@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: आतंक
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रविवार, 6 अक्टूबर 2013

आतंक पैदा करने वाली व्यवस्था . . .

प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, यहां तक कि सोशल मीडिया को भी सनसनी चाहिए। उस के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। कोई भी चटपटी बात हुई या किसी की टोपी उछालने का अवसर हो तो उस से लोग चूकते नहीं। जिस की टोपी उछल गई वह अपनी शिकायत ले कर सारे जग घूम आए, तो भी उसे राहत देने वाला कोई नहीं। आखिर ये हालत क्यों है? 
गांधी जयन्ती के दिन मुझे राजस्थान के एक नगर से आए मेल में यह एक सज्जन ने लिखा है- 
“मैं डॉक्टर हूं, मेरी धर्म पत्नी अपने मां बाप की इकलौती संतान है। शादी के बाद मेरे सास ससुर मेरे साथ ही रहते हैं। ससुर जी की चार भाइयों की शामलाती संपत्ति पड़ोस के गांव में है, बाकी भाई उनके हिस्से की संपत्ति का बेचान करना चाहते थे, इससे डरकर ससुर जी ने कोर्ट से बेचने पर स्टे लिया। इस स्टे को तुड़वाने और उस संपत्ति को बेचने के लिए उन पर दबाव बने इसके लिए फोन पर गाली गलौच करना रोजमर्रा की बात है। मेरे डर से उनमें से किसी की हिम्मत नहीं पड़ती इसलिए मारपीट करने वो मेरे घर तक नहीं आ सकते। कल उनके छोटे भाई की पत्नी (जिसका कि चरित्र सत्यापन अनेक बार हो चुका है) अपनी गर्भवती बेटी को साथ में लेकर सुबह सात बजे घर पहुंची जिसका सीधा सीधा इंटेन्शन मुझे और मेरे ससुर को दुष्कर्म जैसे केस में फंसाना था। लगातार डेढ घंटे तक वो घर में आकर मुझे मां बहन की गालियां निकालती रही फिर घर पर बाहर वाले चौक में आकर पूरे वॉल्यूम में उसी रफ्तार से गाली गलौच चालू रहा।

मेरी पत्नि ने उसे बाहर जाने को कहा इतने में उसने मेरी पत्नी से हाथापाई चालू कर दी इस पर मुझे उन्हें छुड़ाना पड़ा। इतने में उसने अपनी चूङियां निकालकर फेंक दी और अपने कपड़े फाड़े और मुझ पर चिल्लाने लगी कि तुमने मुझे छेड़ा उसकी लड़की जैसा कि उनकी पहले योजना थी। घर के बाहर सड़क पर आकर जोर-जोर से रो-रोकर चिल्लाने लगी कि देखो मेरी मां के साथ क्या हो रहा है मैं घबरा कर पीछे हट गया और मैंने पुलिस को फोन किया। तब मेरी पत्नी ने उसे बड़ी मुश्किल से धक्के देकर बाहर निकाला तब तक पुलिस भी आ गई। पर तब तक कोई सौ पचास लोग मेरे घर के सामने इकट्ठा हो गए थे और पुलिस हाथ पांव जोड़कर उसे वहां से लेकर गई। इस हिदायत के साथ कि डॉक्टर साहब इससे समझौता कर लो नहीं तो ये आपको फंसा देगी।

अंत में अपने वकील से बात की। एफआईआर लिखाने की बात की तो उसने कहा कि वो भी क्रॉस केस करेंगे और उसमें आपके खिलाफ बलात्कार के प्रयास तक की कोई भी झूठी रिपोर्ट लिखा दी जाएगी तो आपको बचाने वाला कोई नहीं है। आपकी इज्जत खराब होना तय है। दस-पांच दिन जेल की हवा खाना तो मामूली बात है। कल को अखबार में आएगी अब हालत ये है कि वो लोग मुझे लगातार धमकियां दे रहे हैं, वो अपनी बेटी का गर्भपात करवा कर रिपोर्ट करवाने पर आमादा हैं तो मेरा फंसना तो तय है। आज तो चलो मैं बच गया पर यदि फिर से मेरे सास ससुर को परेशान करेंगे और फिर यही सीन रिपीट होगा तब क्या होगा? क्योंकि मैं अपने साथ रहने वाले किसी भी व्यक्ति की रक्षा तो फिर भी करूंगा।

