कल बंगाल में स्थानीय निकायों के चुनाव के नतीजे आए। भाकपा (मार्क्स.) के नेतृत्व वाले वाममोर्चे को करारी शिकस्त का मुहँ देखना पड़ा। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस को अच्छी-खासी जीत मिली। आम तौर पर इस तरह के नतीजे देश के दूसरे भागों में आते रहते हैं, वहाँ भी, जहाँ वाम का अच्छा खासा प्रभाव है। केरल में कभी वाम मोर्चा सरकार में होता है, तो कभी कांग्रेस के नेतृत्व वाला मोर्चा। लेकिन वहाँ कभी इतनी हाय-तौबा नहीं देखने को मिलती। जितनी कल देखने को मिली। उसका कारण है कि पिछले 33 वर्ष में बंगाल में वाम-शासन का जो दुर्ग रहा, उस में कोई सेंध नहीं लगा पाया। इस के बावजूद कि केन्द्र में लगातार विरोधी-दलों की सरकारें विद्यमान रहीं। आज बंगाल में वाम की स्थानीय निकायों में हार पर जो हल्ला हो रहा है उस का कारण यही है कि उस दुर्ग में बमुश्किल एक छेद होता दिखाई दे रहा है। इस छेद के दिखाई देने में बाहरी प्रहारों का कितना योगदान है और कितने अंदरूनी कारण हैं, उन्हें एक सचेत व्यक्ति आसानी से समझ सकता है। मेरी मान्यता तो यह है कि किसी भी निकाय में परिवर्तन के लिए अंतर्वस्तु मुख्य भूमिका अदा करती है, बाह्य कारणों की भूमिका सदैव गौण और तात्कालिक होती है। वाम-मोर्चे को लगे आघात की भी यही कहानी है। तृणमूल काँग्रेस की भूमिका वहाँ तात्कालिक और गौण रही है।
इस घटना ने राजनीतिक रूप से सचेत प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित किया। मैं उस से अप्रभावित कैसे रह सकता था? मेरे मन-मस्तिष्क पर उस की जो भी प्रतिक्रिया हुई, मैं ने उसे कुछ शब्दों में प्रकट करने का प्रयास किया,।फलस्वरूप अनवरत पर कल की पोस्ट ने आकार लिया। एक सामयिक और कुछ चौंकाने वाले शीर्षक के कारण ही सही पर बहुत मित्र वहाँ पहुँचे। कइयों ने उस पर प्रतिक्रिया भी दी। मेरे लिए संतोष की बात यह थी कि मित्रों ने मेरी प्रतिक्रिया को सहज रूप में एक ईमानदार प्रतिक्रिया के रूप में स्वीकार किया। उन ने भी जो राजनैतिक सोच में मुझसे अधिक सहमत होते हैं, और उन ने भी जो अक्सर बहुत अधिक असहमत रहते हैं। चाहे इस घटना पर उन की प्रतिक्रिया कुछ भी रही हो। विशेष रूप से स्मार्ट इंडियन जी, सुरेश चिपलूनकर जी, अनुनाद सिंह जी और अशोक पाण्डेय जी की घटना पर प्रतिक्रियाएँ और प्रतिक्रियाओं पर प्रतिक्रियाएँ उन के अपने-अपने लगभग स्थाई हो चुके सोच के अनुसार ही थीं। मुझे उन पर किंचित भी आश्चर्य नहीं हुआ। आश्चर्य तो तब होता जब उन से ऐसी प्रतिक्रियाएँ नहीं होतीं। हो सकता है कि इन चारों मित्रों की धारणा यह बन चुकी हो कि उन की अपनी धारणाएँ इतनी सही हैं कि वे कभी बदल नहीं सकतीं। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता। मेरा अपना दर्शन इस तरह सोचने की अनुमति नहीं देता।
मेरी मान्यता है कि कल जिन-जिन मित्रों ने अनवरत की पोस्ट पढ़ी और जिन ने उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त की उन सभी की मनुष्य और समाज के प्रति प्रतिबद्धता में कमी नहीं है। वे सभी चाहते भी हैं कि मनुष्य समाज अपने श्रेष्ठतम रूप को प्राप्त करे। यह दूसरी बात है कि मनुष्य समाज के श्रेष्ठतम रूप के बारे में हमारी अवधारणाएँ अलग-अलग हैं और वहाँ तक पहुँचने के हमारे मार्गों के बारे में भी गंभीर मतभेद हैं। लेकिन मनुष्य समाज का श्रेष्ठतम रूप तो एक ही हो सकता है। मेरी यह भी मान्यता है कि उस श्रेष्ठतम रूप के बारे में हमारे पास अभी तक केवल अवधारणाएँ ही हैं। वह ठीक-ठीक किस तरह का होगा? यह अभी तक पूरी तरह भविष्य के गर्भ में छुपा है। मनुष्य समाज के उस श्रेष्ठतम रूप तक पहुँचने के बारे में मतभेद अघिक गंभीर हैं, इतने कि हम उस के बारे में तुरंत तलवारें खींचने में देरी नहीं करते। हर कोई अपने ही मार्ग को सर्वोत्तम मानता है। बस यहीं हम गलती करते हैं। हम