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रविवार, 6 अक्टूबर 2013

आतंक पैदा करने वाली व्यवस्था . . .

प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, यहां तक कि सोशल मीडिया को भी सनसनी चाहिए। उस के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। कोई भी चटपटी बात हुई या किसी की टोपी उछालने का अवसर हो तो उस से लोग चूकते नहीं। जिस की टोपी उछल गई वह अपनी शिकायत ले कर सारे जग घूम आए, तो भी उसे राहत देने वाला कोई नहीं। आखिर ये हालत क्यों है? 
गांधी जयन्ती के दिन मुझे राजस्थान के एक नगर से आए मेल में यह एक सज्जन ने लिखा है- 
“मैं डॉक्टर हूं, मेरी धर्म पत्नी अपने मां बाप की इकलौती संतान है। शादी के बाद मेरे सास ससुर मेरे साथ ही रहते हैं। ससुर जी की चार भाइयों की शामलाती संपत्ति पड़ोस के गांव में है, बाकी भाई उनके हिस्से की संपत्ति का बेचान करना चाहते थे, इससे डरकर ससुर जी ने कोर्ट से बेचने पर स्टे लिया। इस स्टे को तुड़वाने और उस संपत्ति को बेचने के लिए उन पर दबाव बने इसके लिए फोन पर गाली गलौच करना रोजमर्रा की बात है। मेरे डर से उनमें से किसी की हिम्मत नहीं पड़ती इसलिए मारपीट करने वो मेरे घर तक नहीं आ सकते। कल उनके छोटे भाई की पत्नी (जिसका कि चरित्र सत्यापन अनेक बार हो चुका है) अपनी गर्भवती बेटी को साथ में लेकर सुबह सात बजे घर पहुंची जिसका सीधा सीधा इंटेन्शन मुझे और मेरे ससुर को दुष्कर्म जैसे केस में फंसाना था। लगातार डेढ घंटे तक वो घर में आकर मुझे मां बहन की गालियां निकालती रही फिर घर पर बाहर वाले चौक में आकर पूरे वॉल्यूम में उसी रफ्तार से गाली गलौच चालू रहा।

मेरी पत्नि ने उसे बाहर जाने को कहा इतने में उसने मेरी पत्नी से हाथापाई चालू कर दी इस पर मुझे उन्हें छुड़ाना पड़ा। इतने में उसने अपनी चूङियां निकालकर फेंक दी और अपने कपड़े फाड़े और मुझ पर चिल्लाने लगी कि तुमने मुझे छेड़ा उसकी लड़की जैसा कि उनकी पहले योजना थी। घर के बाहर सड़क पर आकर जोर-जोर से रो-रोकर चिल्लाने लगी कि देखो मेरी मां के साथ क्या हो रहा है मैं घबरा कर पीछे हट गया और मैंने पुलिस को फोन किया। तब मेरी पत्नी ने उसे बड़ी मुश्किल से धक्के देकर बाहर निकाला तब तक पुलिस भी आ गई। पर तब तक कोई सौ पचास लोग मेरे घर के सामने इकट्ठा हो गए थे और पुलिस हाथ पांव जोड़कर उसे वहां से लेकर गई। इस हिदायत के साथ कि डॉक्टर साहब इससे समझौता कर लो नहीं तो ये आपको फंसा देगी।

अंत में अपने वकील से बात की। एफआईआर लिखाने की बात की तो उसने कहा कि वो भी क्रॉस केस करेंगे और उसमें आपके खिलाफ बलात्कार के प्रयास तक की कोई भी झूठी रिपोर्ट लिखा दी जाएगी तो आपको बचाने वाला कोई नहीं है। आपकी इज्जत खराब होना तय है। दस-पांच दिन जेल की हवा खाना तो मामूली बात है। कल को अखबार में आएगी अब हालत ये है कि वो लोग मुझे लगातार धमकियां दे रहे हैं, वो अपनी बेटी का गर्भपात करवा कर रिपोर्ट करवाने पर आमादा हैं तो मेरा फंसना तो तय है। आज तो चलो मैं बच गया पर यदि फिर से मेरे सास ससुर को परेशान करेंगे और फिर यही सीन रिपीट होगा तब क्या होगा? क्योंकि मैं अपने साथ रहने वाले किसी भी व्यक्ति की रक्षा तो फिर भी करूंगा।

ही पूछो तो मैं फ्रस्टेट हो रहा हूं। घबरा रहा हूं डरा हुआ हूं। क्योंकि आज के माहौल में यदि मेरे ऊपर कोई झूठा इल्जाम भी लगा दिया गया तो मुझे जेल तो जरूर जाना पड़ जाएगा। मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी। ऐसे में मैं क्या करूं मेरे पास पास क्या रास्ता है? क्या भारतीय कानून की नजर में किसी शरीफ इज्जतदार व्यक्ति के सम्मान की कोई कीमत नहीं? क्या मेरे मानवाधिकार षड़यंत्रकारियों के अधिकारों के सामने कुछ भी नहीं?”