ही पूछो तो मैं फ्रस्टेट हो रहा हूं। घबरा रहा हूं डरा हुआ हूं। क्योंकि आज के माहौल में यदि मेरे ऊपर कोई झूठा इल्जाम भी लगा दिया गया तो मुझे जेल तो जरूर जाना पड़ जाएगा। मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी। ऐसे में मैं क्या करूं मेरे पास पास क्या रास्ता है? क्या भारतीय कानून की नजर में किसी शरीफ इज्जतदार व्यक्ति के सम्मान की कोई कीमत नहीं? क्या मेरे मानवाधिकार षड़यंत्रकारियों के अधिकारों के सामने कुछ भी नहीं?”

कानून का बेजा इस्तेमाल लंबे समय से होता आया है लेकिन अब सनसनी की चाहत से यह आम हो रहा है। पुलिस के पास शिकायत दर्ज हो और पुलिस उस पर कार्रवाई न करे और मामला प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास पहुंच जाए तो बवाल खड़ा हो जाता है। बहुत से राजनीतिक लोग सामने आ जाते हैं। इस माहौल का असर ये है कि पुलिस बजाय इसके कि वह सचाई का पता लगाए और कार्रवाई करे, चुपचाप मामला दर्ज करती है, शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत झूठे-सच्चे गवाहों का बयान लेती है, मामला बनाकर आरोपी को गिरफ्तार करती है और अदालत में आरोप पत्र प्रस्तुत कर देती है। बाद में अदालत जाने और अदालत का काम जाने। वह यह जानने की कोशिश ही नहीं करती कि शिकायत सही है या मिथ्या। अदालतों के पास काम भी क्षमता से कई गुना है, वे भी अपना काम यांत्रिक तरीके से करती हैं। जब तक अदालत का निर्णय आता है एक पीड़ित व्यक्ति के सम्मान, आर्थिक स्थिति का जनाजा निकल चुका होता है।

स हालत ने जो समाज में व्यवस्था ने जो आतंकी माहौल उत्पन्न किया है उससे कानून से डरने वाले आम नागरिक जिस भय के माहौल में जी रहे हैं। उस से निकलने पर समाज के राजनैतिक, सामजिक और बौद्धिक क्षेत्रों में कोई चर्चा नहीं है और न समाज को इस आतंक से निकालने के लिए कोई काम हो रहा है।

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

. . . यह भविष्य का युद्ध है।

ये अध्यादेश में अटक कर लटके रह गए। उस ने बिल पास करा लिया। कुछ भी हो, वह कह सकता है – "हम ने कोई कसर ना छोड़ी। बड़ा अच्छा विधेयक है, उस से अच्छा अधिनियम बनेगा। अब हाईकोर्ट चीफ जस्टिस का कोई पंगा नहीं होगा। हम रिटायर्ड या वर्तमान किसी भी हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट जज को लोकायुक्त बना सकेंगे। पांच साल से पुराने मामले की लोकायुक्त जांच नहीं कर सकेगा। अब कोई हम पर उंगली नहीं उठा सकेगा। उठाएगा भी तो कहां उठाएगा? क्या कहा मीडिया में? उस की हम कहां परवाह करते हैं! बहुत सारा मीडिया तो अपने खैरख्वाहों ने खरीद ही लिया है। बाकी का जो है वह प्रीज्यूडिस्ड है, बेईमान है। हमने उस की नाक में नकेल डाल दी है।  लोकायुक्त जांच के दौरान अगर किसी खबरची ने उससे संबंधित खबर छापी या दिखाई तो हम उसे दो साल तक के लिए अन्दर कर सकते हैं। सोशल मीडिया पर तो अपने पैदल मैदान में छाए हैं, वे हर एक उंगली वाले से निपट लेंगे। अब कोई कह के देखे, हमारे यहां लोकायुक्त नहीं है।"

"अब हम होंगे, हमारा स्पीकर होगा, हमारा एक मंत्री होगा, हमारे द्वारा नियुक्त हाईकोर्ट का जज होगा, हमारा अपना सतर्कता आयुक्त होगा। होने को तो विपक्ष का नेता भी होगा। पर वह अकेला क्या कर लेगा? अब कोई नहीं, जो हमे चुनौती दे सके। यही है नया रास्ता, जिस पर हम देश चलाएंगे और उस को चलना होगा।"

ल जाएगा देश . . . ?

