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मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018

क्या हमें पूंजीवादी संसदों में भाग लेना चाहिये?

भारतीय परिस्थितियों में एक सवाल हमेशा खड़ा किया जाता है कि क्या अब कम्युनिस्ट पार्टी का संसदीय गतिविधियों में भाग लेना उचित रह गया है? इस प्रश्न का उत्तर हमें सोवियत क्रांति के नेता ब्लादिमिर इल्यीच लेनिन की वामपंथी कम्युनिज़्म को क्रान्ति के लिए ग़लत मानते हुए उस की व्याख्या और आलोचना करते हुए लिखी गयी चर्चित पुस्तिका "वामपंथी कम्यूुनिज़्म एक बचकाना मर्ज" के सातवें अध्याय में मिलता है। यहाँ इस पुस्तिका का सातवाँ अध्याय अविकल रूप से प्रस्तुत है-

क्या हमें पूंजीवादी संसदों में भाग लेना चाहिये?
 (“वामपंथी कम्युनिज्म – बचकाना मर्ज पुस्तिका का सातवाँ अध्याय)
- ब्लादिमिर इल्यीच लेनिन



जर्मन “वामपंथी" कम्युनिस्ट अत्यधिक तिरस्कार के साथ - और गम्भीरता के अत्यधिक प्रभाव के साथ - इस प्रश्न का जवाब देते हैं। 'उनके तर्क? ऊपर हम जो अंश उद्धृत कर चुके हैं। उसमें लिखा है।

"... संसदीय पद्धति के ऐतिहासिक और राजनैतिक दृष्टि से कालातीत संघर्ष रूपों की ओर वापसी को हमें सारी दृढ़ता के साथ त्याग देना चाहिए।

कितने बेतुके दर्प के साथ यह बात कही गयी है और यह बात स्पष्टतः गलत है। संसदीय पद्धति की ओर "वापसी!" क्या जर्मनी में सोवियत जनतंत्र कायम हो चुका है? ऐसा लगता तो नहीं! तो "वापसी का जिक्र कहां से आ गया? क्या यह एक खोखला फ़िकर नहीं है?

"ऐतिहासिक दृष्टि से कालातीत'' संसदीय पद्धति - प्रचार के खयाल से ऐसा कहना सही है। पर हर कोई जानता है कि व्यवहार में उसे पार करना अभी बहुत दूर है। पूंजीवाद के बारे में हम दसियों बरस पहले पूर्ण अधिकार के साथ यह घोषणा कर सकते थे कि वह "ऐतिहासिक दृष्टि से कालातीत' हो गया है, पर उससे बहुत लम्बे समय तक और बहुत डटकर पूंजीवाद की धरती पर लड़ने की आवश्यकता नहीं मिट जाती। संसदीय पद्धति “ऐतिहासिक दृष्टि से कालातीत' हो गई है - यह बात विश्व-इतिहास के दृष्टिकोण से सही है, अर्थात् पूंजीवादी संसदीय पद्धति का युग समाप्त हो गया है और सर्वहारा अधिनायकत्व का युग आरम्भ हो गया है। यह बात निर्विवाद है। परन्तु विश्व-इतिहास दशकों में हिसाब गाता है। विश्व-इतिहास के मापदंड से मापने पर दस-बीस वर्ष के देर सबेर से कोई अन्तर नहीं पड़ता, विश्व-इतिहास के दृष्टिकोण से वह इतनी छोटी अवधि होती है कि उसका मोटे तौर से भी हिसाब नहीं लगाया जा सकता। यही कारण है कि व्यावहारिक राजनीति को विश्व-इतिहास के मापदंड से मापना एक बहुत बड़ी सैद्धान्तिक ग़लती है।

क्या संसदीय पद्धति "राजनीतिक दृष्टि से कालातीत' हो गयी है? यह एक बिलकुल दूसरा पहलू है। यदि यह बात सच होती, तो “वामपंथियों” की स्थिति बहुत मजबूत हो जाती। परन्तु इस बात को साबित करने के लिए बहुत खोजबीन के साथ विश्लेषण करना होगा और “वामपंथी” तो यह भी नहीं जानते कि विश्लेषण किस ढंग से किया जाये। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के अमस्टर्डम के अस्थायी ब्यूरो की बुलेटिन (Bulletin of the Provisional Bureau in Amsterdam of the Communist Internationals, February* 1920) के अंक 1 में प्रकाशित * संसदीय पद्धति के बारे में कुछ प्रतिपत्तियाँ' शीर्षक लेख में जो विश्लेषण किया गया है, उसमें डच वामपंथियों या वामपंथी उचों की प्रवृत्ति स्पष्टतः दीख रही है और वह भी बहुत ही खराब है, जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे।

पहली बात यह है कि जैसा कि मालूम है रोजा लक्जेमबुर्ग तथा कार्ल लोकनेत जैसे महान राजनैतिक नेताओं के मत के विपरीत जर्मन “वामपंथियों ने जनवरी, 1916 में ही माना कि संसदीय पद्धति "राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" पड़ गयी थी। हम यह भी जानते हैं कि *वामपंथियों का यह मत ग़लत था। यह अकेला तथ्य एक ही बार में इस पूरे विचार को एकदम नष्ट कर देता है कि संसदीय पद्धति “राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" हो गयी है। अब वामपंथियों की जिम्मेदारी है कि वे यह साबित करें कि जो बात उस वक्त अकाट्य रूप से गलत थी, अब क्यों गलत नहीं है। इसका वे जरा सा भी सबूत नहीं देते और न दे सकते हैं। किसी राजनैतिक पार्टी में कितनी लगन है, अपने वर्ग तथा मेहनतकश जनसाधारण के प्रति अपने कर्तव्यों का वह व्यवहार में कैसे पालन करती है। इसे जांचने का एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अचूक तरीक़ा यह देखना है कि उस पार्टी का स्वयं अपनी गलतियों के प्रति क्या रवैया है। गलती को खुले-आम स्वीकार करना, उसके कारणों का पता लगाना, जिन परिस्थितियों में वह ग़लती हुई थी उनकी छानबीन करना और उसे सुधारने के उपायों पर ध्यानपूर्वक विचार करना - यही गम्भीर पार्टी के लक्षण हैं, यही उसका अपना कर्तव्य पालन करने का मार्ग है, यही पहले वर्ग और फिर जनसाधारण का प्रशिक्षण है। अपने इस कर्तव्य का पालन न करके, अपनी स्पष्ट भूलों का अधिक से अधिक ध्यान, सावधानी तथा गम्भीरता से अध्ययन न करके, जर्मनी (और हालैंड) के 'वामपंथियों ने यह साबित कर दिया है कि वे वर्ग की पार्टी नहीं हैं, बल्कि मंडली मात्र हैं, कि वे जनसाधारण पार्टी नहीं हैं, बल्कि बुद्धिजीवियों तथा चन्द ऐसे मजदूरों का दल है जो बुद्धिजीवियों के सबसे खराब अवगुणों की नक़ल करते हैं।

दूसरे, फ्रैंकफुर्ट के “वामपंथियों की उसी पुस्तिका में, जिसमें से कुछ अंश हम ऊपर उद्धृत कर चुके हैं, यह भी लिखा है :
"... जो लाखों मज़दूर आज भी मध्य मार्ग "(कैथोलिक "मध्यमार्गीय" पार्टी)" की नीति का समर्थन करते हैं, वे क्रान्तिविरोधी हैं। गांवों के सर्वहारागण में से क्रान्ति-विरोधी सैनिकों की पलटनें भरती की जाती हैं' (उपरोक्त पुस्तिका का तीसरा पृष्ठ)।
हर वाक्य यही बताता है कि इस कथन में बड़ी अतिशयोक्ति से काम लिया गया है। पर इसमें कही गयी बुनियादी बात निर्विवाद रूप से सच है और “वामपंथियों ने इसे मानकर साफ़ तौर से अपनी गलती साबित कर दी है। जब “लाखों" सर्वहारागण उनकी पूरी की पूरी "पलटनें" अभी तक न सिर्फ संसदीय पद्धति के पक्ष में हैं, बल्कि एकदम "क्रान्ति विरोधी" है तब कोई यह कैसे कह सकता है कि संसदीय पद्धति "राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" पड़ गयी है! ? जाहिर है कि जर्मनी में अभी भी संसदीय पद्धति राजनैतिक दृष्टि से कालातीत नहीं हुई है। जाहिर है कि जर्मनी में “वामपंथियों ने अपनी इच्छा को, अपने राजनैतिक सैद्धान्तिक रुख को, यथार्थ वास्तविकता मान लिया है। यह क्रान्तिकारियों के लिए सबसे खतरनाक ग़लती है। रूस में बहुत ही लम्बे काल तक जारशाही का खूंखार और बर्बर शासन विविध प्रकार के क्रान्तिकारियों के लिए सब से खतरनाक गलती करता रहा है और इन क्रान्तिकारियों ने आश्चर्यजनक साधना, उत्साह, वीरता और दृढ़ता का परिचय दिया है। इसलिए रूस में हमने क्रान्तिकारियों की यह गलती बहुत निकट से देखी है, बड़े ध्यानपूर्वक उसका अध्ययन किया है और हमें उसका प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसलिए दूसरों में भी हम इस दोष को बहुत जल्दी और साफ़ देख सकते हैं। बेशक, जर्मनी में कम्युनिस्टों के लिए संसदीय पद्धति “राजनैतिक दृष्टि से कालातीत” हो गयी है, लेकिन असली बात यह है कि हमारे लिए जो कुछ कालातीत पड़ गया है हम उसे वर्ग के लिए, जनसाधारण के लिए कालातीत न समझें। यहां हम फिर देखते हैं कि वामपंथी' लोग तर्क करना नहीं जानते, वे वर्ग की पार्टी की तरह, जनसाधारण की पार्टी की तरह काम करना नहीं जानते। आपको जनसाधारण के स्तर पर, वर्ग के पिछड़े हुए भाग के स्तर पर नहीं पहुंच जाना चाहिए। यह बात निर्विवाद है। आपको जनता को कटु सत्य बताना चाहिए। आपको उसके पूंजीवादी-जनवादी और संसदीय पूर्वाग्रहों को पूर्वाग्रह ही कहना चाहिए। परन्तु साथ ही आपको इस बात को भी बड़ी गम्भीरता के साथ देखना चाहिए कि पूरे वर्ग की (केवल उसके कम्युनिस्ट हिरावल की ही नहीं) और सारे मेहनतकश जनसाधारण की (केवल आगे बढ़े हुए प्रतिनिधियों की ही नहीं) वर्ग-चेतना और तैयारी की वास्तविक हालत क्या है। 

