उन्हों ने संगठन की चेतना की मशाल जलाई और जलाए ऱखी। जहाँ वे गए वहाँ काम किया और सभी के प्रिय रहे। उन्हें हर श्रमजीवी से अगाध प्रेम था, उन में से जो भी उन के संपर्क में आया उन से प्रेम करने लगा। वे प्रेम की प्रतिमूर्ति थे। उन के काम का विस्तार हुआ, इतना कि देश भर के लोग उन से आशाएँ रखने लगे। सार्वजनिक क्षेत्र से सेवानिवृत्त हुए तो बहुत काम करने का संकल्प था। वे तुरंत जुट गए। वे अपने समय के एक-एक क्षण का उपयोग करते थे। लेकिन जीवन ने असमय धोखा दिया। वह रूठ गया। वे चले गए, लेकिन जो भी उन के संपर्क में एक बार भी आया उस के अंदर वे सदैव जीवित रहेंगे। 

शिवराम के बारे में लिखना बहुत कठिन है, मैं लिखता ही रहूँ तो वह लेखन कभी विराम नहीं ले सकेगा। हम एक और दो अक्टूबर के इन दो काले दिनों को उन की स्मृतियों और प्रेरणा से उजला बनाना चाहते हैं। इस के लिए इस वर्ष उन की बरसी पर कोटा में दो दिनों का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। 1 अक्टूबर 2011 को भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड), राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र और अखिल भारतीय जनवादी युवा मोर्चा की ओर से दो सत्रों का कार्यक्रम है। पहले सत्र में 'सर्वहारा वर्ग के निराले साथी शिवराम' विषय से एक श्रद्धांजलि सभा दोपहर एक बजे होगी। तीन बजे उन का सुप्रसिद्ध नाटक "जनता पागल हो गई है" का मंचन 'अभिव्यक्ति नाट्य और कला मंच' के कलाकार प्रस्तुत करेंगे। दूसरे सत्र में 'साथी शिवराम के संकल्पों का भारत' विषय पर संगोष्ठी होगी। 2 अक्टूबर को 'विकल्प' जनसांस्कृतिक मंच, श्रमजीवी विचार मंच और अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच द्वारा दो गोष्ठियाँ आयोजित कर रहे हैं। पहली गोष्ठी का विषय "जन-संस्कृति के युगान्तरकारी सर्जक : साथी शिवराम" तथा दूसरी गोष्ठी का विषय "अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों कलाकारों की भूमिका" है। दोनों दिनों के कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में श्रमजीवी, लेखक और कलाकार भाग लेंगे।

