महेन्द्र नेह
आज से 82 वर्ष पूर्व, 23 मार्च 1931 को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा तत्कालीन सरकार का तख्ता पलटने का आरोप लगाकर शहीद भगतसिंह व उनके क्रांतिकारी साथी सुखदेव व राजगुरू को फाँसी के फन्दे पर लटका दिया गया। उस समय भगत सिंह की उम्र मात्र 23 साल थी। उनके दोनेां साथियों की उम्र भी इसके आस-पास ही थी। अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए जिन ताकतों ने मजबूर किया, उनमें भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है।
आज जबकि देश के 10 प्रतिशत अमीरों द्वारा देश की सम्पदा की लूटपाट और विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की साझेदारी द्वारा 90 प्रतिशत गरीब जनता को एक नई गुलामी की जंजीरों में जकड़ कर जीना मुश्किल कर दिया है, यह जरूरी हो गया है कि हम इस बारे में गंभीर चिंतन करें कि आखिर 15 अगस्त 1947 के बाद हमें किस तरह की ‘आजादी’ मिली, जिसमें अमीर और अधिक अमीर तथा गरीब और भी अधिक गरीब होते चले गये? हमें यह विचार भी करना चाहिए कि क्या अमीरी और गरीबी ईश्वर द्वारा प्रदत्त है? या फिर समाज-व्यवस्था के बदलने से अमीरी और गरीबी के इस दुश्चक्र को बदला भी जा सकता है? और यदि इसे बदला जा सकता है तो इसके तौर-तरीके क्या हैं? हमें इसके लिए क्या करना होगा?
ब्रिटिश भारत की औपनिवेशिक गुलामी से आजादी के लिए अपने-अपने ढंग से जो वर्ग कोशिश कर रहे थे, उनमें यदि एक ओर बजाज और बिड़ला जैसे पूंजीपति थे तो दूसरी और देश के छात्र, नौजवान, मजदूर, किसान, दलित और आदिवासी भी शामिल थे। ये सभी समुदाय कमोबेश ब्रिटिश गुलामी और उसके अत्याचारों से पीड़ित थे। लेकिन आजादी के सपने सबके अलग-अलग थे। यदि बजाज और बिड़ला का सपना देश में बड़े-बड़े कारखाने लगाकर देश की सम्पत्ति और श्रम को लूटकर अरबपति-खरबपति बनना था तो श्रमिकों का सपना था कि उनसे जानवरों की तरह काम न लिया जाये, उनकी मेहनत का एक हिस्सा उन्हें भी मिले और वे भी एक इन्सानी जिन्दगी जी सकें। किसानों का सपना था कि उनकी फसल जागीरदारों, जमींदारों और व्यापारियों के गोदामों में न जाकर उनके अपने घरों में आ सके। दलितों का सपना था कि उन्हें अस्पृश्यता से मुक्ति मिले तो महिलाओं का सपना था कि उन्हें दहेज की आग में जलने के बजाय पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा प्राप्त हो।
आजादी की लड़ाई के समय यद्यपि कांग्रेस-पार्टी ही प्रमुख थी, जिसके झण्डे के नीचे अमीर और गरीब-वर्ग एक साथ संघर्ष कर रहे थे, लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व पर जो लोग हावी थे, उनमें निःसंदेह ऐसे नेता थे, जिनकी प्राथमिकता पूंजीपतियों और जागीरदारों के हित थे। भले ही वे भाषणों में मजदूरों-किसानों के हितों की बात करते थे। दूसरी ओर ऐसे नेता व विचारक थे जिनके सामने यह स्पष्ट था कि यदि गोरे अंग्रेजों के स्थान पर काले भारतीय, जॉन की जगह जनार्दन आजादी के बाद सत्ता पर बैठ जाते हैं और शासन की नीतियों में कोई अंतर नहीं आता तो वह आजादी सच्ची आजादी नहीं होगी। इस तरह के विचार रखने वालों में महान कथाकार मुंशी प्रेमचन्द, क्रांतिकारी कर्तार सिंह सराबा एवं भगत सिंह आदि प्रमुख थे।
देश की जनता को सच्ची आजादी कैसे मिल सकती है, इस बारे में यदि किसी ने सबसे अधिक विचार किया और अपने विचारों को अमल में लाने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी, तो शहीद भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथी, उनकी सबसे अगली कतारों में थे। उन्होंने अपनी छोटी सी उम्र में न केवल भारत की क्रांतिकारी परम्परा और इतिहास की जानकारी प्राप्त की अपितु पूरी दुनियां के क्रांतिकारी विचारों व साहित्य का गहन अध्ययन किया। अपने समय में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलनों से शिक्षा ली तथा आजादी के बाद का भारत कैसा होगा, इसका पूरा खाका तैयार किया। आज जबकि हमारे देश के शासन पर काबिज लगभग सभी राजनैतिक पार्टियाँ भ्रष्ट, जन-विरोधी और अविश्वसनीय साबित हो चुकी है तथा अंग्रेजों की तरह ‘‘फूट डालो और राज करो’’ की नीतियों के अंतर्गत धर्म, जाति, भाषा और प्रदेश के बँटवारे के नारे देकर निजी स्वार्थों की दलदल में फँस चुकी है। क्या समय हमसे माँग नहीं कर रहा कि हम भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा स्वाधीन भारत के बारे में बनाये गये खाके को सामने रखें, उसका अध्ययन करें और उसके आधार पर वर्तमान पूंजीवादी-सामंती समाज को बदलकर एक नये जनपक्षधर समाजवादी समाज के निर्माण के लिए आगे आयें।