"लाखों" और "पलटनों” की बात जाने दीजिये, यदि औद्योगिक, मजदूरों का एक अच्छा खासा अल्पमत भी कैथोलिक पादरियों के पीछे चलता है और उसी प्रकार यदि देहाती मजदूरों का एक खासा अल्पमत जमींदारों और कुलकों (Grossbauern) के पीछे चलता है, इससे निस्सन्देह यह निष्कर्ष निकलता है कि जर्मनी में संसदीय पद्धति अभी भी राजनैतिक दृष्टि से कालातीत नहीं हुई है, कि संसद के चुनावों में तथा संसार के मंत्र से होनेवाले संघर्षों में भाग लेना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए ठीक इसलिए आवश्यक है कि वह अपने बर्ग के पिछड़े हुए लोगों को शिक्षित कर सके और देहातों के अविकसित, दलित तथा अज्ञान-ग्रस्त जनसाधारण में जागृति और ज्ञान का प्रकाश फैला सके। जब तक आप पूंजीवादी संसद और दूसरी हर प्रकार की प्रतिक्रियावादी संस्थाओं को भंग नहीं कर सकते, तब तक आपके लिए उन संस्थाओं के अन्दर काम करना लाज़िमी है और ठीक इस कारण से कि वहां अभी ऐसे मज़दूर हैं, जिन्हें पादरियों ने और देहाती जीवन की नीरसता ने धोखे में डाल रखा है। यदि आप ऐसा नहीं करते, तो केवल गाल बजानेवाले बनकर रह जायेंगे।

तीसरे, 'वामपंथी' कम्युनिस्ट हम वोल्शेविकों की तारीफ़ में बहुत कुछ कहते हैं। कभी-कभी मन में आता है कि इनसे यह कहा जाए कि हमारी तारीफ़ कम करो और बोल्शेविकों की कार्यनीति को समझने की कोशिश ज्यादा करो, उसे जानने की कोशिश ज्यादा करो! हम लोगों ने सितम्बर-नवम्बर, १९१७ में रूस की पूंजीवादी संसद के, संविधान सभा के चुनाव में भाग लिया था। उस समय हमारी कार्यनीति सही थी या नहीं? यदि नहीं, तो साफ़-साफ़ कहिये और सावित कीजिये, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिज्म की सही कार्यनीति बनाने के लिए यह करना अत्यन्त आवश्यक है। लेकिन यदि यह कार्यनीति सही थी, तो उससे भी कुछ निष्कर्ष निकालिये। जाहिर है कि रूस की परिस्थितियों को पश्चिमी यूरोप की परिस्थितियों के बराबर नहीं रखा जा सकता। फिर भी, जहां तक इस विशेष प्रश्न का सम्बन्ध है कि इस अवधारणा का क्या अर्थ है कि “संसदीय पद्धति राजनैतिक दृष्टि से कालातीत हो गयी है”, तो इस सिलसिले में हमारे अनुभव पर ध्यानपूर्वक विचार करना आवश्यक है। कारण कि यदि ठोस अनुभव को ध्यान में नहीं रखा जाता, तो ऐसी अवधारणाएँ बड़ी आसानी से खोखले वाक्य बनकर रह जाती हैं। क्या सितम्बर-नवम्बर, १९१७ में हम रूसी बोल्शेविकों को पश्चिम के किन्हीं भी कम्युनिस्टों से कहीं अधिक यह समझने का अधिकार नहीं था कि संसदीय पद्धति राजनैतिक दृष्टि से रूस में कालातीत पड़ गयी है? बेशक, हमें यह अधिकार था, क्योंकि यहां सवाल यह नहीं है कि पूजीवादी संसद बहुत दिनों से कायम है या कम दिनों से, बल्कि यह है कि व्यापक मेहनतकश जनसाधारण सोवियत व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए और पूंजीवादी-जनवादी संसद को भंग कर देने के लिए (या उसे भंग हो जाने देने के लिए) किस हद तक (सैद्धान्तिक, राजनैतिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से) तैयार है। यह बात बिलकुल निर्विवाद एवं पूर्णतः सिद्ध ऐतिहासिक सत्य है कि कई विशेष कारणों से रूस के शहरी मजदूर और सैनिक तथा किसान, सितम्बर-नवम्बर, १९१७ में सोवियत व्यवस्था को स्वीकार करने तथा अधिक से अधिक जनवादी-पूंजीवादी संसद को भी भंग कर देने के लिए विशेष रूप से तैयार थे। फिर भी बोल्शेविकों ने संविधान सभा का बहिष्कार नहीं किया, बल्कि सर्वहारा वर्ग के राजनैतिक सत्ता पर अधिकार करने के पहले और बाद में भी उसके चुनावों में भाग लिया। मैं आशा करने का साहस करता हूँ कि मैंने अपने उपरोक्त लेख में, जिसमें रूस की संविधान सभा के चुनावों के आंकड़ों का विस्तृत विश्लेषण है, यह बात साबित कर दी है कि इन चुनावों से बहुत ही मूल्यवान (और सर्वहारा वर्ग के लिए बहुत ही लाभदायक) राजनैतिक नतीजे निकले थे।

इससे जो निष्कर्ष निकलता है वह एकदम निर्विवाद है। यह साबित हो गया है कि सोवियत जनतंत्र की विजय के चन्द हफ्ते पहले भी और उसके बाद भी, एक पूंजीवादी-जनवादी संसद में भाग लेने से क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को नुकसान नहीं पहुंचता, बल्कि वास्तव में उससे पिछड़े हुए जनसाधारण के सामने यह साबित करने में मदद मिलती है कि ऐसी संसदें क्यों भंग कर देने योग्य हैं; उससे इन संसदों को सफलतापूर्वक भंग करने में मदद मिलती है। उससे पूजीवादी संसदीय पद्धति को "राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" बना देने में मदद मिलती है। इस अनुभव को नजरअंदाज करना और फिर भी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से संबंध रखने का दावा करना - उस इंटरनेशनल से, जिसे अंतर्राष्ट्रीय ढंग से अपनी कार्यनीति (संकुचित, एकतरफ़ा राष्ट्रीय कार्यनीति नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कार्यनीति) निर्धारित करनी है - दुनिया में सबसे बड़ी गलती करना है। यह अंतर्राष्ट्रीयतावाद को शब्दों में मानना, पर वास्तव में उसे तिलांजलि दे देना है।

अब "डच वामपंथियों' के उन तर्कों पर विचार करें, जो उन्होंने संसदों में भाग न लेने के पक्ष में दिये हैं। यह “डच" प्रतिपत्तियों में सबसे महत्वपूर्ण प्रतिपत्ति नं. ४ है, जो अंग्रेजी से अनूदित है:
 "जब उत्पादन की पूंजीवादी व्यवस्था टूट गयी हो और सभा क्रान्ति की अवस्था में हो, तब संसदीय सरगर्मी का महत्व खुद जनसाधारण की कार्रवाइयों की तुलना में धीरे-धीरे कम होता जाता है। इसलिए, जब ऐसी परिस्थितियों में संसद क्रान्ति-विरोध का केन्द्र और साधन बन जाती है और दूसरी ओर, जब मजदूर वर्ग सोवियतों के रूप में अपनी सत्ता के उपकरणों की रचना कर लेता है, तब यह भी आवश्यक हो सकता है कि हम हर तरह की संसदीय कार्रवाई से अलग रहें और उसमें भाग न लें।"
 जाहिर है कि पहला वाक्य गलत है, क्योंकि जनसाधारण की कार्रवाई - उदाहरण के लिए एक बड़ी हड़ताल - केवल क्रान्ति के दौरान में या क्रान्तिकारी परिस्थिति में ही नहीं, बल्कि हर समय संसदीय कार्रवाई से अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। यह स्पष्टतः असंगत और ऐतिहासिक तथा राजनैतिक दृष्टि से गलत तर्क इस बात को बिलकुल साफ़ कर देता है कि इन वक्तव्यों के लेखकगण, जहां तक गैर-कानूनी संघर्ष के साथ कानूनी संघर्ष को मिलाने का महत्त्व है, न तो आम यूरोपीय अनुभव को (1848 पौर 1870 की क्रान्तियों के पहले के फ्रांसीसी अनुभव ; 1878-1860 के जर्मन अनुभव, इत्यादि को) ध्यान में रखते हैं, न रूसी अनुभव को (देखिये ऊपर)। यह सवाल आम तौर से और खास तौर से भी बहुत महत्व का है क्योंकि अब सभी सभ्य एवं उन्नत देशों में वह समय बहुत तेजी से नजदीक आ रहा है, जब इन दोनों प्रकार के संघर्षों को इस तरह से मिलाना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए अधिकाधिक आवश्यक होता जायेगा - बल्कि आंशिक रूप से अभी ही आवश्यक हो गया है- क्योंकि सर्वहारा वर्ग तथा पूंजीपति वर्ग के बीच गृहयुद्ध की स्थिति परिपक्व होती जा रही है, उसके छिड़ने की घड़ी निकट आती जा रही है, क्योंकि जनतांत्रिक सरकारें और आम तौर से पूँजीवादी सरकारें कम्युनिस्टों का भीषण दमन करती हैं और कानून को हर तरह तोड़ती हैं। (पहले अमरीका की ही मिसाल देखिये), इत्यादि। इस बहुत महत्वपूर्ण सवाल को डचों और आम तौर से सभी बामपंथियों ने बिलकुल नहीं समझा है।


