लघुकथा
दिनेशराय द्विवेदी
देश की राजधानी कहे जाने वाले इस शहर की सुबह अब उजाले से नहीं, धुएँ और धूल से शुरू होती है. हवा में घुला ज़हर हर साँस को बोझिल बना देता है. अस्पतालों की ओपीडी में भीड़ बढ़ती जा रही है- जिधर देखो उधर खाँसते, हाँफते, थके हुए चेहरे दिखाई देते हैं.
अस्पताल के ओपीडी में एक स्त्री दाखिल हुई, चेहरे पर थकान, आँखों में व्याकुलता और साँसों में घरघराहट. वह डाक्टर मल्होत्रा के कक्ष के सामने रुकी. अंदर झाँक कर देखा, वहाँ दो ही मरीज थे. एक को डॉक्टर देख रही थी, दूसरा प्रतीक्षा में था. बाहर पूरी एक लाइन लगी थी. जिनमें से कुछ बीच-बीच में खाँस लेते थे. वह भी कतार में सबसे पीछे लग गयी. डॉ. मल्होत्रा उसे अच्छी तरह पहचानती थी. पिछले सत्र तक उनकी बेटी उसी स्कूल में पढ़ती थी जिसमें वह वाइस प्रिंसिपल थी. पीटी मीटिंग में वे अक्सर मिल जाती थीं. वह सीधे अंदर घुस कर उसके सामने जा कर खड़ी हो जाती तो वे उसे पहले देख लेतीं. लेकिन लाइन तोड़ना उसे गवारा नहीं था. खास तौर पर एक शिक्षिका के तौर पर. उसे खुद रोज अपने छात्रों को लाइन में लगाना पड़ता था. उन्हें लाइन का महत्व समझाना पड़ता था.
तभी उस स्त्री को खाँसी आने लगी. उसे लगा एक दो टुकड़े खाँस लेने से यह रुक जाएगी. लेकिन खाँसी शुरू हुई तो बन्द नहीं हुई. वह खाँसती चली गयी, यहाँ तक कि उसके आगे पीछे लाइन में लगे लोग उसे सहारा देने लगे.
इस लंबी खाँसी की आवाज डॉ. मल्होत्रा को भी सुनाई दी. उन्होंने अपनी परिचारिका को कहा, “कौन ऐसा खाँस रहा है उसे फौरन अंदर लाओ.”
परिचारिका तुरन्त बाहर गयी और खाँसती स्त्री को पकड़ कर सहारा देते हुए अंदर डॉक्टर मल्होत्रा के पास ले आई और सीधे डॉक्टर के सामने मरीज के बैठने के स्टूल पर बिठा दिया. डाक्टर उस स्त्री को तुरन्त पहचान गयी.
“अरे संध्या तुम¡ तुमने अपना ये क्या हाल कर रखा है? ये खाँसी कब से चल रही है? तुम पहले क्यों नहीं आईं?” डॉक्टर ने लगभग डाँटते हुए कहा.
"डॉक्टर, मुझे लगता है मैं अब पढ़ा नहीं पाऊँगी, मुझे यह काम छोड़ना पड़ेगा." संध्या ने बहुत धीमी आवाज़ में कहा.
डाक्टर ने तुरन्त स्टेथ से उसकी जाँच की और कुछ जाँचें लिख दीं. जाँचों में कोई पुराना रोग नहीं मिला। लगता था जैसे उसकी साँसें किसी अदृश्य जाल में फँस गई हों। एक्स-रे से पता लगा, संध्या के दोनों तरफ के साइनस सूजे हुए हैं, और ब्रोंकियल ट्यूब भी प्रभावित है.
संध्या चुप रही, उसे याद आया, हर सुबह बस पकड़ने के लिए व्यस्त सड़कों पर दौड़ना, हर शाम धुएँ से भरी सड़कों से गुजरते हुए आटो रिक्शा से घर लौटना। यही उनकी बीमारी का असली कारण था. हलकी खाँसी से शुरुआत हुई. जैसे जैसे दिन बीतते वह बढ़ती रही। सूखी खाँसी के दौरे, साँस लेने में तकलीफ़, और बच्चों के सामने पढ़ाते समय अचानक रुक जाना.
"मैम, आप क्यों बार-बार रुक जाती हैं?" छात्रों का मासूम सवाल उनके भीतर गहरी चोट करता.
खाँसी का दौरा… एक मिनट… साँस अटकी… पीठ अकड़ी… आँखें नम.
यह सिर्फ़ बीमारी नहीं, बल्कि प्रदूषण का अदृश्य हमला था.
डॉ. अरोड़ा ने उसे नेज़ल-स्प्रे, नेबुलाइज़र और एंटीबायोटिक्स दीं। धीरे-धीरे राहत मिली, लेकिन पूरी तरह ठीक होने में महीना भर लग गया.
संध्या ने महसूस किया, यह संघर्ष व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक है, हर दिन लाखों लोग इसी ज़हर को साँसों में उतार रहे हैं.
एक शाम, जब वह स्कूल से लौट रही थी, उसने सड़क किनारे बच्चों को देखा. वे मास्क लगाए खेल रहे थे. खेलते-खेलते वे मास्क उतारते, फिर हँसते हुए दोबारा पहन लेते. मानो मास्क उनका नया खिलौना हो. संध्या की आँखों में धुंध नहीं, आँसू भर आए.
आखिर इस जनघातक मुसीबत से शहर को कब निजात मिलेगी. पिछली सरकार ने कुछ उपाय किए थे. जिससे शहर में वाहनों का संचालन कम हो, निर्माण कार्यों पर रोक लगाई थी. लेकिन वे कारखाने जो लगातार धुआँ उगलते हुए पूंजीपतियों के लिए मुनाफा बना रहे थे उन्हें धुआँ उगलने से रोकना बस का नहीं था. शहर के नजदीक ही खड़े किए गए कचरे के पहाड़ों में लगी हुई आग जो लगातार धुआँ उगलती थी. नयी सरकार जिस पार्टी की बनी वह पुरानी सरकार की आलोचना करती थी. लेकिन उसने पुराने उपायों को भी धता बता दी थी. बल्कि प्रदूषण को नापने वाले केन्द्रों के आस पास पानी का छिड़काव करने वाले वाहनों से निरन्तर छिड़काव करवाना शुरू कर दिया था. जिससे केन्द्र प्रदूषण का माप कम बता सकें.
संध्या के मन में यह सोच कर गहरी निराशा भरती जा रही थी. उसकी कहानी सिर्फ़ उसकी अपनी नहीं रह गयी थी, बल्कि हर उस नागरिक की थी जो इस धुंध में जी रहा था. वायु प्रदूषण अब कोई आँकड़ा नहीं रह गया था, बल्कि एक जनघातक यथार्थ में बदल चुका था. जो रोज-रोज न जाने कितनी जानें लील रहा था, न जाने कितने लोगों की उम्र को ग्रहण लगा रहा था.
एक सवाल हवा में तैरता रह गया था-
"क्या हम आने वाली पीढ़ी को हवा नहीं, सिर्फ़ धुंध और कोहरे ही सौंपेंगे?"
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