@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: बधाई हो

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

बधाई हो


अदालत की इमारत उस दिन जैसे मुस्करा रही थी. बरसात में महीनों तक छत टपकती रही, फाइलों पर पानी की बूंदें गिरती रहीं, और मरम्मत के लिए एक चिट्ठी बमुश्किल पीडब्ल्यूडी तक पहुँची. पर आज माहौल अलग था—जैसे दीवारों से सीलन उतर गई हो, जैसे गलियारों में धूप उतर आई हो.

खबर थी, “जज साहब का तबादला हो गया और साथ ही उन्हें रिटायरमेंट के चन्द महीनों पहले डिस्ट्रिक्ट जज बना दिया गया था.”
 
इस खबर से अदालत की दरारों में फँसी नमी तक मानो राहत की साँस ले रही थी. जज साहब वही थे जिनके बारे में मजदूरों और अभियुक्तों की दुनिया में एक ही कहावत चलती थी, "अगर तुम्हारा मामला इनके पास है, तो समझो तुम्हारा पक्ष पहले ही हार गया." दीवानी मामलों में सरकार के खिलाफ़ तब तक फैसला नहीं दिया जब तक कि सरकार की तरफ से पैरवी ही नहीं की गयी हो या फिर ऐसा करना बिल्कुल असंभव हो गया हो. फौजदारी मुकदमों में बरी होना तो मानो अपराध ही था. उनकी अदालत में अभियुक्त को खुद को पाक-साफ़ साबित करना पड़ता था, अभियोजन को कुछ भी साबित करने की ज़रूरत नहीं थी.

फिर जब श्रम न्यायालय में नियुक्त हुए तो मजदूरों की हालत और भी पतली हो गई. एक तो पहले ही उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों ने कानून की पुनर्व्याख्याएँ कर-कर के श्रमिक को सामाजिक न्याय प्रदान करने वाले कानून के झुकाव की दिशा नियोजक पक्ष की ओर मोड़ दी थी, दूसरे इन जज साहब का सोचना कमाल का था. जो कुछ साबित करना है वह मजदूर को ही साबित करना है. वे मजदूर के पक्ष को मजबूत करने वाले दस्तावेजों को जो नियोजक के कब्जे में होते अदालत में पेश करने का आर्डर कभी नियोजक को न देते. फैसले में लिखते यह मजदूर का दायित्व था. मजदूर सोचने लगे थे कि वे इन दस्तावेजों के लिए नियोजक के यहाँ चोरी करें या डाका डालें? नियोजक का पक्ष चाहे कितना भी खोखला हो, मजदूर को राहत मिलना ऊँट के मुहँ में जीरा ही साबित होता. मजदूर की गवाही अदालत की दीवारों तक पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देती.

अब जब उनका तबादला हुआ और वे जिला जज बन गए, तो मजदूरों और उनके वकीलों ने राहत की साँस ली. अदालत के गलियारों में जज साहब के लिए बधाइयों की बौछार थी, "बधाई हो साहब बधाई.” मन ही मन बधाई देने वाला कह रहा होता, “अब हम भी चैन की नींद सो पाएंगे."
 
तबादला आदेश आने के तीन दिन बाद जज साहब ने रुखसत ली. वकील लोग आपस में एक दूसरे से पूछते, “फेयरवेल का क्या करें?” तो जवाब में फिर सवाल मिलता, “अब बधाई के चार शब्द बोल दिए वही क्या कम हैं? दूसरे जजों की तरह कर्मचारियों ने साहब के माथे टीका लगा कर माला पहनाई, मिठाई, कचौड़ियों और चाय से जलपान करवा कर फेयरवेल दिया. वकीलों की ओर से कोई विदाई समारोह नहीं हुआ, बस एक सामूहिक मुस्कान थी, जैसे किसी भारी बोझ से मुक्ति मिल गई हो.

जज साहब इस अदालत की अपनी कुर्सी से अन्तिम बार अत्यन्त खुश हो कर उठे, सोचते रहे कि जाते जाते उन्हें जिला जज बनने का मौका मिल ही गया. एक तरह से प्रमोशन ही समझो. लोगों ने इतनी बधाइयाँ दी जितनी इससे पहले उन्हें कभी नहीं मिलीं. यह कोई कम उपलब्धि नहीं थी.
 
अदालत के बाहर मजदूर और वकील आपस में फुसफुसा रहे थे, “आखिर साहब चले ही गए, अब शायद न्यायालय में न्याय भी लौट आए."

कोई टिप्पणी नहीं: