@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें उस के विचारों को संचालित करती हैं।

शनिवार, 5 जून 2010

मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें उस के विचारों को संचालित करती हैं।

विगत आलेख जनता तय करेगी कि कौन सा मार्ग उसे मंजिल तक पहुँचाएगा पर आई टिप्पणियों ने कुछ प्रश्न खड़े किए हैं, और मैं महसूस करता हूँ कि ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन प्रश्नों पर बात किया जाना चाहिए।  लेकिन पहले बात उन टिप्पणियों की जो विभिन्न ब्लागों पर की गईँ। लेकिन अपने सोच के आधार वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी रखती हैं और बहुत मूल्यवान हैं। मैं 'समय' के ब्लाग "समय के साये में" की बात कर रहा हूँ। उन्हों ने दूसरे ब्लागों पर की गई कतिपय टिप्पणियों को अपने ब्लाग पर एकत्र कर एक नई पोस्ट लिखी है  - "टिप्पणियों के अंशों से दिमाग़ को कुछ ख़ुराक - ४" आप चाहें तो वहाँ जा कर इन्हें पढ़ सकते हैं। वास्तव में दिमाग को कुछ न कुछ खुराक अवश्य ही प्राप्त होगी। 

डॉ. अरविंद मिश्र की टिप्पणी ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए, उन की टिप्पणी इस प्रकार है-

 Arvind Mishra,  4 June 2010 6:11 AM
मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं ,दूसरे मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है (मैंने कुछ कुछ समय स्टाईल के शब्द लिए हैं आशा है आप तो समझ ही लेगें )
न की टिप्पणी की पहली पंक्ति ही इस प्रकार है -मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता।
स का अली भाई ने उत्तर देने का प्रयास करते हुए अपनी टिप्पणी में कहा -    किसी भी 'वाद' ( दर्शन ) बोले तो? धर्म वाद पे तो चल ही रहे हैं हजारों सालों से :)
ली भाई ने वाद को पहले दर्शन और फिर धर्म से जोड़ा है। अब यह तो डॉ. अरविंद जी ही अधिक स्पष्ट कर सकते हैं कि उन का वाद शब्द का तात्पर्य क्या था। लेकिन वाद शब्द का जिस तरह व्यापक उपयोग देखने को मिलता है उस का सीधा संबंध दर्शन और धर्म से है। दर्शन इस जगत और उस के व्यवहार को समझने का तार्किक और श्रंखलाबद्ध दृष्टिकोण है। हम उस के माध्यम से जगत को समझते हैं कि वह कैसे चलता है। उस की अब तक की ज्ञात यात्रा क्या रही है? क्या नियम और शक्तियाँ हैं जो उस की यात्रा को संचालित करती हैं? इन सब के आधार पर जगत के बारे में व्यक्ति की समझ विकसित होती है जो उस की जीवन शैली को प्रभावित करती है। धर्म का आधार निश्चित रूप से एक दर्शन है जो एक विशिष्ठ जीवन शैली उत्पन्न करता है। लेकिन व्यक्ति की अपनी स्वयं की समझ विकसित हो उस के पहले ही, ठीक उस के जन्म के साथ ही उस का संबंध एक जीवन शैली से स्थापित होने लगता है जो उस के परिवेश की जीवन शैली है। उसी जीवन शैली से वह अपनी प्रारंभिक समझ विकसित करता है। लेकिन एक अवस्था ऐसी भी उत्पन्न होती है जब वह अनेक दर्शनों के संपर्क में आता है, जो उसे यह विचारने को विवश करते हैं कि वह अपने परिवेश प्राप्त समझ में परिवर्तन लाए और उसे विकसित करे। यह विकसित होने वाली जीवन शैली पुनः व्यक्ति के विचारों को प्रभावित करती है। इस तरह जीवन शैली और दर्शन के मध्य एक द्वंदात्मक संबंध मौजूद है।
डॉ. अरविंद मिश्र ने आगे पुनः कहा है - -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं। 
पहले उन्हों ने कहा था -मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता।
मेरे विचार में वे दोनों स्थान पर एक ही बात कह रहे हैं। उन्हों ने यहाँ दो प्रकार की नीतियों का उल्लेख उल्लेख किया है, और जिस तरह किया है उस से ऐसा प्रतीत होता है कि नीतियों के और भी प्रकार हो सकते हैं। उन के बारे में तो डॉ. अरविंद जी ही बता पाएँगे। लेकिन यहाँ जिस वाद शब्द का प्रयोग किया है उस का अर्थ कोई भी विचारधारा हो सकती है जिसे व्यक्तियों के समूहों ने अपनाया हो। वह धर्म भी हो सकता है और राजनैतिक विचारधारा भी। वस्तुतः धार्मिक और राजनैतिक विचारधाराओं में भेद करना कठिन काम है। ये दोनों एक दूसरे से नालबद्ध दिखाई पड़ते हैं। जहाँ तक राजनैतिक सोच और वाद का प्रश्न है ये दोनों एक ही हैं। उन पर आधारित अभियान या उन नीतियों पर चलने में कोई भेद नहीं है। भटकने और लंबे समय तक नहीं चल पाने में भी कोई अंतर दिखाई नहीं देता। ये दोनों वाक्य इस बात को उद्घाटित करते हैं कि समय के साथ बदलती दुनिया में पुरानी विचारधारा अनुपयुक्त सिद्ध होती है और व्यक्ति और उन के समूह उस में परिवर्तन या विकास चाहते हैं।
डॉ. अरविंद जी ने यहाँ प्रायोजित शब्द का भी प्रयोग किया है। इस का अर्थ है कि कुछ व्यक्ति या उन के समूह अपने हित के लिए ऐसे अभियानों को प्रायोजित करते हैं। राजनैतिक शास्त्र का कोई भी विद्यार्थी इस बात को बहुत आसानी से समझता है कि सारी की सारी राजनीति वस्तुतः व्यक्तियों के समूहों के प्रायोजित अभियान ही हैं। प्रश्न सिर्फ उन समूहों के वर्गीकरण का है। कुछ लोग इन समूहों का वर्गीकरण धर्म, भाषा, लिंग आदि के आधार पर करते हैं, हालांकि हमारा संविधान यह कहता है कि इन आधारों पर राज्य किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा। लेकिन यह संविधान की लिखित बात है, पर्दे के पीछे और पर्दे पर यह सब खूब दिखाई देता है। एक दर्शन, विचारधारा और राजनीति वह भी है जो इन समूहों को आर्थिक वर्गों का नाम देती है। समाज में अनेक आर्थिक वर्ग हैं। राष्ट्रीय पूंजीपति है, अंतराष्ट्रीय और विदेशी पूंजीपति है। जमींदार वर्ग है, औद्योगिक श्रमिक वर्ग है, एक सफेदपोश कार्मिकों का वर्ग है। किसानों में पूंजीवादी किसान है, साधारण किसान है और कृषि मजदूर हैं।  भिन्न भिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली पृथक-पृथक राजनीति भी है। सारी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई राजनैतिक विचारधारा या दल नहीं हो सकता। क्यों कि विभिन्न वर्गों के स्वार्थ एक दूसरे के विपरीत हैं। स्वयं को सारी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला या सब के हितों की रक्षा करने का दावा करने वाले दल वस्तुतः मिथ्या भाषण करते हैं, और जनता के साथ धोखा करते हैं। वे वास्तव में किसी एक वर्ग या वर्गों के एक समूह का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। ऐसा नहीं है कि जनता उन के झूठ को नहीं पहचानती है। इस झूठ का उद्घाटन भी व्यक्तियों को अपने विचार में परिवर्तन करने के लिए प्रभावित करता है।
डॉ. अरविंद जी ने आगे जो बात कही है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है, वे कहते हैं - मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है। 
हाँ, उन से सहमत न होने का कोई कारण नहीं है। किसी भी मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें ही वे मूल चीज हैं जो उस के विचारों और उन पर आधारित अभियानों को संचालित करती हैं। लेकिन अभियान एक व्यक्ति का तो नहीं होता। वास्तव में एक आर्थिक वर्ग के सदस्यों की ये मूलभूत जैवीय जरूरतें एक जैसी होती हैं जो उन में विचारों की समानता उत्पन्न करती हैं, एक दर्शन और एक राजनैतिक अभियान को जन्म देती हैं। इस तरह हम पाते हैं कि समूची राजनीति का आधार वर्ग  हैं, उस का चरित्र वर्गीय है। जब तक समाज में शासक वर्ग ही अल्पसंख्यक शोषक वर्गों से निर्मित है वह शोषण को बरकरार रखने के लिए उस का औचित्य सिद्ध करने वाली विचारधारा को प्रायोजित करता है। उस का यह छद्म अधिक दिनों तक नहीं टिकता और उसे अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए विचारधारा के विभिन्न रूप उत्पन्न करने होते हैं।
डॉ अरविंद जी की टिप्पणी पर बात इतनी लंबी हो गई है कि शेष मित्रों की महत्वपूर्ण टिप्पणियों पर बात फिर कभी।

