अर्थशास्त्रियों
का दावा है कि श्रम समस्त संपदा का स्रोत है। वास्तव में वह स्रोत है,
लेकिन प्रकृति के बाद। वही इसे वह सामग्री प्रदान करती है जिसे श्रम संपदा
में परिवर्तित करता है। पर वह इस से भी कहीं बड़ी चीज है। वह समूचे
मानव-अस्तित्व की प्रथम मौलिक शर्त है, और इस हद तक प्रथम मौलिक शर्त है कि
एक अर्थ में हमें यह कहना होगा कि स्वयं मानव का सृजन भी श्रम ने ही
किया।
लाखों
वर्ष पूर्व, पृथ्वी के इतिहास के भू-विज्ञानियों द्वारा तृतीय कहे जाने
वाले महाकल्प की एक अवधि में, जिसे अभी ठीक निश्चित नहीं किया जा सकता है,
पर जो संभवतः इस तृतीय महाकल्प का युगांत रहा होगा, कहीं ऊष्ण कटिबंध के
किसी प्रदेश में -संभवत- एक विशाल महाद्वीप में जो अब हिंद महासागर में समा
गया है -मानवाभ वानरों की विशेष रूप से अतिविकसित जाति रहा करती थी।
डार्विन ने हमारे इन पूर्वजों का लगभग यथार्थ वर्णन किया है। उन का समूचा
शरीर बालों से ढका रहता था, उन के दाढ़ी और नुकीले कान थे, और वे समूहों
में पेड़ों पर रहा करते थे।
संभवतः
उन की जीवन-विधि, जिस में पेड़ों पर चढ़ते समय हाथों और पावों की क्रिया
भिन्न होती है, का ही यह तात्कालिक परिणाम था कि समतल भूमि पर चलते समय वे
हाथों का सहारा कम लेने लगे और अधिकाधिक सीधे खड़े हो कर चलने लगे। वानर से नर में संक्रमण का यह निर्णायक पग था।
सभी
वर्तमान मानवाभ वानर सीधे खड़े हो सकते हैं और पैरों के बल चल सकते हैं,
पर तभी जब सख्त जरूरत हो, और बड़े भोंडे ढंग से ही। उन के चलने का
स्वाभाविक ढंग आधा खड़े हो कर चलना है, और उस में हाथों का इस्तेमाल शामिल
होता है। इन में से अधिकतर मुट्ठी की गिरह को जमीन पर रखते हैं, और पैरों
को खींच कर शरीर को लम्बी बाहों के बीच से झुलाते हैं, जिस तरह लंगड़े लोग
बैसाखी के सहारे चलते हैं। सामान्यतः वानरों में हम आज भी चौपायों की तरह
चलने से ले कर पांवो पर चलने के बीच की सभी क्रमिक मंजिलें देख सकते हैं।
पर उन में से किसी के लिए भी पावों के सहारे चलना एक आरज़ी तदबीर से ज्यादा
कुछ नहीं है।
हमारे
लोमश पूर्वजों में सीदी चाल के पहले नियम बन जाने और उस के बाद अपरिहार्य
बन जाने का तात्पर्य यह है कि बीच के काल में हाथों के लिए लगातार नए नए
काम निकलते गए होंगे। वानरों तक में हाथों और पांवो के उपयोग में एक विभाजन
पाया जाता है। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, चढ़ने में हाथों
का उपयोग पैरों से भिन्न ढंग से किया जाता है। जैसा कि निम्न जातीय
स्तनधारी जीवों में आगे के पंजे के इस्तेमाल के बारे में देखा जाता है, हाथ
प्रथमतः आहार संग्रह, तता ग्रहण के काम आते हैं। बहुत से वानर वृक्षों में
अपने लिए डेरा बनाने के लिए हाथों का इस्तेमाल करते हैं अथवा चिंपाजी की
तरह वर्षा-धूप से रक्षा के लिए तरुशाखाओं के बीच छत सी बना लेते हैं।
दुश्मन से बचाव के लिए वे अपने हाथों से डण्डा पकड़ते हैं या दुश्मनों पर
फलों अथवा पत्थरों की वर्षा करते हैं। बंदी अवस्था में वे मनुष्यों के
अनुकरण से सीखी गई सरल क्रियाएँ अपने हाथों से करते हैं। लेकिन ठीक यहीं हम
देखते हैं कि मानवाभ से मानवाभ वानरों के अविकसित हाथ और लाखों वर्षों के
श्रम द्वारा अति परिनिष्पन्न मानव हाथ सैंकड़ों ऐसी क्रियाएँ संपन्न कर
सकते हैं जिन का अनुकरण किसी भी वानर के हाथ नहीं कर सकते। किसी भी वानर के
हाथ पत्थर की भोंडी छुरी भी आज तक नहीं गढ़ सके हैं।
अतः
आरंभ में वे क्रियाएँ अत्यंत सरल रही होंगी, जिन के लिए हमारे पूर्वजों ने
वानर से नर में संक्रमण के हजारों वर्षों में अपने हाथों को अनुकूलित करना
धीरे-धीरे सीखा होगा। फिर भी निम्नतम प्राकृत मानव भी वे प्राकृत मानव भी
जिन में हम अधिक पशुतुल्य अवस्था में प्रतिगमन तथा उस के साथ ही साथ
शारीरिक अपह्रास का घटित होना मान ले सकते हैं, इन अंतर्वर्ती जीवों से
कहीं श्रेष्ठ हैं। मानव हाथों द्वारा पत्थर की पहली छुरी बनाए जाने से पहले
शायद एक ऐसी अवधि गुजरी होगी जिस की तुलना में ज्ञात ऐतिहासिक अवधि नगण्य
सी लगती है। किन्तु निर्णयक पग उठाया जा चुका था। हाथ मुक्त हो गया था और
अब से अधिकाधिक दक्षता एवं कुशलता प्राप्त कर सकता था। तथा इस प्रकार
प्राप्त उच्चतर नमनीयता वंशागत हेती थी और पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाती थी।
अतः
हाथ केवल श्रमेन्द्रिय ही नहीं हैं, वह श्रम की उपज भी है। श्रम के द्वारा
ही, नित नयी क्रियाओं के प्रति अनुकूलन के द्वारा ही, इस प्रकार उपार्जित