जहां तक दूसरे वाक्य का प्रश्न है, पहली बात यह है कि इतिहास की दृष्टि से वह गलत है। हम बोल्शेविकों ने घोर से घोर प्रतिक्रियावादी संसदों में भाग लिया है और अनुभव ने इसे साबित कर दिया है कि उनमें भाग लेना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए न केवल लाभदायक बल्कि आवश्यक भी था। इसकी आवश्यकता रूस की पहली पूंजीवादी क्रान्ति (1905) के ठीक बाद प्रतीत हुई थी, ताकि दूसरी पूंजीवादी क्रान्ति (फ़रवरी, 1917) के लिए और फिर समाजवादी क्रान्ति (नवम्बर, 1917) के लिए तैयारी की जा सके। दूसरे, यह वाक्य आश्चर्यजनक हद तक तर्कहीन है। यदि संसद क्रान्ति-विरोध का साधन और “केन्द्र” बन गये हैं (वास्तव में संसद न कभी "केन्द्र" बनी है और न बन सकती है, पर जाने दीजिये इस बात को) और मजदूर सोवियतों के रूप में अपनी सत्ता के उपकरणों की रचना कर रहे हैं, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऐसी परिस्थिति में मजदूरों को संसद के खिलाफ़ सोवियतों के संघर्ष के लिए, सोवियतों द्वारा संसद के भंग किये जाने के लिए, सैद्धान्तिक, राजनैतिक और तकनीकी तैयारी करनी चाहिए। परन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि क्रान्ति-विरोधी संसद के अन्दर किसी सोवियत विरोध-पक्ष के रहने से इस संसद को भंग करने में अड़चन पड़ेगी, या उसमें सहायता नहीं मिलेगी। देनीकिन और कोल्चोक के खिलाफ़ हमारे विजयी संघर्ष के दौरान हमें कभी यह नहीं प्रतीत हुआ था कि दुश्मनों के खेमे में एक सोवियत विरोध-पक्ष। सर्वहारा विरोध-पक्ष के अस्तित्व का हमारी सफलता के लिए कोई महत्व नहीं था। हम अच्छी तरह जानते हैं कि 5 जनवरी, 1918 को संविधान सभा भंग करने में इस बात से कोई अड़चन पड़ना तो दूर, सचमुच बड़ी मदद मिली कि क्रान्ति-विरोधी संविधान सभा में, जिसे भंग किया जानेवाला था, एक सुसंगत, बोल्शेविक, सोवियत विरोध-पक्ष के साथ ही एक असंगत, वामपंथी समाजवादी क्रान्तिकारी, सोवियत विरोध-पक्ष भी था। इस प्रतिपत्ति के लेखकगण उलझकर यदि सभी नहीं, तो कम से कम अनेक क्रान्तियों का यह अनुभब बिलकुल भूल गये हैं कि क्रान्ति के समय प्रतिक्रियावादी संसद के बाहर होनेवाले जन-संघर्षों के साथ ही यदि संसद के अन्दर भी क्रान्ति से सहानुभूति रखनेवाला (या बेहतर यह कि प्रत्यक्ष रूप से क्रान्ति का समर्थक) कोई विरोधी दल हो, तो वह कितना उपयोगी होता है। डच और आम तौर से सभी "वामपंथी" यहां उन लकीर पीटनेवाले क्रान्तिकारियों की तरह तर्क करते हैं, जिन्होंने कभी किसी वास्तविक क्रान्ति में भाग नहीं लिया है, या जिन्होंने कभी क्रान्तियों के इतिहास पर गम्भीरता से सोचा नहीं है, अथवा जिन्होंने किसी प्रतिक्रियावादी संस्था के आत्मपरक ढंग से “अस्वीकार किए जाने” को भोलेपन के साथ यह मान लिया है, मानो वह बहुत से बाह्य कारणों के सम्मिलित प्रहार के कारण सचमुच नष्ट हो गयी हो। किसी नये राजनैतिक (और केवल राजनैतिक ही नहीं) विचार को बदनाम करने और नुकसान पहुंचाने का सबसे कारगर तरीका यह है। समर्थन करने के नाम पर उसे मूर्खता की हद तक पहुंचा दिया जाये। कारण यह है कि प्रत्येक सत्य को (जैसा कि बड़े डीयेट्ज़गेन ने कहा था) अति बड़ा बनाकर और उसकी वास्तविक उपयोगिता की सीमा से बाहर ले जाकर मूर्खता में बदला जा सकता है, बल्कि कहना चाहिये कि ऐसा करने से प्रत्येक सत्य लाजिमी तौर से मूर्खता में बदल जाता है। सोवियत सत्ता पूँजीवादी-जनवादी संसद से बेहतर है - इस नवीन सत्य का डच और जर्मन वामपंथी इसी तरह अपकार कर रहे हैं। इतनी बात तो समझ में आती हैं कि यदि कोई पुराने विचार का समर्थन करता है, या आम तौर से यह मानता है कि पूंजीवादी संसदों में किसी भी हालत में भाग लेने से इनकार करना अनुचित है, तो वह ग़लती करता है। मैं यहाँ उन परिस्थितियों को नहीं बता सकता, जिनमें बहिष्कार करना लाभदायक होता है, क्योंकि इस पुस्तिका का उद्देश्य इससे कहीं छोटा है : यहाँ हम अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट कार्यनीति के कुछ तात्कालिक प्रश्नों के सम्बन्ध में ही रूसी अनुभव का अध्ययन करना चाहते हैं। रूसी अनुभव में हमें बोल्शेविकों द्वारा बहिष्कार का एक सही और सफल उदाहरण (1905) में और एक गलत उदाहरण (1906 में) मिलता है। पहले उदाहरण का विश्लेषण कीजिये तो पता चलता है कि एक ऐसी परिस्थिति में जब जनसाधारण की गैर-संसदीय क्रान्तिकारी कार्रवाइयां (विशेषकर हड़तालें) असामान्य तेजी से बढ़ रही थीं, जब सर्वहारा वर्ग और किसानों का कोई भी हिस्सा किसी भी रूप में प्रतिक्रियावादी सरकार का समर्थन नहीं कर सकता था और जब आम पिछड़ी जनता के ऊपर हड़तालों तथा किसान-आन्दोलन के द्वारा क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का असर बढ़ रहा था, हमने प्रतिक्रियावादी सरकार को एक प्रतिक्रियावादी संसद बुलाने से रोकने में सफलता प्राप्त की थी। बिलकुल साफ़ है कि इस अनुभव को आज के यूरोप की हालत पर लागू नहीं किया जा सकता। साथ ही यह भी बिलकुल साफ़ है - और ऊपर की बहस से यह बात साबित हो जाती है कि संसदों में भाग लेने से इनकार करने की नीति का समर्थन करके इन तथा अन्य “वामपंथी" - भले ही वे शर्तों के साथ ऐसा करते हों - बुनियादी तौर से ग़लत और क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के हेतु के लिए हानिकारक काम कर रहे हैं।