कानून का बेजा इस्तेमाल लंबे समय से होता आया है लेकिन अब सनसनी की चाहत से यह आम हो रहा है। पुलिस के पास शिकायत दर्ज हो और पुलिस उस पर कार्रवाई न करे और मामला प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास पहुंच जाए तो बवाल खड़ा हो जाता है। बहुत से राजनीतिक लोग सामने आ जाते हैं। इस माहौल का असर ये है कि पुलिस बजाय इसके कि वह सचाई का पता लगाए और कार्रवाई करे, चुपचाप मामला दर्ज करती है, शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत झूठे-सच्चे गवाहों का बयान लेती है, मामला बनाकर आरोपी को गिरफ्तार करती है और अदालत में आरोप पत्र प्रस्तुत कर देती है। बाद में अदालत जाने और अदालत का काम जाने। वह यह जानने की कोशिश ही नहीं करती कि शिकायत सही है या मिथ्या। अदालतों के पास काम भी क्षमता से कई गुना है, वे भी अपना काम यांत्रिक तरीके से करती हैं। जब तक अदालत का निर्णय आता है एक पीड़ित व्यक्ति के सम्मान, आर्थिक स्थिति का जनाजा निकल चुका होता है।

स हालत ने जो समाज में व्यवस्था ने जो आतंकी माहौल उत्पन्न किया है उससे कानून से डरने वाले आम नागरिक जिस भय के माहौल में जी रहे हैं। उस से निकलने पर समाज के राजनैतिक, सामजिक और बौद्धिक क्षेत्रों में कोई चर्चा नहीं है और न समाज को इस आतंक से निकालने के लिए कोई काम हो रहा है।

शनिवार, 24 अगस्त 2013

सभी तरह के मीडिया के कर्मचारियों को वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट से कवर करने की लड़ाई लड़ी जानी चाहिए

मीडियाकर्मियों को जिस तरह 300 और 60 की बड़ी संख्या में नौकरी से निकाला गया है उस से यह बात स्पष्ट होती है कि पूंजीवादी आर्थिक ढाँचे में कर्मचारियों और मजदूरों को कानूनी संरक्षण की आवश्यकता रहती है। इस आर्थिक ढाँचे में कभी भी कर्मचारी-मजदूर किसी संविदा के मामले में पूंजीपति के बराबर नहीं रखे जा सकते। अखबारों में काम करने वाले कर्मचारियों की सेवा शर्तों, कार्यस्थल की सुविधाओं, वेतनमान तय करने, वेतन और ग्रेच्यूटी भुगतान, तथा नौकरी से निकाले जाने के मामलों के नियंत्रण के लिए वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट बना हुआ है। लेकिन यह कानून सिर्फ न्यूजपेपर्स और न्यूजपेपर संस्थानों पर ही प्रभावी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम कर रहे कर्मचारियों को किसी तरह का कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है। इस कारण इस क्षेत्र के नियोजकों द्वारा मनमाने तरीके से नौकरी के वक्त की गई संविदा की मनमानी शर्तों के अन्तर्गत उन्हें संस्थान के बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। इस कारण यह जरूरी है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सहित संपूर्ण मीडिया संस्थानों को इस कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए।

ज के जमाने में कर्मचारियों और श्रमिकों का संघर्ष केवल अपने मालिकों से नहीं रह गया है। कहीं मजदूर अपनी सेवा शर्तों की बेहतरी के लिए सामुहिक सौदेबाजी के तरीके अपनाते हैं तो सरकारी मशीनरी पूरी तरह मालिकों के पक्ष में जा खड़ी होती है। इस तरह यह लड़ाई किसी एक मीडिया ग्रुप को चलाने वाले पूंजीपति के विरुद्ध न हो कर संपूर्ण पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध हो जाती है जिस का प्रतिनिधिनित्व सरकारें अपने सारे वस्त्र त्याग कर करती हैं।

