- दिनेशराय द्विवेदी
सूरज के उगने से पहले ही रामलाल के हाथ चिपचिपी मिट्टी में डूबे थे. हर ईंट को साँचे में ढालते हुए उसकी उँगलियों के छाले पुराने पड़ चुके थे, पर मन अब भी कोमल था. एक ईंट रखते हुए अचानक मुन्नी का चेहरा आँखों में तैर गया—कल ही उसने टूटी स्लेट पर कोयले से लिखा था, “बाबूजी, देख लेना, एक दिन मैं भी बड़ी मास्टरनी बनूँगी.”
उसका सपना रामलाल की रगों में खून बनकर दौड़ता, तभी भट्ठा मालिक की आवाज़ कोड़े सी बरसी -
“ऐ रामलाल! हाथ चला, दिमाग नहीं. कल भट्ठा लगाना है.”
रामलाल ने गर्दन झुका ली. ज़बान खोलने की कीमत मज़दूरी कटने से चुकानी पड़ती थी.
एक तपती दोपहरी में अचानक धड़ाम की आवाज़ हुई. ईंटों की कच्ची दीवार ढह गई थी, और रामलाल उसके नीचे दबा था. उसे बाहर निकाला गया तो पैर लहूलुहान था. मालिक ने आकर घड़ी देखी और चिल्लाया-
“मरा तो नहीं! काम रुकना नहीं चाहिए.”
उस रात रामलाल की झुग्गी में दर्द से ज्यादा एक दबी हुई आग धधक रही थी. डॉक्टर ने प्लास्टर चढ़ाया था और आराम करने को कहा था. पर जब मुन्नी ने पूछा, “बाबूजी, फिर स्कूल कब जाऊँगी?” तो रामलाल को लगा जैसे उसकी चुप्पी ही उस स्लेट को हमेशा के लिए तोड़ देगी.
देर रात, जब भट्ठे का धुआँ आसमान को काला कर रहा था, रामलाल लंगड़ाता हुआ सुक्खू, गफूर और चंदर के पास पहुँचा.
“मित्रो,” उसकी आवाज़ में दर्द से ज्यादा आग थी, “आज मेरा पैर दबा, कल किसी का सपना दबेगा. क्या हमारे बच्चे भी इसी भट्ठे में ईंट बनकर पकेंगे?”
सुक्खू डरा हुआ था, “बोलेंगे तो भूखे मरेंगे.”
रामलाल की आँखों में बिजली कौंधी, “साथ बोलेंगे तो मालिक का गुरूर मरेगा. ये ईंटें हमारे पसीने से पकती हैं. हमें जीने लायक मज़दूरी चाहिए.”
बात हवा से फैली. अगले कई दिनों तक, रामलाल के पैर से प्लास्टर कटने तक, अंधेरी रातों में मजदूर उसकी झोंपड़ी में जुटते रहे. उन्हें समझ आने लगा—उनकी आपबीती एक ही दास्तान है.
जिस दिन रामलाल काम पर लौटा, उस रात उसने कोयले से एक फटे बोरे पर लिखा: 'मजदूर यूनियन'. अगली शाम, काम खत्म होते ही सभी मजदूर शिव मंदिर के लॉन में इकट्ठे हुए. रामलाल ने कहा, “हम एक होकर लड़ेंगे. पहला कदम—यूनियन बनाएँगे. जो शामिल नहीं होना चाहते, वे हाथ ऊपर उठाएँ.”
चारों तरफ सन्नाटा छा गया. केवल भट्ठे की चिमनी से उठता काला धुआँ हवा में लहरा रहा था, मानो स्वयं आकाश सुन रहा हो. एक भी हाथ ऊपर नहीं उठा.
रामलाल की आवाज़ गूँजी, “इंकलाब जिन्दाबाद!”
नारे से हवा काँप उठी. और उसी क्षण मुन्नी ने, जो एक कोने में खड़ी सब देख रही थी, अपनी टूटी स्लेट पर फिर से कोयले से कुछ लिखना शुरू किया—शायद अपना नाम, शायद एक नई शुरुआत.
भट्ठे से उठता धुआँ अब केवल कालिख नहीं, एक संकल्प बनकर फैल रहा था. कच्ची ईंटें अब सिर्फ दीवारें नहीं, एक नई नींव की पहली परत थीं.
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