"वैज्ञानिक भौतिकवाद" राहुल सांकृत्यायन की महत्वपूर्ण पुस्तक है, उस में भौतिकवाद को समझाते हुए राहुल जी ने भाववादी दर्शनों की जो आलोचना की है वह पढ़ने योग्य है, इस में ज्ञान के साथ साथ हमें भाषा के सौंदर्य का भी आनन्द प्राप्त होता है और व्यंग्य की धार भी। यहाँ इस पुस्तक का प्राक्कथन प्रस्तुत है। कोशिश रहेगी कि यहाँ एक एक अध्याय प्रस्तुत करते हुए पूरी पुस्तक ही प्रस्तुत की जाए। -दिनेशराय द्विवेदी
प्राक्कथन
आज हम साइंस के युग में हैं, किन्तु तब भी शिक्षित लोगों में भी बहुत से
साइंस-युग के पहिले के मृत विचार ही चल रहे हैं। इसमें एक कारण यह भी है, कि जिज्ञासुओं के पास उसके जानने के लिये
हिन्दी में पुस्तकें मौजूद नहीं हैं। इस
कमी को पूरा करने का इरादा, दो वर्ष
पहिले जब मैं हजारीबाग जेल में नजरबंद होकर आया, तभी हुआ; और काम भी शुरू कर दिया। सामग्री जमा
करते वक्त पता लगा. कि ऐसी पुस्तक लिखना हिन्दी में बेकार है, जब तक कि साइंस, समाजशास्त्र और दर्शन की सामग्री भी
पाठकोंके लिये जुटा न दी जाय। जब मैंने हजारीबाग में लिखे सौ पृष्ठों को बेकार समझ
देवली (21.07.1941) में वैज्ञानिक भौतिकवाद पर साइंस से लिखाई शुरू की, उस समय तक यही ख्याल था, कि एक ही पुस्तक में सब चीजें आ जायेंगी; किन्तु पता लगा, कि अलग-अलग विषयों पर डेढ़-पौने दो हजार
पृष्ठ का एक पोथा लिखनेकी जगह सबको अलग-अलग पुस्तक मान लेना ही अच्छा है। इस
प्रकार एक पुस्तक की जगह चार पुस्तकें लिखनी पड़ी
(१) विश्वकी रूपरेखा (साइंस)
(२) मानव-समाज (समाज-शास्त्र)
(३) दर्शन-दिग्दर्शन (दर्शन)
(४) वैज्ञानिक-भौतिकवाद
इसमें वैज्ञानिक-भौतिकवाद सबसे छोटी पुस्तक
है, जिसका कारण
एक यह भी है, कि इसमें आनेवाले
कितने ही विषय दूसरे ग्रंथों में
आ चुके हैं। वस्तुतः बाकी तीनों "वैज्ञानिक-भौतिकवाद" के ही परिवार ग्रंथ है। .
पुस्तक के गहन विषय को सरल और स्पष्ट
करनेकी मैंने भरसक कोशिश की है, किन्तु उसमें कितनी सफलता हुई है, इसके प्रमाण पाठक ही हो सकते हैं।
अपने विषय के प्रतिपादन में मुझे दूसरे
विरोधी मतों की आलोचना करनी पड़ी है, जिसके लिये मैं मजबूर था; सम्भव है किसी को इससे दुःख हो, जिसके लिये मुझे खेद होगा; मैंने तो “वादे-वादे जायते तत्त्वबोधः' की उक्ति को सामने रखकर वैसा किया है।
जिन ग्रंथोसे मैंने सहायता ली, उनकी सूची में अलग दे रहा हूँ; लेकिन इतना ही कर देने से मैं अपना
कर्त्तव्य पूरा नहीं समझता। मैं समझता हूँ, इस पुस्तक के लिखने का सारा श्रेय इन्हीं
ग्रंथकारों को मिलना चाहिये, मैंने तो मधुमक्खी की भाँति मधु-संग्रह
मात्र किया है, असली धन तो
उन्हीं का है।
मुझे एक बार विश्वास होने लगा था, कि तीसरा ग्रंथ (दर्शनदिग्दर्शन) ही यदि
समाप्त हो जाय तो गनीमत समझना चाहिये; किन्तु उसके समाप्त करते ही (11.03.1942)
मैंने तै कर लिया, कि वर्तमान
ग्रंथको लिखना शुरू कर देना होगा, और अपने को "गृहीत इब केशेषु
मृत्युना" समझते इसे
आज समाप्त कर सका हूँ।
सेंट्रल जेल, हजारीबाग ।
राहुल सांकृत्यायन 24.03.1942
दूसरा संस्करण
इस संस्करणमें मैंने सिर्फ पहिले अध्याय को
अन्त में डाल दिया है, इतना समय नहीं निकाल सका कि कठिन अध्याय को और सरल कर सकता। और सरल करने की
अवश्यकता है।
प्रयाग
राहुल सांकृत्यायन 10.12.1943