स कारण यह एक संस्थान के मीडिया कर्मियों का संघर्ष सम्पूर्ण मीडिया कर्मियों का और संपूर्ण मजदूर वर्ग का हो जाता है। इस संघर्ष में मजदूर वर्ग का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व करने वाली सभी ट्रेड युनियनों और राजनैतिक दलों व समूहों को सहयोग करना चाहिए। यह सही है कि इस बार बहुत से सफेद कालर इस दमन का शिकार हुए हैं। उन के ढुलमुल वर्गीय चरित्र पर उंगलियाँ उठाई जा सकती हैं। लेकिन वह कर्मचारी वर्ग के आपसी संघर्ष का भाग होगा। इस लड़ाई में उन मुद्दों को हवा देना एक तरह से मालिकों की तरफदारी करना है।
अब लड़ाई छँटनी करने वाले मीडिया संस्थान के विरुद्ध तो है ही साथ के साथ सरकार के विरुद्ध भी होनी चाहिए। साथ के साथ संपूर्ण मीडियाकर्मियों को वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट से कवर करने की और विवादों के हल के लिए तेजगति से काम करने वाली मशीनरी की व्यवस्था करने की लड़ाई सीधे सरकार के विरुद्ध चलाई जानी चाहिए। मीडिया कर्मियों को इस लड़ाई में संपूर्ण श्रमिक कर्मचारी जगत को  अपने साथ लाने का प्रयास करना चाहिए।

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

सारा मीडिया अपराधी और दोषी है

ज से श्राद्धपक्ष आरंभ हो गया है। उस के साथ ही तमाम मीडिया चाहे वे अखबार हों या टीवी चैनल श्राद्ध को महिमामंडित करने में जुट गया है। इस काम को करते हुए हिन्दी मीडिया की भूमिका किस तरह की है? हमें उस की जाँच करनी चाहिए कि वह जनपक्षीय है या जनविरोधी? वह किस तरह के विचारों को जनता के बीच प्रचारित कर रही है? रविवार को दैनिक भास्कर के सभी संस्करणों ने श्रीयुत राजेश साहनी ज्योतिषविद् एवं ज्योतिष सलाहकार का आलेख 'बुजुर्गो के प्रति श्रद्धा पितृ-दोष से मुक्ति' प्रकाशित किया है।  

श्रीयुत साहनी अपने आलेख के प्रारंभ में रामायण, पुराणों और गीता का उल्लेख करते हुए यह स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं कि  पूर्वजों द्वारा किए गए कर्मों का नतीजा उन के वंशजों को भुगतना पड़ता है, यही पितृदोष है। वे समाधान बताते हैं कि कर्मकांड पूर्वक श्राद्ध करने से पितर प्रसन्न हो जाते हैं। पितरों के प्रसन्न होने से जीवन की समस्याओं का समाधान हो जाता है और पितृदोष से मुक्ति मिलती है।  श्रीयुत राजेश का सारा ध्यान यह समझाने पर है कि आज व्यवस्था के दोषों के कारण जनता जिस तरह का कष्टमय जीवन जी रही है उस का मूल कारण यह व्यवस्था नहीं, अपितु तुम्हारे पितरों द्वारा किए गए दुष्कर्म हैं। इसलिए तुम्हें व्यवस्था को दोष देने के स्थान पर श्राद्ध करने चाहिए।  श्रीयुत राजेश का यह कुतर्क कि पितरों को प्रसन्न करने से ग्रहों और देवताओं की कृपा होती है मेरे गले नहीं उतरा, शायद आप के गले उतर जाए। जो पितर स्वयं दुष्कर्म के दोषी थे उन के प्रसन्न हो जाने से ग्रहों और देवताओं को प्रसन्न करने की श्रीयुत राजेश की जुगत वैसी ही है जैसे किसी का पिता किसी अपराध के लिए जेल में बंद हो, तो जेल अधिकारियों को कुछ खिला-पिला कर पिता को सुविधाएँ पहुँचा कर प्रसन्न कर दिया जाए तो संतान उस अपराध के लांछन से मुक्त हो जाएगी?

