दिसंबर 26, 2009 को इस ब्लाग पर आलेख लिखा था अब हुई छुट्टियाँ शुरू, और दिसंबर 27 को अली भाई की मजेदार टिप्पणी मिली .......
वकालत व्यवसाय है ...लत नहीं...सो छुट्टी मुमकिन है...पर ब्लागिंग लत है...व्यवसाय नहीं...कभी छुट्टी लेकर बताइये !
हाहाहा !
हाहाहा !
लत ही सही, पड़ गई सो पड़ गई। और भी कई लतें हैं जो छूटती नहीं। पर उन का उल्लेख फिर कभी, अभी बात छुट्टियों की। दिसंबर 27 को दी इतवार (दीतवार) था। बेटी पूर्वा का अवकाश। सुबह का स्नान, नाश्ता वगैरह करते-करते इतना समय हो गया कि कहीं बाहर जाना मुमकिन नहीं था। दिन में कुछ देर आराम किया फिर शाम को बाजार जाना हुआ। पूर्वा को घर का सामान खरीदना था। जाते समय तीनों पैदल गए। बाजार में सामान लेने के साथ एक-एक समोसा खाया गया। वापस आते वक्त सामान होने के कारण दोनों माँ-बेटी को रिक्शे पर रवाना कर दिया । मैं पैदल चला। रास्ते में पान की गुमटी मिली तो पान खाया, लेकिन वह मन के मुताबिक न था। पान वाले से बात भी की। वह कह रहा था। पान का धंधा हम पान वालों ने ही बरबाद कर दिया है। हम ही लोगों ने पहले गुटखे बनाए। लोगों को अच्छे लगे तो पूंजी वाले उसे ले उड़े। उन्हों ने पाउचों में उन्हें भर दिया। खूब विज्ञापन किया। अब गुटखे के ग्राहक हैं, पान के नहीं, तो पान कैसे मजेदार बने? बड़े चौराहों पर जहाँ पान के दो-तीन सौ ग्राहक दिन में हैं, वहाँ अब भी पान मिलता है, ढंग का। खैर उस की तकरीर सुन हम वापस लौट लिए। शाम फिर बातें करते बीती। भोजन कर फिर एक बार पैदल निकले पान की तलाश में इस बार भी जो गुमटी मिली वहाँ फिर दिन वाला किस्सा था। सोचता रहा कहीँ ऐसा न हो कि किसी जमाने में पान गायब ही हो ले। पर जब मैं मध्यप्रदेश और राजस्थान के अपने हाड़ौती अंचल के बारे में सोचता हूँ तो लगता है यह सब होने में सदी तो जरूर ही लग जाएगी। हो सकता है तब तक लोगों की गुटखे की लत वापस पान पर लौट आए।
उस दिन कुछ और न लिखा गया। हाँ, शिवराम जी की एक कविता जरूर आप लोगों तक पहुँचाई। वह भी देर रात को। इच्छा तो यह भी थी कि तीसरा खंबा पर भारत का विधि इतिहास की अगली कड़ी लिख कर ही खुद को रजाई के हवाले किया जाए। पर बत्ती जल रही थी। पूर्वा और उस की प्यारी माँ सो चुकी थीं। मुझे लगा बत्ती उन की नींद में खलल डाल सकती है। देर रात तक जागने का सबब यह भी हो सकता है कि सुबह देर तक नींद न खुले। अगले दिन पूर्वा का अवकाश का दिन था। हो सकता है वह सुबह सुबह कह दे कि कहीं घूमने चलना है, और मैं देर से नींद खुलने के कारण तैयार ही न हो सकूँ। आखिर मैं ने भी बत्ती बंद कर दी और रजाई की शरण ली।
सुबह तब हुई, जब शोभा ने कॉफी की प्याली बिस्तर पर ही थमाई। कोटा में यह सौभाग्य शायद ही कभी मिलता हो। मैं ने भी उसे पूरा सम्मान दिया। बिना बिस्तर से नीचे उतरे पास रखी बोतल से दो घूंट पानी गटका और कॉफी पर पिल पड़ा। हमेशा कब्ज की आशंका से त्रस्त आदमी के लिए यह खुशखबर थी, जो कॉफी का आधा प्याला अंदर जाने के बाद पेट के भीतर से आ रही थी। जल्दी से कॉफी पूरी कर भागना पड़ा। पेट एक ही बार में साफ हो लिया। नतीजा ये कि