भगतसिंह का मानना था कि आजाद भारत में शासन की बागडोर पूंजीपति-जमींदारों के हाथों में न होकर, मेहनतकशों- श्रमिकों व किसानों के हाथों में होनी चाहिए। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट एसोसिएशन के घोषणापत्र में उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा था कि ‘‘भारत साम्राज्यवाद के जुए के नीचे पिस रहा है। इसमें करोड़ों लोग आज अज्ञानता और गरीबी के शिकार हो रहे हैं। भारत की बड़ी जनसंख्या जो मजदूरों और किसानों की है, उनको विदेशी दबाव एवं आर्थिक लूट ने पस्त कर दिया है। भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गम्भीर है। उसके सामने दोहरा खतरा है - विदेशी पूंजीवाद का एक तरफ से और भारतीय पूंजीवाद के धोखे भरे हमले का दूसरी तरफ से। भारतीय पूंजीवाद विदेशी पूंजी के साथ हर रोज बहुत से गठजोड़ कर रहा है। कुछ राजनैतिक नेताओं का डोमेनियन (प्रभुता सम्पन्न) का दर्जा स्वीकार करना भी हवा के इसी रूख को स्पष्ट करता है।
भगतसिंह का मानना था कि ‘‘इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।’’ अपने क्रांतिकारी विचारों के प्रचार के लिए ही उन्होंने ब्रिटिशकालीन संसद में एक ऐसा बम फेंका, जिससे एक भी व्यक्ति हताहत नहीं हुआ, लेकिन उसके धमाके की आवाज लंदन तक पहुंची तथा ब्रिटिश सत्ता थर्रा उठी। उन्होंने संसद में उस दिन पेश होने वाले मजदूर-विरोधी ‘‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’’ के नारे लगाये तथा अपने परचे में लिखा कि हम देश की जनता की आवाज अंग्रेजों के उन कानों तक पहुंचाना चाहते हैं, जो बहरे हो चुके हैं।
उन्होंने फांसी के फंदे पर लटकाये जाने से पहले 2 फरवरी 1931 को ‘‘क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसविदा’’ तैयार किया, जिसके कुछ अंश फांसी लगाये जाने के बाद लाहौर के ‘‘द पीपुल’’ में 29 जुलाई, 1931 और इलाहाबाद के ‘‘अभ्युदय’’ में 8 मई, 1931 को प्रकाशित हुए थे। इस महत्वपूर्ण दस्तावेज में उन्होंने भारत में क्रांति की व्याख्या करते हुए भविष्य की रूपरेखा तैयार की, जिसमें सामंतवाद की समाप्ति, किसानों के कर्जे समाप्त करना, भूमि का राष्ट्रीयकरण व साझी खेती करना, आवास की गारन्टी, कारखानों का राष्ट्रीयकरण, आम शिक्षा व काम के घन्टे जरूरत के अनुसार कम करना आदि बुनियादी काम बताये गये।
भगतसिंह का मानना था कि एक जुझारू व मजबूत क्रांतिकारी पार्टी के बिना देश में आमूलचूल परिवर्तन असम्भव हैं। उनका मानना था कि क्रांतिकारी पार्टी के अभाव में पूंजीपति जमींदार और उनके मध्यवर्गीय टटपूंजिये नेता व नौकरशाह किसी भी कीमत पर श्रमिकों का शासन पर नेतृत्व स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने देश के छात्रों व नौजवानों के नाम जेल से भेजे गये पत्र में आव्हान किया कि वे एक खुशहाल भारत के निर्माण के लिए त्याग और कुर्बानियों के रास्ते को चुनें। उस पत्र की ये पंक्तियां आज भी शहीद भगतसिंह के विचारों की क्रांतिकारी मशाल को देश के युवाओं द्वारा सम्भाले जाने की अपील करते हुई प्रतीत होती है: ‘‘इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठायें। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी महत्वपूर्ण काम है।....... नौजवानों को क्रांति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है, फैक्ट्री-कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आजादी आयेगी और तब एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।’’
- 80, प्रताप नगर, दादाबाड़ी, कोटा - 324009 (राज.) मो. 093144-16444