56 टिप्‍पणियां:

Rangnath Singh ने कहा…

बेहतरीन बहस सामने रखी है। लेकिन हम सोचते है कि यहां कहने से ज्यादा सुनना ठीक रहेगा।

Udan Tashtari ने कहा…

साक्षी भाव से विमर्श देख रहे हैं.

संगीता पुरी ने कहा…

कुछ व्यक्ति या उन के समूह अपने हित के लिए ऐसे अभियानों को प्रायोजित करते हैं।
पर जनता वैचारिक दृष्टि से मजबूत हो तो वैसे अभियानों का साथ नहीं दे सकती .. वह उनका साथ देगी जो समाज के हित के लिए काम करना चाहते हैं .. ऐसे लोग भी हर काल में दुनिया में मौजूद होते हैं .. पर अधिकांश समय लोग गुमराह होते हैं !!

honesty project democracy ने कहा…

जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है | एकदम सही है -

चूँकि इस जरूरत के बिना किसी भी इन्सान का जीवन खतरे में पर जाता है इसलिए कोई भी अपने जीवन को बचाने के लिए कोई न कोई रास्ता अपनाने को मजबूर हो जाता है और आज भ्रष्ट नेता इन्सान के इसी मजबूरी को अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग कर रहे है | भ्रष्ट राजनेता पूरी इंसानियत के दुश्मन हैं इनका रास्ता रोकने के लिए हम सब को एकजुट होना ही परेगा |

Baljit Basi ने कहा…

मनुष्य की मूलभूत जरूरतें और विचार पथ के दरमियान कोई सीधा यांत्रिक सम्बन्ध नहीं है. लाखों लोग धर्म से परेरत मिथ्या उदेशों(बेहतर जून, हूरों का मिलना अदि) के लिए मर मिटते हैं. अगर ऐसा होता तो शोषण कभी का खत्म हो जाता.जन समूह वर्गों में बंटा रहता है. व्यक्ति की जरूरतें उसके वर्ग की जरूरतें हैं और वर्ग के एक्शन में प्रकट हों तो ही खलासी होती है.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

कितने के बाद बस कर दिया जाये यह समझना सबके बस की बात नहीं । किसी के पास संसाधन की कमी है तो किसी के पास उसे साधने की क्षमता की ।

Ashok Kumar pandey ने कहा…

इस बहस में अब मैं भी श्रोता की भूमिका लेना पसंद करुंगा…रोचक

उम्मतें ने कहा…

(1)
पहले रंगनाथ सिंह अब अशोक कुमार पांडेय जी भी ...ना खालिस श्रोता होना नहीं चलेगा , बिल्कुल भी नहीं !

(2)
टिप्पणियां कम हो चली हैं शायद वहां जश्न का 'उतारा' हो रहा होगा :)

(3)
बलजीत जी आपके तर्क हमें पसन्द है पर यह स्थिति समाज के विकसित (विकासशील) रूप मे मान्य / द्रष्टव्य है , समाज विकास के आद्य बिन्दु मे अरविन्द जी की बात जमती है !