स्नानादि से सब से पहले मैं निपटा। फिर शोभा और सब से बाद में पूर्वा। पूर्वा ने स्नानघर से बाहर निकलते ही घोषणा की कि दिल्ली घूमने चलते हैं। हम ने तैयारी आरंभ कर दी। फिर भी घर से निकलते निकलते साढ़े दस बज गए। बल्लभगढ़ से 11.20 की लोकल पकड़नी थी। टिकटघर पर लंबी लाइनें थीं। ऐसे में टिकटबाबुओं को तेजी से काम निपटाना चाहिए। पर वे पूरी सुस्ती से अपनी ड्यूटी कर रहे थे। मुझे पुरा अंदेशा था कि टिकट मिलने तक लोकल निकल जाने वाली थी। पर पूर्वा किसी तरह टिकट ले आई। लोकल दस मिनट लेट थी, हम उस में सवार हो सके। नई दिल्ली स्टेशन के लिए।
स्टेशन पर से बहुत भीड़ चढ़ी। पूर्वा और शोभा चढ़ीं महिला डब्बे में मैं जनरल में। बैठने का कोई स्थान न था। गैलरी में खड़ा रहा। फरीदाबाद से दो लड़के चढ़े, बड़े-बड़े बैग लिए। भीड़ के कारण फंस गए थे वे। एक का सामान उठा कर आगे खिसकाया तो गैलरी में जगह हुई। दूसरा वहीं खड़ा रहा। उस ने बताया कि वह गाँव जा है, भागलपुर, बिहार, उस का नाम अविनाश है। यहाँ दिल्ली में बी.ए. पार्ट फर्स्ट में पढ़ता है। मैं समझा वह भागलपुर के नजदीक किसी गाँव का रहा होगा, पर उस ने बताया कि वह भागलपुर शहर का ही है। तो फिर वह बी.ए. पार्ट फर्स्ट करने यहाँ दिल्ली क्यों आया? यह तो वह वहाँ रह कर भी कर सकता था ? पर उस ने खुद ही बताया कि वहाँ दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते थे। इसलिए पिताजी ने उसे यहाँ डिस्पैच कर दिया। यहाँ दो हजार में कमरा लिया है और एक डिपार्टमेंटल स्टोर पर सेल्समैन का काम करता है। शाम तीन से ड्यूटी आरंभ होती है जो रात ग्यारह बजे तक चलती है। तीन बजे के पहले अपने क़ॉलेज पढ़ने जाते हैं। तब तक अंदर डब्बे में जगह हो गयी थी। अविनाश अंदर डब्बे में खसक लिया। उस की जगह दो और लड़के वहाँ आ कर खड़े हो गए। उन में से एक कोई बात दूसरे को सुना रहा था। वह हर वाक्य आरंभ करने के पहले हर बार भैन्चो जरूर बोलता था। कोई तीन-चार मिनट में ही मेरे तो कान पक गए। पर उसे बिलकुल अहसास नहीं था। वह उस का उच्चारण वैसे ही कर रहा था। हवन करते समय पंडित हर मंत्र के पहले ओउम शब्द का उच्चारण करता है। मैं ने उन की बात से अपना ध्यान हटाने को 180 डिग्री घूम गया। अब मेरा मुहँ अंदर सीट पर बैठै लोगों की ओर था। वहाँ सीट पर बैठी एक लड़की पास खड़े एक लड़के के साथ बातों में मशगूल थी। दोनों बांग्ला बोल रहे थे। मैं उन की बांग्ला समझने की कोशिश में लग गया।
उस दिन कुछ और न लिखा गया। हाँ, शिवराम जी की एक कविता जरूर आप लोगों तक पहुँचाई। वह भी देर रात को। इच्छा तो यह भी थी कि तीसरा खंबा पर भारत का विधि इतिहास की अगली कड़ी लिख कर ही खुद को रजाई के हवाले किया जाए। पर बत्ती जल रही थी। पूर्वा और उस की प्यारी माँ सो चुकी थीं। मुझे लगा बत्ती उन की नींद में खलल डाल सकती है। देर रात तक जागने का सबब यह भी हो सकता है कि सुबह देर तक नींद न खुले। अगले दिन पूर्वा का अवकाश का दिन था। हो सकता है वह सुबह सुबह कह दे कि कहीं घूमने चलना है, और मैं देर से नींद खुलने के कारण तैयार ही न हो सकूँ। आखिर मैं ने भी बत्ती बंद कर दी और रजाई की शरण ली।
