'लघुकथा'
दिनेशराय द्विवेदी
तीन साल की कोचिंग, दो बार ड्रॉप, और अंततः आईआईटी दिल्ली का ऐतिहासिक गेट. कौशिक के कदम भारी थे – न सिर्फ बैग के बोझ से, बल्कि उस अदृश्य उम्मीद से भी जो पूरे मोहल्ले, स्कूल और कोचिंग के दोस्तों ने उस पर लाद दी थी. उम्र बीस साल, मन पचास साल का अनुभवी, और डर सत्रह साल के नए बैचमेट जैसा. उसका रूममेट राजीव अभी सत्रह का ही था – गाँव से आया हुआ, चेहरे पर एक निश्चल उत्सुकता, जैसे किसी नई दुनिया को टटोल रहा हो.
पहली मैकेनिकल लैब. प्रोफेसर ने एक सरल गियर सिस्टम टेबल पर रखा. “बताओ, यह कैसे काम करता है?”
कौशिक की नज़रें तुरंत ब्लैकबोर्ड पर टिक गईं. उसके दिमाग में फ़ॉर्मूले की लाइनें दौड़ने लगीं – वेलोसिटी रेशियो, टॉर्क ट्रांसमिशन, मेकेनिकल एडवांटेज… सब कुछ याद था, बस याद था. उसने सूत्र लिखने के लिए कलम उठाई.
तभी राजीव ने आगे बढ़कर गियर के एक पहिये को हल्के से छुआ. फिर घूम कर मुस्कराया. “सर, यह तो हमारे गाँव के कुएँ की घिरनी जैसा है. वहाँ कुएँ की जगत पर एक बड़ी घिरनी होती है जो कुएँ की ओर झुकी होती है, जिस पर रस्सी चलती है. जब हम रस्सी के एक सिरे को खींचते हैं, तो दूसरे सिरे पर बँधी बाल्टी, ऊपर आती है. यह गियर भी वैसा ही है – एक पहिया घूमता है, तो दूसरा उसकी गति और दिशा के हिसाब से चलता है. बस यहाँ लकड़ी की घिरनी की जगह धातु के पहिये पर दाँत हैं, जो दूसरे दाँत वाले पहिए को गति देते हैं.”
प्रोफेसर की आँखों में एक चमक आ गई. “ठीक कहा, राजीव. तुमने सिद्धांत को छूकर भौतिक रूप से महसूस किया. तुम्हारे लिए सिद्धांत केवल विचार नहीं रहा, बल्कि वह भौतिक यथार्थ हो गया. सारे विचार ऐसे ही भौतिक यथार्थों से जन्म लेते हैं.”
कौशिक अवाक रह गया. उसने सोचा था कि उसके पास तीन साल का अतिरिक्त ज्ञान है, पर राजीव के पास तो सत्रह साल का वास्तविक जीवन का अनुभव था – वास्तविक दुनिया का अनुभव, जहाँ सिद्धांत सिर्फ किताबों में नहीं होते, खेतों, कुओं और घिरनियों से जन्म लेते हैं.
शाम को कमरे में, कौशिक ने पूछा, “तुमने इतनी स्पष्ट तुलना कैसे की? क्या तुमने कोई खास किताब पढ़ी है?”
राजीव ने अपना साधारण सा सूटकेस खोला. उसमें कोई किताब नहीं थी, बस कुछ पुराने टूल्स थे – एक छोटा सा स्क्रूड्राइवर, दो-तीन तरह के प्लायर्स, और एक लोहे का छल्ला. “मेरे पिता कारीगर हैं, सर. मैं बचपन से मशीनों के बीच बड़ा हुआ हूँ. मैंने पढ़ा ही नहीं, पर खुद देखा है. और जो देखा, उस पर विश्वास किया.”
वह सोचने लगा, जब भी खाली समय में वह घर के बाहर जाना चाहता तभी उसके मम्मी-पापा उससे कहते –फालतू समय मत व्यर्थ करो. तुम्हें आईआईटियन बनना है. समय व्यर्थ करने के बजाय किताबों में मन लगाओ. तुम्हारा अध्ययन ही तुम्हें वैसा बना सकता है. अब उसकी समझ में आया कि मम्मी-पापा पूरी तरह सही नहीं थे. अध्ययन केवल किताबों और विचारों में नहीं होता बल्कि वह व्यवहारिक दुनिया से प्रत्यक्ष होता है.
अगले दिन, कौशिक अकेला लैब में लौटा. उसने प्रोफेसर से वही गियर सिस्टम माँगा. इस बार उसने कॉपी-पेन नहीं उठाया. उसने धीरे से गियर के दाँतों को अपनी उँगलियों से छुआ. एक पहिये को घुमाया, दूसरा अपने आप चल पड़ा.
उसकी आँखों के सामने कोचिंग के वो बोर्ड नहीं, बल्कि राजीव के गाँव का कुआँ घूम गया – रस्सी, घिरनी, पानी की बाल्टी, और एक साधारण सिद्धांत जो पीढ़ियों से चला आ रहा था.
प्रोफेसर ने पूछा, “क्या तुम्हें अब समझ आया?”
कौशिक ने सिर उठाया. “नहीं सर… अभी महसूस किया है.”
और उस पल कौशिक ने जाना कि शिक्षा सिर्फ परीक्षा पास करने का रास्ता नहीं है – यह उस रास्ते पर चलने का साहस है जहाँ किताबें और प्रत्यक्ष ज्ञान साथ जलते हैं. और सच्ची समझ की शुरुआत होती है.
...और उस पल कौशिक ने जाना कि शिक्षा सिर्फ परीक्षा पास करने का रास्ता नहीं है – यह उस रास्ते पर चलने का साहस है जहाँ किताबें और प्रत्यक्ष ज्ञान साथ जलते हैं. और सच्ची समझ की शुरुआत होती है. उसने पहली बार महसूस किया कि ज्ञान की सबसे बड़ी घिरनी – विचार और अनुभव का संगम – अब घूम चुकी थी.
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