पेशियों, स्नायुओं- और दीर्घतर अवधियों में हड्डियों-के विशेष विकास की
वंशागतता के द्वारा ही, तथा इस वंशागत पटुता के नए, अधिकाधिक जटिल क्रियाओं
मे नित पुनरावृत्त उपयोग के द्वारा ही मानव हाथ ने वह उच्च परिनिष्पन्नता
प्राप्त की है जिस की बदौलत राफ़ायल की सी चित्रकारी, थोर्वाल्दसेन की सी
मूर्तिकारी और पागनीनी का सा संगीत आविर्भूत हो सका।
परन्तु
हाथ अपने आप में ही अस्तित्वमान न था। वह तो एक पूरी अति जटिल
शरीर-व्यवस्था का एक अंग मात्र था। और जिस चीज से हाथ लाभान्वित हुआ, उस से
वह पूरा शरीर भी लाभान्वित हुआ जिस की हाथ खिदमत करता था। यह दो प्रकार से
हुआ।
पहली
बात यह कि शरीर उस नियम के परिणामस्वरूप लाभान्वित हुआ जिसे डार्विन विकास
के अंतःसंबंध का नियम कहते थे। इस नियम के अनुसार किसी जीव के अलग-अलग
अंगों के विशेष रूप से उन से असंबद्ध अन्य अंगों के कतिपय रूपों के साथ
आवश्यक तौर पर जुड़े हुए होते हैं। जैसे, उन सभी पशुओं में, जिन में कोशिका
केंद्रकों के बिना लाल रक्त कोशिकाएँ होती हैं और जिन में सिर का पृष्ठ
भाग दुहरी संधि (अस्थिकंद) के द्वारा प्रथम कशेरूक के साथ जुड़ा होता है,
निरपवाद रूप में अपने बच्चों को स्तनपान कराने के लिए दुग्ध ग्रंथियाँ भी
होती हैं। इसी तरह जिन स्तनधारी जीवों में अलग-अलग खुर पाया जाता है। कतिपय
रूपों में परिवर्तन के साथ शरीर के अन्य भागों में भी परिवर्तन होते हैं,
यद्यपि इस सह-संबंध की हम कोई व्याख्या नहीं कर सकते। नीली आँखों वाली
बिल्कुल सफेद बिल्लियाँ सदा, प्रायः बहरी होती हैं। मानव हाथ के शनैः शनैः
अधिकाधिक परिनिष्पन्न होने और उसी अनुपात में पैरों को सीधी चाल के लिए
अनुकूलित होने की, इस अंतः सबंध के नियम की बदौलत, निस्संदिग्ध रुप से शरीर
के अन्य भागों में प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई, पर इस क्रिया की अभी इतनी कम
जाँच पड़ताल की गई है कि हम यहाँ तथ्य को सामान्य शब्दों में प्रस्तुत करने
से अधिक कुछ नहीं कर सकते।
इस
से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है शेष शरीर पर हाथ के विकास की प्रत्यक्ष
दृश्यमान प्रतिक्रिया। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, हमारे पूर्वज,
मानवाभ वानर, यूथचारी थे। प्रकट है कि सब से अधिक सामाजिक पशु-मनुष्य-का
व्युत्पत्ति संबंध किन्हीं अयूथचारी निकटतम पूर्वजों से स्थापित करने की
चेष्टा असम्भव है। हात के विकास के साथ, श्रम के साथ आरंभ होने वाली
प्रकृति पर विजय ने प्रत्येक अग्रगति के साथ मानव के क्षितिज को व्यापक
बनाया। मनुष्य को प्राकृतिक वस्तुओं के नए नए और अब तक अज्ञात गुणधर्मों का
लगातार पता लगता जा रहा था। दूसरी ओर, श्रम के विकास ने पारस्परिक सहायता,
सम्मिलित कार्यकलाप के उदाहरणों को बढ़ा कर और प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस
सम्मिलित कार्य कलाप की लाभप्रदता स्पष्ट कर के समाज के सदस्यों को एक
दूसरे के निकटतर लाने में आवश्यक रूप से मदद दी। संक्षेप में, विकसित होते
मानव उस बिंदु पर पहुँचे जहाँ उन्हें एक दुसरे से कुछ कहने की जरूरत महसूस होने लगी।
इस वाक्-प्रेरणा से धीरे-धीरे पर निश्चित रूप से काया पलट हुआ, जिस से कि
लगातार और भी विकसित मूर्च्छना पैदा हो, और मुख के प्रत्यंग एक-एक कर
नयी-नयी संहित ध्वनियों का उच्चारण करना धीरे-धीरे सीखते गए।
पशुओं
के साथ तुलना करने से सिद्ध हो जाता है कि यह व्याख्या ही एकमात्र सही
व्याख्या है कि श्रम से और श्रम के साथ भाषा की उत्पत्ति हुई। अधिक से
अधिक विकसित पशु भी एक दूसरे से बात करने की अपनी अतिस्वल्प आवश्य़कता संहित
वाणी की सहायता के बिना ही पूरी कर सकते हैं। प्राकृतिक अवस्था में मानव
वाणी न बोल सकने अथवा न समझ सकने के कारण कोई पशु दिक्क़त नहीं महसूस करता।
किन्तु मनुष्य द्वारा पालतू बना लिए जाने पर बात बिल्कुल और ही होती है।
मानव संगति के कारण कुत्तों और घोड़ों में संहित वाणी ग्रहण करने की ऐसी
शक्ति विकसित हो जाती है कि वे, अपने विचार-वृत्त की सीमा के अंदर किसी भी
भाषा को समझ लेना आसानी से सीख लेते हैं। इस के अतिरिक्त उन्हों ने मानव के
प्रति प्यार और कृतज्ञता जैसे आवेग-जो पहले उन के लिए एकदम अनजान थे-महसूस
करने की क्षमता विकसित कर ली है। ऐसे जानवरों से अधिक लगाव रखनेवाला कोई
भी व्यक्ति यह माने बिना शायद ही रह सकता है कि ऐसे कितने ही जानवरों की
मिसालें मौजूद हैं जो अब यह महसूस करते हैं कि उन का बोल न सकना एक ख़ामी