“क्यो नहीं चलेगा? हम ने अपने प्रान्त की पार्टी चलाई। क्या छोटा, और क्या बड़ा जो भी हम से टकराया चूर चूर हो गया। अब है कोई इधर हम को कुछ बोलने वाला? फिर हम ने प्रान्त चलाया, जो बोला उस की जुबान बन्द कर दी। बोलने वाले बहुत बोले देश भर में, हाथ पैर पटके, सिर पटके, विदेश में पटके। पर हुआ क्या? इधर अपने प्रान्त में कोई है बोलने वाला? हम काउन्टर को एनकाउंटर करना जानते हैं। कोई नहीं बचा। जो है, उस की हिम्मत नहीं जो जबान को होठों के बाहर निकाले, खाने के लिए चुपचाप इधर-उधर घुमा लेता है वही बहुत है। वह जानता है, जरा भी चूं-चपड़ की कि जुबान से गया। जब इधर हो गया तो पार्टी में डंका बजाने वाले पैदा किए। बहुत उठ उठ कर पड़ रहे थे न वे बुजुर्गवार। क्या हुआ, आ गए न लाइन पर? है अब कोई बोलने वाला उधर पार्टी में? नहीं, न?"

र, सर लोग बात बनाने लगे हैं। सब कुछ खुद ही कर लेंगे, तो बाकी लोग क्या करेंगे?

“हम क्या करेंगे? करेंगे तो वे ही, हम थोड़े ही करेंगे। अब इस पोजीशन पर आ कर हम करते ही थोड़े रहेंगे! पर करेंगे वे ही जो हमारी मर्जी समझेंगे, जो न समझेंगे, वे न रहे हैं, और न अब रहेंगे।  हम सिर्फ कहेंगे, कहेंगे और कहेंगे। जैसे अभी कहते हैं वैसे ही कहेंगे और लोग करेंगे। जैसे अब तक प्रान्त में, पार्टी में करते रहे हैं, वैसे देश में करेंगे। और ना करेंगे, तो तुम्हें पता नहीं? सर हिटलर से मिला हथियार है हमारे पास, वह कभी असफल नहीं होता  ". . . आश्चर्य, आतंक, तोड़फोड़, हत्या से शत्रु की हिम्मत तोड़ कर रख देना, यह भविष्य का युद्ध है।"

बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

न्याय व्यवस्था : पूंजीपति-भूस्वामी वर्गों की अवैध संतान


चारा घोटाला मामले के मुकदमों में से एक का निर्णय आ चुका है। लालू को दोषी ठहराया जा कर उन्हें हिरासत में ले लिया गया। सजा कितनी होगी यह निर्णय कल हो ही आएगा। फिलहाल लालू जी जैल पहुँच कर सजा की अवधि जानने को उत्सुक बैठे हैं। लेकिन इस निर्णय में 17 वर्ष लग गए। अभी कुछ बरस अपीलों आदि में लगेंगे। पक्षकारों में इतनी क्षमता है कि जब तक सर्वोच्च न्यायालय अपना अन्तिम निर्णय इस प्रकरण में नहीं दे देता है तब तक वे लड़ सकते हैं। जमानत मंजूर करवा कर फिर से राजनीति के अखाड़े में अपना खेल दिखा सकते हैं।

लेकिन 17 साल क्यों लगे? यह प्रश्न फिर से उठ रहा है। हर कोई यह नसीहत देता दिखाई देता है कि राजनैतिक मामलों के लिए विशेष अदालतें होनी चाहिए जिस से कोई दोषी दोषी हो कर भी बहुत दिनों तक राजनीति करता नहीं रहे।

हुत लचर तर्क है यह। जब भी किसी तरह के महत्वपूर्ण अपराधिक मामले के निर्णय में देरी होना दिखाई देता है तभी यह मांग उठती है और उस पर चर्चा होती है। कुछ विशेष अदालतों की घोषणा होती है और फिर वह मांग ठंडे बस्ते में चली जाती है। हमारी व्यवस्था यही चाहती है कि जो मामले ऊपर तैरने लगें उन से निपट लिया जाए और जो ढके छुपे रह जाएं उन्हें ढके छुपे ही रहने दिया जाए।

