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शनिवार, 16 मई 2020

निक नेम


मेरा मुवक्किल जसबीर सिंह अपने ऑटो में स्टेशन से सवारी ले कर अदालत तक आया था। अपने मुकदमे की तारीख पता करने के लिए मेरे पास आ गया। उसका फैक्ट्री से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा मैं लड़ रहा था। जब वो आया तब मैं टाइपिस्ट के पास बैठ कर डिक्टेशन दे रहा था। मुझे व्यस्त देख कर वह वहाँ बैठ गया।

इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति तेजी से अदालत परिसर में घुसा।  उसके हाथ में बड़ा सा थैला था। उसने पट से वह थैला जसबीर सिंह के पास रखा और बोला, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। जसबीर सिंह या मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इन्तजार न करते हुए वह व्यक्ति तेजी से परिसर में अंदर की और चला गया।

मैं टाइप करवा कर निपटा। उसके बाद जसबीर सिंह से बात की। जसबीर उसके बाद भी बैठा रहा। आधा घंटा गुजर गया। आखिर मैं ने ही उससे पूछा, “जसबीर, आज आटो नहीं चला रहे हो क्या?”
“वकील साहब¡ एक बुजुर्ग आदमी यह थैला रख गया है, और मुझे कह कर गया है कि मैं आता हूँ। अब उसने विश्वास किया है तो उसके आने तक रुकना तो पड़ेगा।“

जसबीर की बात सुन कर मुझे जोर की हंसी आ गयी। मैं ने उसे कहा, “तुम जाओ, इस थैले का ध्यान मैं रख लूंगा। असल में वह बुजुर्ग मेरे रिश्तेदार हैं, वह तुम्हें नहीं मुझे कह कर गए थे कि, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। मेरा निक  नेम भी  सरदार है। इसलिए तुम गलत समझ गए कि तुमसे कह कर गए हैं।“

मेरे इतना कहते ही जसबीर ने राहत की साँस ली। उठते हुए बोला, “तो अब मैं चलता हूँ। में तो समझा था, यह पता नहीं कौन आदमी मुझे यहाँ थैले की रखवाली में बिठा गया।“


कल एक पोस्ट पर सब से निक नेम बताने को कहा था। मैं ने अपना निक नेम बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वाकई “सरदार” ही निक नेम है क्या?

निक नेम

मेरा मुवक्किल जसबीर सिंह अपने ऑटो में स्टेशन से सवारी ले कर अदालत तक आया था। अपने मुकदमे की तारीख पता करने के लिए मेरे पास आ गया। उसका फैक्ट्री से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा मैं लड़ रहा था। जब वो आया तब मैं टाइपिस्ट के पास बैठ कर डिक्टेशन दे रहा था। मुझे व्यस्त देख कर वह वहाँ बैठ गया।

इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति तेजी से अदालत परिसर में घुसा।  उसके हाथ में बड़ा सा थैला था। उसने पट से वह थैला जसबीर सिंह के पास रखा और बोला, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। जसबीर सिंह या मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इन्तजार न करते हुए वह व्यक्ति तेजी से परिसर में अंदर की और चला गया।

मैं टाइप करवा कर निपटा। उसके बाद जसबीर सिंह से बात की। जसबीर उसके बाद भी बैठा रहा। आधा घंटा गुजर गया। आखिर मैं ने ही उससे पूछा, “जसबीर, आज आटो नहीं चला रहे हो क्या?”
“वकील साहब¡ एक बुजुर्ग आदमी यह थैला रख गया है, और मुझे कह कर गया है कि मैं आता हूँ। अब उसने विश्वास किया है तो उसके आने तक रुकना तो पड़ेगा।“

जसबीर की बात सुन कर मुझे जोर की हंसी आ गयी। मैं ने उसे कहा, “तुम जाओ, इस थैले का ध्यान मैं रख लूंगा। असल में वह बुजुर्ग मेरे रिश्तेदार हैं, वह तुम्हें नहीं मुझे कह कर गए थे कि, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। मेरा निक  नेम भी  सरदार है। इसलिए तुम गलत समझ गए कि तुमसे कह कर गए हैं।“

मेरे इतना कहते ही जसबीर ने राहत की साँस ली। उठते हुए बोला, “तो अब मैं चलता हूँ। में तो समझा था, यह पता नहीं कौन आदमी मुझे यहाँ थैले की रखवाली में बिठा गया।“

कल एक पोस्ट पर सब से निक नेम बताने को कहा था। मैं ने अपना निक नेम बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वाकई “सरदार” ही निक नेम है क्या?