है, यद्यपि उन के स्वरांगों के ख़ास दिशा में अति विशेषीकृत होने के कारण
यह ख़ामी दुर्भाग्यवश अब दूर नहीं की जा सकती। पर जहाँ ये अंग मौजूद हैं,
वहाँ कुछ सीमाओं के भीतर यह असमर्थता भी मिट जाती है। कहने की जरूरत नहीं
कि पक्षियों के मुखांग मनु्ष्य के मुखांगों से अधिकतम भिन्न होते हैं, फिर
भी पक्षी ही एक मात्र जीव हैं जो बोलना सीख लेते हैं। और सब से कर्कश स्वर
वाला पक्षी-तोता सब से अच्छा बोल सकता है। यह आपत्ति नहीं की जानी चाहिए कि
तोता जो बोलता है, उसे समझता नहीं है। यह सही है कि मानवों के साथ रहने और
बोलने के सुख मात्र के लिए तोता लगातार घंटों टाँय टाँय करता जाएगा और
अपना संपूर्ण शब्द भंडार लगातार दुहराता रहेगा। पर अपने विचार-वृत्त की
सीमा के अंदर वह जो बोलता है उसे समझना भी सीख सकता है। किसी तोते को इस
तरह से गालियाँ बोलना सिखा दीजिए कि उसे इन के अर्थ का थोड़ा आभास हो जाए
(उष्ण देशों की यात्रा करने वाले जहाजियों का यह एक प्रिय मनोरंजन का साधन
है), इस के बाद उसे छेड़िए। आप देखेंगे कि वह इन गालियों का बर्लिन के
कुंजड़ों के समान ही सटीक उपयोग करेगा। ऐसा ही छोटी-मोटी चीजें मांगना सिखा
देने पर भी होता है।
पहले
श्रम, उस के बाद और उस के साथ वाणी-ये ही दो सब से सारभूत उद्दीपनाएँ थीं
जिन के प्रभाव से वानर का मस्तिष्क धीरे-धीरे मनुष्य के मस्तिष्क में बदल
गया, जो सारी समानता के बावजूद वानर के मस्तिष्क से कहीं बड़ा और अधिक
परिनिष्पन्न है। मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ ही उस के सब से निकटस्थ
करणों, ज्ञानेन्द्रियों का विकास हुआ। जिस तरह वाणी के क्रमिक विकास के साथ
अनिवार्य रूप से श्रवणेंद्रियों का तदनुरूप परिष्कार होता है, ठीक उसी तरह
से समग्र रूप में मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ सभी ज्ञानेन्द्रियों का
परिष्कार होता है। उक़ाब मनुष्य से कहीं अधिक दूर तक देख सकता है, परन्तु
मनुष्य की आँखें चीजों में बहुत कुछ ऐसा देख सकती हैं कि जो उक़ाब की आँखें
नहीं देख सकतीं। कुत्ते में मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक तीव्र घ्राणशक्ति
होती है, परन्तु वह उन गंधों के सौवें भाग की भी अनुभूति नहीं कर सकता जो
मनुष्य के लिए भिन्न-भिन्न वस्तुओं की द्योतक होती हैं। और स्पर्श शक्ति,
जो कच्चे से कच्चे आरंभिक रूप में भी वानर के पास भी मुश्किल से ही होती
है, केवल श्रम के माध्यम से स्वयं मानव हाथ के विकास के संग ही विकसित हुई
है।
मस्तिष्क
और उस के सहवर्ती ज्ञानेन्द्रियों के विकास, चेतना की बढ़ती स्पष्टता,
विविक्त विचारणा तथा विवेक की शक्ति की प्रतिक्रिया ने श्रम और वाणी दोनों
को ही और विकास करते जाने की नित नवीन उद्दीपना प्रदान की। मनुष्य के अंतिम
रूप से वानर से भिन्न हो जाने के साथ इस विकास का समाप्त होना तो दूर रहा,
वह प्रबल प्रगति ही करता गया। हाँ, विभिन्न जनगण और विभिन्न कालों में इस
विकास की मात्रा और दिशा भिन्न-भिन्न रही है। जहाँ-तहाँ स्थानीय अथवा
अस्थाई पश्चगमन के कारण उस में व्यवधान भी पड़ा। पूर्ण विकसित मानव के उदय
होने के साथ एक नए तत्व, अर्थात समाज के मैदान में आ जाने से इस विकास को
एक और अग्रगति की प्रबल प्रेरणा मिली और दूसरी ओर अधिक निश्चित दिशाओं में
पथनिर्देशन प्राप्त हुआ।
पेड़ों
पर चढ़ने वाले एक वानर-दल से मानव-समाज के उदित होने से निश्चय ही लाखों
वर्ष - जिन का पृथ्वी के इतिहास में मनुष्य-जीवन के एक क्षण से अधिक महत्व
नहीं है, गुजर गए होंगे। परन्तु उस का उदय हो कर रहा। और यहाँ फिर वानर-दल
एवं मानव-समाज मं हम क्या विशेष अंतर पाते हैं? अन्तर है, श्रम । वानर-दल
अपने लिए भौगोलिक अवस्थाओं द्वारा अथवा पास-पड़ौस के अन्य वानर-दलों के
प्रतिरोध द्वारा निर्णीत आहार-क्षेत्र में ही आहार प्राप्त कर के ही
संतुष्ट था। वह नए आहार-क्षेत्र प्राप्त करने के लिए नयी जगहों में जाता था
और संघर्ष करता था। परन्तु ये आहार क्षेत्र प्रकृत अवस्था में उसे जो कुछ
प्रदान करते थे, उस से अधिक इन से कुछ प्राप्त करने की उस में क्षमता न थी।
हाँ, उस ने अचेतन रूप से अपने मल-मूल द्वारा ही मिट्टी को उर्वर अवश्य
बनाया। सभी संभव आहार क्षेत्रों पर वानर-दलों द्वारा कब्जा होते ही वानरों
की संख्या अधिक से अधिक यथावत रह सकती थी। परंतु सभी पशु बहुत-सा आहार
बरबाद करते हैं, इस के अतिरिक्त वे खाद्य पूर्ति की आगामी पौध को अंकुर रूप
में ही नष्ट कर देते हैं। शिकारी अगले वर्ष मृग-शावक देने वाली हिरणी को