पश्चिमी यूरोप और अमरीका में मजदूर वर्ग के आगे बढ़े हुए क्रान्तिकारी सदस्यों के लिए संसद विशेष रूप से घृणा की वस्तु बन गयी है। यह बात निर्विवाद और आसानी से समझ में आनेवाली है, क्योंकि युद्ध के दिनों में तथा उसके बाद संसदों के अधिकांश समाजवादी तथा सामाजिक-जनवादी सदस्यों का जैसा व्यवहार रहा, उससे अधिक नीच, घृणित और विश्वासघाती व्यवहार की कल्पना करना भी कठिन है। परन्तु इस सामान्यतः स्वीकृत बुराई से लड़ने के तरीके का फैसला करते समय यदि हम इस भावना के वशीभूत हो गये, तो वह न केवल गलत, बल्कि मुजरिमाना हरकत होगी। पश्चिमी यूरोप के बहुत से देशों में आजकल क्रान्तिकारी भावना, हम कह सकते हैं कि एक "नयी चीज", एक ऐसी “अनोखी चीज़" के रूप में सामने आयी है, जिसका लोग अधीर होकर बहुत दिनों से व्यर्थ ही इन्तजार कर रहे थे और शायद यही कारण है कि लोग इतनी आसानी से भावना के वशीभूत हो जाते हैं। इसमें संदेह नहीं कि जनता में क्रांतिकारी भावना के बिना, इस भावना के बढ़ने में सहायता पहुंचानेवाली परिस्थितियों के अभाव में क्रान्तिकारी कार्यनीति को कभी कार्य-रूप में परिणत नहीं किया जा सकता। परन्तु रूस में हमने एक बहुत लम्बे , तकलीफ़देह और खूनी अनुभव से यह सचाई सीखी है कि क्रान्तिकारी कार्यनीति केवल क्रान्तिकारी भावना के सहारे नहीं बनायी जा सकती। कार्यनीति निर्धारित करने के लिए पहले उस राज्य-विशेष की (उसके आस-पास के राज्यों की तथा संसार भर के राज्यों की) सारी वर्ग-शक्तियों का और साथ ही क्रान्तिकारी आन्दोलनों के अनुभव का गंभीर तथा सर्वथा वस्तुपरक मूल्यांकन करना आवश्यक है। संसदीय अवसरवाद पर केवल गालियों की बौछार करके, केवल संसदों में भाग लेने का विरोध करके अपना “क्रान्तिकारीपन' साबित कर देना बहुत आसान है और बहुत आसान होने की वजह से ही यह एक कठिन और कठिनतम समस्या का हल नहीं हो सकता। यूरोपीय संसदों में एक सचमुच क्रान्तिकारी संसदीय दल तैयार करना रूस से कहीं ज्यादा कठिन काम है। यह बात ठीक है। पर वह इस आम सत्य की ही एक विशेष अभिव्यक्ति है कि 1617 की ठोस , इतिहास की दृष्टि से बहुत ही विशेष परिस्थिति में रूस के लिए समाजवादी क्रान्ति शुरू कर देना आसान था, परन्तु क्रान्ति को जारी रखना और उसे पूर्णता तक पहुंचाना रूस के लिए यूरोपीय देशों से अधिक कठिन होगा। 1918 के आरम्भ में ही मैंने इस बात की ओर संकेत किया था और पिछले दो वर्ष के अनुभव ने उसे पूरी तरह साबित कर दिया है। रूस की कुछ विशेष परिस्थितियाँ इस समय पश्चिमी यूरोप में मौजूद नहीं हैं और ऐसी या इनसे मिलती-जुलती परिस्थितियां दुबारा आसानी से उत्पन्न नहीं होंगी। वे परिस्थितियां ये है:
1) सोवियत कान्ति को इस क्रान्ति के फलस्वरूप साम्राज्यवादी युद्ध को समाप्त कर देने के सवाल के साथ जोड़ने की संभावना, जिसने मजदूरों और किसानों का एकदम कचूमर निकाल दिया था; 
2) साम्राज्यवादी डाकुओं के दो बड़े संसार-व्यापी दलों के आपसी सांघातिक संघर्ष से कुछ वक्त तक फायदा उठाने की सम्भावना, जो अपने सोवियत शत्रु के खिलाफ़ एक होने में असमर्थ थे;

3) देश के बहुत ही विस्तृत प्रकार के कारण और संचार के साधनों के बहुत पिछड़ेपन की वजह से एक अपेक्षाकृत लम्बा गृहयुद्ध चलाना सम्भव था;

4) किसानों में एक इतने गहरे पूजीवादी-जनवादी क्रान्तिकारी आन्दोलन का अस्तित्व कि सर्वहारा वर्ग की पार्टी ने किसानपार्टी (समाजवादी क्रान्तिकारी पार्टी, जिसके अधिकतर सदस्य निश्चित रूप से बोल्शेविज्म के विरोधी थे) की क्रान्तिकारी मांगों को लेकर, राज्यसत्ता पर सर्वहारा वर्ग के अधिकार करने के फलस्वरूप, उन्हें तुरन्त पूरा कर दिया।

कुछ और कारणों के अलावा, इन परिस्थितियों के अभाव में पश्चिमी यूरोप के लिए समाजवादी क्रान्ति शुरू करना उससे कठिन है, जितना हमारे लिए था। क्रान्तिकारी उद्देश्यों के लिए प्रतिक्रियावादी संसदों का उपयोग करने के कठिन काम को "फलांगकर इस कठिनाई से बचने की कोशिश करना सरासर बचपना है। आप एक नया समाज बनाना चाहते हैं? फिर भी प्रतिक्रियावादी संसद में पक्के, वफ़ादार और बहादुर कम्युनिस्टों का एक अच्छा संसदीय दल बनाने की कठिनाइयों से घबराते हैं! यह बचपना नहीं, तो और क्या है? यदि जर्मनी में कार्ल लीव्कनेख्त और स्वीडन में ज़ेट हेगलुंड नीचे से जनता का समर्थन न मिलने पर भी प्रतिक्रियावादी संसदों के सचमुच क्रान्तिकारी उपयोग की मिसालें पेश कर सके, तो कोई कैसे कह सकता है कि एक तेजी से बढ़ती हुई क्रान्तिकारी जन-पार्टी युद्ध के बाद की उस परिस्थिति में, जब जनता के भ्रम टूट रहे हों और उसका क्रोध बढ़ रहा हो, खराब से खराब संसद में भी एक तपा-तपाया कम्युनिस्ट दल नहीं बना सकती? । पश्चिमी यूरोप के पिछड़े हुए आम मजदूर और उनसे भी ज्यादा-छोटे किसान रूस की तुलना में पूंजीवादी-जनवादी तथा संसदीय पूर्वाग्रहों के कहीं अधिक वशीभूत है। ठीक यही कारण है कि केवल पूंजीवादी संसद जैसी संस्थाओं के अन्दर से ही कम्युनिस्ट एक लम्बा और अनवरत तथा कठिनाइयों के सामने कभी सिर न झुकानेवाला संघर्ष चला सकते हैं (और उन्हें ज़रूर चलाना चाहिए), ताकि उन पूर्वाग्रहों का पर्दाफ़ाश किया जा सके, उनको छिन्न-भिन्न किया जा सके और उनपर विजय प्राप्त की जा सके। 

जर्मन “वामपंथी अपनी पार्टी के बुरे" नेताओं की शिकायतें करते हैं, निराश हो जाते हैं और यहां तक कि “नेताओं को मानने से इनकार करने की बेहूदगी तक करने लगते हैं। परन्तु जब परिस्थितियां ऐसी हैं कि "नेताओं को अक्सर छिपाकर रखना पड़ता है, तब अच्छे, भरोसे के, अनुभवी और प्रभावशाली नेताओं की तैयारी बहुत कठिन हो जाती है और इन कठिनाइयों को सफलतापूर्वक तब तक दूर नहीं किया जा सकता, जब तक कि क़ानूनी और गैर-कानूनी कामों को मिलाया नहीं जाता और जब तक अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ संसद के क्षेत्र में भी “नेताओं को परखा नहीं जाता। आलोचना - सख्त से सख्त और अधिक से अधिक निर्मम आलोचना - संसदीय पद्धति या संसदीय काम की नहीं, बल्कि उन नेताओं की करनी चाहिए, जो संसद के चुनावों का और संसद के मंच का क्रान्तिकारी ढंग से, कम्युनिस्ट ढंग से उपयोग करने में असमर्थ है - और जो लोग यह करना चाहते भी नहीं, उनकी तो और भी ज्यादा आलोचना होनी चाहिए। ऐसी आलोचना मात्र ही और उसके साथ-साथ अयोग्य नेताओं को निकालकर उनकी जगह योग्य नेताओं को रखना ही - ऐसा उपयोगी तथा लाभप्रद क्रान्तिकारी काम होगा, जिससे “नेता" मजदूर वर्ग तथा मेहनतकश जनसाधारण के विश्वासभाजन बनना सीखेंगे और जनसाधारण राजनैतिक परिस्थिति को और उससे पैदा होनेवाली अक्सर बहुत पेचीदा और उलझी हुई समस्याओं को ठीक ढंग से समझना सीखेंगे।"
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* इटली के “वामपंथी' कम्युनिज्म के बारे में जानकारी प्राप्त करने का मुझे बहुत कम अवसर मिला है। कामरेड बोदिंगा और उनका " कम्युनिस्ट-बहिष्कारवादियों' (Comunista asternsiortista) का गुट संसद में भाग न लेने का समर्थन करके निश्चय ही एक गलत काम कर रहे हैं। परन्तु मुझे लगता है कि एक बात पर कामरेड बोदिंगा का मत सही है - कम से कम, उनके पत्र 'सोवियत' के (6// Society, 18 जनवरी और 1 फ़रवरी, 1920 के अंक 3 और 4) दो अंकों से, कामरेड सेती की बहुत उम्दा पत्रिका 'कम्युनिज्म' के Cottaraisriow, 1 अक्तूबर से 30 नवम्बर, 1916 तक के 1- 4अंक) चार अंकों से और इटली के पूंजीवादी पत्रों के उन इक्के-दुक्के अंकों से, जो मुझे मिल सके हैं, मुझे ऐसा ही लगता है। कामरेड वोदिंगा और उनका गुट तुराती और उनके अनुयायियों पर इस बात के लिए हमला करते हुए सही है कि वे लोग एक ऐसी पार्टी के सदस्य बने रहे हैं, जो सोवियत सत्ता मजदूर वर्ग के अधिनायकत्व को स्वीकार कर चुकी है, पर संसद के सदस्यों की हैसियत से अब भी अपनी पुरानी घातक और अवसरवादी नीति चला रहे हैं। बेशक, इस बात को सहन करके कामरेड सेती और इटली की पूरी समाजवादी पार्टी ऐसी गलती कर रही है। जिससे उतना ही ज्यादा नुकसान होने पर वैसे ही खतरों के पैदा होने की आशंका है। जैसे खतरे ऐसी ही एक गलती से हंगरी में पैदा हो गये थे, जहां हंगरी के तुरातियों ने पार्टी और सोवियत सरकार दोनों के खिलाफ़ अन्दर से तोड़-फोड़ की थी। संसद के अवसरवादी सदस्यों के प्रति ऐसे ग़लत, असंगत या दुलमुल रवैये से एक ओर तो वामपंथी कम्युनिज्म पैदा होता है, दूसरी और कुछ हद तक उसके अस्तित्व को औचित्य प्रदान किया जाता है। अब कामरेड सेती संसद के सदस्य तुराती पर "असंगत व्यवहार” का आरोप लगाते हैं (<<Comunismo>>, अंक ३), तो वे स्पष्ट ही गलती करते हैं, क्योंकि "असंगत व्यवहार” वास्तव में इटली की समाजवादी पार्टी कर रहीं है कि वह तुराती और उनके साथियों जैसे संसद के अवसरवादी सदस्यों को अभी तक अपने अंदर स्थान दिये हुए है।


