लघुकथा
गाँव के चौक में वह आदमी रोज़ खड़ा होता. उसकी आवाज़ में धर्म का जादू था और थी साम्प्रदायिकता की आग. वह लोगों में नफरत बाँटता. लोग उसे सुनते, झूमते, और धीरे-धीरे उसे अपना पथ प्रदर्शक मानने लगे. उसके पीछे चलने लगे. उस आदमी का नाम था ‘सर्वप्रिय’.
लोगों ने सर्वप्रिय को अपने कंधों पर उठा लिया. कंधों पर बैठ वह नगर पहुँचा. वहाँ भी धीरे धीरे लोग उसके पीछे हो लिए और उसे अपने कंधों पर उठाया.
वह प्रान्त की राजधानी पहुँचा. फिर इसी तरह वह एक दिन कंधों पर बिठा कर पहाड़ पर बसी देश की राजधानी पहुँचा दिया गया. वह पहाड़ की चोटी पर बैठ देश पर राज करने लगा.
उसे कंधों पर ढोने वाले उसे भगवान कहने लगे. इस तरह सर्वप्रिय भगवान हो गया.
लेकिन, धीरे-धीरे समाज टूटने लगा. नफरत ने समाज को अनेक हिस्सों में बाँट दिया.
• पड़ोसी दुश्मन बन गए.
• मज़दूरों की रोज़ी छिन गई.
• बच्चों की दोस्ती दीवारों में कैद हो गई.
• स्त्रियाँ भय में जीने लगीं.
इन आपदाओं से पीड़ित वही आम लोग थे, जिनमें से कुछ ने उसे कंधों पर उठाया था. उसे गाँव से देश की राजधानी की सबसे ऊँची चोटी पर बिठाया था. जिन्हें शांति चाहिए थी, रोटी चाहिए थी, और सम्मान चाहिए था. उनकी पीड़ा का असली जिम्मेदार वही था, जो धर्म और साम्प्रदायिकता को औज़ार बनाकर बाँट रहा था.
समय बीतता गया. पीड़ा गहरी होती गई. और एक दिन, पीड़ितों की आँखों से पर्दा हटने लगा. उन्होंने देखा कि उनका भगवान दरअसल उनके दुखों का व्यापारी है.
भीड़ ने पछतावे और गुस्से में कहा, "जिन्हें हमने गद्दार कहा, वही हमें रास्ता दिखाने वाले थे!"
चौक में भीड़ फिर इकट्ठी हुई. इस बार तालियाँ नहीं बजीं. हाथ उठे, और भगवान का मुखौटा टूट गया.
सर्वप्रिय का अंत हुआ.
... और समाज ने पहली बार राहत की साँस ली, जैसे किसी लंबे नशे से जागकर होश में आया हो.
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