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2018

नाम बदलने की गधा-पचीसी


गरों और स्थानों के बदलने की जो गधा-पचीसी चल रही है, उस की रौ में सब बहे चले जा रहे हैं। वे यह भी नहीं सोच रहे हैं कि वे क्या बदल रहे हैं, और क्यों बदल रहे हैं। बस एक भेड़ चाल है जो ऊपर से नीचे तक चली आई है। प्रधानजी सब से आगे वाली भेड़ हैं, उन के पीछे मुखियाजी चल रहे हैं। फिर पीछे जो रेवड़ है उस में एक एक भेड़ आप खुद पहचान सकते हैं। सब के सब आप को नजर आ जाएंगे।


क्सर सभी नगरों का नाम उन्हें बसाने वाले विजेताओं के नाम पर रखा जाता है। पर मेरे शहर का नाम विजेता राजा ने पराजित भील राजा के नाम पर रखा था। इस तरह मेरे शहर के नाम में खोट है। मुझे तो अभी तक आश्चर्य होता है कि हमारे शहर की किसी भेड़ को अब तक यह क्यों नहीं सूझा कि इस खोटे नाम को बदल दिया जाए। पर ऐसा भी नहीं है कि मेरे शहर की भेडो़ं को नाम बदलने की हूक न जगी हो। कभी तो लगता है कि नाम बदलना भी एनीमिया जैसी बीमारी है, जो खून में लोहे जैसे किसी तत्व के कारण होती है। (इस पर शोध होना चाहिए) वे भी जब कुछ नहीं कर पाते तो उन के शरीर में भी नाम बदलने की हूक जगती रहती है।  पिछली बार जब रेवड़ शहर में पड़ा तो वे दशहरा मैदान को प्रगति मैदान में बदलने चल पड़े।  पूरे पाँच साल हो गए पर यह काम पूरा न हुआ। बल्कि मैदान को छोटा कर दिया है। इस से शहर की एक प्रमुख भेड़ के बंगले के सामने बहुत जगह निकल आई है जिस का वह अपने निजी और राजनैतिक इस्तेमाल में उपयोग कर सकती है। यहाँ तक कि वहाँ छोटा मोटा भेड़ सम्मेलन भी आयोजित किया जा सकता है।


कुछ दिनों से सोचा जा रहा था कि जब दशहरा मैदान को प्रगति मैदान नहीं कर सके तो कुछ और किया जाए। उन की निगाह इसी मैदान के पास के चौराहे पर गयी।  जिसे लोग उसी चौराहे पर बनी पहली पहली  बिल्डिंग के नाम से बोलाते हैं। अब यह तो ठीक नहीं किसी बिल्डिंग के नाम पर किसी चौराहे का नाम हो। उन्होंने तय किया कि चौराहे का नाम किसी भेड़ के नाम पर होना चाहिए। चौराहे के ही एक कोने में एक पुराने एम्पी जी की मूर्ति लगी है। मौजूदा भेड़ संप्रदाय को उसे देखने के बाद कोई और नाम तलाशने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। एम्पी जी उन के पूर्वज थे। नाम बदल कर उन के नाम पर एम्पीजी चौराहा रख दियास गया।