'जनता पागल हो गई है' नाटक की एक चौराहे पर प्रस्तुति

रविवार, 2 जनवरी 2011

एक दिन हम इन सारी बाधाओं को हटा डालेंगे

ल हम ने बांग्ला साहित्य के शिखर पुरुष गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर और आधुनिक हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग के मौलिक निबंधकार, उत्कृष्ट समालोचक एवं सांस्कृतिक विचारधारा के प्रमुख उपन्यासकार आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के कुछ उद्धरण स्मरण किये थे। द्विवेदी जी का कहना था "हम ऊपर से कितने ही खंड रूप और ससीम क्यों न हों, भीतर से निखिल जगत के साथ 'एक' हैं। साहित्य हमें प्राणीमात्र के साथ एक प्रकार की आत्मीयता का अनुभव कराता है। वस्तुतः हम अपनी उसी 'एकता' का अनुभव करते हैं।" 
गुरुदेव इस एकता में द्वैत के दर्शन भी कराते हैं, वे कहते हैं  "लोभ के इस संकीर्ण ऐक्य के साथ सृष्टि के ऐक्य का, रस-साहित्य, और ललित कला के ऐक्य का संपूर्ण प्रभेद है। निखिल को छिन्न करने से लोभ होता है और निखिल को एक करने से रस होता है। लखपति महाजन रुपए की थैली ले कर 'भेद' की घोषणा करता है, गुलाब 'निखिल' का दूत है, वह 'एक' की वार्ता को ले कर फूटता है। जो 'एक' असीम है, वही गुलाब के नन्हे हृदय को परिपूर्ण कर के विराजता है।"
म इस द्वैत का अनुभव हमारे जीवन में पग-पग पर करते हैं। हम पहले मनुष्य को ही खाँचों में बाँट देते हैं। वह अमरीकी है, यह जर्मन है, कोई अंग्रेज तो कोई जापानी, वह पाकिस्तानी है तो मैं भारतीय हूँ। हम भारतीय तक भी आ कर नहीं रुकते। मैं हिन्दू हूँ तो वह मुसलमान है और वह ईसाई। हिन्दुओं में भी सिक्ख अलग हैं और जैन अलग। हमारे इस पावन भारतवर्ष में पवित्रता और अपवित्रता का खास ध्यान भी रखा जाता है, वह अवर्ण है, क्यों कि वह अपवित्र काम करता है। मैं सवर्ण हूँ, क्यों कि मैं पवित्र काम करता हूँ। फिर सवर्णों में भी ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य हैं। महानगरों में यह पहचान धूमिल हुई है तो वहाँ धनसंग्रह ने वह काम कर दिखाया है। जिन लोगों के पास अकूत धनराशि है तो उन्हों ने अधिकांश साधनों पर अधिकार कर लिया है और वे अब काम नहीं करते सिर्फ कराते हैं। काम करने वाले और काम कराने वाले का प्रभेद दिखने लगा है। जो श्रम कर रहा है वह निम्न कोटि का है और जो श्रम खरीद रहा है वह श्रेष्ठ है। जिधर भी हम देखते हैं उधर द्वैत है। कहीं तो एक्य नहीं है। 
विज्ञान भी ऐसा ही कुछ दिखा रहा है। पहले सोचते थे अणु ही सब से छोटा कण है, फिर हमें परमाणु का पता लगा। फिर परमाणु में हमें इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन और न्यूट्रोन दिखाई देने लगे। एक को खोदा तो तीन निकल आए। फिर पता लगा कि प्रोटोन और न्यूट्रोन भी ऋणात्मक और धनात्मक प्रकार के समान संहति वाले कणों से बने हैं जिन्हें क्वार्क के नाम से जाना गया। वहाँ अभी आगे खोज जारी है। लेकिन यह खोज उस तरफ बढ़ रही है जिस के संकेत कहते हैं कि ऊर्जा और पदार्थ दोनों एक ही प्रकार के कणों या तरंगों से बने हैं। इस तरह विज्ञान संकेत दे रहा है कि आखिर एक ही वस्तु है जिस से निखिल विश्व निर्मित है। वह भी हमें इस असीम एक की और ले जा रहा है। 
