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शुक्रवार, 4 जून 2010

जनता तय करेगी कि कौन सा मार्ग उसे मंजिल तक पहुँचाएगा

ल बंगाल में स्थानीय निकायों के चुनाव के नतीजे आए। भाकपा (मार्क्स.) के नेतृत्व वाले वाममोर्चे को करारी शिकस्त का मुहँ देखना पड़ा। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस को अच्छी-खासी जीत मिली। आम तौर पर इस तरह के नतीजे देश के दूसरे भागों में आते रहते हैं, वहाँ भी, जहाँ वाम का अच्छा खासा प्रभाव है। केरल में कभी वाम मोर्चा सरकार में होता है, तो कभी कांग्रेस के नेतृत्व वाला मोर्चा। लेकिन वहाँ कभी इतनी हाय-तौबा नहीं देखने को मिलती। जितनी कल देखने को मिली। उसका कारण है कि पिछले 33 वर्ष में बंगाल में वाम-शासन का जो दुर्ग रहा, उस में कोई  सेंध नहीं लगा पाया। इस के बावजूद कि केन्द्र में लगातार विरोधी-दलों की सरकारें विद्यमान रहीं। आज बंगाल में वाम की स्थानीय निकायों में हार पर जो हल्ला हो रहा है उस का कारण यही है कि उस दुर्ग में बमुश्किल एक छेद होता दिखाई दे रहा है। इस छेद के दिखाई देने में बाहरी प्रहारों का कितना योगदान है और कितने अंदरूनी कारण हैं, उन्हें एक सचेत व्यक्ति आसानी से समझ सकता है। मेरी मान्यता तो यह है कि किसी भी निकाय में परिवर्तन के लिए अंतर्वस्तु मुख्य भूमिका अदा करती है, बाह्य कारणों की भूमिका सदैव गौण और तात्कालिक होती है। वाम-मोर्चे को लगे आघात की भी यही कहानी है। तृणमूल काँग्रेस की भूमिका वहाँ तात्कालिक और गौण रही है।

स घटना ने राजनीतिक रूप से सचेत प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित किया। मैं उस से अप्रभावित कैसे रह सकता था? मेरे मन-मस्तिष्क पर उस की जो भी प्रतिक्रिया हुई, मैं ने उसे कुछ शब्दों में प्रकट करने का प्रयास किया,।फलस्वरूप अनवरत पर कल की पोस्ट ने आकार लिया। एक सामयिक और कुछ चौंकाने वाले शीर्षक के कारण ही सही पर बहुत मित्र वहाँ पहुँचे। कइयों ने उस पर प्रतिक्रिया भी दी। मेरे लिए संतोष की बात यह थी कि मित्रों ने मेरी प्रतिक्रिया को सहज रूप में एक ईमानदार प्रतिक्रिया के रूप में स्वीकार किया। उन ने भी जो राजनैतिक सोच में मुझसे अधिक सहमत होते हैं, और उन ने भी जो अक्सर बहुत अधिक असहमत रहते हैं। चाहे इस घटना पर उन की प्रतिक्रिया कुछ भी रही हो। विशेष रूप से स्मार्ट इंडियन जी, सुरेश चिपलूनकर जी, अनुनाद  सिंह जी और अशोक पाण्डेय जी की घटना पर प्रतिक्रियाएँ और प्रतिक्रियाओं पर प्रतिक्रियाएँ उन के अपने-अपने लगभग स्थाई हो चुके सोच के अनुसार ही थीं। मुझे उन पर किंचित भी आश्चर्य नहीं हुआ। आश्चर्य तो तब होता जब उन से ऐसी प्रतिक्रियाएँ नहीं होतीं।  हो सकता है कि इन चारों मित्रों की धारणा यह बन चुकी हो कि उन की अपनी धारणाएँ इतनी सही हैं कि वे कभी बदल नहीं सकतीं। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता। मेरा अपना दर्शन इस तरह सोचने की अनुमति नहीं देता।