सुबह खबर अखबार में बिल्डिंग चौराहे का नाम बदल कर एम्पीजी चौराहा कर देने की खबर पढ़ी तो मेरी खोपड़ी ठनक गयी। वह बोल रही थी कि इस चौराहे का नाम तो कोई पच्चीस बरस पहले वाला रेवड़ भी बदल चुका था। पर जब वह बदला गया था तब एम्पीजी की मूरत चौराहे के कोने में नहीं लगी थी, बल्कि खुद एम्पीजी नाम बदलने की उस पुरानी कवायद में शामिल खास भेड़ों में से एक थे। मैं बिल्डिंग चौराहे का नाम बदले जाने का पुराना सबूत तलाशने लगा। मुझे याद आया कि पास की ही इमारत में बैंक की शाखा है जिस में मेरा खाता है। मैंने बैंक की पासबुक निकाली और देखी तो वहाँ उस चौराहे का नाम "तुलसीदास सर्किल" लिखा था। वही तुलसीदास जिन्हों ने रामचरित मानस लिखी थी। अब भेड़ों को तुलसीदास और रामजी से क्या लेना देना? वे कोई भेड़ थोड़े ही थे। वैसे भेड़ों के नाम बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब बीस पच्चीस बरस पहले इस चौराहे का नाम बदला गया था तब भी लोग इसे बिल्डिंग चौराहा ही कहते थे और आगे भी बिल्डिंग चौराहा ही कहते रहेंगे। लोगों ने जो दिया था वही परमानेंट नाम है। भेड़ों के दिए नाम तो टेम्परेरी होते हैं।


सोमवार, 12 मार्च 2012

बन्दर की रोटियाँ देने वाला यह वृक्ष कौन सा है?

मित्रों!
विगत साढ़े तीन माह से अनवरत अनियमित था। लेकिन इस बार तो एक लंबा विराम ही लग गया। एक बार जब खिलाड़ी कुछ दिन के लिए मैदान से बाहर होता है तो उस का पुनर्प्रवेश आसान नहीं होता। मेरे साथ भी यही हो रहा है। सप्ताह भर से सोच रहा हूँ कि कहाँ से आरंभ करूँ।  कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। कल अचानक तीसरा खंबा पर 1000 पोस्टें पूरी हो गयी। यह कैसे हो गया। इतना कैसे लिख गया। मुझे स्वयं पर आज आश्चर्य हो रहा है। लेकिन यह सब ब्लागिरी का ही प्रताप है जिस ने मुझ से इतना काम करवा लिया। वाकई ब्लागरी में बहुत ताकत है। अनवरत पर आज अपनी अनुपस्थिति इस पोस्ट के साथ तोड़ रहा हूँ।  लिखने को अनेक विषय हैं लेकिन आज बात कुछ हट कर।


वृक्ष
 कोटा  कलेक्ट्रेट परिसर में एक वृक्ष है।  इस के नजदीक की चाय आदि की दुकानें हैं उन्हीं में से एक पर हम अक्सर कॉफी पीने आते हैं। गर्मी में उस की घनी शीतल छाया में बैठ कर कॉफी सुड़कने का आनंद ही कुछ और है।  मैं लोगों से हर बार इस वृक्ष का नाम पूछता हूँ.  लेकिन मैं आज तक इस वृक्ष का नाम नहीं जान सका। जिन से भी पूछा उन्हों ने आड़े तिरछे नाम बताए। मैं जानना चाहता हूँ कि इस वृक्ष का नाम क्या है? यदि पता लग सके तो इस वृक्ष का वानस्पतिक विज्ञानी नाम भी जानना चाहता हूँ। इस वृक्ष का ऋतुचक्र वार्षिक है। वर्ष भर यह हरे पत्तों से भरा रहता है। लेकिन जनवरी में इस के पत्ते झड़ने लगते हैं और यकायक केवल नंगी शाखाएँ दिखाई देने लगती हैं। लेकिन कुछ ही दिनों में पुनः यह हरा हो उठता है। इस बार इस पर पत्तों जैसी हरी संरचनाएँ उग आती हैं जैसे दो पत्तियों को जोड़ कर उन के बीच पराठे की तरह मसाला भर दिया हो। मई माह तक इन की हरियाली बनी रहती है। फिर यह सूखने लगती हैं और जून में बड़े आकार के कोमल पत्ते निकल आते हैं जो पकते हुए गहरे हरे हो जाते हैं और जनवरी तक बने रहते हैं। अनेक व्यक्तियों इसे बन्दर की रोटी का पेड़ बताया। ऊपर का चित्र उसी वृक्ष का है। मैं कभी कभी इस पेड़ की शाखा पर ट्री हाउस बनवा कर उस में मनपसंद किताबों के साथ छुट्टियाँ बिताने की कल्पना करता हूँ।  शाखाओं के चित्र नीचे हैं। क्या आप बताएंगे इस वृक्ष का नाम क्या है? इस का वानस्पतिक नाम क्या है? परिवार और जाति बता सकें तो और भी बेहतर।

