'लघुकथा'
रमन अपने दफ्तर जाने के लिए बस-स्टॉप पर खड़ा हो कर बस की प्रतीक्षा कर रहा था. तभी उसकी नजर सड़क के उस पार सामने वाले बस-स्टॉप के निकट फुटपाथ पर बैठे बच्चे पर पड़ी. यह बच्चा पास ही किसी झुग्गी में रहने वाले परिवार से दिखाई पड़ता था. उसने एक पुरानी गंदी निक्कर और पुरानी टी शर्ट पहने था. उसके पास एक लूटी हुई पतंग थी, जो किनारे से थोड़ी फटी थी। उसके पास लूटे हुए लेकिन उलझे हुए धागों के कुछ गुच्छे थे और पतंग के ऊपर रखी एक पुरानी चरखी भी. वह उन लूटे धागों के एक गुच्छे को सुलझा रहा था.
फुटपॉथ पर से गुजरने वाले लोग उस बच्चे को देखते और हँसते हुए गुजर जाते. शायद सोचते कि बच्चा इतनी मेहनत के बाद भी पतंग शायद ही उड़ा पाए, उड़ा कर खुश भी हो लेगा तो पेंच लड़ाने की तो कभी सोच भी न सकेगा.
कुछ देर बाद रमन ने देखा, उसने वह गुच्छा सुलझा लिया था और अब वह अपनी चरखी पतंग के ऊपर से उठा कर उस पर सुलझा हुआ धागा लपेट रहा था. तभी चरखा का वजन हट जाने से उसकी हरे पीले रंग की पतंग हवा के झोंके के साथ उड़ कर सड़क पर आ गयी। बच्चा चरखी वहीं रख तुरन्त पतंग उठाने दौड़ा. पतंग फिर उड़ी और एक स्कूटर का पिछला पहिया उस पर से गुजर गया। पतंग की हालत और खराब हो गयी. बच्चे ने फिर भी उसे न छोड़ा और उसे उठा कर वापस अपनी जगह जा बैठा. अब वह पतंग को देख रहा था कि उसकी हालत कैसी है. उसने पतंग को फिर से पास रख कर उस पर चरखी रख दी और धागों का दूसरा गुच्छा सुलझाने में तल्लीन हो गया. शायद उसे विश्वास हो गया था कि वह पतंग और डोर को फिर से उड़ाने योग्य बना लेगा. रमन की बस आ गयी थी. वह उसमें बैठा और दफ्तर के लिए रवाना हो गया.
शाम को दफ्तर से छूट कर रमन उसी रास्ते से वापस लौटा. अपने बस स्टॉप पर उतरते ही उसे सुबह वाले बच्चे का ध्यान आया. उसकी निगाह उस स्थान पर पड़ गयी जहाँ सुबह वह बच्चा बैठा था. यह जगह उसके बिलकुल नजदीक थी. अब बच्चा वहाँ नहीं था. तभी उसकी निगाह पास के स्कूल के सामने के मैदान पर पड़ी.
स्कूल की छुट्टी हो चुकी थी. वहाँ कुछ बच्चे खेल रहे थे, कुछ पतंग उड़ा रहे थे. मैदान के कोने पर खड़ा सुबह वाला बच्चा उसी मरम्मत की हुई हरी पीली पतंग को उड़ा रहा था. उससे छोटे एक बच्चे ने उसकी चरखी थाम रखी थी. रमन मुस्कराकर अपने घर की ओर चल दिया.
मकर संक्रान्ति का दिन था. पूरे शहर में पतंगें उड़ायी जा रही थी. रमन जिस बिल्डिंग में रहता था उसमें कुल सोलह अपार्टमेंट थे, सबसे ऊपर छत थी, संक्रान्ति के दिन अपार्टमेंट वाले उसी छत से पतंग उड़ाते. दोपहर बाद रमन बाजार से तिल के लड्डू लेकर लौटा ही था कि बिल्डिंग के प्रवेश द्वारा पर वही पतंग वाला बच्चा एक और छोटे बच्चे के साथ खड़ा दिखायी दिया. छोटे बच्चे के हाथ में चरखी थी तो बड़े ने तीन चार सुधारी हुई पतंगें पकड़ रखी थीं. वे दोनों चौकीदार से कह रहे थे, “अंकल जी आपकी छत से पतंग उड़ा लें.”
चौकीदार उसे अंदर घुसने नहीं दे रहा था. रमन को लगा कि आज बच्चे का हुनर जरूर देखना चाहिए. उसने चौकीदार से कहा बच्चों को जाने दो. बच्चे ने चौकीदार की प्रतिक्रिया का इन्तजार के बिना तुरन्त अंदर सीढ़ियों की ओर भागे. कुछ देर बाद वे छत पर थे.
घंटे भर बाद जब रमन छत पर पहुँचा तो उसने देखा कि बच्चा छत पर पतंग उड़ा रहा है. उसकी चरखी बिल्डिंग के ही एक बच्चे ने पकड़ रखी है. तीन चार बच्चे उससे कह रहे हैं कि पास की नीली वाली पतंग पर पेंच डाल दे. तभी बच्चे की पतंग ने उस नीली पतंग पर पेंच डाला और दो ही सेकंड में नीली पतंग कट कर हवा में डोलती हुई नीचे गिरने लगी. छत पर सारे बच्चे हुर्रे करते हुए नाच रहे थे. वह पतंगबाज बच्चा उन सब का हीरो बना हुआ था. रमन को छत पर देख उसका बेटा पास आया और बोला, “ये बच्चा छीतर पतंग उड़ाने में माहिर है, उसने अपने पुराने लूटे हुए मांजे और लूटी हुई पतंगों से तीन पतंगें काट डाली हैं। पक्का पतंगबाज है. रमन उसकी बात सुन कर मुस्कराते हुए पतंगबाज का हौसला बढ़ाने वालों में शामिल हो गया.
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