L.Goswami ने कहा…

मनुष्य की जैविक वृतियाँ निसंदेह महत्व रखती है परन्तु उन पर हद से अधिक ध्यानाकर्षण करवाने के पीछे भी कुछ प्रायोजित वजहें हो सकती है ..होती ही है ...यह पूरी मानव सभ्यता को मनुष्यता से वंचित करके पशुता की ओर जबरन प्रेरित का प्रायोजित उपक्रम है और मुझे इसमें कोई संदेह नही है. यह होता आया है की अक्सर लोग असामान्य मनुष्यों के मनोविज्ञान को सामान्य मनुष्यों पर भी लागु करते आये हैं ...यह सही नही है ..सामजिक रूप से यह वृति मनुष्य ओर समाज के भविष्य के लिए घातक है.लगे हाँथ यह भी कह ही दूँ सहज वृति सीखी हुई प्रक्रिया होती है.इसके आधार पर किसी असामान्य व्यवहार को सही नही ठहराया जा सकता.

Ashok Kumar pandey ने कहा…

अली भाई बड़े हैं और लवली जी ब्लागजगत के कुछ प्रमुख सहयोद्धाओं में से … एक ने कमेंट में आदेश दिया तो दूसरे ने मेल से…आप ने भी जो संदेश दिया उसका आशय यही था…तो मुझे कहना ही पड़ेगा

पहली बात तो यह कि विचार या 'वाद पर लंबे समय तक चलना' ऐसे लगता है कि कोई वाद या विचार कोई रूढ़ और स्थिर प्रत्यय होता है तथा इसमें समय के साथ अपडेशन नहीं होता। यह एक ग़लत अवधारणा है। दूसरा वाद केवल राजनीति तक सीमित नहीं होता उसके सांस्कृतिक तथा सामाजिक आयाम होते ही हैं। इसी आधार पर जैवीय वृत्तियों का दास होना जैसी बात ख़ारिज़ होती है। मनुष्य के विचार,उसकी सोच,उसका सामाजिक व्यवहार अपने समय की प्रभावी विचारधारा से तय होता है। इसीलिये जो एक काल खण्ड की सहज वृत्ति होती है वही दूसरे कालखण्ड में अनैतिक हो जाती है। यह 'सहज बोध' भी उसीसे निर्धारित होता है और बदलता रहता है।
यहीं व्यक्तिवाद के प्रतिनिधि तौर पर जो 'मूलभूत ज़रुरतेम पूरी होने तक एक मार्ग पर रहने और फिर दूसरी पकड़ लेने' की बात कही गयी है वह अपना रंग दिखाती है। दरअसल ये राहें सामूहिक चुनाव होती हैं और मूलभूत ज़रूरतें उत्पादन संबधों की स्थिति और उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर से तय होती हैं। अब इसी क्रम में वर्गों का विकास होता है, वर्ग हितों का टकराव और जो वर्ग अधिक संगठित और प्रभावी होता है वह जीत हासिल कर अपनी नीतियां लागू करता है। यह इतनी मनोगत चयन की अवधारणा नहीं है।

L.Goswami ने कहा…

@अशोक जी - आपने निवेदन का मान रखा आभारी हूँ. बदलाव का परचम थामने वालों का चुप रहना सही नही होता ...प्रतिरोध का अस्तित्व होना ही चाहिए ...धन्यवाद
---------------------
असंगठन भावनात्मक रूप से रुखा बनता है ..सामाजिकरण नही ..आप मनुष्य के साथ रहेंगे तब ही भावनाओं के उद्गम को उसके उत्स को ..उसके प्रतिकार को समझ पाएंगे ..इस जगह ..मानव होने और समष्टि में होने में कोई फर्क नही है.इन्सान प्रकृति से अकेले नही लड़ पता इसलिए ही उसने संगठन बनाया ..अब अपेक्षाकृत हालत अधिक सरल हैं इसलिए धीरे धीरे इसका विखंडन हुआ सा लगता है...पर ऐसा होगा नही संकट फिर आयेंगे उसे अस्तित्व के लिए संगठित होना होगा. उसे जैविक आवश्यकताओं को सही तरीके से पूरा कारते हुए समष्टि के अनुकूल होना ही होगा.
अकेले मनुष्य अगर सामान्य रह पाता तब विकसित देशों के व्यक्तिवादी परिवेश में ऐसी घटनाएँ क्यों होती की एक सुविधा सम्पन्न मनुष्य गन लेकर निकलता और बिना कारण सब को मार डालता जो भी सामने दिख पड़े ?
क्या आत्म गत चेतना और सेल्फ एक्चुवलाइज़ेसन ने उसे नही रोका ...ऐसी स्थितियां क्यों आई ..क्यों मनोविज्ञान में हम रोगों से मुक्ति पाने के लिए उसे सामाजिकता की ओर मोड़ते हैं ...?

हम ऐसे क्यों हों की किसी विचारधारा से असुरक्षित महसूस करें ..चाहें वह समाजवाद हो ..मार्क्सवाद हो या राष्ट्र वाद ... क्या ऐसा कोई आधार होता है जो निरपेक्ष बनाये ...?
कोई भी इन्सान टापू के मध्य बैठा हुआ ..एकमात्र जीवित बचा मनुष्य नही है ..यह क्षणिक विराग है ..जो स्वाभाविक भी है ...उसे वापस आना ही होगा. व्यक्तिवादी चेतना को समष्टि का विरोधी नही होना चाहिए .

Rangnath Singh ने कहा…

अली भाई,
मैंने सुनने का विकल्प इसलिए चुना कि मैंने इस संबंध में कुछेक किताबें पढ़ी हैं। कुछ विचार भी किया है। फिर भी मेरी कोशिश रहती है कि मैं उसी विषय में बहस में पड़ु जिसमें मैं उसमें हुए अद्यतन विकास की सीमा तक जा सकूं। फिर भी आपने नाम लिया है इसलिए.....