शाखाएँ

शाखा

शाखाग्र

बंदर की रोटियाँ

प के उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी। 

रविवार, 21 दिसंबर 2008

विश्वास पर हमेशा कायम रहने का लाभ

राजस्थान में जब कृषि भूमि की सीलिंग लागू हुई तो अनेक जमींदारों की जमीनें सीलिंग में अधिगृहीत हो गईं। लेकिन अधिगृहीत भूमि का आवंटन अन्य व्यक्ति को होने के तक पूर्व जमींदार ही उस पर खेती करते रहे। जमींदारों के परिवारों में भी पैतृक संपत्ति का विभाजन न हो पाने के कारण स्थिति यह आ गई कि अनेक लोगों के पास बहुत कम कृषि भूमि रह गई। एक ऐसे ही परिवार का एक व्यक्ति सरकार में पटवारी था और अपने परिवार की सीलिंग में गई भूमि पर खेती कर रहा था।

सरकार ने उस भूमि को एक मेहतर को आवंटित कर दिया। उस पटवारी ने मुकदमा कर दिया कि उस भूमि पर वह खुद अनेक वर्षो से खेती कर रहा है और इसे दूसरे को आवंटित नहीं किया जा सकता। वह मेहतर मुकदमे का नोटिस ले कर मेरे पास आ गया और मैं ने उस की पैरवी की।

मुकदमे की हर पेशी पर वह पटवारी मुझ से मिलता और मुझे पटाने की कोशिश करता कि किसी भी तरह मैं कुछ रियायत बरतूँ और वह मुकदमा जीत जाए। वह जाति से ब्राह्मण था और बार बार मुझे दुहाई देता था कि एक ब्राह्मण की भूमि एक हरिजन के पास चली जाएगी। मैं उसे हर बार समझा देता कि मैं अपने मुवक्किल की जम कर पैरवी करूंगा। वह भी अपने वकील को कह दे कि कोई कसर न रखें। मैं ने उसे यह भी कहा कि मैं उसे यह मुकदमा जीतने नहीं दूंगा। बहुत कोशिश करने पर भी जब वह सफल नहीं हुआ तो उस ने कहना बंद कर दिया। लेकिन हर पेशी पर आता जरूर और राम-राम जरूर करता। 

मुकदमा हमने जीतना था, हम जीत गए। भूमि हरिजन को मिल गई। लेकिन उस के कोई छह माह बाद वह पटवारी मेरे पास आया और बोला। आप ने मुझे वह मुकदमा तो हरवा दिया, मेरी जमीन भी चली गई। लेकिन यदि मेरा कोई और मामला अदालत में चले तो क्या आप मेरा मुकदमा लड़ लेंगे। मैं ने उसे कहा कि क्यों नहीं लड़ लूंगा। पर मैं कोई शर्तिया हारने वाला मुकदमा नहीं लड़ता। वह चला गया।

बाद में उस ने मुझे अपना तो कोई मुकदमा नहीं दिया, लेकिन जब भी कोई उस से अपने मुकदमें में सलाह मांगता कि कौन सा वकील किया जाए? तो हमेशा मेरा नाम सब से पहले उस की जुबान पर होता। उस व्यक्ति के कारण मेरे पास बहुत से मुवक्किल आए।

गुरुवार, 15 मई 2008

उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है

कल शाम जब से जयपुर बम विस्फोट का समाचार मिला है मन एक अजीब से अवसाद में है। आखिर इस समाज और राज्य को क्या हो गया है? जिस में आतंकवाद की कायराना हरकतों को अंजाम देने वाले लोगों को पनाह मिल जाती है। लोग उन के औजार बनने को तैयार हो जाते हैं। वे अपना काम कर के साफ निकल जाते हैं।