नहीं मारता, परन्तु भेड़िया उसे मार डालता है। तरु-गुल्मों के बढ़ने से
पहले ही उन्हें चर जाने वाली यूनान की बकरियों ने देश की सभी पहाड़ियों की
नंगा बना दिया है। पशुओं की यह लुटेरू अर्थव्यवस्था उन्हें सामान्य खाद्यों
के अतिरिक्त अन्य खाद्यों को अपनाने को मजबूर कर के पशु-जातियों के क्रमिक
रूपांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, क्यों कि उस की बदौलत उन का
रक्त भिन्न रासायनिक संरचना प्राप्त करता है और समूचा शारीरिक गठन क्रमशः
बदल जाता है। दूसरी ओर पहले कायम हो चुकने वाली जातियाँ धीरे-धीरे विनष्ट
हो जाती हैं। इस में कोई संदेह नहीं है कि इस लुटेरू अर्थ व्यवस्था ने वानर
से मनुष्य में हमारे पूर्वजों के संक्रमण में प्रबल भूमिका अदा की है।
बुद्धि
और अनुकूलन-क्षमता में औरों से कहीं आगे बढ़ी हुई वानर-जाति में इस लुटेरू
अर्थव्यवस्था का परिणाम इस के सिवा और कुछ न हो सकता था कि भोजन के लिए
इस्तेमाल की जाने वाली वनस्पतियों की संख्या लगातार बढ़ती जाए और पौष्टिक
वनस्पतियों के अधिकाधिक भक्ष्य भागों का भक्षण किया जाए। सारांश यह कि इस
से भोजन अधिकाधिक विविधतायुक्त होता गया और इस के परिणामस्वरूप शरीर में
ऐसे पदार्थ प्रविष्ट हुए, जिन्हों ने वानरों के मनुष्य में संक्रमण के लिए
रासायनिक आधार का काम किया। परंतु अभी यह सब इस शब्द के अर्थ में श्रम नहीं
था। श्रम औजार बनाने के साथ आरंभ होता है हमें जो प्राचीनतम औजार- वे औजार
जिन्हें प्रागैतिहासिक मानव की दाय वस्तुओं के आधार पर तथा इतिहास में
ज्ञात प्राचीनतम जनगण एवं आज की जांगल से जांगल जातियों की जीवन पद्धति के
आधार पर हम प्राचीनतम कह सकते हैं -मिले हैं, वे क्या हैं? वे शिकार और
मझली मारने के औजार हैं जिन में से शिकार के औजार आयुधों का भी काम देते
थे। परंतु शिकार और मझली मारने की वृत्ति के लिए यह पूर्वमान्य है कि शुद्ध
शाकाहार से उस के साथ-साथ संक्रमण की प्रक्रिया में यह एक और महत्वपूर्ण
कदम है। माँसाहार में शरीर के उपापचयन के लिए दरकार सभी सब से अधिक आवश्यक
तत्व प्रायः पूर्णतः तैयार मिलते हैं इस से पाचन के लिए दरकार समय की ही
बचत नहीं हुई, अपितु वनस्पति-जीवन के अनुरूप अन्य शारीरिक विकास की
प्रक्रियाओं के लिए दरकार समय भी घट गया और इस प्रकार पशु-जीवन की, इस शब्द
के ठीक अर्थों में, सक्रिया अभिव्यंजना के लिए अधिक समय, सामग्री तथा
शक्ति का लाभ हुआ।
विकसित
होता मानव जितना ही वनस्पति जगत से दूर रहता गया, उतना ही वह पशु से ऊँचा
उठता गया। जिस तरह मांसाहार के संग शाकाहार के अभ्यस्त होने के साथ जंगली
बिल्लियाँ और कुत्ते मानव के सेवक बन गए, ठीक उसी तरह शाकाहार के साथ-साथ
मांसाहार को अपनाने से विकसित होते मानव को शारीरिक शक्ति एवं आत्मनिर्भरता
प्राप्त करने में भारी मदद मिली। परन्तु मांसाहार का सब से अधिक प्रभाव
मस्तिष्क पर पड़ा। मस्तिष्क को अपने पोषण और विकास के लिए आवश्यक सामग्री
अब पहले से कहीं अधिक प्रचुरता से प्राप्त होने लगी, अतः अब वह पीढ़ी दर
पीढ़ी अधिक तेजी और पूर्णता के साथ विकास कर सकता था।
हम शाकाहारियों का बहुत आदर करते हैं,
परन्तु हमें यह मानना ही पड़ेगा कि मांसाहार के बिना मनुष्य का आविर्भाव
असंभव होता। हाँ, मांसाहार के कारण ही सभी ज्ञात जनगण यदि किसी काल में
नरभक्षी बन गए थे (अभी दसवीं शताब्दी तक बर्लिनवासियों के पूर्वज,
वेलेतोबियन या बिल्जियन लोग अपने माँ-बाप को मार कर खा जाया करते थे) तो आज
इस का महत्व नहीं रह गया है।
मांसाहार
के फलस्वरूप निर्णायक महत्व रखने वाले दो नए कदम उठाए गए- मनुष्य ने अग्नि
को वशीभूत किया। दूसरे पशुपालन आरंभ हुआ। पहले के फलस्वरूप पाचन प्रक्रिया
और संकुचित बन गयी क्यों कि इस की बदौलत मानव-मुख को मानो पहले से ही आधा
पचा हुआ भोजन मिलने लगा। दूसरे ने मांस की पूर्ति का शिकार के अलावा एक
नया, अधिक नियमित स्रोत प्रदान कर के मांस की सप्लाई को अधिक प्रचुर बना
दिया। इस के अतिरिक्त दूध और दूध से बनी वस्तुओं के रूप में उस ने आहार की
एक नयी सामग्री प्रदान की, जो अपने अवयवों की दृष्टि से उतनी ही मूल्यवान
थी जितना कि मांस। अतः ये दोनों ही नयी प्रगतियाँ सीधे-सीधे मानव की मुक्ति
का नया साधन बन गयीं। उन के अप्रत्यक्ष परिणामों को यहाँ विशद विवेचना
करने से हम विषय से बहुत दूर चले जाएँगे, हालाँकि मानव और समाज के विकास के
लिए उन का भारी महत्व है।
|
भारतीय प्राचीन आवास (मोहेन्जोदड़ो) |
जिस
तरह मनुष्य ने सभी भक्ष्य वस्तुओं को खाना सीखा, उसी तरह उस ने किसी भी