सबसे पहली बात यह कि....यह कथन आत्मविरोधी है। अपनी जैविक जरूरतों तक सिमटे हुए प्राणी को बैल,गाय या चिड़िया तो कहा जा सकता है लेकिन मनुष्य नहीं !! मुनष्य भी दूसरे प्राणियों की तरह अपनी जैविक जरूरतों की पूर्ति के अभाव में अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सकता। लेकिन एक बार अपने जैविक जरूरतों की न्यूनतम सीमा रेखा पार करते ही वह सर्जनात्मक और समूहबद्ध होने लगता है।

मनुष्य यदि अपनी जैविक जरूरतों तक सिमटा होता तो ज्ञान-विज्ञान में यह अभूतपूर्व विकास नहीं दिखायी देता। सभी जानते हैं कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विचारकों,नेताओं,कलाकारों ने अपनी जैविक जरूरतों का अतिक्रमण करते हुए ही दुनिया को बेहतर बनाने का प्रयास किया। यह बात सिर्फ सुसंस्कृत समुदायों के लिए नहीं कही जा रही है। आदिवासी समाज या कबिलाई समाज भी प्रोद्यौगिक विकास भले न कर पाए हों लेकिन अपने समुदाय का संस्कृमिकरण वो जरूर करते हैं। भले ही उनकी संस्कृति हमसे बहुत भिन्न हो।

यह तय है कि जैविक जरूरतों को पूरा किए बिना मनुष्य जी नहीं सकता लेकिन यह भी उतना ही तय है कि सिर्फ जैविक जरूरतों को पूरा करके भी मनुष्य जी नहीं सकता।

उम्मतें ने कहा…

@ रंगनाथ जी और भाई अशोक जी
चिंतनशील महानुभावों का मौन एक तरह से विषय के साथ अन्याय जैसा ही होता है इसलिये आप दोनों से आग्रह किया ! हूँ... हाँ...में समाप्त होने से बेहतर है कि बहस ही ना हो ! आपका आना विषय/मुद्दे पर चिंतन को सार्थक करता है ! आपसे सीखने का अवसर भी मिलता है ! शुक्रिया !

"समाज विकास के आद्य बिन्दु मे अरविन्द जी की बात जमती है" कह कर मैंने भी यही संकेत देने की कोशिश की थी कि समाज विकास का आद्य बिंदु मनुष्य की पशुता का स्तर है और जैविकता का फार्मूला इसी स्तर पर फिट बैठता है इसके बाद नहीं ! रंगनाथ जी ने मेरी बात की पुष्टि ही की है ! विकास क्रम में , जहां भी समाज को विकसित कहा जा सके वहां पर , जैविकता द्वैतीयक हो जाती है और सामाजिकता प्राथमिक ! अतः वर्ग चेतना के ऊपर जैविकता के दावे को अधिमान्य नहीं किया जा सकता ! अशोक जी की बात से शतप्रतिशत सहमत कि वाद कोई रूढ़ प्रत्यय नहीं है ! फिलहाल द्विवेदी जी का इंतज़ार है कि वे क्या कहेंगे ?


@L.Goswami
एल.गोस्वामी पढ़कर दुविधा हुई फिर प्रोफाइल देखकर तसल्ली !

L.Goswami ने कहा…

@अली जी - ऐसा क्या..व्यक्तित्व का विचारों से सम्बन्ध नही ही देखा जाए तो बेहतर ...इससे दृष्टि निरपेक्ष नही रह पाती :-)

उम्मतें ने कहा…

@L.Goswami
आप जो बेहतर समझें !
हम तो विद्यार्थी हैं,निरपेक्षता की आदत पाले बैठे हैं :) ...आदर सहित !

Unknown ने कहा…

एक गंभीर संवाद यहां चल रहा है। समय को भी यहां आहूति देना उचित लग रहा है।

उल्लिखित टिप्पणी में यह बात ऐतिहासिक सच्चाई है कि ‘मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लंबे नहीं चल सकता’। यहां प्रायोजित नीतियों से अभिप्राय अगर यह है कि परिस्थितियों के विरूद्ध जबरन थोपे जाना वाला कोई सामाजिक नियमन है तो कथन के इस हिस्से भी उचित ठहराया जा सकता है, परंतु परिस्थितिगत उद्भूत सामाजिक नियमन भी प्रायोजित सा लग सकता है भले ही वह एक विशद ऐतिहासिक सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति के मद्देनज़र अस्तित्व में आया हो। अतएव इसे आंशिक सहमति के रूप में दर्ज़ किया जाना चाहिए।

यह तो हुई कथन की बात। परंतु सम्माननीय मानवश्रेष्ठ की इस निष्कर्ष की कारणात्मक व्याख्या पर जो विचार उन्होंने लगता है थोड़ी जल्दबाज़ी सी में प्रस्तुत कर दिये हैं, उन पर संवाद की पर्याप्त गुंजाईश थी और यहां कई मानवश्रेष्ठों ने इसीलिए बात को भली-भांति आगे बढ़ाया है और महत्वपूर्ण इशारे किये हैं।

कोई भी वाद या राजनैतिक सोच ऐसे ही आसमान से नहीं टपक पड़ते, या व्यक्तिगत चेतनाओं में उतर नहीं आते। वे समाज के ऐतिहासिक क्रम-विकास की अवस्थाओं में तात्कालीन परिस्थितियों की निश्चित अभिव्यक्ति होते हैं। विकास की अवस्थाओं में गतिरोध उत्पन्न होने पर समाज की प्रगतिशील शक्तियों और प्रतिगामी या यथास्थितिवादी शक्तियों के आपसी अंतर्द्वंद और संघर्ष नई संभावनाएं, नये वाद, नई राजनैतिक सोच पैदा करता रहता है। जाहिर है किसी एक वाद और राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था के तहत मनुष्य तभी तक चल सकता है, जब तक कि वह सामाजिक विकास की अग्रगामी अवस्थाओं को तुष्ट करता रह सकता है। विकास की एक निश्चित सी अवस्था में पहुंचने के बाद उत्पादन और सामाजिक विकास के साथ यह प्रयुक्त प्रणाली परिस्थितियां बदलने के कारण लयबद्ध नहीं रह पाती और जाहिरा तौर पर ढ़ांचागत आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता पैदा होती है, और अवश्यंभावी तौर पर प्रणालियां बदल दी जाती हैं। नये सामाजिक और राजनैतिक ढ़ांचे अस्तित्व में आते हैं। इतिहास यही हमें सिखाता है। यह किसी राजनैतिक सोच से उद्भूत अभियानों का सोच और उद्देश्यों से भटकना नहीं वरन नई सामाजिक अवस्थाओं और प्रणालीगत आवश्यकताओं की पूर्ति में उसका सक्षम नहीं रहना है।