लगता है कि न समाज है और न ही राज्य। ये नाम अपना अर्थ खो चुके हैं। पहले से चेतावनी है, लेकिन उस से बचाव के साधन भोंथरे सिद्ध हो जाते हैं। समाज को कोई चिन्ता नहीं है, उस ने अपने अस्तित्व को कहाँ विलीन कर दिया है? कुछ पता नहीं। जैसे ही घटना की सूचना मिलती है। चैनल उस पर टूट पड़ते हैं जैसे कोई शिकार हाथ लग गया हो और एक प्रतिद्वंदिता उछल कर सामनें आती है। कहीं कोई दूसरा उस से अधिक मांस न नोच ले। चित्र दिखाए जाते हैं, इस चेतावनी के साथ कि ये आप को विचलित कर सकते हैं। लोग इन्हें ब्लॉग तक ले आते हैं। विभत्सता प्रदर्शन, कमाई और नाम पाने का साधन बन जाती है। कुछ चैनल अपने को शरलक होम्स और जेम्स बॉण्ड साबित करने पर उतर आते हैं।

मंत्रियों की बयानबाजी आरम्भ हो जाती है। मुख्यमंत्री को तुरन्त प्रतिक्रिया करने में परेशानी है। जैसे यह देश और प्रान्त में पहली बार हो रहा है। वे पहले जायजा (सोचेंगी और राय करेंगी कि किस में उन का हित है, जनता और देश जाए भाड़ में) लेंगी फिर बोलेंगी। प्रान्त के सब से बड़े अस्पताल का अधीक्षक गर्व से कहता है उन पर सब व्यवस्था है, कितने ही घायल आ जाएं। पर व्यवस्था आधे घंटे में ही नाकाफी हो जाती है। रक्त कम पड़ने लगता है। रक्तदान की अपीलें शुरू हो जाती हैं। अपील सुन कर इतने लोग आते हैं कि रक्त लेने के साधन अत्यल्प पड़ जाते हैं। घायलों को जो पहली अपील के बाद सीधे बड़े अस्पताल पहुँचते हैं उन्हें दूसरे अस्पतालों को भेजा जा रहा है। पहले ही पास के अस्पताल पहुंचने की अपील करने का ख्याल नहीं आया।

मुख्यमंत्री जानती हैं कि उन पर दायित्व आने वाला है। आखिर आंतरिक सुरक्षा राज्यों की जिम्मेदारी है. केन्द्र की नहीं तो वे फिर से पोटा या उस जैसा कानून लागू नहीं करने के लिए केन्द्र को कोसना प्रांऱभ कर देती हैं। यह उन के दल का ऐजेण्डा है और केन्द्रीय नेता उस पर बयान दे चुके हैं।

अगले दिन राज्य भर में राजकीय शोक की घोषणा कर दी जाती है। स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर और अदालतें बन्द रहती हैं। एक दल को बन्द की याद आती है। वह बन्द की घोषणा कर देते हैं। (सब से आसान है, तोड़फोड़ के आतंक से लोग दुकानें, व्यवसाय बन्द करते ही हैं) बस कुछ रंगीन पटके ही तो गले में डाल कर घूमना है। बन्द रामबाण इलाज है हर मर्ज का। बाजार बन्द कर दो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। एक आतंक की शिकार जनता के सामने दूसरा आतंक परोस दो। पहले वाले की तीव्रता कुछ तो कम होगी। वकीलों ने शोक सभा करनी है, शोक के राजकीय अवकाश से बन्द अदालतों के कारण संभव नहीं हुआ। अब अगले दिन शोक-सभा होगी, फिर अदालतों का काम बन्द। इस के अलावा कोई चारा भी नहीं, काम के बोझ से कमर तुड़ाती अदालतें दो दिन का काम करेंगी तो पेशियाँ बदलने के सिवा क्या कर सकती हैं? वैसे भी हर रोज 80% काम तो वे ऐसे ही निपटाती हैं।

