दिनेशराय द्विवेदी
यह कोई 45-47 साल पहले का वाक़या है। मुझे अपने नगर से कोटा आना था. जनरल क्लास का कोच खचाखच भरा था, खिड़की के पास बैठा यात्री मेरा परिचित था वह उतरने वाला था. उसने मेरा बैग ले कर अपनी जगह रख दिया. मैं जैसे तैसे उस जगह जा कर बैठा. एक सफेद झक्क कुर्ता पायजामा पहने गोल टोपी लगाए गोरे सज्जन ठीक मेरे सामने वाली सीट पर खिड़की से दूसरे स्थान पर बैठे थे. अपने लिबास से वे सबसे अलग ही दिखाई दे रहे थे.
मैंने उन सफेदपोश सज्जन से पूछ लिया, “ जनाब कहाँ से तशरीफ ला रहे हैं?”
“यहीं से बैठा हूँ.”
"जनाब, सफ़र कहाँ तक है?"
“फिलहाल तो ट्रेन कोटा तक ही है, वैसे लखनऊ जाना है? उन्होंने बताया. आगे बातचीत से पता लगा वे मुफ्ती हैं. उन दिनों मोबाइल तो हुआ नहीं करते थे. ट्रेन में आसपास के यात्रियों से बातचीत या कोई किताब हो तो उसे पढ़ते जाना ही यात्रा का वक्त बिताने के तरीके हुआ करते थे. मैंने इसीलिए मुफ्ती साहब को छेड़ा...
“मुफ्ती साहब आप तो धार्मिक इंसान हैं, और आपने मजहबी तालीम भी हासिल की है. मेरे जेहन में बार-बार यह सवाल उठता है कि क्या कोई ईश्वर है?”
"बिलकुल है. जो कुछ भी इस कायनात में है, उसका बनाने वाला ख़ुदा ही है."
सुन कर मैं मुस्कराने से खुद को रोक नहीं सका. मैंने बात आगे बढ़ाई...
“लेकिन जनाब, कायनात मतलब पूरा यूनिवर्स है. अभी तक तो हमें यह भी नहीं पता कि यह कायनात कितनी विशाल है. अरबों खरबों तारे, उनके गिर्द चक्कर काटते ग्रह, उपग्रह, क्षुद्र ग्रह, पुच्छल तारे वगैरा-वगैरा. अरबों खरबों तारों बनी अरबों खरबों गैलेक्सियाँ. यह यूनिवर्स तो बहुत विशाल है. अभी तक जितनी इंसान जितनी क्षमता की दूरबीनें बना सका है उनसे यूनिवर्स का केवल हमारी धरती के गिर्द वाला हिस्सा ही हम ऑब्जर्व कर पाते हैं. उसके अलावा उसका कितना हिस्सा शेष है, उसका विस्तार कहाँ तक है, हम नहीं जान पाए हैं. हम जितना ऑब्ज़र्व कर सकते हैं, उतना ही देख पाते हैं. तो इतना बड़ा यूनिवर्स किसी ख़ुदा ने बनाया है.”
“यक़ीनन उसी ने बनाया है. आखिर हम देखते हैं कि बिना बनाए कुछ नहीं बनता है, तो जो बना बनाया है उसे ख़ुदा ने ही बनाया है. उन तमाम चीजों का होना ही तो ख़ुदा के होने का सबूत है.” मुफ्ती साहब बोले. अब वे मंद-मंद मुस्करा रहे थे.
“यानी ख़ुदा का होना यक़ीनन है?”
“जी बिलकुल यक़ीनन है.” मुफ्ती साहब ने फिर से ख़ुदा के होने की ताईद की.
“ग़र ख़ुदा है तो फिर उसको बनाने वाला भी होना चाहिए?” मैंने अपना नया सवाल दागा.
“देखिए ख़ुदा ऑब्जर्वेबल नहीं है, इसलिए हम कहते हैं कि वह खुद-ब-खुद है. वह खुद-ब-खुद है इसीलिए ख़ुदा है.”
“यानी पहले हम यह मानें कि इस यूनिवर्स को बनाने वाला कोई है, फिर यह मानें कि वह अनऑब्जर्वेबल है. इसके बाद यह मानें कि वह खुद-ब-खुद बना है. बड़ा झंझट है. हमें तीन-तीन चीजें मानें तब ख़ुदा सिद्ध हो. आपका ये ख़ुदा तो तीन-तीन बातों पर डिपेंडेबल है. इससे बेहतर तो यह है कि हम इस यूनिवर्स को ही ख़ुदा मान लें. कम से कम वह ऑब्जर्वेबल तो है और सिर्फ एक बात मानने पर डेपेंडेबल है कि आखिर कोई चीज तो है जो खुद-ब-खुद है.”
मेरा तर्क सुन कर मुफ्ती साहब की भौंहें चढ़ गईं. कहने लगे...
“यह यूनिवर्स ख़ुदा कैसे हो सकता है? यह तो ऑब्जर्वेबल है.”
“फिर तो ख़ुदा को मानने वालों और न मानने वालों में यही फर्क रहा कि ख़ुदा मानने वालों को तीन चीजें माननी पड़ेंगी. जब कि न मानने वालों को एक ही चीज माननी पड़ेगी.” यात्री अब तक मुस्करा रहे थे अब उनमें से किसी की हँसी भी फूट पड़ी और मुफ्ती साहब की भौंहें और चढ़ गयीं. मैंने अपना कहना जारी रखा...
“तो फिर बेहतर तो वह हुआ न जो एक ही चीज को मान लेता है.” इससे ख़ुदा का होना भी उसने मान लिया. बस वह मानता है कि यह यूनिवर्स ही ख़ुदा है. कोई ईश्वर, अल्लाह, गॉड वगैरा नहीं जो अक्सर ख़ुदाई किताबों में होना बताया जाता है.”
“नहीं जनाब, यह फेयर प्ले नहीं है. हमने जब बात शुरू की तो पहले ही कह दिया था कि जो ऑब्जर्वेबल नहीं है वह ख़ुदा है. चूंकि यूनिवर्स पूरा नहीं थोड़ा ही सही पर ऑब्जर्वेबल है, इसलिए ख़ुदा नहीं हो सकता.” मुफ्ती साहब ने अपनी आपत्ति पेश की.
“यह बात तो आपने कही थी, हमने मानी थोड़े ही थी. ये तो वही हुआ कि खुद ही नियम तय कर लें और खुद ही जीत की घोषणा कर दें. यह तो कोई बात नहीं हुई. मतलब तर्क का खात्मा और आस्था की शुरूआत.”
तब तक अगला स्टेशन आ चुका था. कोच में उतरने चढ़ने वालों में हलचल मच चुकी थी. वह बहस वहीं खत्म हो गयी. ट्रेन दुबारा चली तो बातचीत के दूसरे मुद्दे उठ गए.
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