जलवायु में रह लेना भी सीखा। वह समूची निवास योग्य दुनिया में फैल गया। वही
एक मात्र पशु ऐसा था जिस में खुद-ब-खुद ऐसा करने की क्षमंता थी। अन्य
पशु-पालतू जानवर और कृमि-अपने आप नहीं, बल्कि मनुष्य का अनुसरण कर ही सभी
जलवायुओं के अभ्यस्त बने। और मानव द्वारा एक समान गरम जलवायु वाले अपने मूल
निवास स्थान से ठण्डे इलाकों में स्थानान्तरण से, जहाँ वर्ष के दो भाग
हैं- ग्रीष्म ऋतु एवं शीत ऋतु - नयी आवश्यकताएँ उत्पन्न हुई - शीत और नमी
से बचाव के लिए घर और पहनावे की आवश्यकता उत्पन्न हुई जिस से श्रम के नए
क्षेत्र आविर्भूत हुए। फलतः नए प्रकार के कार्यकलाप आरंभ हुए जिन से मनुष्य
पशु से और भी अधिकाधिक पृथक होता गया।
|
वस्त्रों की आरंभिक आवश्यकता |
प्रत्येक
व्यक्ति में ही नहीं, बल्कि समाज में भी हाथों स्वरांगों और मस्तिष्क के
संयुक्त काम से मानव अधिकाधिक पेचीदा कार्य करने के तथा सतत उच्चतर लक्ष्य
अपने सामने रखने और उन्हें हासिल करने के योग्य बने। हर पीढ़ी के गुजरने के
साथ स्वयं श्रम भिन्न, अधिक परिनिष्पन्न, अधिक विविधतायुक्त होता गया।
शिकार और पशुपालन के अतिरिक्त कृषि भी की जाने लगी। फिर कताई, बुनाई,
धातुकारी, कुम्हारी और नौचालन की बारी आयी। व्यापार और उद्योग के साथ
अन्ततः कला और विज्ञान का आविर्भाव हुआ। क़बीलों से जातियों और राज्यों का
विकास हुआ। प्रथमतः मस्तिष्क की उपज लगने वाले और मानव समाजों के ऊपर छाए
प्रतीत होने वाले इन सारे सृजनों के आगे श्रमशील हाथ के अधिक साधारण
उत्पादन पृष्टभूमि में चले गए। ऐसा इस कारण से भी हुआ कि समाज के विकास की
बहुत प्रारंभिक मंजिल से ही (उदाहरणार्थ आदिम परिवार से ही) श्रम को
नियोजित करने वाला मस्तिष्क नियोजित घम को दूसरों के हाथों से करा सकने में
समर्थ था। सभ्यता की द्रुत प्रगति का समूचा श्रेय मस्तिष्क को, मस्तिष्क
के विकास एवं क्रियाकलाप को दे डाला गया। मनुष्य अपने कार्यों की व्याख्या
अपनी आवश्यकताओं से करने के बदले अपने विचारों से करने के आदी हो गए
(हालाँकि आवश्यकताएँ ही मस्तिष्क में प्रतिबिंबित होती हैं, चेतना द्वारा
ग्रहण की जाती हैं)। अतः कालक्रम में उस भाववादी विश्वदृष्टिकोण का उदय हुआ
जो प्राचीन यूनानी-रोमन समाज के पतन के बाद से तो ख़ास तौर पर मानवों के
मस्तिष्क पर हावी रहा है। वह अब भी उन पर इस हद तक हावी है कि डार्विन पंथ
के भौतिकवादी से भौतिकवादी प्रकृति विज्ञानी भी अभी तक मनुष्य की उत्पत्ति
के विषय में स्पष्ट धारणा निरूपित करने में असमर्थ हैं क्यों कि इस
विचारधारा के प्रभाव में पड़ कर वे इस में श्रम द्वारा अदा की गई भूमिका को
नहीं देखते।
|
चार्ल्स डार्विन |
जैसा
कि पहले ही इंगित किया जा चुका है, पशु अपने क्रियाकलाप से मानवों की
भाँति बाह्य प्रकृति को परिवर्तित करते हैं यद्यपि वे उस हद तक ऐसा नहीं
करते जिस हद तक मनुष्य करता है। और जैसा कि हम देख चुके हैं उन के द्वारा
अपने परिवेश में किया गया यह परिवर्तन उलट कर उन के ऊपर असर डालता है तथा
अपने प्रणेताओं को परिवर्तित करता है। प्रकृति में पृथक रूप से कुछ भी
नहीं होता। हर चीज अन्य चीजों पर प्रभाव डालती तथा उन के द्वारा स्वयं
प्रभावित होती है। इस सर्वांगीण गति एवं अन्योन्यक्रिया को बहुधा भुला देने
के कारण ही प्रकृति-विज्ञानी साधारण से साधारण चीजों को स्पष्टता के साथ
नहीं देख पाते। हम देख चुके हैं कि किसक तरह बकरियों ने यूनान में वनों के
पुनर्जन्म को रोका है। सेंट हलेना द्वीप में वहाँ पहुँचनेवाले प्रथम
यात्रियों द्वारा उतारे गए बकरों और सुअरों ने पहले से चली आती वहाँ की
वनस्पतियों का लगभग पूरी तरह सफाया कर दिया और ऐसा कर के उन्हों ने बाद में
आए नाविकों और आबादकारों द्वारा लाए गए पौधों के प्रसार के लिए जमीन तैयार
की। परन्तु यदि पशु अपने परिवेश पर अधिक समय तक प्रभाव डालते हैं तो ऐसा
अचेत रूप से ही होता है तथा स्वयं पशुओं को सम्बन्ध में यह महज संयोग की
बात होती है. लेकिन मनुष्य पशु से जितना ही अधिक दूर होते हैं, प्रकृति पर
उन का प्रभाव पहले से ज्ञात निश्चित लक्ष्यों की ओर निर्देशित, नियोजित
क्रिया का रूप धारण कर लेता है। पशु यह महसूस किए बिना कि वह क्या कर रहा
है, किसी इलाके की वनस्पतियों को नष्ट करता है। मनुष्य नष्ट करता है मुक्त
भूमि पर फसलें बोने के लिए अथवा वृक्ष एवं अंगूर की लताएँ रोपने के लिए,
जिन के बारे में वह जानता है कि वे बोयी गई मात्रा से कहीं अधिक उपज देंगी।