वे साजिश रचते हैं, कामयाब होते हैं। आप अभी सूत्र तलाश कर रहे होते हैं। तक वे अपनी कामयाबी के मेक की वीडियो चैनलों को मेल कर देते हैं। चैनल चीखने लगते हैं, उन्हीं का स्वर। उन के  हाथ बटेर लग गई है। अखबारों में शोक संदेशों की 'क्यू'लगी है। अमरीका के झाड़ बाबा से ले कर राष्ट्रीय पार्टी के जातीय प्रकोष्ठ की मुहल्ला कमेटी के मंत्री तक के बयान आए जा रहे हैं। संपादक देख रहा है उसे कौन, कैसे नवाजता है? किस से कितना बिजनेस मिलता है और मिल सकता है? किस का शोक छापना है किस का नहीं?

सायकिल और बैग बेचने वाले नहीं जानते उन से माल किस ने खरीदा, या उन्हों ने किस को बेच दिया। उन को केवल सेल्स से मतलब है। वे बता देते हैं उन्हों ने बच्चों और महिलाओं को बेचे हैं। कफन बेचने वाले को पता नहीं कफन किस के लिए खरीदा जा रहा है? जीवित के लिए या मृत के लिए, या कि कल बेचा हुआ कफन कल उसी के लिए तो काम नहीं लिया जाएगा?

अचानक इस्पाती समाज भंगुर दिखाई देने लगता है। न जाने कब इस की भंगुरता टूटेगी? टूटेगी भी या नहीं। या ऐसे ही यह विलुप्त हो जाएगा। एक से एक-एक में, कई एकों में। वह बूढ़ा याद आता है जो मरने के पहले अपने बेटों से अकेली लकड़ियाँ तुड़वा रहा था और गट्ठर किसी से न टूटा अब गट्ठर भी टूट रहा है। बस पहले उसे बाँधने वाली रस्सी की गाँठ खोल लो, फिर एक एक लकड़ी.......

और ......... यह हम भारत के लोगों द्वारा रचा गया गणराज्य? अब गण की उपेक्षा करता हुआ। विदेशी साम्राज्य को विदा कर अस्तित्व में आया और अब कह रहा है हम विश्व अर्थव्यवस्था से अछूते नहीं रह सकते, और विश्व आतंकवाद से भी।

आज आज और रहेगा याद यह आतंकवाद। कल भुलाएंगे और परसों से कोई और ब्रेकिंग न्यूज होगी चैनलों पर। फिर से बयानों की क्यू होगी। बधाई या शोक संदेश? कुछ भी। आज भोंचक्के लोग परसों फिर रोटी की जुगाड़ में होंगे, और चैनल भी, उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है।

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

गेम "कैसे बनें सफल व्यापारी"

मैं ने 1978 में वकालत शुरु की। साल भर कुछ भी नहीं कमाया। केवल काम की धुन सवार थी। सोचते थे, काम करो, तो नाम होगा। नाम होगा, तो काम भी मिलेगा, और दाम भी।

एक कहावत हाड़ौती में बहुत कही जाती है। घर का जोगी जोगणा, आन गाँव का सिद्ध। मतलब ज्ञान की पूछ घर में नहीं होती, बाहर वाले को अधिक पूछा जाता है।

हम बाराँ से निकल लिए। आ गए कोटा। काम यहाँ जैसे हमारे इन्तजार में था। खूब काम किया, नाम भी हुआ, दाम भी मिलने लगा। बच्चे हुए, घर बनाया।

यही हाल अभी हिन्दी ब्लॉगिंग यानी हिन्दी चिट्ठाकारी का है। उस का अभी बचपना है, यानी खेलने-खाने के दिन। हम एडसेंस का बिल्ला चिपका कर "कैसे बनें सफल व्यापारी" खेल रहे हैं। अभी हमें मीलों चलना है। दुनियाँ अपनी बनानी है।

बकौल रवि रतलामी के तीन हजार चिट्ठे हैं, उन पर भी आपसी बातें अधिक, ज्ञान कम। तो पाठक भी कम हैं। अपने काम के प्रति समर्पित कम और शौकिया अधिक। टिप्पणियों में सफलता प्राप्त करने की आकांक्षा वाले अधिक। उन की परवाह न करने वाले कम। हम अपना काम किए जाएँ। लोग अपने आप पहचानेंगे। रोज दस्तक देंगे आप के द्वारे, अगर हम अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए।

