@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: ‘निकाह मंजिल’

शनिवार, 20 दिसंबर 2025

‘निकाह मंजिल’

लघुकथा 
दिनेशराय द्विवेदी

‘निकाह मंजिल’ पुराने शहर के बीचों बीच खड़ी एक सदियों पुरानी इमारत थी, इसके सब ओर रास्ते गुजरते थे. पुरानी होने के बावजूद उसका रखरखाव ऐसा था कि अनेक आधुनिक इमारतें उसके सामने पुरानी लगतीं. इमारत बाहर से औरत-मर्द के बीच के करार का घर लगती थी, लेकिन उसकी भीतरी दीवारें काजियों के फतवों से सजी थीं.

शबनम संवेदनशील, अपनी जिन्दगी में बराबरी की तलाशती एक आधुनिक और आजाद औरत, एक मल्टीनेशनल कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर थी. आरिफ एक दूसरी मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर. वे एक मीटिंग में मिले. दोनों को दोनों की कंपनियों के साझा प्रोजेक्ट पर काम करना था. प्रोजेक्ट चार माह में पूरा हो गया. दोनों के बीच लगाव पनपा. शबनम को आरिफ एक प्रगतिशील नजरिये वाला प्रतीत हुआ, उसे लगा कि दोनों के रिश्ते में बराबरी रहेगी.

आखिर दोनों ने अपने परिवारों को भी सहमत किया. दोनों का निकाह तय हो गया. वकील शबनम के पास आरिफ का इजाब लाया और शबनम ने उस पर हाँ कर कर अपनी मुहर लगा दी, गवाहों ने कहा इजाब क़बूल हुआ, मेहर तय हो गया, शादी मुकम्मल हुई. क़ाजी ने निकाहनामा लिख कर उन दोनों के तथा मौजूद गवाहों के दस्तखत करवाए और अपने दस्तखत करने के बाद दोनों को एक-एक कापी दे कर कहा यह तुम दोनों के बीच शादी का करार है. शबनम ने मुस्कुराकर सोचा, "करार में बराबरी होती है." दोनों बहुत खुश थे, दोनों को अपना मनपसंद हमराह मिल गया था.

विवाह के पहले विचारों से प्रगतिशील लगने वाले आरिफ अपनी जिन्दगी में जरा भी नहीं उतार सका था. मर्द औरत की बराबरी की बात जरूर करता, लेकिन रिश्ते में आने के बाद से ही उसके व्यवहार ने शबनम को समझा दिया कि वह उस पर नियंत्रण चाहता है. पर अपनी चाहतों को हमेशा उसकी चाहतों पर तरजीह देता. दोनों के बीच बहस होती और आखिर शबनम को ही झुकना पड़ता. वह झुकना नहीं चाहती थी, पर उसे लगता कि दोनों के बीच का अमन टूट जाएगा, उसका सुकून छिन जाएगा. निकाह की पहली सालगिरह तक शबनम को इस रिश्ते में घुटन महसूस होने लगी.

दिन बीतते गए. निकाह मंजिल की दीवारें अब उसकी हर आवाज को आरिफ के रंग में रंग कर फतवे में बदल जाती. आखिर एक दिन शबनम ने आरिफ को कह दिया, “हमारी जिन्दगी में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है, घुटन महसूस होती है. हमें अलग हो जाना चाहिए.” आरिफ चुप्पी खींच गया.

एक रात जब शबनम गहरी नींद में थी, आरिफ ने कहा, “शबनम, यहाँ निकाह मंजिल में बड़ा दरवाजा है, इसे तलाक कहते हैं और उससे मैं बाहर जा सकता हूँ, मुझे किसी वजह की जरूरत नहीं. तुम्हें इससे बाहर निकलने की इजाजत नहीं.”

शबनम ने कहा, “अगर मैं बाहर जाना चाहूँ?”

आरिफ ने छोटे दरवाजे की और इशारा करते हुए कहा, “तुम उस खुला दरवाजे से, बाहर जा सकती हो लेकिन उसके लिए भी तुम्हें मेरी मंजूरी की जरूरत है. और अगर मेरी मंजूरी न हो तो तुम्हारे लिए यह दरवाजा फस्ख होगा, तुम्हें खास वजह बतानी होंगी और अदालत में उसे साबित भी करना होगा.”

“मैं तो जानती थी कि निकाह एक करार है जिसमें दोनों पक्ष बराबर होते हैं.” शबनम ने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी. तभी दीवारें बोलने लगीं. “निकाह कोई करार नहीं बल्कि फतवा है. यहाँ बराबरी की चाबी भी खाविंद के पास होती है, बीवी के पास नहीं.”

शबनम दीवार के पास गयी और उस पर लिख दिया, “करार तब तक करार नहीं होता जब तक कि उसमें दोनों पक्ष बराबर न होते हों, मैं लड़ूंगी और इस निकाह मंजिल से बाहर निकलूंगी.”

शबनम ने अगले दिन ही अदालत में खुला (फस्ख) के लिए दरख्वास्त पेश कर दी. उसने अदालत के सामने साबित किया कि उसके पास ‘निकाह मंजिल’ से बाहर जाने की वजहें हैं. अदालत ने उसकी दलीलों को मंजूर करते हुए “निकाह मंजिल” से बाहर जाने की इजाजत के फैसले पर अपनी मुहर लगा दी. शबनम फिर से आजाद औरत थी।

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