मैं निखिल विश्व की उस असीम एकता का अनुभव कर के, आनंद से अभिभूत हो उठता हूँ। खो जाता हूँ, अपने आप में। मेरा अपना आप इतना विस्तार पा गया है कि मैं ब्रह्म हो उठा हूँ। मैं असीम हो चला हूँ। जो कुछ है सब मुझ में ही समाहित है। सभी कुछ मैं ही हूँ, सब मेरे ही अंग हैं। मुझ से परे कोई नहीं। काशी के घाट पर गंगास्नान करता हूँ और गीले वस्त्रों से ही चल पड़ता हूँ, विश्वनाथ के दर्शनों के लिए। राह में कोई छू देता है। देखता हूँ वह मेहतर है, सफाई करने का झाड़ू उठाए हुए। मेरा स्वप्न टूट जाता है। विश्व के प्रभेद सामने आ खड़े होते हैं। मुझे छू देने की हरकत के लिए मैं उसे डाँटता हूँ, उस ने कोई अपराध कर दिया  है, वह अपराधी है, मुझे अवसर मिले तो मैं उसे निश्चित ही कठोर दंड दूँ।
साहित्य  हमें इस एक्य की और ले जाता है, लेकिन बहुत सी चीजें हैं जो हमें पकड़ कर वापस द्वैत में ले आती हैं जैसे मेरे मन में पैठा हुआ छूत-अछूत का विचार। क्यों नहीं मैं उस विचार को अपने भीतर से निकाल फैंकता। पर भीतर से निकाल कर फैंकने से क्या होगा? समाज में तो ये प्रभेद भरे पड़े हैं, वह गुलाब नहीं है, वह कोई बदबूदार चीज बन गई है। मैं उसी का एक अंग बना हुआ हूँ। जैसी बदबू मैं महसूस कर रहा हूँ, वैसी ही बदबू मुझे मेरे अंदर से आने लगती है। मैं अपनी ही नाक बंद कर लेता हूँ। लेकिन कब तक नाक को बंद रख सकता हूँ। ऐसे तो श्वास ही बंद हो लेगी। फिर प्राणवायु कहाँ से मिलेगी? मैं जीवित कैसे रह पाउंगा? मैं नाक को खोल देता हूँ। बदबू का एक असहनीय भभका नाक के अंदर घुस पड़ता है। यह कैसी अवस्था है? एक ओर खाई तो दूसरी ओर कुआँ है। जीना दूभर है, कभी भी प्राण जा सकते हैं। अब तो कुछ करना ही होगा। 
मैं उन प्रभेदों को नष्ट करने का मार्ग तलाशने लगता हूँ। जात-पाँत तोड़ डालना चाहता हूँ, धर्मों की दीवारें समाप्त कर देना चाहता हूँ, मैं मालिक मजदूर का भेद समाप्त कर देना चाहता हूँ। क्यों रहें ये वर्ग? क्यों नहीं हो सकता मनुष्य एक? हो सकता है, अवश्य हो सकता है। सभी प्रकृति हैं, उसी से बने हैं, उन्हें तो एक होना ही है। हम बाधा बनेंगे तो देरी से होगा।  हम बाधाओं को हटाएंगे तो शीघ्रता से। मैं निकल पड़ता हूँ, उन बाधाओं को हटाने के लिए। बहुत से साथी मिलते हैं जो पहले से इन बाधाओं को हटाने में लगे हैं। कुछ इन बाधाओं को हटाते हटाते सदैव के लिए छोड़ चले जाते हैं। उन से कुछ अधिक नए साथ हो लेते हैं। पहले काफिला बना था। अब तो अनेक काफिले दिखाई देते हैं। हमें विश्वास है, एक दिन हम इन सारी बाधाओं को हटा डालेंगे। एक्य को प्राप्त कर लेंगे। 
आप क्या करना चाहते हैं? आ रहे हैं हमारे साथ एक्य के मार्ग की बाधाएँ हटाने, या बने रहना चाहते हैं, बाधा ही?