अपने-अपने मार्ग के बारे में यह तो सोच सकते हैं कि वह सही है, आखिर तभी तो हम उस पर चल रहे हैं। लेकिन हम अंतिम सत्य के रूप में उसे स्वीकार नहीं कर सकते कि वही वास्तव में सही मार्ग है। अब प्रश्न यह उठता है कि यह कैसे तय हो कि वास्तव में सही मार्ग कौन सा है? निश्चित ही आने वाला समय इस चीज को तय करेगा। मेरा यह भी मानना है कि एक समष्टि के रूप में जनता सदैव बुद्धिमान होती है। वह शायद अभी यह तय करने में समर्थ नहीं कि उस के लिए कौन सा मार्ग सही है। लेकिन वह सभी मार्गों को परखती अवश्य है। जब उसे लगता है कि कोई मार्ग सही है तो उस पर चल पड़ती है। उस मार्ग पर चलते हुए भी वह लगातार उसे परखती है। जब तक उसे लगता है कि वह सही चल रही है, चलती रहती है। लेकिन जब भी उसे यह अहसास होने लगता है कि कोई उसे गलत रास्ते पर ले आया है, या कि जिस रास्ते पर उस से ले जाने का वायदा किया गया था उस से भिन्न रास्ते पर ले जाया जा रहा है। तो उस अहसास को वह तुरंत प्रकट करती है। लेकिन नए मार्ग पर भी वह तुंरत नहीं चल पड़ती। उस के लिए वह रुक कर तय करती है कि अब उसे किधऱ जाना चाहिए?
बंगाल की जनता ने ऐसा ही कुछ प्रकट किया है। उसे अहसास हुआ है कि वह मंजिल तक पहुँचने के लिए पिछले अनेक वर्षों से जिस मार्ग पर चल रही थी वह एक चौराहे पर आ कर ठहर गया है, और उसे तय करना है कि कौन सा मार्ग उसे अपनी मंजिल तक पहुँचाएगा।
जिन मित्रों ने कल प्रतिक्रिया जनित मेरी रचना को पढ़ा है और उस पर अपने विचार प्रकट करते हुए उस पर अपने हस्ताक्षर किये हैं, मैं उन सभी का आभारी हूँ, उन्हों ने मुझे यह अहसास कराया है कि मैं एक सही मार्ग पर हूँ।
10 टिप्पणियां:
राजनीति में परिवर्तन के दो कारण होते हैं एक तात्कालिक सरकार से असंतुष्टि और दूसरा किसी व्यक्ति या राजनैतिक दल की नितियों का समर्थन। बंगाल में असंतुष्टि ही कारण बन रही है। इसलिए दूसरी सरकार के आने के बाद तय होगा कि अच्छा शासन किसका था। आपका विश्लेषण अच्छा लगा।
हो सकता है कि इन चारों मित्रों की धारणा यह बन चुकी हो कि उन की अपनी धारणाएँ इतनी सही हैं कि वे कभी बदल नहीं सकतीं। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता। मेरा अपना दर्शन इस तरह सोचने की अनुमति नहीं देता।
हम तो इसीलिये आपको पढ़ते हैं पंडिज्जी की अपनी तरह जड़ न रहकर आप सरीखे दार्शनिकों से कुछ सीखकर आगे बढ़ें.
मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं ,दूसरे मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है (मैंने कुछ कुछ समय स्टाईल के शब्द लिए हैं आशा है आप तो समझ ही लेगें )
@ द्विवेदी जी
अवधारणा और व्यवहार पर आपकी सोच बेशक प्रगतिकामी है !
किंतु ...जनता के समष्टि रूप से बुद्धिमान होने के आपके विचार से हमारी असहमति /संशय दर्ज़ किया जाये ! क्या जनता वाकई मे अवधारणात्मक गुण दोषो के आधार पर निर्णय लेने का कौशल्य ( निपुणता ) रखती है ? क्या जनता को राजनैतिक दर्शन साक्षर माना जा सकता है ?
अगर अवधारणात्मक श्रेष्ठता के विचार को हाशिये मे रखकर भी सोचा जाये तो क्या जनता अन्धों मे काना चुनने की सलाहियत भी रखती है ?
या फिर जनता के सामने पत्ते फेंटने के सिवा कोई विकल्प नही है ?
@ डाक्टर अरविन्द मिश्रा जी
किसी भी 'वाद' ( दर्शन ) बोले तो ?
धर्म वाद पे तो चल ही रहे हैं हजारों सालों से :)
द्
एक बात कहूंगा कि आज ममता भले जो कहे लेकिन सत्य यही है कि ममता को कोई ममता नहीं, न बंगाल से न बाकी देश से , उसे सिर्फ अपने से ममता है ! लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि आज की तारीख मैं वही एक नेता है जो इन आदमखोर वामपंथियों को किक आउट कर सकने में सक्षम है ! उम्मीद करे कि वह आने वाले चुनावों में भी यही हार्स इन बिन पैंदे के लोटों का कर पाने में सक्षम होगी जो अभी सिविक पोल में हुआ !