श्रीयुत राजेश जी केवल शास्त्रों में ही दखल नहीं रखते, वे विज्ञान और खास तौर पर खगोल विज्ञान में भी महारत रखते हैं। उन्हें पितरलोक का पता भी मालूम है। वे कहते हैं  ...  चंद्रमा द्वारा पृथ्वी की एक परिक्रमा लगभग 27 दिन 7 घंटे 45 मिनट में पूर्ण होती है। उल्लेखनीय है कि चंद्रमा का एक भाग ही पृथ्वी की ओर रहता है, दूसरा भाग पृथ्वी की ओर कभी नहीं आता। चंद्रमा जितनी कालावधि में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूर्ण करता है, उतने ही कालखंड में वह अपने अक्ष पर एक बार घूम जाता है, इस कारण चंद्रमा का एक भाग सदैव पृथ्वी की ओर होता है, तो दूसरा भाग अदृश्य। चंद्रमा का अदृश्य अंधकारमय भाग, जो पृथ्वी की ओर नहीं आता, उसे पितृलोक माना जाता है। 

मैं ने कुछ देर के लिए श्रीयुत राजेश की इस बात को मान लिया कि चंद्रमा का वह भाग जो कभी पृथ्वी की ओर नहीं आता वह पितरलोक है। पर उन की इस प्रस्थापना ने कि वह भाग अदृश्य है और अंधकारमय भी अपने भेजे में घुसने से मना कर दिया। एक तो अमावस के दिन वह भाग पूरी तरह प्रकाशित रहता है, इस तरह उसे अंधकारमय कहना गलत है। फिर वह अदृश्य भी नहीं है, अमावस के रोज उस पूरे भाग को चंद्रमा के पिछली ओर जा कर देखा जा सकता है।  अचानक श्रीयुत राजेश का मस्तिष्क तुरंत रोशन हो उठता है, और चंद्रमा के पृष्ठ भाग जिसे वे पितर लोक बता रहे हैं के लिए कहते हैं कि जब हमारे यहाँ (पृथ्वी पर) अमावस्या होती है तो पितरलोक में मध्यान्ह होता है और यह पितरों के भोजन का समय होता है। इसी कारण अमावस्या के दिन हम श्राद्धकर्म करते हैं। लेकिन श्रीयुत राजेश जी का मस्तिष्क जिस बत्ती के जलने से रोशन हो उठा था वह तुरंत ही बुझ जाती है, (वे चाहें तो इस के लिए बिजली सप्लाई कंपनी को दोष दे सकते हैं) वे तुरंत चंद्रमा के पृष्ठ भाग पर सदैव के लिेए अंधकार कर देते हैं। वे कहते हैं  ...   वैज्ञानिक मतानुसार भी चंद्रमा की नमीयुक्त सतह पर दिशा सूचक यंत्र कार्य नहीं करते तथा एक भाग सदैव अंधकार से आच्छादित रहता है, जो चंद्रमा पर पितृ-लोक संबंधी अवधारणाओं की पुष्टि करता है।

बेचारे वैज्ञानिक बरसों से चंद्रमा पर नमी तलाश रहे हैं, फोटू खींच-खींच कर परेशान हैं कि किसी तरह बूंद भर पानी का पता लग जाए। वे पता नहीं लगा पाए। उन्हें तुरंत श्रीयुत राजेश जी से संपर्क कर के उन वैज्ञानिकों का पता प्राप्त कर लेना चाहिेए जिन्हें चंद्रमा के नमीयुक्त भाग का पता मालूम है और जहाँ जा कर उन के दिशासूचक यंत्र फेल हो गए थे।  श्रीयुत राजेश जी विश्वास जल्दी ही डिग जाता है कि पाठक राजा दशरथ की कहानी पर विश्वास कर लेंगे।  पाठकों का विश्वास कायम रखने के लिए वे तुरंत अपनी फलित ज्योतिष को सामने ला खड़ा करते हैं। वे सूर्य, शनि, राहु, के साथ-साथ शुक्र और बृहस्पति को दोष देने लगते हैं कि वे किसी के जन्म के समय किसी खास स्थान पर क्यों थे? जल्दी ही अपने धंधे पर आ कर राशियाँ और पितृदोष से मुक्ति के शुद्ध भौतिक उपाय बताने लगते हैं। 