यह तो हुई आधारभूत बात, परंतु जिन सम्दर्भों के मद्देनज़र वह टिप्पणी की गई थी, जाहिर है समय की बात वहां से भटक गई है, परंतु इन आधारों को समझे बिना उन संदर्भों की भी सटीक आलोचना नहीं की जा सकती। उन संदर्भों में यह सही है कि सोच और उद्देश्यों में भटकाव हुए हैं, परंतु इसकी व्याख्या हमें परिस्थितिगत विश्लेषणों के तहत ही मिल सकती है। जाहिरा तौर पर यह परिस्थितिगत बदलावों की आवश्यकताओं के मद्देनज़र सही भूमिका तलाशने की जगह खु़द अभियानों का परिस्थिति्यों के अनुसार अनुकूलित हो जाना है, और परिवर्तनकारी धार को कुंद कर लेना है। बाकि काफ़ी कुछ खोलकर द्विवेदी जी और अन्य मानवश्रेष्ठो ने बात रखी ही है।

Unknown ने कहा…

दूसरी बात जो जैविक वृत्तियों के संदर्भ में कही गई है, उसका मूल कारण जैविक वृत्तियों को सामाजिक आवश्यकताओं के विरोधाभास में देखने के दृष्टिकोण का परिणाम है। मनुष्य अपने उद्‍गम से ही सामाजिक प्राणी है। वह समूह में ही विकसित हुआ है। उसकी सारी जैविक वृत्तियां सामूहिकता पर ही निर्भर होती हैं, समूह के बगैर उसका और उसकी जैविक वृत्तियों का कोई मतलब ही नहीं ठहरता। वह अपनी जैविक वृत्तियों का दास नहीं वरन इसे ऐसे कहा जाना चाहिए कि वह इनकी पूर्ति के लिए समूह का दास होता है। उसका सहजबोध सहज रूप से ही यह समझता है और इसीलिए वह अपनी व्यक्तिगतता, जैवीय जरूरतों की निर्बाध पूर्ति के लिए, अनुकूल सामाजिक नियमनों को अपनाता, बेकार होने पर उन्हें बेहतर करता, नये नियमन तलाशता रहता है। इसे भी पहले बाली वाली बात की रौशनाई में बेहतर समझा जा सकता है। वह उसकी स्वार्थपरक चुनाव की वैचारिक अभिव्यक्तियां मात्र नहीं होती, वरन नई विकसित हो रही ठोस परिस्थितियों के कारण उत्पन्न हुई निश्चित आवश्यकताएं होती हैं। यहां इस पर अन्य मानवश्रेष्ठों की टिप्पणियों ने अधिकतर आवश्यक बातें कह ही दी हैं।

सम्माननीय मानवश्रेष्ठ की इस संदर्भ में की गई बात तात्कालिक परिस्थितियों के एक काल विशेष के लिए मनुष्यों की उलझनों और किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थितियों का सटीक चित्र तो प्रस्तुत करती हैं, परंतु अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में मनुष्य ने हमेशा ठोस परिस्थितियों की ऐतिहासिक आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा पकड़ी है, विचारों और वादों को पैदा किया और अपनाया है, और क्षणिक भटकावों के बावज़ूद अपने गतिरोधों से सही तरीके से निपटने और आगे बढ़ने की राहें खोज ही निकाली हैं।

काफ़ी लंबा हुआ। यहां समय की दिलचस्पी का उद्देश्य इस उल्लिखित टिप्पणी में अवस्थित दार्शनिक और ऐतिहासिक पक्षों को थोड़ा अधिक स्पष्ट करना मात्र है, जो जरूरी लगा।

शुक्रिया।

Arvind Mishra ने कहा…

बाप रे ..जबरदस्त ...दिनेश जी आप सरीखा शायद ही कोई दूजा हो ..कम से कम ब्लॉगजगत में ....गंभीर चिंतन के प्रति आपकी ईमानदार उन्मुखता प्रभावित करती है -
बहुत गंभीर और रोचक बहस है -अब देखिये न हिन्दू सनातन धर्म में गाय पूज्य है मगर कसाई के हाथ उसे एक हिन्दू ही तब बेचता है जब बेचारी असहाय हो रहती है .....क्या यह एक उदाहरन हमारी आंख खोलने को पर्याप्त नहीं है ?
लवली जी पता नहीं किस मानवता और मनुष्यता की बात करती हैं -मुझे तो पता नहीं कि जैवीयवादी किस प्रायोजन में है मगर उनका प्रबल विरोध करने वालों की एक लम्बी परम्परा रही है -डार्विन भी उनसे अछूते नहीं बचे -विरोध का दर्शन ' जैवीय निर्धारण वाद ' के नामकरण -जुमले में छुपा है.मनुष्य के सहज बोध मूलतः तो आनुवंशिक होते हैं मगर हाँ बहुत कुछ अधिगम (सीखने ) से परिमार्जित होते हैं -मगर जैवीय सुरक्षा के लिहाज से -मैं लवली जी से आमुख इस पर संवाद करना चाहता हूँ -आप रेफरी बने तो -उनकी और से समय ,मुक्ति(आराधना ) भी रह सकते हैं
समय ने यहाँ भी आहुति (आशय हविदान है ) दिया है -और सभी विचारकों और आपका लाख लाख शुक्रिया

Arvind Mishra ने कहा…

दिनेश जी ,
इस विषय को आगे भी चर्चा में लिया जा सकता है

L.Goswami ने कहा…

माननीय अरविन्द जी को ज्ञात हो ...लवली को अभी किसी के सहयोग या अनुमोदन की आवश्यकता नही पड़ी है किसी बहस में. हर वाद या परंपरा का विरोध होता रहा है. मैंने पूरी बात साफ लिखी है उपर ..तथापि जिसे आपके वितंडा वाद में विश्वाश हो वह आपसे विवाद करे तब उचित है.जब मुझे लगेगा कुछ कहना चाहिए मैं कह दूंगी .चर्चा करे आप लोग ..वैसे भी चर्चा का मतलब चर्चा होता है ..समय या मुक्ति मेरा पक्ष लेंगे ...या की कोई आपका, यह गुटबाजी जरा मुझे हजम नही हुई.

