@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: स्त्रियाँ देवियाँ नहीं

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

स्त्रियाँ देवियाँ नहीं

लघुकथा
दिनेशराय द्विवेदी
आशा अचानक अपने दो साल के बेटे को लेकर मायके पहुँची. उसे आए देख वहाँ सभी चौंके. जब उसने बताया कि कैसे क्या हुआ था तो मम्मी-पापा ने कहा, “यह गलत है, दामाद जी को ऐसा नहीं करना चाहिए था. तुमने ठीक किया, यहाँ चली आयी, अब सब कुछ खुद करना पड़ेगा तो अपने आप पता लग जाएगा.”
भाई ने कहा, “यहाँ क्यों आएंगे, वहीं चल कर बात करते हैं. उन्हीं के हाथ चलते हैं क्या? हमने कौन सी चूड़ियाँ पहन रखी हैं.”

हुआ यह था कि उस दिन दफ्तर से लौटते हुए नरेश अपने साथ एक अंग्रेजी की बोतल ले आया था, आते ही आशा से कहा था कि उसका दोस्त पवन आएगा, दो गिलास और तले हुए पापड़ बोतल के साथ बैठक में टी टेबल पर रख दे. वह फ्रेश हो कर बैठक में गया और आराम कुर्सी पर ऊंघने लगा. आशा ने उसकी हिदायत के अनुसार टी-टेबल सजा दी. वह शाम के भोजन की तैयारी के लिए रसोई में घुस गयी. कुछ देर बाद पवन आया तो आशा ने उसे बताया कि बैठक में आप का ही इन्तजार कर रहे हैं. पवन के बैठक में जाने के तुरन्त बाद कांच की वस्तु गिरने और टूटने की आवाज आयी तो सब्जी साफ करती हुई आशा वैसे ही बैठक की ओर तेजी आयी. वहाँ बोतल टूट कर गिरी पड़ी थी, अंग्रेजी फर्श पर फैल गयी थी, बोतल के काँच के टुकड़े बैठक में बिखर गए थे, नरेश और पवन दोनों स्तब्ध खड़े थे.

वह तुरन्त लौटी और झाडू लेकर वापस गयी फर्श साफ करने लगी. पवन से पूछा, "भाई साहब¡ कैसे गिर गयी बोतल?"

कुछ उत्तर मिलता उससे पहले उसके गाल पर चाँटा पड़ा, “तुम्हें टेबुल सजाने का तो शऊर नहीं है और कहती हो बोतल कैसे गिर गयी.”

आशा ने कुछ नहीं कहा, बस उसे रुलाई आ गयी। उसने स्वर भी नहीं निकाला चुपचाप रोने लगी. नरेश और पवन दोनों घर से बाहर चले गए. उसने शाम का भोजन तैयार किया, सास ससुर को खिलाया, नरेश के लिए रख दिया. वह जानती थी कि अब बाहर से पीकर आएंगे और उन्हें खाना चाहिएगा. नरेश आया और खुद भोजन लेकर खाया, फिर वहीं बैठक में सो गया. आशा रात भर कमरे में सुबकती रही उसने रात को ही अपने व बेटे के कपड़े और जरूरी सामान अपनी अटैची में जमा लिए. सुबह नरेश नाश्ता कर टिफिन ले कर दफ्तर के लिए निकला. आशा ने अपने सास ससुर को शाम की घटना बताई और उन्हें कहा कि वह बेटे के साथ मायके जा रही है, इन्हें जब अक्ल आ जाए, तब लेने आ जाएंगे.

एक सप्ताह में ही नरेश को पता लग गया कि आशा के शऊर कैसे हैं. वह तो केवल अपने दफ्तर जाता, घर के कामों में उसका योगदान बिलकुल नहीं था. यहाँ तक कि बाजार से घर जरूरत का सामान तक वही खरीदती. वह तो सब्जी तक ठीक से नहीं ला सकता था. माता-पिता और बेटे को भी वही संभालती, वह चार प्राणियों की देखरेख करती, कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था. खैर, उसे आशा का महत्व पता लग चुका था, इस हिसाब से वह देवी थी. उसने नवें दिन ही अपने ससुर को फोन कर दिया था कि वह आशा को लेने आ रहा है. कुछ देर बाद ही साले का फोन आ गया कि जीजाजी अकेले मत आना, किसी रिश्तेदार को या दोस्त को साथ लेकर आना.