शनिवार, 18 अप्रैल 2015

‘कायर बुद्धिजीवियों’ का देश बन जाने का ख़तरा

हम अन्याय को संस्थाबद्ध करते जा रहे हैं -अरुंधति रॉय



लीजिए, हिंदी में पढ़िये पंकज श्रीवास्तव से  अरुंधति रॉय की ताजा बातचीत। 

 

गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल के दौरान 23 मार्च को मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय से हुई मेरी बातचीत अंग्रेज़ी पाक्षिक “गवर्नेंस नाऊ” में छपी है। लेकिन जब लोग यह जान गये हैं कि यह साक्षात्कार हिंदी में लिया गया था तो सभी मूल ही सुनना-पढ़ना चाहते हैं। इससे साबित होता है कि अपनी भाषा के परिसर में अगर ज्ञान-विज्ञान और विचारों की बगिया लहलहाती हो तो कोई अंग्रेज़ी का मुँह नहीं जोहेगा। इस इंटर्व्यू की करीब 40 मिनट की रिकॉर्डिंग मोबाइल फोन पर है, जिसे फ़ेसबुक पर पोस्ट करना मुश्किल हो रहा है। फ़िलहाल पढ़कर ही काम चलाइये ... पंकज श्रीवास्तव


सवाल----गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल में आप दूसरी बार आई हैं। जो शहर गीताप्रेस और गोरखनाथ मंदिर और उसके महंतों की राजनीतिक पकड़ की वजह से जाना जाता है, वहां ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ दस साल का सफ़र पूरा कर रहा है। इसे कैसे देखती हैं?
अरुंधति रॉय---दूसरी नहीं, तीसरी बार। एक बार आज़मगढ़ फ़ेस्टिवल में भी जा चुकी हूं। दरअसल, ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो सिर्फ गोरखुपर के लिए अहमियत नहीं रखता। यह वाकई प्रतिरोध है जो सिर्फ जनसहयोग से चल रहा है, वरना प्रतिरोध को भी ‘ब्रैंड’ बना दिया गया है। अमेरिका से लेकर भारत तक, जहाँ भी देखो प्रतिरोध को व्यवस्था में समाहित कर के एक ‘ब्रैंड’ बनाने की कोशिश होती है। जब मैंने ‘एंड आफ इमेजिनेशन’ लिखा था, तो पहला रियेक्शन यह हुआ कि बहुत सारे ब्रैंड्स, जिसमें कुछ जीन्स के भी थे, ने विज्ञापन करने के लिए मुझसे संपर्क किया। यह एक पुराना खेल है। अमेरिका में नागरिकों की जासूसी का खुलासा करने वाले एडवर्ड स्नोडेन के बारे में फ़िल्म बनी है जिसके लिए फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन ने पैसा दिया। ‘फ़्रीडम आफ प्रेस फ़ाउंडेशन’ में भी फ़ोर्ड का पैसा लगा है। ये लोग ‘प्रतिरोध’ की धार पर रेगमाल घिसकर उसे कुंद कर देते हैं। भारत में देखिये, जंतर-मंतर पर जुटने वाली भीड़ का चरित्र बदल गया है। तमाम एनजीओ, फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन जैसी संस्थाओं से पैसा लेकर प्रतिरोध को प्रायोजित करते हैं। ऐसे में गोरखपुर जैसे दक्षिणपंथी प्रभाव वाले शहर में प्रतिरोध के सिनेमा का उत्सव मनाना ख़ासा अहमियत रखता है। मैं सोच रही थी कि आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद जैसी संस्थायें अक्सर मेरा विरोध करती हैं, प्रदर्शन करती हैं, लेकिन गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल को लेकर ऐसा नहीं हुआ। इसका दो मतलब है। या तो उन्हें इसकी परवाह नहीं। या फिर उन्हें पता है कि इस आयोजन ने गोरखपुर के लोगों के दिल मे जगह बना ली है। मेरे पास इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब नहीं है। लेकिन इस शहर में ऐसा आयोजन होना बड़ी बात है। कोई कह रहा था कि इस फ़ेस्टिवल से क्या फ़र्क़ पड़ा। मैं सोच रही थी कि अगर यह नहीं होता तो माहौल और कितना ख़राब होता।

सवाल---आपकी नज़र में आज का भारत कैसा है? मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य क्या बता रहा है ?
अरुंधति रॉय---जब मई 2014 में मोदी की सरकार बनी तो बहुत लोगों को, जिनमें मैं भी थी, यकीन नहीं हुआ कि यह हमारे देश में हुआ है। लेकिन अगर ऐतिहासिक नजरिये से देखें तो यह होना ही था। 1925 से जब आरएसएस बना, या उससे पहले से ही भारतीय समाज में फ़ासीवादी प्रवृत्तियाँ नज़र आने लगी थीं। ‘घर वापसी’ जैसे कार्यक्रम उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में हो रहे थे। यानी इस दौर से गुज़रना ही था। देखना है कि यह सब कितने समय तक जारी रहेगा क्योंकि आजकल बदलाव बहुत तेज़ी से होते हैं। मोदी ने अपने नाम का सूट पहन लिया और अपने आप को एक्सोपज़ कर लिया। अच्छा ही है कि कोई गंभीर विपक्ष नहीं है। ये अपने आपको एक्सपोज़ करके खुद को तोड़ लेंगे। आखिर मूर्खता को कितने दिनों तक बरदाश्त किया जा सकता है। लोगों को शर्म आती है जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी होती थी। गणेश के धड़ पर हाथी का सिर ऐसे ही जोड़ा गया था। फ़ासीवाद के साथ लोग ऐसी मूर्खताएं कब तक सहेंगे।
मैं पहले से कहती रही हूं कि जब राजीव गांधी ने अयोध्या में राममंदिर का ताला खुलवाया तो साथ में ‘बाज़ार’ का ताला भी खोला गया। इसी के साथ दो क़िस्म के कट्टरपंथ को खड़ा किया गया। एक इस्लामी आतंकवाद और दूसरा माओवाद। इनसे लड़ने के नाम पर ‘राज्य’ ने अपना सैन्यीकरण किया। कांग्रेस और बीजेपी, दोनों ने इस रास्ते को अपनाया क्योंकि नव उदारवादी आर्थिक नीतियाँ, बिना सैन्यीकरण के लागू नहीं हो सकतीं। इसीलिए जम्मू-कश्मीर में पुलिस, सेना की तरह काम करती है और छत्तीसगढ़ में सेना, पुलिस की भूमिका में है। यह जो ख़ुफिया निगरानी, यूआईडी, आधार-कार्ड वगैरह की बातें हैं, यह सब उसी का हिस्सा हैं। अदृश्य जनसंख्या को नज़र में लाना है। यानी एक-एक आदमी की सारी जानकारी रखनी है। जंगल के आदिवासियों से पूछा जाएगा कि उनकी ज़मीन का रिकार्ड कहां है। नहीं है, तो कहा जाएगा कि ज़मीन तुम्हारी नहीं है। डिजिटलीकरण का मकसद “अदृश्य” को “दृश्य” बनाना है। इस प्रक्रिया में बहुत लोग गायब हो जाएंगे। इसमें आईएमएफ़, वर्ल्ड बैंक से लेकर फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन तक, सब मिले हैं। वे क़ानून के राज पर खूब ज़ोर देते हैं और क़ानून बनाने का हक़ अपने पास रखना चाहते हैं। ये संस्थायें सबसे ज़्यादा ग़ैरपारदर्शी ढंग से काम करती हैं, लेकिन इन्हें अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए आंकड़ों की पारदर्शी व्यवस्था चाहिए। इसीलिए वे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों की मदद करते हैं। फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन एक नया पाठ्यक्र गढ़ने में जुटा है। वह चाहता है कि पूरी दुनिया एक ही तरह की भाषा बोले। वह हर तरह के क्रांतिकारी विचारों, वाम विचारों को खत्म करने, नौजवानों की कल्पनाओं को सीमित करने में जुटा है। फिल्मों, साहित्यिक उत्सवों और अकादमिक क्षेत्र में कब्ज़ा करके शोषण मुक्त दुनिया और उसके लिए संघर्ष के विचार को पाठ्यक्रमों से बाहर किया जा रहा है।


