दिनेशराय द्विवेदी
गाँव के चौक में बड़ी हलचल थी. गाँव की बहू, सत्या, ने राज्य स्तर पर अवॉर्ड जीता था. पंचायत भवन में उसके सम्मान में एक समारोह रखा गया था. लोग इकट्ठा हुए थे, ढोल-नगाड़े बज रहे थे.
सत्या मंच पर पहुँची. सिर पर घूंघट था. साथ में उसकी ननद राधा भी थी.
सत्या को घूंघट में देख कर भीड़ में खुसर-फुसर होने लगी. तभी एक नौजवान ने जोर से कह दिया ...
“देखो, इतनी पढ़-लिख कर भी घूंघट में आई है!”
“चुप्प¡ तुम्हें तमीज भी नहीं, भरी सभा में चिल्ला रहे हो. यही तो असली संस्कार है. बड़े पद पर है, अवार्ड जीता है, फिर भी घमंड नहीं. अपनी परंपरा को कैसे अच्छे से निबाह रही है.” पास ही बैठे बुजुर्ग ने नौजवान को डाँट पिलाई. कुछ लोग ताली बजाने लगे तो कुछ हँस पड़े.
तभी पास खड़ी सत्या की ननद राधा, जो कॉलेज में पढ़ रही थी, आगे बढ़ कर माइक पर आ गयी और सहज स्वर में बोली...
“इसे मेरी गुस्ताखी कहें कि मैं बिना बुलाए भाभी के साथ मंच पर आई और यहाँ अपनी बात कह रही हूं. आप खुद देखें यह संस्कार है? या बाध्यता? अगर सच में हमारी शिक्षा ने आज़ादी दी होती, तो सत्या भाभी को घूंघट की ज़रूरत ही न पड़ती. कोई स्त्री घूंघट में नहीं रहना चाहती. आप लोग समझ ही नहीं सकते कि यह घूंघट एक स्त्री को कैसी कैसी तकलीफें देता है.”
उसकी बात सुनकर बुज़ुर्गों में खुसर-फुसर शुरू हो गई. एक बुजुर्ग ने जोर से कहा...
“लड़कियाँ अब बहुत बोलने लगी हैं. “ये सब पढ़ाई का असर है. अंग्रेजी पढ़ाई बदतमीजी सिखाती है.”
अचानक मंच पर खड़ी सत्या ने अपनी ननद राधा को एक ओर किया और माइक पर खुद बोलने लगी. उसका स्वर धीमा था, लेकिन शब्दों में आग थी...
“आप कहते हैं कि घूंघट संस्कार है. लेकिन जब कोई पुरुष किसी स्त्री का घूंघट उसकी अनुमति के बिना सार्वजनिक स्थान पर हटाने की कोशिश करता है, तब वह किस तरह का संस्कार है?
आप कहते हैं कि हम पढ़-लिख कर भी आगे नहीं बढ़ पाए. लेकिन सच यह है कि शिक्षा का दरवाज़ा ही आधा खुला रखा गया है.
और जब हम बड़े पद पर पहुँचते हैं, तब भी आप हमें घूंघट में देखना चाहते हैं, ताकि आपके गर्व का झूठा आईना चमकता रहे.”
सभा में सन्नाटा छा गया. किसी नौजवान ने सन्नाटे को चीर कर जोर से कहा हिप हिप हुर्रे. कुछ लड़के लड़कियों ने उसके जवाब में फिर से हिप हिप हुर्रे को दोहराया.
तभी, सत्या ने आहिस्ता से घूंघट हटाया. उसकी आँखों में डर नहीं था, बल्कि दृढ़ता थी. वह फिर बोलने लगी...
“बदलाव की शुरुआत पुरुषों से होनी चाहिए. जब आप हमें सहजता और सम्मान देंगे, तब हम बिना डर के चल पाएंगी. और अगर आप ऐसा नहीं कर सकते, तो कम से कम हमसे सवाल करने का अधिकार मत छीनिए.”
भीड़ में खामोशी थी. कुछ चेहरों पर शर्म थी, कुछ पर सोच.
राधा ने ताली बजाई. धीरे-धीरे और लोग भी ताली बजाने लगे. भीड़ में उपस्थित अनेक स्त्रियों ने जो घूंघट किए हुए थीं, अपना-अपना घूंघट हटाना शुरू किया. एक- एक कर पर्दों में कैद सभी चेहरे आजाद हो गए
गाँव में घूंघट की दीवार टूट चुकी थी.
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