भारतीय समाज के लिए न्याय के बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण मामला है और यह जब तब आकस्मिक रूप से विचारणीय नहीं, अपितु निरंतर गंभीर विचार का विषय होना चाहिए। मेरे 35 वर्षों के वकालत के अभ्यास के जीवन में आज भी कुछ मामले हैं जो मेरी वकालत के आरंभिक वर्ष 1978 में पैदा हुए और आज तक पहले न्यायालय से उन में निर्णय नहीं हो पाए हैं। इसका मुख्य कारण मुकदमों के निपटारे के लिए पर्याप्त अदालतों का न होना, स्थापित अदालतों का जजों के अभाव में खाली पड़े रहना, न्यायालयों में सक्षम जजों का न होना और जजों को उन की योग्यता और क्षमता के अनुरूप न्यायालयों में पदस्थापित न करना और उन की क्षमताओं का सदुपयोग न करना प्रमुख हैं।

क जघन्य बलात्कार, एक आतंकी घटना के अभियुक्त, एक जघन्य हत्यारे और एक भ्रष्टाचारी राजनेता को दंडित करने के लिए न्याय की ट्रेन को त्वरित गति से चला कर गंतव्य तक पहुंचा देना ही पर्याप्त है? लाखों युवा अपने दाम्पत्य विवादों के हल के लिए न्यायालयों का द्वारा खटखटाते हैं। उन में सुलह या तलाक उन के नए जीवन का आरंभ कर सकता है लेकिन धीमी गति वाली यह न्याय व्यवस्था उन्हें युवा से अधेड़ और फिर बूढ़ा कर देती है और उन के जीवन कचहरियों के चक्कर काटते नष्ट हो जाते हैं। लाखों लोग अन्याय पूर्ण तरीके से नौकिरियों से निकाले जाते हैं, उन्हें 10-20-30-40 वर्षों तक न्याय नहीं मिल पाता। हर साल हजारों कारखाने बंद होते हैं, लाखों मजदूर कर्मचारी नौकरी से निकाले जाते हैं। उन्हें अपना जीवन चलाने के लिए दूसरी जगह नौकरी तलाशने जाना होता है या फिर जीवनयापन के दूसरे साधन अपनाने होते हैं। इस मजबूरी का लाभ छंटनी करने वाले उद्योगपति अपनाते हैं। उन्हें कानूनी रूप से दिए जाने वाले लाभों को रोक कर बैठ जाते हैं और आधा-पौना-चौथाई रकम ले कर या कभी कभी सारे लाभों को छोड़ कर चले जाने को मजबूर करते हैं। सरकारें, उन के श्रम विभाग और अदालतें हाथ पर हाथ धर कर शक्तिहीन होने या प्रक्रिया का रोना लेकर बैठी रहती हैं।

ब जनसंख्या के हिसाब से न्यायालयों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है। पर्याप्त संख्या में सक्षम जज पैदा करने की जरूरत है। हमारी न्याय व्यवस्था जरूरत का पांचवां हिस्सा है। इसका आकार बढ़ा कर पांच गुना करने की जरूरत है। पर आजादी के 67वें वर्ष में भी उस के लिए कोई योजना हमारे पास नहीं है। आज भी हम न्याय को छीन झपट कर खा रहे हैं। 


जादी से ले कर आज तक भारतीय समाज में अन्याय के इस अजगर ने अपने पैर फैलाए हैं और धीरे-धीरे जीवन के हर पक्ष में वह पहुंच गया है। उस का रूप इतना भयंकर और विशाल हो चुका है कि उस से युद्ध स्तर पर निपटने की जरूरत है। लेकिन उस की जड़ें हमारी व्यवस्था में है। वह इसी शोषणकारी पूंजीपतियों भू-स्वामियों के हितो के लिए संचालित व्यवस्था की अवैध संतान है। चाह कर भी यह व्यवस्था उस से निपटने में अक्षम है। इस से केवल, और केवल वह जन-पक्षधर व्यवस्था ही निपट सकती है और उसे परास्त कर सकती है जिस के नियंत्रण में पूंजीपतियों-भूस्वामियों का कोई दखल न हो।