लघुकथा
खूब बरसात हुई थी. नदी का पानी गाँव में घुस गया.
निचली पट्टी के घर डूब गए, कपड़े-बरतन बह गए, बच्चे भूखे थे.
नेता जी अफसर, बाबू और दो चपरासियों के साथ नाव पर आए. बोले, “घबराइए मत! सरकार आपके साथ है. राहत सामग्री पहुँचेगी, नए घर बनेंगे.”
गाँव वाले थोड़े आश्वस्त हुए.
फिर नेता जी मुस्कराए,
“देखिए भाइयों-बहनों, हर आपदा में अवसर छिपा होता है. पुल टूटा है, नया बनेगा. सड़क बह गई है, अब और चौड़ी बनेगी. आपको काम मिलेगा, जेबों में पैसा आएगा. जिनके कच्चे घर टूटे हैं, वे पक्के बनेंगे. हम इसकी योजना बनाएंगे.”
गाँव वाले दुःख में भी प्रसन्न हो गए. कुछ ने कहा, “साहब, अभी हम भूखे हैं.”
नेता जी ने आश्वासन दिया,
“भोजन की व्यवस्था हमने कर दी है, अभी पहुँचेगा.”
नेता जी ने पूछा, “आपके घर तो सुरक्षित हैं?”
जमींदार बोला,“हुजूर, कहाँ? फसलें नष्ट हो गईं, जानवर बह गए. आप खुद देख लीजिए.”
नेता जी जमींदार की गढ़ी पहुँचे. वहाँ कत्त बाफले बन रहे थे.
नेता जी ने कहा, “जब तक बाढ़ का पानी नहीं उतरता, गाँव वालों की मदद करनी होगी. पहले पूरी-सब्जी बनवाइए और स्कूल में शरण लिए लोगों को भेजिए. आपके नुकसान की भरपाई बीमा कर देगा.”
जमींदार हाथ जोड़ बोला, जो हुक्म सरकार.
महाजनों से सामान आया, ब्राह्मणों ने सब्जी-पूरी बनाई.
गाँव वालों को भोजन मिला, पर वे समझ गए कि यह मदद उनकी ही मेहनत और ब्याज की कमाई से आई है.
इस बीच नेता जी और अफसरों ने जमींदार के यहाँ कत्त बाफले की दावत उड़ाई.
दो माह बाद जमींदार उपहारों के साथ नेता जी के घर पहुँचा. बोला, “हुजूर, टेंडर पास हो गया है. पुल और सड़क का काम हमें मिला है.”
नेता जी मुस्कराए, “देखा! आपदा में अवसर.”
अगली बरसात आने को थी.
पुल और सड़क की मरम्मत बिखरने लगी थी. नए पुल और चौड़ी सड़क की योजना अब भी कागज़ पर थी. गाँव वालों के घर टूटे ही थे. राहत का वादा केवल कागज़ पर था.
गाँव वालों ने समझ लिया—आपदा उनकी थी, अवसर दूसरों का.
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