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शनिवार, 23 मार्च 2013

शहीद भगत सिंह और उनके क्रान्तिकारी विचार

  • महेन्द्र नेह


ज से 82 वर्ष पूर्व, 23 मार्च 1931 को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा तत्कालीन सरकार का तख्ता पलटने का आरोप लगाकर शहीद भगतसिंह व उनके क्रांतिकारी साथी सुखदेव व राजगुरू को फाँसी के फन्दे पर लटका दिया गया। उस समय भगत सिंह की उम्र मात्र 23 साल थी। उनके दोनेां साथियों की उम्र भी इसके आस-पास ही थी। अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए जिन ताकतों ने मजबूर किया, उनमें भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है।

ज जबकि देश के 10 प्रतिशत अमीरों द्वारा देश की सम्पदा की लूटपाट और विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की साझेदारी द्वारा 90 प्रतिशत गरीब जनता को एक नई गुलामी की जंजीरों में जकड़ कर जीना मुश्किल कर दिया है, यह जरूरी हो गया है कि हम इस बारे में गंभीर चिंतन करें कि आखिर 15 अगस्त 1947 के बाद हमें किस तरह की ‘आजादी’ मिली, जिसमें अमीर और अधिक अमीर तथा गरीब और भी अधिक गरीब होते चले गये? हमें यह विचार भी करना चाहिए कि क्या अमीरी और गरीबी ईश्वर द्वारा प्रदत्त है? या फिर समाज-व्यवस्था के बदलने से अमीरी और गरीबी के इस दुश्चक्र को बदला भी जा सकता है? और यदि इसे बदला जा सकता है तो इसके तौर-तरीके क्या हैं? हमें इसके लिए क्या करना होगा?

ब्रिटिश भारत की औपनिवेशिक गुलामी से आजादी के लिए अपने-अपने ढंग से जो वर्ग कोशिश कर रहे थे, उनमें यदि एक ओर बजाज और बिड़ला जैसे पूंजीपति थे तो दूसरी और देश के छात्र, नौजवान, मजदूर, किसान, दलित और आदिवासी भी शामिल थे। ये सभी समुदाय कमोबेश ब्रिटिश गुलामी और उसके अत्याचारों से पीड़ित थे। लेकिन आजादी के सपने सबके अलग-अलग थे। यदि बजाज और बिड़ला का सपना देश में बड़े-बड़े कारखाने लगाकर देश की सम्पत्ति और श्रम को लूटकर अरबपति-खरबपति बनना था तो श्रमिकों का सपना था कि उनसे जानवरों की तरह काम न लिया जाये, उनकी मेहनत का एक हिस्सा उन्हें भी मिले और वे भी एक इन्सानी जिन्दगी जी सकें। किसानों का सपना था कि उनकी फसल जागीरदारों, जमींदारों और व्यापारियों के गोदामों में न जाकर उनके अपने घरों में आ सके। दलितों का सपना था कि उन्हें अस्पृश्यता से मुक्ति मिले तो महिलाओं का सपना था कि उन्हें दहेज की आग में जलने के बजाय पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा प्राप्त हो।

जादी की लड़ाई के समय यद्यपि कांग्रेस-पार्टी ही प्रमुख थी, जिसके झण्डे के नीचे अमीर और गरीब-वर्ग एक साथ संघर्ष कर रहे थे, लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व पर जो लोग हावी थे, उनमें निःसंदेह ऐसे नेता थे, जिनकी प्राथमिकता पूंजीपतियों और जागीरदारों के हित थे। भले ही वे भाषणों में मजदूरों-किसानों के हितों की बात करते थे। दूसरी ओर ऐसे नेता व विचारक थे जिनके सामने यह स्पष्ट था कि यदि गोरे अंग्रेजों के स्थान पर काले भारतीय, जॉन की जगह जनार्दन आजादी के बाद सत्ता पर बैठ जाते हैं और शासन की नीतियों में कोई अंतर नहीं आता तो वह आजादी सच्ची आजादी नहीं होगी। इस तरह के विचार रखने वालों में महान कथाकार मुंशी प्रेमचन्द, क्रांतिकारी कर्तार सिंह सराबा एवं भगत सिंह आदि प्रमुख थे।

देश की जनता को सच्ची आजादी कैसे मिल सकती है, इस बारे में यदि किसी ने सबसे अधिक विचार किया और अपने विचारों को अमल में लाने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी, तो शहीद भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथी, उनकी सबसे अगली कतारों में थे। उन्होंने अपनी छोटी सी उम्र में न केवल भारत की क्रांतिकारी परम्परा और इतिहास की जानकारी प्राप्त की अपितु पूरी दुनियां के क्रांतिकारी विचारों व साहित्य का गहन अध्ययन किया। अपने समय में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलनों से शिक्षा ली तथा आजादी के बाद का भारत कैसा होगा, इसका पूरा खाका तैयार किया। आज जबकि हमारे देश के शासन पर काबिज लगभग सभी राजनैतिक पार्टियाँ भ्रष्ट, जन-विरोधी और अविश्वसनीय साबित हो चुकी है तथा अंग्रेजों की तरह ‘‘फूट डालो और राज करो’’ की नीतियों के अंतर्गत धर्म, जाति, भाषा और प्रदेश के बँटवारे के नारे देकर निजी स्वार्थों की दलदल में फँस चुकी है। क्या समय हमसे माँग नहीं कर रहा कि हम भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा स्वाधीन भारत के बारे में बनाये गये खाके को सामने रखें, उसका अध्ययन करें और उसके आधार पर वर्तमान पूंजीवादी-सामंती समाज को बदलकर एक नये जनपक्षधर समाजवादी समाज के निर्माण के लिए आगे आयें।

गतसिंह का मानना था कि आजाद भारत में शासन की बागडोर पूंजीपति-जमींदारों के हाथों में न होकर, मेहनतकशों- श्रमिकों व किसानों के हाथों में होनी चाहिए। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट एसोसिएशन के घोषणापत्र में उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा था कि ‘‘भारत साम्राज्यवाद के जुए के नीचे पिस रहा है। इसमें करोड़ों लोग आज अज्ञानता और गरीबी के शिकार हो रहे हैं। भारत की बड़ी जनसंख्या जो मजदूरों और किसानों की है, उनको विदेशी दबाव एवं आर्थिक लूट ने पस्त कर दिया है। भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गम्भीर है। उसके सामने दोहरा खतरा है - विदेशी पूंजीवाद का एक तरफ से और भारतीय पूंजीवाद के धोखे भरे हमले का दूसरी तरफ से। भारतीय पूंजीवाद विदेशी पूंजी के साथ हर रोज बहुत से गठजोड़ कर रहा है। कुछ राजनैतिक नेताओं का डोमेनियन (प्रभुता सम्पन्न) का दर्जा स्वीकार करना भी हवा के इसी रूख को स्पष्ट करता है।


गतसिंह का मानना था कि ‘‘इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।’’ अपने क्रांतिकारी विचारों के प्रचार के लिए ही उन्होंने ब्रिटिशकालीन संसद में एक ऐसा बम फेंका, जिससे एक भी व्यक्ति हताहत नहीं हुआ, लेकिन उसके धमाके की आवाज लंदन तक पहुंची तथा ब्रिटिश सत्ता थर्रा उठी। उन्होंने संसद में उस दिन पेश होने वाले मजदूर-विरोधी ‘‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’’ के नारे लगाये तथा अपने परचे में लिखा कि हम देश की जनता की आवाज अंग्रेजों के उन कानों तक पहुंचाना चाहते हैं, जो बहरे हो चुके हैं।

न्होंने फांसी के फंदे पर लटकाये जाने से पहले 2 फरवरी 1931 को ‘‘क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसविदा’’ तैयार किया, जिसके कुछ अंश फांसी लगाये जाने के बाद लाहौर के ‘‘द पीपुल’’ में 29 जुलाई, 1931 और इलाहाबाद के ‘‘अभ्युदय’’ में 8 मई, 1931 को प्रकाशित हुए थे। इस महत्वपूर्ण दस्तावेज में उन्होंने भारत में क्रांति की व्याख्या करते हुए भविष्य की रूपरेखा तैयार की, जिसमें सामंतवाद की समाप्ति, किसानों के कर्जे समाप्त करना, भूमि का राष्ट्रीयकरण व साझी खेती करना, आवास की गारन्टी, कारखानों का राष्ट्रीयकरण, आम शिक्षा व काम के घन्टे जरूरत के अनुसार कम करना आदि बुनियादी काम बताये गये।

गतसिंह का मानना था कि एक जुझारू व मजबूत क्रांतिकारी पार्टी के बिना देश में आमूलचूल परिवर्तन असम्भव हैं। उनका मानना था कि क्रांतिकारी पार्टी के अभाव में पूंजीपति जमींदार और उनके मध्यवर्गीय टटपूंजिये नेता व नौकरशाह किसी भी कीमत पर श्रमिकों का शासन पर नेतृत्व स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने देश के छात्रों व नौजवानों के नाम जेल से भेजे गये पत्र में आव्हान किया कि वे एक खुशहाल भारत के निर्माण के लिए त्याग और कुर्बानियों के रास्ते को चुनें। उस पत्र की ये पंक्तियां आज भी शहीद भगतसिंह के विचारों की क्रांतिकारी मशाल को देश के युवाओं द्वारा सम्भाले जाने की अपील करते हुई प्रतीत होती है: ‘‘इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठायें। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी महत्वपूर्ण काम है।....... नौजवानों को क्रांति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है, फैक्ट्री-कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आजादी आयेगी और तब एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।’’

