लघुकथा
दिनेशराय द्विवेदी
रात गहराई हुई थी. तानाशाही की दीवारें ऊँची और ऊँची होती जाती थीं, पहरेदारों की आँखें चौकस थीं, अब तो बहुत से तकनीकी पहरेदार थे जो बिना दिखे चौकसी कर रहे थे. लोगों का हर कदम डर का रूप ले लेता. वे थके हुए थे, लेकिन रुकना किसी के लिए विकल्प नहीं था.
एक बुज़ुर्ग ने धीमी आवाज़ में कहा-
“रात जो गहराई है, तो सहर भी होगी.”
उसकी आवाज़ अंधकार में मशाल की तरह गूँज गई.
काफ़िला आगे बढ़ रहा था. रास्ता कठिन, लेकिन हर यात्री जान रहा था कि यह यात्रा केवल अपने लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए है.
यहीं पर अदृश्य साथी सेवाद प्रकट हुआ. वह किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं था, बल्कि सबके भीतर था, एक ताकत की तरह.
जब कोई बच्चे को गोद में उठाता, जब कोई बुज़ुर्ग का हाथ थामता, जब कोई अपने हिस्से का बोझ दूसरों के लिए छोड़ देता, वहीं सेवाद जीवित हो उठता.
शुरू में नौजवान पस्त दिख रहे थे. थकान उनके कंधों पर बोझ की तरह थी.
लेकिन जैसे ही बुज़ुर्ग की आवाज़ गूँजी और सेवाद की अदृश्य पुकार हर एक के भीतर से उठी-
“तुम्हारा हर कदम जनसेवा है. तुम्हारा हर त्याग जनतंत्र की ओर बढ़ता है. मत रुको.”
अचानक ऊर्जा भर आई. वे सजग होकर चलने लगे, गति भी बढ़ गई. उनकी आँखों में अब डर नहीं था, बल्कि जनतंत्र का सवेरा देखने की तमन्ना थी.
“काफ़िला निकल पड़ा है, जीत सर भी होगी!” एक नौजवान ने जवाब में पुकारा.
सेवाद ने उस पुकार को और ऊँचा कर दिया. उसकी अदृश्य उपस्थिति सब को याद दिलाने लगी, यह सफ़र केवल मंज़िल तक पहुँचने का नहीं, बल्कि तानाशाही की रात को तोड़ने का है.
वे चलते रहे, चलते रहे, फिर क्षितिज पर पहली किरण दिखाई दी, तो सबने देखा, “अंधकार सचमुच सिमट रहा था.
सवेरा केवल उजाले का नहीं था, बल्कि जनतंत्र का था.
नोट : "सेवाद" शब्द संस्कृत के
"सेवा" से निकला है, और इसका प्रयोग हिंदी तथा
भारतीय भाषाओं में सामूहिक सेवा, त्याग और जनहित के भाव को
व्यक्त करने के लिए किया जाता है.
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