सवाल--- आपको हालात को बदलने की कोई मज़बूत जद्दोजहद नज़र आती है क्या.. भविष्य कैसा लग रहा है?
अरुंधति रॉय--- प्रतिरोध आंदोलन या क्रांति, जो भी शब्द इस्तेमाल कीजिये, उसे पिछले कुछ वर्षों में काफी धक्का लगा है। 1968-70 में जब नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ, या तमाम सीमाओं के बावजूद जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के दौर की माँगों पर जरा ग़ौर कीजिये। तब माँग थी- “न्याय”। जैसे ज़मीन जोतने वाली की हो या संपत्ति का समान वितरण हो। लेकिन आज जो माओवादी सबसे “रेडिकल” कहलाते हैं, वे बस यही तो कह रहे हैं कि जो ज़मीन आदिवासियों के पास है, उसे छीना ना जाये। ‘नर्मदा आंदोलन’ की माँग है कि विस्थापन न हो। यानी जिसके पास जो है, उससे वह छीना न जाये। लेकिन जिनके पास कुछ नहीं है, जैसे दलितों के पास ज़मीन नहीं है, उनके लिए ज़मीन तो कोई नहीं मांग रहा है। यानी ‘न्याय’ का विचार को दरकिनार कर मानवाधिकार के विचार को अहम बना दिया गया है। यह बड़ा बदलाव है। आप मानवाधिकार के नाम पर माओवादियों से लेकर सरकार तक को, एक स्वर में कोस सकते हैं। कह सकते हैं कि दोनों ही मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं। जबकि ‘अन्याय’ पर बात होगी तो इसके पीछे की राजनीति पर भी बात करनी पड़ेगी।
कुल मिलाकर यह इमेजनिशन (कल्पना) पर हमला है। सिखाया जा रहा है कि ‘क्रांति’ यूटोपियन विचार है, मूर्खता है। छोटे सवाल बड़े बन रहे हैं जबकि बड़ा सवाल गायब है। जो सिस्टम के बाहर हैं, उनकी कोई राजनीति नहीं है। तमाम ख़्वाब टूटे पड़े हैं। राज्य, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हाथ का उपकरण बना हुआ है। दुनिया की अर्थव्यवस्था एक अंतरराष्ट्रीय पाइपलाइन की तरह है जिसके लिए सरहदें बेमानी हो गयी हैं।


सवाल---- तो क्या प्रतिरोध की ताकतों ने समर्पण कर दिया है, ‘इमेजनिशेन’ की इस लड़ाई में?
अरुंधति रॉय---मेरे ख़्याल में, वे बहुत कमज़ोर स्थिति में हैं। जो सालों से लड़ाई लड़ रहे हैं, वे सोच ही नहीं पा रहे हैं। ‘राज्य’ लड़ाई को इतना थकाऊ बना देता है कि अवधारणा के स्तर पर सोचना मुश्किल हो जाता है। यहाँ तक कि अदालतें भी थका देती हैं। हर तरह से कोशिश करके लोग हार जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर देश में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो मानती हो कि उसका काम लोगों की मदद करना है। उन्हें लगता है कि उनका काम “नियंत्रण” करना है। न्याय कल्पना से बाहर की चीज होती जा रही है। 28 साल बाद हाशिमपुरा हत्याकांड का फैसला आया। सारे मुल्ज़िम छोड़ दिये गये। वैसे इतने दिन बाद किसी को सजा होती भी तो अन्याय ही कहलाता।


सवाल------ आपने गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल का उद्घाटन करते हुए गाँधी जी को पहला “कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ” करार दिया है। इस पर ख़ूब हंगामा भी हुआ। आपकी बात का आधार क्या है?
अरुंधति रॉय---आजादी के इतने सालों बाद हममे इतना साहस होना चाहिए कि तथ्यों के आधार पर राय बना सकें। मैंने गांधी को पहला कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ कहा है तो उसके प्रमाण हैं। उन्हें शुरू से ही पूँजीपतियों ने कैसे मदद की, यह सब इतिहास का हिस्सा है। उन्होंने गाँधी की ख़ास मसीहाई छवि गढ़ने में ताकत लगाई। लेकिन खुद गाँधी का लेखन पढ़ने से सबकुछ साफ हो जाता है। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी के कामकाज के बारे में हमें बहुत गलत पढ़ाया जाता है। हमें बताया गया कि वे ट्रेन के डिब्बे से बाहर निकाले गये जिसके ख़िलाफ उन्होंने संघर्ष शुरू किया। यह ग़लत है। गाँधी ने वहाँ कभी बराबरी के विचार का समर्थन नहीं किया। बल्कि भारतीयों को अफ्रीकी काले लोगों से श्रेष्ठ बताते हुए विशिष्ट अधिकारों की मांग की। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी का पहला संघर्ष डरबन डाकखाने में भारतीयों के प्रवेश के लिए अलग दरवाज़ा खोलने के लिए था। उन्होंने कहा कि अफ्रीकी काले लोग और भारतीय एक ही दरवाजे से कैसे जा सकते हैं। भारतीय उनसे श्रेष्ठ हैं। उन्होंने बोअर युद्ध में अंग्रेजों का खुलकर साथ दिया और इसे भारतीयों का कर्तव्य बताया। यह सब खुद गाँधी ने लिखा है। दक्षिण अफ्रीका में उनकी ‘सेवाओं’ से ख़ुश होकर ही अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें क़ैसर-ए-हिंद के ख़िताब से नवाज़ा था। 

सवाल---- आप आजकल गाँधी और अंबेडकर की बहस को नये सिरे से उठा रही हैं। आपके निबंध ‘डॉक्टर एंड द सेंट’ पर भी काफी विवाद हुआ था।
अरुंधति रॉय---यह जटिल विषय है। मैंने इस पर बहुत विस्तार से लिखा है और चाहती हूँ कि लोग पढ़कर समझें। इसकी बुनियाद डॉ.अंबेडकर और गाँधी की वैचारिक टकराहट है। अंबेडकर शुरू से सवाल उठा रहे थे कि हम कैसी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन गाँधी जाति व्यवस्था की कभी आलोचना नहीं करते, जो गैरबराबरी वाले समाज का इंजन है। वे सिर्फ यह कहकर रुक जाते हैं कि सबके साथ अच्छा व्यवहार होना चाहिए। उन्होंने जाति व्यवस्था को हिंदू समाज का महानतम उपहार बताया। यह सब उन्होंने ख़ुद लिखा है। मैं कोई अपनी व्याख्या नहीं कर रही हूँ। जबकि अंबेडकर लगातार जाति उत्पीड़न और संभावित आज़ादी के स्वरूप का सवाल उठा रहे थे। पूना पैक्ट से पहले गाँधी ने जो भूख हड़ताल की, उसका नतीजा आज भी देश को प्रभावित करता है। हम यह सवाल क्यों नहीं उठा सकते कि क्या सही है और क्या गलत। भारत सरकार की सहायता से रिचर्ड एटनबरो न जो ‘गाँधी’ फ़िल्म बनाई उसमें अंबेडकर का छोटा सा रोल भी नहीं है, जो उनके सबसे प्रभावी आलोचक हैं। अगर हम इतने साल बाद भी बौद्धिक जांच-परख से कतराते हैं तो फिर हम बौने लोग ही हैं। अंबेडकर और गाँधी की बहस बेहद गंभीर विषय है।
वारण्ट अधिकारी एम के गांधी

सवाल--- भगत सिंह और उनके साथियों के भी गाँधी से तमाम मतभेद थे, लेकिन उन्होंने भी कहा था कि भाग्यवाद जैसी तमाम चीज़ों के समर्थन के बावजूद गांधी ने जिस तरह देश को जगाया है, उसका श्रेय उन्हें न देना कृतघ्नता होगी।
अरुंधति रॉय---अब बात शुक्रगुज़ार होने या ना होने से बहुत आगे बढ़ गयी। यह ठीक है कि गाँधी ने आधुनिक औद्योगिक समाज में अंतर्निहित नाश के बीजों की पहचान कर ली थी जो शायद अंबेडकर नहीं कर पाये थे। गाँधी की आलोचना का यह अर्थ भी नहीं है कि गाँधीवादियों से कोई विरोध है। या उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में कुछ नहीं किया। नर्मदा आंदोलन का तर्क बहुत गंभीर और प्रभावी रहा है, लेकिन सोचना होगा कि वह सफल क्यों नहीं हुआ। आंदोलनों के हिंसक और अहिंसक स्वरूप की बात भी बेमानी है। यह सिर्फ़ पत्रकारों और अकादमिक क्षेत्र की बहस का मसला है। जहां हज़ारों सुरक्षाकर्मियों के साये में बलात्कार होते हों, वहां हिंसा और अहिंसा कोई मायने नहीं रखती। वैसे, अहिंसा के “पोलिटकल थियेटर” के लिए दर्शकवर्ग बहुत ज़रूरी होता है। लेकिन जहां कैमरे नहीं पहुंच सकते, जैसे छत्तीसगढ़, वहां इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।
हमें अंबेडकर या गाँधी को भगवान नहीं इंसान मानकर ठंडे दिमाग से समय और संदर्भ को समझते हुए उनके विचारों को कसौटी पर कसना होगा। लेकिन हमारे देश में यह हाल हो गया कि आप कुछ बोल ही नहीं सकते। न इसके बारे में न उसके बारे में। सेंसर बोर्ड सरकार में नहीं सड़क पर है। नारीवादियों को भी समस्या है है, दलित समूहों को भी है। लेफ्ट को भी है और दक्षिणपंथियों को भी। खतरा है कि हम कहीं “बौद्धिक कायरों” का देश ना बन जायें।


सवाल--- आपने पूँजीवाद और जातिप्रथा से एक साथ लड़ने की बात कही है, लेकिन इधर दलित बुद्धिजीवी अपने समाज में पूँजीपति पैदा करने की बात कर रहे हैं। साथ ही, जाति को खत्म न करके अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश पर भी ज़ोर है। जाति को ‘वोट की ताकत’ में बदला जा रहा है। अंबेडकरवादियों के इस रुख को कैसे देखती हैं?
अरुंधति रॉय----यह स्वाभाविक है। जब हर तरफ ऐसा ही माहौल है तो इन्हें कैसे रोक सकते हैं। जैसे कुछ बुद्धजीवी लोग कश्मीर में जाकर कहते हैं कि राष्ट्रवाद बड़ी खराब चीज़ है। भाई, पहले अपने घर में तो समझाओ। दलित मौजूदा व्यवस्था में अपने लिए थोड़ी सी जगह खोज रहे हैं। सिस्टम भी उनका इस्तेमाल कर रहा है। मैंने पहले भी कहा है ‘दलित स्टडीज’ हो रही है। अध्ययन किया जा रहा है कि म्युनिस्पलटी में कितने बाल्मीकि हैं, लेकिन ऊपर कोई नहीं देखता । कोई इस बात का अध्ययन क्यों नहीं करता कि कारपोरेट कंपनियों पर बनियों और मारवाड़ियों का किस कदर कब्ज़ा है। जातिवाद के मिश्रण नें पूँजीवाद के स्वरूप को और जहरीला कर दिया है।

सवाल-- कहीं कोई उम्मीद नज़र आती है आपको?
अरुंधति रॉय----मुझे लगता है कि अभी दुनिया की जो स्थिति है, वह किसी एक व्यक्ति के फैसले का नतीजा नहीं हैं। हजारों फैसलों की शृंखला है। फैसले कुछ और भी हो सकते थे। इसलिए तमाम छोटी-छोटी लड़ाइयों का महत्व है। छत्तीसगढ़, झारखंड और बस्तर मे जो लड़ाइयाँ चल रही हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। बड़े बाँधों के खिलाफ लड़ाई ज़रूरी है। साथ ही जीत भी ज़रूरी है ताकि ‘इमेजिनेशन’ को बदला जा सके। अभी भी एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसके ख़्वाब ख़्त्म नहीं हुए हैं। वह अभी भी परिवर्तन की कल्पना पर यकीन करती है।

चलते-चलते
सवाल- दिल्ली के निर्भया कांड पर बनी बीबीसी की डाक्यूमेंट्री ‘इंडियाज डॉटर’ पर प्रतिबंध लगा। आपकी राय?
अरुंधति रॉय--
जितनी भी खराब फिल्म हो, चाहे घृणा फैलाती हो, मैं बैन के पक्ष में नहीं हूं। बैन की मांग करना सरकार के हाथ में हथियार थमाना है। इसका इस्तेमाल आम लोगों की अभिव्यक्ति के खिलाफ ही होगा।


सवाल---मोदी सरकार ने अच्छे दिनों का नारा दिया था। क्या कहेंगी?

अरुंधति रॉय---अमीरों के अच्छे दिन आये हैं। छीनने वालों के अच्छे दिन आये हैं। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश सबूत है।


सवाल----आपके आलोचक कहते हैं कि गांधी अब तक आरएसएस के निशाने पर थे। अब आप भी उसी सुर में बोल रही हैं।
पंकज श्रीवास्तव
अरुंधति रॉय--आरएसएस गांधी की आलोचना सांप्रदायिक नज़रिये से करता है। आरएसएस स्वघोषित फ़ासीवादी संगठन है जो हिटलर और मुसोलिनी का समर्थन करता है। मेरी आलोचना का आधार गाँधी के ऐसे विचार हैं जिनसे दलितों और मजदूर वर्ग को नुकसान हुआ।

सवाल----दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार के बारे में क्या राय है?
अरुंधति रॉय---जब दिल्ली विधानसभा चुनाव का नतीजा आया तो मैं भी खुश हुई कि मोदी के फ़ासीवादी अभियान की हवा निकल गयी। लेकिन सरकार के काम पर कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। सिर्फ भ्रष्टाचार की बात नहीं है। देखना है कि दूसरे तमाम ज़रूरी मुद्दों पर पार्टी क्या स्टैंड लेती है।

सवाल---आजकल क्या लिख रही हैं..?
अरुंधति रॉय--एक उपन्यास पर काम कर रही हूँ। ज़ाहिर है यह दूसरा ‘गॉड आफ स्माल थिंग्स’ नहीं होगा। लिख रही हूँ, कुछ अलग।

रविवार, 2 जनवरी 2011

एक दिन हम इन सारी बाधाओं को हटा डालेंगे

ल हम ने बांग्ला साहित्य के शिखर पुरुष गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर और आधुनिक हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग के मौलिक निबंधकार, उत्कृष्ट समालोचक एवं सांस्कृतिक विचारधारा के प्रमुख उपन्यासकार आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के कुछ उद्धरण स्मरण किये थे। द्विवेदी जी का कहना था "हम ऊपर से कितने ही खंड रूप और ससीम क्यों न हों, भीतर से निखिल जगत के साथ 'एक' हैं। साहित्य हमें प्राणीमात्र के साथ एक प्रकार की आत्मीयता का अनुभव कराता है। वस्तुतः हम अपनी उसी 'एकता' का अनुभव करते हैं।" 
गुरुदेव इस एकता में द्वैत के दर्शन भी कराते हैं, वे कहते हैं  "लोभ के इस संकीर्ण ऐक्य के साथ सृष्टि के ऐक्य का, रस-साहित्य, और ललित कला के ऐक्य का संपूर्ण प्रभेद है। निखिल को छिन्न करने से लोभ होता है और निखिल को एक करने से रस होता है। लखपति महाजन रुपए की थैली ले कर 'भेद' की घोषणा करता है, गुलाब 'निखिल' का दूत है, वह 'एक' की वार्ता को ले कर फूटता है। जो 'एक' असीम है, वही गुलाब के नन्हे हृदय को परिपूर्ण कर के विराजता है।"
म इस द्वैत का अनुभव हमारे जीवन में पग-पग पर करते हैं। हम पहले मनुष्य को ही खाँचों में बाँट देते हैं। वह अमरीकी है, यह जर्मन है, कोई अंग्रेज तो कोई जापानी, वह पाकिस्तानी है तो मैं भारतीय हूँ। हम भारतीय तक भी आ कर नहीं रुकते। मैं हिन्दू हूँ तो वह मुसलमान है और वह ईसाई। हिन्दुओं में भी सिक्ख अलग हैं और जैन अलग। हमारे इस पावन भारतवर्ष में पवित्रता और अपवित्रता का खास ध्यान भी रखा जाता है, वह अवर्ण है, क्यों कि वह अपवित्र काम करता है। मैं सवर्ण हूँ, क्यों कि मैं पवित्र काम करता हूँ। फिर सवर्णों में भी ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य हैं। महानगरों में यह पहचान धूमिल हुई है तो वहाँ धनसंग्रह ने वह काम कर दिखाया है। जिन लोगों के पास अकूत धनराशि है तो उन्हों ने अधिकांश साधनों पर अधिकार कर लिया है और वे अब काम नहीं करते सिर्फ कराते हैं। काम करने वाले और काम कराने वाले का प्रभेद दिखने लगा है। जो श्रम कर रहा है वह निम्न कोटि का है और जो श्रम खरीद रहा है वह श्रेष्ठ है। जिधर भी हम देखते हैं उधर द्वैत है। कहीं तो एक्य नहीं है। 
विज्ञान भी ऐसा ही कुछ दिखा रहा है। पहले सोचते थे अणु ही सब से छोटा कण है, फिर हमें परमाणु का पता लगा। फिर परमाणु में हमें इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन और न्यूट्रोन दिखाई देने लगे। एक को खोदा तो तीन निकल आए। फिर पता लगा कि प्रोटोन और न्यूट्रोन भी ऋणात्मक और धनात्मक प्रकार के समान संहति वाले कणों से बने हैं जिन्हें क्वार्क के नाम से जाना गया। वहाँ अभी आगे खोज जारी है। लेकिन यह खोज उस तरफ बढ़ रही है जिस के संकेत कहते हैं कि ऊर्जा और पदार्थ दोनों एक ही प्रकार के कणों या तरंगों से बने हैं। इस तरह विज्ञान संकेत दे रहा है कि आखिर एक ही वस्तु है जिस से निखिल विश्व निर्मित है। वह भी हमें इस असीम एक की और ले जा रहा है। 
मैं निखिल विश्व की उस असीम एकता का अनुभव कर के, आनंद से अभिभूत हो उठता हूँ। खो जाता हूँ, अपने आप में। मेरा अपना आप इतना विस्तार पा गया है कि मैं ब्रह्म हो उठा हूँ। मैं असीम हो चला हूँ। जो कुछ है सब मुझ में ही समाहित है। सभी कुछ मैं ही हूँ, सब मेरे ही अंग हैं। मुझ से परे कोई नहीं। काशी के घाट पर गंगास्नान करता हूँ और गीले वस्त्रों से ही चल पड़ता हूँ, विश्वनाथ के दर्शनों के लिए। राह में कोई छू देता है। देखता हूँ वह मेहतर है, सफाई करने का झाड़ू उठाए हुए। मेरा स्वप्न टूट जाता है। विश्व के प्रभेद सामने आ खड़े होते हैं। मुझे छू देने की हरकत के लिए मैं उसे डाँटता हूँ, उस ने कोई अपराध कर दिया  है, वह अपराधी है, मुझे अवसर मिले तो मैं उसे निश्चित ही कठोर दंड दूँ।
साहित्य  हमें इस एक्य की और ले जाता है, लेकिन बहुत सी चीजें हैं जो हमें पकड़ कर वापस द्वैत में ले आती हैं जैसे मेरे मन में पैठा हुआ छूत-अछूत का विचार। क्यों नहीं मैं उस विचार को अपने भीतर से निकाल फैंकता। पर भीतर से निकाल कर फैंकने से क्या होगा? समाज में तो ये प्रभेद भरे पड़े हैं, वह गुलाब नहीं है, वह कोई बदबूदार चीज बन गई है। मैं उसी का एक अंग बना हुआ हूँ। जैसी बदबू मैं महसूस कर रहा हूँ, वैसी ही बदबू मुझे मेरे अंदर से आने लगती है। मैं अपनी ही नाक बंद कर लेता हूँ। लेकिन कब तक नाक को बंद रख सकता हूँ। ऐसे तो श्वास ही बंद हो लेगी। फिर प्राणवायु कहाँ से मिलेगी? मैं जीवित कैसे रह पाउंगा? मैं नाक को खोल देता हूँ। बदबू का एक असहनीय भभका नाक के अंदर घुस पड़ता है। यह कैसी अवस्था है? एक ओर खाई तो दूसरी ओर कुआँ है। जीना दूभर है, कभी भी प्राण जा सकते हैं। अब तो कुछ करना ही होगा। 
मैं उन प्रभेदों को नष्ट करने का मार्ग तलाशने लगता हूँ। जात-पाँत तोड़ डालना चाहता हूँ, धर्मों की दीवारें समाप्त कर देना चाहता हूँ, मैं मालिक मजदूर का भेद समाप्त कर देना चाहता हूँ। क्यों रहें ये वर्ग? क्यों नहीं हो सकता मनुष्य एक? हो सकता है, अवश्य हो सकता है। सभी प्रकृति हैं, उसी से बने हैं, उन्हें तो एक होना ही है। हम बाधा बनेंगे तो देरी से होगा।  हम बाधाओं को हटाएंगे तो शीघ्रता से। मैं निकल पड़ता हूँ, उन बाधाओं को हटाने के लिए। बहुत से साथी मिलते हैं जो पहले से इन बाधाओं को हटाने में लगे हैं। कुछ इन बाधाओं को हटाते हटाते सदैव के लिए छोड़ चले जाते हैं। उन से कुछ अधिक नए साथ हो लेते हैं। पहले काफिला बना था। अब तो अनेक काफिले दिखाई देते हैं। हमें विश्वास है, एक दिन हम इन सारी बाधाओं को हटा डालेंगे। एक्य को प्राप्त कर लेंगे। 
आप क्या करना चाहते हैं? आ रहे हैं हमारे साथ एक्य के मार्ग की बाधाएँ हटाने, या बने रहना चाहते हैं, बाधा ही?