- 80, प्रताप नगर, दादाबाड़ी, कोटा - 324009 (राज.) मो. 093144-16444

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

राज्य, उत्पीड़ित वर्ग के दमन का औजार : बेहतर जीवन की ओर -16

स श्रंखला की छठी कड़ी में ही हम ने यह देखा था कि मानव गोत्र समाज वर्गों की उत्पत्ति के उपरान्त वर्गों के बीच ऐसे संघर्ष को रोकने के लिए एक नई चीज सामने आती है। यह नई चीज आती समाज के भीतर से ही है लेकिन वह समाज के ऊपर स्थापित हो जाती है और स्वयं को समाज से अलग चीज प्रदर्शित करती है। यह नई चीज राज्य था। राज्य की उत्पत्ति इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि समाज ऐसे अन्तर्विरोधों में फँस गया है जिन्हें हल नहीं किया जा सकता, जिन का समाधान असंभव है। विरोधी आर्थिक हितों वाले वर्गों व्यर्थ के संघर्ष में पूरे समाज को नष्ट न कर डालें इस लिए इस संघर्ष को व्यवस्था की सीमा में रखे जाने का कार्यभार यह राज्य उठाता है, यही राज्य की ऐतिहासिक भूमिका है। इस तरह हम देखते हैं कि राज्य असाध्य वर्गविरोधों की उपज और अभिव्यक्ति है। राज्य उसी स्थान, समय और सीमा तक उत्पन्न होता है जहाँ, जिस समय, जिस सीमा तक वर्गविरोधों का  समाधान असम्भव हो जाता है। 

हाँ यह भ्रम उत्पन्न किए जाने की पूरी संभावना है कि यह कहना आरंभ कर दिया जाए कि वस्तुतः राज्य वर्गीय समन्वय के लिए एक औजार है। इस संभावना का इतिहास में अनेक राजनीतिकों ने भरपूर उपयोग किया और लगातार किया भी जा रहा है। लेकिन यह केवल भ्रम मात्र ही है कि राज्य वर्गीय समन्वय का औजार है। यदि उसे औजार मान भी लिया जाए तो यह बिलकुल इस्पात की उस आरी की तरह है जिस से हीरे को तराशने का काम लिया जा रहा हो। अव्वल बात तो यह है कि वर्गीय समन्वय बिलकुल असंभव है, यदि यह संभव होता तो राज्य के उत्पन्न होने और कायम रहने की आवश्यकता ही नहीं थी। वस्तुतः राज्य वर्ग प्रभुत्व का औजार है और एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के उत्पी़ड़न का अस्त्र है।  वह ऐसी व्यवस्था का सृजन है जो वर्गीय टकरावों को मंद कर के इस उत्पीड़न को कानूनी रूप प्रदान कर मजबूत बनाती है। कानूनी उत्पीड़न को बनाए रखने के लिए उसे सशस्त्र संगठनों की आवश्यकता होती है। 

गोत्र समाज में आबादी के स्वतः कार्यकारी सशस्त्र संगठन बनते थे। ये संगठन बाहरी लोगों से झगड़ों को सुलझाने के अंतिम उपकरण के रूप में उत्पन्न हो कर कार्य संपादन करते थे और जैसे ही कार्य संपादित हो चुका होता था .ये संगठन आम लोगों में परिवर्तित हो जाते थे। लेकिन जैसे ही वर्ग उत्पन्न हो गए इस तरह के स्वतः कार्यकारी संगठन असंभव हो गए। वैसी स्थिति में एक सार्वजनिक सत्ता की स्थापनी की गई जिस में न केवल सशस्त्र दल ही नहीं, जेलखाने, पुलिस, विभिन्न प्रकार की दमनकारी संस्थाएँ और भौतिक साधन भी सम्मिलित किए गए जिन का गोत्र समाज में कोई स्थान नहीं था। स्थाई फौज और पुलिस राज्य सत्ता के मुख्य उपकरण हो गए। 

लेकिन अपनी पहल पर काम करने वाली आबादी का सशस्त्र संगठन क्या संभव रह गया था? समाज के वर्गों में बँट जाने से जिस सभ्य समाज की स्थापना हुई थी वह शत्रुतापूर्ण बल्कि असाध्य रूप से शत्रुतापूर्ण वर्गों में बँटा हुआ था जिस में अपनी पहल पर काम करने वाली आबादी की हथियार बंदी से वर्गों के बीच सशस्त्र संघर्ष छिड़ जाता। इसी चीज को रोकने के लिए तो समाज के भीतर से राज्य की उत्पत्ति हुई थी। इस कारण राज्य को ऐसा संगठन चाहिए था जो अपनी पहल पर काम करने के स्थान पर उस के इशारे पर काम करे। लेकिन बावजूद इस के कि राज्य के पास फौज, पुलिस, जेलें और अन्यान्य दमनकारी संस्थाएँ थी, वह कभी भी वर्ग समन्वय में कामयाब नहीं हो सका। समय समय पर समाज में क्रांतियाँ हुईं जिन्हों ने समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग के इशारे पर काम करने वाले राज्य के उस ढाँचे को तोड़ डाला। लेकिन जो भी नया वर्ग प्रभुत्व में आया उसी ने फिर से अपनी सेवा करने वाले हथियारबंद लोगों के संगठनों को फिर से कायम करने के प्रयत्न किए और उन्हें कायम किया। केवल यह अकेली बात ही यह साबित करती है कि राज्य वस्तुतः उत्पीड़क वर्ग/वर्गों का उत्पी़ड़ित वर्गों पर प्रभुत्व बनाए रखने का औजार मात्र है।