उपयोगी पौधों और पालतू पशुओं को वह एक देश से दूसरे में स्थानान्तरित करता
है और इस प्रकार पूरे के पूरे महाद्वीपों के पशुओं एवं पादपों को बदल
डालता है। इतना ही नहीं, कृत्रिम प्रजनन के द्वारा वनस्पति और पशु दोनों ही
मानव के हाथों से इस तरह बदल दिए जाते हैं कि वने पहचाने भी नहीं जा सकते।
उन जंगली पौधों की व्यर्थ ही अब खोज की जा रही है जिन से हमारे नाना
प्रकार के अन्नों की उत्पत्ति हुई है। यह प्रश्न कि हमारे कुत्तों का, जो
खुद भी एक दूसरे से अति भिन्न हैं, अथवा उतनी ही भिन्न नस्लों के घोड़ों का
पूर्वज कौन सा वन्य पशु है अब भी विवादास्पद है।
|
इतिहास को दोहराता भ्रूण का विकास |
बात
चाहे जो भी हो, पशुओं के नियोजित पूर्वकल्पित ढंग से काम कर सकने की
क्षमता के बारे में विवाद उठाना हमारा मक़सद नहीं है। इस के विपरीत, जहाँ
भी प्रोटोप्लाज्म का, जीवित एल्बुमिन का अस्तित्व है और वह प्रतिक्रिया
करता है, यानी निश्चित बाह्य उद्दीपनाओं के फलस्वरूप निश्चित क्रियाएँ
संपन्न करता है, भले ही ये क्रियाएँ अत्यन्त ही सहज प्रकार की हों, वहाँ
क्रिया की एक नियोजित विधि विद्यमान रहती है। यह प्रतिक्रिया वहाँ भी होती
है जहाँ अभी कोई कोशिका नहीं है, तंत्रिका कोशिका की तो बात दूर रही। इसी
प्रकार से कीटभक्षी पौधों का अपना शिकार पकड़ने का ढंग किसी मानी में
नियोजित क्रिया सा लगता है यद्यपि वह बिलकुल अचेतन रूप में की जाती है।
पशुओं में सचेत, नियोजित क्रिया की क्षमता तंत्रिका तन्त्र के विकास के
अनुपात में विकसित होती है और स्तनधारी पशुओं में यह काफी उच्च स्तर तक
पहुँच जाती है। इंग्लेंड में लोमड़ी का शिकार करने वाले आसानी से यह देख
सकते हैं कि लोमड़ी अपना पीछा करने वालों की आँखों में धूल झोंकने के लिए
स्थानीय इलाके की अपनी उत्तम जानकारी का इस्तेमाल करने का कैसा अचूक ज्ञान
रखती है और भूमि की अनपे लिए सुविधाजनक हर विशेषता को वह कितनी अच्छी तरह
जानती तथा कितनी अच्छी तरह शिकारी को गुमराह कर देने के लिए उस का इस्तेमाल
करती है। मानव की संगति में रहने के कारण अधिक विकसित पालतू पशुओं को हम
नित्य ही चतुराई के ठीक उस स्तर के कार्य करते देखते हैं जिस स्तर के बच्चे
किया करते हैं। कारण यह है कि जिस प्रकार माता के गर्भ में मानव भ्रूण के
विकास का इतिहास करोड़ों वर्षों में फैले हमारे पशु पूर्वजों के केंचुए से
आरम्भ कर के अब तक के शारीरिक विकास के इतिहास की संक्षिप्त पुनरावृत्ति
है, उसी प्रकार मानव शिशु का मानसिक विकास इन्हीं पूर्वजों के, कम से कम
बाद में आने वाले पूर्वजों के, बौद्धिक विकास की ओर भी संक्षिप्त
पुनरावृत्ति है। पर सारे के सारे पशुओं की सारी की सारी नियोजित क्रिया भी
कभी धरती पर उन की इच्छा की छाप न छोड़ सकी। यह श्रेय मनुष्य को ही प्राप्त
हुआ।
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सेंट हेलेना द्वीप |
संक्षेप
में, पशु बाह्य प्रकृति का उपयोग मात्र करता है और उस में केवल अपनी
उपस्थिति द्वारा परिवर्तन लाता है। पर मनुष्य अपने परिवर्तनों द्वारा
प्रकृति से अपने काम करवाता है, उस पर स्वामिवत शासन करता है। यही
मनुष्य तथा अन्य पशुओं के बीच अंतिम एवं सारभूत अंतर है। श्रम यहाँ भी इस
अन्तर को लाने वाला होता है। (गौरवशाली बनाने वाला होता है)
प्रकृति
पर अपनी मानवीय विजयों के कारण हमें आत्मप्रशंसा में विभोर नहीं हो जाना
चाहिए, क्यों कि वह हर ऐसी विजय का हम से प्रतिशोध लेती है। यह सही है कि
प्रत्येक विजय से प्रथमतः वे ही परिणाम प्राप्त होते हैं जिन का हम ने
भरोसा किया था, पर द्वितीयतः और तृतीयतः उस के परिणाम बिल्कुल ही भिन्न तथा
अप्रत्याशित होते हैं, जिन से अक्सर पहले परिणाम का असर जाता रहता है।
मेसोपोटामिया, यूनान. एशिया माइनर, तथा अन्य स्थानों में जिन लोगों ने कृषि
योग्य भूमि प्राप्त करने के लिए वनों को बिल्कुल ही नष्ट कर डाला, उन्हों
ने कभी यह कल्पना नहीं की थी कि वनों के साथ आर्द्रता के संग्रह-केन्द्रों
और आगारों का उन्मूलन कर के वे इन देशों की मौजूदा तबाही की बुनियाद डाल
रहे हैं। एल्प्स के इटालियनों ने जब पर्वतों की दक्षिणी ढलानों पर चीड़ के
वनों को (ये दक्षिणी ढलानों पर खूब सुरक्षित रखे गए थे) पूरी तरह काट डाला,
तब उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि ऐसा कर के वे अपने प्रदेश के दुग्ध
उद्योग पर कुठाराघात कर रहे हैं। इस से भी कम आभास उन्हें इस बात का था कि
अपने कार्य द्वारा वे अपने पर्वतीय स्रोतों को वर्ष के अधिक भाग के लिए