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

शिवराम जी के बाद, उन के घर .....

जीवनसाथी शोभा परसों से मायके गई हुई है। आज लौटना था, लेकिन सुबह फोन आ गया, अब वह कल सुबह आएगी। कल-आज और कल अवकाश के दिन हैं। मैं घर पर अकेला हूँ। चाहता तो था कि इन दिनों में मैं मकान बदलने से बिखरी अपने पुस्तकालय और कार्यालय को ठीक करवा लेता। पर अकेले यह भी संभव नहीं था। जिन्हें इस काम में साथ देना था वे भी अवकाश मना रहे हैं। शिवराम जी के बाद ब्लागीरी पर जो विराम लगा था, कल उसे तोड़ने का प्रयास किया। आज पूरे पाँच दिन के अन्तराल के बाद आज शिवराम जी के घर जाना हुआ। भाभी पहले तीन दिनों तक खुद को संभाल नहीं पा रही थीं। आज कुछ सामान्य दिखाई पड़ीं। मुझ से बात कर के  फिर से उन का अवसाद गहरा न जाए इस कारण उन से बात नहीं की। वे अपनी तीनों बहुओं और ननद के साथ बैठी बातें कर रही थीं और साथ दे रही थीं।
न के ज्येष्ठ पुत्र ब्लागर रवि कुमार और कनिष्ट पुत्र पवन से मुलाकात हुई। रवि बहुत सयाना है, उस में एक बड़ा कलाकार जीता है। सभी कोण से वह शिवराम जी से कम प्रतिभाशाली नहीं है। उसी से कुछ देर बात करता रहा। उसी ने बताया कि माँ अब अवसाद से धीरे-धीरे बाहर आ रही हैं। मैं ने पत्रिका अभिव्यक्ति की बात छेड़ दी। आपातकाल के ठीक पहले शिवराम जी से मेरी मुलाकात हुई थी। हम बाराँ में दिनकर साहित्य समिति चलाते थे और एक पत्रिका प्रकाशन की योजना बना रहे थे। शिवराम जी ने उसे आसान कर दिया। पत्रिका आरंभ हुई तो अनियमित रूप से प्रकाशित होती रही। लेकिन वह चल रही है और लघुपत्रिकाओं में अपना विशिष्ठ स्थान रखती है। शिवराम जी ही इस का संपादन करते रहे, सहयोग कई लोगों का रहा। लेकिन मूल काम और जिम्मेदारियाँ वही देखते थे। मैं ने रवि से अभिव्यक्ति में अपना योगदान बढ़ाने को कहा। उस ने बताया कि वह भी इस बारे में सोच रहा है। अभी तो वह शिवराम जी के कागजों को संभाल रहा है जिस से पता लगे कि वे कितने कामों को अधूरा छोड़ गए हैं, और उन्हें कैसे संभाला जा सकता है।
मैं ने रवि से उल्लेख किया कि घर आर्थिक रूप से तो संभला हुआ है। इस लिए पटरी पर जल्दी आ जाएगा, लेकिन जो सामाजिक जिम्मेदारियाँ शिवराम जी देखते थे, सब से बड़ा संकट वहाँ उत्पन्न हुआ है। उसे पटरी पर लाने में समय लगेगा। रवि ने प्रतिक्रिया दी कि यह तो मैं भी कह रहा हूँ कि अपने परिवार और घर के लिए तो वे सूचना मात्र रह गए थे, उन का सारा समय और जीवन तो समाज को ही समर्पित था। रवि ने ही बताया कि कुछ सांस्कृतिक संगठन कल शोक-सभा रख रहे हैं, जिस में कोटा के बाहर के कुछ महत्वपूर्ण लोग भी होंगे। यह मेरे लिए सूचना थी। मेरा मन तो कर रहा है कि इस सभा में रहूँ,  शिवराम जी के बाद उन से साक्षात्कार का यह अवसर मैं छोड़ना नहीं चाहता था। लेकिन मुझे पहले से तय जरूरी काम से जयपुर जाना होगा। रवि ने कल की सभा की छपी हुई सूचना मुझे दी। हरिहर ओझा की एक कविता इस पर छपी है, जो महत्वपूर्ण है।  मैं उस सूचना का चित्र यहाँ लगा रहा हूँ।  आर्य परिवार संस्था कोटा ने शिवराम को एक आँसू भरी श्रद्धांजलि पर्चे के रूप में छाप कर वितरित की है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। शिवराम ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले कम्युनिस्ट थे, लेकिन धर्मावलंबी जो उन के संपर्क में थे किस तरह सोचते थे, यह श्रद्धांजलि पर्चा उस की एक मिसाल है। दोनों को ही आप चित्र पर चटका लगा कर बड़ा कर के पढ़ सकते हैं।
 

 


शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

सिलसिला नहीं रुकेगा, जीवन भर। जैसे शिवराम! तुम न रुके थे।

मैं जानता हूँ कि जो मंजिल मेरा लक्ष्य है वह बहुत दूर है, मैं इस जीवन में वहाँ नहीं पहुँच सकूंगा। लेकिन वह मंजिल मेरी अकेले की तो नहीं। वह तो पूरी मानव जाति की मंजिल है। मनुष्य के पास दो ही मार्ग हैं, या तो वह निजी स्वार्थों और लालच के वशीभूत हो कर जीवन जिए और लड़-झगड़ कर इस धरती को बरबाद करे और स्वयं इस मानव जाति को नष्ट कर डाले, या फिर वह एक ऐसे मानव समाज की रचना करे जो संपूर्ण मानव-समाज के सामुहिक हित की सोचे। सामाजिक हित सर्वोपरि हों। धरती को हम खूबसूरत बनाएँ। जिएँ और जीने दें, लगातार उन्नति करते जाएँ। इस दूसरे रास्ते पर  चलने वाले दुनिया में लाखों नहीं करोड़ों लोग हैं। उन में बहुत लोग हैं जो मंजिल की ओर जा रहे काफिले की अगुवाई करते हैं। निश्चय ही वे मानवजाति के श्रेष्ठतम  लोग हैं। उन का पूरा जीवन काफिले की इस यात्रा को समर्पित है। वे जानते हैं कि वे मंजिल तक नहीं पहुँच पाएंगे, लेकिन फिर भी उन का सब कुछ इस मानव-समाज के लिए है। वे सोचते हैं कि वे नहीं उन की कोई आगामी पीढ़ी अवश्य ही मंजिल पा लेगी। यदि उन्हों ने कोताही की तो निश्चित ही मंजिल तक पहुँचने के पहले मानव जाति नष्ट हो जाएगी और हमारी यह खूबसूरत धरती भी जिस का कोई जोड़ अभी तक मनुष्य इस ब्रह्मांड में तलाश नहीं कर सका है।
शिवराम ऐसे ही व्यक्तित्व थे। सोचा न था कि वे चलते-चलते यूँ काफिला छोड़ जाएंगे। जब उन के जाने की खबर मिली तो हर कोई हतप्रभ रह गया। मुझ पर तो जैसे वज्रपात हुआ। मैं अदालत में था। जल्दी से अदालत से अपना काम समेट, घर पहुँचा। नेट पर सूचना चस्पा की और उन के घर पहुँच गया। वे घर के नीचे के कमरे में दरी पर विश्राम कर रहे थे, चादर ओढ़े। वह विश्राम जो उन्हों ने जीवन भर नहीं किया। चेहरा भी चादर से ढका था। इच्छा हुई कि चादर हटा कर देखूँ इस चिरविश्रांति में वे कैसे लग रहे हैं, लेकिन हिम्मत नहीं हुई। चेहरे से चादर हटी तो शायद मैं अपने आप पर काबू नहीं रख सकूंगा, कहूँगा- कामरेड! तुम अभी से सो गए। उठो अभी तो बहुत काम बाकी है। वे उठेंगे नहीं। मैं निराश सा, क्या कर लूंगा? सिवा रोने और विलाप करने के, जो मैं नहीं करना चाहता था। मैं कमरे के बाहर चला आया। 
शिवराम ने जीवन के इकसठ वर्ष पूरे नहीं किए। लेकिन इस जीवन में उन्हों ने सैंकड़ों जीवन जिए। विद्यार्थी जीवन के बाद नौकरी की तलाश के दिनों में ही उन्हों ने पहचान लिया था कि दुनिया और समाज जिस अवस्था में है, वह  निराश करता है ,जीने लायक नहीं है। उसे बदलना होगा, जीने लायक बनाना होगा। न जीने लायक उस दुनिया के बारे में वे लिखते हैं-
"मैं खुद बेरोजगारी के दौर में किसी तरह भटकता फिरता था. असहायता के अहसास से मैं भी गुजरा था। लेकिन रोटी के लिए वेश्यावृत्ति। आठ-दस साल  का बेटा अपनी माँ के लिए ग्राहक ढूंढेगा। यह स्साली कोई जिन्दगी है। लानत है। 