गभग सभी अखबार इस तरह के आलेख प्रकाशित कर रहे हैं, टीवी  चैनल्स पर तो यह काम चीख-चीख कर होता है। खास मेक-अप में खास लोग आ कर अदालत के हरकारे की तरह आवाज लगाते हैं ... मेष राशि वालों .............. ओं !!!!!!!!! मुझे हंसी चलती है, लेकिन पीड़ित लोग उसे ध्यान से सुनते हैं और उलझ जाते हैं। मुझे तुंरत यू. आर. अनंतमूर्ति की कृति और उस पर आधारित गिरीश कासरवल्ली की पहली फिल्म "घटश्राद्ध" स्मरण होने लगती है जो श्राद्ध के कर्मकांड के पाखंड और उस में फँस कर बिन जल मीन की तरह छटपटाते जन की कहानी उजागर करती है। इस तरह के आलेख जनता को उसी जाल में फँसाए रखना चाहते हैं जिस जाल में फँसे रहने के कारण इस देश की जनता को देशी-विदेशी सामंत और आक्रान्ता लूटते रहे। इस तरह वे आज के शोषक पूंजीवादी निजाम की रक्षा करते हैं।

नुष्य के जन्म से ले कर आज तक मानव जाति की जितनी पीढ़ियाँ गुजरी हैं, सभी पीढ़ियों के मनुष्य ने जीवन जीते हुए अनुभव अर्जित किए, संपत्ति अर्जित की जिसे वे आने वाली पीढ़ियों के लिेए छो़ड़ गए हैं। हमें उन के अनुभव शिक्षा के रूप में प्राप्त होते हैं। जिन के आधार पर हम पूर्वजों के आगे का विकसित जीवन जीते हैं। हम पर हमारे पूर्वजों का कर्ज है। लेकिन यह कर्ज ब्राह्मणों को भोजन करवा कर नहीं उतारा जा सकता। उसका तो सब से सही तरीका यही है कि हम अपना जीवन जीते हुए नए अनुभव अर्जित करें और पूर्वजों से प्राप्त शिक्षा में उनका योग करते हुए आगे आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा रुप में छोड़ जाएँ। श्राद्ध-पक्ष में हम परिवार और मित्रों सहित एकत्र हो कर अपने पूर्वजों का स्मरण करें, उस में कोई बुराई नहीं। लेकिन इस स्मरण को कर्मकांड, पितृदोष आदि से जोड़ कर देखना गलत है और दिखाना मनुष्यता के प्रति अपराध। हमारा सारा मीडिया इस अपराध का दोषी है।