जलहीन बना रहे हैं तथा साथ ही इन स्रोतों के लिए यह सम्भव बना रहे हैं कि
वे वर्षा ऋतु में मैदानों में और भी अधिक भयानक बाढ़ें लाया करें। यूरोप
में आलू का प्रचार करने वालों को यह ज्ञात नहीं था कि असल मंडमय कंद को
फैलाने के साथ-साथ वे स्क्रोफुला रोग का भी प्रसार कर रहे हैं। अतः हमें हर
पग पर यह याद कराया जाता है कि प्रकृति पर हमारा शासन किसी विदेशी जाति पर
एक विजेता के शासन जैसा कदापि नहीं है, वह प्रकृति से बाहर के किसी
व्यक्ति जैसा शासन नहीं है, बल्कि रक्त, मांस, और मस्तिष्क से युक्त हम
प्रकृति के ही प्राणी हैं, हमारा अस्तित्व उस के मध्य है और उस के ऊपर
हमारा सारा शासन केवल इस बात में निहित है कि अन्य सभी प्राणियों से हम इस
मानों में श्रेष्ठ हैं कि हम प्रकृति के नियमों को जान सकते हैं और ठीक-ठीक
लागू कर सकते हैं।
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स्क्रोफुला के परिणाम |
वास्तव
में, ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं हम उस के नियमों को अधिकाधिक सही ढंग
से सीखते जाते हैं और प्रकृति के नैसर्गिक प्रक्रम में अपने हस्तक्षेप के
तात्कालिक परिणामों के साथ उस के दूरवर्ती परिणामों के भी देखने लगे हैं।
खा़स कर प्रकृति-विज्ञान की वर्तमान शताब्दी की प्रबल प्रगति के बाद तो हम
अधिकाधिक ऐसी स्थिति में आते जा रहे हैं जहाँ कम से कम अपने सब से साधारण
उत्पादक क्रियाकलाप के अधिक दूरवर्ती परिणामों तक को हम जान सकते हैं और
फलतः उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं। लेकिन जितना ही ज्यादा ऐसा होगा उतनी
ही ज्यादा मनुष्य प्रकृति के साथ अपनी एकता न केवल महसूस करेंगे बल्कि उसे
समझेंगे भी और तब यूरोप में प्राचीन क्लासिकीय युग के अवसान के बाद उद्भूत
होने वाली ईसाई मत में सब से अधिक विशद रूप में निरूपित की जाने वाली
मस्तिष्क और भूतद्रव्य, मनुष्य और प्रकृति, आत्मा और शरीर के वैपरीत्य की
निरर्थक एवं अस्वाभाविक धारणा उतनी ही अधिक असम्भव होती जायेगी।
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अकाल |
परन्तु उत्पादन की दिशा में निर्देशित अपने कार्यकलाप के अधिक दूरवर्ती प्राकृतिक
फलों का आकलन सीखने में जहाँ हमें हजारों वर्षों की मेहनत लग चुकी है,
वहाँ इन क्रियाओं के अधिक दूरवर्ती सामाजिक फलों का आकलन करने का काम और भी
दुष्कर रहा है। आलू के प्रचार के फलस्वरूप स्क्रोफुला रोग के प्रसार की हम
चर्चा कर चुके हैं। परन्तु श्रम जीवियों के आलू के आहार पर ही आश्रित हो
जाने का पूरे के पूरे देशों के अन्दर जनसमुदाय की जीवनावस्था पर जो प्रभाव
पड़ा है, उस के मुकाबले स्क्रोफुला रोग भी भला क्या है? अथवा उस अकाल की
तुलना में ही यह रोग क्या था जिस ने आलू की फसल में कीड़ा लग जाने के
फलस्वरूप 1847 में आयरलैंड को अपना ग्रास बनाया था और सम्पूर्णतया या लगभग
सम्पूर्णतया आलू के आहार पर पले दस लाख आयरलैंडवासियों को मौत का शिकार बना
दिया तथा बीस लाख को विदेशों में जा कर बसने को मजबूर किया था? जब अरबों
ने शराब चुआना सीखा तो यह बात उन के दिमाग में बिल्कुल नहीं आयी थी कि ऐसा
कर के वे उस समय अज्ञात अमरीकी महाद्वीप के आदिवासियों के भावी उन्मूलन का
एक मुख्य साधन उत्पन्न कर रहे थे। और बाद में जब कोलम्बस ने अमरीका की खोज
की तो उसे नहीं पता था कि ऐसा कर के वह यूरोप में बहुत पहले मिटायी जा चुकी
दास-प्रथा को नवजीवन प्रदान कर रहा था और नीग्रो-व्यापार की नींव डाल रहा
था। सत्रहवीं और अठारवीं शताब्दियों में भाप का इंजन आविष्कार करने में
संलग्न लोगों के दिमाग में यह बात नहीं आयी थी कि वे वह औजार तैयार कर रहे
हैं जो समूची दुनिया के अन्दर सामाजिक सम्बन्धों में अन्य किसी भी औजार की
अपेक्षा बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन ला देने वाला होगा, खास कर के यूरोप में
यह औजार थोड़े से लोगों के हाथ में धन को संकेंद्रित करते हुए और विशाल
बहुसंख्यक को सम्पत्तिहीन बनाते हुए पहले तो पूंजीपति वर्ग को सामाजिक और
राजनीतिक प्रभुता प्रदान करने वाला, लेकिन उस के बाद पूंजीपति और सर्वहारा
वर्गों के उस वर्ग-संघर्ष को जन्म देनेवाला होगा जिस का अन्तिम परिणाम
पूंजीपति वर्ग की सत्ता का खात्मा और सभी वर्ग विग्रहों की समाप्ति ही हो
सकता है। परन्तु इस क्षेत्र में भी लम्बे और प्रायः कठोर अनुभव के बाद तथा
ऐतिहासिक सामग्री का संग्रह और विश्लेषण कर के धीरे-धीरे हम अपने उत्पादक
क्रियाकलाप के अप्रत्यक्ष, अधिक दूरवर्ती सामाजिक परिणामों को स्पष्ट देखना