Arvind Mishra ने कहा…

मनुष्य की जैवीयता पर एक आलेख यहाँ पर है ...
http://mishraarvind.blogspot.com/2010/06/territorialism.html

Arvind Mishra ने कहा…

@लवली जी मालूम हो ,बातों को सकारात्मक और स्पोर्टिंग स्पिरिट में भी लिया जाना एक स्वस्थ परम्परा है ...
समय इस विषय के धुरंधर हैं -श्रम विभाजन के इतिहास आदि पर उनकी पाठ पुस्तकीय पकड़ है ...और मुक्ति जी जैव निर्धारण वाद के विरुद्ध है ..और आपके बौद्धिक आग्रहों से भला कौन अपरिचित रहा है ...आईये हम सार्वजनिक परिवाद कर ही लें ...इसके अलावा और कोई सूरत अब नजर नहीं आती ..और शास्त्रार्थ भारतीय परम्परा के आनुकूल भी है ..दिनेश जी रेफरी रहेगें ही ..फिर यह क्रोधभरी असहमति क्यूं ?
मेरी टिप्पणी बहुत सुचिन्तित थी ..... और मैं अब भी इस मुद्दे पर आपसे सार्वजनिक परिवाद पर कायम हूँ!

L.Goswami ने कहा…

@अरविन्द जी
कृपया साफ करे ..मेरे द्वारा लिखी किन मान्यतों से आपका विरोध है ? मैंने आपका लेख देखा पर समझ नही पाई ..मेरे लिखे शब्द कोट करिए ..जिन्हें आप गलत समझते हैं ...या की जिनमे आपको प्रतिवाद है.

L.Goswami ने कहा…

...और मेरे स्पष्ट शब्द...या वाक्यांश कोट करियेगा ,चाहें वह ब्लॉग जगत में कहीं भी बिखरे पड़े हों ..आपका स्वागत है ..यथा संभव मैं आपके उस भ्रम का निवारण करुँगी...जो आपको इस अंतिम स्थिति पर खिंच लाया है.

Arvind Mishra ने कहा…

@एल. गोस्वामी जी ,
अब आपसे केवल आमुख शास्त्रार्थ में ही कुछ निर्णय हो पायेगा!
कोई एक अन्तर्विरोध हो तो गिनाऊ ?
पोस्ट और टिप्पणियों के जरिये यह विवाद नहीं सुलझता दीखता अब !
हम कहीं सार्वजनिक शास्त्रार्थ स्थल नियत कर सकते हैं -झारखंड से कोटा के मध्य कहीं भी ..
शास्तार्थ का मुद्दा वही आपका प्रिय विषय होगा -
प्रकृति पर पुरुष का अधिपत्य ,उसकी जैविकता और सांस्कृतिक विरासत
(मनोविज्ञान और प्राणी व्यवहार अलग क्षेत्र /विषय हैं ,दोनों का पृथक अध्ययन होना चाहिए -नहीं तो समझ की भयंकर भूले होती हैं जैसे आप कहती हैं की सहज बोध सीखा व्यवहार होता है -सामान्य सी बात है कि कुछ अगर सहज बोध है तो फिर वह सीखा हुआ क्योंकर हुआ ? हाँ सहज बोध को उद्वेलित ,सटीक और परिपक्व करने के लिए बड़े जीवों में सीखने की जरूरत है जबकि निम्न कोटि के जीव बिना चैतन्यता के सहज बोध से ही पूरा जीवन यापन कर डालते हैं -बच्चे को मन का थन /स्तन ढूँढने में सिखाने की जरूरत नहीं है -मनुष्य में भी नहीं .....
ऐसे ही आपके चिंतन के कई अंतरालों /विस्पंदों पर आपसे आमुख वार्ता का प्रस्ताव है -
थोडा वर्तनी पर भी अभी परिश्रमं जारी रखें -
और अध्ययन की जरूरत तो आपको ही नहीं हम सब ही को है अनवरत और निरंतर ..
और हाँ हम किसी अपस्मार या तुरीयावस्था में सौभाग्य या दुर्भाग्य से अभी तो नहीं पहुंचे हैं -इसकी चिंता आप न करें !

Arvind Mishra ने कहा…

@कृपया सुधार कर लें -
*शास्त्रार्थ ,
*पुरुष के स्थान पर मनुष्य
मनुष्य और प्रकृति

Arvind Mishra ने कहा…

*माँ

L.Goswami ने कहा…

मैंने कहीं नही लिखा की सहज बोध सीखी प्रक्रिया है ..आप हमेशा सहज बोध और सहज वृति को पर्याय के रूप में लेते आये हैं .. कृपया आत्म मुग्धता एक ओर रख कर मेरी लिखी टिप्पणी पढ़े ...एक वाक्य तो आप मेरी लिखी मान्यता को गलत कोट कर न सके ....आगे मुझे आपसे वार्ता में कोई दिलचस्पी नही है.
रही बात वर्तनी सुधार की ..उसकी मुझसे अधिक आवश्यकता आपको दिख पड़ती है.

L.Goswami ने कहा…

किसने आपसे यह रहस्य कह दिया की यह मेरा प्रिय विषय है - "प्रकृति पर पुरुष का अधिपत्य ,उसकी जैविकता और सांस्कृतिक विरासत"
कृपया अपने भ्रमो को जबरजस्ती मेरे उपर आरोपित न किया करे ..

मानव के व्यवहार का अध्ययन मनोविज्ञान में ही किया जाता ई ..और वो ही मेरा क्षेत्र है.

L.Goswami ने कहा…

*ही किया जाता ई = ही किया जाता है

Arvind Mishra ने कहा…

@मैं तो प्राणी विज्ञान का एक अदना सा जिज्ञासु पाठक रहा हूँ -
जहां सहजबोध कहिये या वृत्ति बात एक ही है -
सहज वृत्ति की जड़ें आनुवंशिकी में निहित होती हैं
प्रकृति पर मानव के आघात पर यत्र तत्र आपने काफी लिखा है और
उसकी पशुता के परे सांस्कृतिक उपलब्धियों का बखान यत्र तत्र बिखरा है ब्लॉगजगत में .
ठीक कीजिये -
दिख पड़ती है.=दीख पड़ती है

L.Goswami ने कहा…

@जहां सहजबोध कहिये या वृत्ति बात एक ही है -
सहज वृत्ति की जड़ें आनुवंशिकी में निहित होती हैं - इस पर सिर्फ हँसा जा सकता है.


यह मेरी अंतिम टिप्पणी है ..और इसके बाद मैं आपसे संवाद रखने में बिलकुल भी रूचि नही रखती. भ्रम मिश्रित पूर्वाग्रह के साथ शेष जिंदगी चैन से महान होने का भ्रम पाले रहें ..शुभकामनायें.