सुबह तब हुई, जब शोभा ने कॉफी की प्याली बिस्तर पर ही थमाई। कोटा में यह सौभाग्य शायद ही कभी मिलता हो। मैं ने भी उसे पूरा सम्मान दिया। बिना बिस्तर से नीचे उतरे पास रखी बोतल से दो घूंट पानी गटका और कॉफी पर पिल पड़ा। हमेशा कब्ज की आशंका से त्रस्त आदमी के लिए यह खुशखबर थी, जो कॉफी का आधा प्याला अंदर जाने के बाद पेट के भीतर से आ रही थी। जल्दी से कॉफी पूरी कर भागना पड़ा। पेट एक ही बार में साफ हो लिया। नतीजा ये कि स्नानादि से सब से पहले मैं निपटा। फिर शोभा और सब से बाद में पूर्वा। पूर्वा ने स्नानघर से बाहर निकलते ही घोषणा की कि दिल्ली घूमने चलते हैं। हम ने तैयारी आरंभ कर दी। फिर भी घर से निकलते निकलते साढ़े दस बज गए। बल्लभगढ़ से 11.20 की लोकल पकड़नी थी। टिकटघर पर लंबी लाइनें थीं। ऐसे में टिकटबाबुओं को तेजी से काम निपटाना चाहिए। पर वे पूरी सुस्ती से अपनी ड्यूटी कर रहे थे। मुझे पुरा अंदेशा था कि टिकट मिलने तक लोकल निकल जाने वाली थी। पर पूर्वा किसी तरह टिकट ले आई। लोकल दस मिनट लेट थी, हम उस में सवार हो सके। नई दिल्ली स्टेशन के लिए।
स्टेशन पर से बहुत भीड़ चढ़ी। पूर्वा और शोभा चढ़ीं महिला डब्बे में मैं जनरल में। बैठने का कोई स्थान न था। गैलरी में खड़ा रहा। फरीदाबाद से दो लड़के चढ़े, बड़े-बड़े बैग लिए। भीड़ के कारण फंस गए थे वे। एक का सामान उठा कर आगे खिसकाया तो गैलरी में जगह हुई। दूसरा वहीं खड़ा रहा। उस ने बताया कि वह गाँव जा है, भागलपुर, बिहार, उस का नाम अविनाश है। यहाँ दिल्ली में बी.ए. पार्ट फर्स्ट में पढ़ता है। मैं समझा वह भागलपुर के नजदीक किसी गाँव का रहा होगा, पर उस ने बताया कि वह भागलपुर शहर का ही है। तो फिर वह बी.ए. पार्ट फर्स्ट करने यहाँ दिल्ली क्यों आया? यह तो वह वहाँ रह कर भी कर सकता था ? पर उस ने खुद ही बताया कि वहाँ दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते थे। इसलिए पिताजी ने उसे यहाँ डिस्पैच कर दिया। यहाँ दो हजार में कमरा लिया है और एक डिपार्टमेंटल स्टोर पर सेल्समैन का काम करता है। शाम तीन से ड्यूटी आरंभ होती है जो रात ग्यारह बजे तक चलती है। तीन बजे के पहले अपने क़ॉलेज पढ़ने जाते हैं। तब तक अंदर डब्बे में जगह हो गयी थी। अविनाश अंदर डब्बे में खसक लिया। उस की जगह दो और लड़के वहाँ आ कर खड़े हो गए। उन में से एक कोई बात दूसरे को सुना रहा था। वह हर वाक्य आरंभ करने के पहले हर बार भैन्चो जरूर बोलता था। कोई तीन-चार मिनट में ही मेरे तो कान पक गए। पर उसे बिलकुल अहसास नहीं था। वह उस का उच्चारण वैसे ही कर रहा था। हवन करते समय पंडित हर मंत्र के पहले ओउम शब्द का उच्चारण करता है। मैं ने उन की बात से अपना ध्यान हटाने को 180 डिग्री घूम गया। अब मेरा मुहँ अंदर सीट पर बैठै लोगों की ओर था। वहाँ सीट पर बैठी एक लड़की पास खड़े एक लड़के के साथ बातों में मशगूल थी। दोनों बांग्ला बोल रहे थे। मैं उन की बांग्ला समझने की कोशिश में लग गया।
आगे का विवरण कल पर दिल्ली में लिए कुछ चित्र जरूर आप के लिए ......
शीशगंज गुरुद्वारा