यह तकनीक और अर्थव्यवस्था का युग है। हम नहीं  देखते कि हम क्या उत्पादित कर रहे हैं? हमारा उत्पाद लोगों की जरुरतों और आकांक्षाओं के अनुरूप है या नहीं? फिर लोगों को पता भी है या नहीं कि हम उन की जरुरत का माल पैदा कर रहे हैं? हम लोगों तक पहुँचने का प्रयत्न कर ही नहीं रहे हैं। जंगल में मोर नाचा किसने देखा?

सब से पहले हमें जानना चाहिए कि हमारे श्रेष्टतम उत्पाद क्या-क्या हो सकते है? उन में कौन सा उत्पाद है, जिस की लोगों को सर्वाधिक आवश्यकता है? हम यह शोध कर लें, फिर जरुरत का माल उत्पादित करें, और इसे घर में रख कर न बैठ जाएँ।

जी हाँ अपने चिट्ठे को ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत या कुछ और एग्रीगेटरों पर दर्ज करा देना, उत्पादन को घर में डाल देना ही है। कितने नैट प्रयोगकर्ताओं को ब्लॉगवाणी चिट्ठाजगत पता है? हम ने माल पैदा किया, और घर में डाला। अब घर के मेम्बर ही एक दूसरे के माल की तारीफ कर रहे हैं, या मीन-मेख निकाले जाते हैं। एक दूसरे का माल खरीदने से रहे।

शानदार संगीत महफिल जमी है। सभी संगीतकार हैं। गाए जा रहे हैं। सिर्फ इसलिए कि कोई दूसरा उस की तारीफ कर दे, तो जीवन सफल हो जाए। नया पुराने से और पुराने नयों से तारीफ की आकांक्षा करते हैं। असली गाहक कोई नहीं। बस रियाज हो रहा है। शिष्य गा रहे हैं, उस्ताद कमी निकाल कर बता रहे हैं। यहाँ, यहाँ और यहाँ सुर और साध लो, बस फिर तुम्हारी फतह। उस्ताद गा कर बता रहे हैं, ऐसा! शिष्य साधने में लग जाते हैं। असली परीक्षा, प्रदर्शन का दिन अभी बहुत दूर है।

कुछ शिष्य थकने लगे हैं। वापस भागने लगते हैं, तो दूसरे आस बंधाते हैं और रोक लेते हैं। वे फिर रियाज में लग जाते हैं। गुरुकुल में नए-नए लोग आ रहे हैं। गुरुकुल आबाद हो रहा है। गुरुकुल को आबाद होने दीजिए। इतना, कि दूर से ही अलग दिखाई देने लगे। तब वे भी आएंगे जो सिर्फ गाहक होंगे। दुनियाँ बहुत बड़ी है। हिन्दी की दुनियाँ भी बहुत बड़ी है, और हम अभी बहुत छोटे। इतने, कि ठीक से दिखाई ही नहीं देते। बस कुछ दिखने लायक हो जाएं, कुछ हमारे पास दिखाने लायक हो जाए। फिर घर से निकलें। फेरी लगाएं, गाहक के पास जाएँ, या फिर गाहक को दुकान तक पकड़ कर लाएँ। दुकान में ऐसा कुछ होगा तो गाहक दुबारा, तिबारा और बार-बार वहाँ आएगा।

आप गाहक को लाए, और वहाँ ऐसा कुछ न हुआ कि वह दुबारा वहाँ आए, तो उसे वहाँ लाना भी बेकार ही सिद्ध होगा।

शनिवार, 24 नवंबर 2007

टंगड़ीमार को टंगड़ी मार। नाम बडी चीज है......