सीख रहे हैं। इस प्रकार इन परिणामों को भी नियंत्रित और नियमित करने की
सम्भावना हमारे सामने प्रस्तुत हो रही है।
पर
ऐसे नियमन को क्रियान्वित करने के लिए ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। इस के
लिए हमारी अभी तक की उत्पादन-प्रणाली में, और उस ेक साथ हमारी समूची
समकालीन समाज-व्यवस्था में आमूल क्रांति अपेक्षित है।
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नंगे पहाड़ |
आज
तक जितनी भी उत्पादन-प्रणालियाँ रही हैं, उन सब का लक्ष्य केवल श्रम के सब
से तात्कालिक एवं प्रत्यक्षतः उपयोगी परिणाम प्राप्त करना मात्र रहा है।
इस के आगे के परिणामों की, जो बाद में आते हैं तथा क्रमिक पुनरावृत्ति एवं
संचय द्वारा ही प्रभावोत्पादक बनते हैं, पूर्णतया उपेक्षा की गई। भूमि का
सम्मिलित स्वामित्व जो आरम्भ में था, एक ओर तो मानवों के ऐसे विकास स्तर के
अनुरूप था जिस में उन का क्षितिज सामान्यतः सम्मुख उपस्थित वस्तुओं तक
सीमित था, दूसरी ओर उस मे उपलब्ध भूमि का कुछ फ़ाजिल होना पूर्वमान्य था
जिस से कि इस आदिम किस्म की अर्थव्यवस्था के किन्ही सम्भव दुष्परिणामों का
निराकरण करने की गुंजाइश पैदा होती थी। इस फ़ाजिल भूमि के चुक जाने के साथ
सम्मिलित स्वामित्व का ह्रास होने लगा, पर उत्पादन के सभी उच्चतर रूपों के
परिणामस्वरूप आबादी विभिन्न वर्गों में विभक्त हो जाती थी और इस विभाजन के
कारण शासक और उत्पीड़ित वर्गों का विग्रह शुरू हो जाता था। अतः शासक वर्ग
का हित उस हद तक उत्पादन का मुख्य प्रेरक तत्व बन गया। जिस हद तक कि
उत्पादन उत्पीड़ित जनता के जीवन-निर्वाह के न्यूनतम साधनों तक ही सीमित न
था। पश्चिमी यूरोप में आज प्रचलित पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली में यह चीज सब
से अधिक पूर्णता के साथ क्रियान्वित की गई है। उत्पादन और विनिमय पर
प्रभुत्व रखने वाले अलग अलग पूँजीपति अपने कार्यों के सब से तात्कालिक
उपयोगी परिणाम की चिन्ता करने में ही समर्थ हैं। वस्तुतः यह उपयोगी परिणाम
भी - जहाँ तक कि प्रश्न उत्पादित और विनिमय की गई वस्तु की उपयोगिता का ही
होता है - पृष्ठभूमि में चला जाता है और विक्रय द्वारा मिलने वाला मुनाफा
एकमात्र प्रेरक तत्व बन जाता है।
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मंदी |
पूँजीपति
वर्ग का सामाजिक विज्ञान - क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र - प्रधानतया
उत्पादन और विनिमय से सम्बन्धित मानव क्रियाकलापों के केवल सीधे-सीधे
इच्छित सामाजिक प्रभावों को ही लेता है। वह पूर्णतया उस सामाजिक संगठन के
अनुरूप है जिस की वह सैद्धान्तिक व्याख्या है। चूँकि पूँजीपति तात्कालिक
मुनाफे के लिए उत्पादन और विनिमय करते हैं इसलिए केवल निकटतम, सब से
तात्कालिक परिणामों का ही सर्वप्रथम लेखा लिया जा सकता है। कोई कारखानेदार
अथवा व्यापारी जब तक सामान्य इच्छित मुनाफे पर किसी उत्पादित अथवा खरीदे
माल को बेचता है वह खुश रहता है और इस की चिन्ता नहीं करता कि बाद में माल
और उस के खरीददारों का क्या होता है। इस क्रियाकलाप के प्राकृतिक प्रभावों
के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। जब क्यूबा में स्पेनी बागान
मालिकों ने पर्वतों की ढलानों पर खड़े जंगलों को जला डाला और उन की राख से
अत्यन्त लाभप्रद कहवा-वृक्षों की केवल एक पीढ़ी के लिए पर्याप्त खाद हासिल
की, तब उन्हें इस बात की परवाह न हुई कि बाद में उष्णप्रदेशीय भारी वर्षा
मिट्टी की अरक्षित परत को बहा ले जाएगी और नंगी चट्टाने ही छोड़ देगी !
जैसे समाज के सम्बन्ध में वैसे ही प्रकृति के सम्बन्ध में भी वर्तमान
उत्पादन-प्रणाली मुख्यतया केवल प्रथम, ठोस परिणाम भर से मतलब रखती है। और
तब विस्मय प्रकट किया जाता है कि इस, उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये गये
क्रियाकलाप के दूरवर्ती प्रभाव दूसरे ही प्रकार के, बल्कि मुख्यतया बिलकुल
उलटे ही प्रकार के होते हैं; कि पूर्ति और मांग का तालमेल बिलकुल विपरीत
वस्तु में परिणत हो जाता है (जैसा कि प्रत्येक दस वर्षीय औद्योगिक चक्र से,
जिस का जर्मनी तक "गिरावट" के मौके पर आरम्भिक स्वाद चख़ चुका है, सिद्ध
हो चुका है) ; कि अपने श्रम पर आधारित निजि-स्वामित्व अनिवार्यतः मजदूरों
की संपत्तिहीनता में विकसित हो जाता है जब कि समस्त धन गैरमजदूरों के हाथों
में अधिकाधिक केन्द्रित होता जाता है; कि [.....]*
* लेख की पाण्डुलिपि यहीँ समाप्त हो जाती है।