शायद इन्हीं दिनों हम पांडिचेरी गए। वहाँ भी हम ने यह सब देखा। आप को एक तौलिया खरीदना हो और दूकानदार आप के सामने दस तरह के तौलिए पटक दे। जो पसन्द हो छांट लो, वैसे ही साधारण से होटलों में लड़कियों की लाइन लगा दी जाती थी। सब की दरें बता दी जाती थीं। जो पसन्द हो ले कर अपने कमरे में चले जाओ। हमारा समूह भी एक होटल में पहुँच गया और यह सब दृष्य अपनी आँखों से देखा। औरों का मुझे पता नहीं, मेरे लिए यह भयानक अनुभव था। यह सब विद्यमान व्यवस्था की देन है। यह व्यवस्था क्यों है? गरीबी-अमीरी का मामला क्या है? भगवान इस सब को ठीक क्यों नहीं करता? पांडिचेरी में एक ओर इतना बड़ा आध्यात्मिक केन्द्र और दूसरी ओर यह गंदगी। आध्यात्मिकता और इस गंदगी का चोली दामन का साथ तो नहीं? इस आध्यात्मिक केंद्र की वजह से और इस शहर की खूबसूरती की वजह से यहाँ पर्यटक आने लगे होंगे तो यह धंधा फला-फूला होगा। पर्यटन और वेश्यावृत्ति क्या एक ही हिस्से के दो पहलू हैं?"
रोजगार की तलाश खत्म हुई, नौकरी लगी। प्रशिक्षण में स्वयं प्रकाश से भेंट हुई। वे भी ऐसे ही मोड़ पर थे। छह महिने की ट्रेनिंग पूरी होने पर जोधपुर में दो माह का प्रायोगिक प्रशिक्षण आरंभ हुआ। स्वयंप्रकाश के साहित्यिक लोगों से संबंध थे। वहीं मिले पारस अरोड़ा जिन के घर ज्ञानोदय के अंकों का ढेर और बहुत सी किताबें थीं। शिवराम इतनी किताबें देख चकित थे। इतना पढ़ते हैं ये लोग! हम चार स्कूली किताबें पढ़ कर, वो भी पास होने के लिए, खुद को पढ़ा लिखा समझते हैं। हम काहे के पढ़े लिखे हैं? जिन्दगी और दुनिया को समझना है तो किताबें पढ़नी होंगी। एक पुस्तकालय में विवेकानंद का साहित्य पढ़ने को मिला। उसे पढ़ा तो लगा विवेकानंद का बताया रास्ता सही है। सब बुराइयों की जड़ अज्ञान है, अशिक्षा है। बच्चों में उच्च मानवीय मूल्यों के संस्कार देने वाला साहित्य प्रचारित प्रसारित करो। दो माह यूँ ही गुजर गए। रामगंज मंडी  (जिला कोटा राजस्थान) में पोस्टिंग हुई। शिवराम नौकरी के अलावा वहाँ बच्चों के लिए निशुल्क स्कूल भी चलाने लगे कमरा निशुल्क मिल गया। वहाँ आर.एस.एस भी था और सोशलिस्ट पार्टी भी। आचार्य नरेन्द्रदेव की पुस्तकें और लोहिया की जीवनी पढ़ी। गीता का अंग्रेजी अनुवाद करने पर काम करने लगे। कुछ न कुछ लिखने भी लगे। स्वयं प्रकाश का पत्र मिला - क्या पढ़ रहे हो कार्ल मार्क्स की पूँजी पढ़ो। शिवराम का जवाब था -कम्युनिस्टों के चक्कर में पड़ गए लगते हो। मैं लोहिया पढ़ रहा हूँ पर संतुष्ट हूँ। स्वयं प्रकाश का उत्तर था -तुम्हें हक है कि जो तुम्हें ठीक  न लगे उसे खारिज कर दो, पर पहले उसे जानो, समझो तो सही। तुमने मार्क्स की पूंजी को चलताऊ तरीके से खारिज कर दिया। पत्र की भाषा बहुत सख्त थी। प्रतिक्रिया हुई -ठीक है मार्क्स को पढूंगा और फिर इसे बताउंगा मैं ने मार्क्स को क्यों खारिज किया। करौली बस स्टैंड पर प्रगतिशील साहित्य भंडार से मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की किताबें और भगतसिंह की जीवनी खरीदी।  पैसे कम पड़ गए, दुकानदार से कहा कुछ किताबें निकाल दो, तो दुकानदार शर्मा जी ने एक किताब और मिलाई और बोले -फिर दे देना।  शिवराम कुछ महीने बाद पैसे लौटाने पहुँचे तो दुकान बंद थी। पता चला शर्मा जी नहीं रहे। उन का कर्ज रह गया। शिवराम ने मार्क्सवाद पढ़ा, समझा और वर्ग-संघर्ष के मार्ग पर चल पड़े। चलते-चलते सैंकड़ों-हजारों लोग साथ होते गए। काफिला बनता चला गया। आज वही शिवराम काफिले में नहीं हैं, चुपचाप सड़क के किनारे बैठ गए हों और कह रहे हों। जीवन ने यहीं तक साथ दिया, मैं आगे नहीं जा सकता। लेकिन ध्यान रहे! काफिला कम न हो और रुके नहीं।