नाम बड़ी चीज है, इस नाम के लिए ही तो दुनियां भर में दंगम-दंगा है। हर कोई चाह रहा है, उसका नाम हो जाए। हर कोई इसी में लगा है। इस जमाने में आदमी हर चीज में शॉर्टकट ढूंढ़ता है। यह भी कोई बात हुई, जो चीज सस्तें में काला बाजार में मिल जाए उस के लिए मॉल जा कर मंहगे में खरीदें, जब कहीं जाने के लिए पांच मिनट का रास्ता हो तो पांच घंटे के रास्ते से जाया जाए। सो आदमी नाम के लिए भी शॉर्टकट ही ढूंढता है। भला आदमी नाम कमाने के लिए अच्छे-अच्छे रास्ते चुनता है और भटकता रहता है। दूसरे कई झटपट ग‍लियों में घुस जाते हैं और फटाफट नाम कर जाते हैं। भला आदमी टिपियाता रहता है।

नाम करने के कई आसान तरीके हैं। किसी रास्ते चलते आदमी के टांग अड़ा कर देख लीजिए। चलता आदमी गिर पड़ेगा, जो उसे उठाने आ गए वे उठाने के पहले पूछने लगेंगे, किस ने मारी टंगड़ी? अब हो गया न नाम। लोग फौरन जान जाएंगे कि कौन है टंगड़ीमार। अब लोग भले ही टंगड़ीमार के नाम से ही याद रखें, पर इस से क्या? नाम तो हो ही गया न।

अब इस टंगड़ीमार नाम में भी रेल की तरह अनेक क्लासें हैं। जनरल, सैकण्ड-स्लीपर से ले कर फर्स्ट-एसी तक की। वहां नियम है कि जितनी बड़ी क्लास में जाना चाहो उतने का ही टिकट खरीद लो। यहां भी ठीक ऐसा ही नियम है जितने बड़े टंगड़ीमार बनना चाहो उतने ही बड़े को टंगड़ी मार दो। अब बात अभी तक समझ नहीं आ रही हो तो उदाहरण देता हूं। छोटा नेता बनना हो तो चपरासी को झापड़ मारो और अफसर के कमरे में घुस लो, बड़ा बनना हो तो कलेक्टर का गाल आजमा सकते हो। बस शर्त ये है के उस समय हल्ला करने वाले, देखने वाले होने चाहिए जो इस को खबर बना दें। कही आस पास मीडिया हो तो सोने में सुहागा है। उनने तो फोटो खींच कर अपने अखबार में चिपकाने हैं। हर चैनल को वीडियो फुटेज चाहिए ही चाहिए हर घंटे। इस काम के लिए कोई न मिले तो अपने कैमरा-मोबाइल वाले दोस्त को पटा कर तैयार रखो। वह वीडियो फुटेज को कम्प्यूटर में उतारे और दो-तीन चैनलों को मेल कर दे। सभी चैनल अपने पास उसे एक्सक्लूसिव बताऐंगे और एक डेढ़ मिनट की फुटेज को बार-बार रिपीट कर दिखाएंगे।

अब ममता बेन को ही ले लो, उन्हें लोग पूरे जग में जानते हैं बंगाल के लिए। वे अक्सर बंगाल में अपनी टंगड़ी आजमाती रहती हैं। इन दिनों उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें, उन की तरफ किसी की तवज्जो ही नहीं थी, सब के सब कराती टंगड़ी देखने में लगे थे। वाह, कैसी टंगड़ी मारी सरदार जी को, बड़ा बुश से हाथ मिलाने चले थे। वा‍कई क्या टंगड़ी थी? साली सरकार ही गिरने को आ गई थी। मगर गिरी नहीं। अभी तक पीसा की मीनार की तरह झुकी खड़ी है। वे लगे रहे अपनी टंगड़ी की तारीफ अखबारो, चैनलों को देखने में। उन्हें क्या गुमान था कि उधर नन्दीग्राम में नक्सलियों से जो गोली-गोली, गन-गन का घरेलू ड्रामा चल रहा है उस में कोई टंगड़ी मार जाएगा। मगर बैन ने टंगड़ीमार को टंगड़ी जा ही मारी। अब कोई सरदार जी का घुटना नहीं सहला रहा। सब बैन की टंगड़ी देखने में लगे हैं।