दिनेशराय द्विवेदी
मैंने साँस अन्दर खींची, जितनी हवा मैं अपने फेफड़ों में भर सकता था भर ली. जो फेफड़ों में भरी गयी थी, वह सिर्फ हवा नहीं थी. उसके साथ एक कठोर नियम था, पिताजी का वह वाक्य "लड़के रोते नहीं". वह मेरे फेफड़ों में भरी गयी हवा के निकल जाने के बाद भी अंदर रह गया था. पहले मेरे फेफड़ों में और फिर मेरे खून में घुल कर मेरी रग-रग में समा गया. बारह साल की उम्र तक आते-आते, जब भी जरूरत होती मुझे मेरे अंदर से सुनाई देने लगता.
प्रिया, मेरी बहन तब चौदह की थी. उसने साइकिल चलानी सीखनी चाही. हमारे छोटे से शहर की उस सड़क पर, जहाँ मैं और मेरे दोस्त बिना किसी डर के पूरे दिन साइकिलों पर उड़ान भरते थे, लड़कियाँ कभी साइकिल चलाते नहीं दिखीं. वे सीखते हुए दिखतीं, फिर कुछ दिनों बाद उनकी साइकिल गायब हो जातीं.प्रिया के लिए पिताजी से साइकिल चलाने की अनुमति प्राप्त कर लेना एक संघर्ष था.
"लड़कियाँ इतनी दूर साइकिल पर नहीं जातीं," माँ ने कहा, आँखें नीची किए. "लोग क्या कहेंगे?" 'लोग'... हमारे घर की चौथी दीवार थे, जिसमें उन लोगों के कान और आँखें चिपकी थीं, जो कभी नहीं दिखते थे पर हर वक्त, हर जगह मौजूद रहते थे.
पिताजी ने एक वाक्य में फैसला सुना दिया: "ज़रूरत नहीं है।"
प्रिया की आँखों में वह चमक, जो सवाल पूछते वक्त होती थी, धुंधली पड़ गई। मैंने देखा. पर मैं चुप रहा. मेरे अंदर का लड़का जिसने रोने पर जीत हासिल कर ली थी, वह मुझे यही सिखाता था, चुप रहो. यह तुम्हारी लड़ाई नहीं है.
फिर मैं सोलह का हो गया. स्कूल की बास्केटबॉल टूर्नामेंट की फाइनल मैच. पूरे हफ़्ते की प्रैक्टिस, पसीना, और एक जुनून था जो मेरे अंदर भर गया था। आखिरी सेकंड. स्कोर बराबर. मैंने शॉट लगाया. गेंद रिम पर घूमी... और बाहर गिर गई. मेरी टीम जीत नहीं सकी, मैच बराबरी पर छूटा.
सुनसान जिम में, मेरे साथियों के झुंड के बीच, एक अजीब सी जलन मेरी आँखों के पीछे उभरी. मेरा गला रुंधने लगा. मैंने तुरंत सिर झुका लिया. लड़के रोते नहीं. मेरे अंदर का लड़का कहीं टूटने को था.
लेकिन फिर एक हाथ मेरे कंधे पर पड़ा. हमारी टीम के कप्तान राहुल का, जो ग्यारहवीं में था और जिसे मैं एक देवता की तरह देखता था. उसकी आवाज़ सामान्य से कुछ कोमल थी.
"कोई बात नहीं, विशाल। तुमने बहुत अच्छा खेला."
और तभी मैंने देखा, राहुल की आँखें भी चमकीली थीं। लेकिन नम. वह भी... महसूस कर रहा था? उसके अंदर के लड़का भी टूट रहा था. उस की टूटन ने मेरे भीतर के लड़के को हिला कर रख दिया.
उस शाम, मैं घर लौटा, तब प्रिया रसोई में माँ की मदद कर रही थी. उसने पूछा, "कैसा रहा मैच?"
मैंने सिर्फ सिर हिलाया। फिर अचानक बोल पड़ा, "हारे नहीं, पर जीत भी नहीं सके. बुरा लग रहा है."
मेरा यह वाक्य हवा में तैरता रह गया. प्रिया हैरान थी. मैंने कभी नहीं कहा था, 'बुरा लग रहा है.'
उस रात, पिताजी ने मेरे चेहरे पर उदासी देखी और पूछा, तो मैंने फिर से वही कहा: "हार का बुरा लग रहा है, पापा।"
पिताजी चुप रहे। शायद उन्होंने मेरे लड़के के कवच में पड़ी उस दरार को देख लिया था. उनकी आवाज़ सख्त नहीं थी, बस थकी हुई थी, बोले "कोई बात नहीं. अगली बार जीत लेना."
यह एक तसल्ली नहीं थी, पर डाँट भी नहीं थी. यह क्या था? मुझे समझ नहीं आया. क्या उनका भी कवच दरक रहा था?
कुछ दिन बाद, जब प्रिया ने फिर, बहुत ही धीमे स्वर में, कहा, "मैं साइकिल सीखना चाहती हूँ ताकि ट्यूशन समय से पहुँच सकूँ," तो मैंने, अचानक अपने कवच की दरार से बाहर निकल आया. जा कर पिताजी से कहा, “अब प्रिया को साइकिल सीखने की जरूरत है, “उसे मैं सिखा देता हूँ पापा. शाम को सड़क खाली रहती है.”
यह कोई विद्रोह नहीं था, नारेबाजी भी नहीं थी. सिर्फ एक प्रस्ताव था. एक साँस, जो बहुत पहले मैंने खींच कर अपने फेफड़ों में भर ली थी. जो मेरी रग-रग में दौड़ रही थी. अब बाहर निकलने को छटपटा रही थी.
पिताजी ने मेरी ओर देखा. फिर प्रिया की ओर, जिसकी आँखों में चमक लौट आई थी. चमक, जो सवाल नहीं, उम्मीद पूछ रही थी.
"ठीक है," उन्होंने कहा, बिना किसी जोश के. "पर शाम सात बजे से पहले. और खाली सड़क पर ही."
यह जीत नहीं थी. यह सिर्फ एक मोड़ था. उस दिन, जब मैंने प्रिया को साइकिल का हैंडल पकड़ाना सिखाया, तो मैंने महसूस किया कि मेरे अंदर का कभी न रोने वाला लड़का पिघल रहा है. हर साँस जो अब मैं बाहर छोड़ता हूँ, उसके साथ वह लड़का थोड़ा सा मेरा साथ छोड़ देता है और कमजोर पड़ता जाता है. शायद एक दिन, मैं उससे मुक्त हो जाऊंगा. और तब... शायद तब मैं एक इंसान बन सकूँगा."
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