स्वयंकथ्य 
शिवराम के जाने ने अंदर तक आहत किया है। एक सप्ताह से की-बोर्ड पर उंगलियाँ चल ही नहीं पा रही थीं। आज हिम्मत कर के वापस बैठा हूँ। यह हिम्मत भी शिवराम की दी हुई है। कह रहे हों कि मैं छूट गया तो क्या सफर छोड़ दोगे? ऐसा ही था तो क्यों चले थे मेरे साथ? सफर छूटे ना, मंजिल अभी दूर है, बहुत चलना है, रुको मत! चलते रहो! मुड़ कर मत देखो!
ह सिलसिला नहीं रुकेगा, जीवन भर। जैसे शिवराम! तुम  न रुके  थे। 
शिवराम के जाने ने जो रिक्तता पैदा की है, उसे एक या कुछ लोग नहीं भर सकते।  उस के लिए बहुत लोगों को सामने आना होगा। साहित्य, संस्कृति, रंगमंच, ट्रेड यूनियनें, मोहल्ला संगठन, किसान सभाएँ और पार्टी, सब जगह अनेक लोगों को वे मोर्चे संभालने होंगे, जिन्हें अकेले शिवराम संभाले थे। शिवराम का न होना, लगातार पीछा कर रहा है। 'अनवरत' भी अभी कुछ दिन शिवराम-मय ही रहेगा। 

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

अलविदा !!!!...................... नहीं! ................. शिवराम हमारे बीच मौजूद हैं............................. यह आंधी नहीं थमेगी.............



शिवराम ने कल हम से अचानक विदा ले गए.......
भास्कर कोटा संस्करण ने आज समाचार प्रकाशित किया...........


अंतिम यात्रा के कुछ चित्र...............

ट्रेड यूनियन कार्यालय छावनी कोटा पर अंतिम दर्शन

लाल झंडे से लिपटे हुए




































































 उदयपुर से आए पार्टी साथी


पार्टी साथी पुष्पांजली अर्पित करते

अभिन्न ट्रेड यूनियन साथी महेन्द्र पाण्डे और विजय शंकर झा

छोटे पुत्र पवन के कंधों पर

चिता पर

पुत्र रविकुमार

चिता को अग्नि देते पुत्र रविकुमार पौत्र और पौत्री चीया

इंकलाब जिन्दाबाद का उद्घोष करता पुत्र रविकुमार अपनी पुत्री और पुत्र के साथ

शरीर अग्नि को समर्पित

पुत्र रविकुमार और पौत्री चीया चिता के निकट

चिता के चारों और सम्मान में झुके लाल झंडे

शिवराम नहीं हैं,  लेकिन आग शेष है

श्मशान पहुँचा एक अपंग मजदूर साथी