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

बहुत गम्भीर बहस चल रही है। मेरी समझ से इसके बीच आना मेरे वश की बात नहीं। पर लवली जी को ''मनुष्य की जैविक वृतियाँ निसंदेह महत्व रखती है परन्तु उन पर हद से अधिक ध्यानाकर्षण करवाने के पीछे भी कुछ प्रायोजित वजहें हो सकती हैं'' के सम्बंध में एक सलाह देना चाहूँगा कि आप कृपा कर एकलव्य, भोपाल द्वारा प्रकाशित 'समर हिल' पुस्तक अवश्य पढ़ें, हो सकता है कि उससे आपकी सोच में कुछ परिष्कार आए।

L.Goswami ने कहा…

@जाकिर जी - २०-२५ किताबों के नाम मैं भी बता सकती हूँ. वह कोई समाधान नही है.

Arvind Mishra ने कहा…

सहज वृत्ति के अंगरेजी समानार्थी शब्द को बतायेगीं क्या ?
आत्ममुग्धता ,महानता का आरोपण मुझ पर क्यूं ? मैं तो एक साधारण सा व्यक्ति हूँ -अप सरीखा विशिष्टता बोध मुझमें कहाँ ?
मनुष्य के मनोभावों का अध्ययन बिना उसके पाशविक अतीत और संदर्भों के समीचीन नहीं है !
नकचढ़ेपन और अज्ञानता के साथ लम्बी पहाड़ सी दुखभरी और निरर्थक जिन्दगी काटने के बजाय महानता के बोध के साथ शेष अल्प जीवन काट लेना श्रेयस्कर है -
यद्यपि शुभाकांक्षी होने के नाते मैं आपके लिए ऐसी कोई अभिशापित भावना नहीं रखता !
आप ब्लॉग पर बहस से एक बिंदु तक जाकर भाग लेगीं इसलिए ही मैं आमुख बहस का प्रस्ताव रख रहा था ...
@जाकिर भाई आप एक बताएगें और वे २४ -२५ गिना देगीं ....आप २४ -२५ बतायेगें (जो वस्तुतः आप बतायेगे नहीं ) तो वे २४० -२५० बता देगीं !
यह मायने नहीं रखता, मायने यह रखता है कि कितनी किताबों की अंतर्वस्तु आपने हृदयंगम कर रखी है ? या आप फिर फिर पढ़ते रहते हैं ?

L.Goswami ने कहा…

बोध - Intuitive
वृति - Instinct
http://www.oldandsold.com/articles33n/instinct-5.shtml
..और कृपया कुत्तों के उपर हुए शोध का परिप्रेक्ष्य न दें ..इंसानों का अध्ययन अलग से किया जाता है

L.Goswami ने कहा…

आप जो महिलाओं को पिपहरी कह कर संबोधित कर चुके भूत काल में ..इतने आक्रामक मनुष्य के सामने जाकर मुझे फिजिकल वायलेंस का खतरा सताने लगता है . अभद्र व्यवहार और असभ्यता आपके लिए सामान्य बात है ..मैं ऐसे किसी से क्या बात करुँगी

Arvind Mishra ने कहा…

इंस्टिंक्ट -अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे !
मैं इसी की बात कर रहा था ....
बछड़ा गाय के थन के पास इसी इंस्टिंक्ट के चलते ही जन्मते ही पहुँच जाता है ,
इंस्टिंक्ट का मूल आनुवंशिक होता है उच्चतर प्राणियों में इसे परिमार्जित करने में अधिगम की भूमिका होती है ?
अभी भी आपको यह हास्यास्पद लगता है तो आपके इस वृत्ति का कोई इलाज नहीं है !

Arvind Mishra ने कहा…

@ इंसानों का अध्ययन पृथक करना ही मनोविज्ञान की एक बड़ी ज्ञात कमजोरी है !
अभी आपको और अध्ययन की जरूरत है -नहीं तो विचारों की ऐसी ही एकांगिता बनी रहेगी !
वैसे ज्ञान के प्रति आपका आग्रह प्रशंसनीय है !

L.Goswami ने कहा…

साथ दिया लिंक भी देखे ...मनोविज्ञान में सहज वृति , बहुत जल्दी में होते हैं ..फैसला सुनाने के ...यह कुते बंदरों का अध्ययन नही है

L.Goswami ने कहा…

यह मैं आपके बारे में भी कह सकती हूँ ...जीव विज्ञान से इतर मनुष्य के व्यवहार का अध्ययन आपके लिए आवश्यक है ..अन्यथा आप जानवरों तक ही सीमित रहेंगे. कृपया जीव विज्ञान में अपना मत प्रकट करे ..मनुष्य के व्यवहार के विज्ञान ..यानि मनोविज्ञान में अपनी सीमाएं स्वीकार कर लीजिये . वरना यह अज्ञानतापूर्ण अहंकार बना रहेगा.

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

@Arvind Mishra & L.Goswami
मित्रों,
एक विमर्श के लिए मुझे यह रीति सही नहीं लग रही है।
पहले तो हम अपने आग्रहों को छोड़ें। हमारी भाषा एक दूसरे के प्रति सम्मानजनक हो। अपनी अपनी बात को संपूर्णता में कहें। अच्छा तो ये है कि अब जो भी मतभेद सामने आए हैं उन पर अरविंद जी और लवली जी अपने अपने आलेख लिखें और प्रकाशित करें। दोनों ही एक दूसरे के आलेखों को गंभीरता से पढ़ें और फिर उन की गंभीर आलोचना लिखें।
आशा है दोनों विद्वानों को मेरा यह आग्रह स्वीकार्य होगा।

उम्मतें ने कहा…

द्विवेदी जी ने आगे कुछ प्रविष्टियां डाल दीं तो हमने सोचा इस बहस का समापन हुआ ...या समापन चाहते हैं वे ! फिर हम पलट कर नहीं आये ! आज अचानक इस प्रविष्टि के नीचे टिप्पणियों की संख्या देखी तो उत्सुक्तावश पुनः चले आये ...अब खेद पूर्वक निवेदन है कि बहस को विषय से बाहर व्यक्तिगत आक्षेपों तक नहीं जाना चाहिए था ! इस बहस में हमारा पक्ष अब यही है ! आदर सहित !

L.Goswami ने कहा…

दो लेख मैं लिख चुकी हूँ द्विवेदी जी .. जिसमे मैंने सम्पूर्णता से इन पक्षों पर प्रकाश डाला है ..
http://sanchika.blogspot.com/2010/03/blog-post.html

मित्र अरविन्द मिश्र मनुष्य को पशु साबित करके उसकी पाशविक /आक्रामक वृति को जबरन सही ठहराने में लगे हुए हैं. जिसके पीछे उनके अपने आग्रह है ..जैविक आवेगों को मैंने कभी कम करके नही आँका ..उस लेख में यह साफ लिखा है की वह प्राथमिक जरुरत है ..पर उसके बाद मनुष्य पशु नही रह जाता ... अब आगे मुझे कुछ भी नही कहना .

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

@लवली जी,
जिस आलेख का आप ने लिंक दिया है, संभवतः अरविंद जी ने उसे नहीं पढ़ा है क्यों कि वहाँ उन की टिप्पणी उपलब्ध नहीं है। दूसरे आलेख का लिंक भी दें तो दुरुस्त रहेगा।

L.Goswami ने कहा…

http://sanchika.blogspot.com/2010/04/blog-post.html

Arvind Mishra ने कहा…

@In the book An Instinct for Dragons[7] anthropologist David E. Jones suggests a hypothesis that humans just like monkeys have inherited instinctive reactions to snakes, large cats and birds of prey.
http://en.wikipedia.org/wiki/Instinct
]*अभद्र व्यवहार और असभ्यता आपके लिए सामान्य बात है
*अज्ञानतापूर्ण अहंकार!
और अब सामान मनसा नारियों के आह्वान का एस ओ एस !
क्या है यह ?

रेफरी रेफरी रेफरी ......

Arvind Mishra ने कहा…

@द्विवेदी जी ,
आदेश शिरोधार्य बंधुवर ,
साई ब्लॉग पर आप आमत्रित है -
कल सुबह तक आप इथोलोजी और साईकोलोजी के अंतर्द्वंद्वों और अंतर्विरोधों
और इनसे जुडी अज्ञानता पर पोस्ट पायेगें !
अब चूंकि यहाँ बहस करने की कोई गुंजायश नहीं शेष है आपको धन्यवाद देते हुए प्रस्थान करता हूँ !

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

@लवली जी,
दोनों लिंक देने के लिए धन्यवाद!
@डॉ. अरविंद जी
मेरा आग्रह है कि, लवली जी ने जिन दो आलेखों के लिंक दिए हैं, उन्हें अवश्य पढ़ लेना चाहिए।
साई ब्लाग वाले आलेखों की प्रतीक्षा रहेगी।

L.Goswami ने कहा…

The study of monkeys and apes, humanity’s closest relatives has threatened the classical view. The monkey’s complex social interactions are key to understanding sex and reproduction in our primitive relatives .
- Barry Keverne ( Director of Research in Behavioural Neuroscience and Director of Sub-Department of Animal Behaviour)
इंसानों की बात कीजिये .. ऐसे १५-२० शोध परिप्रेक्ष्य मैं आपको ऐसे ही दे सकती हूँ ..विकिपीडिया तो फिर भी प्रमाणिक नही है. २०-२५ साल पाहले से अब तक इसमें काफी शोध हो छुए हैं ..यह 1990 का है

L.Goswami ने कहा…

@अरविन्द जी - अब कौन भाग रहा है? मैं की आप?

खैर ..मेरी और से भी धन्यवाद ..दिनेश जी.

Arvind Mishra ने कहा…

@इस बहस में रूचि लेने वालों का साईब्लोग पर स्वागत रहेगा !

L.Goswami ने कहा…

@आशा है इंसानों के व्यवहार पर लेख मिलेगा.

Arvind Mishra ने कहा…

यहाँ पर एक आरंभिक किन्तु मूलभूत विवेचन उपलब्ध हो गया है -
http://indianscifiarvind.blogspot.com/2010/06/blog-post.html

L.Goswami ने कहा…

http://sanchika.blogspot.com/2010/06/blog-post.html

Arvind Mishra ने कहा…

उपर्युक्त लिंक पर मेरे निम्न विचार पोस्ट किये गए थे मगर उन्हें प्रकाशित नहीं किया गया ....
यह अकादमीय सहिष्णुता और स्वस्थ परम्पराओं विरुद्ध है और अपने वैचारिक विरोधी को येन केंन प्रकार उपेक्षित करने
की कुटिल नीति है -ऐसा पहले भी हो चुका है -इन हथकंडों से क्या कभी गहन विचार विमर्श हो सकता है?
मैं अपनी टिप्पणी यहाँ अभिलेखार्थ ,आगामी यथावश्यक संदर्भ और सुधी जनों के परिशीलानार्थ हेतु प्रस्तुत करता हूँ-

१-डेज्मांड मोरिस के भी कुछ मुखर विरोधी हैं ,डार्विन के भी थे .....और हैं आज भी ...फिर भी उनकी जैव विज्ञान व्यवहार शास्त्र में आज एक सम्मानजनक पोजीशन है !
२-सहज बोध/वृत्ति और अनुवर्ती प्रतिवर्त दोनों अलग विषय हैं -एक नहीं ,आप अनुवर्ती प्रतिवर्त की चर्चा कर रही है जो मूलतः आनुवंशिक उद्गम का है -हाथ से अचानक छूती चीज को सहसा उठाने का उपक्रम एक ऐसा ही अनुवर्त है -खतरनाक भी हो सकता है -हाथ से छूता रेजर ,उस्तरा पकड़ने के चक्कर में आपके हाथ को घायल कर सकता है ..जाहिर है इसमें चेतनता का कोई रोल नहीं है !
३अपने आदिवासी औरतों की संकल्पना की जांच आप उन्हें वहां से दूसरे समाज लाकर कर सकती है ! उनके समाज में एक दूसरा व्यवहार हैबिचुयेशन प्रभावी होता है -रूस के कुछ क्षेत्रों में अनावृत्त बक्श महिलायें लोगों को आकर्षित करती हैं लोग तवज्जो ही नहीं देते -नंगा बाबा नंग धडंग घूमते हैं -कोइ प्रभाव नहीं रहता -यह हैबिचुएशन है !
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