नरेश रिश्तेदारों तक बात को नहीं पहुँचाना चाहता था. लेकिन वह पवन को साथ ले कर ससुराल पहुँचा. सास-ससुर प्रेम से बोले, कहने लगे रात रुकना पड़ेगा. कल सुबह आप आशा को ले जा सकते हैं, यदि वह जाना चाहे. साले ने आवभगत तो की लेकिन बात बिलकुल नहीं की.

शाम को ससुर के कुछ मित्र कुछ रिश्तेदार वहाँ पहुँचे उनके साथ स्त्रियाँ भी थीं. रिश्तेदारों को देख नरेश को बहुत संकोच हुआ, लेकिन वह कुछ नहीं कर सकता था. वह जानता था कि आशा के बिना उसका सारा संसार बिखर जाएगा. वह चुप रहा.

चाय नाश्ता पूरा हो जाने पर आशा को भी बैठक में बुला लिया. उसके आने पर एक रिश्तेदार जो सबसे अधिक बुजुर्ग था बोला, “नरेश जी आपने आशा के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया, उसकी तो कोई गलती भी नहीं थी, फिर भी आपने उस पर हाथ छोड़ दिया. ऐसा कैसे चलेगा. हमें तो अपनी बिटिया की सुरक्षा ही खतरे में लगने लगी है.” 
उसके बाद ही तुरन्त दूसरा बोलने लगा. लेकिन नरेश चुप ही रहा.

आखिर में, बुजुर्ग ने नरेश से पूछा, “आप का क्या कहना है.”

अब तक नरेश भी अंदर तक भर चुका था, उसकी आँख से आँसू निकल पड़े, गला भर्रा गया. बोला, "मैं क्या कहूँ, आप सब के पैर पड़ कर माफी मांग सकता हूँ. मुझे आप माफ करें, न करें आपकी मर्जी. मैं तो दस दिनों में ही समझ गया हूँ कि मैं किसी काम का इंसान नहीं हूँ. मैंने आशा की सारी खूबियों को देख कर भी अनदेखा किया. मैं मूर्ख था. पर उसी ने मेरी आँखें खोल दी हैं. वह एक देवी है, मुझे उसकी पूजा करनी चाहिए थी, पर मैं नालायक इसे समझ ही नहीं सका. मैं तो आपकी और इस देवी की शरण में हूँ. यदि इस ने मेरा साथ नहीं दिया तो मेरे माता-पिता तो बिना देखरेख के ही मर जाएंगे. मेरा न जाने क्या होगा.” इतना कह कर वह सुबक पड़ा."

तभी आशा खड़ी हो गयी. बोली,"इस सब की जरूरत नहीं है. न मैं देवी हूँ, न कोई स्त्री देवी है. न ही हम किसी भी स्थिति में केवल स्त्री होने के नाते किसी भी रूप में दण्ड की अधिकारी हैं. जब मैं घर संभालती हूँ, खर्च बचाती हूँ, माता-पिता की सेवा करती हूँ, तो मुझे देवी कहा जाता है. पर जब गलती हो जाए या परिस्थिति बिगड़ जाए, तो वही लोग मुझे राक्षसी कहकर मारपीट करने लगते हैं. हमारे साथ यह दोहरा व्यवहार क्यों? हम स्त्रियाँ हैं, एक मनुष्य मात्र, यदि पुरुष समाज हमें भी खुद की तरह इंसान समझे और स्त्रियों के साथ समानता का व्यवहार करे. हम इसके सिवा कुछ नहीं चाहतीं।“

बैठक में सन्नाटा छा गया. नरेश की आँखें झुकी हुई थीं. वह काँपती आवाज़ में बोला, “आशा, मैं गलत हूँ, लेकिन यह समझ गया हूँ कि तुम मेरे घर की धुरी हो. मैं वादा करता हूँ कि अब तुम्हें देवी या राक्षसी नहीं, सिर्फ़ मनुष्य और साथी मानूँगा.”

बुजुर्ग ने सिर हिलाया, “आशा बिटिया, आज हमने भी यह सबक लिया है कि स्त्री को पूजा या दुत्कार की नहीं, मानवीय व्यवहार की ज़रूरत है. सम्मान ही उसका अधिकार है.”

घर में एकत्र स्त्रियों की आँखें चमक उठीं.

जैसे पहली बार किसी ने उनके मन की बात पंचायत में कह दी हो.

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