सोमवार, 15 नवंबर 2010

जोधपुर में लाल सैलाब

भारत की समृद्धि लगातार बढ़ रही है, हमारे पूंजीपति दुनिया भर के पूंजीपतियों से प्रतिस्पर्धा में टक्कर ले रहे हैं। हो सकता है कुछ बरस बाद सुनने को मिले कि दुनिया के सब से अमीर सौ व्यक्तियों में चौथाई भारतीय हैं। हम यह सोच कर प्रसन्न हो सकते हैं। लेकिन दूसरी ओर हमारे गरीब भी दुनिया भर के गरीबों से प्रतिस्पर्धा में टक्कर ले रहे हैं। अमीरी और गरीबी की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है। यही भारतीय व्यवस्था का सब से बड़ा अंतर्विरोध है। भारत की मुख्य धारा की राजनीति इस अंतर्विरोध की उपेक्षा करती रही है और लगातार कर रही है। यह अंतर्विरोध लगातार कम होने के स्थान पर बढ़ता जा रहा है। इस अंतर्विरोध को हल करने वाली राजनीति की आवश्यकता लगातार बढ़ती जा रही है।  आम जनता जानती है कि देश में जितना भ्रष्टाचार है वह पूंजीपतियों का फैलाया हुआ है, उस के बिना पूंजीवाद एक कदम आगे नहीं चल सकता, उस के बिना लूट को जारी रख सकना कठिन है, लेकिन उस का इलाज भी किसी के पास नहीं है। आम लोग जानते हैं कि जिस रोग ने देश को ग्रस्त किया हुआ है वह व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के बिना संभव नहीं है। पूंजीवादी राजनैतिक दलों का देश की परिस्थितियों के बारे में मूल्यांकन सतही है, और वह फटे टाट को पैबंद लगा कर चलाते रहने की चिकित्सा ही प्रस्तुत करते हैं। 
दूसरी और वाम और साम्यवादी दल हैं जिन में देश की परिस्थितियों, राजनैतिक शक्तियों के मूल्यांकन पर राय में विभिन्नता है और उसी के अनुरूप उन के राजनैतिक कार्यक्रम भिन्न हैं। लेकिन उन में एक समानता है कि वे देश के इस अंतर्विरोध को आमूल-चूल परिवर्तन के माध्यम से हल करना चाहते हैं। इस के लिए लगातार विचार-विमर्श करते हैं। हम जानते हैं कि किसी भी देश की व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अर्थात क्रांति का जनता करती है, कोई राजनैतिक दल नहीं। लेकिन राजनैतिक दलों का काम जनता को संगठित करने और उसे शिक्षित करने का अवश्य है। जब क्रांति नजदीक नहीं होती और उस के लिए किए जा रहे प्रयास परवान चढ़ते नजर नहीं आते तो क्रांतिकारी राजनैतिक शक्तियों में मतभेद होते हैं और अनेक समूह बनते दिखाई देते हैं। इस से ऐसा लगने लगता है कि जब क्रांतिकारी शक्तियाँ ही विभाजित हैं तो क्रांति की बात करना बेमानी है, शायद जनता बेड़ियों में जकड़े रहने को अभिशप्त है। लेकिन ऐसा नहीं है। 
जैसे जैसे मूल अंतर्विरोध तीव्र होता जाता है और क्रांति के लिए परिस्थितियाँ पकने लगती हैं, वैसे ही इन क्रांतिकामी शक्तियाँ एक होने लगती हैं, उन की शक्ति बढ़ने लगती है। ऐसा ही एक अवसर इन दिनों भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत) एमसीपीआई (यू) की दूसरी काँग्रेस में पिछले चार दिनों में देखने को मिला। सीपीआईएम नेतृत्व के गैर जनवादी रैवेये के कारण उस से अलग हुए अथवा अंदरूनी संघर्ष के कारण वहाँ से निकाले गए जुझारू लोगों ने एमसीपीआई का गठन किया था। अपने गठन के साथ ही यह पार्टी एक ऐसी शक्ति बन गई थी जो लगातार जनता के बीच काम करते हुए समान विचारधारा वाले गुटों और पार्टियों के साथ विमर्श करती है और क्रांतिकामी शक्तियों के एकीकरण के काम में जुटी है। शिवराम इसी दल के पॉलिट ब्यूरो सदस्य थे। मुझे भी पार्टी काँग्रेस में सम्मिलित होना था। लेकिन व्यक्तिगत व्यस्तताओं के कारण में इस में शिरकत नहीं कर सका। लेकिन मुझे भी कुछ घंटों के लिए पार्टी काँग्रेस के निकट रहने का सौभाग्य मिल ही गया।
निवार को काँग्रेस का प्रातः कालीन सत्र समाप्त होने के उपरांत रैली और सभा का आयोजन था। मैं ने इस रैली में शिरकत की। जैसे ही रैली स्थल पर पहुँचा देखा कि लाल रंग का सैलाब आया हुआ है। जिधर देखता था उधर लाल कैप पहने लाल झंडे हाथों में थामे पार्टी सदस्य  दिखाई देते थे। रैली आरंभ हुई रैली में विभिन्न प्रांतों से आए कार्यकर्ता सम्मिलित थे और ढोल बजाते, नृत्य करते, नारों से जोधपुर नगर को गुंजाते चल रहे थे। सब से आगे एक झाँकी थी जिस में एक व्यक्ति साम्राज्यवाद का प्रतीक था जो रस्सियों से जकड़ा हुआ था जिन के दूसरे सिरे कुछ लोगों के हाथों में थे जो कि स्वयं मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों के प्रतीक थे। साम्राज्यवाद हर किसी को खाना चाहता था, लेकिन ये श्रमजीवी शक्तियाँ उसे ऐसा करने से रोक रही थीं। इस झाँकी को सभी ने बहुत सराहा। यहाँ तक कि रैली के साथ और पूरे शहर में तैनात पुलिस कर्मी उस झाँकी और कार्यकर्ताओं के उल्लास भरे नृत्य को देख कर आनंदित थे। वे जानते थे कि इस अनुशासित कार्यकर्ता समूह की रैली की व्यवस्था के लिए उन्हें किसी तरह के श्रम और तनाव की आवश्यकता नहीं है। रैली का जोधपुर नगर के लोगों ने स्थान-स्थान पर स्वागत किया, नेताओं को जोधपुरी साफे और पुष्प मालाएँ पहना कर उन का सम्मान किया। जोधपुर की श्रमजीवी जनता की कामना थी कि यह ताकत यूँ ही तेजी से बढ़ती रहे और अपना लक्ष्य प्राप्त करे। 
समाचार पत्रों में इस रैली के समाचार इस तरह थे....