मेरी मान्यता है कि कल जिन-जिन मित्रों ने अनवरत की पोस्ट पढ़ी और जिन ने उस पर  प्रतिक्रिया व्यक्त की उन सभी की मनुष्य और समाज के प्रति प्रतिबद्धता में कमी नहीं है। वे सभी चाहते भी हैं कि मनुष्य समाज अपने श्रेष्ठतम रूप को प्राप्त करे। यह दूसरी बात है कि मनुष्य समाज के श्रेष्ठतम रूप के बारे में हमारी अवधारणाएँ अलग-अलग हैं और वहाँ तक पहुँचने के हमारे मार्गों के बारे में भी गंभीर मतभेद हैं। लेकिन मनुष्य समाज का श्रेष्ठतम रूप तो एक ही हो सकता है। मेरी यह भी मान्यता है कि उस श्रेष्ठतम रूप के बारे में हमारे पास अभी तक केवल अवधारणाएँ ही हैं। वह ठीक-ठीक किस तरह का होगा? यह अभी तक पूरी तरह भविष्य के गर्भ में छुपा है। मनुष्य समाज के उस श्रेष्ठतम रूप तक पहुँचने के बारे में मतभेद अघिक गंभीर हैं, इतने कि हम उस के बारे में तुरंत तलवारें खींचने में देरी नहीं करते। हर कोई अपने ही मार्ग को सर्वोत्तम मानता है। बस यहीं हम गलती करते हैं। हम अपने-अपने मार्ग के बारे में यह तो सोच सकते हैं कि वह सही है, आखिर तभी तो हम उस पर चल रहे हैं। लेकिन हम अंतिम सत्य के रूप में उसे स्वीकार नहीं कर सकते कि वही वास्तव में सही मार्ग है। अब प्रश्न यह उठता है कि यह कैसे तय हो कि वास्तव में सही मार्ग कौन सा है? निश्चित ही आने वाला समय इस चीज को तय करेगा। मेरा यह भी मानना है कि एक समष्टि के रूप में जनता सदैव बुद्धिमान होती है। वह शायद अभी यह तय करने में समर्थ नहीं कि उस के लिए कौन सा मार्ग सही है। लेकिन वह सभी मार्गों को परखती अवश्य है। जब उसे लगता है कि कोई मार्ग सही है तो उस पर चल पड़ती है। उस मार्ग पर चलते हुए भी वह लगातार उसे परखती है। जब तक उसे लगता है कि वह सही चल रही है, चलती रहती है। लेकिन जब भी उसे यह अहसास होने लगता है कि कोई उसे गलत रास्ते पर ले आया है, या कि जिस रास्ते पर उस से ले जाने का वायदा किया गया था उस से भिन्न रास्ते पर ले जाया जा रहा है। तो उस अहसास को वह तुरंत प्रकट करती है। लेकिन नए मार्ग पर भी वह तुंरत नहीं चल पड़ती। उस के लिए वह रुक कर तय करती है कि अब उसे किधऱ जाना चाहिए?

बंगाल की जनता ने ऐसा ही कुछ प्रकट किया है। उसे अहसास हुआ है कि वह मंजिल तक पहुँचने के लिए पिछले अनेक वर्षों से जिस मार्ग पर चल रही थी वह एक चौराहे पर आ कर ठहर गया है, और उसे तय करना है कि कौन सा मार्ग उसे अपनी मंजिल तक पहुँचाएगा।
जिन मित्रों ने कल प्रतिक्रिया जनित मेरी रचना को पढ़ा है और उस पर अपने विचार प्रकट करते हुए उस पर अपने हस्ताक्षर किये हैं, मैं उन सभी का आभारी हूँ, उन्हों ने मुझे यह अहसास कराया है कि मैं एक सही मार्ग पर हूँ।

बुधवार, 2 जून 2010

कामरेड! अब तो कर ही लो यक़ीन, कि तुम हार गए हो



कामरेड!
अब तो कर ही लो यक़ीन
कि तुम हार गए हो

अनेक बार चेताया था मैं ने तुम्हें
तब भी, जब मैं तुम्हारे साथ था
कदम से कदम मिला कर चलते हुए
और तब भी जब साथ छूट गया था
तुम्हारा और हमारा

याद करो!
क्या तय किया था तुमने?
छियालीस बरस पहले
जब यात्रा आरंभ की थी तुमने
कि तुम बनोगे हरावल
श्रमजीवियों के
तुम बने भी थे
शहादतें दी थीं बहुतों ने
इसीलिए
सोचा था बहुत मजबूत हो तुम

लेकिन, बहुत कमजोर निकले
आपातकाल की एक चुहिया सी
तानाशाही के सामने टूट गए
जोश भरा था जिस नारे ने किसानों में
'कि जमीन जोतने वालों की होगी'
तुम्हारे लिए रह गई
नारा एक प्रचार का
मैं ने कहा था उसी दिन
तुम हार गए हो
लेकिन तुम न माने थे

त्याग दिया मार्ग तुमने क्रांति का
चल पड़े तुम भी उसी मतपथ पर
चलता है जो जोर पर जो थैली का हो
या हो संगठन का
ज्यों ज्यों थैली मजबूत हुई
संगठन बिखरता चला गया
तुमने राह बदल ली
हो गए शामिल तुम भी
एकमात्र मतपथ के राहियों में
हो गए सेवक सत्ता के
भुला दिए श्रमजीवी और
झुलसाती धूप में जमीन हाँकते किसान
जिनका बनाना था एका
बाँट दिया उन्हें ही
याद रहा परमाणु समझौते का विरोध
और एक थैलीशाह के कार कारखाने
के लिए जमीन

अब मान भी लो
कि तुम हार गए हो
नहीं मानना चाहते
तो, मत मानो
बदल नहीं जाएगा, सच
तुम्हारे नहीं मानने से
देखो!
वह अब सर चढ़ कर बोल रहा है

नहीं मानते,
लगता है तुम हारे ही नहीं
थक भी गए हो
जानते हो!
जो थक जाते हैं
मंजिल उन्हें नहीं मिलती

जो नहीं थके
वे चल रहे हैं
वे थकेंगे भी नहीं
रास्ता होगा गलत भी
तो सही तलाश लेंगे
तुम रुको!
आराम करो
जरा, छांह में
मैं जाता हूँ
उन के साथ
जो नहीं थके
जो चल रहे हैं