कहीं सुना था ।
लोकतन्त्र एक धीरी, पीड़ादायी पर निश्चयात्मक प्रक्रिया है ।
दिनेश जी, जिस जड़ता का आरोप आपने लगाया है वह शिरोधार्य।
आप जानते हैं कि मैं तो सी पी एम में कभी नहीं रहा। मेरी ट्रेनिंग ही हुई उस धारा के साथ जो इसे संशोधनवादी मानती है और कल के कमेन्ट में भी मैने इसे दुहराया। पर जब हम उसे एक सच्ची कम्यूनिस्ट पार्टी नहीं मानते तो फिर घर की लड़ाई में क्यों व्यस्त हैं? क्यों उससे इतनी उम्मीद कि उसके हार जाने पर शोकगीत लिखे जायें? कहीं यह सालों पहले उससे अलग होने के समय कही गयी बातों के सच होने का उल्लास तो नहीं?
आपसे असहमत होकर मैने कहा कि'मैं उसे एक सोशल डेमोक्रेट पार्टी मानता हूं और संसदीय राजनीति में ऐसे एक प्रतिपक्ष की उपस्थिति को अनिवार्य्। ' इस विचार में रुढ़ता लगी आपको? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस देश की दूसरी 30-35 कम्यूनिस्ट पार्टियों (?) के कर्ता-धर्ताओं की ही तरह आप भी मान बैठे कि जिस राह आप चल रहे हैं उससे अलग कोई सोच हो ही नहीं सकती? आपने जो कह दिया उसके विरुद्ध या प्रतिपक्ष में जो होगा सब दक्षिणपंथी ही होंगे? गति वही होगी जो आपके पांवों की गुलाम हो?
आदरणीय कामरेड आप जानते हैं कि आपके लिये मेरे मन में अतीव सम्मान है लेकिन मार्क्सवाद ने मुझे हमेशा द्वंद्व के सहारे चलना सिखाया है। आप बताईये अगर मैने बंगाल में सीपीएम के भ्रष्ट विकल्प का सवाल उठाया तो क्या ग़लत था? अगर इसे चुनावी हार कहा तो क्या ग़लत था? अगर इसकी तुलना दूसरी हारों से की तो क्या ग़लत था? क्या बंगाल रूस और चीन की तरह क्रांति के बाद जीता हुआ प्रदेश था? क्या इसे भी संविधान और पूंजीवाद के तहत एक सम्सदवादी और बुर्ज़ुआ पार्टी ने उन्हीं हथकण्डों से चुनाव में हासिल नहीं किया था? फिर ऐसा क्या कि इस पर खुशी मनाया जाय या हार पर शोकगीत गाये जायें? यह तो रियेक्शन लगता है…या आप ही बतायें कि कौन सी द्वंद्वात्मक गति है साथी?
हां जनता को ही तय करना होता है सब कुछ्…मैने इसके विपरीत कुछ कहा क्या?
लेकिन जनता वाले सवाल पर भी अली साहब की बातों पर गौर किया जाना चाहिये। द्वंद्वहीन तरीके से इस पर आश्रय लोकप्रियतावाद की अंधी गली में भटका देता है।
क्या हिटलर जनता से चुनकर नहीं आया था? और मोदी? क्या इसी जनसमर्थन के तर्क से सीपीएम अब तक अपनी कार्यवाहियों को सही नहीं ठहराती रही? क्या जनता शासकवर्ग के प्रचार तंत्र से प्रभावित नहीं होती? क्या संस्कृति के क्षेत्र में लोकप्रिय कलाकारों और कविओं को हमे सिर्फ़ इसीलिये सही मानना चाहिये?
क्या लोकप्रियता के तर्क के आगे समर्पण की जगह हम जनता के बीच अपने विचारों की हेजिमनी बनाने के लिये संघर्ष नहीं करते
हमे इन सब के बारे तो कुछ नही पता, इस लिये हम तो यही कहेगे कि हम आप सब से सहमत है, ओर अजीत गुप्ता जी की बात सही लगी,
आपका यह कहना बिलकुल ठीक लगता है कि 'किसी भी निकाय में परिवर्तन के लिए अंतर्वस्तु मुख्य भूमिका अदा करती है, बाह्य कारणों की भूमिका सदैव गौण और तात्कालिक होती है। वाम-मोर्चे को लगे आघात की भी यही कहानी है। तृणमूल काँग्रेस की भूमिका वहाँ तात्कालिक और गौण रही है।'
पूरे मामले में इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ममता ने किसी वैचारिकता के आधार पर वाम को मात नहीं दी है। वाम के अन्तर्विरोंधों और वैचारिक स्खलन को हथियार बना कर ममता ने यह बदलाव कर दिखाया।
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