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

मीडिया ने हमारी तर्क क्षमता को भौंथरा कर दिया है

रसों दोपहर महेन्द्र 'नेह' का फोन मिला, शाम साढ़े छह बजे प्रेस क्लब में विकल्प जन सांस्कृतिक मंच की मीडिया पर एक सेमीनार है, वहाँ पहुँचना है। मैं ने तुरंत हाँ कर दी। शाम को कुछ काम निकल आए और मैं कुछ देरी से सेमीनार में पहुँचा। लेखक, कवि, पत्रकार और कुछ अन्य सजग नागरिक, कुल पैंतीस -चालीस लोग वहाँ मौजूद थे। सेमीनार में कोटा के बाहर से राज्य-सभा की मीडिया सलाहकार समिति के सदस्य पत्रकार अनिल चमड़िया, अरूण कुमार उराँव, विजय प्रताप व वरूण शैलश आए हुए थे। सेमीनार का विषय "समय की सचाइयाँ और मीडिया" था। 
निल चमड़िया का कथन था कि हम सचाई कि उसी हिस्से को देख पाते हैं, जिसे मीडिया हमें दिखाना चाहता है। लगातार एक पक्षीय सूचना की बरसात कर के मीडिया ने हमारे सोचने-समझने और तर्क करने की क्षमता को भौंथरा कर दिया है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि अमरीका ने ईराक व अफगानिस्तान के विरूद्ध हमलों से पूर्व मीडिया के जरिये प्रचार युद्ध चलाया और अंतत: आसानी से जंग जीत ली। भारत के आदिवासी क्षेत्रों से देशी-विदेशी कंपनियों ने कोलम्बस के बाद जमीन और खनिजों की सबसे बड़ी लूट की है और लाखों आदिवासियों को विस्थापित कर दिया है। लेकिन मीडिया ने इस बात को कोई महत्व नहीं दे कर नक्सली और माओवादी गतिविधियों के बारे में अतिरंजित खबरों को अत्यधिक तरजीह दे कर इस बड़ी हकीकत को छुपा दिया।
लेक्ट्रोनिक मीडिया पत्रकार अरूण कुमार उरॉव का कहना था कि सूचना मंत्री अम्बिका सोनी  का यह कहना सही नहीं है कि मीडिया स्वयं ही अपने को नियंत्रित करता है। उस की वित्तपोषक ताकतें उसे नियंत्रित करती हैं। मनोरंजन के नाम पर "राखी का इंसाफ" "बिग-बॉस" जैसे सीरियल समाज में विकृति फैला रहे हैं। उन्होंने प्रन किया कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ग्रामीणों, आदिवासियों व दलितों पर सीरियल क्यों नहीं बनते। दिल्ली से आये पत्रकार विजय प्रताप ने कहा कि मीडिया में एक ओर सत्ता संचालित सोच की धारा है, जिसे मुख्य-धारा कहा जाता है। पत्रकारिता की दूसरी धारा प्रतिरोध की धारा भी है, जिन्हें सचाई सामने लाने पर प्रताड़ित किया जाता है। इस संदर्भ में उन्होंने सीमा आजाद, हेमचंद्र पाण्डे, प्रशांत राही आदि पत्रकारों का उल्लेख किया। इन्डो एसियन न्यूज सर्विस (आईएनएस) से जुड़े पत्रकार वरूण शैलेश ने कहा कि राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान दिल्ली के भिखारियों व फुटपाथ के दूकानदारों को भारत की गरीबी को छुपाने के लिए निर्दयतापूर्वक खदेड़ दिया गया, लेकिन मीडिया ने इसे तरजीह नहीं दी। भ्रष्टाचार की जो खबरें इन दिनों प्रमुखता से छाई हुई हैं उस का कारण सत्ता और व्यापारिक घरानों की आपसी प्रतिस्पर्धा है। 
कोटा के पत्रकार दुर्गाशंकर गहलोत ने कहा कि हमें समाचार कम सूचनाऐं अधिक मिलती हैं। भारत जैसी सबसे पवित्र भूमि आज सबसे भ्रष्ट दिखाई जा रही है। पत्रकार हलीम रेहान ने कहा कि मीडिया की भूमिका के लिए पत्रकारों को दोषी नही ठहराया जा सकता। हितेश व्यास ने कहा कि इस तरह के नकारात्मक मीडिया के साथ सकारात्मक मीडिया पर भी बात होनी चाहिए? आर.पी. तिवारी का कहना था कि मीडिया ने आज सच्चाई को घूमिल कर दिया है। शायर शकूर अनवर ने का कहना था कि मीडिया द्वारा ने जनता को असत्य और फूहड़ता देखने के लिए मजबूर कर दिया है। साहित्यकार अरूण सैदवाल ने मीडिया को "अपनी ढपली-अपना राज" की संज्ञा देते हुए कहा कि मिशनरी और प्रतिबद्ध पत्रकारिता ही इस माहौल को बदल सकती है। सेमीनार का संचालन कर रहे महेन्द्र 'नेह' ने मीडिया की स्थिति पर मौजूँ शैर पढ़ा " आसान नहीं है सुलझाना इस गुत्थी का@ अहले दानिश ने बहुत सोच के उलझाया है"। उन का कहना था कि मीडिया-कर्मी जमीनी वास्तविकताओं को समझें तो मीडिया के प्रतिरोधी और सकारात्मक हिस्से को ताकतवर बनाया जा सकता है।
सेमीनार में मेरी तरह विशुद्ध श्रोता के रूप में शिरकत करने वालों में कवि-व्यंग्यकार ब्लागर अतुल चतुर्वेदी, अंजुम शैफी, ओम नागर संजय चावला, शायर चांद शेरी, अखिलेशा अंजुम, पुरूषोत्तम 'यक़ीन' कवि राम नारायण हलधर, गोपी लाल मेहरा, महेन्द्र पाण्डेय, परमानन्द कौशिक, विजय जोशी, अब्दुल गफूर, तारकेवर तिवारी, त्रिलोक सिंह मेरी पहचान के थे, शेष लोगों को मैंने पहली बार देखा था, उन से पहचान बढ़ाने का भी कोई अवसर मुझे नहीं मिला। इस सेमीनार से मुझे बहुत कुछ जानने को मिला और कुछ नए लोगों से पहचान हुई।

सेमीनार के बाद गपशप में रुक गए लोग